डोडू (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण

Dodu (English Story in Hindi) : R. K. Narayan

डोडू आठ साल का था, और उसे पैसे की सख़्त ज़रूरत थी। लेकिन छोटा होने के कारण कोई उसकी पैसे की ज़रूरत पर ध्यान नहीं देता था। उसे बहुत-सी चीज़ों के लिए पैसे चाहिए थे: दिवाली आ रही थी और छुड़ाने के लिए बहुत से चीनी पटाखे लाने थे, एक बढ़िया-सा कलमदान लाना था, जिसके लिए स्कूल में मास्टर साहब छड़ी उठाकर बार-बार कहते रहते थे। डोडू को अपने बड़ों पर विश्वास नहीं था। वे उसकी मांगों पर ध्यान ही नहीं देते थे। उनकी अपनी जेबें पैसों से खनकती रहती थीं, फिर भी वे देने के मामले में बेहद कंजूस थे। उनका बस चलता तो एक-भी पैसा जेब से न निकालते।

डोडू का दफ़्तर वह लकड़ी का बड़ा-सा बक्सा था जो हमेशा खुला पड़ा रहता था। किसी भी वक़्त जब उसका मन करता, वह दफ़्तर में काम करने लगता, जब उसे कोई गंभीर बात सोचनी होती तो वह बक्से के भीतर घुसकर बैठ जाता। उसमें रखी चीज़ें इतनी कमज़ोर नहीं होती थीं कि इस बच्चे की वजह से टूट-फूट जातीं। घर की सब बेकार हुई चीज़ें इस बक्से में डाल दी जाती थीं। हर शाम डोडू घर का चक्कर लगाता और इस तरह की चीज़ें इकट्ठी करता। उसके पिता के कमरे में जो कूड़ादान था, उसमें इस तरह की चीज़ें बहुत मिलती थीं: आकर्षक किताबों के कवर, ज़िल्द चढ़ाने वाला भूरे रंग का काग़ज़, बड़े लिफाफे, चमकते हुए सूचीपत्र, भूरे रंग के धागों के टुकड़े। अपने बड़े भाई की खिड़की के नीचे गोल्ड फ़्लेक सिगरेट के डिब्बे, चमकते हुए उनके भीतर रखे काग़ज़, रेज़र ब्लेड, कार्डबोर्ड के डिब्बे मिलते थे। जब उसकी बहन घर पर न होती, वह उसका बक्सा खोलता और रंग-बिरंगे धागे निकाल लेता।

इस तरह बक्से का सामान दिनोंदिन बढ़ता चला जाता था। सप्ताह के अंत में बक्सा ऊपर तक भर जाता और चीज़ें ऊपर तैरने लगतीं, हालांकि यह घर का सबसे बड़ा बक्सा था। जब यह ठसाठस हो जाता और चीज़ें बाहर निकलकर दीवार तक फैल जातीं और पास में ही रखे कोट के स्टैंड तक उनकी लाइन लग जाती, तब पिता की उस तरफ़ नज़र जाती। डोडू कुछ-कुछ समय बाद आने वाले पिता के इस ध्यान देने से डरता रहता था, क्योंकि तब वे इसकी सारी चीज़ें बगल की गली में बने कूड़ाघर में उलटवा देते। फिर पिता की नज़र इस काम से हटते ही

डोडू गली में जाता और अपनी पसन्द की बहुत सी चीज़ें निकालकर ले आता था। घंटे भर तक इसलिए उसका दिल टूटता रहता। लेकिन पिता की डाक हर रोज़ आती थी और बहन भी रंगीन धागे ख़रीदती ही रहती थी, और उसका भाई तो हमेशा सिगरेट पीता रहता था।

डोडू बक्से में बैठा सोच रहा था कि पैसे का इन्तज़ाम कैसे किया जाए। उसे ख़्याल आया कि एक दफ़ा पहले उसने जो धंधा किया था पैसे इकट्ठा करने के लिए, क्या उसे दोबारा शुरू किया जाए। मद्रास वाले उसके चाचा ने उसे एक रुपया दिया था। उसे लेकर डोडू फ़ौरन पोस्ट ऑफ़िस चला गया था और वहां से उसने बारह भूरे स्टांप, चार हरे स्टांप, और चार पोस्ट कार्ड ख़रीदे थे: फिर उसने एक तुड़े-मुड़े मोटे काग़ज़ पर अन्त में लिखा: ‘स्टांप की दुकान’ और उसे अपने कमरे की खिड़की पर लटका दिया था, जो सड़क की तरफ़ खुलती थी। उसके ख़ास ख़रीददार घर के ही बड़े-बूढ़े थे, पिता को छोड़कर। और उन्होंने सब चीज़ें इतनी तेज़ी से ख़रीद लीं कि उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। इन पर वह तीन पैसे प्रति स्टांप मुनाफ़ा लेता था। अन्त में एक कार्ड रह गया, जिसे ख़रीदने एक पड़ोसी आ गया, पर उसे जब डोडू ने क़ीमत बताई, तब वह आपे से बाहर हो गया। वह पागल की तरह चिल्लाने लगा और बोला कि वह पुलिस में रिपोर्ट करेगा। डोडू यह सुनकर डर गया। लेकिन फिर भी उसमें इतनी हिम्मत थी कि वह पूछने लगा कि बिना किसी फ़ायदे के कोई क्यों कहीं से ख़रीदकर कोई चीज़ बेचेगा? लेकिन अंत में उसने इस ख़तरनाक पड़ोसी से पीछा छुड़ाने के लिए कार्ड उसे बेच ही दिया। नतीजा यह हुआ कि लाभ से मिली रकम को बार-बार इसी तरह बिक्री करने का उसका सपना चकनाचूर हो गया। उसे लाभ नहीं हुआ और वह लगाई गई पूंजी भी गंवा बैठा। उसे कोई ऐसा छेद भी नहीं दिखाई देता था जिससे उसका पैसा बहकर बाहर निकल गया हो, वह अपने आप ही ख़त्म हो गया था। बड़ों ने उधार पर ख़रीदारी की कि बाद में चुका देंगे। कई के पास ‘रेज़गारी’ की भी कमी थी। फिर डोडू इस व्यापार के बारे में भूल-भाल गया था-कि एक शाम एक आदमी घर आया और दस अधन्ने के स्टांप और सोलह पोस्ट कार्ड मांगने लगा। पिता ने उसे वापस कर दिया। पर उसने कहा कि खिड़की पर लिखा है, इसलिए वह ये लेकर ही रहेगा। पिता ने बोर्ड उतारकर फाड़ डाला और डोडू को फटकारा। डोडू बार्ड उतारना भूल गया था। हालांकि उसने तय कर लिया था कि यह काम बन्द कर देगा।

इस समय बक्से के भीतर बैठा वह मन-ही-मन अपने अनुभवों से प्राप्त शिक्षाओं का आकलन कर रहा था। पहली शिक्षा यह थी कि अपने बड़ों से वह किसी प्रकार की सहायता या सहानुभूति की आशा नहीं कर सकता। दूसरी शिक्षा यह अगर चाचा उसे फिर एक रुपया दें तो वह उसे पहले की तरह व्यापार में नहीं लगाएगा, ये बेवकूफ़ी की योजनाएं हैं। टिकट वगैरह ख़रीदना और बेचना एक बेकार-सा काम था। ख़रीदने का हिस्सा तो शायद सही था, लेकिन बेचने का पहलू इस परिभाषा में ही नहीं आता था-एक तरह से यह बिना कुछ कमाए उन्हें फेंक देना था।

खिड़की के बाहर नज़र डाली तो उसने नारियल के पेड़ पर एक आदमी को चढ़े देखा जो उनके कीड़े साफ़ कर रहा था। डोडू बक्से से कूदकर बाहर निकता और उसके पास जा पहुंचा।

‘हाय!’ उसने ऊपर देखकर आवाज़ लगाई। ‘तुम रोज़ इससे कितना कमाते हो?’

‘करीब दो रुपए, उसने पेड़ के ऊपर से जवाब दिया।’

‘दो रुपए! यह तो काफ़ी ज़्यादा कमाई है! तुम्हें नहीं लगता कि और कामों से यह ज़्यादा है?’ डोडू ने पूछा।

आदमी हंसा और जवाब में अपने बीवी-बच्चों के बारे में कुछ कहा। डोडू को इस आमदनी पर आश्चर्य हो रहा था। इतने पैसे से तो वह पता नहीं क्या-क्या ख़रीद सकता है-ढेर सारे चीनी पटाखे, आसमान तक ऊंचा ढेर, और मिठाइयों और पेंसिलों से भरे बक्से।

क्या मैं भी यह कर सकता हूं? उसने पूछा।

‘हां, हां, क्यों नहीं!’ जवाब मिला।

लेकिन नारियल का पेड़ तो बहुत बड़ा होता है। वहां तक पहुंचने पर ही दो रुपए मिलेंगे। वहां तक पहुंचा कैसे जाएगा?

‘अच्छा, सुनो,’डोडू चिल्लाकर बोला। ‘ये कीड़े इससे ज़्यादा पास नहीं मिल सकते?’

‘नहीं,’ नारियल वाले आदमी ने कहा,‘ये पेड़ के ऊपर ही छिपते हैं और नारियल के भीतर घुस जाते हैं। मैं उन्हें निकालकर नीचे डाल देता हूं और मुझे हर पेड़ के तीन आने मिलते हैं।’ उसने कुछ मुलायम पत्ते उखाड़े और उन्हें नीचे फेंक दिया। डोडू ने एक पत्ता उठाया।

यह बहुत आकर्षक था, लम्बा, मुलायम, पीला? उसने अपने अंगूठे से उसे खुरचा। उसका निशान पड़ गया, वह फिर लाल हो गया उसने एक और पत्ता उठाया और उस पर अपना नाम कुरेद दिया। वह भी बहुत सुन्दर था। उस एक विचार सूझा। उसे एक घटना याद आई जो उसके भाई ने मां को सुनाई थी। उसके एक भाई के दोस्त ने एक पत्ते को लाइब्रेरी में बेचा था जिस पर कुछ लिखा था। यानी इससे पैसा कमाया जा सकता है।

दूसरे दिन सवेरे उसने सामान्य ढंग से बात छेड़ी और भाई से यह कहानी फिर सुनी। भाई ने बताया कि स्थापत्य विभाग के डायरेक्टर डॉ। आयंगर ने मैसूर ऑरियन्टल लाइब्रेरी के लिए एक पत्ता ख़रीदा था जिस पर एक ऐतिहासिक विवरण लिया था। डोडू ने बड़े ध्यान से लाइब्रेरी और डायरेक्टर का नाम सुना।

उसी शाम वह लाइब्रेरी के लिए चल पड़ा। मन में वह सपने देख रहा था कि इस दिवाली पर वह ढेर सारे पटाखे चलाएगा। बड़े से गुम्बद वाली लाइब्रेरी की इमारत को देखकर वह डर गया। उसे लगा कि उसे इसमें जाने भी दिया जाएगा या नहीं। एक दरवाज़े के बाहर चपरासी बैठा था जो घुटने ऊपर किए ऊंघ रहा था। उसने बड़ी इज़्ज़त से उससे कहा,‘मैं इस इमारत के दफ़्तर में उसके सबसे बड़े अफ़सर से एक ज़रूरी काम से मिलना चाहता हूं।’ चपरासी ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, वह बैठा उसी तरह सोता रहा।

डोडू इमारत में घुसा और इसके बड़े-बड़े कमरों और गैलरियों को देखकर ख़ुद को बहुत छोटा महसूस करने लगा। चारों तरफ़ पत्थर की मूर्तियां रखी थीं जिनके साथ लगे पत्थरों पर काफ़ी कुछ लिखा हुआ था। बहुत से पंडित रंगीन शाल पहने लम्बे-लम्बे ताड़पत्रों को पढ़कर कुछ काम करने में लगे थे। सब कुछ इतना विशाल और शानदार था कि डोडू ने वहां से भाग जाने का विचार करना शुरू कर दिया। हॉल बहुत बड़ा था जहां की निस्तब्ध शान्ति में उसे अपने दिल की धड़कनें सुनाई पड़ने लगीं।

लेकिन अपनी सारी हिम्मत बटोरकर वह एक बहुत बड़ी मेज़ के सामने खड़ा हो गया जिस पर पगड़ी बांधे और चश्मा लगाए एक पहलवान-सा आदमी बैठा था।

‘सर,’ डोडू ने बहुत ही धीमी आवाज़ में उसके सामने खड़े होकर कहा। पहलवान ने सुना तक नहीं।

‘सर,’ डोडू ने फिर कहा। इस बार उसकी आवाज़ जैसे चिल्लाकर बोलने की थी।

पहलवान इस बार चौंक पड़ा और सिर उठाकर देखने लगा। लेकिन उसे कुछ दिखाई नहीं दिया।

‘क्या आप डॉक्टर हैं?’ आवाज़ ने प्रश्न किया। आदमी आवाज़ के खरखरेपन के कारण आश्चर्य में पड़ गया था। उसने आंखें इधर-उधर दौड़ाई तो उसे मेज़ की सतह के पास काले बालों का एक टुकड़ा दिखाई दिया। कुर्सी पीछे सरकाकर वह उठा। उसने देखा कि मेज़ के उस पार गंदी सी निकर और कोट पहने एक छोटा-सा बच्चा खड़ा है। उसे अच्छे व्यक्तित्व वाले विद्वानों और छात्रों से ही मिलने की आदत थी।

‘तुम यहां क्या कर रहे हो? उसने पूछा।’

‘मैं एक डॉक्टर से मिलने आया हूं,’ डोडू ने जवाब दिया। ‘आप डॉक्टर हैं?’

‘हां, तुम कौन हो?’

डोडू एक कुर्सी पर चढ़कर खड़ा हो गया।

‘अगर आप डॉक्टर हैं तो मेरे पास आपके लिए बड़ी अच्छी चीज़ है। मैंने सुना है कि आप ताड़ के पत्तों के लिए, जिन पर कुछ लिखा होता है, काफी पैसे देते हैं। ऐसी चीज़ों के लिए आप सौ रुपए भी देते हैं।’ यह कहकर उसने जेब से कुछ तुड़े-मुड़े पत्ते निकाले और उसे दिए।

डॉक्टर के लिए यह मनोरंजक परिवर्तन की तरह था। उसने मुस्कराकर उन पत्तों को देखा। एक पर जग, नाक और घोड़ा बना था, और लड़के का कन्नड़ में ‘डोडू’ नाम लिखा हुआ था। दूसरे पत्ते पर ये वाक्य लिखे थे ‘गाय एक पालतू जानवर है। यह राम की किताब है। तीसरे पर अंग्रेज़ी में कॉट, ऑक्स, फिग, फियर, बेबी और ए ए ए ए बी सी एफ़ जी’ लिखे थे।

डॉक्टर को पढ़ने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई। उसने पत्थरों और तांबे की प्लेटों पर राजाओं द्वारा लिखाए गए कठिन लेख पढ़ने में सफलता प्राप्त की थी। उसकी तुलना में डोडू द्वारा लिखी भाषा, टेढ़ी-मेढ़ी और छोटी-बड़ी होते हुए भी बहुत आसान थी।

पढ़ने के बाद वह सीधा होकर बैठ गया और ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगा।

डोडू को यह बुरा लगा। उसने अपने से कहा कि डॉक्टर को इस पर हंसने की ज़रूरत नहीं है। अगर उसे पत्ते नहीं चाहिए तो वह उन्हें वापस कर दे। डोडू उन्हें ले लेता और किसी और डॉक्टर से बात करता लेकिन उसने मुंह से कुछ नहीं कहा।

डॉक्टर ने पूछा,‘तुम्हें किसने बताया कि मैं ऐसी चीज़ों के लिए पैसे देता हूं?’

डोडू ने वह सब बता दिया जो उसे भाई से पता चला था।

डॉक्टर का चेहरा मनोरंजन से खिल रहा था। ‘तुम बड़े अच्छे लड़के हो,’ वह बोला,‘तुम वही चीज़ लाए हो जिसकी मुझे ज़रूरत थी। मैं इसे ख़रीद लूंगा।’

उसने पत्ते रख लिए और जो भी सिक्के उसकी जेब में थे, निकालकर डोडू को दे दिए। यह चार आने थे। सिक्कों में चार आने काफ़ी ज़्यादा लगते थे। डोडू ने ख़ुशी से वे रख लिए।

‘तुम किसके बेटे हो?’ डॉक्टर ने पूछा।

डोडू इसका जवाब नहीं देना चाहता था। यह सौदा गुप्त था।

‘मुझे पता नहीं,’ उसने अबोध भाव से कहा,‘मेरे पिता किसी दफ़्तर में काम करने जाते हैं।’

‘तुम्हारा नाम क्या है?’ डॉक्टर ने फिर पूछा।

‘रामस्वामी,’ डोडू ने कुछ रुककर जवाब दिया।

यह नाम ग़लत था। घर पर उसका नाम ‘डोडू’ और स्कूल में ‘लक्ष्मण’ था।

‘अच्छा, रामस्वामी,’ डॉक्टर कहने लगा,‘तुम घर ठीक से जा सकते हो? तुम फ़ुटपाथ पर चलना। सड़क पर बहुत सी गाड़ियां चलती हैं, उस पर चलना ख़तरनाक है।’

डोडू एक बुढ़िया के सामने जाकर खड़ा हो गया जो मुंगफलियां बेच रही थी। तीन पैसे में उसने उसकी जेब भर दी। मूंगफली खाते हुए उसने सामने के मैदान में घास चरती गायों को देखा, सूरज चमक रहा था, और वह बहुत ख़ुश और संतुष्ट महसूस कर रहा था।

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