डाक्टर शोभा (कहानी) : प्रकाश मनु

Doctor Shobha (Hindi Story) : Prakash Manu

1

दफ्तर से आकर अपना लटकंतू थैला एक ओर रख, अभी कुर्सी में धँसा ही था कि हाथ में पानी का गिलास पकड़ाते हुए छुटकी ने कहा, “पापा, आपको पता है डाक्टर शोभा...?”

“हाँ-हाँ, डाक्टर शोभा! क्या हुआ उन्हें, सब ठीक तो है?”

घबराहट के मारे गिलास का पानी कपड़ों पर छलक गया। होंठ सूख रहे थे, जीभ खुश्क। मगर पानी पीने की इच्छा मर चुकी थी।

जरूर मेरी आवाज में कोई ऐसी थरथराहट या अजब-सा खौफ व्याप गया होगा कि छुटकी डर गई। बुरी तरह। चेहरा भय के मारे पीला।

“नहीं!” दूर से आती सुजाता ने डाँटा। चेहरे पर एक सख्त सा झिड़कता हुआ भाव कि क्यों बताया? अभी क्यों बताया? कुछ रुककर नहीं कह सकती थी?

पानी का गिलास मेज पर पड़ा था और मैं किसी बेजान शव की तरह कुर्सी में धँसा हूँ।

सुजाता सामने पड़ी तो मैंने भीतर की सारी शक्ति बटोरकर, बेचैनी से पूछ लिया, “क्या हुआ डाक्टर शोभा को?”

सुजाता चुप। आँखों में ऐसी कातर चुप्पी कि सब कुछ बोलते हुए भी, कुछ नहीं बोलती।

इससे उबरने में उसे थोड़ा वक्त लगा। आँखों की डबडबाहट सायास रोककर तटस्थ ढंग से दो शब्द आगे बढ़ा दिए गए हैं, “नहीं रहीं।”

“कब...? कब...? क्यों...! क्या हुआ था? क्या डॉ. सचदेवा ही जिम्मेदार थे इसके लिए? जरूर होंगे वही...वही।” मेरे सवाल धैर्य खोते जा रहे थे।

पर इन सवालों का जवाब नहीं आया।

जो कुछ सुजाता ने बताया, उससे सिर्फ इतना ही पता चला कि घटना तो कल आधी रात की है। पर आज दोपहर को ही लोगों को पता चला कि...सुसाइड कर लिया था...खत्म!

“तुम...गई थीं?” पूछने में मानो काफी शक्ति लगानी पड़ी।

“हाँ, पर क्लीनिक के गेट पर ताला जड़ा था। पास में मजदूरों की एक झोंपड़ी है। उन्हीं में से कोई बता रहा था...कि यह कांड होते ही सारे मरीज उठ-उठकर गायब हो गए। डॉक्टरनी का शव सिविल हॉस्पीटल ले जाया गया है पोस्टमार्टम के लिए। इधर पुलिस का भी चक्कर पड़ा है। तो डॉक्टर दोनों बच्चों को साथ लेकर गायब। साथ ही वह चालाक लोमड़ी पूरबी मेहता भी...!”

यानी खत्म! खत्म एक खूबसूरत औरत की जिंदा कहानी। वह औरत जो अपनी देह से ज्यादा मन-प्राणों और आत्मा से खूबसूरत थी।

यही—ठीक यही आशंका थी कि मेरी आवाज छुटकी की आधी बात सुनते ही बुरी तरह थरथरा गई थी। चेहरा निचुड़ गया था।

2

असल में, झूठ क्यों बोलूँ, आशंका तो इस बात की थी। और कोई आज से नहीं, पिछले दो-तीन बरसों से थी कि कभी...कभी भी, कुछ भी हो सकता है। मगर साथ ही यह उम्मीद भी थी कि नहीं, कुछ होगा! कुछ न कुछ ऐसा चमत्कार कि रुक जाएगा बुरी स्थितियाँ का तेजी से घूमता यह चक्का...कि दुर्घटना टल जाएगी।

मुझे मालूम था, दो-तीन ऐसी छोटी-मोटी असफल कोशिशें पहले भी हो चुकी थीं। पर यह अंतिम थी। अंतिम और निर्णायक, जिसके बाद एक बड़ा मोड़ आता है और फिर कहानी खत्म!

आशंका और उम्मीद के दोनों पलड़ों में से आशंका का पलड़ा दिनोंदिन भारी होता जा रहा था। तो उसका नतीजा कुछ न कुछ तो निकलना ही था।

खासकर जब से दो-ढाई कमरों वाले, हाउसिंग बोर्ड के अपने छोटे-से फ्लैट से डाक्टर शोभा और डॉ. सुभाष सचदेवा अपना ‘होली सिटी क्लीनिक’ चार सौ गज की एक तिमंजिला आलीशान कोठी में लाए थे, तब से चीजें कुछ इस तरह से बदली थीं कि उन पर किसी का काबू नहीं रहा था। न डाक्टर शोभा का, न डॉ. सुभाष सचदेवा का। पैसा खूब कमाया था दोनों ने और पिछले पाँच-सात सालों में ही चार सौ गज की यह भव्य कोठी खड़ी कर ली थी, जो बहुतों का गर्व चूर-चूर करती, हवा में किसी सपने की तरह इठलाती हुई खड़ी थी। खूब रौनक। बत्तियों की जगर-मगर। कारों के आने-जाने का सिलसिला। रात को लॉन में देर-देर तक चलने वाली शराब पार्टियाँ...!

तब से डॉ. सुभाष सचदेवा और डाक्टर शोभा के दांपत्य जीवन की सुख-समृद्धि से ईष्र्या करने वाले बहुत पैदा हो गए थे। पर भीतर की बात कम ही लोगों को मालूम थी। बहुत कम लोगों को उस दरार का पता था जिसने पति-पत्नी के रिश्ते की हरियाली को खत्म कर दिया था और इसकी चोट हर दफा डाक्टर शोभा के मर्मस्थल पर पड़ती। मर्दानगी के दर्द से दिपदिपाता डॉ. सुभाष हर बार उसे रौंदता हुआ कुछ और आगे बढ़ आता।

“अब मुश्किल है, बहुत मुश्किल...! दिनोंदिन मुश्किलें बढ़ रही हैं, कोई अंत नहीं।” डाक्टर शोभा ने एक बार बहुत टूटकर बताया था सुजाता को।

“अच्छा!” सुनकर मैं अवाक रह गया था। हालात यहाँ तक...?

“कुछ करना चाहिए सुजाता।” मैंने मानो अंधे की तरह हवा में कुछ टटोलते हुए कहा। मैं बुरी तरह अकुलाया हुआ था।

“क्या?” सुजाता का सीधा सा सवाल, जिसका उत्तर इतना सीधा नहीं था।

“डॉ. सुभाष सचदेवा से मिलकर कुछ बातें, ताकि चीजें कुछ साफ हों।”

“ठीक रहेगा? बातें साफ होंगी या उलझेंगी? वे पसंद करेंगे कि हम खामखा...” सुजाता भी इतनी ही परेशान। पर अँधेरे में लाठी शायद नहीं चलाना चाहती।

“सच तो यह है कि डाक्टर शोभा ने मना किया है।” कुछ देर बाद सुजाता बोली, “कह रही थी कि डॉ. सुभाष बहुत तंग ख्यालों के आदमी हैं...एकदम मर्द। पूरे पक्के पाषाणकालीन ख्यालों वाले, जो समझते हैं कि बस उनकी ‘हाँ’ को ‘हाँ’ समझा जाए ‘ना’ को ‘ना’। औरत को अपनी दिमाग इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं।”

फिर सुजाता ने जो कुछ बताया, उससे मैं एकबारगी काँपकर रह गया। पता चला कि अब तो मरीजों के आगे भी यह पत्थरदिल आदमी डाक्टर शोभा का अपमान कर डालता है। तू-तड़ाक पर उतर आता है। शोभा जैसी सेंसिटिव स्त्री के लिए यह चीज क्या मर जाने के मानिंद नहीं? आधी-आधी रात तक उस कोठी से डाँट-डपट की आवाजें आतीं, मानो डॉ. सुभाष अपनी हर चीज की ताईद चाहता है। बात-बात पर सफाई माँगने की आदत। और शोभा अनचाहे ही अपराधी के कटघरे में आ खड़ी होती।

बहुत-से मरीज इस बात के गवाह हैं कि डाक्टर शोभा एक दिन में नहीं मरी, वह तो रोज थोड़ा-थोड़ा मर रही थी।

और एक रोज तो जब सुभाष ने किसी बात पर उसे चिढक़र चाँटा लगा दिया, तो शोभा पूरे दिन अपने कमरे से बाहर नहीं निकली। पर बच्चों का रोना-बिलखना नहीं देखा गया, तो रात को खाना बनाने के लिए बाहर आ गई। फिर प्रेगनेंसी का एक इमरजेंसी केस था। भीतर-भीतर रो रही थी वह, लेकिन बाहर सधे हाथों से अपना डॉक्टरी का सख्त कत्र्तव्य...

वही डाक्टर शोभा, रोज तिल-तिलकर मरती डाक्टर शोभा अब नहीं रही।

उफ! एक समाचार—एक पंक्ति का एक समाचार कैसे पूरा एक अंधड़ बन जाता है। जितना-जितना उसे शांत करो, उतना ही बढ़ता जाता है। और इस आँधी में देखते ही देखते छप्पर-छानी सब उड़ने लगे। बल्लियाँ टूटती हैं। बाँस बिखरते हैं। सब तिनका-तिनका, सब तहस-नहस!

कबीर को क्या पता था कि जैसे ज्ञान की आँधी आती है, वैसे ही शोक की भी एक आँधी होती है और...

3

“लेकिन हुआ क्या था?” मैंने शायद तीसरी या चौथी दफा पूछा। बेमतलब।

अभी तक पूरी तरह इस मृत्यु को स्वीकार करने को मन नहीं मान रहा था। लेकिन फिर भी, चारा क्या था। मृत्यु किसी के टाले तो टलती नहीं। वह हैं—एक सख्त, पथरीला सत्य।

“लेकिन...हुआ क्या था?” मृत्यु के उसी आघात से उबरने को कोशिश करते हुए मैं एक दफा फिर पूछता हूँ। एक कष्टकारी सवाल जो अभी तक अनुत्तरित ही था।

अब के जो पूरी बात सुजाता ने बताई और जो टुकड़ों-टुकड़ों में डाक्टर शोभा के कई अड़ोसियों-पड़ोसियों के जरिए उस तक आई थी, वह यह कि झगड़ा तो महीनों से चल ही रहा था। कोई न कोई बात होती, कोई भी छोटी-सी, न कुछ-सी बात और वह बढ़ जाती। शोभा किसी तरह उसे टालती। चेहरे पर मुसकराहट लाकर अंदर ही अंदर पीती और जीवन चल पड़ता। लेकिन इधर दो-तीन दिनों से हालात खराब थे। रात-दिन झगड़ा। या तो दोनों मुँह पर पट्टियाँ बाँधे रहते या फिर झगड़ते। मन की सारी भड़ास निकालते। शोभा ने भी मानो जीने-मरने का फैसला कर लिया था। जो होना हो, हो। मगर...यह गुलामी नहीं!

जिस रात हादसा हुआ, दोनों की जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आती रहीं। शोभा शायद पिट रही थी, लेकिन फिर भी जो जी में आता, कहे जा रही थी।

डॉक्टर भला इतना बर्दाश्त कैसे करता? वह तो दरिंदा हो रहा था। उसने उसे घर से बाहर निकल जाने के लिए कहा।

इस पर शोभा ने कहा, और जीवन में पहली बार साफ-साफ मुँह खोलकर कहा, “क्यों जाऊँ? यह मेरा भी तो घर है। मेरी भी तो कमाई से बना है।...बल्कि मेरी कमाई ज्यादा है!”

“ठहर, बताता हूँ मैं तुझे!” डॉ. सुभाष की आँखों मे जो पाशविक हिंसा भड़की, उसने शायद शोभा को डरा दिया। वह दौड़ी-दौड़ी मरीजों वाले कॉरीडोर में चली गई, ताकि इस बहाने बच जाए। लेकिन डॉ. सुभाष पर तो खून सवार था। उसने वही उसे दो-तीन चाँटे मारे और घसीटते हुए अपने कमरे तक लाया। बैड पर पटक दिया और उसके गले को अपनी हथेलियों से कसते हुए बोला, “बता, अब बोलेगी आगे, बता? बड़ा अपने को डॉक्टर-फॉक्टर समझती है तो अभी निकाल दूँगा घमंड सारा! इन्हीं मरीजों के आगे नंगा करके परेड न निकाली तो मेरा नाम सुभाष नहीं।”

डाक्टर शोभा का चेहरा ऐसे सफेद हो गया था, जैसे जिंदा लाश। उसी समय चार-छह मरीजों और उनके रिश्तेदारों ने दौड़कर बीच-बचाव किया तो मामला किसी तरह शांत हुआ।

मगर...क्या सचमुच? मरीजों के जाने के बाद भी डॉक्टर सुभाष भुनभुनाता रहा और मुट्ठियाँ भींचते हुए बोला था, “सँभल जा, वरना यहीं से तेरी अर्थी निकलेगी, अर्थी! समझी?”

बस, वही क्षण रहा होगा कि डाक्टर शोभा पूरी तरह टूट गई और मृत्यु की इच्छा ने, मृत्यु की बर्बरता ने उस पर विजय पा ली। डॉ. सुभाष कमरे से निकला तो पीछे-पीछे वह भी मुँह-हाथ धोने के बहाने निकली। लैब में जाकर कोई इंजेक्शन भरा और सीधा नस में...

पाँच मिनट भी नहीं बीते कि खत्म, सब खत्म!

उससे दस मिनट पहले ही डॉ. सुभाष मरीजों के बीच चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था, “नाटक करती है साली, रोज नाटक करती है! न खुद जीती है, न मुझे जीने देती है। मरती भी नहीं...पागल औरत!”

और दस मिनट बाद यह दुखांत नाटक इस चरम तक पहुँच गया था कि जिसके आगे फिर कोई नाटक नहीं रह जाता। और हर चीज पर परदा गिर जाता है।

4

उसके बाद दो-तीन दिन सचमुच आँधी-तूफान की तरह निकले। भीतर-बाहर आँधी। सुजाता मुझसे और मैं सुजाता से मानो एक-एक क्षण मुखातिब होते। हम कुछ कहना चाहते हैं, मगर सारी बातें जैसे छिन गई हों। बार-बार पुरानी स्मृतियाँ कौंधती। कभी-कभी स्मृतियों की एक साथ कई-कई धाराएँ तैरती हुई चली आतीं। हम बात करना चाहते, मगर होंठ जैसे किसी ने सी दिए थे। लगता था कुछ भी कहेंगे, एक भी शब्द, तो यह दुख और बढ़ेगा—असहनीय...मारक!

इस बीच लोगों को जैसे बड़ा भारी ‘काम-काज’ मिल गया। खबरों और अफवाहों का अनंत सिलसिला चलता रहा। अखबारों में खबरें अलग आतीं और मोहल्ले के नाम-रूपहीन अदृश्य अखबारों में वे अलग ढंग से टिपी होतीं। कहानियों में से कहानियाँ निकल रही थी, जिनमें न जाने कहाँ-कहाँ की चंडूखाने की ‘भूत कथाएँ’ जुड़ रही थीं। और यह महाकथा एक विशाल उपन्यास के कलेवर से भी कुछ आगे निकल गई थी।

मगर यह भी तय था कि सबकी सहानुभूति डॉक्टर शोभा के साथ थी। उसे याद करते-करते लोगों की आँखें नम हो जातीं। सारे मोहल्ले से उसी के रिश्ते थे। उसी का अपनापन सबको बाँधता। किसी को उसने भाभी बना रखा था, किसी को बहन। कइयों को आंटी-ताई, कइयों को माता जी। सब उसकी बच्चों जैसी मुसकान पर निसार थे। सब कहते कि जब यह हँसती है या बातें करती हैं तो बिलकुल घर की सदस्य लगती है। इसीलिए ज्यादातर को लगता था, उनके घर का ही कोई सदस्य चला गया। डॉक्टर सुभाष का घाघ और मतलबी चेहरा सब जानते थे। उससे अगर बोलते, बात करते थे लोग, तो भी डॉक्टर शोभा की वजह से। प्रैक्टिस भी डाक्टर शोभा की ही ज्यादा चलती थी। जब देखो, तब वह मरीजों से घिरी रहती थी।

पर अब फुसफुसाने वाले फुसफुसाकर कह रहे थे, “जरूर कोई न कोई बात तो थी। नहीं तो कोई आदमी भला क्यों अपनी औरत पर खामखा हाथ उठाएगा?”

और औरतों में ही कुछ यह कहने वाली भी थीं, “सबसे इतना हँस-हँस के बोलती थी। जरूर कोई चक्कर चला लिया होगा।...अब मर्द तो मर्द होता है, भला कैसे बर्दाश्त करे? जिंदा मक्खी तो नहीं निगली जाती न बहन!”

हैरानी की बात यह है इस सबमें उस पूरबी मेहता का नाम कहीं नहीं है जो इस झगड़े की जड़ थी—या कम से कम बनती जा रही थी। पिछले दो-तीन सालों से।...यह भी उस ‘जादूगरनी’ के जादू का एक कमाल! सारी डोरें उसके हाथ में थीं, मगर वह कहीं नहीं!

क्या यह इसलिए था कि डाक्टर शोभा ने अपने पति की ज्यादतियों और लालचीपन की कथाएँ तो बहुतों को सुनाईं और यह भी कि डॉ. सुभाष उसे पीटता है दरिंदों की तरह, मगर पूरबी की कथा अनकही ही रही। यानी उसने यह किसी से नहीं कहा था कि एक कोई पूरबी मेहता है जिसे वही लाई थी क्लीनिक में, और जो बढ़ते-बढ़ते इतनी बढ़ गई थी कि...कहानी अब उसी के चारों और घूमने लगी थी।

क्यों, भला क्यों? पूरबी मेहता के जिक्र से वह क्यों हमेशा बचती थी? शायद इसलिए कि उसके बारे में कहते ही उसे लगता था, कहीं मैं छोटी न हो जाऊँ।

वैसे भी डाक्टर शोभा जैसी बेहद खूबसूरत और सुरुचिसंपन्न स्त्री के आगे क्या थी पूरबी मेहता? एक रंगी-पुती चालाक बंदरिया ही तो! मगर उसने सारी डोरें अपने काबू में करके डाक्टर शोभा की सारी शोभा, भव्यता और ‘सुंदर पवित्रता’ को मात दे दी थी, बल्कि उजाड़ डाला था। किसी विषबेल की तरह वहा विषबेल जो दूसरों के हिस्से का खाती है और फिर एक दिन उनका पूरा लहू निचोड़कर मार देता है।

यह कथा डाक्टर शोभा ने मृत्यु से कुछ ही समय पहले बताई थी सुजाता को। लेकिन कितने टुकड़ों में, कितने दुख और अमर्श से भरकर! हर शब्द के साथ मानो लहू का एक कतरा जमीन पर आ जाता हो।

और हमारे सारे सुझाव और मरहम बेकार चले गए।...मिथ्या! असार! हुआ वही जो नहीं होना था।

बस, कोई ढाई-तीन दिन रहा शोक का यह नाटक होली सिटी क्लीनिक में। इस बीच पैसे और पुलिस का दंगल।...महादंगल। ले ले, दे दे। दे दे, ले ले।...

सुनते हैं, तीन लाख में बात बन गई और डाक्टर शोभा की मृत्यु हमेशा-हमेशा के लिए एक काला अतीत हो गई।

तब से डॉ. सुभाष की गरदन थोड़ी और अकड़ गई है। उसकी तीखी चाल में से यह अंहकार फूट रहा है, हमारे पास पैसा है, हम सब कुछ खरीद सकते हैं।

इस बीच पूरबी मेहता भी तीन दिन ‘अज्ञातवास’ में। किसी ने उसकी शक्ल नहीं देखी। किसी ने नहीं जाना इस नई रामायण की मंथरा को।

तीसरे दिन ही शाम को उठाला कर दिया गया। लो, अब रास्ता क्लियर...!

होली सिटी क्लीनिक से डाक्टर शोभा की आग को झाड़-फूँककर हटाने, बुझाने का काम शुरू। पर उन दिलों का क्या कीजे जिनमें वह बसती थी, बसती है—और अपने सरल बहनापे और मीठी खिलखिलाहट से सब पर राज करती थी। उसे कैसे खत्म करोगे रावण?

5

डाक्टर शोभा से हम लोगों की मुलाकात भी बड़े अजीब ढंग से हुई थी। शायद छह-सात बरस हो गए। नहीं, कुछ ज्यादा।

प्रिया तब आठ-नौ बरस की रही होगी। उसके पेट में जोर का दर्द उठा तो सुजाता उसे रिक्शा पर बिठाकर दौड़ी-दौड़ी डॉक्टर शोभा के क्लीनिक में गई। डाक्टर शोभा ने अच्छी तरह चेक-अप किया। फिर कहा, “दर्द ज्यादा है, मुझे अपेंडिक्स का खतरा लगता है। अपने हसबैंड को बुलवा लीजिए।”

दफ्तर से दौड़ा-दौड़ा मैं घर पहुँचा। वहाँ से होली सिटी क्लीनिक। रात भर प्रिया को ग्लूकोज चढ़ता रहा। सुबह स्पेशलिस्ट डॉ. मीरचंदानी को बुलवाया गया। पता चला, ऐसा खतरा नहीं है बल्कि आगे के टेस्टों से अगले रोज ही पता चल गया कि प्रिया के पेट में कीड़े हैं। उन्हीं के कारण असहनीय कष्ट है।

खैर, तो उसी प्रसंग में जब सुजाता को रात भर होली सिटी क्लीनिक में रहना पड़ा, डाक्टर शोभा से उसकी बातें हुईं, खूब बातें। तभी उसे पहली बार उस स्त्री को जानने का मौका मिला, जो डॉक्टरी लिबास में थोड़ी-सी दब जाती थी, पर कहीं भीतर से अपनी झलक जरूर दिखाती रहती थी। तभी पता चला था कि डाक्टर शोभा ने आगरा में डॉक्टरी की पढ़ाई की और वहीं डॉ. सुभाष उसे मिले। दोनों की दोस्ती हुई, फिर शादी। तब डॉ. सुभाष शायद ऐसे नहीं रहे होंगे।

“मुझे हैरानी है, आदमी शादी के बाद इतना कैसे बदल जाता है? तब तो ये भोले से थे, पप्पू से! और अब देखो, एकदम मेल शॉवनिस्ट...पूरा पक्का हिंदुस्तानी मर्द!” कहते-कहते डाक्टर शोभा खिड़-खिड़, खिड़-खिड़ हँसीं, तो उस हँसी में भी दर्द की कोई एक लकीर थी, जो सुजाता को दिख गई थी।

फिर बातों-बातों में यह भी पता चला कि शशि शर्मा डाक्टर शोभा की रूममेट रही थी। वही शशि शर्मा जो करनाल में दसवीं जमात में सुजाता के साथ पढ़ी थी और दोनों पक्की सहेलियाँ थीं।

यों बातों-बातों में रात बीती और सुबह जब डाक्टर शोभा का चाय का टाइम हुआ, तो हाथ में ट्रे लिए वे सुजाता के पास आ गईं। उसे लगभग भौचक करती हुई, मुसकराकर बोलीं, “आज सुबह की चाय तुम्हारे साथ पीने का मन हुआ। बिलकुल नया-नया-सा लग रहा है। नई सुबह, नया जीवन।”

और फिर सुजाता से उन्होंने वादा किया था, “कभी आऊँगी तुम्हारे घर—देखने।” फिर साथ ही जोड़ा था, “तुम्हारे पति तो ऐसे नहीं हैं न! देखने में तो सीधे लगते हैं।” कहकर खुद ही हँस पड़ी थीं। सुजाता भी।

और वे आईं, सचमुच आईं अगले ही इतवार को। अपने पति और बड़े बेटे राहुल को साथ लेकर।

राहुल और प्रिया थोड़ी ही देर में एक-दूसरे से परिचय कर, दूसरे कमरे में खेलने लगे थे और इधर बैठक में हम लोगों की गपशप।

बहुत आनंददायक तो नहीं रही थी वह मुलाकात, क्योंकि डॉ.शोभा जितनी खुली, सरल और मस्त थीं, उनके पति उतने ही सपाट। डब्बाबंद शख्स। लगता था, कभी-कभी सामने वाले पर थोड़ी कृपा करते हुए, मुसकरा भर देते हैं।

मौसम और इस शहर के रूखे-सूखेपन आदि-आदि से लेकर थोड़ी ऊपर-ऊपर की बातें ही उस दिन हुईं।

फिर शायद सुजाता और डाक्टर शोभा दोनों ही स्त्रियाँ इससे ऊब गईं। पहल डाक्टर शोभा ने ही की, “चलो, तुम्हारा घर देखें!” और हमारे सीधे-सादे विशिष्टता रहित घर में थोड़ा यहाँ-वहाँ घूमने के बाद डाक्टर शोभा सुजाता के साथ रसोई में जा घुसीं। वहाँ उनका जो निहायत घरेलू और प्यारा-प्यारा-सा रूप देखा सुजाता ने, तो एकदम चकित, हैरान।

दोनों स्त्रियों के बीच न जाने कहाँ-कहाँ की, कब-कब की बातें हुईं। न जाने कौन-कौन से इतिहास उलटाए-पलटाए गए। और इस बीच पालक, हरी मिर्च और प्याज के पकौड़े बनकर तैयार हो गए। चाय छनकर प्यालियों में आ गई।

और जब डाक्टर शोभा मेहमान नहीं, मेजबान की तरह खुद इन्हें ट्रे में सजाकर बैठक में आई, तो डॉ. सुभाष ही नहीं, मैं भी थोड़ा भौचक्का रह गया।

चाय और पकौड़े के साथ जो बातें हुईं, वे पहले जैसी नीरस तो नहीं थी क्योंकि डाक्टर शोभा ओर सुजाता अब काफी खुल चुकी थीं और इससे वातावरण बहुत सहज-सहज हो गया था।

डॉ. सुभाष भी बीच-बीच में थोड़ी देर के लिए अपनी सपाटता का मुखौटा उतार देते थे और एकाध बासी, पुराना ‘जोक’ सुनाकर ही सही, थोड़ा-बहुत अपने ‘रसीलेपन’ का परिचय देने की कोशिश कर रहे थे।

यानी कुल मिलाकर वह शाम बहुत आनंददायक न सही, पर कुछ अलग-अलग-सी शाम तो थी।

उनके जाने के बाद हम लोग सोचते रहे, डॉ. सुभाष का व्यवहार थोड़ा दंभरहित और सरल होता, तो इस शाम का शायद हमने कुछ अधिक आनंद लिया होगा।

“ये लोग साथ-साथ रहते कैसे होंगे? एकदम विरोधी ध्रुव हैं।” सुजाता ने माथा सिकोड़ते हुए, थोड़ा परेशान होकर कहा।

और कुछ रोज बाद डाक्टर शोभा ने ही इसकी तस्दीक की थी कि उनके पति को ज्यादा लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं है। उनका मानना है कि डॉक्टर और लोगों से अलग, विशिष्ट और ऊँचे होते हैं। आम लोगों से ज्यादा घुलना-मिलना उनकी इमेज को नुकसान पहुँचा सकता है।

“फिर भी जोड़ी अच्छी है...औरों से बहुत अच्छी। ईश्वर करे, यह सलामत रहे।” सुजाता मानो प्रार्थना-सी करती हुई कहती है।

क्यों? किसलिए? क्या उसके मन में कोई भय था?

6

शायद था।...जरूर होगा। और उसके प्रमाण भी मिलने लग गए थे।

बल्कि अगली मुलाकात ही हमारी थोड़ी कटु रही थी। डॉ. सुभाष ने मेरे कमरे में जगह-जगह लगे हुए कितबों के ढेर और अलमारियों में बेतरतीब ढंग से रखी, ढेर-ढेर किताबों की ओर इशारा करते हुए कहा था, “यह सब किसलिए? साहित्य-फाहित्य से क्या मिल जाता होगा आपको?...थोड़ा प्रेक्टिकल बनिए!”

सुनकर मुझे धक्का लगा। सुजाता को भी।

“हमारे घर में किताबें ही हमारी सबसे बड़ी संपत्ति हैं क्योंकि इनसे हमें जीवन के बहुत-से दुर्लभ अर्थ और खजाने मिले हैं। इसलिए आज भी किताबों के नजदीक जाकर ही हम सबसे अधिक आनंद पाते हैं।” मैंने मुसकराकर कहा था।

“थोड़े जीवन के धक्के खाएँगे तो सब भूल जाएँगे।” कहकर डॉ. सुभाष ठहाका माकर हँसे थे।

रावण...रावण! मैंने देखा, एक रावण है जो डॉ. सुभाष के भीतर से निकलता है कभी-कभी।

अलबत्ता इस पर मैंने गंभीर होकर कहा था, “मेरा तो निजी अनुभव है, किताबें हमें मनुष्य बनाती हैं। हमारी संवेदना को जगाए रखती हैं। बल्कि मेरा तो आपको भी सुझाव है कि आप थोड़ा-थोड़ा पढ़ना शुरू कीजिए। बहुत-से डॉक्टर अपने मरीजों के साथ कसाई जैसा बर्ताव करते हैं, क्योंकि उनकी संवेदना मर जाती है। आप किताबों से जुड़ें तो औरों का दुख-दर्द भी आपको व्यापेगा।”

इस पर डॉ. सुभाष एकदम हत्थे से उखड़ गए थे। “आपने डॉक्टरों को कसाई कहा। हम पैसा कमाते हैं, तो क्या गलत करते हैं? पैसे के बगैर क्या कोई इज्जत से रह सकता है? पैसा कोई छोटी चीज है! जिनके पास नहीं है, उनसे पूछिए!” लगभग चिल्लाकर उन्होंने कहा था।

“पैसा बेशक छोटी चीज नहीं है। पर वह इतनी बड़ी चीज भी नहीं है कि आदमी से बड़ा हो जाए।” मैंने मुसकराकर कहा, तो डॉ. सुभाष कटकर रह गए।

इसके बाद जैसी कि आशंका थी, डॉ. सुभाष कभी हमारे यहाँ नहीं आए। लेकिन डाक्टर शोभा महीने में एकाध बार जरूर चक्कर लगा लेतीं। साथ में बच्चे भी। राहुल और अनुज।

उन्हें पता चला कि मैं लिखता हँू तो हर बार सुजाता से मेरी कोई न कोई किताब माँगकर ले जाती थीं। लौटाती तो साथ ही साथ सुजाता से उसे लेकर ढेर-ढेर-सी बातें। या आजकल मैं क्या लिख रहा हूँ, इस बारे में जानने की उन्हें उत्सुकता रहती।

“भाई साहब आजकल क्या लिख रहे हैं, कोई नया नावेल...?” अक्सर सुजाता से वह पूछ लेतीं।

जब सुजाता ने पूछा कि डॉक्टर साहब इधर आपके साथ नजर नहीं आते, तो थोड़ा उदास हो गईं। फिर मानो उस पर एक झीना सा आवरण चढ़ाकर बोलीं, “बस, ये ज्यादा पसंद नहीं करते।...थोड़ा इंटोवर्ट।”

“आप लोगों ने तो प्रेम-विवाह किया था न! कोई पारंपरिक शादी नहीं, फिर भी? इतनी दूर-दूर...?”

सुजाता के पूछते ही डाक्टर शोभा ने एक इतनी लंबी साँस भरी थी कि मानो कुछ न कहकर भी वे सब कुछ कह देना चाहती हों। और थोड़ी देर बाद सचमुच उन्होंने कह ही दिया था, और ऐसे भयानक शब्दों में कि सुजाता एकदम चौंक गई।

“यह आदमी, आदमी नहीं, जानवर है सुजाता। बल्कि मुझे तो लगता है, शादी के बाद हर आदमी जानवर हो जाता। हो सकता है, यह मेरी गलतफहमी हो। मगर अपने इस मर्द को देखकर तो...!” कहते-कहते उनके चेहरे का रंग स्याह हो गया था।

चलते-चलते उनके मुँह निकला था, “सॉरी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था।” पर जो वे कह गई थीं, वह सत्य था। भले ही अर्धसत्य हो। इसे डाक्टर शोभा भी जानती थीं, सुजाता भी।

7

“क्यों भला क्यों हो गए डॉ. सुभाष ऐसे...?” सुजाता जब-तब डाक्टर शोभा से पूछती। और डाक्टर शोभा चुप। मानो उन्हें खुद भी प्रकृति के इस क्रूर रहस्य का अर्थ ठीक-ठीक समझ में न आता हो।

मगर धीरे-धीरे वे खुलीं, तो उनके पति की हीनता और अपराधी वृत्ति के पीछे का सारा मर्म भी खुलता चला गया।

असल में डॉ. सुभाष डेंटिस्ट थे और डाक्टर शोभा गाइनी स्पेशलिस्ट। अब होता यह था कि डाक्टर शोभा के आगे सुबह से रात तक मरीजों की लाइन लगी रहती थी और उनके पति ज्यादातर अकेले बैठे उँगलियाँ चटकाया करते थे। कहीं न कहीं दोनों का व्यवहार भी इसके लिए जिम्मेदार था। डॉ. सुभाष के पास जो मरीज आता, उसे वे प्लेट में रखा अपना शिकार समझते थे, जिस पर दाँत गड़ाएँ और खा लें। लेकिन डाक्टर शोभा के लिए हर मरीज एक मनुष्य भी था। किसी का भी दुख उन्हें व्यथित-विचलित कर देता और वे जो कर सकती थीं, करने को बेचैन हो जाती थीं। यहाँ तक कि मजदूरों और रिक्शा चलाने वालों के मुर्झाए चेहरे और मैले वस्त्रों वाली उनकी पत्नियाँ भी आती थी, तो उनके साथ भी वही अपनेपन और दोस्ती का-सा व्यवहार। जो भी उनके पास एक बार आया, उसका वे दिल जीत लेती थीं और ऐसे व्यवहार करती थीं, जैसे सगी बहन हों।

इसलिए चाहे घंटों इंतजार करना पड़े, तो उनका कोई मरीज, उठकर वापस नहीं जाता था। और यों, होली सिटी क्लीनिक के वैभव की नींव में, असल में डाक्टर शोभा थीं।

पैसा आया...बहुत पैसा, लेकिन उन्होंने अपनी सरलता नहीं खोई। कोई गरीब रिक्शे वाला, मजदूर, झल्ली वाला होता तो उसके लिए बिना कहे खुद ही फीस कम कर देतीं। फिर चाहे बाद में डॉ. सुभाष के गुस्से और बौखलाहट का शिकार ही क्यों न होना पड़े!

यों पैसा आया तो मुश्किलें भी बढ़ीं, बल्कि पहले से ज्यादा बढ़ीं। पैसा आता गया और डॉ. सुभाष ज्यादा से ज्यादा ङ्क्षहसक पशु में बदलते चले गए। हर वक्त आँखों में पैसे की पाशविक चमक। जब डेंटिस्ट के रूप में दिन भर खाली बैठे मक्खियाँ मारने की अपनी ‘रूटीन’ दिनचर्या से वे ऊब गए, तो उन्होंने खुद-ब-खुद होली सिटी क्लीनिक के मैनेजिंग डायरेक्टर की पोस्ट ईजाद की और उस पर काबिज हो गए।

डाक्टर शोभा की पूरी कमाई...उसके एक-एक पैसे पर अब उनका हक था। वे थे होली सिटी क्लीनिक के मैनेजिंग डायरेक्टर, यानी मालिक। और डाक्टर शोभा वहाँ काम करने वाली एक मामूली डॉक्टर। ठीक है कि वे गाइनी स्पेशलिस्ट थीं, पर गाइनी स्पेशलिस्ट तो सारी डॉक्टरनियाँ होती हैं। पैसा दो और ले आओ। आप चाहो तो इसको हटाकर उसको नौकरी दे दी। फिर डाक्टर शोभा क्या चीज हैं!

यों डॉ. सुभाष सचदेवा का कद बढ़ते-बढ़ते अब ‘आसमान’ हो गया था और डाक्टर शोभा जो निरंतर काम में लदी-फदी, हाँफती रहती थीं और अपनी मरीजों के लिए ‘भगवान’ थीं, निरंतर छोटी होती जा रही थीं।

यह व्यवस्था...हमारी यह ‘दलाल’ व्यवस्था केवल ठलुओं और बिचौलियों को ही बड़ा करती है। काम में ही रात-दिन साँस लेने वाली, इंसानी भावनाओं और अपने कत्र्तव्य को ही पूजा मानने वाली डाक्टर शोभा भला यह बात कैसे जान पातीं? उनकी सरलता, बेशक उनकी ताकत थी, लेकिन वही उनकी कमजोरी भी थी। और वे समझ नहीं पाती थीं कि जो क्रूर फंदा उनके चारों ओर जकड़ता जा रहा है, उसका वे क्या करें?

इस बीच न जाने कब उन्होंने मुझे भाई बना लिया था और मानो घोषणा-सी करते हुए कहा था, “मैं आऊँगी, रक्षाबंधन वाले दिन राखी बाँधने!”

सुनकर मैंने हँसते हुए कहा, “मुझे भाई मानना आपको सुख देता है, तो अच्छी बात है। आपकी एक अच्छी दोस्त डॉक्टर के रूप में मैं इज्जत करता हूँ। अब यह प्यार और इज्जत शायद और बढ़ जाए। पर इसके लिए राखी-वाखी का झंझट किसलिए? मन की भावना कहीं ज्यादा सच्ची है।”

इस पर डाक्टर शोभा ने हँसकर सुजाता से शिकायत की थी, “देखो मेरे इन कंजूस भैया को! सोचते हैं कि यह डॉक्टरनी रक्षाबंधन वाले दिन राखी बाँधने आएगी, तो जेब से पचास-सौ रुपए तो ढीले होंगे ही।...इसलिए अभी से ऐसी कोई दार्शनिक बात बघार दो कि जरा दूर-दूर ही रहे।”

कहकर खुद ही एक भोली बच्ची की तरह ऐसे खुदर-खुदर हँसीं कि मैं और सुजाता टुकुर-टुकुर देखते रहे कि भला यह भोली स्त्री कहीं से लगती है डॉक्टरनी?

...तो जैसा कि डाक्टर शोभा ने ‘घोषणा’ की थी, रक्षाबंधन वाले वे आईं। न सिर्फ राखी बाँधी, बल्कि हम लोगों के साथ ही उन्होंने नाश्ता किया और देर तब बचपन के प्रसंगों में खोई रहीं। बताती रहीं कि उनका एक ही भाई है...छोटा, जो अब अमरीका में है! और फिर दाँतों से जीभ काटती हुई बोलीं, “नहीं, सॉरी, दो हैं। बस, दूसरे सज्जन जरा कवि-अवि हैं। अपनी बहन की चिंता नहीं करते! यह भी नहीं पूछते कि बहन तुझ पर क्या गुजर रही हैं? तू जीती भी है या...!”

जिस ढंग से यह वाक्य उन्होंने कहा था, वह मुझे भीतर तक छीलता हुआ चला गया। मैंने सुजाता की ओर देखा, सुजाता ने मुझे। दोनों को लगा, कोई भारी गड़बड़ है। लेकिन क्या? हम कैसे जान सकते थे।

तब तक बहुत कम बातें खुली थीं। सुजाता ने जानना चाहा, तो डाक्टर शोभा ने बहाना बना दिया, “आज नहीं, आज तो त्योहार है। आप लोगों का मूड नहीं खराब करना चाहती। फिर कभी सही।”

फिर धीरे-धीरे थोड़ा-थोड़ा हमें पता चलता रहा। पर अपनी इस नालायकी को स्वीकार कर लेना ही अच्छा है कि हम चाहकर भी सचमुच कुछ नहीं कर पा रहे थे। हम नहीं जान पा रहे थे कि पति-पत्नी के इस झगड़े को सुलझाने में हमारी क्या भूमिका हो सकती थी? खासकर उस हालत में, जब पति दिनोंदिन पत्थर होता जा रहा हो!

बहरहाल उसके बाद कई रक्षाबंधन आए।...चार-पाँच तो जरूर ही, शायद पाँच! और कोई ऐसा रक्षाबंधन नहीं था, जब डाक्टर शोभा राखी और मिठाई का डिब्बा लिए, मुसकराती हुई सुबह-सुबह हमारे घर की दहलीज पर नजर न आईं हों।

बाद में डॉ. सुभाष से संबंध बिगड़ते गए और हम लोगों के प्रति पति की नापसंदगी भी उनके लिए अप्रकट नहीं रही थी। तब भी वे आतीं जरूर, फिर चाहे पाँच-दस मिनट के लिए ही क्यों न आएँ।

लगभग हाँफते हुए आतीं, और आते ही कहतीं, “माफ कीजिए भाईसाहब, सिर्फ पाँच मिनट के लिए आई हूँ बहाना बनाकर। अब आपसे तो क्या छिपाना? आप तो अच्छी तरह जानते हैं मेरे ‘महान’ पतिदेव को! वे पसंद नहीं करते कि...”

और चाय पीते-पीते मानो खौफजदा होकर वे उठ जातीं।

इस पर एक बार मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की थी, “अब आगे से रहने दीजिए शोभा जी। जितना निभा, सुंदर निभ गया। आप क्यों खुद को परेशानी में डालती हैं? यों भी जितने भी संबंध हैं, असल में तो वे मन की भावनाएँ ही हैं न! मन में दूसरे के लिए भावना हो, और वह भावना सुंदर हो, इतना ही काफी है। बाकी तो सब फिजूल है।”

लेकिन मेरी बात के जवाब में डाक्टर शोभा के चेहरे पर पत्थर की लकीर की तरह खिंची जो एक असाधारण किस्म की दृढ़ता मुझे नजर आई थी, उसे मैं आज भी भूल नहीं पा रहा। वह मानो एक जिद थी कि वह एक संबंध जिसे बनाया था, उसे निभाना है, अंत तक निभाना है। यह एक स्त्री की शायद अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व पाने की तड़प थी कि क्या हर काम पति की इच्छा से ही करना पड़ेगा? उसके बगैर मैं कुछ नहीं, कहीं नहीं! क्यों भला?

मुझे आश्चर्य होता है कि डाक्टर शोभा ने, जो कि इतनी सरल और विनीत थीं और बात-बात पर बच्चों की तरह खुदड़-खदड़ हँसती थीं, अपने भीतर कहाँ, किस कोने में यह असाधारण दृढ़ता छिपाई हुई थी! और अगर यह असाधारण दृढ़ता उनमें थीं, तो उससे वे अपनी समस्याओं का समाधान क्यों नहीं कर पाती थीं? क्यों ऐसा हुआ कि धीरे-धीरे, जैसे-जैसे समय आगे सरकता चला गया, उनके चेहरे पर मृत्यु की उदास छायाएँ मँडराती हुई साफ नजर आने लगी थीं।

और जब से ढाई कमरों वाले अपने छोटे फ्लैट से चार सौ गज की इस भव्य आलीशान कोठी में वे आई थीं, दुष्ट अशुभ छायाओं का यह प्रेत-नाच और अधिक उग्र हो गया था।...वीभत्स!

कई कमरों वाली एक तिमंजिला कोठी, जिसमें कुल मिलाकर छोटे-बड़े पच्चीस-तीस कमरे तो थे ही। नीचे बेसमेंट और भूतल पर क्लीनिक। पहली मंजिल पर उनकी रिहाइश। और उससे ऊपर वाली मंजिल अक्सर खाली रहती थी। या फिर वहाँ मेहमानों को टिकाया जाता था—विशिष्ट आगंतुकों को!

क्लीनिक में काम करने वाली नर्सों के आराम करने के कमरे भी वहीं थे। वहीं बाद में पूरबी मेहता का भी एक स्थायी कमरा हो गया था।...खासा सुसज्जित और आरामदेह!

और देखते-देखते यही दूसरी मंजिल होली सिटी क्लीनिक के अवांछित करतबों का केंद्र हो गई। यहीं चलता सत्ता, पैसे और मोह, घृणा और देह-भोग का व्यापार।

यहीं से निकल-निकलकर आती थीं वे काली अशुभ छायाएँ जो नंगी प्रेतात्माओं की तरह सारे होली सिटी क्लीनिक में नाचा करती थीं और मौका पाते ही डाक्टर शोभा को चारों ओर से घेर लेती थीं।

लोग कहते, डाक्टर शोभा हँसना भूल गई हैं।...वे लगातार अवसादग्रस्त होती जा रही थीं और अपने भीतर बंद, गुमसुम-सी।

हमारे घर जब-जब वे इन दिनों आईं, उन्हें दो-चार मिनट बाद ही घर जाने की बेचैनी घेर लेती और चेहरा इस कदर काला...बल्कि नीला दिखाई पड़ने लगता कि हम डर जाते। मैंने और सुजाता ने सुझाव दिया कि किसी बहाने उनके माता-पिता को यहाँ बुलाया जाए, ताकि समस्या का कोई सम्मानजनक हल निकले।

पर डाक्टर शोभा ने कभी इसके लिए मुँह खोलकर ‘हाँ’ नहीं कहा।

एक कठिन और अबूझ चुप्पी, जिसका थोड़ा-थोड़ा मतलब हम समझते थे। अपने माता-पिता से बिना पूछे, बल्कि एक तरह से उनका विरोध झेलकर ही उन्होंने डॉ. सुभाष से शादी की थी। और अब जबकि निभ नहीं रहा और मुश्किलें आ रही हैं, अपने माता-पिता को बीच में लाकर वे और अधिक अपराधी नहीं होना चाहती थीं।

“हम कुछ करें...मिलें डॉ. सुभाष से?” एक दिन नहीं रहा गया तो अकुलाकर मैंने पूछा।

“नहीं!” डाक्टर शोभा के होंठों से सिर्फ एक शब्द निकला, सूखा, बे-रस और फिर एक लंबी, वीरान चुप्पी। फिर उससे थोड़ा उबरीं, तो कहा, “कभी जरूरत हुई तो कहूँगी।...आपसे नहीं तो किससे कहूँगी?”

8

और फिर एक बार बहुत अशोभन हालत में...जबकि मौत को करीब-करीब नंगा नाचते वहाँ देखा जा सकता था, हमें होली सिटी क्लीनिक में लगभग दौड़ते हुए जाना पड़ा था।

होली सिटी क्लीनिक से मेरे और सुजाता के लिए एक घबराहट पैदा करने वाला फोन आया था। डाक्टर शोभा का नहीं, डॉ. सुभाष सचदेवा का।

फोन पर दो ही लफ्ज, “प्लीज, आप लोग जल्दी आ जाइए—अभी, इसी वक्त!”

“बात क्या है, सब ठीक तो है न!” मेरे काँपते होंठों से टूटे-टूटे-से शब्द निकले।

“आप आ जाइए—अभी! यहीं बताऊँगा।”

वह दीवाली का दिन था। इसकी याद इसलिए है कि दीए जलाने के बाद हम संक्षिप्त दीवाली-पूजन के लिए बैठने ही वाले थे कि फोन की घंटी बज उठी थी। और उस पर यह अशुभ समाचार जिसने हमारे रोंगटे खड़े कर दिए थे।

डॉ. सुभाष ने बताया कुछ नहीं, पर जो नहीं बताया उससे आशंकाओं का एक भयावह जंगल हमारी आँखों के आगे उग आया था और हम बौखला गए थे। पूजा का सामान ऐसे ही पड़ा रहा और बच्चों को थोड़ा-बहुत समझाकर मैं और सुजाता पैदल ही, होली सिटी क्लीनिक की ओर दौड़ पड़े थे।

वहाँ अजब नजारा था। पूरे घर में मिट्टी के तेल की असहनीय गंध ‘मृत्यु-गंध’ की तरह समाई थी और हमें लगा, डाक्टर शोभा अब नहीं मिलेंगी। कभी नहीं!

डॉ. सुभाष अपने कमरे में ही थे। चक्कर पर चक्कर काट रहे थे, पागलों की तरह। सिर के बाल बुरी तरह बिखरे हुए। कुरते के बटन टूटे हुए। मुँह से जैसे झाग निकल रहा था।

हमें देखते ही चिल्लाकर बोले, “आपकी बहन इस कमरे में है। उसने खुद पर मिट्टी का तेल छिड़क लिया है और कमरा भीतर से बंद! इसलिए आपको तकलीफ दी। आप खुद अपनी आँख से देख लीजिए अपनी बहन की करतूत!”

उस रात, जो दीवाली की रात थी, कितने विकट हाहाकार के साथ, कैसे हमने उस अशुभ को झेला...या किसी हद तक टाला, अब क्या शब्दों में कहा जा सकता है?

मैं और सुजाता रो रहे थे और बुरी तरह दरवाजा पीटते रहे थे। रो-रोकर डाक्टर शोभा से विनती कर रहे थे कि वह कोई ऐसा कदम न उठाएँ, जो अनर्थकारी हो और जिससे सब कुछ ध्वस्त हो जाए!

कोई पाँच-सात मिनट बाद दरवाजा खुला और डाक्टर शोभा की जो हालत हमने देखी, उसे देखकर हमारे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनके पूरे शरीर पर चोटें और मार-पीट के चिह्न थे। गाल सूजे हुए! डॉ. सुभाष के तमाचों के नीले-नीले निशान!

कमरा खुलते ही वे जिस बुरी तरह आर्तनाद करती हुई मेरे और सुजाता के कंधे से लगकर रोईं, उससे शायद थोड़ी देर के लिए होली सिटी क्लीनिक की दीवारें भी थरथरा गईं होंगी।

कैसे मृत्यु की छाया बन चुकी डाक्टर शोभा को हमने शांत किया और कैसे डॉ. सुभाष को थोड़ा-बहुत समझाया, यह प्रसंग भी रहने ही दें।

कमरे में ही एक कोने में डाक्टर शोभा का छोटा-सा मंदिर था, जिसमें राम-सीता विवाह और शिव-पार्वती की तस्वीरें थीं। डॉ. सुभाष ने न जाने किस बात पर क्रोध में आकर उन तस्वीरों को उठाकर फर्श पर दे पटका था और अब सारे फर्श पर काँच ही काँच बिखरा हुआ था। लक्ष्मी और गणेश जी की मूर्तियाँ भी, जो शायद अभी दो-एक रोज पहले ही वे लाई थीं, भू-लुंठित थीं। और यह मलबा खाली कुछ तस्वीरों और मूर्तियों का मलबा ही नहीं था, उस विश्वास का भी मलबा था, जिससे दो लोग एक मीठे दांपत्य संबंध में बँधते हैं।

सुजाता ने कमर कसकर वह सारा मलबा उठाया। झाड़ू लगाकर कमरा साफ किया। फिर रिक्शे में बैठकर दौड़ी-दौड़ी बाजार गई। वैसी ही तस्वीरें और मूर्तियाँ लेकर आई। फिर मंदिर सजाया गया, एक छोटा-सा आस्था का स्थल!

और फिर पूजा...दीवाली पूजा। किसी तरह मनाकर डाक्टर शोभा, सुभाष और दोनों बच्चों को साथ-साथ बिठाया। और उस विश्वास को फिर से निर्मित करने की एक कोशिश शुरू हुई, जो किरच-किरच हो चुका था। बहुत छोटी-सी, आधी-अधूरी कोशिश।

फिर सुजाता ने ही वहाँ खाना बनाया। पूरी-सब्जी, खीर, सभी कुछ। उस दिन वहीं हमारी दीवाली मनी। शोक और सुख के अजब से तारों से बनी, त्योहार की अजब-सी कातर मूर्ति! क्या वो सच में दीवाली ही थी? भीतर जैसे किसी न तेजाब भर दिया हो! सब ओर मृत्यु-गंध बिखरी हुई थी और बीच में हम एक छोटा-सा कोना साफ करके दीवाली मना रहे थे।

सुख था तो यही कि चलो, एक अशुभ टल गया। पर क्या सचमुच...? भीतर सवालों के साँप सिर पटक रहे थे।

जो भी हो, उस रात बारह-साढ़े बारह वहीं बज गए। हम लौटे तो पटाखों की धूँ-धुम्म के बाद, मोहल्ला थककर सो चुका था। प्रिया लगभग भूखी ही सो गई थी।

किसी तरह उसे उठाकर थोड़ा-बहुत खिलाया। वह बुरी तरह उदास थी कि उसे देखकर खुद हमें रोना आ रहा था।

फिर पूजा तो क्या होनी थी? काँपते हाथ जोड़कर प्रार्थना की और सो गए।

9

उसके बाद डाक्टर शोभा से कुछ ही मुलाकातें हुईं।

और वे अपने को ऐसा बनाती चली गई कि मानो वे है भी और नहीं भी। थोड़ी जीवित, थोड़ी छाया। मानो वे मृत्यु से पहले ही मृत्यु के घर में झाँक आई हों और उनका एक-एक कदम अब उसी ओर बढ़ रहा हो!

उस हादसे...उस अंतिम हादसे से कोई महीना, डेढ़ महीना पहले वे घर आई थीं, तो सुजाता से देर तक बातें करती रही थीं। “देखना, मैं कुछ कर लूँगी एक दिन। तब समझ में आएगा इस कसाई को!” तैश में आकर उन्होंने सुजाता से कहा था।

और पूरी कहानी सुनाते हुए, होंठों तक लबालब भरी घृणा के साथ कहा था, “वह चुड़ैल ही करा रही है यह सब।”

चुड़ैल...? यानी पूरबी मेहता! अपने पति को छोड़कर आई थी पूरबी मेहता और अब डॉ. सुभाष पर...बल्कि उसकी अकूत संपत्ति पर उसकी नजर थी। इसके लिए डाक्टर शोभा जैसी कातर हिरनी का शिकार करना उस सिंहनी के लिए कौन मुश्किल था!

उसी का पहला दाँव था, डाक्टर शोभा को पागल घोषित कर देना। इसलिए कि जब खत्म हो उनकी ‘कहानी’ तो उसे ‘एक पागल स्त्री की मौत’ कहकर अनदेखा किया जा सके।

सारी डोरें अब डॉ. पूरबी मेहता के हाथ आ गई थीं और मुच्छड़, रोबीले चेहरे वाला डॉ. सुभाष सचदेवा सिर्फ एक अदना आज्ञापालक! कद्दावर जिस्म, मगर असल में पूरबी मेहता के हाथ की सिर्फ एक कठपुतली। जिधर चाहे नचाए, उधर इसे नाचना था।

शायद कोई दुष्ट जादू जानती थी पूरबी मेहता। डाक्टर शोभा के पास भला उसका काट कहाँ? जहाँ तक सहा गया, सहा। और जब तीर पार चला गया, तो एकाएक चीखी...और खत्म!

सब खत्म...!

10

अभी मुश्किल से एक-डेढ महीना ही तो गुजरा है। होली सिटी क्लीनिक में नए मरीज अब नजर आने लगे हैं। ‘डाक्टर शोभा की जगह देखेंगी पूरबी मेहता।’ सबको बता दिया गया है।

नर्सें अब पूरबी मेहता के इर्द-गिर्द चक्कर काटती हैं। उसी के हाथ में उनका प्रमोशन, एडवांस, ड्यूटी टाइमिंग...आदि-आदि।

होली सिटी क्लीनिक अब फिरसे आबाद हो रहा है। रात भर बड़े-बड़े बल्बों, बत्तियों की जगर-मगर...बड़ी कीमती कारें। नए ढंग से तराशे हुए लॉन। लोगों की आवाजाही...बैठकी।

कुछ दिन पहले होली सिटी क्लीनिक के विशालकाय बोर्ड पर, जहाँ डाक्टर शोभा का नाम था, वहाँ सफेद पेंट नजर आने लगा। और अगले ही दिन बड़े-बड़े अक्षरों में डॉ. पूरबी मेहता का नाम। ‘कोई आदमी अनएवोइडेबल नहीं!’ डॉ. सुभाष के चेहरे पर दुष्ट अक्षरों में लिखा है।

डॉ. सुभाष और डॉ. पूरबी मेहता चमचमाती कार में रोज शाम को ‘रँगोली’ की राह पर होते हैं। शहर के अमीरों का ‘रंगीन’ सिटी क्लब। यह शायद गम से पीछा छुड़ाने के लए जरूरी है।...बहुत जरूरी।

कभी-कभी उनकी कार के पीछे वाली सीट पर सहमे हुए दो बच्चे भी बैठे नजर आते हैं। शोभा के दोनों बेटे। राहुल और अनुज। उनकी हँसी भी शायद डाक्टर शोभा के साथ ही चली गई।

अजब बात है कि डाक्टर शोभा के जाने का गम अब यहाँ किसी को नहीं है। वह या तो इन दो छोटे-छोटे बच्चों के स्तब्ध चेहरे पर नजर आता है या फिर दार्शनिक वाले अंदाज में बैठे उस भूरे बादामी रंग के बूढ़े बंदर के चेहरे पर, जिसे डाक्टर शोभा शायद बदरपुर के किसी ‘देसी’ मेले से खरीदकर लाई थीं और न जाने क्या सोचकर इसे उन्होंने अपनी कोठी के गेट पर बैठा दिया था।

आश्चर्य, जब कभी होली सिटी क्लीनिक के सामने से निकलो तो वही बूढ़ा बंदर अपनी शोकांतिका में डूबा, सिर धुनता नजर आता है।

हा-हा-हा-हा-हा...

हा-हा-हा...!

इस विकट शोकांतिका के ‘हाहाकार’ में...या कि बीच-बीच के ‘स्पेस’ में क्या कहता होगा यह? मैंने कई बार गौर से सुनने की कोशिश की है, पर उत्तर कभी नहीं मिला। हो सकता है कि होली सिटी क्लीनिक के नाम से ही उसे इतना सख्त एतराज हो कि मारे गुस्से के उसने कुछ भी अललटप्प बकना शुरू कर दिया हो।

डाक्टर शोभा ही तो इस होली सिटी क्लीनिक की ‘आत्मा’ थीं। उनके जाने के बाद अब यह सिटी क्लीनिक ‘होली’ कहाँ रहा? ‘अनहोली’ हो गया है।...अनहोली सिटी क्लीनिक!

शायद यह भारी कष्ट गेट पर अभी तक शोक की मुद्रा में बैठे उस बूढ़े बंदर को है। उन सैकड़ों मरीजों को भी, जो इस क्लीनिक में आकर पागलों की तरह न जाने क्या खोजने लगते हैं!

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