दोष किसका ? (निबंध) : महादेवी वर्मा

Dosh Kiska ? (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

यदि किसी ऐसे सम्बन्ध की कल्पना की जावे जो एक व्यक्ति से दूसरे को दूर रखते हुए भी उन्हें निकट से निकट पहुँचाने में समर्थ हो, व्यक्तित्व के आकर्षण के बिना भी उनमें सहानुभूति और स्नेह की सृष्टि कर सके तथा अन्य लौकिक सम्बन्धों के अभाव में भी उन्हें बौद्धिक और साहित्यिक बन्धन में बांध सके, तो सब से प्रथम हमारा ध्यान सम्पादक तथा उसके बृहत् लेखक और पाठक परिवार की ओर जायगा। एक ओर ऐसा व्यक्ति है, जो अपने एक मस्तिष्क के विचारों को अनेक मस्तिष्कों तक पहुँचा देने का इच्छुक है, अपने एक हृदय पुकार को अनेक हृदयों में प्रतिध्वनित कर देने के लिए आकुल है। दूसरी ओर ऐसा मानव समुदाय है, जो प्रत्येक समस्या का समाधान करने से पहले उस पर दूसरों के विचार जान लेना चाहता है, अपनी सोती हुई प्रेरणा को जगाने के लिए, बिखरे भावों को एकत्र करने के लिए तथा किसी भी विशेष दिशा में अग्रसर होने के लिए औरों से साहाय्य और संकेत की अपेक्षा करता रहता है ।

सम्पादक इन दोनों के बीच का दूत है; परन्तु ऐसा, जो एक के विचारों तथा उद्गारों का मूल्य और अन्य व्यक्तियों के मस्तिष्क तथा हृदय पर उनके अच्छे या बुरे प्रभाव का निर्णय करता है। वह न देने योग्य अपथ्य के विष को अपने ही तक सीमित रख कर देने योग्य पेय को सुन्दर से सुन्दर पात्र में अन्य व्यक्तियों को समर्पित करता है । वास्तव में वह अपने बृहत् परिवार का ऐसा बड़ा बूढ़ा है, जो परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से अपना स्नेह और अपनी सहानुभूति बाँटता है; परन्तु किसी को भी उनका दुरुपयोग नहीं करने देता । सुन्दर भविष्य के सन्देश-वाहक छोटे से अंकुर की प्राण के समान रक्षा करने वाले तथा बड़ी से बड़ी, उच्छृङ्खल और उपवन के सौन्दर्य को घटा देने वाली शाखा को काट देने वाले माली के मोह और विराग के समान ही उसका प्रेम और उसकी कठोरता है। किसी भी अवस्था में उनकी दृष्टि अपने केन्द्र बिन्दु लोक-कल्याण से नहीं विचलित होती ।

उसके उत्तरदायित्व को देखते हुए यह समझना सहज हो जाता है कि यह कार्य किसी दुर्बल, साहसहीन तथा समय के प्रवाह में प्रत्येक लहर के साथ बह जाने वाले या किनारे पर बैठ कर उन्हें गिनते रहने वाले व्यक्ति का नहीं है, वरन् उस साहसी का है, जो प्रवाह में उतर कर भी स्थिर रहकर उसकी गहराई की थाह ले सके तथा अन्य बहने वालों को सहारा दे सके।

केवल संगृहीत कर देने के अर्थ में सम्पादक का प्रयोग चाहे पुराना हो; परन्तु इस हलचल से भरे युग में उसकी परिभाषा विशेष रूप से नवीन है । इस समय हमें यह आवश्यकता नहीं कि हमारे सम्पादक महाभारत जैसे महाकाव्य को सम्पादित करने के भगीरथ प्रयास में लग जावें; परन्तु यह उनके कर्त्तव्य की पूर्ति के लिए अनिवार्य है कि वे उन भावनाओं और विचारों को सर्वसाधारण तक पहुँचा सके, जो सुन्दर भविष्य के अग्रदूत हो सकते हैं तथा उन संस्कारों को मिटाने का प्रयत्न करें जिनसे प्रगति में बाधा पड़ती है ।

हिन्दी पत्रों की संख्या के अनुसार उनके सम्पादकों की संख्या भी न्यून नहीं, जिसमें पुराने-नये, अनुभवी अनुभवहीन, शिक्षित- अर्धशिक्षित, उत्तरदायित्वयुक्त - उत्तरदायित्वशुन्य, सभी प्रकार के व्यक्ति मिल जाते हैं। प्रायः लोगों की यह धारणा देखी जाती है कि इनमें अधिक संख्या अधिकारियों की या ऐसे व्यक्तियों की है, जो किसी भी कार्य के उपयुक्त न होने के कारण इसी क्षेत्र में आ गये हैं। इसे सुन कर हम अप्रसन्न हो सकते हैं परन्तु केवल हमारा अप्रसन्न हो जाना ही तो इस कथन को असत्य नहीं प्रमाणित कर सकता। यदि विचार किया जाय तो इस धारणा में सत्य का नितान्त अभाव न जान पड़ेगा ।

हम प्रत्येक क्षेत्र में छोटे से छोटे कार्य के लिए भी कर्ता में उन गुणों को पहले देख लेते हैं, जिनसे वह कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हो सकता है, परन्तु आश्चर्य का विषय है कि सम्पादन जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए उपयुक्त पात्रता जांचने की हमारे पास कोई कमौटी नहीं । हिन्दी में कुछ उत्तेजनापूर्ण लिख-पढ़ लेने के अतिरिक्त सफल सम्पादक होने के लिए और भी विशेष गुण की आवश्यकता हो सकती है. इस ओर हमारा प्रायः ध्यान नहीं जाता। अतः यदि कुछ ऐसे व्यक्ति इस क्षेत्र में प्रवेश पा गये हैं, जिनके दुर्बल कन्धे इस गुरु भार को सँभाल नहीं सकते, तो आश्चर्य की बात नहीं । आश्चर्य तो तब होता है, जब ऐसी अवस्था में भी हम अपने यहाँ सुयोग्य सम्पादकों का नितान्त अभाव नहीं पाते ।

प्रत्येक दुरवस्था के समान इसके भी कारण हैं। प्रथम तो इसका उत्तरदायित्व हमारे प्रतिकूल वातावरण और कठोर परिस्थितियों पर है, जो हमें अपने भावी जीवन के लिए उद्देश्य या लक्ष्य स्थिर करने का अवकाश ही नहीं देती और यदि हम किसी प्रकार ऐसा करने में समर्थ हो गये तो उस उद्देश्य की सिद्धि के लिए हमें साहस और शक्ति एकत्र करने की सुविधाएँ तथा साधन नहीं मिलते।

हमारे जीवन में बेकारी तथा उससे सम्भूत दरिद्रता ने ऐसा डेरा डाल रखा है कि उससे छुटकारा पाने के लिए किसी कार्य को स्वीकार करते समय अपनी पात्रता अपात्रता पर विचार करना कठिन ही नहीं, असम्भव हो उठता है । इसके अतिरिक्त अधिकांश पत्र, व्यवसायी समुदाय के हाथ में है, जिनके लिए लोक कल्याण की चिन्ता उतनी स्वाभाविक नहीं है, जितनी अपने व्यवसाय सम्बन्धी हानि लाभ की । अतएव उन्हें सिद्धान्तवादी योग्य व्यक्तियों से अधिक उनकी आवश्यकता होती है, जिनके द्वारा जनसाधारण का सस्ता मनोरंजन हो सके । यहाँ तक तो परिस्थितियों का दोष कहा जा सकता है, जिन पर मनुष्य कभी विजय पा लेता है और कभी नहीं । यदि पा लेता है तो परिस्थितियाँ उसकी इच्छानुसार अपने आपको बदल लेती हैं और यदि नहीं पाता, तो उसे अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल बनाना पड़ता है। आवश्यकता के अनुसार कोई मनुष्य चाहे मोची का काम करने पर बाध्य हो चाहे न्यायाधीश का, उसे दोष देना अनुचित होगा; परन्तु दोषी वह तब ठहराया जा सकता है, जब न वह मोची का कार्य ठीक-ठीक करने का प्रयास करे न न्यायाधीश का । परिस्थितियाँ हमें अप्रिय कर्तव्य स्वीकार करने पर अवश्य ही वाध्य कर सकती हैं परन्तु उनमें इतनी शक्ति नहीं कि वे हमें सच्चाई और मनोयोग के साथ उस कर्तव्य के पालन से रोक सकें ।

कोई केवल सम्पादक के आसन पर आसीन होकर ही अपने कर्तव्य की पूर्ति नहीं कर लेता, जैसे नश्तर हाथ में आ जाने से ही कोई डाक्टर नहीं हो जाता। रोगी के एक-एक स्वस्थ रोम से ममता तथा केवल दूषित अंग को दूर करने की क्षमता ही चिकित्सक को चिकित्सक कहलाने का अधिकार देती है। इसी प्रकार समाज के स्वस्थ विकास की ओर प्रयत्नशील तथा उस विकास की गति को रुद्ध कर देने वाली बाधाओं को दूर करने में तत्पर व्यक्ति ही सम्पादक का उत्तरदायित्व वहन करने की शक्ति रखता है। प्रत्येक कर्त्तव्य के समान इस गुरु कार्य में भी कर्त्ता के हृदय तथा मस्तिष्क दोनों को परिष्कृत और विकसित होना चाहिए, क्योंकि संकीर्णता कर्त्ता और कर्तव्य के लिए सब से बड़ा अभिशाप सिद्ध होती है। एक ओर उसमें इतनी सहानुभूति, इतनी उदारता की आवश्यकता है जिससे वह किसी भी दुर्बलता को उपहास के योग्य न समझे और दूसरी ओर इतना ज्ञान कि उसका निदान तथा दूर करने के उपाय जान सके । इस प्रकार अक्षय सहानुभूति द्वारा अपने विस्तृत परिवार का आत्मीय बनने के उपरान्त वह बहुत ही सरलतापूर्वक दूसरों के स्वस्थ मानसिक विकास में सहायता दे सकता है, जो उसके कर्त्तव्य का मुख्य लक्ष्य तथा दृष्टि का केन्द्र बिन्दु कहा जा सकता है।

संकीर्ण हृदय की संकुचित दृष्टि केवल अपने अधिकार तथा उनसे होने वाले व्यक्तिगत हानिलाभ तक ही परिमित रह सकती है और संकीर्ण विचारों वाला अदूरदर्शी अपनी उलझी धारणाओं से दूसरों की समस्या को और भी जटिल बना देता है ।

सम्पादक विशेष राजनीतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में काम करता है, अतः यह प्रश्न कि उसे इनसे संबंध रखने वाले प्रत्येक विषय का वैसा ही ज्ञान होना चाहिए या नहीं, जैसा उन विषयों के विशेषज्ञों को होता है, कुछ कम महत्त्व नहीं रखता। प्रत्येक वस्तु का व्यावहारिक ज्ञान उसके विज्ञान अंग से भिन्न किया जा सकता है, यह हम जानते हैं । यदि ऐसा न होता, तो साधारण व्यक्ति बिना विशेषज्ञ हुए कोई कार्य ही न कर सकता । फिर जब एक ही विषय की विशेषज्ञता में जीवन बीत सकता है, तब एक ही जीवन में अनेक विषयों का विशेषज्ञ होना सम्भव भी नहीं । जल, पवन, वनस्पति आदि के उपयोग तथा उनके गुण या अवगुणों का ज्ञान सब के लिए आवश्यक है; परन्तु वे किन उपकरणों से बने हैं, उन उपकरणों को कैसे भिन्न किया जा सकता है आदि की विवेचना और खोज उन विषयों से अनुराग रखनेवाले विज्ञानाचार्यों के लिए सुरक्षित रहती है।

साहित्यिक, सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियाँ परस्पर अन्योऽन्यापेक्षी हैं, क्योंकि साहित्य, समाज तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं को प्रभावित करता रहता है और वे साहित्य में अपने आपको प्रतिबिम्बित करती रहती हैं। अतएव सम्पादक राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र आदि का विशेषज्ञ चाहे न हो; परन्तु उसका इन विषयों के व्यावहारिक रूप से अनभिज्ञ होना अनुचित ही नहीं, हानिकर भी होगा। समाजशास्त्र या अर्थशास्त्र के किसी सिद्धान्त विशेष की खोज, उसका ध्येय न होने पर भी, उनका विकास क्रम और उनके द्वारा समाज विशेष में परिवर्तन, उसके ज्ञातव्य रहेंगे । साहित्य में भी कोई विशेष विस्मृत घटना खोज निकालना या ऐसा ही अन्य कार्य चाहे उसका लक्ष्य न हो; परन्तु साहित्य की जीवनदायिनी शक्ति, उसका युगान्तरगामी प्रभाव तथा भविष्य के निर्माण में उसकी उपयोगिता आदि के विषय में न जानना उसकी अदूरदर्शिता ही होगी ।

कहा जाता है कि शिक्षक का आसन उसी के लिए है जो निरन्तर विद्यार्थी बना रह सके। सम्पादक के लिए भी यह सत्य है । उसका कर्त्तव्य इतना गुरु उसका लक्ष्य इतना ऊँचा है तथा उसके साधन इतने अपूर्ण हैं कि जीवन भर जिज्ञासु विद्यार्थी बने बिना वह न किसी को कुछ दे सकता है और न अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है । हमारे वर्तमान सम्पादक - परिवार में थोड़े ही व्यक्ति ऐसे होंगे जो मित्रों की प्रशंसा, अमित्रों की निन्दा और विरोधियों पर अशिष्ट आक्षेप वर्षा से कुछ समय निकाल कर अपने कर्त्तव्य के अनुरूप अध्ययन में उसे व्यतीत करते हों ।

संसार के महान् से महान् परिवर्तन के, बड़ी से बड़ी क्रान्ति के तथा भयावह से भयावह उथल-पुथल के सन्मुख भी उन्हें व्यक्तिगत कलह और आक्षेपों में उलझा देख कर किसे आश्चर्य न होगा। उनके इस स्वभाव से लोग इतने अधिक परिचित हो उठे हैं कि कितने ही सम्भ्रान्त व्यक्ति, अपनी यह धारणा भी व्यक्त करते हुए संकोच का अनुभव नहीं करते कि जो व्यक्ति सभा में अशिष्ट, मित्रों में अनुदार तथा असहनशील और व्यवहार में कलहप्रिय हो, उसे हिन्दी का साहित्यकार या सम्पादक समझना चाहिए। यह सम्मान क्या निकृष्ट से निकृष्ट लेखक या सम्पादक को भी शोभा देगा ! परन्तु तब तक इसका उत्तर ही क्या दिया जा सकता है, जब तक हमारा प्रत्येक कार्य उनके कथन का प्रमाण बनता जा रहा है, और हमारे जीवन का प्रत्येक दिन हमें आगे बढ़ाने की अपेक्षा पीछे लौटा रहा है।

इसमें सन्देह नहीं कि सम्पादकों के मार्ग में ऐसी बाधाएँ । हैं, जो उनके विकास को चारों ओर से घेरे रखना चाहती हैं; परन्तु यदि उनमें साहस और आत्म सम्मान हो, संगठित शक्ति हो, संसार को अपनी आवश्यकता का अनुभव करा देने योग्य दृढ़ता हो, तो बाधाएँ उनकी गति की बेड़ियाँ नहीं बन सकतीं, व्यवसायी जगत् उन्हें कठपुतली का नाच सिखाने का साहस नहीं कर सकता और प्रतिकूल परिस्थितियाँ उन्हें मोम के खिलौनों की तरह गला-गला कर नये-नये रूप रंगों से नहीं सजा सकतीं । व्यक्तिगत दुर्बलताओं, व्यावसायिक परिस्थितियों के अतिरिक्त सम्पादकीय जीवन को विषाक्त बना देने का कारण लेखकों और सम्पादकों में विश्वास तथा सद्भावना की कमी भी है। सम्भव है, इस विषय में कोई एक पक्ष अधिक या कम दोषी हो; परन्तु दोष दोनों ओर है इसमें सन्देह नहीं । हमारा आधुनिक लेखक अपने प्रथम प्रयास को सम्पादक द्वारा तुरन्त ही असंख्य व्यक्तियों तक पहुँचा देने को आकुल हो उठता है । वह किसी प्रकार भी यह विश्वास करना नहीं चाहता कि संसार की दृष्टि में उसके प्रथम प्रयास का मूल्य कुछ नहीं भी हो सकता है। जीवन का प्रथम प्रयास अस्फुट क्रन्दन के अतिरिक्त और क्या होता है ! चलने का प्रथम प्रयास लड़खड़ाने और गिरने उठने के अतिरिक्त क्या होता है ! फिर लिखने का प्रथम प्रयास ही क्यों इतना पूर्ण, इतना सुन्दर और इतना कल्याणमय समझा जावे कि उसका संसार की दृष्टि से छिपा रहना दुर्भाग्य माना जाय ।

प्रत्येक कला के समान साहित्य भी एक साधन है, जिसमें जीवन की सुन्दरतम अभिव्यक्ति सम्भव हो सकती है; परन्तु यह मान लेना कठिन हो जाता है कि अभिव्यक्ति का प्रथम प्रयास ही उस कसौटी पर खरा उतर सकता है। ऐसे नवीन लेखकों को जब तक अपने सब प्रकार के उद्गारों के, विशेष सजधज से, पत्र के किसी कोने में विराज जाने की आशा रहती है उनके समान, सम्पादक-स्तोत्रपाठी व्यक्ति ढूँढ़ निकालना कठिन हो जाता है । परन्तु इस आशा के नष्ट होते ही उनके निकट सम्पादक का रूप उसी प्रकार परिवर्तित हो जाता है, जैसे स्वर्णमृग क्षण भर मे मारीच हो गया था। व्यक्तिगत रूप से जिन कटु सम्मतियों के लिए वे कृतज्ञ होते हैं, वे ही सम्पादक से सम्बद्ध होकर पक्षपात से विषैली जान पड़ने लगती है । यह सत्य है कि अनेक सम्पादक भी नवीन लेखकों के साथ न विशेष सहानुभूति रखते हैं और न उनकी रचनाओं की ओर आवश्यक ध्यान ही देते हैं, परन्तु प्राय इस व्यवहार का कारण निस्सार रचनाओं की अधिकता भी होती है ।

जो व्यक्ति नित्य २० लेखों में से १५ में कोई सार नहीं पाता उसकी ऐसी धारणा बन जाना असम्भव तो नहीं कहा जा सकता, परन्तु हानिकारक अवश्य है । जो व्यक्ति पाँच पंक्तियों का पत्र शुद्ध नहीं लिख सकता, उसका पच्चीस पृष्ठ का लेख भेजना अपने प्रति भी अन्याय है और सम्पादक के प्रति भी, क्योंकि उसका साहित्य की आराधना में परिश्रम से जी चुराना, सम्पादक में भी यही दुर्बलता उत्पन्न कर देता है ।

आधुनिक युग में अपने व्यक्तिगत जीवन में मनुष्य जितना परतन्त्र है, उससे दस गुना अधिक सम्पादकीय जीवन में है । वह, पत्र की नीति, पाठकों की रुचि, अपनी आवश्यकता, संचालकों के व्यावसायिक दृष्टिकोण आदि से इस प्रकार ढक जाता है कि हम कठिनाई से वाह्य आवरण को भेद कर उसके व्यक्तित्व तक पहुँच पाते हैं । यदि उसमें अपने उत्तरदायित्व के अनुसार दृढ़ता, साहस तथा आत्मविश्वास होता, तो सम्भव है यह परिस्थितियाँ बदल जातीं; परन्तु दुर्भाग्य से उसकी दुर्बलता ही अन्य गुणों के रिक्त स्थानों को भरती रहती है ।

लब्धप्रतिष्ठ लेखकों से भी उसका ऐसा सम्बन्ध नहीं जो स्पृहणीय समझा जा सके। जिनको उसकी सहायता की आवश्यकता है उनकी वह अवहेलना करता है और जिनकी उसे आवश्यकता है वे उसकी उपेक्षा करते हैं। नवीन लेखकों से जैसा अनुनय-विनय उसे प्राप्त होता है, वैसा ही उसे प्रख्यात लेखकों को देना पड़ता है, अत: उनके संबंध में किसी प्रकार की आत्मीयता और सहानुभूति उत्पन्न ही नहीं हो पाती। यह तो प्रत्येक निष्पक्ष व्यक्ति स्वीकार कर लेगा कि हमारे लेखकों के पास शुद्ध साहित्यिक जीवन व्यतीत करने के साधन कम हैं और असुविधाएँ असंख्य हैं। पत्र, पत्रिका आदि अपनी वृद्धि के लिए उनकी सहायता तथा सहयोग अवश्य चाहते हैं; परन्तु उन्हें अपने विकास के लिए किसी प्रकार की सहायता या सुविधा देना अपना कर्त्तव्य नहीं समझते। कितने ही लेखक हमारे साहित्य के लिए अमूल्य निधि सिद्ध होते, यदि आर्थिक कठिनाइयों ने उनका मार्ग रुद्ध न कर दिया होता।

परन्तु इस दशा का उत्तरदायित्व केवल सम्पादक पर न डाल देना चाहिए, क्योंकि वह तो स्वयं ही अपनी असुविधाओं से पंगु हो चुका है। यदि सम्पादकों में अपने गुरु भार को वहन करने की क्षमता उत्पन्न हो सके, उनमें तथा लेखकों में सहानुभूति तथा विश्वासपूर्ण अटूट सम्बन्ध स्थापित हो सके और उनकी शक्ति संगठित हो सके, तो हमारी अधिकांश आपत्तियाँ दूर हो जावें । यदि हम अपनी ही दुर्बलता से आगे नहीं बढ़ सकते हैं, अपनी ही अदूरदर्शिता से भविष्य के संकेत को नहीं देख पाते हैं, अपने ही स्वार्थीप्रिय स्वभाव से सहयोगियों को साथ नहीं ले रहे हैं और आप ही अपने शत्रु हो रहे हैं तो किसी अन्य को अपनी आपत्तियों का कारण समझ लेना एक और दुर्बलता को आत्मसात् कर लेना होगा ।

हम क्या करें और कैसे करें, इस पर विचार करने का समय पीछे आता है; पहले अपने अभाव का तथा उस अभाव को दूर करने के साधन का स्पष्ट बोध तो होना चाहिए ।

जो देश की एक बड़ी संख्या के मस्तिष्क के लिए भोजन प्रस्तुत करते हैं, उनका अज्ञान और उनकी भ्रान्ति देख कर किसे विस्मय न होगा। पिंजरबद्ध मूषक को देख कर संसार को इतना कौतूहल नहीं होता, जितना पिंजरबद्ध सिंह को देख कर होता है ।

हम स्वयं ही अपनी उन परिस्थितियों का निर्माण कर लेते हैं, जो आगे चल कर हमारे भावी जीवन को ढालती हैं । अतः अपनी दुर्दशा के कारण भी हमी हैं ।

('क्षणदा' से)

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