दो जादूगर (बांग्ला कहानी) : सत्यजित राय

Do Jadugar (Bangla Story in Hindi) : Satyajit Ray

‘पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह।’ सुरपति ने संदूकों की गिनती पूरी की और अपने सहायक अनिल की ओर मुड़ा। ‘ठीक है।’ उसने कहा, ‘इनको ब्रेक बैन में रखवा दो। सिर्फ पच्चीस मिनट बचे हैं।’

‘मैंने आपका आरक्षण देख लिया है सर’, अनिल ने कहा, ‘यह एक कूपे में है। दोनों बर्थ आपके नाम में आरक्षित हैं। यह सही रहेगा।’ फिर वह थोड़ा हँसा और आगे बोला, ‘गार्ड आपका प्रशंसक है। उसने न्यू एंपायर में आपका शो देखा है। यहाँ सर, इस तरफ आइए!’

गार्ड बीरेन बक्शी एक हाथ आगे बढ़ाए और एक चौड़ी मुसकान लिए आगे आया।

‘मुझे उस मशहूर हाथ से हाथ मिलाने की अनुमति दें।’ उसने कहा, ‘जिस हाथ ने वे सारे करतब दिखाए और मुझे बहुत अधिक खुश होने का अवसर दिया। यह वास्तव में गर्व की बात है।’

सुरपति मंडल की ग्यारह संदूकों में से किसी भी संदूक को देखकर सहज ही समझ में आ जाता कि वह कौन है। प्रत्येक संदूक के दोनों तरफ और उसके ढक्कन पर भी बड़े-बड़े अक्षरों में ‘मंडल के चमत्कार’ लिखा हुआ था। उसे और किसी परिचय की आवश्यकता नहीं थी। उसका पिछला शो करीब दो माह पहले कलकत्ता स्थित ‘न्यू एंपायर’ थिएटर में हुआ था, जहाँ बड़ी संख्या में मौजूद दर्शकों ने उसके मैजिक शो से सम्मोहित होकर बार-बार तालियों की गड़गड़ाहट से उसकी वास्तविक प्रशंसा की थी। अखबारों में भी उसके शो की बहुत तारीफ छपी थी। जनता की माँग पर, सप्ताह भर के शो की अवधि बढ़ाकर चार सप्ताह करनी पड़ी थी। अंततः, सुरपति को यह वादा करना पड़ा कि वह क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान दुबारा शो करने आएगा।

‘यदि आपको कोई मदद चाहिए तो मुझे जरूर बताएँ।’ गार्ड ने सुरपति को कूपे में दाखिल कराते हुए कहा। सुरपति ने चारों तरफ निगाह डालकर देखा और राहत की साँस ली। वह छोटा डिब्बा उसे पसंद आया।
‘तो फिर ठीक है, सर। क्या मुझे जाने की इजाजत है?’
‘बहुत-बहुत धन्यवाद।’
गार्ड चला गया।

सुरपति खिड़की के पास बैठ गया और फिर उसने सिगरेट की एक डिब्बी निकाली। उसने सोचा, यह तो अभी उसकी सफलता की शुरुआत है। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, आगरा, इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ। अभी उसे अनेक दूसरे राज्यों में जाना था, बहुत स्थानों का दौरा करना था। एक पूरी नई दुनिया उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। वह विदेश यात्रा पर जाएगा और उन्हें दिखा देगा कि कैसे बंगाल से आया एक युवक विश्व में कहीं भी सफल हो सकता है—अमेरिका जैसे देश में भी, जिस देश ने मशहूर हूदिनी को जन्म दिया। अरे हाँ, वह उनको सब दिखाएगा। यह तो शुरुआत ही है।

अनिल हाँफता हुआ आया। ‘सबकुछ ठीक हैं।’ उसने कहा।
‘क्या तुमने ताले देखे?’
‘हाँ, सर।’
‘अच्छा किया।’
‘मैं आपके डिब्बे से तीसरी बोगी में हूँ।’
‘क्या उन्होंने ‘रास्ता साफ’ का सिग्नल दे दिया है?’
‘वे सिग्नल देनेवाले हैं। मैं अब जाऊँगा, सर। क्या आप बर्दवान में एक चाय लेना चाहेंगे?’
‘हाँ, वह अच्छा रहेगा।’
‘तब मैं ले आऊँगा।’

अनिल चला गया। सुरपति ने सिगरेट सुलगाई और यूँ ही खिड़की के बाहर देखने लगा। धक्कम-धक्का करती भीड़, इधर-उधर दौड़ते कुली और फेरी लगाने वालों की चीख-चिल्लाहट की आवाज जल्दी पीछे छूट गई। उसका मन अपने बाल्यकाल में लौट गया। अब वह तैंतीस वर्ष का था। उस विशेष दिन वह आठ वर्ष से अधिक का नहीं रहा होगा। वह जिस गाँव में रहता था, उस गाँव में सड़क किनारे एक बूढ़ी औरत अपने सामने एक बोरा लिये बैठी रहती थी, उसके चारों ओर एक बड़ी भीड़ जुटी हुई थी। उसकी उम्र कितनी रही होगी? साठ? नब्बे वर्ष? कुछ भी हो सकती थी। उसकी उम्र से कोई फर्क नहीं पड़ता। महत्त्वपूर्ण वह था, जो वह अपने हाथों से करती थी। वह कोई भी एक वस्त—एक सिक्का, एक पत्थर का गोला, एक शकोरा, एक सुपारी या एक अमरूद भी हाथ में लेती—और वह वस्तु उन सबकी आँखों के सामने गायब हो जाती। वह बूढ़ी तब तक लगातार पटर-पटर बोलती रहती जब तक कि गायब हुई वस्तु न जाने कहाँ से दुबारा सामने न आ जाती। उसने कालू काका से एक रुपया लिया और वह गायब हो गया। बहुत परेशान कालू काका को गुस्सा आने लगा। बूढ़ी औरत हँसी और हे छूमंतर! वह रुपया सबके सामने मौजूद था। कालू काका की आँखें हैरान रह गईं।

उसके बाद सुरपति किसी चीज पर ज्यादा ध्यान नहीं लगा सका। उस बूढ़ी औरत को उसने फिर कभी नहीं देखा। न ऐसी आश्चर्यजनक करामात उसने कहीं और देखी।

सोलह वर्ष का होने पर वह आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता चला आया था। कलकत्ता आने पर उसने सबसे पहला काम यह किया कि जादू पर जितनी भी पुस्तकें वह खरीद सकता था, उसने खरीद लीं और उन पुस्तकों में बताई गई युक्तियों का अभ्यास करना शुरू कर दिया। अभ्यास करने के लिए ताश-पत्तों के कई बंडल लेकर किसी दर्पण के सामने घंटों खड़ा रहना पड़ता, और लिखे हुए एक-एक अनुदेश के अनुसार काम करना पड़ता। लेकिन बहुत जल्द, उसने सब कुछ सीख लिया। उसने छोटी-छोटी सभाओं और दोस्तों द्वारा आयोजित पार्टियों में अपने करतबों का प्रदर्शन शुरू कर दिया।

जब वह कॉलेज के द्वितीय वर्ष का छात्र था, उसके एक मित्र गौतम ने सुरपति को अपनी बहन के विवाह में बुलाया। वह शाम, बाद में एक जादूगर की हैसियत से सुरपति के प्रशिक्षण के इतिहास में सबसे अधिक स्मरणीय शाम सिद्ध हुई, क्योंकि उस दिन सुरपति की भेंट पहली बार त्रिपुर बाबू से हुई।

स्विन्हो स्ट्रीट में एक घर के पीछे एक बहुत बड़ा शामियाना लगा हुआ था। त्रिपुरचरन मलिक उस शामियाने के नीचे बैठे हुए थे और विवाह में उपस्थित दूसरे मेहमानों ने उन्हें घेरा हुआ था। एक नजर देखने में वह बहुत साधारण लगते थे। अड़तालीस वर्ष की उम्र, घुँघराले बाल—एक तरफ माँग निकालकर कढ़े हुए, होंठों पर मुसकान, मुँह के दोनों कानों पर चमकते पान के रस की धार। ऐसे लाखों लोग रोजाना देखने को मिलते हैं, त्रिपुरचरन उनसे कतई भिन्न नहीं था। लेकिन उनके सामने बिछे गद्दे पर जो हो रहा था उसे देखकर कोई भी उनके बारे में अपनी राय बदलने में एक क्षण भी नहीं लगाता। सुरपति को पहले तो अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। चाँदी का एक सिक्का लुढ़कता हुआ करीब एक गज की दूरी पर रखी सोने की अँगूठी के पास गया अैर उसकी बगल में जाकर रुक गया, और फिर दोनों लुढ़कते हुए त्रिपुर बाबू के पास लौट आए। सुरपति आश्चर्य से निकल कर सँभल पाता, उससे पहले ही गौत के अंकल के हाथ से माचिस की डिब्बी छूट कर जमीन पर गिर गई। सारी तीलियाँ बाहर बिखर गईं।

‘उन्हें उठाने की परेशानी मत उठाओ।’ त्रिपुर बाबू ने कहा। ‘तुम्हारी ओर से मैं उन्हें इकट्ठा कर दूँगा।’ उन्होंने सिर्फ एक बार अपना हाथ फिराया और सारी तीलियों का ढेर गद्दे पर रख दिया। फिर माचिस की खाली डिब्बी अपने बाएँ हाथ में लेकर उन्होंने पुकारना शुरू किया, ‘मेरे पास आओ, प्रिय। आओ, आओ, आओ।’ एक-एक तीली हवा में उठती और वापस डिब्बी के अंदर चली जाती, मानो वे तीलियाँ न होकर उनके पालतू जानवर हों और अपने मालिक की आज्ञा का पालन कर रहे हों।

डिनर के पश्चात् सुरपति सीधा उनके पास चला गया। त्रिपुर बाबू को उसकी रुचि देखकर बड़ी हैरानी हुई। ‘मैंने कभी किसी को जादू सीखने में रुचि दिखाते नहीं देखा है। अधिकतर लोग तमाशा देखने में खुश रहते हैं।’ उन्होंने कहा।

दो-चार दिन के बाद सुरपति उनके घर गया। वास्तव में उसे घर कहना अतिशयोक्ति होगी। त्रिपुर बाबू एक पुराने और जीर्ण-शीर्ण बोर्डिंग हाउस में एक छोटे से कमरे में रहते थे। घर के हर कोने से गरीबी झाँक रही थी। त्रिपुर बाबू ने उसे बताया कि अपना जादू दिखा-दिखाकर वह किस तरह अपनी गुजर-बसर किया करते हैं। प्रत्येक शो के लिए वह पचास रुपए लेते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें बहुत अधिक निमंत्रण नहीं मिलते हैं। इसका मुख्य कारण सुरपति की जानकारी के अनुसार, त्रिपुर बाबू के अपने उत्साह का अभाव था। सुरपति कल्पना नहीं कर सका कि इतना प्रतिभाशाली कोई व्यक्ति अपनी महत्त्वाकांक्षी के प्रति पूर्णतया उदासीन कैसे हो सकता है। इस बात का जिक्र करने पर त्रिपुर बाबू ने एक आह के साथ कहा, ‘अधिक शो करने की कोशिश का क्या लाभ होगा? कितने लोग हैं, जो एक सच्चे कलाकार की प्रतिभा की कद्र करते हैं? तुमने देखा नहीं, उस विवाह में डिनर की घोषणा होते ही कैसे सब लोग दौड़ गए? सिर्फ एक तुमको छोड़कर, क्या कोई भी लौटकर मेरे पास आया?’

इसके बाद सुरपति ने अपने दोस्तों से बात की और कुछ शो कराने का इंतजाम कर दिया। त्रिपुर बाबू संभवतः कुछ तो कृतज्ञता के कारण और कुछ उस लड़के के प्रति वास्तविक स्नेह के कारण उसे अपनी कला सिखाने के लिए राजी हो गए।

‘मुझे कोई फीस नहीं चाहिए।’ उन्होंने दृढता से कहा, ‘मुझे खुशी है कि मेरे चले जाने के बाद कोई तो मेरी विरासत को आगे बढ़ाएगा। लेकिन याद रहे, तुम्हें धैर्य रखना होगा। जल्दबाजी में कुछ नहीं सीखा जा सकता है। अगर तुम अच्छी तरह कुछ सीख जाते हो तो तुम जान जाओगे कि सृजन में कितना आनंद प्राप्त होता है। बहुत अधिक सफलता या प्रसिद्धि तत्काल पाने की अपेक्षा मत रखना। लेकिन मैं कह सकता हूँ कि तुम जीवन में मेरे मुकाबले कहीं अधिक नाम कमाओगे, क्योंकि तुम्हारे अंदर महत्त्वाकांक्षा है, जो मेरे पास नहीं है।’
कुछ-कुछ घबराए हुए सुरपति ने पूछा, ‘क्या आप मुझे वह सब सिखा देंगे जो आप जानते हैं? वह सिक्के और अँगूठीवाला खेल भी?’

त्रिपुर बाबू हँस पड़े। ‘तुमको धीरे-धीरे एक-एक कदम चलकर सीखना होगा। इस कला को सीखने के लिए धैर्य और अध्यवसाय की बहुत आवश्यकता होती है। इस कला का विकास प्राचीन समय में हुआ, जब इनसान की इच्छा शक्ति और एकाग्रता बहुत तीव्र हुआ करती थी। आधुनिक इनसान के लिए वहाँ जाना आसान नहीं है। तुमको नहीं पता, मुझे कितना परिश्रम करना पड़ा था।’

सुरपति ने त्रिपुर बाबू के पास नियमित रूप से जाना शुरू कर दिया। लेकिन करीब छह माह बाद ही कुछ ऐसी घटना हुई, जिसके कारण उसका जीवन पूरी तरह बदल गया।

एक दिन कॉलेज के रास्ते में सुरपति ने चौरंधी की दीवारों पर बहुत सारे रंगीन पोस्टर लगे हुए देखे। ‘शेफालो द ग्रेट’ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। थोड़ा करीब से देखने पर पता चला कि शेफालो एक इतालवी जादूगर है। वह कलकत्ता आ रहा था अपनी सहायक मैडम पलर्मो के साथ।

उन्होंने ‘न्यू एंपायर’ में अपना जादू का खेल दिखाया। सुरपति एक रुपए वाली सीट पर बैठा और प्रत्येक खेल को पूरी तरह डूबकर देखता रहा। इन करामातों के बारे में उसने सिर्फ किताबों में पढ़ा था। उसकी आँखों के सामने लोग देखते-ही-देखते धुएँ के बादल में गायब हो गए और फिर उसी सर्पिल धुएँ से दुबारा प्रकट हो गए, अल्लादीन के जिन की तरह। एक लड़की को लकड़ी के बक्से में बंद कर दिया गया। शेफालो ने उस बक्से को आरी से दो हिस्सों में काट दिया, लेकिन वह लड़की एक दूसरे बक्से से हँसती हुई बाहर निकल आई, पूरी तरह सुरक्षित। उस रात सुरपति की हथेलियों में बहुत दर्द हुआ। उसने इस कदर तालियाँ जो बजाई थीं।

उसने शेफालो को बहुत ध्यान से देखा। वह जितना अच्छा जादूगर था उतना ही अच्छा एक अभिनेता भी था। उसने एक चमकीला काला सूट पहना हुआ था। उसके हाथ में एक जादुई छड़ी थी और उसके सिर पर एक हैट था। उस हैट से तरह-तरह की वस्तुएँ बाहर आने का सिलसिला रुकता ही नहीं था। एक बार उसने हैट में अपना हाथ डाला और एक खरगोश को कानों से पकड़कर बाहर खींच लिया। इससे पहले कि खरगोश अपने कानों को सहलाता, एक के बाद एक कबूतर बाहर आने लगे—एक, दो, तीन, चार। वे स्टेज के चारों ओर फड़फड़ाने लगे। इस बीच शेफालो ने अपने हैट से ढेर सारी चॉकलेट निकालकर दर्शकों की तरफ फैलाना शुरू कर दिया।

सुरपति ने एक और चीज देखी। शेफालो अपना खेल दिखाते समय बराबर बोलता रहा, एक क्षण के लिए भी रुका नहीं। बाद में सुरपति को पता चला कि इसे जादूगर की बड़बड़ाहट कहते हैं। दर्शक उसके निरंतर शब्द प्रवाह से बँधे रहते हैं, और जादूगर चुपचाप अपनी कलाकारी का प्रदर्शन करता रहता है, हाथ की सफाई, थोड़ा छल-कपट।

लेकिन मैडम पलर्मो अलग थी। वह एक शब्द भी नहीं बोली। फिर, कैसे वह हर एक को ठग सकी? सुरपति को इसका जवाब बाद में मिला। स्टेज पर कुछ करतब ऐसे भी दिखाए जा सकते हैं, जहाँ जादूगर के हाथों को कुछ भी करने की खास जरूरत नहीं होती है। सब-कुछ यंत्र चालित उपकरण के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है, जिसे चलाने वाले परदे के पीछे रहते हैं। किसी आदमी को धुएँ में गायब होते दिखाना या किसी लड़की को दो हिस्सों में काटना, दोनों इसी प्रकार की चालाकियाँ हैं, जो पूरी तरह उपकरण के प्रयोग पर निर्भर करती हैं। बहुत पैसे वाला कोई भी व्यक्ति उस उपकरण को खरीद सकता है अैर स्टेज पर खेल दिखा सकता है, लेकिन निस्संदेह प्रस्तुत करने की कला आना भी बहुत जरूरी है। कला की पूर्ण प्रस्तुति में व्यक्ति की सहज प्रवृत्ति एवं उचित आंतरिक प्रेरणा, मोहित करने की कला का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। यह कर सकना हर किसी के वश की बात नहीं है। हर कोई नहीं...

सुरपति चौंक कर अपने दिवास्वप्न से बाहर आ गया। गाड़ी ने झटके दे-देकर अभी स्टेशन से निकलना शुरू ही किया था कि एक आदमी ने बाहर से उसके डिब्बे का दरवाजा खोला और अंदर चढ़ आया। सुरपति ने जैसे ही यह कहकर विरोध करना चाहा कि ये सीटें आरक्षित हैं, उसी व्यक्ति के चेहरे पर नजर पड़ते ही वह हैरान रह गया। शुक्रिया ईश्वर का—यह तो त्रिपुर बाबू निकले।

त्रिपुरचरन मलिक!

विगत में भी कई दृष्टांत हो चुके हैं, जब सुरपति को इसी का अनुभव हुआ। किसी व्यक्ति के बारे में सोचते ही उसके साक्षात् हो जाने की घटना सुरपति के साथ पहले ही घट चुकी थी। लेकिन त्रिपुर बाबू को इस प्रकार अपने डिब्बे में पाने जैसी घटना के आगे पिछली सभी घटनाएँ फीकी पड़ गईं।

सुरपति अवाक् बना रहा। त्रिपुर बाबू ने अपनी धोती के छोर से अपना माथा पोंछा, साथ में लाई पोटली को उन्होंने सामनेवाली सीट पर रखा और बैठ गए। फिर उन्होंने सुरपति को देखा और हँसे, ‘आश्चर्य, क्या तुम...नहीं हो?’
सुरपति ने मुश्किल से कंठ निगला। ‘मैं...हाँ, मैं चकित हूँ। असल में, मुझे पक्का पता नहीं था कि आप अभी तक जीवित हैं।’
‘वास्तव में?’

‘हाँ। कॉलेज समाप्त होने के बाद ही मैं आपके बोर्डिंग हाउस गया था। आपके कमरे पर ताला लगा हुआ था। मैनेजर ने मुझे बताया कि आप एक कार के नीचे आ गए थे...।’

त्रिपुर बाबू हँसे। ‘वह बल्कि ज्यादा अच्छा होता। मैं कम-से-कम अपनी सारी चिंताओं एवं परेशानियों से तो मुक्त हो जाता।’
‘इसके अलावा,’ सुरपति ने कहा, ‘कुछ देर पहले तक मैं आपके विषय में ही सोच रहा था।’

‘अरे हाँ!’ त्रिपुर बाबू के चेहरे के ऊपर से एक छाया गुजर गई। ‘क्या तुम वास्तव में मेरे बारे में सोच रहे थे? तुम्हारा मतलब है, तुम अभी भी मुझे याद करते हो? आश्चर्य की बात है।’
सुरपति ने लज्जा से अपना होंठ काट लिया।

‘ऐसा मत कहिए, त्रिपुर बाबू! मैं आपको कैसे भूल सकता हूँ? क्या आप मेरे पहले गुरु नहीं थे? मैं उन दिनों को याद कर रहा था, जब हम साथ थे। मैं पहली बार बंगाल के बाहर अपना खेल दिखाने जा रहा हूँ, अब मैं एक पेशेवर जादूगर हूँ—क्या आपको पता था?’

त्रिपुर बाबू ने सहमति में सिर हिलाया। ‘हाँ, मुझे तुम्हारे बारे में सब मालूम है। इसीलिए मैं आज तुमसे मिलने आया हूँ। देखो, मैं पिछले बारह वर्ष से तुम्हारे कैरियर को करीब से देखता आ रहा हूँ। जब ‘न्यू एंपायर’ में तुम्हारा शो था, मैं पहले दिन ही वहाँ गया था और अंतिम पंक्ति में बैठा था। मैंने सबको तालियाँ बजाते देखा। हाँ, मुझे तुम पर गर्व महसूस हुआ। लेकिन...’

बोलते-बोलते वह रुक गए। सुरपति समझ नहीं पाया कि क्या कहा जाए। वैसे भी कहने के लिए कुछ खास था नहीं था। अगर महसूस कर रहे थे कि उन्हें ठेस लगी है और उपेक्षित छोड़ दिया गया है तो इसमें त्रिपुर बाबू का कोई दोष नहीं। बहरहाल, अगर उन्होंने शुरू में ही सुरपति की मदद नहीं की होती तो सुरपति उस जगह कभी न पहुँच पाता, जहाँ वह आज है। लेकिन उसने बदले में त्रिपुर बाबू के वास्ते क्या किया? कुछ भी नहीं। उलटे यह जरूर हुआ कि त्रिपुर बाबू और उनके आरंभिक दिनों की याद उसके मन में बहुत धुँधली पड़ गई थी। इसी प्रकार, कृतज्ञता की भावना भी मिट चली थी।

त्रिपुर बाबू फिर बोलने लगे, ‘हाँ, मैंने उस दिन तुम्हारे बारे में गर्व का अनुभव किया, यह देखकर कि तुमने कितनी सफलता हासिल कर ली है। लेकिन मुझे थोड़ा खेद भी हुआ। जानते हो ‘क्यों? इसलिए’ क्योंकि तुमने जो रास्ता चुना है, वह एक सच्चे जादूगर के लिए सही रास्ता नहीं है। उन जुगतों के प्रयोग से तुम दर्शकों का मनोरंजन कर सकते हो और उन्हें बहुत हद तक प्रभावित करने में भी सफल हो सकते हो; लेकिन कोई भी सफलता तुम्हारी अपनी नहीं होगी। क्या तुम्हें याद है, मैं किस प्रकार का जादू दिखाया करता था?’

सुरपति भूला नहीं था। उसे यह भी याद था कि त्रिपुर बाबू उस समय बहुत हिचकिचाहट में थे, जब उन्हें अपनी सबसे बढि़या बाजीगरी या हाथ की सफाई उसे सीखनी थी। ‘तुम्हें अभी थोड़ा और समय चाहिए,’ वह कहते। लेकिन सही समय कभी नहीं आया। उसके कुछ समय बाद ही शेफालो का आगमन हुआ और दो माह बाद त्रिपुर बाबू स्वयं लुप्त हो गए।

सुरपति को आश्चर्य के साथ-साथ बहुत निराशा भी हुई, जब त्रिपुर बाबू वहाँ नहीं मिले, जहाँ वह रहते थे। लेकिन ये भावनाएँ अधिक समय तक नहीं रहीं। उसके मन में शेफालो भरा हुआ था और अपने भविष्य के सपने थे—कि वह हर जगह की यात्रा करेगा, हर जगह अपना खेल दिखाएगा। उसके नाम से लोग उसे पहचानेंगे और वह जहाँ भी जाएगा, तालियों से उसका स्वागत होगा और प्रशंसा प्राप्त होगी।

त्रिपुर बाबू विचारमग्न थे और खिड़की के बाहर ताक रहे थे। सुरपति ने उन्हें थोड़ा और निकट से देखा। देखकर लगता था कि उन्हें कठिन समय से गुजरना पड़ा है। उनके सारे बाल सफेद हो गए थे उनकी खाल धँस गई थी और उनकी आँखें गड्ढों में चली गई थीं। लेकिन, क्या उनकी आँखों की दृष्टि जरा भी मंद हुई थी? नहीं। उनकी दृष्टि आश्चर्यजनक रूप से आज भी उतनी ही पैनी थी।
उन्होंने आह भरी।

‘सचमुच, मैं जानता हूँ, तुमने यह रास्ता क्यों चुना? मैं जानता हूँ, तुम मानते हो—और इसके लिए शायद मैं भी अंशतः उत्तरदायी हूँ कि सादगी को प्रायः यथायोग्य सम्मान नहीं मिलता है। स्टेज पर खेल-तमाशा दिखाने के लिए तड़क-भड़क और कुछ छल की आवश्यकता होती है। होती है न?’

सुरपति असहमत नहीं हुआ। शेफालो के हुनर का वह कायल हो गया था। सच में, थोड़ी-बहुत चकाचौंध से कोई नुकसान नहीं होता। आज स्थितियाँ बदल गई हैं। शादी-विवाह में साधारण खेल-तमाशा दिखाकर कोई कितना हासिल कर सकता है? बिना किसी काट-छाँटवाली विशुद्ध जादूगरी के प्रति सुरपति के मन में अगाध सम्मान था। लेकिन उस प्रकार के जादू का कोई भविष्य नहीं था। सुरपति यह समझता था और इसी कारण उसने एक अलग रास्ते पर चलने का फैसला किया था।

उसने त्रिपुर बाबू को यह सब कह डाला और त्रिपुर बाबू अचानक उत्तेजित हो गए। बेंच पर पालथी मारकर बैठे-बैठे वह उसी आक्रोश में थोड़ा आगे की ओर झुक आए—‘सुनो, सुरपति!’ उन्होने कहा, ‘अगर तुम्हें पता होता कि असल जादू क्या होता है तो तुम नकली जादू के पीछे नहीं भागते। जादू सिर्फ हाथ की सफाई नहीं है, हालाँकि उसे सीखने लिए भी सालों अभ्यास करना पड़ता है। उसके आगे भी बहुत कुछ है। सम्मोहन! जरा सोचो इसके बारे में। तुम एक व्यक्ति को पूरी तरह वश में कर सकते हो—सिर्फ उस पर अपनी दृष्टि गड़ाकर। फिर अतींद्रिय दृष्टि है, दूरानुभूति (टेलीपैथी) है और पर-विचार ज्ञान है। अगर तुम चाहो तो किसी दूसरे के विचारों में प्रवेश कर सकते हो। व्यक्ति की नाड़ी स्पर्श करके ही तुम बता सकते हो कि वह क्या सोच रहा है। अगर तुम इस कला को पूरी तरह आत्मसात् कर लो तो तुम्हें व्यक्ति को छूने की भी जरूरत नहीं होगी। तुम्हें केवल एक मिनट उस व्यक्ति को घूरकर देखना होगा और तुम उसके विचारों को जान सकोगे। यह सबसे बड़ा जादू है। उपकरण और जुगत की इसमें कोई जगह नहीं है। इसमें सिर्फ समर्पण, अध्यवसाय और गहन एकाग्रता चाहिए।’

त्रिपुर बाबू साँस भरने के लिए रुके। फिर वह सुरपति के और निकट खिसक आए और कहने लगे, ‘मैं तुमको यह सब सीखाना चाहता था। तुम प्रतीक्षा नहीं कर सके। विदेश से आए एक छली ने तुम्हारा दिमाग पलट दिया। तुमने सही रास्ता त्याग दिया और भटक गए आडंबर की दुनिया में जल्दी पैसा कमाने के उद्देश्य से।’
सुरपति खामोश रहा। वह किसी भी बात से इनकार नहीं कर सका।

त्रिपुर बाबू कुछ नरम पड़ गए। उन्होंने सुरपति के कंधे पर हाथ रखा और नरमी के साथ आगे बोलने लगे, ‘आज मैं सिर्फ एक अनुरोध करने आया हूँ। अब तक तुम्हें अंदाजा हो गया होगा कि मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। मुझे अनेक करतब आते हैं, लेकिन पैसा कमाने की चालबाजी मैंने अभी तक नहीं सीखी है। मैं जानता हूँ, मुझमें महत्त्वाकांक्षा की कमी है, वही एकमात्र कारण है। आज मैं घोर निराशा में डूबा हुआ हूँ, सुरपति। मुझमें अब इतनी सामर्थ्य एवं शक्ति नहीं है कि अपने जीवन-निर्वाह के लिए फिर से कोशिश कर सकूँ। मुझे बस, इतना भरोसा है कि तुम मेरी मदद करोगे, भले ही इसके लिए तुम्हें कोई त्याग क्यों न करना पड़े। मेरे वास्ते यह कर दो सुरपति, और मैं वादा करता हूँ कि फिर कभी मैं तुमको परेशान नहीं करूँगा।’
सुरपति उलझन में पड़ गया। वह किस प्रकार की मदद चाहते हैं?

त्रिपुर बाबू आगे बोले, ‘मैं अब आगे जो कहने जा रहा हूँ, तुमको धृष्टता लग सकती है। लेकिन कोई दूसरा उपाय नहीं है। देखो, यह मेरे लिए सिर्फ धन चाहने की बात नहीं है। इस वृद्धावस्था में मेरी एक विलक्षण इच्छा है। मैं स्टेज पर, दर्शकों की एक बड़ी भीड़ के सामने अपना खेल दिखाना चाहता हूँ। मैं उनको अपनी सबसे श्रेष्ठ बाजीगरी, जो मैं जानता हूँ, दिखाना चाहता हूँ। यह पहला और अंतिम अवसर हो सकता है, लेकिन मैं इस चाह को अपने मन से निकाल नहीं सकता।’

एक ठंडे हाथ ने सुरपति के दिल को जकड़ लिया। त्रिपुर बाबू अंततः मुद्दे पर आ गए—‘तुम लखनऊ में शो करने जा रहे हो। जा रहे हो न? मान लो कि तुम अंतिम क्षण में बीमार हो जाते हो? निस्संदेह, तुम अपने दर्शकों को निराश नहीं करना चाहोगे। मान लो, कोई दूसरा व्यक्ति तुम्हारा स्थान ले लेता है...’

सुरपति पूरी तरह हक्का-बक्का रह गया। वह कहना क्या चाहते हैं। वह असल में बहुत निराश होंगे, अन्यथा ऐसा अजीब प्रस्ताव लेकर वह कभी नहीं आते।

सुरपति पर अपनी दृष्टि गड़ाए हुए त्रिपुर बाबू ने कहा, ‘तुम्हें सिर्फ यह कहना होगा कि किसी अपरिहार्य कारण से तुम अपना खेल नहीं दिखा सकते; लेकिन यह कि तुम्हारी जगह तुम्हारे गुरु आ रहे हैं अपना करतब दिखाने। क्या लोगों को इस बात से अफसोस होगा और उनका दिल टूट जाएगा? मैं ऐसा नहीं मानता। मैं सोचता हूँ, उन्हें मेरा प्रदर्शन पसंद आएगा। इसके बावजूद तुम पहली शाम की कमाई में से आधा अपने पास रख सकते हो। बाकी रकम से मेरा काम चल जाएगा। उसके पश्चात् तुम अपने रास्ते जा सकते हो। मैं तुमको दुबारा कभी तंग नहीं करूँगा। लेकिन यह एक मौका तो तुमको मुझे देना ही होगा, सुरपति—केवल एक बार।’

‘असंभव!’ सुरपति को गुस्सा आ गया’ ‘आप जो कह रहे हैं वह एकदम नामुमकिन है। आपको पता नहीं, आप क्या कह रहे हैं। मैं बंगाल के बाहर पहली बार अपनी बाजीगरी का प्रदर्शन करने जा रहा हूँ। क्या आप समझ नहीं सकते कि लखनऊ में मेरा यह शो मेरे लिए क्या अर्थ रखता है? क्या आप वास्तव में चाहते हैं कि मैं अपने नए पेशे की शुरुआत एक झूठ से करूँ? आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं?’

त्रिपुर बाबू ने उस पर एक ठंडी व सपाट दृष्टि डाली। फिर उनकी आवाज सारे शोर व गुल से ऊपर उठ गई। लगता था जैसे डिब्बे को चीर डालेगी—‘क्या तुम अभी भी सिक्के और अँगूठी के उस पुराने दाँव में रुचि रखते हो?’
सुरपति चौंक गया। लेकिन त्रिपुर बाबू की आँखों का भाव नहीं बदला।
‘क्यों?’ सुरपति ने पूछा।
त्रिपुर बाबू बुजदिली से हँसे, ‘अगर तुम मेरा सुझाव मानोगे तो मैं तुम्हें वो हुनर सिखा दूँगा। अगर तुम नहीं...’

उस क्षण उनकी आवाज हावड़ा जा रही ट्रेन की सीटी की तेज आवाज में डूब गई। गुजरती हुई ट्रेन की तेज रोशनी ने उनकी आँखों में विचित्र चमक को पकड़ लिया।
‘और अगर मैं न मानूँ?’ सुरपति ने नम्रता से पूछा, जब शोर जा चुका था।

‘तुम पछताओगे। यह कुछ ऐसी बात है, जो तुम्हें पता होनी चाहिए। अगर मैं दर्शकों के बीच बैठा होऊँ तो मैं अपनी शक्ति से एक जादूगर किसी भी जादूगर को बड़ी परेशानी में डाल सकता हूँ। यहाँ तक कि मैं उसे पूरी तरह असहाय बना सकता हूँ।’

त्रिपुर बाबू ने अपनी जेब से ताश के पत्तों का एक बंडल निकाला। ‘देखते हैं, तुम कितने होशियार हो। क्या तुम इस गुलाम को पीछे से ले सकते हो और आगे लाकर इसे चिड़ी की इस तिक्की के ऊपर रख सकते हो, अपने हाथ की सिर्फ एक हरकत से?’

सुरपति ने पहले-पहले जो करामात सीखी थीं, उनमें से एक यह करामात भी थी। सोलह वर्ष की आयु में उसने यह हुनर केवल सात दिनों में पूरी तरह सीख लिया था।
और आज?

सुरपति ने ताश का पैकेट लिया और उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे उँगलियाँ सुन्न होने लगी हैं। फिर उसकी कलाई, उसकी कुहनी सुन्न पड़ गई और अंततः पूरी बाँह को जैसे लकवा मार गया। सुरपति ने हैरानी में त्रिपुर बाबू की ओर देखा। उन्होंने एक विचित्र-सी मुसकान के साथ मुँह टेढ़ा किया हुआ था और उनकी आँखें सीधे सुरपति की आँखों में घूर रही थीं। उनकी आँखों में अमानवीय दृष्टि थी। सुरपति के माथे पर पसीने की छोटी-छोटी बूँदें निकल आईं। उसका सारा बदन काँपने लगा।
‘क्या अब मेरी शक्ति में तुम विश्वास करते हो?’

ताश के पत्तों की ढेरी सुरपति के हाथों से छूट गई। त्रिपुर बाबू ने उसे बड़ी सफाई से उठा लिया और कहा, ‘क्या अब तुम मेरे सुझाव को मानने के लिए तैयार हो?’
सुरपति को अब कुछ बेहतर लगने लगा। ‘क्या आप वास्तव में मुझे वह पुरानी करामात सिखाएँगे?’ सुरपति ने थकावट महसूस करते हुए पूछा।

त्रिपुर बाबू ने एक उँगली उठाई, ‘तुम्हारा गुरु त्रिपुरचरन मलिक लखनऊ में तुम्हारी जगह खेल का प्रदर्शन करेगा; क्योंकि तुम अचानक बीमार हो जाते हो। क्या यह ठीक है?’
‘हाँ।’
‘उस शाम की आधी कमाई तुम मुझे दोगे। ठीक?’
‘ठीक।’
‘तो फिर, ठीक...’

सुरपति ने अपनी जेब से पचास पैसे का एक सिक्का निकाला और अपनी मूँगे की अँगूठी उतारी। एक शब्द भी बोले बिना उसने दोनों चीजें त्रिपुर बाबू को सौंप दीं।

जब ट्रेन बर्दवान स्टेशन पर रुकी, अनिल चाय का प्याला लिये आ गया और उसने अपने बॉस को गहरी निद्रा में पाया।
‘सर!’ अनिल ने कुछ पल के संकोच के बाद कहा।
सुरपति तुरंत जाग गया।
‘कौन...क्या है यह?’
‘आपकी चाय सर। सॉरी, मैंने आपको परेशान किया।’
‘लेकिन...?’ सुरपति ने बेताबी से चारों तरफ नजर घुमाई।
‘बात क्या है?’
‘त्रिपुर बाबू... वह कहाँ हैं?’
‘त्रिपुर बाबू!’ अनिल उलझन में पड़ गया।
‘अरे नहीं, नहीं। वह तो गाड़ी के नीचे आ गए थे, क्या उन्हें गाड़ी मार कर नहीं चली गई? बहुत पहले—१९५१ में। लेकिन मेरी अँगूठी कहाँ है?’
‘कौन सी अँगूठी, सर? मूँगेवाली अँगूठी तो आपकी उँगली पर है।’
‘हाँ, हाँ, सचमुच। और...’
सुरपति ने अपनी जेब में हाथ डाला और एक सिक्का निकाला। अनिल ने गौर किया कि उसके मालिक के हाथ काँप रहे हैं।
‘अनिल’, सुरपति ने पुकारा, ‘जल्दी आओ। खिड़कियाँ बंद कर दो, ओके। अब यह देखो।’

सुरपति ने अँगूठी को बेंच के एक सिरे पर रखा और सिक्के को दूसरे सिरे पर। ‘ईश्वर मेरी मदद करो!’ उसने मौन प्रार्थना की और एक गहरी सम्मोहक दृष्टि पूर्णतया सिक्के पर टिकाए रखी, ठीक उसी तरह जैसा कुछ क्षण पहले उसे सिखाया गया था। सिक्का अँगूठी की तरफ लुढ़कने लगा और फिर दोनों—सिक्का एवं अँगूठी दो आज्ञाकारी बच्चों की तरह लुढ़कते हुए सुरपति के पास लौट आए।

अनिल के हाथ से प्याला छूटकर फर्श पर गिर गया होता, अगर सुरपति ने अंतिम क्षण में चमत्कारिक रूप से अपना हाथ बढ़ाकर उसे बीच में ही न लपक लिया होता।
सुरपति ने लखनऊ में अपना शो अपने स्वर्गीय गुरु त्रिपुरचरन मलिक को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आरंभ किया।

उस शाम सुरपति ने जो अंतिम खेल प्रस्तुत किया, उसका परिचय असली भारतीय जादू के रूप में दिया गया। वही, सिक्का और अँगूठी का खेल।

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