डाक्टर आरोग्यम् (तमिल कहानी) : चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी)
Doctor Arogyam (Tamil Story in Hindi) : Chakravarti Rajagopalachari
सेठ वंशीलाल ने गरजकर कहा, “अब एक दिन की भी मोहलत नहीं दी जा सकती।'” डॉक्टर आरोग्यम्
बोले, “आपके लिए मैंने कौन सा कष्ट नहीं उठाया। लेकिन अब एक साथ इतनी बड़ी रकम कहाँ से दूँगा।'!
वे गिड़गिड़ाए और फिर बोले, '“न मालूम कौन सी बुरी घड़ी में मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई और मैंने ऐसा बुरा
काम कर डाला। मुझे क्षमा कीजिए। भगवान् आपका भला करेगा। आपको किसी बात की कमी नहीं रहेगी।
भगवान् ने आपको अपार संपत्ति का स्वामी बनाया है। आपके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है।'
उनकी आँखों से दीनता जैसी सूरत दिखाई पड़ती थी। सेठ वंशीलाल चिल्लाकर बोले, “भगवान--वगवान
कुछ नहीं। जब विश्वासघात किया था, तब तुम्हारा ईश्वर कहाँ चला गया था। पिछले बारह महीने से तुम
बराबर झूठ बोलते रहे और मेरा धन हड़पते रहे। अब भगवान् का नाम लेते तुम्हें शर्म नहीं आती? पाँच साल
तक जेल में रहिए और अपने भगवान् की पूजा करिए। मैं आखिरी बार कह रहा हूँ--अगले शुक्रवार तक मेरा
रुपया आ जाना चाहिए। नहीं तो पुलिस के हवाले कर दूँगा। सावधान! ''
इतना कहकर सेठ वंशीलाल चले गए। डॉक्टर पाल आरोग्यम् के माता-पिता ने उनका नाम वैद्यनाथन्
रखा था। उनको बपतिस्मा पढ़ानेवाले पादरी ने अपने नाम के एक भाग के साथ वैद्यनाथन् के नाम में थोड़ा
परिवर्तन करके और दोनों को मिलाकर पाल आरोग्यम् नाम रखा। पाल आरोग्यम् ने कुछ दिन एक ईसाई
स्कूल में शिक्षा पाई। लेकिन मैट्रिक की परीक्षा में सफल नहीं हो सके। तब बंबई और कलकत्ता जाकर
नौकरी की तलाश में मारे--मारे घूमते रहे और जब कोई नौकरी भी नहीं मिली तो थोड़ी--बहुत होमियोपैथी
की चिकित्सा सीखी तथा काशी में जाकर अपना काम आरंभ कर दिया। लेकिन उसमें उनको अच्छी आमदनी
नहीं हुई। तब पास की गली में जो बजाज की दुकान थी, उसके मालिक से उन्होंने मित्रता कर ली। वे उसको
बंगलौर के अपने परिचित व्यापारियों से नाना प्रकार की साड़ियाँ मंगवा कर देने लगे। वह शराब पीने लगे थे।
इसलिए ब्याज से जो पैसा मिलता था, उसे वे स्वयं खर्च कर देते थे और व्यापारियों से टालमटोल करते रहते
थे। इसी तरह दो साल बीत गए और उन पर व्यापारियों का बहुत सा रुपया चढ़ गया। इसी समय सेठ
वंशीलाल को यह समाचार मिला।
सेठजी की पुलिसवालों से बड़ी घनिष्ठता थी। उन्होंने उनसे सलाह--मशविरा किया। वे जानते थे, मुकदमा
चलाने पर डॉक्टर आरोग्यम् को जेल की हवा खानी पड़ेगी। परंतु पैसा नहीं मिलेगा। तब वे दोनों इस परिणाम
पर पहुँचे कि बिना मुकदमा चलाए डॉक्टर को डरा--धमकाकर किसी तरह रुपया वसूल करना चाहिए। इस
योजना के अनुसार गुरुवार के दिन दोपहर को पुलिस के एक अफसर डॉक्टर आरोग्यम् के घर आए और यह
पता कर गए कि डॉक्टर घर में है या नहीं। डॉक्टर को जब यह बात मालूम हुई तो वह घबरा उठे। वे सोफे
पर लेट गए। और पिछला जीवन उनकी दृष्टि के सामने आने लगा। कितना दुःखमय जीवन था। वे बच्चों की
तरह रोने लगे। उन्हें छोटी--छोटी बातें याद आती रहीं। शैशवावस्था में उनकी माँ चल बसी थीं। पिताजी ने
दूसरा विवाह कर लिया था। इस विवाह के कारण उन्हें बहुत सी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ीं। अंत में वह घर से
भाग निकले। ईसाई पादरियों से उनकी भेंट हो गई। वे उनको तिरुकोयलूर ले गए और ईसाई धर्म की शरण में
ले लिया। कुछ दिन तक उनके भरण--पोषण का भार भी उठाया। जब उन्हें वहाँ से भगा दिया तो वे पुदुच्चेरी,
बंबई और कलकत्ता आदि स्थानों पर मारे--मारे फिरते रहे।...
उनके हृदयपटल पर चलचित्र की तरह ऐसी--ऐसी बातें अंकित होती रहीं और इन्हीं विचार लहरियों में
डूबते--उतरते उनकी आँख लग गई। उन्होंने स्वप्न में देखा कि गणेशजी प्रसन्न होकर उनके सामने खड़े हैं।
और पूछ रहे हैं, “बेटा, क्यों रोते हो? '” उन्होंने यह भी देखा कि उनकी बहन बालांबाल भी गणेशजी के साथ
आई हैं। उनकी ऐसी बुरी अवस्था देखकर वे बहुत दुःखी हो रही थीं। गणशेजी ने कहा, “बेटा रोओ मत।
तुम्हारा कष्ट दूर हो जाएगा।'” बहन ने समझाया, “भैया, रोओ मत। सबकुछ ठीक हो जाएगा।''
उनकी सांत्वना से डॉक्टर आरोग्यम् को कुछ सुख मिला। लेकिन अगले ही क्षण सेठजी और उनकी
सौतेली माँ पिशाच व पिशाचिनी का रूप धारण किए हुए स्वप्न में आए और उन्हें डराने--धमकाने लगे। वे
घबराकर उठ बैठे। देखा, पौ फट गई है और कोई दरवाजा खटखटा रहा है। उनके मन में तनिक भी संदेह
नहीं रह गया कि पुलिसवाले उन्हें गिरफ्तार करने आए हैं। सहसा उनको याद आया कि आज शुक्रवार नहीं है।
उन्होंने दिल को कड़ा किया। उठे और किवाड़ खोलकर पूछा, “कौन है?''
आगंतुक का नाम शिवसुब्रह्मण्य अय्यर था। उन्होंने कहा, ''अगर आप इतना लिखकर दे दें कि मैंने रोगी
का इलाज किया, पर कुछ लाभ नहीं हुआ और उसकी मृत्यु हो गई, तो मैं आपको पाँच हजार रुपए दूँगा।'”
डॉक्टर पाल आरोग्यम् गंभीर हो उठे। बोले, “मिस्टर अय्यर आपका कहना ठीक है, लेकिन मुझे डर है कि
ऐसा करके मैं किसी मुसीबत में न पड़ जाऊँ। इसलिए मैं इस काम में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।''
अय्यर ने उत्तर दिया, “किसी मुसीबत में नहीं पड़ना होगा डॉक्टर साहब। आप तनिक भी चिंता न करें। मैं
भी तमिल भाषी हूँ, आप भी तमिलभाषी हैं। मैं आपको किसी तरह मुसीबत में नहीं पड़ने दूँगा। मैंने आपसे जो
कुछ कहा है, सत्य कहा है। कोई बात नहीं छिपाई है। आप कृपा कर मेरी सहायता कीजिए। आजीवन
आपका आभारी रहूँगा।"
इतना कहकर अय्यर महोदय डॉक्टर पाल आरोग्यम् को विस्तारपूर्वक अपनी राम कहानी सुनाने लगे, “मैं और
मेरे वृद्ध ससुर दोनों तीर्थाटन करने के लिए चले थे। बदरीनाथ आदि पवित्र स्थानों से होते हुए अंत में
हम काशी आ पहुँचे। यहाँ हम चेट्टियार की धर्मशाला में ठहरे। मार्ग में ही ससुर साहब को बुखार आ गया
था, वह उतरा नहीं। आठ दिन के तीव्र ज्वर के बाद बुधवार की रात को उनकी मृत्यु हो गई। वृद्धावस्था की
दुर्बलता और कुटुंब की कुछ दु:ख भरी बातों के कारण वृद्ध को इस पवित्र तीर्थस्थान में प्राण देने पड़े। एक
वर्ष से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। उन्होंने वसीयत लिखकर गुप्त रूप से रजिस्ट्री करवा ली थी। एक प्रति
उनकी पेटी में थी, जिसको मैंने उनकी मृत्यु के बाद देखा। उसके अनुसार उन्होंने अपनी जमीन--जायदाद
कुटुंब के पालन के लिए निश्चित की थी। जो नकद रुपए थे, वे अपनी बेटी को अर्थात् मेरी पत्नी को दिए।
लेकिन एक शर्त थी कि उनकी मृत्यु के पहले मेरी पत्नी के एक पुत्र पैदा हो जाना चाहिए। नहीं तो वह रुपया
उनके पुरुष उत्तराधिकारी को मिलेगा। डॉक्टर, मैं आपसे कुछ नहीं छिपा रहा। सच--सच कहता हूँ। एक के
पीछे एक तीन लड़कियाँ मेरे घर पैदा हुई। मैं तीर्थयात्रा के लिए जब अपने गाँव से रवाना हो रहा था, तब मेरी
पत्नी को सातवाँ महीना था। आज सवेरे दस बजे एक तार आया है कि आज मेरे घर पुत्र का जन्म हुआ है।
माँ बच्चे दोनों ठीक हैं। अगर यह बच्चा कल मेरे ससुर के मरने से पहले जन्मा होता तो सारी जायदाद बच
जाती। अब तो वह किसी अन्य वंशज के हाथ में चली जाएगी। उन्होंने हमको सूचित किए बिना और सलाह
--मशविरा लिये बिना उतावली में आकर यह वसीयतनामा लिख दिया और उसकी रजिस्ट्री भी करा दी। अब
कुछ नहीं हो सकता। बस एक ही उपाय है, वह आपके हाथ में है। आप ही इस जायदाद को किसी दूसरे
वंशज के हाथ में जाने से बचा सकते हैं। ससुर साहब आज सबेरे मरे या कल रात मरे, इसमें कुछ अंतर नहीं
है। काशी में मेरे कोई संबंधी नहीं हैं। वे सबेरे मरे होते तो यह संपत्ति मेरे हाथ में ही रहती। मैंने सुना है कि
आप तमिलभाषी हैं, इसीलिए आपकी शरण में आया हूँ। अभी तक शव की अंत्येष्टि क्रिया भी नहीं हुई।
हनुमानघाट पर आज ही क्रिया करनेवाला हूँ। आप इतना लिख देंगे कि मैंने इलाज किया और आज दोपहर
को वह मर गए तो आपकी बड़ी कृपा होगी। यह निश्चय है कि आप इसमें किसी की कुछ हानि नहीं कर रहे।
मैं अभी आपको पाँच हजार रुपए देता हूँ। कृपा करके इन्हें स्वीकार कीजिए और जैसा मैं कहता हूँ, वैसा
लिख दीजिए। मैं उसकी नकल करके तार द्वारा अपने गाँव भेज दूँगा। मेरी विनीत प्रार्थना है कि आप भी
आज शाम को हनुमानघाट पर आकर दाह--क्रिया देखें और मेरी रक्षा करें।''
यह सारी कथा सुनकर डॉक्टर पाल आरोग्यम् ने सोचा कि गणेशजी ही मेरे कष्टों को दूर करने का यह
मार्ग सुझा रहे हैं। ऐसा करने पर उस पाजी सेठ से पिंड छूट जाएगा। उनको जो कुछ देना है, वह देने के बाद
वे भी दक्षिण चले जाएँगे। और किसी तरह अपना गुजर कर लेंगे। उन्होंने यह प्रतिज्ञा भी की कि वह भविष्य में
शराब छुएँगे नहीं। इसमें कोई बड़ा झूठ भी तो नहीं है। कल मरे या आज मरे, इसमें क्या है। जायदाद बेटी को
ही जाती है न। यही न्यायसंगत भी है।
यह सब सोचकर उन्होंने कहा, “मैं जरा सोचना चाहता हूँ। समय दीजिए और अँधेरा होने पर आइए। मैं
आपको अपना निर्णय बता दूँगा।''
“नहीं, इसमें सोचने--विच्रारने की कोई बात नहीं। दाह--क्रिया के लिए अब और विलंब नहीं किया जा
सकता। इसमें कुछ धोखा नहीं है। चलिए, एक हजार रुपए और लीजिए पूरे छह हजार।''
यह कहते हुए शिवसुब्रह्मण्य अय्यर ने बलात् डॉक्टर के हाथ में वे नोट थमा दिए, और कागज--कलम आगे
रख दिया। डॉक्टर ने वे रुपए लिये और अंदर जाकर अपनी पेटी में रख दिए। फिर वापस आकर चुपचाप
लिखने बैठे। पूछा, ''आपका क्या नाम है?"
'शिवसुब्रह्मण्य अय्यर!'
“शिवसुब्रह्मण्य अय्यर नामक तंजाऊर के ब्राह्मण अपने ससुर के साथ तीर्थाटन करने काशी आए। यात्रा में
वृद्ध ससुर बीमार पड़ गए तो उन्होंने मुझसे उनकी चिकित्सा कराई। बुढ़ापे के कारण दवा का कोई प्रभाव न
हुआ। आज सबेरे दस बजे उनकी मृत्यु हो गई। शिवसुब्रह्मण्य अय्यर के माँगने पर यह पत्र दिया जाता है।''
कागज पर इतना लिखकर डॉक्टर आरोग्यम् ने हस्ताक्षर कर दिए और फिर वह कागज शिवसुब्रह्मण्य
अय्यर को दिया। अय्यर ने डॉक्टर को साष्टांग प्रणाम किया और बिनती की कि शाम को छह बजे जरूर
हनुमानघाट की तरफ आने की कृपा करें।
डॉक्टर आरोग्यम् ने सेठजी को जितने रुपए देने थे, देकर रसीद ले ली। सेठजी और पुलिस ने उन्हें चेतावनी
दी कि इस बार हम आपको क्षमा कर देते हैं। आगे से ऐसी हरकत न करें। उस दिन गणेशचतुर्थी का त्योहार
था। वापस आते समय डॉक्टर ने गणेशजी की एक मूर्ति खरीदी। ईसाई धर्म को मन से निकालकर वे गणेशजी
के सेवक हो गए। दीया जलाकर उन्होंने भक्तिपूर्वक मूर्ति की पूजा--अर्चना की और फूल चढ़ाए। “हे
देवाधिदेव! तुमने मेरी नैया पार लगा दी। मैं अब तुम्हारा दास हूँ।'' यह कहकर उन्होंने आँखें बंद कर लीं और
थोड़ी देर के लिए ध्यानमग्न हो गए। शाम को हनुमानधाट जाकर शिवसुन्रह्मण्य अय्यर से मिले। उनके ससुर
की मृत--देह को देखने की लालसा उनके मन में उत्पन्त हो आई। उसी के कारण तो वे इतने बड़े संकट से
बाल--बाल बचे।
उसको देखकर पाल आरोग्यम् ठिठक गए। उनको ऐसा लगा, जैसे वह लाश उनके पिता से मिलती--
जुलती है। उन्होंने एक बार फिर ध्यान से देखा; निस्संदेह वे उनके पिता ही थे। शक की कोई गुंजाइश नहीं।
लेकिन फिर भी उनका संदेह दूर नहीं हुआ। पिताजी के पास तो दो एकड़ नहरी जमीन से अधिक दूसरी कोई
जायदाद न थी। यह क्या बात है?
सारी क्रियाएँ जल्दी ही समाप्त हो गई। डॉक्टर ने अय्यर को अपने घर पधारने का न्यौता दिया। परंतु अय्यर ने कहा,
“नहीं, अभी धर्मशाला जाकर मैं नियमानुसार शास्त्रसम्मत क्रियाएँ ब्राह्मणों द्वारा करवाना चाहता हूँ।
इसलिए कल सबेरे आपके घर आऊँगा।''
दूसरे दिन वे डॉक्टर के घर गए। और विस्तार से सब बातें उन्होंने उन्हें बताईं। उनके पास वसीयतनामे की जो
नकल थी, वह भी दिखाई।
“सियाली तालुका काट्टुमुनियप्पन कोविल के निवासी महादेव अय्यर के बेटे सांबशिव अय्यर का लिखा
वसीयतनामा है। मेरी पहली पत्ली के पुत्र को घर से भागे तीस साल हो गए। मेरी दूसरी पत्नी का पुत्र चेचक
का शिकार होकर चल बसा। पहली पत्नी से जन्मी बालांबाल नामक मेरी लड़की का विवाह मीरासदार
शिवसुब्रह्मण्य अय्यर के साथ हुआ है। और वह सब तरह से सुखी है। उसको किसी बात की कमी नहीं है।
मेरी जो दो एकड़ तर--जमीन है, वह मेरी दूसरी पत्नी गौरी--अम्माल को मिले। मैंने युद्ध में ठेका लेकर जो
धन अर्जन किया है, वह बैंक में जमा है और दो लाख से कुछ अधिक है। मैं अपने खर्चे के लिए उसमें से जो
कुछ लेता रहा हूँ, उसको छोड़कर बैंक में जो कुछ बाकी जमा है, वह मेरे पीछे अगर मेरी मृत्यु होने से पहले
मेरी पुत्री बालांबाल के कोई पुत्र पैदा हो जाए तो उस लड़के को मिले। उसी को मेरी अंतिम क्रिया भी करनी
चाहिए। मेरे जीवित रहते उसके कोई पुत्र नहीं जनमा तो मनुस्मृति के अनुसार मेरे उत्तराधिकारी पुत्र को मिले
अर्थात् मेरा जो बेटा घर से भाग गया है, अगर वह वापस आ जाए तो उसको मिलना चाहिए। नहीं तो मेरी
मृत्यु के बाद जो मेरा निकटस्थ वंशज है, उसको मिलना चाहिए। यह वसीयतनामा तारीख--को गुप्त रूप से
रजिस्ट्री किया गया है।''
डॉक्टर आरोग्यम् उसको पढ़कर कुछ नहीं बोले, शिवसुब्रह्मण्य अय्यर भी वापस चले गए। “सबकुछ
बहन बालांबाल को ही जाता है न।'' यह सच है कि मैंने धोखा खाया, फिर भी इसमें अफसोस करने की क्या
बात है? इस तरह मन को समझा--बुझाकर पाल आरोग्यम् गणेशजी के ध्यान में मग्न हो गए।
“भैया, वापस आ गए। तुम को पाकर मैं पिताजी के मृत्यु--शोक तक को भूल गई हूँ। वैद्यनाथ! सुना कि तुम
ईसाई हो गए थे, यह क्यों? बालांबाल यह कहकर भाई के दुःख को कुछ हलका करने का प्रयत्न करने लगी।
“नहीं बाला, यह देखो जनेऊ है।'' पाल आरोग्यम् ने अपना कुरता निकालकर जनेऊ दिखाया। और कहा,
“दो लाख की जायदाद छोड़कर मैं छह हजार रुपयों के लिए बेवकूफ बन गया, देखा? ” यह कहकर वे
कहकहा लगाकर हँसने लगे।
“भगवान् को धन्यवाद दो कि तुम वापस आ गए। जायदाद में आधा तुम ले लो। नहीं, पूरी जायदाद ही ले
लो। मुझे कुछ नहीं चाहिए।''
इतना कहकर बालांबाल बच्चे को दूध पिलाने चली गई। शिव--सुब्रह्मण्य अय्यर ने कहा, “मूर्खों जैसी
बातें न करो। क्या वे तुम्हारे रुपयों के लिए लालायित हैं। वे तो विरागी पुरुष हैं। उन्होंने निश्चय कर लिया है
कि वे शंकराचार्य के मठ में जाकर सत्संग में अपने दिन बिताएँगे? क्या वे तुम्हारी बात मानेंगे? ''
शिवसुब्रह्मण्य अय्यर ने सत्य ही कहा था। डॉक्टर पाल आरोग्यम् ने अपनी वेश--भूषा एकदम बदल दी।
वे नए सिरे से वैद्यनाथ अय्यर बन गए। वहाँ से वे कुंभभोणम गए, वैदिक परंपरा में सम्मिलित होकर
आचारशील बन गए और शांति के साथ जीवनयापन करने लगे।