दो जातियाँ (तमिल कहानी) : ता.ना. कुमारस्वामी
Do Jaatiyan (Tamil Story) : Ta. Na. Kumaraswamy
धन कमाने की इच्छा से एक खूबसूरत, चाँदी जैसे चमकदार बालोंवाला नौजवान घोड़े पर सवार हो पहुँचा। वह किसी धर्म का प्रचार, या जाति-मत का प्रचार करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि धन कमाने की लालसा लिये आया था। उसने मछुवारों के इस इलाके के कुछ तेलुगू मछुवारों की सहायता से कुंबीनियार नामक स्थान खरीद लिया और वहीं बस गया। बाद में उसी रथान को 'सेंट जॉन' नाम के किले में रूपायित कर दिया गया। यह किला जिस अंग्रेजी नौजवान की बदौलत निर्मित हुई, उसका नाम था जॉब चार्नाक। अपने धर्म के अनुसार वे किले के समीप ही बस गए। बाद में सेंट मेरीज 'कैथीड्रल' का भी निर्माण किया। आज भी इस गिरिजाघर के प्रत्येक प्राणी के श्रीमुख से इस निर्माण की कथा का विवरण सुना जा सकता है।
यह वही स्थल है, जहाँ वर्षों पहले लॉर्ड क्लाइव की बंदूक से हत्या भी की गई थी। चार्वाक ने उन्हीं की स्मृति में यह इमारत खड़ी की थी। इसका प्रमाण पल्लावरम् की एक शिला पर खुदा हुआ आज भी देखा जा सकता है। कुछ इन्हीं कारणों से इस शिला का नाम भी 'चार्नाक शिला' रख दिया गया है। इसी शिला से जुड़ी एक अद्भुत प्रेम कहानी है ये। जो विदेशी नौजवान सात समुंदर पार करके आया था, झील के किनारे खड़ी लड़कियों के झुंड की एक खूबसूरत लड़की की नशीली आँखों के इंद्रजाल में फँस उसे एकटक देखता रह गया। उस लड़की ने भी जल से ही उस नौजवान से नजर मिलाई। दक्षिण दिशा की इस झील के किनारे ऐसी खूबसूरत लड़कियों का निवास देख उस नौजवान को आश्चर्य हो रहा था। क्या कभी उस लड़की ने कल्पना की थी कि उसकी आँखें उस नौजवान से चार होंगी और वो उसका मन मोह लेगा, न मालूम बेचारे ने कितने समुंदर पार किए होंगे! तूफान, आँधियों का सामना किया होगा। नौजवान को देखते ही सारी लड़कियाँ भाग गई, पर उस लड़की को लगा, जैसे वह नौजवान उसकी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए ही आया था। उसकी आँखें ऐसी लग रही थीं, जैसे नीले आकाश के सारे रंग उसमें समा गए हों और बालों में गोधूली की लालिमा खेल रही हो। बदन खुले सफेद पुष्प के समान जगमगा रहा था।
यह प्रेम कहानी मिथ्या नहीं है बल्कि निश्छल प्रेम की अमर गाथा है, जो एक अंग्रेज और भारतीय नारी के बीच हुई और जिन्होंने अपने प्रेम की ज्योति सदा के लिए प्रज्वलित कर दी। पल्लावरम् के समीप स्थित इस झील के किनारे ही वह पुण्य स्थल है, जहाँ इन दो प्रेमियों ने प्रेम किया। उसी दिन से उस पत्थर की शिला पर उस अंग्रेज का नाम भी खुद गया और वह अमर हो गया। उस गाँव के नाम से तो मैं अनभिज्ञ हूँ, पर हाँ उस भारतीय नारी का नाम 'लीलावती' था। वह अपनी माँ की इकलौती बेटी थी। पिताहीन। कई खेतों की मालकिन। उम्र सिर्फ बारह साल! उन दिनों सयानी होने के पूर्व ही लड़कियों की शादी कर दी जाती थी और वे चौदह-पंद्रह साल में एक बच्चे की माँ भी बन जाती थीं। पर यहाँ विशेषता यह थी कि लीलावती की अभी शादी नहीं हुई थी, क्योंकि उनकी जाति में लड़कों की कमी थी, ऊपर से माँ की इकलौती बेटी, इच्छानुसार खेलती-कूदती और मस्ती में रहती। गाँव भर में चर्चा थी कि उसके इस चंचल स्वभाव के कारण अन्य लड़कियाँ भी बिगड़ गई हैं। साँझ होते ही झील के किनारे से अन्य कुंवारी लड़कियों के साथ वापस घर की ओर जातीं। दिन बीतते गए, पर उसकी शरारतों में कमी न आई। दिल से नादान और बुद्धि से बच्ची। ऐसे ही एक दिन झील में खड़ी कमल के फूल के साथ खेल रही थी कि अचानक उसकी अपनी सहेलियों को शोर मचाते हुए बिजली के वेग से भागते पाया तो उसका ध्यान किनारे की ओर गया। "लीला, भाग आओ, अंग्रेज आ रहे हैं, पकड़ लेंगे हमें, डर लग रहा है, हम लोग सब जा रहे हैं।' कहते हुए उसकी सहेलियाँ गीले कपड़े पहने ही भाग खड़ी हुई।
धैर्यशील लीला ने सोचा, "देखते हैं क्या होता है, अंग्रेज क्या राक्षस हैं, जो हमें खा जाएँगे, पास आने दो, देखने दो मुझे ध्यान से।' पैरों से कमल-पुष्पों को धकेलती हुई, पानी की गहराई की ओर चल पड़ी लीला। और पानी के बीचोबीच खड़ी लीला ने घूमकर किनारे की ओर देखा, तो वह अंग्रेज नौजवान लगभग छह फीट का था, घोड़े से उतरकर झील की सीढ़ियों की ओर बढ़ा, उसने देखा, लीला भी उसे देख रही है। आज तक जो लीला किसी भी पुरुष से नहीं घबराई, यहाँ तक कि गाँव का लोफर रंगन भी उसके सामने हाथ मलता रह जाता था, वही लीला इस अंग्रेज नौजवान को देखकर घबरा गई, पता नहीं, कैसी बिजली गिरी उसके बदन में और लाज से उसकी आँखें झुक गई, शायद आज पहली बार उसे अपने स्त्री होने का आभास हुआ था। पल्लावरम् की इसी झील के किनारे उस अंग्रेज नौजवान जॉब चार्नाक ने उस कन्या का मन मोह लिया था। यहीं से प्यार का सिलसिला शुरू हो गया। चार्नाक के आने का समय लीला जानती थी और हर दिन अनायास ही उसके पैर निश्चित समय पर, उस दिशा की ओर चल पड़ते थे। आँखों में आँखें डाले, बिना समझे दोनों हँसते थे और पता नहीं वह अंग्रेजी में क्या बड़बड़ाता था और लीला पैरों के नाखून से रेत में तसवीर उतारती रहती थी। फिर झुककर आज्ञा लेता हुआ चार्नाक चला जाता था। उनका प्यार का खेल यहीं समाप्त हो जाता। आँखों से ओझल होने तक लीला चार्नाक का घोड़ा देखती रहती, जब होश सँभालती तो साँझ ढल चुकी होती, तब वह धीरे-धीरे खोई-खोई घर की ओर चल पड़ती। हर रोज प्रेम का यही सिलसिला जारी रहता।
अचानक एक दिन लीला को निश्चित समय पर उस झील के किनारे न पाकर चार्नाक तड़प उठा। उसके नाम से भी अनभिज्ञ आखिर वह पता भी किससे पूछे! नया देश, नई रीति, सभी उसके लिए विचित्र और अनोखा था। इस अपरिचित नगर में केवल लीला का हृदय ही तो वह पहचान सका, जो असाधारण एवं औरों से अलग थी। जिसने उसे पहचाना। आज अकेला छोड़ उस प्रेमिका ने उसे तड़पाया, वह तड़प उठा। दिन ढलने लगा, पर वह नहीं आई।
चार–पाँच दिन गुजर गए, पर लीला नहीं आई। चार्नाक का मन भारी हो उठा। वह अपने काम में भी खोया-खोया सा रहने लगा। प्रेमिका को देखने की जब चाह बढ़ गई, झील के किनारे हर रोज नए किस्म के फूल, गेंदा, चमेली, गुलाब, चंपा, वगैरह का गुलदस्ता बनाकर ले जाता। उसे पसंद आएगा या नहीं, यह भी उसे नहीं मालूम। कभी सोचता कि इन पुष्पों को देख वह उससे प्रेम भी करना बंद न कर दे। ऐसे न जाने कितने भ्रम और संदेह मन में पाले रहा।
कभी किसी की मेहनत व्यर्थ नहीं जाती। आज इतने दिनों बाद 'श्री मेयीलै' मंदिर के उत्सव समारोह के अवसर पर चूड़ियों की एक दुकान से चूड़ियाँ खरीदते हुए चार्नाक ने लीला को देख ही लिया। आज चार्नाक अकेला न था, उसके साथ उसका दोस्त, जो टॉन्सेंट भी था। लीला नई साड़ी पहने एक और महिला के साथ मेला देखने आई थी। पेड़ की छाँव में खड़े चार्नाक ने उसे देखा, उत्साह के साथ लीला की ओर इशारा करके अपने दोस्त से कहने लगा, "वो रही मेरी प्रेमिका।"
"क्या बक रहे हो, वो तो भारतीय नारी है।" उसके दोस्त ने कहा। "नहीं वो है, मेरी प्रेमिका। देखो! देखो! वो भी हमें देख संकोच कर रही है।" चार्नाक ने प्रसन्न होकर दोस्त से कहा। "सावधान! सोचो, इस देश में आने का लक्ष्य क्या है। आँखें बंद करके कुछ कर दिया तो समझो सब बिगड़ गया। इन विषयों पर हम लोगों का दखल देना उचित नहीं। कहीं बाद में पश्चात्ताप न करना पड़े।" टॉन्सेंट ने सावधानी बरतने को कहा।
"नहीं जो, वो भी हमें चाहती है।" चार्नाक ने उत्तर दिया।
"क्यों बकवास कर रहे हो, जॉब।" हम लोगों के रंग से ही वे लोग दूर भागते हैं, प्यार क्या करेंगे?" जो ने कहा।
"देश से क्या फर्क पड़ता है। प्रेम की अनुभूति तो सब में एक जैसी ही होती है। आखिर हृदय तो इनसान का ही है। प्यार में जाति-पाँति, रंग-मेद, भाषा—मत से क्या ताल्लुक। दो हृदयों का सच्चा प्रेम कोई नहीं हिला सकता। स्वयं ईसा इस प्रेम के साक्षी हैं।" चार्नाक ने कहा।
"बहुत हो चुका दोस्त। तुम उसे नहीं पा सकते। भला बताओ, वो तुम्हें देखकर भी क्यों नहीं आई। देखो, वो जा रही है। हो सकता है कि उसकी शादी हो गई हो। अब उसके बारे में सोचना भी पाप है। ईसा धर्म के अनुसार, परस्त्री को आँखें उठाकर देखना भी पाप है।" टॉन्सेंट ने कहा।
चार्नाक की इच्छा—विश्वास सब बिखर गए। दूर क्षितिज को जैसे हम छू नहीं सकते, वैसे ही उसके पास जाते ही दूर होती नजर आने लगी। बुलाने पर भी कोई उत्तर नहीं। लीला ने भी चार्नाक को देखा था, पर जब उसकी माँग भर चुकी थी, तब वो अपने प्रियतम की ओर भी आँख उठाकर देखने में मजबूर थी। भय के कारण ही उसने चार्नाक को अपने ध्यान से निकाल दिया। जिस प्रकार समुद्र की एक लहर वेग के साथ किनारे से टकराकर वापस उसी में समा जाती है, आज उसी प्रकार लीला का दिया प्यार भी उसी के पास वापस लौट आया। वह अपने प्रेमी को बीच भँवर में छोड़ चली, पर उस प्रेम की अनुभूति देनेवाले प्रेमी को भुला न सकी। उसके हृदय में आज भी उसके सिवाय और किसी का स्थान नहीं है।
लीला की शादी योग्य वर के न मिलने के कारण एक बूढ़े के साथ हुई थी। अपनी युवा बीवी में न तो उस बूढ़े की दिलचस्पी थी और न प्रेम करने की शक्ति। धर्मपत्नी की आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही शादी का ढोंग रचाया गया था। उसे घर पर छोड़कर वह तीर्थयात्रा के लिए गया था। उसकी इच्छी थी कि उसका अंतिम सस्कार गंगा के पवित्र किनारे पर किया जाए। यही इच्छा लिये व काशी की ओर निकल गया था। ऐसी अवस्था में यौवन से भरपूर आशाएँ सँजोए लीला के मन में भला पति के प्रति कैसे प्यार उपजता।
उत्सव से लौटकर लीला अपने भाग्य को कोसने लगी। जिस शयनकक्ष में कभी अपने पति के साथ न सो सकी, उस कक्ष के आईने के सामने खड़ी अपने यौवन को देख शाप देती रही। अचानक उसे लगा कि कमरे के दरवाजे पर उसका प्रेमी उसके सौंदर्य को देख खड़ा आनंद लेता हुआ इंतजार कर रहा है, मुड़कर देखा तो निराशा हुई।
कंपनी के काम में फाइलों को देखते समय चार्नाक के सामने लीला की तसवीर प्रायः घूम जाती। वह तड़प उठता। हृदय की इस चोट को भुलाने के ध्येय से एक दिन वह पश्चिम की ओर चल पड़ा। आज जिसे कलकत्ता के नाम से जाना जाता है, वहीं शहंशाह औरंगजेब द्वारा दी गई सहायता का लाभ उठाकर उसने विलियम चर्च का निर्माण कराया। चार्नाक को क्या मालूम था कि उसके हाथों निर्मित यह 'चर्च' सौ वर्षों के बाद आनेवाले ब्रिटिश राज्य के लिए बुनियाद का काम करेगा।
पाँच-छह वर्ष यों ही गुजर गए। चार्नाक मद्रास की ओर लौट आया। यहाँ फिर उसके हृदय में पुरानी स्मृति लौट आई। पर उसे अपनी प्रेमिका का पता कैसे मिलता, हर रोज शाम के समय घोड़े पर सवार विविध दिशाओं में घूम-घूमकर स्वच्छ वायु पाने चला जाता था। ऐसे ही एक दिन जब वह 'पूविरुंदू' गाँव से लौट रहा था, तब कुछ दूर लोगों की भीड़ दिखाई दी। जिज्ञासा स्वरूप घोड़े को उसी ओर घुमाया, जिधर से डमरू और ढोल की आवाजें आ रही थीं। वह समझ न सका। सोचा, भारतीयों के कई उत्सवों में से एक यह भी होगा। पर उस बेचारे को क्या मालूम था कि यह अपने मृतक पति के साथ जिंदा जला देनेवाली एक छोटी बालिका की व्यथा-कथा है। वह पुण्य स्त्री आज अपने पति के रथ में सवार होकर पल भर में जल जानेवाली थी। इसी उत्सव को जोर-शोर से मनाया जा रहा था।
इस यात्रा पर जानेवाली उस स्त्री को सोलह शृंगार कर सजाया जा रहा था। सुगंधित फूलों, गहनों और मनपसंद पकवानों से खुश किया जा रहा था। पूरी दुलहन लग रही थी वह। पर वह स्त्री उन सबको कोस रही थी। मरना नहीं चाहती थी। पुण्य मिले या पाप! वह अपने शरीर को जलाकर राख के रूप में उड़ते हुए नहीं देखना चाहती थी। उसके हृदय में सुप्त मीठे सपने, इच्छाएँ, प्यार सभी कुछ तो भस्म होनेवाला था। पुरोहित ने उसे बुलाया।
"मैंने कभी अपने पति को पति नहीं समझा, ऐसे में उसके साथ मरने का अधिकार भी नहीं, सब अर्थहीन है।" लीला ने स्पष्ट रूप से कह दिया। "तो क्या हुआ, उनके साथ सती होना ही तुम्हारे लिए पुण्य है। लोग मंदिर बनाकर तुम्हारी पूजा करेंगे। बेटी, तू चलकर वहाँ लेट जा।" एक सुहागिन स्त्री ने कहा।
"मुझे पवित्र नारी मत कहो। मैंने अपना दिल किसी और को दिया हुआ है। इसलिए में सती नहीं होना चाहती।" लीला ने रोते हुए कहा। "महा पापिन! महापापिन!! लोग पागलों की तरह झपड़ पड़े। "आओ सब मिलकर उसे लिटाते हैं। बजाओ बाजे, ढोल।" मूर्ख लोग उसे खींचने लगे।
तभी सिंह के समान एक गर्जना हुई, सब काँप उठे, "उसे छुआ तो गोली मार दूंगा, राक्षसो।" चार्नाक की इस आवाज से लोग भयभीत हो उठे और वहाँ से भाग गए। लीलावती कुछ न समझ सकी, पास से भीड़ के हटने का आभास हुआ तो चेहरे को, उठाकर भीगे पलकों से ऊपर की ओर देखा। उस श्मशान में उसे कोई भी दिखाई न दिया। चार्नाक ने लीला को घोड़े की पीठ पर बिठाया और किले की ओर चला गया। “आज से यही तुम्हारा घर है।"
चार्नाक ने कहा था। शाम को फूल लेकर हर रोज चार्नाक लीला से मिलने आता और वह उसके प्यार को स्वीकार करती। अन्य अंग्रेजों के संपर्क में रहकर लीला भी अंग्रेजी सीख गई। सब प्रकार की सुख-सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध थीं। पर उसका मन फिर भी बेचैन रहता। एक-न-एक दिन तो चार्नाक को भी छोड़ देनेवाली है। आज मैं उसकी प्रेमिका अवश्य हूँ, किंतु कल वह अपने देश वापस भी तो जा सकता है। तब वह मुझे भूल जाएगा। ऐसे में जीने का क्या प्रयोजन! काश, उसी दिन मर जाती, तो अच्छा होता। इन अंग्रेजों के प्रेम करने का ढंग भी उसे अजीब सा लगा।
दूसरी ओर चार्नाक भी चैन की नींद सो न सका। एक ही विचार बार-बार उठता—'वो कैसे लीला को पा सकता है!' उसे जीवन-संगिनी बनाने के लिए तड़प उठा। पर कोई रास्ता नजर न आया। इसी बीच विलियम फोर्ट में उसे पक्की नौकरी मिल गई, इस कारणवश उसे फिर मद्रास छोड़ कलकत्ते की ओर जाना पड़ा। समय का सद्प्रयोग करते हुए चार्नाक ने सोचा कि लीला को भी साथ ले जाएगा। तो उसका अपना मन भी बदल जाएगा और वह भी पुरानी स्मृतियों को भूल सकती है।
जहाज में बैठकर सफर करने का लीला के लिए पहला मौका था। अपने जन्म स्थल को छोड़ते हुए लीला को दुःख भी हुआ। आँखें भर आई, तब चार्नाक ने उसे तसल्ली दी। कलकत्ता पहुँचने में अभी पाँच-छह दिन थे। रात का समय समुद्र की सतह पर चाँदनी अठखेलियाँ खेल रही थी। ऐसे वक्त चार्नाक अंग्रेजी का एक प्रेम भरा गीत गुनगुना रहा था। तभी दूर एक छाया को खड़े देखा। वह धीरे से उठा और पास आया। तुरत समझ गया, इरादा क्या है। भारी मन से समुद्र में कूद कर जान देने की तैयारी हो रही थी, तभी प्यार भरा हाथ उसे रोकने लगा।
घबराकर वह चीख उठी। चार्नाक ने उसे रोकते कहा, "मैं हूँ लीला, कितने दिनों तक यह खेल चल सकता है, इस जन्म में ही नहीं, मरने के बाद भी, मैं तुम्हारा साथ दूंगा।' चार्नाक ने कहा। उसने वैसा करके भी दिखाया। लीला से शादी की और तीन प्यारी बेटियों को जन्म दिया।
चार्नाक कभी वापस इंग्लैंड नहीं गया। यह अद्भुत प्रेमी मरते दम तक साथ निभाता रहा, कभी जुदा नहीं हुआ। कलकत्ता के 'सेंट जॉर्ज गिरजाघर में ईसा के समीप के स्तंभ पर आज भी इन दोनों का नाम खुदा है। उनकी समाधियाँ मद्रास में पल्लावरम् की उस झील के किनारे देखी जा सकती हैं, जहाँ ये दोनों अकसर मिलते थे। इसलिए इस शिला का नाम 'चार्नाक पत्थर' रखा गया है। इसके बगल के पत्थर पर अंग्रेजी के तेरह सूत्र भी लिखे हैं। वहाँ के पुरोहित से सोलह सौ छियासी से सत्रह सौ छियासी के जन्म-मरण कुंडलियों को पलटकर देखने से चार्नाक लीला और उनकी तीन पुत्रियों के नाम और जीवनगाथा आज भी देखी जा सकती है, आपको इसमें नई कहानी मिलेगी।
चार्नाक कोई था तो लीला कोई और थी। वे न एक देश के थे, न एक जाति के, हाँ, एक काल के अवश्य थे। वास्तव में भगवान् महान् है, जो ऐसे प्रेमियों के मिलन को सफल बनाए रखा। आखिर वे एक ही मनुष्य जाति के जो थे।