दो परंपराएँ (तमिल कहानी) : अरिज्ञर अण्णादुरै

Do Pramprayen (Tamil Story) : Arignar Annadurai

मेरी प्यारी जूलिया! नाराज हो? जिम्मी, तू बड़ा दुष्ट है! जा, जाकर मेरी जूलिया को समझाओ, जा...।"
“जूली! जूलि!! देखो तो जरा, अरे! पति के गुस्से के कारण हमारी जूलिया बहुत ऊधम मचा रही है। देखो न कैसे घूर--घूरकर देख रही है। बेचारा जिम्मी मिन्‍नत करके हार गया और (यह सोचकर) चला गया कि जूलिया को अपने आप शांत होने दो।'” “कुछ भी हो! बेटा जूलि! तुम्हारा इतना गुस्सा ठीक नहीं।''

“आपका भी, कल विवाह होकर पति के आने पर...।” मजाक करने लगी मारी। देवा उसका मान रखते हुए मजाक से डाँटने लगी... ''चुप रह! क्या हमेशा शादी की बात कर मेरा मजाक करना ही तेरा काम है? शादी के नाम पर मजाक उड़ानेबाली कितनी ही देवाओं को बाद में पालने में बच्चों को झुलाते हुए मारी ने देखा है। शादी के नाम पर देवा के नाराज हो जाने पर मारी थोड़े ही चुप हो जाएगी।''

मारी और भी मजाक करते हुए कहने लगी, '“जूलिया की तरह तुम भी उतनी ही गुस्सैल तो हो न।”' जूलिया को समझा न सकने से दुखी जिम्मी की दुखिया आँखों को देखकर देवा ने जल्दी जाकर, बिस्कुट उसके सामने डाला। जूलिया के साथ प्रेम का खेल खेलने में जो आनंद है, वह बिस्कुट खाने में कहीं मिलेगा? उसने खाया नहीं। जूलिया भी एक बार जिम्मी की तरफ नजर उठाकर देखकर फिर उपेक्षा से दूसरी तरफ करवट बदलकर लेट गई।

“पिताजी! वे दोनों पिल्‍ले कितने सुंदर लगते हैं? कल मैंने जूलिया को छूकर उसकी पीठ पर हाथ फेरकर देखा तो वह मलमल की तरह मुलायम सा लगा।”' “पिल्ला तो जरूर सुंदर है। वे कहते थे कि जूलिया और जिम्मी दोनों को बंगलूर में खरीदा था। मालूम है कितने में उन दोनों को खरीदा था? पिछले महीने हमने अपने बाजरे के खेत को कितने में बेचा था, याद है?''
“ढाई सौ में।”'
"जूलिया और जिम्मी का दाम भी ढाई सौ रुपए है।''

सुखानंद मुदलियार और उनका बेटा सिंगारम दोनों मारवाड़ी के पास गिरवी रखे अपने खप्रैलवाले मकान में बैठे धनपाल चेट्टियार के यहाँ ठाट से पलनेवाले जूलिया और जिम्मी पिल्लों के बारे में आपस में बातें कर रहे थे। घर गिरवी रख दिया गया और बाजरे का खेत बेच दिया गया। उस खेत की कीमत और धीमी आवाज में भूँकनेवाले उन पिल्‍लों की कीमत एक बराबर है। वहाँ ढाई सौ में कुत्ता खरीदा गया और यहाँ दो पीढ़ियों की संपत्ति खेत को ढाई सौ में बेच दिया गया। ऐसी हालत में केवल सुखानंद नाम रखने का क्‍या तुक है? यहाँ तो न सुख है और न आनंद।

एक जमाने में धनपाल चेट्टियार और सुखानंद दोनों ही साझे में व्यापार करते थे। सुखानंद के व्यापार में जरा भी बरक्कत नहीं हुई। आज भी सुखानंद का व्यापार सामान्य ढंग से चल रहा है, जबकि धनपाल लखपति बन चुके थे। फिर भी दोनों की मित्रता में कोई आँच नहीं आई। अपने घर के सभी शुभ कार्यों में वे सुखानंद को प्रेम से बुलाते थे। सुखानंद बड़े गर्व के साथ अपने मित्रों से कहा करते थे, “कुछ लोग धनी बन जाने पर घमंडी बन जाते हैं, पर हमारे धनपाल ऐसे व्यक्तियों में नहीं।'' सुखानंद हमेशा अपने मित्र को प्यार से 'रे धनपाल” कहकर बुलाते थे। धनपाल से बातें करते समय या अपने मित्रों से बातें करते वक्त धनपाल का नाम लेकर पुकारनेवाले विवशतावश सुखानंद भी कभी--कभार उन्हें आदर के साथ 'चेट्टियार' के नाम से पुकारते थे। धनपाल के घर में एक नया चौकीदार नियुक्त हुआ। कोई घर के अंदर जाना चाहे तो वह उनसे पूछता था कि आप कौन हैं? किस काम से मालिक से मिलना चाहते हैं; आदि--आदि। चौकीदार को क्‍या पता था कि सुखानंद और धनपाल दोनों आपस में दिली दोस्त हैं और एक जमाने में साझे में व्यापार करते थे। जानने से भी क्‍या होता है? धनपाल चेट्टियार उसका मालिक है और सुखानंद तो उसके लिए अपरिचित अजनबी है। उसकी उतनी ही समझ है।

एक दिन उसने सुखानंद को घर के अंदर जाने से रोका। पूछा, ''आप कौन हैं?"
'मुझसे पूछते हो, तुम कौन हो भाई? नया है क्या? यह कोई नई व्यवस्था लगती है। मैं तो उनका मित्र हूँ।'' सुखानंद ने जवाब दिया। फिर यह सोचकर थोड़ी उन्हें खीझ भी हुई कि अपने दिली दोस्त को 'चेट्टियार' नाम से पुकारना पड़ रहा है।

चौकीदार फिर पूछने लगा, “ आप किससे मिलना चाहेंगे?” सुखानंद को उसका इस त्तरह पूछना अच्छा नहीं लगा। उससे 'धनपाल' कहना उचित नहीं, इसलिए तुरंत कहा। ''धनपाल चेट्टियार' से मिलना है।'' फिर मन --ही--मन सोचने लगा कि 'मुझे अपने दिली दोस्त को 'चेट्टियार' कहकर पुकारना पड़ा। हम दोनों दिली दोस्त तो हैं। एक ही दुकान में साथ--साथ व्यापार करते थे। आज वह धनी हो गया और मुझे उसे आदर के साथ “चेट्टियार' कहकर पुकारना पड़ा। धीरे--धीरे उसके मन की खीझ गुस्से में बदलने लगी।

“आप यहीं ठहरिए, मैं मालिक से पता करके आता हूँ।'' कहकर चौकीदार मकान के अंदर गया। चौकीदार के चले जाने पर सुखानंद खिसियाने लगा। 'क्या साहब--साहब! कहता रहता है। उसके लिए वह साहब हो सकता है, मेरे लिए बह कौन है? आज के बाद उससे मिलने यहाँ न आना ही बेहतर है। क्या अभी चुपचाप वापस चला जाऊँ?' फिर दूसरे ही क्षण सोचने लगा--'इस बार मिलने तो आ ही गया हूँ। उससे मिलने पर फाटक के इस 'ठाट' के बारे में उसे बताना होगा। “धनपाल! क्‍या धनी होने पर तू इतराने लगा है? यहाँ क्‍या शान दिखा रहा है? तेरा भाग्य चमकने लगा और तू धनी बन गया है और अब लखपति है। मेरा विचार था कि तू मेरे साथ ऐसे सलूक नहीं करेगा। आदर के साथ पेश आएगा। धनी बनने पर तू भी उन लोगों की तरह इतराने लगा है। तेरा यह व्यवहार ठीक नहीं है। जान लो कि धन शाश्वत नहीं, गुणी होना जरूरी है। तभी लक्ष्मी तेरे पास टिकी रहेगी। समझे?''

धनपाल से मिलने पर वह ये सारी बातें बताकर उन पर बरस पड़ना चाहता था। इसी गुस्से के साथ वह चौकीदार के साथ घर के अंदर गया। लेकिन धनपाल ने उसका सारा गुस्सा ठंडा कर दिया। धनपाल को समझा--बुझाकर नहीं, सुखानंद के सामने ही चौकीदार को डाँटकर।

नौकर पर अपना गुस्सा उतारते हुए वे उसे बताने लगे “बेवकूफ कहीं का! मुझसे तूने कहा कि कोई मिलने आया है। इनको तूने क्या समझा है? ये हमारे दिली दोस्त हैं और परिवार का बड़ा हितैषी मित्र भी! उल्लू का पट्ठा! आगे से ये जब भी यहाँ आवें तो बिना कोई प्रश्न किए और इन्हें रोके बिना, आदर के साथ अंदर ले आना, समझे?”

यह देखकर सुखानंद बहुत खुश हुआ। उसका सारा गुस्सा ठंडा हो गया। मन--ही--मन यह सोचकर प्रसन्‍न हुए कि धनलक्ष्मी इनके पास रहे तो मंगल ही होगा। धनपाल अपनी पुरानी मित्रता को बहुत मानता है। इसका स्वभाव अच्छा है, यह गुणी भी है। इस कदर गुणी होने से ही इनके पास लक्ष्मी निवास करती है। उस दिन से उन दोनों की मित्रता और गहरी हो चली।

सिंगारम के मन में उन पिल्लों के प्रति जो मोह पैदा हुआ, उसके कारण वह अकसर धनपाल चेट्टियार के बँगले में जाता रहा। जिम्मी और जूलिया के प्रेम के कारण उनके दो बच्चे पैदा हुए। दो सुंदर पिल्लों को जन्म देकर बड़े गर्व के साथ उन्हें देखकर फूले न समानेवाले जिम्मी को देखकर जूलिया बहुत प्रसन्न हुई। पिल्लों में एक का रंग सफेद था और दूसरे का काला। रंग में भेद जरूर था। फिर भी दोनों की सुंदरता समान थी। सिंगारम उन दोनों में से किसी एक को पाने के लिए तप करने को भी तैयार था। एक पिल्ला खरीदकर लाने के लिए पिताजी पर बहुत जोर देने लगा।

“पिताजी! ''
“क्या रे!"
“वह पिल्ला!"
“ ओरे, हमें क्‍यों ये सब व्यर्थ का टंटा...।''
“वे कितने सुंदर है पिताजी!"
“हाँ , 'सुंदर तो हैं। लेकिन रोज आठ आने का बिस्कुट और दूध उसे देना होगा, समझे।''
“किसी--न--किसी प्रकार उसे पालेंगे पिताजी! आप चेट्टियार से बात करके देखिए न!”
'मेरे माँगने पर धनपाल पिल्‍ला जरूर दे देगा। लेकिन हमें पिल्‍ला या बिल्ली से क्या वास्ता?'
इस प्रकार पिता और पुत्र में रोज ही बहस होती थी।

“काला रंग? छिह! डर्टी...हमें नहीं चाहिए।''
“सफेद रंग में भी एक पिल्‍ला है, सर! एक पिल्‍ला इनकम टैक्स अफसर के लिए और एक आपके लिए एक देने का मैंने पहले ही निश्चय कर लिया है।''

“ठीक है! सफेद रंगवाला पिल्‍ला लेते आओ। मेरा चपरासी अभी भी ठीक तरह काम नहीं करता है। यह पिल्‍ला भी आ गया तो समझिए, फिर तो वह बिल्कुल सुस्त हो जाएगा।''

डिप्टी कलेक्टर और धनपाल चेट्टियार के बीच कुत्ते के पिल्‍लों को लेकर यह जो चर्चा चली, चेट्टियार के चले जाने के बाद डिप्टी कलेक्टर अपने नौकर से शिकायत करने लगे--“यह चेट्टियार तो हमें बहुत तंग कर रहा है।'” मगर चेट्टियार को बड़ा गर्व होने लगा कि अपने घर का पिल्‍ला कलेक्टर के घर पलनेवाला है। सिंगारम से तंग आकर सुखानंद धनपाल के यहाँ जाकर पिल्लों की माँग करने पर उसे यह बिल्कुल ख्याल न था कि चेट्टियार देने से साफ इनकार करेंगे। उनका ख्याल था कि बचपन का यह हमारा साथी धनपाल सिर्फ एक पिल्ला अपने दोस्त को देने से इनकार न करेगा। इसलिए धनपाल का जवाब सुनकर उसे बड़ा धक्का लगा।

“कुत्ते का पिल्‍ला?” हमारे डिप्टी कलेक्टर ने इस पिल्‍्ले की माँग करते हुए मुझ पर जोर दिया है। मैंने उन्हें समझाया कि सर! एक पिल्ले की माँग पहले ही हमारे इनकम टैक्स अफसर ने की है तो आधे मन से उन्हें देने को सहमत हुआ। अब रहा यह एक ही पिल्ला। उसे भी दे देने पर मेरा मन भारी हो जाएगा; सर! उन्हें बहुत समझाया, लेकिन वह आदमी ठहरा बड़ा जिद्दी और हठी। चाहे हजार रुपए भी उसकी कीमत हो तो देने को तैयार हूँ। जरूर यह पिल्ला मुझे चाहिए कहकर आदेश दे दिया। मैं क्या करूँ? तुम्हें मैं अगली बार अवश्य दूँगा। सुखानंद को धनपाल ने बहुत समझाने की कोशिश की। सुखानंद को मन--ही--मन गुस्सा आया। सोचा कि यह आदमी एक पिल्ला मुझे देने को आनाकानी कर रहा है। लेकिन यह पिल्ला तो कलेक्टर के बँगले में पलने जा रहा है और दूसरा इनकमटैक्स अफसर के यहाँ। सुखानंद ने घर जाकर अपने बेटे को खूब समझाया। इनकमटैक्स और कलेक्टर के नाम पर सिंगारम भी मान गया। सिंगारम की तरफ से देवा ने पहल की।

यह क्या पिताजी! सुखानंदम्‌ हमारे परिवार के घनिष्ठ मित्र हैं। उन्हें पिल्‍ला देने से क्या बिगड़ जाता है? इनकमटैक्स अफसर ने कहाँ पिल्‍ला माँगा था? आप ही स्वयं जाकर उनसे पूछते हैं, ''क्या हमारा पिल्‍ला आपको चाहिए?” कहते हुए देवा सिंगारम की तरफ से पिताजी से बहस करती थी। धनपाल चेट्टियार यह सोचकर हँस पड़े कि हमारी यह बेटी दुनियादारी से बिल्कुल नावाकिफ है। कहने लगे--

“पगली कहीं की! मेरा मजाक उड़ा रही है कि मैं स्वयं जाकर पूछ रहा हूँ। न सिर्फ इनकमटैक्स अफसर के यहाँ, बल्कि डिप्टी कलेक्टर के यहाँ भी मैं ही स्वयं जाकर पूछ रहा हूँ कि क्या अपने घर का पिल्‍ला आपको दूँ? यही नहीं, मैं यह भी दुखी हूँ कि देने के लिए मेरे पास और एक पिल्ला नहीं है? तुम क्या जानो यह सारी बातें? तुम्हें लोक का व्यावहारिक ज्ञान बिल्कुल नहीं। खैर जाने दो।'' देवा पिताजी से बहस करने लगी, '' क्या पिताजी! और एक पिल्ला होने पर सुखानंद को दे सकेंगे? इतना तो अपने दोस्त पर आपका प्यार है। बस यही काफी है। देवा ने व्यंग्य के साथ कहा और अपना आक्रोश व्यक्त किया। देवा के आवेश से भरे शब्दों का पिताजी पर कोई असर न हुआ। देवा यह देखकर आश्चर्य करने लगी।

“बुद्धू लड़की! तीसरा पिल्‍ला हो तो उस उल्लू के पट्ठे को थोड़े ही दूँगा। वह जो मुलतानी आता है न, जो माँगने पर उधार देता है न, उसे दूँगा। हमारे घर के पिल्लों में से एक इनकमटैक्स अफसर के घर में, दूसरा कलेक्टर के बँगले में पलते रहेंगे तो हमारा लाभ ही होगा; समझे? डिप्टी कलेक्टर और इनकमटैक्स अफसर दोनों यह कहेंगे न कि यह तो धनपाल चेट्टियार ने हमें दिया था? कितनी बार वे हमारा नाम लेंगे? ये सरकारी अफसर बार--बार मेरा नाम लेंगे तो शहर भर में मुझे कितना सम्मान मिलेगा। शहर के लोग समझ जाएँगे कि धनपाल चेट्टियार और कलेक्टर में अच्छी दोस्ती है। कलेक्टर के घर में पलनेवाला पिल्‍ला भी चेट्टियार का दिया हुआ है। ये पिल्ले वहाँ हमारे 'एजेंट' बनकर रहेंगे। इसे न समझकर पगली तू कहती है कि इसे सुखानंद को दे दो। पिल्‍ला न मिलने से वह मुझसे जरा नाराज जरूर होगा। इससे हमारा कोई नुकसान नहीं होनेवाला है। यह सोचो कि कलेक्टर और अफसर के घर में अगर ये पिल्ले पहुँच जाएँगे तो हमें कितना फायदा मिलेगा। इस पर हमें सोचना होगा। व्यापारी की बेटी होने से क्या फायदा? तम्हारी अक्ल चरने गई है।'' बेटी को समझाइते हुए चेट्टियार ने एक उपदेशपरक लेक्चर ही दे डाला। अब देवा को स्पष्ट समझ में आ गया कि पिताजी धन कमाने की मशीन बन चुके हैं। गरीब और अमीर दोनों जिगरी दोस्त होते हुए भी और बचपन के प्रिय दोस्त होने पर भी, उन दोनों की दुनिया अलग--अलग है, विचार भिन्न हैं--योजना सिद्धांत आदि बातें भिन्‍न हो सकती हैं, इसे वह समझ गई। उस रात वह आँसू बहाती रही। इतना भावुक होने का कारण भी था। देवा सिंगारम से प्रेम करने लगी थी। कलेक्टर के घर में पलनेवाले पिल्‍ले को ऋणभार से दबे अपने घर में लाने का प्रयास सिंगारम कर रहा था। धनपाल अपनी बेटी को ऊँचे खानदान में देने की बात सोच रहे थे। जब कि देवा मिट्टी के एक साधारण घर में अपना 'मनोहर पुरुष' साथ रहने का सपना देख रही थी। पिल्लों के दुबारा लाभ कमाने के ख्याल से काम करनेवाले व्यक्ति के लिए प्रेम की भाषा क्‍या अर्थ रखती है? या तो वह उस प्रेमपुष्प को कुचलकर मुरझाने देगा या गुस्से से उसे पैरों से रौंद डालेगा। देवा को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गई।

दूसरी बारी आई। सिंगारम की ओर से देवा ने पिताजी से पहले ही अर्जी पेश कर दी। इस बार माताजी ने कठोर शब्दों में उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया। “यह क्या कह रही है, बेटी? जरा सोचो तो, वे लोग पहले तो गरीब हैं, इस पर कुत्तों की क्या हालत होगी? दूध और बिस्कुट खरीदने के लिए उन लोगों के पास पैसा कहाँ, कुत्ता चार ही दिन में मर जाएगा।'” देवा की माँ ने उसे समझाया। लेकिन यह कटु सत्य है और दिल को विचलित करनेवाला सत्य है, कितना अच्छा होता, यदि जूलिया दूसरी बार गर्भवती नहीं होती। बच्चा पैदा होने के बाद उसे न दे सकने पर वे कितना दुखी होंगे? देवा के मन की उलझन का यही कारण था। सिंगारम तो पड़ोसन की बेटी अन्नम के साथ अगले महीने शादी की कल्पना में डूबा हुआ था। लेकिन पिल्‍ला का मोह भी नहीं छूटा। चेट्टियार के यहाँ से पिल्‍ला ले आने के लिए बार--बार पिताजी को तकाजे--पर --तकाजा दे रहा था। शहर का कोई बड़ा अफसर इस बार पिल्ला लेने को राजी नहीं हुआ। अत: धनपाल ने सिंगारम से यह बहाना बनाते हुए कहा, “पुरानी दोस्ती को हमें भूलना नहीं चाहिए। अगर गवर्नर भी आकर माँगें तो भी मैं इस बार नहीं दूँगा। मैं वचनबद्ध हूँ। तुम तो मेरे जिगरी दोस्त हो।'' कहते हुए पिल्‍ला सुखानंद के हाथ सौंप दिया। सिंगारम बहुत खुश हुआ। अन्नम को देनेवाले चुंबन में आधे से अधिक चुंबन जॉर्ज अर्थात्‌ पिल्‍ले को दे दिया। देवा ने कुत्ता पालने का सारा विधान उसे समझाया। कितना दूध उसे पिलाना होगा, बिस्कुट कितना देना होगा। रात को मुलायम गद्दी पर उसे सुलाना होगा, इत्यादि। धनपाल के कहने में कोई गलती नहीं थी। देवा पगली लड़की थी। सिंगारम की क्‍या हैसियत थी? क्‍या देवा के कहे अनुसार सिंगारम से उसका पालन--पोषण संभव हो सकेगा? क्‍या देवा ने कभी उस पर विचार किया था? वह तो सिंगारम के लिए अपने मन में स्थान दे चुकी थी और उसे ही पति के रूप में मान चुकी थी। इसलिए उसने सोचा कि सिंगारम दूध, बिस्कुट और गद्दीदार बिस्तर उस पिल्‍ले के लिए दे सकेगा और इस तरह उसे आराम से पाल सकेगा? प्रेम वास्तव में एक उन्माद है, पागलपन है। लेकिन यह उन्माद भी एक ही क्षण में चकनाचूर हो गया। सिंगारम देवा की मनस्थिति से अपरिचित था। जैसे ही कुत्ता पालने के तरीके को देवा समझा चुकी, सिंगारम ने मुसकराते हुए उससे कहा, “ये सारी बातें अन्नम देख लेगी, वह कुत्ता पालने का तरीका अच्छी तरह जानती है।'' देवा समझ गई कि अन्नम का नाम ही सिंगारम की मुसकराहट का कारण है। देवा ने पूछा, “यह अन्नम कौन है? ''देवा की माँ ने जवाब दिया, “क्यों--तू नहीं जानती? एक--दो महीने में वह उससे शादी करनेवाला है।'” सिंगारम मुसकराते हुए चुपचाप खड़ा था। देवा का सिर चकराने लगा।

“जॉर्ज” के आ जाने पर सिंगारम की पुरानी आदतें सब बदल गईं। सिनेमा जाना, ताश खेलना, बार--बार कॉफी पीना, सब आदतें वह छोड़ बैठा। हाथ में जो भी पैसा मिलता था, उसे जॉर्ज के लिए बिस्कुट, दूध आदि खरीदने में ही खर्च करता था। अन्नम के लिए कभी--कभी प्रेम से खरीदकर लानेवाले कुल के पैसे अब बिस्कुट खरीदने में खर्च हो जाते थे। उसका सारा ध्यान जॉर्ज के अच्छे पालन पोषण की ओर ही लगा हुआ था। खर्च की वह परवाह नहीं करता था। लेकिन कया जॉर्ज उस गरीब घर के लायक था? दुबला होने लगा, शरीर में फोड़े होने लगे। धीरे--धीरे उसकी शक्ल ही बदलने लगी। हमेशा रोता रहता। इस पिल्ले के लिए सिंगारम का इस तरह पैसा खर्च करना अन्नम को अच्छा नहीं लगा। अन्नम उस पर व्यंग्य कसती थी कि “यह कैसा पेट है, इस पिल्ले का दिन में चार आने पैसे की बिस्कुट खा डालता है, इतना खाने पर भी हड्डी और चमड़ी ही इसकी बची है।” इस बेकार खर्च को वह किसी तरह रोकने का प्रयास कर रही थी।

खर्च कम करने के उद्देश्य से अन्नम ने उसे सलाह दी कि जॉर्ज को चावल खिलाना शुरू करे। सिंगारम ने जवाब दिया, ''छिह! मालूम है, देवा ने जोर देकर कहा था कि कम--से--कम छह महीने तक उसे दूध और बिस्कुट ही खिलाना होगा। कभी--कभी अन्‍नम यह प्रश्न करती थी कि इसे रोज नहलाने की क्या जरूरत है? न सिंगारम कहता था कि यह देवा का सुझाव है। पिल्‍ले को नीचे जमीन पर छोड़ने पर बह कभी--कभी अन्नम को डाँटा करता था। अन्नम को उसका डाँटना भी उतना बुरा न लगा, जितना कि उसका बार--बार 'देवा-देवा' का नाम लेना। देवा के प्रति अन्नम के मन में ईर्ष्या होने लगी। देवा पर आया उसका सारा गुस्सा बेचारे उस कुत्ते जॉर्ज पर उतर आया। सिंगारम की अनुपस्थिति में वह उस कुत्ते को सताने लगी।

उस दिन पानी बरस रहा था।' सड़क कीचड़ से भर गई थी। सिंगारम की गली 'टार रोड' न होने से कीचड़ से भर गई थी। सड़क की कीचड़ में लोटने से जॉर्ज का सफेद रंग बरबाद हो गया। आजकल वह सड़क पर जूठन खाने को भौंकनेवाले बिगड़े हुए कुत्तों की तरह दिखने लगा। अन्नम देवा के बारे में सोचकर संतुष्ट हुई। वह देवा भी जीवन में कीचड़ से भरे स्थान पर पहुँच जाएगी तो इस जॉर्ज की भाँति उसका भी जीवन बदल जाएगा। अब की उसकी तड़क--भड़क गायब हो जाएगी। मन--ही--मन यह सोचकर वह खुश हो गई। वह निरर्थक खुशी थी। लेकिन अन्नम इससे ज्यादा क्या आशा कर सकती थी? खुशियाँ भी ज्यादातर निष्कारण ही तो होती हैं। सिंगाराम ने अब जॉर्ज की हालत पर गौर किया। उसे उस हालत पर पहुँचाकर खुश होनेवाली अन्नम को देखा। उस पर उसे गुस्सा आया और उसे बुरा--भला कहा। अन्नम पर हाथ उठाने को भी तैयार हो गया। सड़क पर इकट्ठी भीड़ को देखकर वह अपने गुस्से को जब्त कर गया।

कुलंदवेलु मुदलियार धनपाल चेट्टियार के दूर के रिश्तेदार थे। यह संदेह उठ सकता है कि मुदलियार और चेट्टियार में यह रिश्ता कैसे? कुछ इलाकों में चेट्टियार को लोग मुदलियार ही कहकर पुकारते थे। धनपाल उस तरह के चेट्टियार थे। अरुमैनाथन कुलंदवेलु का इकलौता बेटा था। समाज सेवा संघ का वह अध्यक्ष भी था। उस संघ की नींव डालनेवाले, चलानेवाले तथा उसका अध्यक्ष सबकुछ अरुमैनाथन ही थे। सरकारी मान्यता धनिकों का दान चंदा आदि उस सेवा संघ को अधिक प्राप्त था। तन, मन, धन से सेवारत उस प्रसिद्ध समाज--सेवी की सभी पत्र--पत्रिकाओं ने बड़ी प्रशंसा की थी। उसे निस्स्वार्थ समाज--सेवी के रूप में समाज 'में ख्याति प्राप्त थी। गरीबी को सदा के लिए खत्म करने और बीमारी को समाप्त करने की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अरुमैनाथन क्‍या साधारण व्यक्ति थे? यह तो एक बड़े धनी व्यक्ति का बेटा था। फिर भी अकसर गरीबों की झोपड़ियों में जाता था और वहाँ की गंदगी, कीचड़ भरी गंदी नालियों और गरीबों की टूटी--फूटी झोपड़ियों का निरीक्षण करता था, वह गरीबों को यह समझाता था कि इस गंदगी की वजह से ही प्लेग, हैजा, इन्फलूएंजा, कालसा आदि भयंकर बीमारियाँ पैदा होती हैं और मनुष्यों की जान हर लेती हैं।

सिर्फ इन गरीबों की झोंपड़पट्टियों में रहनेवाली गंदगी को देखने से चुप नहीं रहे। गंदे कपड़ों में रहनेवाली सुंदर अबलाओं पर उनकी दृष्टि जाती थी। आईने पर दीख पड़नेवाले उनसे फलों का रस लेते थे। दूसरी औरतों के बारे में वे ध्यान नहों देते थे। उस दिन वे देवा को साथ लेकर 'समाज सेवा संघ का काम करने वहाँ पहुँचे थे। सुंदर नारी और तड़क--भड़कवाले युवक दोनों गरीबों की झोपड़ियों के पास आने पर वहाँ भीड़ इकट्ठा होना स्वाभाविक ही है। जॉर्ज को भूलकर सिंगारम उस भीड़ को देखने लगा। देवा की नजर सिंगारम पर पड़ते ही उसका गुस्सा बढ़ने लगा। वह उस पर बरस पड़ी और पूछने लगी--“' क्या कुत्ता पालने का यही तरीका है? मेरे पिताजी तुझे कुत्ता देना ही नहीं चाहते थे। मैंने ही बहुत हठ करके तुझे कुत्ते का पिल्‍ला दिलवाया था। उसका यह बुरा हाल बना रखा है तूने? देवा अरुमैनाथन को सारी बातें समझाने लगी। सिंगारम उस वक्‍त डर के मारे कुत्ते के पिल्‍ले को पोंछ रहा था। 'रोजी रोटी के लिए रोज तरसनेवाले' देवा का यह शब्द सिंगारम के हृदय पर शूल की तरह पीड़ा उत्पन्न कर रहा था। ऐसा महसूस करने लगा, मानो हजारों भालों से कोई उसके हृदय को छेद रहा है। अरुमैनाथन देवा से कहने लगा--''क्या देवा! इन गरीब बेचारों के हाथों में इतना सुंदर पिल्ला क्‍यों दिया? ये लोग खुद ही साफ--सुथरा रहना नहीं जानते और गंदगी में ही लोट रहे हैं। इन लोगों को सुधारने के काम में हम सब लगे हुए हैं। ऐसी हालत में इस पिल्‍ले को साफ न रखने पर इन लोगों की शिकायत करना गलत है। जॉर्ज के शरीर की गंदगी को छोड़ो, इस व्यक्ति के सिर के बालों को देखो, सूखे बिखरे पड़े हैं, इसका कुरता देख, कितना गंदा है; पैरों पर गौर करो, एकदम कीचड़ भरा है; आँखों को देखो कीचड़ भरा है, ऐसी हालत में उस पर ध्यान न देकर कुत्ते पर ध्यान दे रही हो। तुम पागल हो!” देवा ने “हाँ मैं पागल हूँ" कहा। लेकिन अरुमैनाथन की बातों के जवाब में नहीं। इस तरह के व्यक्ति से शादी करने का विचार जो कर रही थी, उसे सोचकर वह दुखी थी। सिंगारम को रोना आया। अन्नम बड़बड़ाने लगी। वह हाथ मरोड़ने लगी और कर ही क्या सकती थी? सेवा संघ के अध्यक्ष तीक्ष्ण नयनवाली देवा को साथ लेकर वहाँ से चल पड़े। जाने के पूर्व अन्नम की सुंदरता पर एक नजर डालकर ही वहाँ से हटे।

अब सिंगारम को अपनी हैसियत का खयाल आया। वह यह सोचकर पछताने लगा कि धनवानों के जीवन के कुछ अंशों को वह खुद भी अनुभव करने का 'व्यर्थ मोह' कर रहा था। 'मुरगा नाचे मोर की भाँति" बाली कहावत के मुताबिक वह वेदना और शोक में छटपटाता रहा।

चार--पाँच दिनों के बाद एक घटना घटी। अरुमैनाथन अपनी मोटरगाड़ी में उस ओर आए समाज सेवा के लिए नहीं, अन्नम को देखने के लिए। जॉर्ज बेपरवाह पड़ा रहा। वह धूल में लेटा हुआ था। मोटर गाड़ी के पहिए के नीचे आकर वह मर चुका था। अरुमैनाथन अन्नम से बाद में मिलने का ख्याल कर अपनी मोटरगाड़ी तेज चलाते हुए वहीं से वापस चला गया।

“अरे पापी!” अन्नम चीख--पुकार करने लगी। जॉर्ज को उठाकर अपने सीने से लगा लिया। अन्नम की चीख--पुकार सुनकर सिंगारम घर के अंदर से भागे--भागे निकलकर आया। अन्नम ने मोटरगाड़ी की तरफ इशारा किया। चुपचाप जॉर्ज को अन्नम के हाथ से ले लिया। उसकी मृत्यु पर आँसू बहाए। अन्नम चिल्लाने लगी--'शरीर भर में कीचड़ लग जाने पर हाय--हाय करनेवाला अरुमैनाथन अब जॉर्ज को मारकर तेजी से भाग रहा है।” सिंगारम ने अपने घर के पिछवाड़े में एक गड़ढा खोदकर जॉर्ज को दफनाया। केवल जॉर्ज को ही नहीं दफनाया, अन्नम के प्रति अपने क्रोध को, आडंबर के प्रति अपने मोह को और पिछले दिनों के विचारों को भी दफना दिया।

चार--पाँच वर्षों के बाद अपने घर के कुत्ते 'वेल्लैयन' (श्वेत) की पीठ पर अपने बेटे को बिठाकर अन्नम खेल रही थी। ग्राम देवता करुप्पण्णन की कृपा से यह लड़का पैदा हुआ है, यह सोचकर सिंगारम ने अपने बेटे का नाम करुप्पण्णन रखा। वेल्लैयन उसके घर के कुत्ते का नाम है। वह न बिस्कुट खाता था और न दूध पीता था। जो कुछ मिलता था, उसे खाकर पलता था; बच्चे के लिए घोड़ा बन जाता था और सिंगारम के घर की रखवाली करता था। छड़ी की मार सह लेता था; लेकिन उस घर को कभी नहीं भूलता था। परिवार के लोगों को देखकर अपनी पूँछ हिला--हिलाकर अपना प्रेम जताना नहीं भूलता था। किसी दिन जूठे पत्तल पर दो मुट्ठी भात रखकर अन्नम उसे नाम लेकर पुकारती थी। वेल्लैयन को वही दावत की भाँति लगता था। वेल्लैयम गली के नुक्कड़ के खँडहर में पैदा हुआ था। उसके माँ--बाप सड़क पर घूमने फिरनेवाले सड़क के कुत्ते थे। वे धनपाल के घर के पले हुए कुत्ते नहीं थे। उस 'परंपरा' में जन्मे वेल्लैयन के लिए वह सचमुच दावत ही तो थी। मनुष्यों में ही नहीं, संकर जीवों में भी दो प्रकार की परंपरा के लोग हैं--सिंगारम अब भलीभाँति समझ गया।

(अरिज्ञर अण्णादुरै का जन्म 15 सितंबर, 1909 को हुआ और 3 फरवरी, 1969 को मृत्यु हुई। वे 'अन्ना' के नाम से प्रसिद्ध हैं। भैया (बड़े भाई) तमिलनाडु राज्य के मुख्यमंत्री रहे। लेखक ही नहीं, अच्छे भाषणकर्ता भी थे। उन्होंने कई लघु कहानी और अन्य गद्य विधाओं का लेखन किया है। उनकी रचनाओं में 'पार्वती बी. ए.' और 'कलिंग रानी' उपन्यास उल्लेखनीय हैं। उन्होंने (शिवाजी कंड हिंदू राज्यम्‌' गाटक का भी सृजन किया। उनकी लघु कहानियाँ आमतौर से समाजिक चेतना लिये हैं और उससे मानव में समरसता की भावना उत्पन्त करती हैं। उनकी कहानियों में कर्तव्य, अनुशासन और उच्च विचार मिलते हैं। कुछ नाटकों 'नल्‍ल तंबी' 'ओर इरवु' आदि का फिल्मांकन हुआ है।)

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