दुबेजी की चिट्ठियाँ : विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'
Dubeji Ki Chitthiyan : Vishvambharnath Sharma Kaushik
अजी संपादकजी महाराज,
जय रामजी की!
कहिए, देश के लीडरों की आजकल कैसी कट रही है, इसका भी कुछ पता है? कोई आंदोलन न होने के कारण बेचारे बैठे-बैठे जंग खाए जा रहे हैं। क्या करें, कोई काम ही नहीं। बड़े-बड़े लीडरों का समय तो व्याख्यान देने, लेख लिखने तथा प्रेस-प्रतिनिधियों के प्रश्नों का उत्तर देने में कट जाता है। परंतु बेचारे छुटभइयों की मिट्टी पलीद हो रही है। इन बेचारों की इतनी हैसियत भी नहीं कि स्वास्थ्य सुधारने के लिए कहीं बाहर ही चले जाएँ। अपने शहर में भला इतनी गुंजाइश तो है कि एकाध देशभक्त डॉक्टर मुफ्त में चिकित्सा करने को तैयार हो जाते हैं। बाहर जाकर यदि गले में ढोल डालकर यह मुनादी करते फिरें कि 'हम लीडर हैं! हमने देश के लिए इतने कष्ट उठाए हैं, इतने दिन जेल में पड़े रहे हैं और अब भी आवश्यकता पड़े तो तुरंत जेल में जा बैठें।' तब भी शायद ही कोई पतियाय। ऐसे व्यक्ति स्वास्थ्य सुधारने के लिए हिंदुस्तान के बाहर जाना तो दूर रहा, अपने शहर के बाहर भी नहीं जा सकते और ऐसे लीडर, ईश्वर की दया से, थोड़े नहीं हैं। इनकी संख्या बहुत है। कोई नगर ऐसा न होगा, जिसमें इनकी काफी संख्या न हो। गत आंदोलन में ऐसे लीडरों की संख्या बहुत बढ़ गई। जो कोई स्वेच्छा से अथवा पुलिस की कृपा से एक बार भी जेल चला गया, वह परमात्मा की कृपा से लीडर होकर ही निकला। और क्यों न होता? जब छूटकर आए तो स्टेशन पर स्वागत हुआ, शहर में जुलूस निकला, सभा हुई। उसमें उन्हें भी दो-चार शब्द बोलने पड़े। जेल से छूटकर घर की ओर चलते समय अपने लीडर होने में यदि कुछ शको-शुब्हा उत्पन्न भी हुआ, तो वह उपुर्यक्त बातों से बिलकुल ही निर्जीव हो गया। कुछ ऐसे महानुभाव भी थे, जो 'करघा छोड़ तमाशे जाय, नाहक चोट जुलाहा खाय' वाली कहावत के अनुसार बेगार में धर लिए गए। उन्होंने जेल ही में कसम खा ली थी कि अब ऐसे तमाशों के पास भी न फटकेंगे, जिनकी बदौलत जेल की हवा खानी पड़े। तमाशबीनी का परिणाम खराब होता है। ऐसे लोग लौटकर आए तो घर के काम-धंधों में ऐसे जुटे कि फुर्सत ही न मिले। कोई सभा-वभा देखते हैं तो कतराकर निकल जाते हैं। किसी ने पूछा भी कि 'आज सभा में चलोगे?' तो उत्तर दिया गया कि 'एक बड़ा आवश्यक काम है, उससे फुर्सत मिली तो पहुँच जाऊँगा।' परंतु बहुधा फुर्सत ही नहीं मिलती - यदि कुछ लोक-लाज का ध्यान आ गया तो सभा समाप्त होने के समय पहुँच गए। लोगों ने सूरत देख ली - बस इतना ही काफी है। इन लोगों के संबंध में अपने राम बिलकुल निश्चित हैं। यदि चिंता है तो उन लोगों की, जो कि अपने को लीडर समझते हैं या फिर उन बेचारों की, जो लीडरी के अतिरिक्त और कोई काम कर ही नहीं सकते और न करना चाहते हैं। संसार में ऐसे काम बहुत ही कम हैं, जिनमें आम-के-आम और गुठलियों के दाम खड़े हो सकें। उन बहुत कम कामों में लीडरी भी सम्मिलित है। उन बड़े-बड़े लीडरों की बात छोड़ दीजिए, जिनका 'स्वास्थ्य सुधारने के लिए' हिंदुस्तान-भर का जलवायु बहुत ही नाकिस साबित हो चुका है। भगवान जाने, हिंदुस्तान के निवासियों का स्वास्थ्य किस प्रकार अपने अड्डे पर डटा रहता है। वह तो कहिए बड़ी खैर है कि अभी मंगल-ग्रह का रास्ता नहीं मिला, अन्यथा पृथ्वी-मंडल-भर का जलवायु उनका स्वास्थ्य सुधारने में गच्ची खा जाता और उन बेचारों को मंगल ग्रह जाना पड़ता। इन लीडरों की बात छोड़ दीजिए, क्योंकि इन लीडरों की माया अपने राम जैसे साधारण व्यक्ति की समझ के बाहर की बात है। उन लीडरों की दशा पर गौर कीजिए, जिनकी लीडरी केवल शहर अथवा अधिक-से-अधिक जिले तक परिमित है। ये बेचारे स्वप्न देख रहे थे कि एक दिन वह भी आएगा, जबकि ये जिस शहर में जाएँगे, वहाँ के रईस और अमीरों में इस बात पर जूता चलने के लिए तैयार हो जाएगा कि नेता महोदय को हम अपने यहाँ टिकावेंगे। तब नेताजी एक छोटा-सा व्याख्यान देकर उस झगड़े को रफा-दफा कर देंगे। इसके पश्चात् शहर में जुलूस निकलेगा। बाजारों में, दुकानों पर, मकानों की छतों पर लोग इस प्रकार भरे होंगे, जैसे कि चारपाई में खटमल। कोई फूल बरसाएगा, कोई गुलदस्ता फेंक मारेगा; नेताजी की जय-जयकार से आकाश का कलेजा दहल उठेगा। इसके पश्चात् जनाब के फोटो खींचे जाएँगे, मानपत्र दिए जाएँगे। लोग तरह-तरह की बातें पूछने आवेंगे। प्रत्येक समय बड़े-बड़े आदमी हाथ बाँधे हुए नौकरों की तरह सामने खड़े रहेंगे। स्वास्थ्य ठीक न रहने पर भी तर माल उड़ाने पड़ेंगे। और फिर सभा की जाएगी - व्याख्यान दिया जाएगा। व्याख्यान के पश्चात् यदि नेताजी को जुकाम भी हो जाएगा तो देशभर के पत्रों में यह समाचार निकल जाएगा और सारा देश नेताजी का जुकाम अच्छा करने के लिए ईश्वर से रो-रोकर प्रार्थना करेगा। जब वहाँ से चलेंगे तो अगले स्टेशन पर स्वागत के लिए आदमी मौजूद ही रहेंगे। वहाँ फिर वही बातें। इस प्रकार अपनी जेब से एक छदाम निकाले बिना ही नेताजी आराम से सारा हिंदुस्तान घूम आवेंगे। बताइए, इस सुख के आगे स्वर्ग-सुख भी झेंप जाता है। जब स्वर्ग-सुख प्राप्त करने के लिए मनुष्य पहाड़ों की कंदराओं और जंगली जानवरों के मठों में घुसे पड़े रहते हैं, तो इस सुख की प्राप्ति के लिए यदि कभी-कभी जेल में पड़ा रहना पड़े तो क्या हर्ज है? बिना तपस्या किए स्वर्ग-सुख नहीं मिल सकता। इस सुख-प्राप्ति की तपोभूमि जेल है। सो जनाब! तपोभूमि की सैर भी कर आए। परंतु अब बाहर तो क्या, अपने ही शहर में कोई नहीं पूछता। नेताजी जूतियाँ चटकाते घूमते हैं। कोई ऐसा विषय भी नहीं, जो दूसरे-तीसरे दिन व्याख्यान ही फटकार दिया करें। अकारण व्याख्यान दें तो उनके पास उतने आदमी भी न फटकें, जितने कि परेड बाजार में ताकत की दवा और ऊसर सांडे का तेल बेचनेवालों के पास जमा हो जाते हैं। महात्माजी ने संधि करके सब गुड़ गोबर कर दिया। आंदोलन चलता रहता तो कुछ तो कद्र होती। या फिर स्वराज्य ही मिल जाए, जिससे कि जेल जाने का सर्टीफिकेट दिखाकर कोई ओहदा प्राप्त करें। इस प्रकार अधर में लटकने से तो कहीं के न रहे। इससे तो वही अच्छा था कि जेल में ही पड़े रहते - और कुछ न होता तो कीमत ही बढ़ती रहती। हारे दर्जे और कुछ न हो तो हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करें और इस प्रकार कुछ नाम कमाने का अवसर हाथ लगे। कुछ लोगों ने तो अपना बाहरी रूप और रंग-ढंग बिलकुल गांधी जैसा बनाया, परंतु फिर भी महात्माजी कैसी कद्र न हुई। अफसोस!
संपादकजी, ऐसी दशा में हमारे भूतपूर्व जेल-तपस्वी क्या करें। कोई रोजगार-धंधा करें तो उसके लिए रुपया चाहिए। दूसरे यह काम भी नेताजी की चित्तवृत्ति के प्रतिकूल है। नेताजी और रोजगार-धंधा! शिव! शिव! यही करना होता तो जेल की हवा क्या झख मारने के लिए खाई फिर! यदि ऐसा कर भी लें तो नेतापन पर हरताल पुती जाती है। वह नेता ही क्या, जो व्याख्यान देने, प्रेस-प्रतिनिधियों से बात करने के अतिरिक्त पेट के धंधे के लिए कुछ करे। जिसके लिए लोगों को प्रत्येक समय षटरस व्यंजन लिए खड़ा रहना चाहिए, वह पेट के धंधे की चिंता करे - डूब मरने की बात है। अतएव ये लोग करें तो क्या करें? कदाचित् आप कह उठें कि देहातों में घूम-घूमकर ग्राम-संगठन करें, किसानों में जागृति पैदा करें, सो जनाब, यह कहना जितना सरल है उतना सरल करना नहीं है। देहातों में घूमने में बड़ी कठिनाइयाँ हैं। उन कठिनाइयों को आप समझ ही नहीं सकते - कभी देहातों में घूमें हों तो समझें। पहली बात तो यह है कि जेल की रोटियाँ खाने; देश-सेवा करने और व्याख्यान देने के कारण नेता महोदय का हाजमा इतना खराब हो गया है कि अंगूर, सेब, संतरा, केला, अमरूद, गंडेरी, ककड़ी, दूध, दही, मक्खन, शहद इत्यादि के अतिरिक्त इन्हें कुछ हजम ही नहीं होता। ये चीजें देहातों में कहाँ धरी हैं। देहातवाले इन चीजों का प्रबंध नहीं कर सकते। हाँ, इन चीजों से भरा हुआ एक छकड़ा प्रत्येक समय नेताजी के साथ रहे तो फिर देखिए ऐसा बढ़िया ग्राम-संगठन हो, जैसा शहद की मक्खियों का होता है। इसमें संदेह नहीं कि किसान ही देश के अन्नदाता हैं और किसानों के उद्धार पर ही देश का उद्धार निर्भर है। किसानों का जीवन ही आदर्श जीवन है। देहातों की जलवायु का क्या कहना! किसानों के बराबर कोई भला-मानुष नहीं। गर्ज कि तमाम जमाने की खूबियाँ केवल किसानों में ही घुसकर रह गई हैं। साथ ही जितनी परेशानी और मुसीबत पृथ्वी पर ब्रह्माजी ने तवल्लुद की है, वह सब किसानों को ही झेलनी पड़ती है। यह सब ठीक है, परंतु उनके बीच में रहकर काम करना - यह जरा टेढ़ी खीर है। उन्हें तो दूर से ही शिक्षा दी जा सकती है। क्योंकि न तो वहाँ अंगूर और संतरे हैं, न खस की टट्टियाँ और न बिजली के पंखे और मोटरकारें। जौ-बेझर की रोटियाँ और मट्ठा कौन खाए? छकड़ों पर कौन सवार हो? जलती हुई धूप में कौन घूमे? अंगूर की जगह महुए और संतरे की जगह कैथा! सो डॉक्टर दोनों चीजों को स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकर बताते हैं। जौ-बेझरा कैसे हजम होगा, गेहूँ तो हजम होता नहीं। फल और दूध-मक्खन के अतिरिक्त और कुछ खा ही नहीं सकते। जौ-बेझरा खाना होता तो जेल क्या बुरा था, जहाँ किसी भी समय (कोई कानून तोड़कर) खा सकते हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ जो व्याख्यान देंगे, उनको प्रेस में कौन भेजेगा? जंगल में मोर नाचा, किसने देखा? तमाम जमाने भर की लियाकत खर्च कर दीजिए, मगर दाद देनेवाला कोई नहीं। कोई बात जरा भी उल्टी पड़ जाए जो उजड्ड किसान सिर की खाज मिटाने को तैयार हो जाएँगे। वहाँ का खेल तो कभी-कभी का ही ठीक है। और वह भी इस तरह कि चार दिन पहले से कहला भेजा कि अमुक दिन नेताजी पधारेंगे। उनके लिए पावभर मक्खन और मक्खन के लिए मिश्री हो, शक्कर न हो, दो सेर दूध और जितने प्रकार के फल मिल सकें वे सब प्रस्तुत रहें। क्योंकि इसके अतिरिक्त और कुछ खाएँगे तो लौटकर आना कठिन हो जाएगा। इस प्रकार तैयारी करके नेताजी एक दिन मोटरकार अथवा रेल द्वारा देहात में पहुँचे। लोगों से जय बुलवाई, पैर छुवाए, और एक व्याख्यान में उनको संगठित होने की शिक्षा देकर, स्वराज्य में सर्व-सुख प्राप्ति का सब्जबाग दिखाकर और जमींदारों तथा सरकार को कोसकर वापस आ गए। शहर में आकर किसी चेले द्वारा प्रेस में अपने दौरे तथा व्याख्यान की रिपोर्ट भिजवा दी - बस ग्राम संगठन और किसानों की जागृति का पहाड़ खुद गया। शहर में जब कभी व्याख्यान देना पड़ा तो यही रोना रोना पड़ता है कि आप लोग किसानों का संगठन कीजिए। कहते किससे हैं? व्यापारियों से, नौकरी-पेशावालों से? जिन्हें पेट के धंधे से ही छुट्टी नहीं। अपने लिए तो शहर का संगठन ही ठीक है। देहात का संगठन दूसरे करें! सो फिलहाल शहर के संगठन का काम भी पिलपिलाया हुआ है। ऐसी दशा में इन नेताओं के लिए कोई काम नहीं रह गया, दिनभर बैठे चर्खा चलावें, यह भी असंभव है। चर्खा चलाना तो वैसा ही है, जैसा भगवान् का पूजन करना। घंटे-आध घंटे काफी है। समय पर कसम खा सकते हैं कि हम नित्य चर्खा चलाते हैं। अपनी जीविका उपार्जन करने के लिए चर्खा चलाना बड़ा कष्ट-साध्य है। चर्खा तो दूसरों से ही चलवाना ठीक है या फिर महात्माजी चर्खा चला सकते हैं और यदि नेता लोग दिन भर चर्खा ही चलाने लगेंगे, तो बस फिर भगवान् मालिक है। जनता को शिक्षा कौन देगा?
ये सब कठिनाइयाँ नेता लोगों के सामने हैं। संपादकजी आप ही बतावें, इन कठिनाइयों से निकलने की क्या युक्ति है?