दूसरी राय (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Doosri Ray (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

मैं बिल्ली की तरह दबे पाँव कमरे में घुसा, दरवाजे का ताला खोला और माचिस की तीली रगड़कर लालटेन जलायी। मैं नहीं चाहता था कि माँ की नींद खुल जाये, इसलिए हॉल के दूसरी तरफ खिड़की के पार बने अपने कमरे का रास्ता मैंने इस तरह पार किया जैसे जंगल में शिकारी, उसके शिकार को खबर न लग जाये, इसलिए पेड़-पौधों और झाड़-झंखाड़ को बहुत ही सावधानी से, जरा भी आवाज न हो जाये, इसलिए एक-एक कदम रखकर आगे बढ़ता है। जैसे ही अपनी कोठरी में घुसकर भीतर से उसका दरवाजा बंद किया, वैसे ही वह आठ गुणा दस फीट की यह छोटी-सी जगह मेरे लिए बहुत बड़ी, बिलकुल मेरी अपनी दुनिया बन गयी। इसकी ढालू छत की टाइलों में सब तरह के कीड़े-मकोड़े डेरा जमाये थे, परदों से मकड़ी के जाले लटक रहे थे, पुराने जमाने से लटके कैलेंडरों के पीछे से छिपकली और गिरगिट निकल-निकल कर इधर-उधर रेंगते बेचारे छोटे-छोटे जंतुओं को लपक-लपककर निगलने-खाने में लीन थे-जिससे वे अपने जीवन की अगली योनियों में तुरंत प्रवेश कर जायें। यहाँ प्राप्त मृत्यु के बाद वे अधिक विकसित प्राणी बनकर जन्म लेंगे, और इस तरह अनेक जीवनों से गुजरकर पहले बंदर, फिर मनुष्य और इसके बाद जीवन के अंतिम पड़ाव सर्वोच्च और अविभाज्य परम आत्मा में लीन हो जायेंगे। अपने इस दृष्टिकोण के कारण, जो विविध शास्त्रों को पढ़ने और उन्हें अधकचरे ढंग से समझने का परिणाम है, मैं इस स्थान की झाड़-बुहारू की आवश्यकता नहीं समझता। इसलिए मैंने कभी किसी को अपने कमरे, या कोठरी की सफाई करने की अनुमति नहीं दी।

इसी प्रकार कमरे के बाहर पीतल की थाली में रखे मेरे रात के भोजन को भी कभी मैंने हाथ लगाने की आवश्यकता नहीं समझी, जब तक कि मुझे बहुत भूख न लगी हो। भूख मुझे लगती भी कैसे, क्योंकि दिन भर मैं बोर्डलेस रेस्त्रां में कॉफी पीता रहता था, वह भी बिना एक भी पैसा दिये। बात यह थी कि कॉफी मेरी तरफ खुद आती रहती थी। वर्मा हर दो घंटे बाद कॉफी का प्याला मैंगाकर पीता रहता था, जिससे उसे पता चलता रहे कि उसका जायका बिलकुल सही बना रहे, किचेन के लोग उसमें कोई मिलावट या चालबाजी तो नहीं कर रहे हैं। अपने साथ वह मेरे लिए भी बराबर कॉफी मॅगवाता रहता, इसलिए नहीं कि वह मेरा सत्कार कर रहा है, बल्कि इसलिए कि कॉफी की गुणवत्ता के बारे में उसे जैसा मेरे डॉक्टर हमेशा मानते रहे हैं, कोई 'दूसरी राय' भी प्राप्त की जा सके।

यहाँ मैं विषय से जरा-सा हटकर मालगुडी मेडिकल सेंटर के डॉ. किशन के बारे में भी कुछ बता देता हूँ। पिछले दिनों, जब मैं अपने को घर के लिए मददगार साबित करने में यकीन करता था, मैं अपनी माँ को डॉक्टर साहब के पास ले जाया करता था। इस पुराने-धुराने घर को विरासत में प्राप्त करके हमें भले ही बहुत-सी परेशानियाँ झेलनी पड़ती रही हों, इसका यह लाभ जरूर था कि यह बड़ी अच्छी जगह पर बना था। मुख्य मार्केट रोड के समांतर ही कबीर स्ट्रीट है और उससे जुड़ी बहुत-सी गलियाँ हैं जिनसे आप चाहें तो तुरंत डॉक्टर साहब के यहाँ या सब्जीमंडी पहुँच सकते हैं। मेडिकल सेंटर शहर के बिलकुल बीच में था, और यह बात डॉक्टर साहब हमेशा आपकी जीभ या छाती की परीक्षा करते समय बताते ही थेक्योंकि तब आप उनसे कोई तर्क-वितर्क नहीं कर सकते थे। 'आप देखिये, दूसरे डॉक्टरों से यहाँ इतनी ज्यादा भीड़ क्यों रहती है क्योंकि शहर के सब मुहल्लों से इसकी दूरी बिलकुल एक-दूसरे के बराबर है।"

बराबर दूरी की सूचना देने के तुरंत बाद वह विषय पर आ जाता, 'मैंने जाँच कर ली है और मेरे ख्याल से बीमारी यह है. फिर भी आप चाहें तो दूसरी राय भी ले लें।' मेरा मानना है कि वर्मा का दृष्टिकोण भी यही था। कॉफी का हर प्याला चखने के बाद भी वह निश्चय नहीं कर पाता था और हमेशा मेरी राय लेता था। इस तरह लोग आते रहते, और देर शाम को छह बजे वाला दल आता था। जो हॉल के एक कोने में बैठकर उस दिन की शहर की सारी सूचनाओं का आदान प्रदान करते कॉफी पीते रहते, और मुझे भी हमेशा इस चर्चा में आग्रहपूर्वक शामिल करते-जिसका नतीजा यह होता था कि मैं हर रात काफी देर से घर पहुँच पाता था। इसलिए पीतल की थाली में रखी हुई सामग्री के लिए मेरी भूख क्या, इच्छा भी मर जाती थी।

दूसरे दिन बहुत तड़के एक नौकरानी यह बर्तन उठाने आती थी। इसकी उम्र दस साल थी, काले गोल गालों में चमकती हुई आँखें, बहुत सफेद दाँत, सिर पर चुटिया, जिसमें एक लाल रंग का रिबन लटकता रहता था। मुझे यह लड़की बहुत अच्छी लगती थी और मैं सोचता कि अगर मैं कलाकार होता तो इसका ऐसा चित्र बनाता जो दुनिया में मशहूर हो जाता। उसे पता था कि वह मुझे अच्छी लगती है, इसलिए वह मेरे कमरे में बेखटके घूमती रहती थी। बर्तन को उठाकर वह कहती, 'अरे, खाना छुआ तक नहीं!"

'चुप... धीरे बोल', मैं कहता, तो वह शैतानी से मुस्कराकर कहती, 'अच्छा ठीक है...' लेकिन मैं जानता था कि अगले मिनट ही यह दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण खबर बन जायेगी। खबर पाते ही माँ आ धमकतीं और मुझसे जवाब माँगतीं, फिर कहतीं, 'अगर यह इसी तरह चलता रहेगा तो पता नहीं क्या होगा. मैंने खासतौर पर तुम्हारे लिए खीरा काटा और उसकी सब्जी बनाई लेकिन तुम हो कि उसे बरबाद करने में एक मिनट नहीं लगाया. । तुम्हें क्या पसंद है और क्या नहीं, यह तो बताओ। बताओगे भी नहीं और खाओगे भी नहीं। 'मुझे उनकी बातों से तब तक कोई परेशानी नहीं होती, जब तक वे बाहर से ही कहती-सुनती रहें, कमरे के भीतर न घुसें। मैं दीवाल से पीठ टिकाये, चटाई पर बैठा चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा और सोचता रहा कि निस्पृह रहने के अपने दर्शन पर आचरण करना कितना कठिन है! सिद्धार्थ ने अच्छा किया कि रात को जब सब लोग सो रहे थे, तब ज्ञान-प्राप्ति की तलाश में चुपचाप घर छोड़कर चल पड़े। अपने ढंग से मैं भी ज्ञान की तलाश कर रहा हूँ, भले ही अब तक बंधनों में ही जकड़ा हूँ। साँझी छत, विवाह-जो होना ही है-, सब तरह के उत्तराधिकार और जीवन की सब साधनसामग्रियाँ, ये सब मनुष्य के लिए बंधन ही तो हैं। अपनी इस धारणा के अनुसार मैंने सबसे पहले मेज-कुर्सी का परित्याग किया था, और कहा जाये तो घर की समान छत का भी त्याग कर दिया था, क्योंकि मेरा कमरा सारे घर से बिलकुल अलग था। यह सब कर पाना आसान नहीं हुआ था।

मेरे पिता के घर में बहुत से अलग-अलग हिस्से थे, जैसे वह बड़ी भीड़ के लिए बनाया गया हो। घर का मुख्य द्वार कबीर स्ट्रीट पर खुलता था और पीछे का द्वार सरयू नदी पर, जो घर से थोड़ी ही दूर, बड़ी सुस्त चाल से बहती थी। यद्यपि मेम्पी पहाड़ियों पर जब वर्षा होती तो वह बड़ी गरज के साथ बहने लगती थी और दूर से यह आवाज सुनायी देती थी। घर के पीछे का दरवाजा खोलकर वहाँ कुछ देर बैठना और नदी को देखना ही सौंदर्य की दृष्टि से तो अच्छा था, और मधुर संगीत की तरह नदी की धारा की कलकल भी अच्छी लगती थी, लेकिन द्वार के पीछे पिछले कई दशकों में इतने झाड़-झंखाड़ उग आये थे और इतना कूड़ा-करकट इकट्ठा हो गया था कि नदी अब हमारी पहुँच से बाहर हो गयी थी। मैंने अपनी माँ को यह कहते हुए सुना है कि उनके बचपन में नदी एक तरह से घर का हिस्सा ही थी और कबीर स्ट्रीट का हर घर पीछे के दरवाजों से इस तक पहुँच सकता था, लोग वहीं नहाने-धोने और बर्तनों में पीने का पानी भरते थे, शाम को पुरुष इसके रेत पर बैठकर गपशप करते और पूजा-पाठ करते थे।

यह तब की बात है जब घरों में पानी के कुएँ नहीं खुदे थे। माँ कहती थी: 'तब नदी हम लोगों के काफी पास हुआ करती थी, अब यह हमसे दूर चली गयी है। जब घरों में कुएं खुद गये तो लोग आलसी हो गये और उसकी उपेक्षा करने लगे, इसलिए वह हमसे दूर चली गयी है। उन दिनों तो आप पीछे के द्वार से हाथ निकालो और नदी को छू लो, यह हालत थी। लेकिन तुम्हें पता है कि इलमान स्ट्रीट से तो नदी अब भी बिलकुल सटी बह रही है-क्योंकि वे लोग उसकी परवाह करते हैं। उन्होंने नदी तक सीढ़ियाँ बना ली हैं और उसकी इज्जत करते हैं। कार्तिक में वे दीये जलाकर उस पर तैराते हैं.। हमारी सड़क के लोग तो आलसी हो गये हैं और उसकी परवाह नहीं करते। उन दिनों मैंने तेरे पिता से घर में कुआँ न खुदवाने की जिद की थी, दूसरों ने भी फिर यही किया था.।" माँ कुएँ खोदने वाले को कभी माफ नहीं कर पायी थीं।

'लेकिन माँ हम कुएँ से जो पानी लेते हैं, वह भी तो नदी का ही पानी है...।"

'इसका क्या मतलब है? कैसे है?'

इस पर मैं उन्हें समझाता कि धरती के भीतर जो पानी होता है वह भी आसपास की नदियों का ही पानी होता है, और इस तथ्य के दर्शन और कविता से प्रेरित होकर मैं अंत में कहता, 'देखो, जमीन के नीचे जो पानी होता है वह सैकड़ों-हजारों घन फीट पानी, एक-दूसरे से जुड़ा पानी का एक अति विशाल भंडार है, इसी तरह जैसे तुम कहती हो कि दुनिया की इस ओर, उस ओर हर चीज में ब्रह्म का ही विस्तार है.।' वह मेरी बात को काटकर बीच में ही कहतीं, 'पता नहीं तुझे क्या हुआ है! मैं पानी की एक सीधी-साधी बात कहती हूँ और तू है कि खलीफा की तरह भाषण देने लगता है... ।'

उन दिनों मैं घर के पिछवाड़े, जहाँ बहुत बड़ा आँगन और रसोई से गुजरता लंबा बरामदा था, जिससे जुड़ा स्टोर और भोजनघर था, अपना बहुत-सा समय बिताता था। माँ का तो पूरा ही समय यहीं बीतता था। तब मुझे कोई काम तो होता नहीं था, इसलिए मैं वहीं खंभे के सहारे बैठा माँ से बातें करना रहता था और आधुनिक विषयों की उनकी जानकारी बढ़ाया करता था। लेकिन उसे मेरी थ्योरियों में कोई रुचि नहीं थी। हम दोनों एक-दूसरे से बिलकुल विपरीत थे। नदी की बात के अलावा और सभी बातों में भी मैं, बुद्धिवादी होने के नाते, उसके विचारों से सहमत हो ही नहीं सकता था।

कई दफा मुझे बहुत पेरशानी भी होती थी। माँ मुझे शांति से नहीं रहने देती थी। हॉल के इस पार पश्चिम दिशा में मेरी छोटी-सी कोठरी थी। दूसरे सिरे पर पिता का कमरा था। वे दिन भर वहीं बैठते थे और मैं सोचता था कि उनके चारों ओर दीवालों के साथ बनी अलमारियों में बड़ी-बड़ी किताबों की जो कतारें लगी रहती थीं, उनको पढ़ते रहते हैं-तमिल, संस्कृत और अंग्रेजी में मजबूत जिल्दों में बँधी दर्शन इत्यादि की किताबें, उपनिषद् इत्यादि और इन पर शंकर, रामानुज इत्यादि द्वारा किये भाष्य तथा विश्व-गुरुओं की बहुत-सी कृतियाँ इनके अलावा ईसाई धर्म, प्लेटो और सुकरात की मोटी-मोटी जिल्द बन्द रचनाएँ। मेरे लिए यह जानने का कोई साधन नहीं था कि वे इन ग्रन्थों का कितना उपयोग करते हैं।

उनका कमरा मेरी पहुँच से बाहर था। वे हमेशा जमीन पर पालथी मारकर जमीन पर बैठते, सामने एक टीन की ढलवाँ डेस्क रखी होती, जिस पर एक बहुत बड़ी, मोटी किताब-सी होती, जिसे मैं अपने अज्ञानवश दर्शन की पोथी समझता था और सोचता था कि पिता इन बातों में कितनी रुचि लेते हैं। बहुत बाद में, बड़े होने पर मेरी समझ में आया कि यह अति महान पोथी वास्तव में हिसाब किताब का रजिस्टर था, जिसमें वे हर समय जोड़ बाकी गुणा भाग करने में व्यस्त रहते थे। उन्हें बहुत सारी बातों के हिसाब रखने पड़ते थे-जैसे हमारे खेतों खलिहानों में काम करने वाले गाँववालों को दी जाने वाली रकम का हिसाब, लोगों को कर्ज के रूप में दी जाने वाली रकमों का हिसाब और किसी मंदिर के ट्रस्ट या बच्चों के नाम बैंक खातों का हिसाब। घर के सामने बने बड़े चबूतरे पर बहुत से लोग शांतिपूर्वक बैठे इन्तजार करते कि कब उनका नम्बर आये और वे भीतर जायें, इसके बाद उनसे देर तक बातचीत होती, कागजों पर दस्तखत कराये जाते और मोटे-मोटे मजबूत हैंडिल वाली तिजोरी में से निकालकर अच्छी तरह गिनकर उन्हें दिये जाते। तिजोरी तीन फुट के करीब ऊँची थी और एक तरह से पिता के जीवन का हिस्सा थी। इससे बाहर पैसा निकलता और दस्तखत किये कागजात इसके भीतर जाते।

पिता के देहान्त के बाद ही मैंने यह तिजोरी खोली थी और इसे खोलने में मुझे बड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। उसमें मिले कागजों की जाँच से मुझे पता लगा कि बड़े-बड़े ग्रंथों की यह लायब्रेरी पिता को किसी गरीब विद्वान् आत्मा ने गिरवी के तौर पर दी थी, जिसे फिर वह कभी छुड़ा ही नहीं सका। पिता ने उनका कभी कोई उपयोग नहीं किया था, वे किताबों को कभी-कभी साफ जरूर करते रहते थे, जिससे जब कभी वे वापस देनी पड़ें तो सही हालत में बनी रहें। लेकिन मेरे लिए ये किताबें ईश्वर का वरदान ही साबित हुई। जब-जब वे स्नान करने बाहर नदी पर जाते, जहाँ वे पूजा-पाठ में बहुत समय लगाते थे, तब मैं चुपचाप उनके कमरे में घुस जाता और चुपचाप उन्हें देखता रहता। वे बहुत समय तक मुझे ये किताबें पढ़ने को नहीं देते थे। कहते, 'तुम्हें क्या पता, इनमें क्या लिखा है! फिर उन्होंने मुझे एक किताब ले जाने की अनुमति देना शुरू किया, लेकिन बहुत-सी हिदायतों के साथ, जैसे कवर को पूरा कभी मत खोलना, आधा हटाकर ही देख लेना जिससे इनकी क्रीज खराब न हो जाये-याद रखना, इन्हें बहुत अच्छी हालत में वापस करना है।'

उनके कहे के अनुसार मैं हमेशा एक ही किताब चुनता। मुझे उनका स्पर्श, वजन और खुशबू, सब कुछ बहुत अच्छे लगते-कई किताबों की एक जैसी सीरीज थी, 'लायब्रेरी ऑफ वल्ड थॉट' के नाम से। मैं अपने कमरे में गद्दे के ऊपर बैठकर इन्हें ध्यान से देखता और पढ़ने की कोशिश करता। मैं यह नहीं कह सकता कि उनमें लिखा मेरी समझ में आता था। मेरी शिक्षा की सही भूमिका या अनुशासन कुछ भी नहीं था, क्योंकि मैं तीन बार प्रयत्न करके भी मैट्रिक की परीक्षा पास नहीं कर सका था। पिताजी के देहान्त के बाद तो मैंने पढ़ना ही छोड़ दिया, क्योंकि मुझे अचानक यह ज्ञान हुआ कि परीक्षा पास करने की कोई जरूरत ही नहीं है। चौथे प्रयत्न के बाद मैंने पढ़ना बन्द कर दिया और कोर्स की सब किताबें और कापियाँ टॉड पर ऊपर फेंक दीं।

यह टाँड बड़े कमरे में छत से कुछ नीचे लकड़ी का बना था। इस पर सही निशाना लगाकर कोई भी बेकार चीज फेंकी जा सकती थी। यहाँ पहुँचकर उस चीज का अस्तित्व मिट जाता था। अगर किसी चीज की जरूरत पड़ती तो सीढ़ी लगाकर इस पर चढ़ा जाता था और उकड़ें बैठकर धीरे-धीरे उसकी तलाश करनी पड़ती थी। कभी-कभी सिर्फ सफाई करने के उद्देश्य से इस पर चढ़ा जाता था। लेकिन इस समय कई साल से ऐसा कोई काम नहीं किया गया था। हालांकि सामान इस पर फेंका ही जाता रहता था। पहले दिनों में माँ किसी हट्टे-कट्टे आदमी को छाँटकर इस पर चढ़ातीं और जरूरत की कोई चीज, जैसे कोई बर्तन-माँ अपनी शादी के समय अनेक वर्ष पहले नयी बहू के रूप में जो बहुत-से ताँबे और पीतल के बर्तन लायी थीं, वे सब इस टॉड पर ही रखे हुए थे-निकलवाती या उसे साफ करातीं। इसके अलावा उस पर लेजर रजिस्टर बेकार लैंप, टूटा-फूटा फर्नीचर, ट्रक में भरे कपड़े, चटाइयाँ, कम्बल और न जाने क्या-क्या अल्लम-गल्लम भरा था। जब माँ पर सफाई का जुनून चढ़ता तो मुझे डर लगने लगता था, क्योंकि वह हमेशा मुझे भी इस काम में लगा देती थीं। पहले तो मैं उसकी सहायता करता रहा, फिर मैंने बचना शुरू कर दिया। वह मुझे सुनाकर कहतीं, 'जब वे जिन्दा थे, तब उनके एक आदेश पर सब काम में लग जाते थे. तब मैं बड़े आराम से सारा काम करवा लिया करती थी।' जब माँ इस तरह वहाँ खड़ी-खड़ी, हाथ उठा-उठाकर शिकायत करती, तब मैं भाग लेने में ही भलाई समझता था। मैं कमरा बंद करके भीतर बैठ जाता और जब उसकी आवाज आनी बन्द हो जाती, तभी बाहर निकलता था। वह एक जगह ठहर नहीं सकती थी। इस कमरे से उस कमरे में घूमती रहती और हर कोने में देखती कि उसमें क्या है? कभी उसे शक होता कि नौकरानी कहीं सो तो नहीं गयी, तो कई एकड़ में फैले उस विशाल मकान में वह सब जगह उसे ढूँढ़ती फिरती। उसे हमेशा किसी-न-किसी बात की चिंता बनी ही रहती थी, अगर नौकरानी को ढूँढ़ना न होता तो उसे पीछे मैदान में बने कुएँ की याद आ जाती और वह उसे देखने दौड़कर जाती कि कहीं पानी भरने वाली रस्सी कुएँ के भीतर तो नहीं गिर पड़ी है, वह ऊपर लोहे की घिरनी के साथ कसकर तो बँधी हुई है। 'अगर रस्सी कुएँ में गिर गयी हो तो... !' इसके परिणामों पर वह विस्तार से विचार करती और सोचती, कि पहले तो ऐसे कामों के लिए बहुत-से लोग हुआ करते थे, अब कौन बाजार जाकर नयी रस्सी खरीदेगा और कौन कुएँ में उतरने वाले को बुलाकर लायेगा, जो हुक से सही ढंग से रस्सी बाँध सके, जिससे वह फिर भीतर न गिर पड़े।

हर दिन मेरे लिए परीक्षा का दिन होता था। मैं उसे बरदाश्त नहीं कर पाता था। वह जब नौकरानी पर बिगड़तीं तो उनकी डॉट-फटकार और चिल्ला-चौथ की आवाजों से मेरी नसें फटने लगती थीं। मैं कमरे के भीतर घुसकर उसका दरवाजा कसकर बन्द कर लेता। मुझे शान्ति चाहिए होती कि मैं जो भी किताब उस समय मैं पढ़ रहा होता, जैसे रामकृष्ण परमहंस की जीवनी, मैक्समूलर के अनुवाद या प्लेटो की 'रिपब्लिक'-उसे आगे और पढ़ता रह सकू-इन विद्वानों के विचारों में डूबना बड़े सौभाग्य की बात थी। इनके लिए शब्दों और वक्तव्यों को पढ़कर उनका अर्थ निकालने में बड़ी मेहनत करनी पड़ती थी, इन्हें समझना आसान न था। लेकिन इन सबका मतलब जो भी कुछ रहा हो, यह तय है कि ये सब आत्मा की गरिमा को स्वीकार करते थे जिसके कारण मुझे सिर से पैर तक अपना पूरा परीक्षण करना पड़ता और सोचना होता, 'सम्बू, कौन हो तुम? तुम वह प्राणी नहीं हो जिसकी ठोड़ी पर जरा-जरा-सी नुकीली दाढ़ी उग आयी है, जिसके घुटने पर घाव का निशान है, जिसके अंगूठे का नाखून टूटकर नीला पड़ गया है. तुम इससे कहीं अच्छा सामग्री से बने हुए हो।" मैं कल्पना में अनंत आसमान में फैले ग्रह-उपग्रहों और उनके अनेक बड़े-बड़े पिंडों के सतत आवागमन के बीच अपना मार्ग बनाता यात्रा करता, जिससे अपने इस कमरे की धूलभरी दीवालों और खिड़की के बाहर कबीर स्ट्रीट के शोर-शराबे और गर्द गुबार की में उपेक्षा कर स्वतंत्र, प्रसन्न हो सकता था। मैं यह दृश्य देखता होता, कि तभी दरवाजे को जोर से भड़भड़ाने की आवाज मेरा स्वप्न तोड़ देती और उसकी कर्कश आवाज़ सुनायी देती, 'अरे, तुझे इस तरह दरवाजा बंद कर बैठने की क्या जरूरत है ? अब यहाँ कौन है जो तेरी या किसी और की शांति को भंग करे ? पहले की बात और थी जब. अब तू किससे बचना चाहता है?'

मैं चुप बैठा देखता रहता। मैं जानता था कि माँ युद्ध के लिए तैयार है, लेकिन मैंने अपने जीवन में अभी युद्ध को प्रवेश नहीं करने दिया था। अपने सिर के चारों तरफ प्रभा-मंडल की तरह बिखरे भूरे बालों और आँखों से चमकती चिनगारियों के कारण वह डरावनी लगने लगती थी। मैं बहुत डर जाता और सोचता कि जरा सा गलत कदम उठाने से आग की लपटें निकलने लगेंगी।

मैं नहीं जानता कि पिताजी की मृत्यु के छह महीने बाद उसमें इतना परिवर्तन कैसे आ गया। पहले कुछ समय तक तो वह दुखी और उदास रही, बहुत कम बोलती और पूजा-पाठ में लगी रहती, हलकी-मद्धिम ध्वनि में भजन गाया करती। घर का सब इन्तजाम भी वह शान्तिपूर्वक करती रहती, कहाँ-क्या हो रहा है, इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देती थी। उसने मुझे भी काफी अकेला छोड़ दिया था, बस कभी-कभी मुझे यह कह देती कि पढ़-लिखकर बी.ए. पास कर ली तो अच्छा है। उन दिनों में पिताजी से जुड़े बहुत से आलतू-फालतू लोग घर में इधर-उधर पड़े ही रहते थे। जब तक वे यहाँ रहे तब तक माँ पीछे रहकर ही काम-काज देखती रहीं और उनका व्यवहार भी बहुत शांत रहा। फिर जब मैंने एक-एक करके सबको घर से बाहर कर दिया, जिसमें आखिरी आदमी एक पागल इंजीनियर था-जो अपने भाइयों से बचने के लिए, जो उसे जहर देना चाहते थे, यहाँ रहने लगा था, और जिसे मकान से निकालने के लिए पड़ोसियों और एम्बुलेंस के ड्राइवर की मदद लेनी पड़ी थी-इसके बाद माँ ने चैन की साँस ली थी, और शायद यह मान लिया था कि अब वह जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र है।

इसके बाद उन्होंने मेरे खिलाफ पहला काम यह किया कि पिताजी के कमरे में ताला लगा दिया। इससे मैं स्तब्ध रह गया, क्योंकि इससे किताबों तक मेरी पहुँच खत्म हो गयी थी। वह चूंकि जयादातर घर के बीच वाले हिस्से में रहती थीं, इसलिए जब कभी मैं किसी किताब को देखना चाहता, मुझे चाबी माँगने के लिए उसके पीछे-पीछे भागना पड़ता। पहले तो वह साफ मना कर देती और कहती, 'पहले अपनी स्कूल की किताबें पढ़ो और इम्तहान पास करो। डिग्री लेने के बाद ये बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ने का बहुत समय मिलेगा। और ये तो तुम्हारी समझ में भी नहीं आयेंगी। पता है, तुम्हारे पिताजी क्या कहते थे? कि ये किताबें उनकी समझ में बिलकुल नहीं आतीं। अब बताओ...।"

'बताऊँ क्या, वे ठीक ही कहते थे। किताबें उनकी पीठ के पीछे होती थीं.।' इस पर माँ एकदम नाराज हो जाती और कहती, 'इस तरह बड़ों का मजाक नहीं उड़ाते, इन्होंने तुम्हें पाल-पीस कर बड़ा किया है।'

यह कहकर वह नाटकीय ढंग से पीछे मुड़ती और मुझे उसकी चिरौरी करनी पड़ती, 'माँ, चाबी दे दो.दे दो न।' तब मैं काफी छोटा था, इसलिए निरुत्साहित नहीं होता था। अंत में वह कहती, 'लो, लेकिन किताबों को गड़बड़ मत करना. बड़े जिद्दी हो तुम. इससे आधी भी मजबूती अगर तुम पढ़ने में दिखाते।' उसकी इस बात से मुझे सख्त चिढ़ थी। वह इम्तहान और डिग्री को इतना जरूरी क्यों समझती है? उसके सोचने-समझने का ढंग पुराना है। उसकी बहन के मद्रास वाले बेटे ग्रेजुएट थे और मेरी पढ़ाई को लेकर उसे सगे-सम्बंधियों में शर्मिदा होना पड़ता था। मेरे आखिरी तौर पर पढ़ाई खत्म करने से पहले जब भी मैं मैट्रिक में फेल होता, वह चीखतीं, 'फिर फेल हो गये. बेवकूफ.गधे! शर्म करो।'

मैं भी चीखकर जवाब देता, 'फिर मैं क्या करूं ? तुम समझती हो कि नम्बर बाजार में खरीदे जा सकते हैं?'

इस तरह की कुछ कहा-सुनी के बाद वह एक कोने में बैठकर रोने लगती, कोई और काम न करती, न कमरे में जाकर भगवान् के सामने रोज की तरह दीया ही जलाती। सारे घर पर मातम-सा छा जाता, चारो तरफ चुप्पी फैल जाती, सब काम-काज बन्द हो जाते। इतने विशाल घर में हम सब पत्थर की मूर्तियों की तरह चलते-फिरते। इस वातावरण में मैं बहुत परेशान होकर बाहर कहीं भी सुकून पाने को निकल पड़ता-लायब्रेरी में, या बाजार में, या कालेज के खेल के मैदान में, और सबसे ज्यादा बोर्डलेस रेस्त्रां में, जहाँ साथियों के साथ मैं समय बिता सकता था।

पहले की तरह आज जब मैं बोर्डलेस रेस्त्राँ से घर लौटा, उसमें औधेरा नहीं छाया था, बल्कि हॉल में रोशनी जलती हुई पायी। मैं चकित रह गया। मैं अपने कमरे की तरफ कुछ कदम बढ़ा, फिर रुक गया। हॉल में मुझे बातचीत की आवाजें सुनायी दीं। माँ सबसे ज्यादा जोर से बोल रही थी, जैसे वह अपनी युवावस्था में बोलती होगी। कह रही थीं, 'मेरा बेटा बुरा नहीं है, उसे बुरा बनकर दिखना अच्छा लगता है। अगर हम गम्भीरता से बात करें तो वह मेरा कहा मान लेगा।" दूसरी आवाज काफी खुरखुरी थी, कह रही थी, 'तुम्हें उसे इतनी आजादी नहीं देनी चाहिए थी, जवान लड़के बुरा-भला समझते ही नहीं, यह काम उनके बड़ों का होता है।'

मैं संकुचित होने लगा, सोचने लगा कि बिना आवाज किये अपने कमरे में कैसे पहुँचूं और कैसे दरवाजे का ताला खोलें, उसका खटका सुनकर अगर उन्हें पता लग गया कि मैं आ गया हूँ तो उनका ध्यान मेरी तरफ पलट जायेगा। मेरा कमरा बरामदे में आखिर में था और खिड़की से होकर गुजरते ही मैं उन्हें दिख जाऊँगा। मैं बहुत परेशान हो उठा। अब बोर्डलेस वापस जा नहीं सकता था।

इसलिए मैं घर के बाहर बने चबूतरे पर खम्भे से टिककर बैठ गया, वहीं पैर फैला लिये और जरूरत पड़ी तो सारी रात यहीं बिताने का निश्चय करके इन्तजार करने लगा, क्योंकि उनकी बातचीत से यह नहीं लगता था कि वह कभी खत्म भी होगी। खुरखुरी आवाज कह रही थी, लेकिन यह इतनी रात तक रहता कहाँ है?' जवाब में माँ ने कहा, 'कभी यहाँ कभी वहाँ, ज्यादा वक्त तो वह लायब्रेरी में गुजारता है, उसे किताबों का बहुत शौक है।" मुझे खुशी हुई कि माँ ने यह बात कही। मैं नहीं जानता था कि मेरे बारे में उसकी इतनी अच्छी राय है, तो वह मुझे अपने मन में चाहती भी बहुत होगी-हालाँकि ऊपर से उसने यह कभी प्रकट नहीं किया। मेरे लिए यह बिलकुल नयी जानकारी थी। मुझे लगा कि उठकर चिल्लाऊँ, 'माँ तुम कितनी अच्छी हो, जो मेरे बारे में ऐसा सोचती हो। तुमने मुझसे अब तक यह कहा क्यों नहीं ?' लेकिन में शांत बना रहा।

उसने पूछा, 'लेकिन वह करना क्या चाहता है?'

'अरे, ' माँ ने कहा, 'उसकी कुछ बड़ी योजनाएँ हैं लेकिन उनके बारे में वह बताता नहीं। वह बड़ा गहरा और भावुक है। वह चाहता है कि बहुत बड़ा विद्वान् बने। इसलिए वह शिक्षित लोगों के साथ ज्यादा समय बिताता है.।"

'मेरी बेटी भी बहुत विद्वान् है। किताबें ही पढ़ती रहती है...।"

'सम्बू के पिता जो बड़ी-बड़ी किताबें छोड़ गये थे, वे सब उसने पढ़ ली हैं। कई दफा मुझे उसके हाथ से किताबें छीननी पड़ जाती हैं जिससे वह नहाधोकर खाना खा ले। किसी एम.ए. पास ने भी इतनी ज्यादा किताबें नहीं पढ़ी होंगी।'

'मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता कि वह जिंदगी में क्या करता है लेकिन कोई पोजीशन या नौकरी होने से आदमी की इज्जत बढ़ जाती है।' इस बात के समर्थन में उसने एक संस्कृत का श्लोक भी बोला। 'खैर, मैं बस यही चाहूँगा कि वह अच्छा पति साबित हो। मेरी जायदाद में मेरी बेटी का हिस्सा.' इसके बाद उसकी आवाज फुसफुसाहट में बदल गयी और इसी तरह सब लोग बात करने लगे।

सवेरे जब माँ दरवाजे की सीढ़ियाँ साफ करके दहलीज़ को धोने के लिए, जो पिछले हजार साल से लोग करते आये हैं, बाहर आयीं तो चबूतरे पर मुझे सोता देखकर दंग रह गयी। रात को सोचते-सुनते, किसी वक्त मुझे नींद आ गयी होगी। मेरा ख्याल है कि रात में बहुत देर तक वे अपनी पुरानी यादों को ताजा करते रहे और उस जमाने की किसी बेवकूफी पर ठट्टे मारकर हँसते भी रहे। मैंने अपनी माँ को इस तरह बेतहाशा हँसते कभी नहीं देखा था। मुझे लगता है कि अपने रिश्तेदारों और संगीसाथियों के लिए माँ का व्यक्तित्व बहुत ही अलग किस्म का था, जबकि मेरे साथ उनका खतरनाक रूप से गंभीर और हुक्म चलाते रहने का डायरेक्टर-जनरल का रूप ही प्रकट होता था। मैंने यह बेवकूफी ही की थी कि ऐसी सार्वजनिक जगह पर जाकर सो गया, जहाँ मुझे कभी भी कोई पकड़ लेता? यह सौभाग्य की बात रही कि अतिथि पीछे के द्वार से ही निकलते बैठते रहे और वहीं से बाहर भी गये। अगर वे मुझे मुख्यद्वार पर लेटा देख लेते तो यही सोचते कि मैं जरूर नशे में धुत्त घर आया होऊँगा और मेरे साथी द्वार पर मुझे छोड़कर चले गये होंगे। लेकिन यह भी अच्छा ही होता, यदि वे मुझे यहाँ सोते देख लेते, क्योंकि तब मेरी माँ की मेरे बारे में बघारी हुई सब शेखी की हवा निकल जाती।

माँ ने मुझे हड़बड़ाकर जगाया, कहा, 'सड़क पर सो रहा है। अरे, लोग क्या कहेंगे! तू अपने कमरे में क्यों नहीं गया? जरूर तू बहुत देर से लौटा होगा. लेकिन इतनी देर तक तू करता क्या रहा?"

उसकी आवाज में जबरदस्त डर था। शायद यह शक भी था कि में जरूर शराब पिये था और यही नहीं, गलत काम भी कर रहा था-दरअसल उन दिनों कस्बे में नए खुले नाइट क्लब, 'किस्मत' की बड़ी चर्चा थी-न्यू एक्सटेंशन में कहीं यह खुला था-और नौजवान इसमें अपने रातें गुजारने जाने लगे थे। जरूर कोई इसका जिक्र कर रहा होगा, और यह बात माँ के कान में पड़ गयी होगी। मैं अधजागा हो रहा था और उसने फुसफुसाते हुए मुझसे कहा, 'तू पहले अपने कमरे में चल.।"

'क्यों?" उठकर बैठते हुए मैंने पूछा।

'मैं नहीं चाहती कि लोग तुझे यहाँ पर देखें.।"

'जब मैं आया तब तुम किसी से बातें कर रही थीं, इसलिए मैं यहाँ..." मैं उसके भरोसे लायक जवाब नहीं दे पाया।

उसने कसकर मेरो बाँह पकड़ लो और भीतर खोजने लगो... शायद उसे लगा कि मुझे मदद की जरूरत है। मैं सीधा कमरे की तरफ भागा और भीतर पहुँचकर दरवाजा बंद कर लिया और फिर सो गया. मैं सोच रहा था कि कहीं मैंने सचमुच यह तो नहीं कह दिया कि मैं 'किस्मत' गया था।

फिर मैं काफी देर बाद उठा। रात के मेहमान का कहीं कोई निशान नहीं था, इसलिए मुझे शक होने लगा कि मैं सपने तो नहीं देख रहा था। जब मैं काफी पीने गया तो माँ ने खुद ही बताया, वे तो रात की बस से ही चले गये। मैंने चुपचाप उनकी बात सुन ली और कोई सवाल-जवाब नहीं किये। यह शायद इसलिए क्योंकि मैं महसूस कर रहा था कि मुश्किल समय आने वाला है। हम बीच वाले आँगन में बैठे थे, जहाँ मैं कुएँ पर हाथ-मुँह धोकर कॉफी पीने आ गया था। इस वक्त हम लोग ज्यादा बातचीत नहीं करते थे और जब मैं रसोई के दरवाजे पर आ जाता, तभी वह मेरी कॉफी रख देती थी। इस वक्त इससे ज्यादा हमारा संबंध नहीं होता था और वह न भी बोलती, जब कोई विशेष बात होती-जैसे हाउसटैक्स का मसला या सामान सप्लाई करने वाले या दूधवाले की कोई शिकायत। मैं चुपचाप उसकी बात सुनता, कॉफी खत्म करता और कमरे में जाकर कपड़े पहन तैयार होकर बरामदे के रास्ते से बाहर निकल जाता। लेकिन आज कॉफी खत्म होते ही वह बोली, 'नौकरानी अभी तक नहीं आयी है। अब वह भी नखरे लेने लगी है।" मैंने सुन लिया पर कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि यह छोटी-सी हँसमुख लड़की मुझे सुननी पड़ती थीं।

इसके बाद माँ ने कहा, 'चले मत जाना. यहीं रहना... ।' इसके बाद वह हल्का-सा मुस्करायी, आज उसका व्यवहार बहुत ही मीठा लग रहा था। कल रात के उसके हँसी-ठट्टे को याद कर मैं बहुत परेशान हो उठा। उसमें कुछ परिवर्तन होता लग रहा था, क्योंकि मुस्कराना कभी उसके व्यवहार का अंग नहीं रहा था, वह उसके चेहरे पर बनावट ही लगता था, जैसे मोम से उस पर चिपका दिया गया हो। में उसके मन की थाह लेना चाहता था लेकिन ले नहीं पा रहा था-दरअसल उसके चेहरे पर कसाव, खों-खों और भों-भों ही सही लगते थे। मैंने कहा, 'आज मुझे जरूरी काम है और जल्दी पहुँचना है।'

'कैसा काम?" यह उसने ऐसी शैतानी मुस्कराहट से कहा कि मैं डर गया। मैं उसके सामने बहुत से बहाने पेश कर सकता था-जैसे, वर्मा द्वारा खजाने की खोजहर सोमवार वह प्लेंचेट से प्राप्त बहुत से संदेश लाता था जिनमें पहाड़ों में छिपे किसी पुराने खजाने के मार्ग-सम्बन्धी संकेत बताये गये थे और वह इनके बारे में मुझसे बातचीत करता था, या यह कि मुझे कालेज के एक छात्र को जैन-दर्शन के बारे में एक लेख देना है या म्युनिसपल कौंसलर को उसके अगले भाषण के बारे में पाइंट्स बताने हैं। मैं जानता था कि इन सभी बातों को माँ अनसुना कर देगी, इसलिए मैंने यही कहा, 'आज मुझे कई काम हैं-इन्हें तुम नहीं समझोगी।" पहले वह इस बात पर भड़क उठती, 'नहीं समझेंगी... तुम कैसे जानते हो? कभी कोशिश की है?... तुम्हारे पिता मुझसे कुछ नहीं छिपाते थे।' लेकिन आज उसने यही कहा, 'कोई बात नहीं। मैं भी नहीं कहूँगी कि मुझे बताओ, ' यह कहकर वह चुप हो गयी। जाहिर था कि मेहमान के सामने उसने जो अच्छा व्यवहार किया था, उस पर वह कायम है। मेरी परेशानी और भी बढ़ गयी क्योंकि वह नाटक कर रही थी और मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ऐसी क्या बात है!

फिर वह मेरे साथ कमरे तक गयी और बोली, 'मेरी बात सुनकर चले जाना। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा।" वह नीचे चटाई पर बैठ गयी और मुझे भी अपने पास बिठा लिया जिससे मैं ध्यान से उसकी बात सुन सकूँ। मैं बहुत बेचैन होने लगा था। इस वक्त वह बैठती नहीं थी, सारे घर में नौकरानी को साथ लिये घूमती, सफाई करतीकरवाती, कपड़े धुलवाती, और ऐसे दूसरे कामों में व्यस्त रहती थी। लेकिन आज वह सब काम छोड़कर, पता नहीं क्या जरूरी बात लेकर, मुझे परेशान कर रही थी।

लेकिन वह बात सामने आने में देर नहीं लगी। उसने पूछा, 'जानते हो कौन आये हैं?' मैं समझ गया कि मुझे किधर ढकेला जा रहा है। मैं विचलित होने लगा था। तभी मैं उसकी ठोड़ी पर एक सफेद बाल देखकर चकित रह गया। क्या उसे इसका पता है? जानती हो तो इसे लिये उसका घूमना मेरी समझ में नहीं आया। इसे देखकर मुझे गिरवी रखे ग्रंथों में पढ़ा यह शब्द याद आया। 'सफेद बाल वाली मुर्गी की..." मुझे यह भी याद आया कि उसने मेहमान के सामने मेरे ज्ञान की बड़ाई की थी। कुछ देर इन्तजार करने के बाद कि मैं कुछ कहूँ-(उस समय शेक्सपियर की कुछ पंक्तियाँ मेरे मन में घूम रही थीं-या ये कॉलरिज की पंक्तियाँ थीं?) उसने बताया, 'ये हमारे गाँव के सबसे अमीर आदमी हैं-सौ एकड़ में चावल और नारियल, और नारियल के पेड़ों से ही एक लाख रु. की आमदनी है. और जानवर... हमारे दूर के रिश्तेदार हैं।' इसके बाद वह कई पीढ़ियों से चली आ रही रिश्तेदारियों के एक-दूसरे से सम्बन्धों का हवाला देकर और पचासों लोगों के नाम ले-लेकर इस खास रिश्ते के महत्व को बताती रही। बड़े विस्तार से उसने ये सब बातें बतायीं। मुझे ताज्जुब भी हुआ कि उसके दिमाग में कितनी सारी जानकारियाँ जमा हैं। उसने यह भी बताया कि अमुक व्यक्ति कहाँ का रहने वाला है और अब कहाँ जाकर बस गया है, और ये जगह उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक बिखरी हुई हैं। इस लंबी चोटी वाले मेहमान का महत्व बताने के लिए उसने जिस विद्वतापूर्ण ढंग से तथ्यों का विवरण दिया, उन्हें सुनकर मैं विस्मित हो उठा। मुझे 'दि एनशेन्ट मेरिनर' के चरित्र 'शायी के मेहमान' की याद हो आयी। अचानक उसकी पूरी कहानी मेरे दिमाग में घूमने लगी और उसकी कई पंक्तियाँ भी एक के-बाद एक मुझे याद आने लगीं। जब मेरा दिमाग इन बातों से जूझ रहा था, तब अपनी कहानी का उपसंहार करते हुए माँ ने अपना वक्तव्य समाप्त किया, 'लड़की बी.ए. पास है और शादी इसी जून में होगी-वे चाहते हैं कि शुभ-कार्य में देरी न की जाये। यह उनकी आखिरी संतान है और वे उसका भविष्य बहुत अच्छा देखना चाहते हैं. उन्होंने जो प्रस्ताव दिया है वह बहुत उदार है...।" मैं चुप बना रहा। अब मुझे समझ में आया कि असली बात क्या है। उसने बताया, 'कुंडलियाँ भी बहुत अच्छी मिल गयी हैं। ज्योतिषी से बात करने के बाद ही वे यहाँ आये हैं।'

'मेरी कुंडली उन्हें कहाँ से मिली ?' मैंने पूछा।

'अरे, तुम्हारी कुंडली तो तुम्हारे पिता से वे बहुत साल पहले ही ले गये थे। दोनों बड़े अच्छे दोस्त और एक-दूसरे के पड़ोसी भी थे हमारे गाँव में।' इसके बाद उसने यह भी बताया, 'दोनों इतने अच्छे दोस्त थे कि लड़की पैदा होने के पहले दिन ही तुम दोनों की शादी तय हो गयी थी-यह उनकी दोस्ती को और भी पक्की करने के इरादे से किया गया फैसला था। यह बात माँ ने इतनी शांति से कही, जैसे यह काम बहुत स्वाभाविक था।

'तुम क्या कह रही हो? तुम यह कहना चाहती हो कि जब लड़की कुछ घंटों की ही थी, तभी तुमने मेरी शादी उससे तय कर दी थी!"

'हाँ 'उसने उसी शांति से कहा।

'लेकिन क्यों?' उसका तर्क समझ न पाने के कारण मैंने कहा, 'तुम्हें यह नहीं लगा कि यह कितनी फिजूल बात है!"

'नहीं," वह बोली। 'उनका बड़ा अच्छा परिवार है, सब उन्हें जानते हैं और पीढ़ियों से हमारे संबंध हैं।'

'यह बेवकूफी भी तुम्हारी, ' मैं चिल्लाया। 'तुम मुझे इस तरह कैसे बाँध सकी ? मेरी उम्र उस वक्त क्या थी ?'

'इससे क्या फर्क पड़ता है! जब हमारी शादी हुई तो मैं नौ साल की थी और तुम्हारे पिताजी तेरह के और हमारी जिन्दगी क्या सुखी नहीं रही?'

'यह कोई बात नहीं है, तुमने अपनी जिन्दगी का पता नहीं क्या किया है!

खैर, मेरी उम्र उस वक्त क्या थी ?'

'तुम काफी बड़े थे, रहे होगे पाँच या छह के, इससे होता क्या है?'

' और मेरी शादी पक्की कर दी गयी ! किस पद्धति से ?'

'ऐसे सवाल मत करो। तुम तो कचहरी में वकील की तरह जिरह कर रहे हो, यह कहकर वह अपनी असलियत पर आ गयी, दोस्ती का उसका नकाब उतर गया।'

'मैं वकील भले ही न होऊँ, लेकिन मैं अपराधी भी नहीं हूँ' मैंने उत्तर दिया, हालाँकि मन में सोचता रहा कि यह जवाब ज्यादा सही नहीं था।

'तो तुम्हारा ख्याल है कि मैं अपराधी हूँ?" उसने भी मेरी बात का जवाब मेरी ही तरह बेवकूफी से दिया।

मैं कुछ देर चुप बैठा रहा, फिर मिन्नत से कहने लगा, 'माँ मेरी बात सुनो। इस तरह किसी की शादी कैसे हो सकती है! अपना दिमाग रखने और खुद फैसला करने लायक दो लोग कैसे इस तरह जिंदगी के लिए शादी कर सकते हैं?'

'और कैसे?' उसने मेरा आखिरी शब्द पकड़ते हुए कहा, 'और जिंदगी भर क्या ? शादियाँ सब जिंदगी भर के लिए होती हैं। हर महीने कोई नयी शादी नहीं करता।'

मैं दुखी हो उठा, जोर देकर बोला, 'बेवकूफी की बात है। मैं यह नहीं कह रहा, मेरी बात समझने की कोशिश करो...।"

अब वह गुस्सा होकर कहने लगी, 'यह दूसरी दफा तुम मेरा अपमान कर रहे हो। हाय, हाय. तुम्हारे पिता के बाद क्या मैं इसी के लिए जिन्दा बची हूँ? अच्छा होता यदि मैं उनके साथ ही चिता पर चढ़ जाती, जैसा हमारे ऋषियों ने विधवाओं के लिए तय किया है। ऋषि-मुनि जानते थे कि पति की मृत्यु के बाद विधवा की क्या गति होती है. अपने ही जाये से गालियाँ सुननी पड़ती हैं?'

यह कहकर वह अपना सिर इस तरह जोर-जोर से धुनने लगी कि मुझे डर लगा कि उसकी हड़ी न टूट जाये। उसका चेहरा लाल हो आया, आँखों से आँसू बहने लगे, और वह मुझे इस तरह घूरकर देखने लगी कि मैं वहाँ से किसी तरह भाग जाने की सोचने लगा। उसका ऐसा व्यवहार मैंने कभी नहीं देखा था। इसका मैं अभ्यस्त नहीं था, इसलिए जहाँ वह मुझे घसीटकर कोने में ले आयी थी और फुफकार तथा चीत्कार कर रही थी, वहाँ मैं ऐसी जुगत सोचने में लगा था कि किस तरह उसके सामने से कहीं और जा सकूँ। मैं सोचने लगा कि क्या सचमुच मैंने उसके लिए कोई बेजा शब्द बोल दिया है? इसलिए मैं अपने कहे सब वाक्य अपने दिमाग में उलटी तरफ से घुमाकर उनकी जाँच करने लगा। मेरा अखिरी शब्द बेवकूफी से सम्बन्धित था-यह कोई इतना बुरा शब्द तो नहीं है कि सुनने वाला इतना उत्तेजित हो उठा! इसकी जगह अगर मैं 'बेवकूफ' कहता तो जरूर वह गाली होती। मैंने जो शब्द बोले, उनका प्रयोग तो गहरे दोस्त तक रोज कई बार करते हैं और उनके सम्बन्धों में कोई दरार नहीं पैदा होती। मेरे ये शब्द बोलने के पहले उसने कहा था कि 'हर महीने कोई शादी नहीं करता," और मैंने भी यह नहीं कहा कि 'हाँ करता है।' कैसी है हमारी सभ्यता! एक लेखक ने इसे 'चोट खाई सभ्यता' कहा है। यह सब सोचते हुए मेरे चेहरे पर हलकी-सी मुस्कराहट भी आ गयी।

मेरी मुस्कराहट देखकर माँ और भी भड़क उठी। बोली, 'तुम मुझ पर हँस रहे हो! ठीक है, तुम्हें पैदा करके और पाल-पीस कर खिला-पिलाकर, और अब तुम्हारी देखभाल करके मैंने अपने को हँसी के लायक ही बनाया है। तुम्हारे बाप ने बड़ी मेहनत से जो बहुत-सी किताबें इकट्ठी की, उनको ही पढ़-पढ़ कर तुम बहुत विद्वान् बन गये हो, इतने विद्वान् कि अपनी माँ की ही बेइज्जती करो...।"

'लेकिन ये किताबें उन्होंने खुद थोड़े ही, इकट्ठी की थीं, ये तो उन्हें गिरवी रखी गयी थीं... ' मैं न चाहते हुए भी यह कह गया।

माँ बोली, 'बहुत पढ़ लिया लेकिन बी.ए. नहीं हो सके। वह मामूली-सी लड़की तक बी.ए. हो गयी। यह कहते हुए उसकी आवाज भर्रा उठी थी, अब तक के रोने-चिल्लाने का भी नतीजा था यह ।'

अब मैं एकदम उठ खड़ा हुआ और कुर्ता और पजामा जो भी हाथ में आया, खींचकर पहना और तेजी से बाहर निकल गया। हालाँकि यह पोशाक मुझे पसंद नहीं थी क्योंकि इसे पहनकर भला आदमी नेता लगने लगता है। मुझे दरअसल नीली बुशशर्ट और धोती या पैंट पसंद थी। लेकिन ये वहाँ गी थी जहाँ माँ आसन जमाये थीं। मैंने उनके सामने से भागते हुए ये शब्द सुने, '.हम जो तारीख बतायेंगे, उस दिन वे आकर हमें लड़की दिखाने ले जायेंगे...।' यानी वह सोच रही थी कि किस तरह वह अपना सामान बाँधेगी और अपने बेटे को साथ लेकर बस पर सवार होकर अपनी बहू देखने जायेगी. वहाँ किस तरह उसका स्वागत-सत्कार किया जायेगा, और किस तरह लड़की उसके सामने लायी जायेगी, सिल्क और सोने से सजी, मेरी 'हाँ' का इन्तजार करती.। 'बेवकूफ," मैंने मन में दोहराया और सड़क पर तेजी से चलने लगा।

मार्केट रोड पर जाते हुए मैंने देखा कि डॉ. किशन स्कूटर से अपने मेडिकल सेंटर पर उतर रहे हैं जिसे उनके सहायक रामू ने, जो अपने को आधा डॉक्टर समझता है और डॉ. किशन के वहाँ न रहने पर नब्ज़ और जीभ देखकर लोगों को दवाइयाँ भी देता है, पहले से ही खोल रखा है। डॉक्टर साहब भी रामू की डॉक्टरी को स्वीकार करते हैं क्योंकि वह ईमानदार है और कमाई का सही हिसाब उन्हें दे देता है। डॉक्टर साहब ने मुझे देखते ही कहा, 'आओ, आओ।" कुछ मरीज अपनी शीशियाँ लिये पहले से इन्तजार कर रहे थे। डॉक्टर साहब गोलियाँ देने में विश्वास नहीं करते थे, वे हर मरीज का नुस्खा लिखते थे और उसके अनुसार रामू दवाइयाँ बनाकर देता था। डॉक्टर साहब का कहना था कि हर मरीज की जरूरत अलग होती है और उसी के अनुसार उसका नुस्खा भी बनाया जाना चाहिए। थोक के भाव से बनने वाली गोलियाँ हरेक को कैसे फायदा पहुंचा सकती हैं? वह कागज पर बड़े विस्तार से नुस्खा लिखते, जरूरत पड़ती तो कागज के मार्जिन पर भी दवाएँ लिख देते, और उनका दावा भी था कि इतने लम्बे नुस्खे इस देश में कोई और डॉक्टर नहीं लिखता। 'जो कोई यह साबित कर दे कि देश में कोई और डॉक्टर मुझसे लम्बे नुस्खे लिखता है, तो मैं उसका इलाज मुफ्त में करूंगा।' गाँव के उनके मरीज इस पर हँसते लेकिन इसकी सच्चाई मान भी लेते।

जब उन्होंने मुझे बुलाया तो मैंने अपनी चाल तो धीमी कर दी लेकिन रुका नहीं। मैंने कहा, 'नमस्ते, डॉक्टर साहब... लेकिन मैं ठीक-ठाक हूँ।' उन्होंने मेरी बात बीच में ही काटकर कहा, 'मैं जानता हूँ कि तुम तन्दुरुस्त प्राणी हो, जिससे डॉक्टरी पेशे को कोई लाभ नहीं होगा, फिर भी मुझे तुमसे बात करनी है... भीतर आओ और इस कुर्सी पर बैठो। यह मेरे तन्दुरुस्त दोस्तों के लिए है, मरीजों के लिए अलग बेंच हैं?" यह कहकर उन्होंने दीवाल की तरफ हाथ हिलाया, जहाँ टीन की एक बेंच और दो-तीन कुर्सियाँ पड़ी थीं। फिर वे पर्दे के पीछे गये, वहाँ से एप्रन पहनकर निकले और दीवाल पर लगी पट्टी का वह हिस्सा खोल दिया जिस पर लिखा था : 'डॉक्टर साहब आ गये हैं। मरीज कृपया बैठे।' उन्होंने मेज पर पड़ी बहुत-सी पर्चियों को उलट-पलट कर देखा जिन पर नई अमोघ दवाओं के विज्ञापन छपे थे, फिर उन्हें एक कोने में सरका दिया। 'ये सब दवाएँ अपने निर्माताओं और बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कम्पनियों को ही लाभ पहुँचाती हैं, देश की बीमार गरीब जनता के लिए ये बेकार हैं। इनके चतुर शर्ट-पैंट पहने एजेंटों को मैं पाँच मिनट से ज्यादा समय नहीं देता और एक मिनट में उनके पचों को देखकर फेंक देता हूँ। लेकिन इसी शहर में ऐसे बहुत से एम.डी. डॉक्टर हैं जो इन एजेंटों की दवाएँ खरीद कर ही काफी कमा रहे हैं। रामू बेंच पर बैठे मरीजों से उनकी शीशियाँ इकट्ठी कर लाया।

डॉक्टर ने कहा, 'अब तुम मेरा चेक क्यों नहीं बना देते?"

मुझे लगा कि वे मजाक कर रहे हैं, इसलिए कहा, 'हाँ हाँ, क्यों नहीं. कितने का बनाऊँ ? दस हजार का ?'

'इतना ज्यादा नहीं. इससे कम का," उन्होंने जवाब दिया और दराज से एक नोटबुक निकालकर उसके पन्ने पलटने लगे। तभी एक बूढ़ा बड़ी जोर से खाँसता हुआ वहाँ आया। डॉक्टर ने उस पर एक नजर डाली और बेंच पर बैठ जाने का इशारा किया। लेकिन बूढ़े ने इस पर ध्यान नहीं दिया और हॉल के बीच में खड़े होकर कहना शुरू किया, 'सारी रात...।"

डॉक्टर ने कहा, 'ठीक है, ठीक है। अभी बैठो और इन्तजार करो। मैं आज रात तुम्हें आराम से सोने का इन्तजाम कर दूंगा। बूढ़ा बेंच पर जा बैठा और फिर देर तक खाँसता रहा। डॉक्टर ने कहा, 'पिछले हफ्ते तक के हुए दो सौ पैंताली रुपये. इस हफ्ते कुछ नहीं।' अब मुझे पता चला कि यह मजाक नहीं था। इतने रुपये की बात सुनकर मुझे ताज्जुब हुआ। उसने नोटबुक मेरे सामने कर दी और कहा, 'दस रुपये विजिट के हिसाब से बीस विजिट के दो सौ और बाकी पैसे दवाओं के. मैंने दूसरी विजिट का पैसा नहीं लिया है।' खाँसने वाला बूढ़ा अब कुल्ले करने लगा था और रुक-रुक कर अपनी बात कहने की कोशिश कर रहा था। डॉक्टर ने इशारे से उसे चुप कराने की कोशिश की। एक औरत ने अपने चीखते बच्चे को ऊपर उठाया और बोली, 'यह सारा दूध उगल देता है...।" डॉक्टर ने उस पर निगाह डाली और डॉटा, 'दिखायी नहीं देता, मैं काम कर रहा हूँ? मैं कोई चार सिर वाला ब्रह्मा हूँ? एकएक करके ही देखेंगा, इन्तजार करो।'

औरत ने फिर कहना चाहा, 'यह सारा दूध...।"

'चुप रहो, अभी मत बताओ।" इस व्यवधान के बाद फिर मुझसे कहना शुरू किया, 'मैं दूसरी विजिट का कोई चार्ज नहीं करता हूँ क्योंकि इन्हें मैं घर लौटते हुए निबटा लेता हूँ। मैं उन्हीं विजिट का चार्ज करता हूँ जो अर्जेन्ट होती हैं। तुम्हारे इस मामले में मैंने दूसरी कोई विजिट चार्ज नहीं की है।'

अब मुझे और भी ताज्जुब हुआ, इसलिए मैंने पूछा, 'अभी तो आपने कहा कि मैं तन्दुरुस्त प्राणी हूँ, तो यह सब क्या है?"

'अरे, तुम्हें कुछ पता नहीं! तुम्हारी माँ ने कभी जिक्र नहीं किया?'

'नहीं, कभी नहीं किया..." उन्होंने सिर्फ मेरी शादी की कुछ चर्चा की थी.और इस बात को लेकर मैं बहुत परेशान हूँ। 'फिर मैंने कहा, 'आप, डॉक्टर साहब, मेरी माँ के लिए कोई ऐसा शर्बत वगैरह पिलाइये, जिससे मेरी शादी के बारे में उसका जोश खत्म हो जाये।'

'हाँ-हाँ! मैं इस बात पर भी आ रहा हूँ। उनके मन पर इसका भी बहुत दबाव है। वह चाहती हैं कि उनके बाद परिवार का उत्तराधिकारी कौन होगा, इसका इन्तजाम हो जाये।'

डॉक्टर साहब जैसे मुझसे पहेलियाँ बुझा रहे थे। आज का दिन मेरे लिए बड़े अजीब ढंग से शुरू हुआ था। 'उन्होंने अपनी हालत के बारे में कभी तुमसे कोई जिक्र नहीं किया,'उन्होंने फिर सवाल किया।

मैं उनकी बात का जवाब देता या उनके सवाल के पीछे क्या छिपा है, इसे सही ढंग से समझ पाता, इससे पहले बूढ़े ने खाँसने का ऐसा जबरदस्त सिलसिला शुरू किया, और वह औरत फिर अपने बच्चे को लिये सामने आकर खड़ी हो गयी, कि वे अब उनकी उपेक्षा न कर सके, और मुझसे बोले, 'पहले मैं इन दोनों को निबटा लू. तुम जाना मत। 'फिर वे एक-एक करके पहले बच्चे को, फिर बूढ़े को, पर्दे के पीछे ले गये और दोनों के लिए लम्बे-लम्बे नुस्खे लिखकर एक छोटी-सी खिड़की के पीछे से रामू को पकड़ाये, और फिर मेरे पास आकर बात करने लगे। लेकिन दोनों मरीज फिर सामने आकर खड़े हो गये और पूछने लगे कि कौन-सी दवा शाम को खानी है और कौन-सी सवेरे, और इनके साथ खाने-पीने का क्या परहेज करना है। उन्होंने हमेशा की तरह रटे-रटाये उत्तर दिये और फिर मेरी तरफ मुखातिब हुए, 'हमेशा वही-वही सवाल बार-बार पूछा जाता है-कि वे रसम लें या छाछ पियें या चावल खायें और चाय-कॉफी पियें या न पियें, और दवा के पहले पियें या बाद में इस सबसे क्या फर्क पड़ता है? लेकिन उन्हें सवाल जरूर पूछने हैं और मुझे जवाब भी देने हैं, क्योंकि डॉक्टरी विद्या में ये सब चीजें बहुत ज्यादा आ गयी हैं... हा, हा.,. !'

यह बात खत्म होते ही दो और मरीज़ जो बड़ी देर से शांतिपूर्वक बैठे इन्तजार कर रहे थे, आ खड़े हुए। डॉक्टर ने उन्हें वापस बेंच पर जाने का इशारा किया और मुझसे बोले, 'तुम मेरे साथ आओ, यहाँ तो इन सबसे फुरसत ही नहीं मिलेगी.।" वे मुझे परीक्षण किये जाने वाले कमरे में ले गये, जो एक छोटा-सा केबिन था और एक लंबी-सी मेज पड़ी थी और जिसकी दीवारों पर बहुत-सी कैलेन्डरों की तस्वीरें चिपकी हुई थीं। फिर उन्होंने मेज पर ही मुझे अधलेटा-सा बिठा दिया, जैसे मैं भी मरीज़ ही था और कहने लगे, 'यही एक जगह है जहाँ मैं शांतिपूर्वक किसी से बात कर सकता हूँ।' अभी तक माँ के बारे में कहे गये उनके अधूरे वक्तव्यों के कारण मैं जबरदस्त संशय में था।

वे बोले, 'तुम्हारी माँ अब छुट्टी लेने के मूड में हैं...।"

यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मैं सोच भी नहीं सकता था कि उसका मूड छुट्टी लेने का हो सकता था। उसके पैर जमीन पर जिस तरह गहरे जमे थे, जिस तरह सारे घर में दिन भर भागदौड़ करती और जोर-जोर से हुक्म देती सब तरह के काम करती रहती थी, उससे यह सोच पाना सम्भव ही नहीं था। डॉक्टर ने क्या कहा था-'छुट्टी लेना।' वह अपनी दुनिया को कैसे छोड़ सकती थी! उसके लिए यह कोई सोच भी नहीं सकता था। इस बारे में और जानकारी लेने के विचार से ही अब मेरा गला सूखने गला और दिल तेजी से धड़कने लगा। मैंने भरी-सी आवाज में पूछा, 'किस तरह की छुट्टी? क्या वे बनारस जाकर रहना चाहती हैं?'

'अरे, नहीं, इससे भी ज्यादा, ' यह कहते हुए डॉक्टर साहब ने ऊपर की तरफ इशारा किया। फिर एक सिगरेट जलायी। उसका धुआँ केबिन में भरने लगा और साँस घुटने लगी। मैंने धीरे से खखारकर सीने में भरा धुआँ निकालने की कोशिश की। कुछ धुआँ आँखों में भी भर गया जिससे आँसू भी निकलने लगा। यह देखकर उन्होंने मुझे सांत्वना देते हुए कहा, 'रोने की जरूरत नहीं है। ऐसी बातों को शान्तिपूर्वक सहन करना चाहिए और यह सोचना चाहिए कि भविष्य में व्यावहारिक दृष्टि से क्या किया जाना चाहिए।' इसके बाद वे आराम से कुर्सी पर बैठ गये और सिगरेट के लम्बे-लम्बे कश लेते हुए निरासक्ति के दर्शन पर भाषण देने लगे। बाहर बैठे मरीजों की आह-ऊह खाँसी-खखारों के प्रति उनका ध्यान बिलकुल भी नहीं था। लेकिन उनको इस तरह अपने पास बिठाये रखना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन मैं यह भी जानना चाहता था कि माँ के बारे में, उनके आधे-अधूरे और टेढ़ेमेढ़े वक्तव्यों की सच्चाई क्या है? तभी अचानक उन्होंने प्रश्न किया, 'लेकिन वे तुमसे बात क्यों नहीं करतीं?'मुझे उन्हें समझाकर बताना पड़ा कि मैं रोज देर से घर लौटता हूँ और सवेरे भी जल्दी निकल जाता हूँ, इसलिए हमारी मुलाकात ही बहुत कम और बहुत थोड़े वक्त के लिए ही होती है। इस पर उन्होंने जीभ से तिरस्कारात्मक आवाज की और टिप्पणी की, 'तुम उनके लिए अपना कर्तव्य नहीं निभाते। आखिर दिन भर तुम कहाँ छिपे रहते हो?'

'अरे, कहीं खास नहीं, 'मैंने चिढ़ते हुए कहा। 'मुझे लोगों से मिलना होता है और कार्य करने होते हैं। आखिर मुझे भी अपनी जिन्दगी जीनी है!"

'कौन से लोग और कैसी जिन्दगी ?' डॉक्टर के लहजे में सख्ती आ गयी थी। और मैं सचमुच उन्हें नहीं समझा सका था कि मैं दिन भर कहाँ-कैसे व्यस्त रहता हूँ। मैं जो भी कहता, उसे वे एकदम खारिज कर देते। इसलिए मैंने उनको टालना ही सही समझा और बात फिर माँ की तरफ मोड़ने की कोशिश की। इस बारे में उन्होंने मेरे मन में जबरदस्त संशय पैदा कर दिया था और सिगरेट के कश खींच-खींचकर उसका धुआँ चारों ओर फैलाते हुए और राख नीचे सीमेंट की जमीन पर खटाखट फेंककर भारी तनाव पैदा कर दिया था। डॉक्टर होते हुए भी ये कितने अव्यवस्थित थे। यहाँ का कूड़ा-करकट और सिगरेट की राख ही तरह तरह की बीमारियाँ पैदा करने के लिए काफी थीं, ऐसा डॉक्टर मैंने आज तक कभी नहीं देखा था। अब तक हॉल में और भी मरीज जमा हो गये थे, इसलिए रामू ने परदा उठाकर कहा, 'लोग इन्तजार कर रहे हैं। इस कारण अब वातावरण में कुछ गति आ गयी, उन्होंने जल्दी से सिगरेट जमीन पर फेंकी, जूते के तले से उसे कुचला और बोले, 'पिछले चार महीने से मैं तुम्हारे घर अक्सर जाता रहा हूँ कई दफा दिन में कई बारजल्दी चलो, एकदम...,'-ऐसी हालत में मैं रुक भी तो नहीं सकता, तुरंत जाना पड़ता है। हाथ के सारे काम छोड़कर मरीज को देखने जाना ही पड़ता है. हम डॉक्टरों का काम भी तो यही है। कभी-कभी लड़की थोड़ी देर बाद फिर आ जाती है... ।' 'लेकिन तकलीफ क्या है... ' मैंने धीरज खोते हुए पूछा। 'अरे, यही तो पता लगाना है। मैं बराबर यही पता लगाने में लगा हूँ। किसी भी बीमारी को हल्के ढंग से लेना तो मेरा स्वभाव ही नहीं है और कोई फैसला भी मैं जल्दी नहीं करता...।"

लेकिन मेरे देखे वे जिस तरह अपने मरीजों को लेते थे, उससे, मेरा विचार यह था कि वे खुद को धोखा देते हैं। देर तक बकबक करने के बाद वे मुद्दे पर आये, 'उन्हें अक्सर बेहोशी के दौरे पड़ते हैं, और वह भी अचानक. लेकिन दवा का असर पड़ता है। अगर मैं कहूँ तो यह दिल की बीमारी है जिसकी वजह उम्र से पैदा कमजोरी है। दवा के सहारे उनकी जिन्दगी चलती रह सकती है, लेकिन कब तक, यह कहना कठिन है....।"

यह सुनकर मैं काँपने लगा। पूछो, 'उन्हें इस बात का पता है?"

'हाँ क्यों नहीं। मैंने अपने ढंग से यह बात कही लेकिन उन्होंने सही बात समझ ली। वे बड़ी दार्शनिक भी हैं, मेरा ख्याल है...। शायद तुम उनके साथ ज्यादा समय नहीं गुजारते?'

मैं गूंगे की तरह सुन रहा था। डॉक्टर साहब की बातों से मेरी आत्मा परेशान हो उठी थी। मैंने सचमुच अपनी माँ पर कोई ध्यान नहीं दिया था, उसकी जरूरतों के बारे में कभी कुछ नहीं पूछा, न कभी उसकी बीमारी पर उसे डॉक्टर को दिखाया, मैं यह समझता रहा कि वह किसी नाशहीन पदार्थ से बनी है। डॉक्टर कह रहे थे, 'अब उनको यही चिंता सताती रहती है कि उनकी मृत्यु के बाद तुम अकेले रह जाओगे, वे मुझसे यही कहती रहीं कि तुम्हें किस तरह शादी के लिए तैयार किया जा सके... ।'

तो यह बात थी! अब पूरी तरह मेरी समझ में आ गयी। उस शाम वह दिन भर लड़की को डाकखाने भेजकर पोस्टकार्ड मैंगाने, फिर गाँव में अपने रिश्तेदारों को मेरे लिए बहू ढूँढ़ने की चिट्ठियाँ लिखती रही होगी, जिससे पुराने सम्बन्ध फिर से जुड़ने लगे होंगे और आखिरकार उस चुटियाधारी मेहमान को अपनी लड़की का प्रस्ताव लेकर घर बुलाने में सफल हुई होगी-और उम्र की कमजोरी के कारण दिल की बीमारी से परेशान हालत में यह सब काम-रोजमर्रा के रोटी-पानी और साफ-सफाई के कामों के साथ-साथ यह दबाव उस पर बहुत भारी पड़ गये होंगे। अब मेरी समझ में आ रहा है कि इन्हीं सब बातों के कारण जब मैं उसके सामने होता, तब वह बहुत ज्यादा उत्तेजित होकर बातचीत या गाली-गलौज करने लगती थी, और भीतरी कमजोरी और बीमारी इसके बाद और ज्यादा भड़क उठती थी। मैं स्वयं को अपराधी महसूस करने लगा और अपनी आत्म-केन्द्रित जिन्दगी के लिए अपने को धिक्कारने लगा।

जब मैं चलने को हुआ, डॉक्टर ने यह बात कही, 'वैसे यह मेरा अपना विचार है। तुम चाहो तो किसी से 'दूसरी राय' भी ले सकते हो। मुझे इसका बिलकुल बुरा नहीं लगेगा।... हाँ, क्या कल तक चेक दे दोगे?'

जब मैं केबिन से बाहर निकला, मरीजों ने राहत महसूस की। सड़क पर आकर मैं एक क्षण ठिठका, फिर अपनी रोज की जगह बोर्डलेस रेस्त्राँ की ओर जाने के बजाय वापस घर की ओर कदम बढ़ाने लगा।

घर पहुँचकर जब मैंने अपने कमरे का दरवाजा खोला और माँ के सामने पहुँचा, तो वह चकित रह गयी क्योंकि इस समय मैं कभी घर नहीं आता था। मैं उसे हमेशा की तरह कामों में लगे देखकर खुश हुआ, और डॉक्टर ने उसकी जो तस्वीर खींची थी, वह मुझे गलत भी लगी-हालाँकि जरा ध्यान से देखने पर उसकी चाल और आँखों में मुझे कमजोरी के कुछ लक्षण जरूर नजर आये।

मैं उसे ताकता रहा। इससे वह चकित भी हुई। मैं दरअसल उससे पूछना चाहता था, 'आज तुम्हें कैसा लग रहा है ? ठीक हो न? दौरा तो नहीं पड़ा?' लेकिन पूछ नहीं सका। मैं उससे वह बात क्यों पूछू जो उसने मुझसे छिपायी है। इससे शायद वह और परेशान हो उठे, यही अच्छा है कि उसे यह पता न चले कि मुझे यह बात पता है।

वह खुद शायद मुझसे यह पूछना चाहती थी, 'इस वक्त तुम घर क्यों आये?" लेकिन उसने नहीं, पूछा, और इसके लिए मैं उसका कृतज्ञ हुआ। हम दोनों एकदूसरे को कुछ देर तक देखते रहे, दोनों जो सवाल पूछना चाहते थे, उसे मन में ही दबाये रहे। सिर्फ नौकरानी मुझे देखकर दौड़ी आयी और आँखें फैलाकर बोली, 'आप तो इस वक्त कभी नहीं आते। खाना खायेंगे? अम्मा ने अभी कुछ बनाया ही नहीं है. ।'

'तू चुप रह, 'माँ ने डपटा। फिर मेरी तरफ घूमकर बोली.., 'मैं चूल्हा जलाने ही जा रही हूँ। यह लड़की आज बहुत देर करके आयी। बताओ, तुम क्या खाओगे?'

हम सब में अचानक यह कैसा परिवर्तन आने लगा था। मैं अपनी आँखों और कानों पर विश्वास ही नहीं कर पा रहा था-सवेरे हुई घटना के बाद यह परिवर्तन! मैं कमरे में लौटकर सोचने लगा कि अब मेरे सामने अगर उसे दौरा पड़ जाये तो मैं कैसे-क्या करूंगा! माँ मुझे बिलकुल सही लग रही थी, फिर भी मुझे लग रहा था कि उसे वहाँ छोड़कर मुझे कमरे में नहीं आ जाना चाहिए था। अब मुझे उसकी इतनी चिंता होने लगी कि अगर मैं उसे क्षण भर के लिए भी अकेला छोड़ेंगा तो उसे कुछ हो जायेगा। मैं दरवाजा खुला छोड़कर बैठ गया और कुछ पढ़ने की कोशिश करने लगा लेकिन मेरी आँखें भले ही किताब के पन्नों पर थीं पर दिमाग कहीं और था। मान लो कि उसे फिर दौरा पड़ जाये और वह चल बसे, बिना यह जाने कि मैं उसे खुश करने के लिए कितना बेताब था और वह खतरनाक शादी भी कर लेता, तो कितना बुरा होता! मुझे शादी से नफरत थी लेकिन अपनी मरती हुई माँ को खुश करने के लिए यह भी करने को तैयार था। उसने बीमार होते हुए भी बिलकुल अकेले मेरे लिए बहू ढूँढ़ने की कोशिश की, यह कितनी गलत बात थी। लेकिन कई दफा किसी की भलाई के लिए परेशानी के काम भी करने पड़ते हैं। अपने पिता दशरथ की प्रसन्नता के लिए राम ने चौदह साल जंगलों में रहने की कठिन बात भी नहीं मान ली थी! राम ने जो किया, उसके सामने मेरी कठिनाई तो कुछ भी नहीं है, वे तो यात्री की तरह इतने साल जंगलों में घूमते रहे। मेरे लिए तो बुराई की बात यही होती कि जिस लड़की को मैं पसंद नहीं कर सकता, उसके साथ रहना पड़ता, लेकिन फिर इसकी आदत भी पड़ जाती, और कोई वृद्धा शांति से मर सके तो यह करना गलत नहीं था।

उस दिन माँ ने मेरे लिए कई तरह के खाने पकाये, जैसे मैं कोई मेहमान होऊँ । खाकर मजा आ गया। मेरे लिए आधे ढके बीच के आँगन में चंदन के खम्भे के साथ पीढ़ा बिछाकर सामने केले का बड़ा पता लगाया गया था। उसने कहा, 'रसोई में धुआँ भर जाता है। तुम्हारे पिता ने हर काम बहुत उम्दा करवाया लेकिन रसोई में चिमनी या खिड़की कुछ भी नहीं बनवायी... लकड़ी अगर सूखी न हो तो इतना धुआँ उठता है कि लगता है, औधी हो जाऊँगी। लोग इसी तरह अँधे भी हो जाते हैं लेकिन मुझे आदत पड़ गयी है... और अब अंधी भी हो जाऊँ तो कोई बात नहीं। पर मेरे बाद जो आयेगा..।" मेरे भविष्य के बारे में यह हलका सा इशारा था, जिसे मैंने सुन तो लिया लेकिन समझ नहीं पाया कि क्या जवाब दिया जाये। परेशान होते हुए मैंने कहा, 'इसके लिए कुछ करना पड़ेगा' और पाँच सब्जियों की स्वादिष्ट करी को मजे से खाता रहा। यह उसने मेरे लिए विशेष रूप से बनायी थी और मैं उसकी पाक-कुशलता पर चकित था। मैं अजाने मेहमान की तरह आ धमका था और बहुत कम समय में उसने सारा खाना तैयार कर दिया था। इसके लिए जरूर उसने बेचारी बच्ची को बार-बार बाजार दौड़ाया होगा, खूब डॉट-फटकार भी की होगी और जब यह माननीय अतिथि कमरे में बैठा किताब पढ़ रहा था, तब तक चुपचाप जिससे उसे इसकी जरा भी भनक न लगे, यह सब बनाया होगा। हम दोनों एक-दूसरे से जो सवाल पूछने के लिए बहुत उत्सुक थे, वे न पूछकर इधर-उधर की फिजूल बातें करते रहे।

खा-पीकर में कमरे में चला गया। लेकिन दरवाजा बंद करके आराम न कर सका। मैं बार-बार कमरे से बाहर निकलता और घर के सामने से पीछे तक जाता, फिर वापस लौटता, फिर कमरे में जाता, फिर आता और जिन कमरों और बरामदों में मैं महीनों से नहीं गुजरा था, उन सबमें चक्कर काटता रहा। माँ उस समय क्या कर रही थी, इस पर भी मेरी नजर गयी। उसने खाना खा लिया था और पान-सुपारी खा रही थी, जो वह साल-दर-साल से हर रोज इसी तरह खाती आयी थी। उसके पानदान की खुशबू हो चुकी है-जब मैं छोटा था तब हर समय मैं उसी के आगे-पीछे लगा रहता था और यह खुशबू मेरे दिमाग में बस गयी थी। तब पिता अपने कमरे में बैठे पैसे गिनते रहते थे और देवी की तरह शानदार सिल्क की साड़ी और कानों में हीरे के चमचमाते बुन्दे पहने वह देवी की तरह सीधी बैठी लौंग चबाती रहती थी।

माँ हमेशा की तरह बरामदे की बीच अपनी चटाई बिछाये आराम से लेटी थी। मुझे देखते ही उठ बैठी और पूछने लगी, 'कुछ चाहिए?'

'नहीं, नहीं, परेशान मत होओ। सिर्फ एक गिलास पानी..।" यह कहकर मैं रसोई में गया और घड़े से मग में पानी निकालकर बहुत ठंडा होते हुए भी, गटगटकर पी गया, और फिर कमरे में लौट गया। मेरे लिए घर में यह अजीब ही समय था और मैं अपने को अज़नबी महसूस कर रहा था। माँ मुझे स्वस्थ लग रही थी और यह देखकर मुझे अच्छा लग रहा था। इसके बाद जब मैं थोड़ी देर सोकर फिर उसके सामने प्रकट हुआ, तब उसने गर्मागर्म कॉफी पीने को दी। लेकिन अब तक मैं बोरियत महसूस करने लगा था और अपने हमेशा के अड़ों, पब्लिक लायब्रेरी, टाउन हॉल, नल्लप्पा की झाड़ी के पास नदी तट पर और सबसे अंत में बोर्डलेस रेस्त्राँ जाना चाहता था। कई दफा मैं बोर्डलेस से ही दिन की शुरुआत करता था और सब जगह घूम-फिरकर अंत में यहीं उसका अंत करता था।

जब मुझे संतोष हो गया कि वह स्वस्थ है तो मैंने कुएं पर जाकर हाथ-मुँह धोये, कपड़े बदले और बाहर निकला। पहले मैं घर के पिछवाड़े गया, जहाँ माँ फर्श साफ कर रही थी, यह बताने कि मैं बाहर जा रहा हूँ। मैंने पूछा, 'तुम क्यों सफाई कर रही हो? लड़की कहाँ है?'

'वह आज छुट्टी माँग रही थी। फर्श बहुत चिकना हो गया है। और जब तक हाथ-पैर काम करते हैं, खुद ही करना अच्छा ..है. " उसने जवाब में कहा।

मैंने धीरे से और इस तरह जैसे यह कोई खास बात न हो, कहा, 'तुम चाहो तो उनसे कह सकती हो कि जब चाहे, बात करने आ जायें और हमें गाँव ले चलें। लिख दो कि चाहे जब आ जायें, ' यह कहकर मैं तेजी से बाहर निकल गया।

सारी शाम मेरा दिमाग किसी-न-किसी बात में उलझा रहा। मैं ऐसा आदमी नहीं हूँ जो व्यक्तिगत मामलों में दूसरों को शरीक करूं, इसलिए जब मैं बोर्डलेस में वर्मा के पास बैठा था, और उसने पूछा कि क्या बात है? आज बड़ी देर से आये?' तो मैंने कोई बहाना बना दिया और दूसरे विषयों पर बात करने लगा। छह बजे दोस्त लोग आये-पत्रकार जिसे हम दुनिया भर का संवाददाता कहते थे, क्योंकि ऐसा कोई अखबार नहीं था जिसे वह अपना कह सके; एक एकाउंटेंट, जो किसी बैंक में काम करता था, एक स्कूलमास्टर और दो लोग जो क्या काम करते थे, ठीक से पता नहीं था-सब एक कोने में बैठकर गपशप करने लगे। हमेशा की तरह चर्चा का विषय था दिल्ली की राजनीति-इन्दिरा गाँधी के पक्ष में तथा विरोध में-और बहस बड़ी गरम लेकिन दबी आवाज में हो रही थी क्योंकि वर्मा ने सतर्क करते हुए कहा था कि दीवालों के भी कान होते है। मैं सामान्यत: हरेक की बात का विरोध करता था और अपने पक्ष में प्लेटो या टॉयनबी के कथन प्रस्तुत करता था। लेकिन आज मैं चुपचाप सबकी बातें सुनता रहा पत्रकार ने कहा, 'आज तुम्हारी चमक कहाँ गायब हो गयी है?' मैंने कहा कि मेरे गले में खराश है और जुकाम होने वाला है।

घंटे भर बाद में वहाँ से उठ आया। एलामन स्ट्रीट पार कर मैं सरयू के तट पर आ गया और घूमते हुए सिर पर होने वाले पत्तों की सरसराहट और नदी के बहते पानी की आवाज सुनता रहा। अपनी अनेकों चिंताओं के बावजूद मुझे इस शाम की सैर से बड़ी शांति मिली। लोग इधर-उधर अकेले या ग्रुपों में बैठे गपशप कर रहे थे और बच्चे रेत पर खेल-कूद रहे थे। मैंने खुद से कहा, मन पर चाहे जितने दबाव हों लेकिन दुनिया की खूबसूरती कायम रहती है। 'काश, मैं भी इन सब खुशियों में शामिल हो सकता! यहाँ के सभी लोग बड़े खुश हैं हँस - खेल रहे हैं क्योंकि उन्हें शादी या माँ की कोई समस्या नहीं हैं। हे भगवान्! काश, मुझे कोई रास्ता दिखायी देता।" मैं नदी के किनारे बैठकर देर तक सोचता रहा। मुझे शादी की जरूरत नहीं लग रही थी, सिर्फ माँ के कारण मैं इसके लिए तैयार हुआ था। अगर सवेरे डॉक्टर साहब मुझे सड़क से नहीं बुला लेते तो मैं अपनी राह चलता रहता। शादी और माँ का जो होना होता, होता और चुटियाधारी अपने गाँव वापस चला जाता। मैं न शादी करना चाहता था और न माँ की मृत्यु चाहता था। लोग दुविधाओं की बातें करते हैं जिनमें समझ नहीं आता कि क्या किया जाये और क्या न किया जाये-अब मेरी समझ में आ गया था कि यह स्थिति क्या होती है। मैं ऐसी जगह जाकर फंस गया था जहाँ दोनों रास्ते बंद थे उस चूहे की तरह जो इधर जाये तो जाल में फंस जायेगा,उधर जाता है तो मारा जायेगा। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। किसी ने मुझसे यह नहीं कहा कि शादी नहीं करेगा तो माँ को खो बैठेगा। माँ का स्वास्थ्य मेरे ऊपर निर्भर नहीं करता था, उसकी शारीरिक दुर्बलता बहुत पहले शुरू हो गयी होगी। मैंने शादी का फैसला इसलिए किया था कि माँ शांतिपूर्वक भगवान् के घर जा सके, जो मेरा स्वतंत्रतापूर्वक किया गया फैसला था और जिसे किसी भी तरह दुविधा नहीं कहा जा सकता। इस तरह गहरी समीक्षा करने के बाद मैंने कुछ हलका मन महसूस किया। मैंने नदी की कलकल और पत्तियों की सरसर में अपने को छोड़ दिया और शाम होने पर घर वापस लौटती चिड़ियों की चहचहाहट को सुनता रहा।

पास बैठे दो लोग उठे और पीछे लगी रेत को फटफट करके फाड़ने लगे। वे किसी गहरी बहस में उलझे हुए थे और जब वे पास से निकले, तो मैंने उन्हें कहते सुना-'मैं किसी एक आदमी की राय पर इस तरह विश्वास नहीं करूंगा कि उसी की आखिरी बात मान कर काम करने लगूं किसी भी समस्या पर फैसला करने के लिए मनुष्य को एक 'दूसरी राय' जरूर ले लेनी चाहिए।' दोनों बूढ़े थे, शायद पेंशनर हों और घरेलू समस्याओं या दफ्तर की उलझनों पर बात कर रहे थे। उनके शब्द 'दूसरी राय' जादू की तरह मेरे पास आये और लगा कि मेरे सामने अचानक एक द्वार खुल गया है। डॉक्टर साहब भी हमेशा दूसरी राय की वकालत करते रहते थे। मैं मेडिकल सेंटर पर पूरा विश्वास नहीं करूंगा, डॉ. नटवर के पास भी माँ को ले जाऊँगा। वे अपने को हृदय रोग और मनोरोग विशेषज्ञ कहते हैं और न्यू एक्सटेंशन में उनका क्लीनिक है। लोग परेशानी की हालत में उन्हीं की शरण लेते हैं। उन्होंने अनेक महाद्वीपों से बहुत-सी डिग्रियाँ इकट्ठी की हैं और देशभर से लोग उनके पास आते हैं। मैं उनसे सीधा सवाल यही करूंगा कि मेरी माँ और कितने साल जिंदा रहेंगी, और उनके जवाब पर मैं शादी का फैसला करूंगा। लौटते समय मैं प्रार्थना करता रहा कि माँ ने सवेरे कही गयी मेरी बात के अनुसार कहीं कार्यवाही कर न डाली हो और आशा करता रहा कि इतने कम समय में वह डाक की सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पायी होगी।

दूसरे दिन सवेरे मैं काफी जल्दी उठ बैठा और तैयार होकर मेडिकल सेंटर के डॉक्टर से मिलने उनके घर जा पहुंचा। उन्होंने अभी न शेव की थी और नहाये थे, उनके बाल रूखे हवा में उड़ रहे थे और अपनी इस अस्त-व्यस्त दशा में वे शहर के मशहूर डॉक्टर न लगकर सामान ढोने वाले मजदूर लग रहे थे। वे मुझे घर के भीतर चाय-कॉफी पिलाने ले गये और मैं सोचता रहा कि ऐसे मजदूर जैसे आदमी से हम जिंदगी और मौत संबंधी राय लेते हैं। मुझसे यह बात करते समय कि माँ को कोई समस्या जरूर है, उनके शब्द सहानुभूति व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने दिलासा देते हुए कहा, 'चिंता की कोई बात नहीं है, मैं आऊँगा और वे ठीक हो जायेंगी। जरूर दौरा पड़ा होगा जो गुजर जायेगा...।' इसके बाद जब उन्होंने यह कहा कि 'तैयार होने में मुझे चालीस मिनट से ज्यादा नहीं लगेंगे, और सबसे पहले मैं तुम्हारे ही यहाँ आऊँगा.हालाँकि टेम्पिल स्ट्रीट में भी एक ब्रौंकाइटिस का केस बड़ी खतरनाक स्थिति में पहुँच गया है-मैं अपने ख्यालों से बाहर निकल आया। लेकिन दूसरे की बात सुनने की आदत न होने के कारण वे ब्रौंकाइटिस के मरीज की दशा बयान करते रहे। जब वे साँस लेने को रुके, मैं तुरंत जल्दी से कह गया, 'अपनी माँ के बारे में क्या मैं कोई दूसरी राय ले लें?'

'हाँ हाँ, क्यों नहीं। यही सबसे अच्छी बात है। मैं भी तुम्हारी ही तरह आदमी ही हूँ-कोई ब्रह्मा तो हूँ नहीं। कोई ब्रह्मा हो भी नहीं सकता. अच्छा, जरा रुको।' वे मुझे उस दिन का अखबार पकड़ाकर चालीस मिनट के लिए बाथरूम में घुस गये और पूरी तरह तैयार होकर मेडिकल सेंटर के प्रभावशाली डॉक्टर बनकर बाहर निकले। फिर उन्होंने डॉ. नटवर के नाम एक पत्र लिखकर मुझे पकड़ाया और कहा, 'बहुत अच्छे आदमी हैं, हालाँकि स्वभाव कुछ रुखा है। यह पत्र ले जाओ और उनसे एपाइंटमेंट लेकर मुझसे मिलो।"

न्यू एक्टेंशन में डॉ. नटवर के दवाखाने पर मुझे सारी शाम इन्तजार करना पड़ा। एक नौकर मेरा पत्र ले गया, उसके बाद मैं मेज पर पड़ी सारी नयी पुरानी पत्रिकाएँ कई दफा देख-देखकर थक-सा गया और ऊँघने लगा। सामने लगा आधा दरवाजा बार-बार खुलता और बंद होता और मरीज अपने सहायकों के साथ अंदर जाते और थोड़ी देर में बाहर निकल आते। करीब दो घंटे बाद नौकर मेरा पत्र लेकर वापस आया, जिस पर इतना भर लिखा था-'मंगल को 11 बजे'। मंगल आने में अभी पाँच दिन बाकी थे। अगर वह चुटियाधारी इससे पहले आ गया तो. ? मैंने नौकर से पूछा, 'क्या मैं डॉक्टर साहब से मिलकर पहले का समय ले सकता हूँ?" उसने सिर हिलाया और वापस लौट गया। यह अदृश्य डॉक्टर ईश्वर की तरह था जिसे न देखा जा सकता था, न उसकी इच्छा के बिना बात की जा सकती थी। इन अर्द्ध देवों तक पहुँच पाना भी उसी की तरह मुश्किल था।

माँ की वर्तमान मन:स्थिति में उसे इस दूसरे डॉक्टर को दिखाने के लिए तैयार करना मुश्किल नहीं था, हालाँकि मैंने उसे यह नहीं बताया था कि डॉ. किशन द्वारा उसके इलाज की सब बातें मुझे पता हैं। मैंने उससे यही कहा कि उसकी इस उम्र में उसे किसी डॉक्टर को दिखाकर यह जान लेना कि उसका स्वास्थ्य कैसा चल रहा है, कुछ गलत नहीं होगा, और इस काम के लिए डॉ. नटवर जैसा कोई डॉक्टर नहीं है। मैंने उसे यह नहीं बताया कि इस काम के मैं सौ रुपये दे रहा हूँ। गफूर की टैक्सी पंद्रह रुपये में मिल जायेगी-हालांकि पुराना गफूर तो अब नहीं रहा था और उसकी शेवरलेट गाड़ी भी बदल चुकी थी, अब उसका बेटा, जो बिलकुल अपने बाप की ही तरह लगता था, फव्वारे पर उसी जगह बैठता था और उसके पास एंबेसेडर गाड़ी खड़ी रहती थी-और इसी से हम डॉ. नटवर के दवाखाने पहुँच जायेंगे।

डॉ. नटवर की इलेक्ट्रानिक तथा अन्य जाँच के यंत्र अलग-अलग कमरों में लगे थे। मेरी माँ को जब पहिया गाड़ी से एक के बाद दूसरे कमरों में ले जाया जा रहा था, तब मैंने उन पर एक नजर डाली। मुझे लगा कि तरह-तरह के यंत्रों और नर्स इत्यादि के बीच से गुजरते हुए वे बहुत प्रसन्न हैं क्योंकि उन पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। वे जब भी मेरे पास से होकर गुजरतीं, मेरी तरफ कृतज्ञभाव से देखती, मानी कह रही हों कि वे नहीं सोचती थीं कि मैं उनका इतना लायक बेटा साबित होऊँगा! वह अर्द्धदेव जो उस दिन मेरी चिट्ठी डॉक्टर साहब के पास ले गया था, अब फिर प्रकट हुआ और मुझे अपने साथ चलने का इशारा करने लगा। इस समय वहाँ कोई नहीं था, ट्राली, सहायक, यहाँ तक कि मेरी माँ भी कहीं दिखायी नहीं दे रहे थे, मैंने सोचा कि मैं सपना तो नहीं देख रहा था और अब तक की सब घटनाएँ जादुई चिराग का करिश्मा तो नहीं थीं। मैं सेवक के पीछे यह सोचते हुए चल पड़ा कि सचमुच इस संस्था का इन्तजाम बहुत अच्छा है। यहाँ हर वस्तु कठपुतली की तरह काम करती रहती है। अब डॉक्टर के शब्दों पर ही मेरी भावी स्वतंत्रता निर्भर थी। मैं डॉ. नटवर के सामने पेश किया गया-वे अपनी प्रतिष्ठा के लिहाज से काफी कम उम्र थे, दुबला-पतला शरीर, चेहरे पर गंभीरता, कसकर बंद पतले होंठ, जो तभी खुलते थे जब उन्हें बिकुल नपे-तुले शब्दों में निर्देश देने होते थे। अपने कर्मचारियों से भी वे बहुत कम बोलते थे, सिर हिलाकर या ऊँगली के इशारों से ही वे अस्पताल का सारा काम चलाते थे।

'मि. सम्बू, आपकी माँ को कोई शिकायत नहीं है।' यह कहकर उन्होंने एक फाइल मुझे दी जिसमें अनेक रिपोर्ट, चार्ट और फोटो रखे हुए थे। 'इन्हें संभालकर रखिये। इस चेक-अप की कोई जरूरत नहीं थी। खून, पेशाब, ब्लड प्रेशर, दिल और फेफड़े सब सही हैं। थकान और लम्बे समय तक भूखे रहने के कारण दौरे पड़ते होंगे। किसी दवा की जरूरत नहीं है। सिर्फ यह कि दिन में कई बार खाती-पीती रहें।'

उठते हुए मैंने धन्यवाद देना चाहा लेकिन रुक गया, क्योंकि दूसरे मरीज को हाजिर करने के लिए उनकी घंटी बज चुकी थी। मैंने चलने के लिए कदम उठाये लेकिन मुड़कर पूछ ही लिया, 'ये कब तक जिन्दा रहेंगी?" उनके चेहरे पर सूखी-सी हँसी आयी और वे बोले, 'इस सवाल का जवाब कौन दे सकता है ?..." फिर और मुझसे भी ज्यादा दिन जीयें।"

घर लौटते हुए मैं सोचता रहा कि अगर उन्हें मुझसे और डॉक्टर साहब दोनों से ज्यादा दिन जीना है तो मैं उनसे यह सीधे-सीधे क्यों न कह दूँ कि अभी हम उस चुटियाधारी को और उसकी बेटी दोनों को अपने दिमागों से निकाल बाहर कर सकते हैं। लेकिन लौटते हुए मैंने पाया कि वे बहुत ज्यादा खुश हैं, इसलिए मैंने उनका मूड खराब करने का विचार छोड़ दिया। उन्होंने शादी की तैयारियों के बारे में चर्चा करना शुरू कर दिया था। 'अब तक मुझे यही चिंता सताये जा रही थी कि मैं अकेली यह सब सँभाल नहीं पाऊँगी। लेकिन अब.अब मैं सब कुछ कर लेंगी। अरे, कितने सारे काम करने हैं मुझे.।"

यह सुनकर मैं गाड़ी से बाहर देखने लगा, मैदान में घास चरते जानवर, बैलगाड़ियों की कतार और इस तरह की दूसरी चीजें.। एक ही विचार मेरी शादी, वे और कुछ नहीं सोच पा रही थीं। कहने लगीं, 'जाते ही अपने भाई को चिट्ठी लिख दूँगी कि अपनी बीवी को लेकर तैयारियों में हाथ बँटाने आ जायें, निमंत्रण छपाने नहीं लेकिन भाई बहुत समझदार है.। " रास्ते भर वह इसी तरह बोलती चली आयी। मैं चुप बना रहा। सोचता रहा, बम छोड़ने के लिए काफी वक्त है। यात्रा और चेहरे पर लगती तेज हवा ने उसमें जान डाल दी थी। स्वास्थ्य के बारे में निश्चिंत होकर अब वह अतिरिक्त उत्साह से शादी की तैयारियों में जुट जाना चाहती थी। मैं समझ नहीं पा रहा था कि उसे मेरी आजादी नष्ट करने में क्या खुशी मिल रही थी, गृहस्थ बनकर मैं बीवी के आदेशों पर बाजार जाकर सब्जियाँ और दूसरे सौदे-सुल्फ खरीदने और बच्चे की पोतड़ियाँ बदलने वाला बनकर ही तो रह जाऊँगा। इस ख्याल से ही मेरे बदन में तेज झुरझुरी दौड़ गयी।

टैक्सी जैसे ही घर पहुँचकर रुकी, छुटकी दौड़कर आयी और हाथ में पकड़ा पोस्टकार्ड दिखाकर उत्साह से बोली, 'पोस्टमैन अभी दे गया है।'

'अरे, चिट्ठी आ गयी. !' माँ भी उत्साह से नीचे उतरकर बोली और दरवाजे की सीढ़ियों पर ही खड़ी होकर पढ़ने लगी। फिर बोली, 'एक बजे की बस से आ रहे हैं। इतनी जल्दी .'

'कौन आ रहे हैं? चुटिया वाले.?"

मेरे इस हलकेपन पर उसने आँखें तरेरी। बोली, 'तुम्हें इज्जत से बोलना चाहिए। चुटिया रखते हैं तो क्या हुआ?'उस जमाने में हर कोई रखता था.।' यह कहकर वह दरवाजे की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी और मैं टैक्सी के पैसे चुकाने में लग गया। जब उसने सुना कि गाड़ी लौट कर जा रही है तो फिर उतरकर सड़क पर आयी और कहने लगी, 'अरे, गाड़ी क्यों वापस कर दी? मैं चाहती हूँ कि तुम खुद बसस्टैंड जाकर उन्हें ले आओ, यह कितना अच्छा लगेगा! खैर, अब तुरंत बसस्टैंड चले जाओ जिससे उन्हें इन्तजार न करना पड़े। अच्छा होगा कि तुम जरा जल्दी ही पहुँचो और बस का इन्तजार करो-वे बहुत बड़े आदमी हैं-तुम्हें अंदाज नहीं उनके पास कितना पैसा है और उनका कितना असर है-वे जो चाहें हासिल कर सकते हैं, तुम्हारे इस्तेमाल के लिए बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ भी-हाँ तुम्हें पता नहीं है।

उनके खेतों में चावल से सरसों तक सब कुछ पैदा होता है, सब तरह के अनाज और सब्जियाँ दुकान से उन्हें मिट्टी के तेल के अलावा और कुछ नहीं खरीदना पड़ता।. और, जाने से पहले केले के पते काटकर दे जाना, बड़े-बड़े, पीछे वाले बाग से।' उसके कहने के अनुसार मैंने पत्ते काटकर ला दिये और मेहमान की दावत के लिए बाजार से सब जरूरी चीजें दिला दीं। पैकेट जमीन पर रखते हुए मैंने देखा कि वह रसोई के काम में लगी है और छुटकी के साथ उलझ रही है। वह बड़े उत्साह में थी और जल्दी-जल्दी सब काम कर रही थी। मैं यह सोचकर दुखी होने लगा कि मैं अभी जो उससे कहने जा रहा हूँ, उससे उसका यह सब उत्साह ठंडा पड़ जायेगा।

रसोई के दरवाजे पर खड़ा मैं उसे देखता यह सोचता रहा कि जो चोट मैं उसे देने जा रहा हूँ उसे किस तरह हलकी करूं। चूल्हे से घूमकर वह बोली, 'अब चले जाओ, बिलकुल देर मत करो। अगर बस सही वक्त पर आ गयी तो उन्हें इन्तजार करना पड़ेगा और यह हमारे लिए शर्मिदगी की बात होगी।'

'वो अपने आप नहीं आ जायेंगे, जैसे उस रात को आये थे? तब तो कोई उन्हें लेने नहीं गया था।'

'अब यह मौका दूसरा है.अब उनसे रिश्ता बन रहा है।"

'नहीं, मैं नहीं मानता यह। वो अब भी तुम्हारे लिए गाँव के परिचित रिश्तेदार हैं, और मेरे लिए भी कुछ खास नहीं हैं।'

यह सुनते ही बर्तन उसके हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ा। मेरी बदली आवाज सुनकर मेरे पास आयी और बोली, 'अब तुम्हें क्या हुआ है?'

'वह चुटियाधारी यहाँ अपने-आप आ जाये और खाना खाकर चला जाये। मैं न उसे लेने बस-स्टैंड जाऊँगा, न यहाँ उससे मिल्यूँगा।' 'वह तो तुम्हें अपनी बेटी दिखाने के लिए ले जाने आ रहा है.' 'उससे मुझे कोई मतलब नहीं है। मैं अपने काम से जा रहा हूँ। अच्छी तरह खिला-पिलाकर, जब तुम चाहो उसे वापस भेज देना। मैं तो चला.।"

यह कहकर मैं अपने कमरे की ओर चला कि कपड़े बदलकर चुपचाप बोर्डलैस निकल जाऊँ-लेकिन मेरी बात सुनकर उसके चेहरे पर जो दर्द पैदा हो गया था, वह मेरा पीछा करने लगा। मुझे उस पर दया आयी और अपने लिए घृणा उत्पन्न हुई। मैंने जैसे ही घर के बाहर बना चबूतरा पार किया और सड़क पर पहुँचा, वह दरवाजा खुला छोड़कर मेरे पास आयी और रास्ता रोककर कहने लगी, 'तुम उस लड़की से शादी नहीं करना चाहते और उसे देखना भी नहीं चाहते. मुझे मंजूर है।. लेकिन मैं प्रार्थना करती हूँ कि बस-स्टेशन जाकर उसे लिवा लाओ। वे मेरे निमंत्रण पर यहाँ आ रहे हैं, हमारे परिवार के मित्र हैं, इसलिए यह हमारा फर्ज है। नहीं तो यह उनका अपमान होगा और सारा गाँव सौ साल तक हमारी बुराई करता रहेगा। वे यह कहें कि इस बदतमीज विधवा ने खुद बुलाकर भी आदर नहीं किया-इससे तो मैं मर जाना ही अच्छा समझेंगी। अपने परिवार की इज्जत बरबाद मत करो।' यह कहते हुए उसकी आँखों से आँसू झर-झर बह रहे थे।

'पिछली दफा तो वे खुद आ गये थे?'

'आज हमने उन्हें बुलाया है।' यह सब धीमी आवाज में कहते हुए उसे परेशानी हो रही थी, जिससे पड़ोसी और राह चलते न सुन लें। साड़ी के छोर से की सच्चाई समझ में आ गयी और मुझे अपने से गहरी नफरत हो आयी।

इस निमंत्रण के लिए मैं भी जिम्मेदार था। मैं सोचने लगा, 'अब मैं क्या करूं!" वह उसी तरह कहे जा रही थी, 'उन्हें ले आओ, साथ खाना खाओ, बातचीत करो, फिर न चाहो तो मत करना। मैं कोशिश करूंगी कि वे लड़की का जिक्र न करें, तुम्हें शादी की चिंता करने की जरूरत नहीं है। तुम जो चाहो करना, संन्यासी बन जाना या पापी, मैं कोई दखल नहीं दूंगी। यह आखिरी बार है। जब तक मेरी साँस चलती है, कभी कुछ नहीं कहूँगी, यह मेरा प्रण है। हालाँकि मेरा यह सपना कि इस घर में पोते-पोतियाँ. " यह कहते-कहते वह फिर फूट फूटकर रो पड़ी।

माँ की इस बात से मैं भीतर तक हिल उठा। उसे धीरे से दरवाजे के भीतर करते हुए बोला, ' भीतर चलो, कोई देख न ले। मैं बसस्टैंड जा रहा हूँ, उन्हें ले आता हूँ। उस दिन उन्हें मैंने ध्यान से देखा नहीं था, लेकिन चुटिया से जरूर पहचान लूँगा।. फिर तुम जो ठीक समझो, करना।"

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