डॉक्टर की दुनिया (कहानी) : रावुरी भारद्वाज

Doctor Ki Duniya (Telugu Story in Hindi) : Ravuri Bharadwaja

मद्रास 4 मई, 1956
डियर रामकृष्ण,

तुम्हारे दोनों पत्र मिले । मैंने बड़े प्यार से पढ़ा । प्राणों से प्रिय उन पत्रों को मैंने सहेज कर रखा । तुमने यह इलजाम लगाया कि मैं पत्रों का जवाब नहीं देता, आलसी हैं और जाने के बाद सब को भूल जाता हूँ। ऐसा भी नहीं कह सकता कि तुमने जो भी कहा उसमें सचाई बिलकुल नहीं है।

मेरी इतनी विनती है कि पत्रोत्तर के न मिलने पर तुम इस प्रकार मत सोचो। कुछ कारणों के आधार पर व्यक्तियों के गुणों का मूल्यांकन करना ठीक नहीं है । मैं यह मानता हूँ कि जीवकण 'एमीना' से आज तक के जीव के इतिहास में हुए बड़े-बड़े परिणामों में 'मानव' पहली पंक्ति का अधिकारी है। फिर भी हजारों सालों से 'जीव' के परिणामों की दशाओं का प्रभाव मनुष्य में प्रस्फुटित होता ही रहता है। विविध दशाओं के 'जीव' के जो गुण होंगे, वे अवश्य ही किसी-न-किसी मात्रा में परिलक्षित होते रहते हैं। यही कारण है कि हर व्यक्ति में एक-न-एक कमजोरी जरूर रहती है।

तुम यह मत सोचो कि इस कारण मैं हर अत्याचार और अन्याय का समर्थन करने जा रहा हूँ। रामकृष्ण ! मुझे तुम अच्छी तरह जानते हो। लगभग बीस साल हम एक साथ रहे । हमने आपस में कोई बात नहीं छिपायी। छिपाने की जरूरत पड़े तो भी हमने आपस में किसी बात को नहीं छिपाया, मगर दोनों ने मिलकर छिपाया। वैसे आपस में कोई मतभेद नहीं था।

तुम्हारे पत्रों के कारण मुझे बहुत दुःख हुआ । जिगरी दोस्त होते हुए भी तुम मुझे इस तरह गलत समझोगे तो मुझे समझने की कोशिश कौन करेगा? इसी तरह मेरे पत्र न लिखने के कारण तुम्हें कितनी ठेस पहुंची होगी-मैं कल्पना कर सकता हूँ। मेरे पत्रों के जवाब न लिखने वालों पर मेरी इसी प्रकार की प्रतिक्रिया होगी। इसलिए तुम्हारी भावना को शायद मैं पूरी तरह समझ सक रहा हूँ। रात के दस बज रहे हैं। किसी तरह समय निकालकर तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ ऐसे में हमारे अपने बचपन की अनेक घटनाएँ आँखों के सामने घूम जाती हैं।

एक बार घर में एक रुपये की चोरी करके आठ मील पैदल चलकर पिक्चर देख आये थे । शायद तुम्हें यह घटना याद होगी। उससे पहले हम शहर के बारे में सिर्फ सुनते थे, मगर कभी देखा नहीं। पहली बार शहर (गुण्टूर) देखने पर लगभग बेहोश होने की नौबत आ गयी थी। वहाँ के लोगों की सुख-सुविधाएँ देखकर हमें इर्ष्या हो रही थी। गाँव से तुलना करने लगा कि यह शहर धरती पर स्वर्ग ही है। उसके बाद उसी शहर में हम छः साल तक पढ़ते रहे। मगर उस समय के दृष्टिकोण में विशेष परिवर्तन नहीं आया ।

मैं पहले सोचता था कि मनुष्य के लिए धन से बढ़कर कुछ और मानवमूल्य हैं । उसका कारण भी है । इस प्रकार मेरे सोचने का कारण है उस समय जिम्मेदारियों से दूर मेरा छात्र-जीवन। उस समय हमने यह जानने की जरूरत महसूस नहीं की कि मां-बाप कितनी मुश्किलों को झेलते रहे थे। हमने कभी यह भी नहीं सोचा कि वे किस प्रकार हमें पैसे भेज रहे हैं । यथार्थ जीवन में कदम रखते ही विचारों में परिवर्तन आने लगा। आज के संसार में पैसों से बढ़कर कुछ नहीं है। मानव का सारा इतिहास उसके इर्द-गिर्द चक्कर काट रहा है।

मैं यह भी जानता हूँ कि मेरा यह विचार सबको मान्य नहीं है। मगर यह भी सच है कि कौन-सा विचार ऐसा है जो सब को मान्य हो। भारत की स्वतन्त्रता के लिए कुछ प्राण न्यौछावर कर रहे थे तो कुछ लोगों ने उस स्वतन्त्रता को आवश्यक ही नहीं माना। इसलिए सर्वमान्य विचार का कोई अर्थ ही नहीं है।

मैं 'महामानवों' या 'योगियों' की बात नहीं लिख रहा हूँ। कुछ महान व्यक्तियों के पास धन का कोई महत्त्व नहीं है, किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता । धन में कितनी प्रचण्ड शक्ति है, अगर जानना चाहें तो यह महानगर मद्रास सबसे बड़ा उदाहरण है ।...

सच है : तुम्हारे जैसा ही पहली बार मैं इस महानगर को देखकर प्रभावित हो गया । बड़ी-बड़ी सड़कें, भव्य भवन, आँखों में चकाचौंध पैदा करने वाली दुकानें, बड़े-बड़े होटल, नये-नये मॉडल की कारें, उसमें खिलखिलाती, हँसती लड़कियाँ-कितना अच्छा लगता था । लगता था कि यहाँ कोई कमी नहीं है। किसी भी समय कोई भी चीज प्राप्त हो सकती है। ऐसा कोई सुख नहीं है जो यहाँ पाया नहीं जा सकता। सबसे बढ़कर आन्ध्र की कड़ी धूप की तपन यहाँ नहीं है। शाम के समय 'मेरीना बीच' की तरफ जाओ तो कारों की लम्बी कतार खड़ी मिलेगी! तुम अन्दाजा नहीं लगा सकोगे-समुद्र की ऊंची तरंगें, उफनती लहरों के साथ उठने वाली हवा में खुली साँस लेकर, रेती में अपने आपको ढीला छोड़, किनारे को छूकर, रोती हुई बिखर जाने वाली तरंगों को देखना-इन सबको एक सुखद अनुभूति नहीं कह सकने का साहस मुझमें नहीं है।

यदि मैं कहूँ कि यह आनन्द, यह सुख और ये सारी अनुभूतियां सभी को नहीं मिल रही हैं तो तुम मुझे क्षमा करो। यह बात तुम्हें आश्चर्यजनक लग रही है न!

लेकिन रामकृष्ण ! इसमें आश्चर्य करने की जरूरत नहीं है। इस सचाई को चारों तरफ देख ही रहे हैं। अजीब बात यह है कि इस सचाई से मुंह फेर कर, अनदेखा करके हम इसे टाल रहे हैं।

तुम सोचो-जिस मजदूर को दिन-रात की कड़ी मेहनत के बाद भी दो जून रोटी मयस्सर नहीं, वह शाम को समुन्दर के किनारे चैन की सांस क्या ले सकेगा? आधुनिक समाज इस समुद्र के किनारे चैन की साँस लेने की फुरसत और मौका उसे नहीं दे रहा है। वह मजदूर यही सोचेगा कि उस समय मजदूरी करेगा तो उसे और चार आने मिलेंगे और उससे रोटी के दो टुकड़े मिल जायेंगे इसलिए काम की तलाश में वह यहाँ-वहाँ भटकेगा, समुद्र के किनारे खुली सांस लेने नहीं आयेगा। मैं यह नहीं कहता कि यहाँ के सब लोग ऐसे ही हैं । ऊंचीऊंची इमारतों की छाँव में पल रही झुग्गी-झोंपड़ियों को देखकर मेरा खून खौलने लगता है। एक तरफ वह मनुष्य जो जरूरत से ज्यादा धन कमाकर, उसे खर्च न करके सड़ा रहा है, तो दूसरी तरफ वह इन्सान है जो एक-एक पैसे का मुहताज है, उस पैसे को कमाने के लिए कितनी मुसीबतें झेल रहा है, जो काम उसे नहीं करना चाहिए उसे भी कर रहा है।

मेरी यह गलतफहमी नहीं है कि सभी गरीब सच्चे इन्सान है । मैं स्वीकार करता हूँ कि इनमें बुराइयाँ भी ज्यादा हैं। किन्तु मेरा विश्वास है कि इन बुराइयों का कारण मैं, तुम या हम जैसे दूसरे इन्सान ही हैं। शायद तुम यह बात नहीं मानोगे। मगर मैं यह कह सकता हूँ कि यह बात सच है। किसी व्यक्ति को चोरी करने के लिए उसे जरूरी माहौल तैयार करके हम यह आरोप नहीं लगा सकते कि उसने चोरी की। जिस समाज ने स्त्री के लिए व्यभिचार के सिवा जीने का और कोई रास्ता नहीं रखा, वही समाज उस स्त्री का धिक्कार करे, यह कहाँ का न्याय है ?

आज का मानव धन कमाने के लिए जो हथकण्डे अपना रहा है, उन्हें देख कर, मेरे मन में समूची मानव-जाति पर क्रोध, गुस्सा और एक तरह की दया की भावना भी जागृत हो रही है। तुम अध्यापक हो, तुम अध्यापक इसलिए नहीं बने कि भारत के भविष्य को, इन बच्चों के भविष्य को सुनहरा बनाना है। सरकार तुम्हें साठ रुपये वेतन देती है, इसलिए तुम काम कर रहे हो। मेरी भी यही दशा है । मैं डॉक्टरी इसलिए नहीं कर रहा है कि रोगियों की सेवा करना चाहता हूँ। वेतन न मिले तो तुम अध्यापक नहीं रहोगे और अच्छी आमदनी न हो तो मैं डॉक्टरी छोड़ दूंगा।

चाहने न चाहने का कोई सवाल नहीं है, हम उसी धुरी पर फिर रहे हैं। जिस धुरी का केन्द्र है-पैसा। पैसे की मानव ने ही सृष्टि की, मगर आज उसने मानव को ही अपना गुलाम बना लिया।

मद्रास महानगर के बारे में तुम्हारे जो विचार हैं, उनसे मैं सहमत नहीं हूँ। यह नगर ही नहीं, किसी भी नगर को देखता हूँ तो 'वेश्या' का स्मरण हो आता है। रूप, सौन्दर्य और किसी भी विषय से उसका कोई ताल्लुक नहीं रहता। उसके लिए धन ही सबसे बढ़कर है। मगर इसमें कितनी सचाई है, मुझे नहीं मालूम । हाँ, महानगर के सन्दर्भ में यह बात बिलकुल सही है, जो धनवान् है, वही प्रधान है । गरीब की तरफ जरा भी ध्यान नहीं देता। उसका अस्तित्व भी उसके लिए नगण्य है।

लगभग चार-पाँच साल इस नगर में रहने के बाद मेरे विचार इस प्रकार बन गये हैं। तुमने जैसा दूसरे खत में लिखा है, मैंने कुछ कमाया नहीं। मगर यह बात नहीं है कि वह मौका मुझे नहीं मिला। मगर पैसे कमाने के वे साधन मुझे रुचिकर नहीं हैं। इसलिए आज भी मैं इसी प्रकार हूँ।

बड़े-बड़े लोग मेरे पास नहीं आते। आय तो भी मैं उनको दवा नहीं दे सकता। उनसे पैसा वसूलने के लिए मैं झूठ नहीं बाल सकता। मेरी सचाई की बातें वे सुन नहीं सकते। इसलिए मैं नगर में नहीं रह सका । फिलहाल, नगर से बहुत दूर, खपरैल के एक छोटे अस्पताल में हूँ। यह बात मैंने शायद अपने खत में लिखी भी थी।

इस प्रान्त में वे ही लोग ज्यादा बसे हैं जो झुग्गी-झोंपड़ी में रहते हैं और मेहनत-मजूरी करते हैं। उनके करीब रहकर (क्योंकि कोई दूसरा काम नहीं है) उनको निरन्तर देखते-देखते मन बहुत विकल हो जाता है। उनकी जीवनपद्धति किसी भी सहृदय का कंपा देती है। इसलिए शहर के लोगों ने इनको शहर से बाहर कर दिया ।

आँखों के सामने ऐसी घटनाएं हुई हैं, हो रही हैं, जिन्हें देखकर हृदय करुणा से, पीड़ा से भर जाता है। लगता है, एक-न-एक दिन उसका परिणाम समाज को भुगतना पड़ेगा। यह सोचकर मैं भय-कम्पित हो जाता हूँ। जब यह महान् शक्ति, जो आज निश्चेतन पड़ी है, नयी चेतना के साथ ताण्डव-नृत्य करेगी और ये क्षुद्र मानव, परम्परा से पीढ़ी-दर-पीढ़ी होने वाले अत्याचारों का बदला जरूर लेकर रहेंगे । इस तरह धोखा देने का प्रयत्न और ज्यादा नहीं चल सकेगा... बाजू के कमरे में एक रोगी पड़ा है। उसे दवा देकर मैं अभी आया हूँ। मैं जान-बूझकर ही उस रोगी का जीवन-इतिहास तुम्हें लिख रहा हूँ। यह रोगी इस बात का अच्छा उदाहरण है कि आधुनिक सामाजिक व्यवस्था मानब को कितना खोखला बना देती है।

लगभग चार-पांच साल पहले दक्षिण से एक परिवार यहाँ आकर बस गया था। औरों की तरह ये भी बड़े ही उत्साह के साथ मद्रास आये थे । ये-पति-पत्नी चार बच्चे, सभी छोटी उम्र के । पति थोड़े दिन किसी फैक्टरी में काम करता रहा । बाद में रिक्शा चलाता रहा । थोड़े दिन मजदूरी की। पत्नी चार घरों में चौकाबर्तन करती रही । फिर भी उन्हें दो वक्त की रोटी नहीं जुट रही थी। कई बार तो ऐसा होता था कि बच्चों को खिलाकर मां-बाप भूखे ही रह जाते थे।

उनकी कोई बड़ी-बड़ी इच्छाएं नहीं हैं । बड़े-बड़े सपने भी नहीं देख रहे हैं। काम से जी नहीं चुराते । मगर वे इतना चाहते हैं कि पेट भर खाना और रहने के लिए एक साया मिल जाये । मगर खूबसूरत शहर उन्हें इतना भी नहीं दे सकता । ये सभी बातें मुझे उन्हीं से मालूम हुई ।

मैंने देखा-जीने के लिए मनुष्य को जी-जान से जूझना पड़ता है। मुझे लगता है, मेरी यह चिट्ठी मेरी वेदना का शतांश भी व्यक्त नहीं कर पा रही है । मुझे मालूम है कि कोई भी भाषा इस वेदना को पूरी तरह व्यक्त नहीं कर सकती ।

करीब दो-तीन महीनों तक मैं उस परिवार से नहीं मिल सका । उन लोगों को देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। मैंने सोचा कि शायद वे लोग गाँव वापस चले गये होंगे। मगर मेरी धारणा गलत निकली। वे लोग यहीं हैं और उन्होंने जीना भी सीख लिया। सबेरे ही, छोटे बच्चों को घर में छोड़कर वे शहर जाते हैं । गलियों में रद्दी कागजों को बटोर कर आते हैं। उन कागजों की धूल झिड़ककर, पानी में गलाकर, दूसरे दिन सबेरे उसको पीसते हैं। उससे गुड़िये बनाते हैं, उन्हें रंगते हैं, शाम के समय किसी बाजार में खड़े होकर उनको बेच लेते हैं। जो भी मिलता है, उससे गुजारा कर लेते हैं। धीरे-धीरे बड़े दो बच्चों को उन्होंने इस काम पर लगा दिया। वे दोनों बच्चे सबेरे थोड़ा-सा 'मॉड' पीकर शहर की तरफ चले जाते हैं । दोपहर तक दो-तीन बोरियों में रद्दी कागज को ढोते हुए घर पहुंचते हैं। रोज लगभग सात-आठ मील चलने पर ही इतना रद्दी कागज जमा होता है। जिनके दस साल भी पूरे नहीं हुए, ऐसे नन्हे बच्चों का, रद्दी कागजों की इन बोरियोंकोढोते हुए, गलियों में फिरना" कितना दयनीय दृश्य है ! यह उम्र तो उनके हंसने-खेलने की है। ऐसी उम्र में जीवन की समस्या को झेलने की उनकी यह स्थिति कितनी गम्भीर है ! हमउम्र लोगों को अच्छे-अच्छे कपड़े पहनकर, अच्छी तरह तैयार होकर पढ़ने के लिए जाते देखकर उनका नन्हा हृदय कितना मसोस कर रह जाता होगा । तब उनके हृदय की भावनाओं को आँकना क्या किसी के बस की बात है ?

उनकी मैं भरपूर मदद भी नहीं कर सकता था। यह मेरी असमर्थता मुझे व्याकुल बना रही थी।

इस तरह कुछ वर्ष गुजर गये ।

एक दिन रात में घर का दरवाजा कोई जोर-जोर से खटखटा रहा था। पच्चीस लोग मेरे घर के अन्दर आ गये। एक-दो क्षण मैं परेशान-सा हो गया। क्या हुआ, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उनके पीछे कुछ बीमार लोग भी भीतर चले आये । उनको मैंने देखा तो मैं अवाक रह गया । लगा जैसे मेरा खून ही पूरा सूख गया। उनके शरीर जल गये हैं। मांस के जलने की गन्ध से मेरा कमरा भर गया।

हुआ यह कि...

रोज की तरह उस दिन भी उस परिवार के सभी लोग सो गये। उनकी झोंपड़ी के पास ही बच्चों द्वारा लायी गयी कागजों की रद्दी भी रखी हुई थी। दुर्भाग्य ही कहो, उसमें आग लग गयी। वह झोंपड़ी, उसके पास रखी कागज की रद्दी सब जलकर राख हो गये । अड़ोस-पड़ोस के लोग मदद के लिए दौड़-दौड़े आये, तब तक वे लोग बुरी तरह उस आग में झुलस गये ।

फिर भी उनको बचाने की मैं ने पूरी-पूरी कोशिश की । बच्चे पहले ही जलकर मर चुके थे। उस घर के आदमी ने मेरे सामने ही पूरी यन्त्रणा को दो दिन सहते-सहते दम तोड़ दिया। उसे बचाने के लिए मैंने अपनी पूरी शक्ति और विवेक का प्रयोग किया। बड़ी महंगी दवाओं को भी दिया। अड़तालीस घण्टे तक उसे बचाने के लिए मैं मृत्यु से बराबर लड़ता रहा। आखिर विजय मृत्यु-देवता को मिली और मैं पराजित हुआ ।

रामकृष्ण ! भगवान पर मुझे कोई भरोसा नहीं है। जगत् का रक्षक मानते हैं उसको । अगर वह होता तो इतने अन्याय, अत्याचार और अमानबीय काण्डों को देखकर चुप कैसे रह सकता ? मनुष्य होकर भी हम ही जिन दारुण स्थितियों को बर्दाश्त नहीं कर सकते, उस करुणामय ने सहन किया, यह जानकर उसके व्यक्तित्व पर मेरे मन में घृणा पैदा होती है। फिर भी सच मानो, उस समय मैंने उस भगवान, उस परमात्मा की गहराइयों से प्रार्थना की थी। मगर कोई लाभ नहीं...

मुझे अब ऐसा लगता है कि अच्छा ही हुआ कि वह मर गया। मुझे गलत मत समझो, जीकर भी उसे क्या मिलता ? जीवन का कोई सुखद अनुभव उसके भाग्य में नहीं। दुर्भाग्य से वह जी भी जाता तो और मुसीबतों को झेलने के सिवा और कोई लाभ होता? चारों के चारों बच्चे उस भयंकर दुर्घटना में जल कर राख हो गये, यह घटना क्या उसे पागल नहीं बना देती? बुरी तरह जले हुए हाथ-पैर लेकर वह कैसे जीवन-यापन कर सकेगा? इसलिए मुझे लगा कि वह मर गया, अच्छा ही हुआ।

किन्तु 'उससे भयंकर एक विषम समस्या का मैं सामना कर रहा हूँ। उसकी पत्नी भी बुरी तरह जल गयी थी। उसकी भी दवा-दारू मैंने ही की है। वह धीरे-धोरे अच्छी हो रही है। पहली विजय मृत्यु को मिली तो इस बार मैं विजयी हुआ । उसे बचा लिया मैंने।

मेरे इस काम के अच्छे-बुरे दोनों पक्षों पर मैंने घण्टों सोचा । मैं इस निर्णय पर पहुंचा कि उसे बचाकर मैंने घोर पाप किया । उसका पूरा शरीर जल गया। आँखें भी झुलस गयीं । दायाँ हाथ करीब-करीब बेकार ही हो गया। चेहरा पूरा झुलस गया। इसे बचाकर मैं अपनी जिम्मेदारी से हट तो सकता हूँ किन्तु उसके बाद ? वह कैसे जियेगी ? आँखें नहीं, हाथ-पैर नहीं। कोई काम नहीं कर सकती। कहीं भी नहीं जा सकती। जिये तो कैसे जिये? यह भयंकर सवाल मुझे झकझोर रहा है। उसकी हमेशा के लिए देखभाल मैं नहीं कर सकता । मेरी स्थिति यह है कि मेरा अपना गुजारा ही मुश्किल है तो दूसरों का पालन-पोषण भला क्या करूँगा? उसमें भी सामान्य रोगी भी नहीं है । उसकी सब जरूरतें, उसकी अपनी जगह ही पूरी होनी चाहिए। दूसरा कोई इसका लालन-पालन करेगा, ऐसा सोचना आत्मा की प्रबंनना ही होगी। इतना वैराग्य और इतना विश्वास भी नहीं है कि सब भगवान् पर छोड़ दूं।

इन सभी समस्याओं का समाधान एक ही है, उसे मर जाना चाहिए। उससे सभी समस्याएं हल हो जायेंगी। उसका जीना और मरना मुझ पर आधारित है। एक ही खुराक में उसके प्राण-पखेरू उड़ जायेंगे। उसमें उसका सुख ही है।

तुरन्त ही मैंने निर्णय लिया। उसको बिना किसी पीड़ा के, उसकी समस्याओं का समाधान वह दवा मेरे पास है । एक ही खुराक काफी है, उसकी सभी तकलीफें दूर हो जायेंगी। मगर यह एक विषम समस्या है। आसानी से परिष्कार भी हो सकता है । दूसरों को यह बात मालूम नहीं होगी और सरकार भी मेरे ऊपर शक नहीं करेगी।

मुझे तो लगा, यह काम सबसे श्रेयस्कर है। किन्तु आचरण में लाने तक मेरी आत्मा ने विद्रोह कर दिया । उसने चेतावनी दी कि मैं किस प्रकार का नीच और घिनौना काम करने जा रहा हूँ। उसने मुझे यह सोचने के लिए कहा कि वैध होकर यह काम करना कितना नीचतापूर्ण है...सच ही है।

डॉक्टर के रूप में मेरी भी कुछ जिम्मेदारियां हैं। मुझे उनका भलीभांति निर्वाह करना चाहिए। प्राण जब तक हैं, रोगी को बचाने का प्रयत्न करना चाहिए, उसमें कोई कसर नहीं रखनी चाहिए। यह मेरा कर्तव्य है और उसके लिए मैंने प्रतिज्ञा भी की थी। मुझे रोगी की दूसरी समस्याओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह राजा हो या भिखारी-डॉक्टर हूँ मैं, मेरे लिए सब समान है। रोगी को रोग से मुक्त करना है, बचाना है, यही मेरी ड्यूटी है।

किन्तु, मैं उसके विपरीत करने जा रहा हूँ तो इसका मतलब है, मैं अपनी जिम्मेदारी से हट गया है। अपने हाथों एक प्राणी की हत्या कर दी मैंने। हत्यारे की सजा मुझे भी मिल सकती है। क्यों ? क्यों नहीं ? एक छरी से, बन्दूक से मारता है तो मैंने विज्ञान के वरदान (दवा) से मार डाला। साधन अलग हो सकते हैं, रास्ते अलग हो सकते हैं, किन्तु परिणाम एक ही है न?

कितने लोगों को इन हाथों से मैंने प्राण-दान किया, एक प्राणी की हत्या नहीं कर सका । फिर कुर्सी पर आकर बैठ गया। कई विचार उठ रहे हैं। मैंने निश्चय कर लिया कि उसको बचाऊँगा।...

ठीक है। बचा सकते हैं। फिर उसके बाद क्या होगा? डॉक्टर के रूप में मेरा कर्तव्य शायद पूरा हो जायेगा। किन्तु मनुष्य के रूप में मेरा कर्तव्य और बहत है। उसे मैं नहीं निभा सकता। प्राणों के साथ सड़कों पर उसको छोड़ कर, जिन्दगी भर की मुसीबतों को झेलने के लिए उसे छोड़ देना क्या मानवता कहलायेगी? उसके आने वाले दारुण-वेदनापूर्ण जीवन का जिम्मेदार मैं माना जाऊंगा। साथी प्राणी को सुखी बनाने के लिए कोशिश करना छोड़कर जीवन भर नरकयातना भुगतने के लिए छोड़ देना धर्म तो नहीं माना जा सकता।

इस समय मुझे क्या करना चाहिए ? मेरा कर्तव्य क्या है ? दूसरी सारी समस्याओं को छोड़कर केवल डॉक्टर के रूप में मेरे जो कर्तव्य हैं, उनको निभाना या मानवता की दृष्टि से उसके कष्टों को दूर करना?

रामकृष्ण ! मैं इन समस्याओं में उलझ गया है। इसलिए मैंने तुम्हें जवाब नहीं लिखा । दूसरे कमरे में वह कराह रही है। मैं जा रहा हूँ। तुमसे आशा है, मेरे कर्तव्य को स्पष्ट करोगे और पत्र लिखोगे । तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा में-

तुम्हारा,
मूर्ति

(अनुवाद : पी. माणिक्याम्बा)

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