दिन की एक पैसेंजर गाड़ी में (कहानी) : दंडपाणी जयकांतन

Din Ki Ek Passenger Gaadi Mein (Tamil Story in Hindi) : Dandapani Jayakanthan

द्वितीय विश्वयुद्ध के दिन थे, युद्ध अभी समाप्त नहीं हुआ था; लेकिन अम्मासी, जो फौज़ में था, गाँव लौट गया। उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे वापस भेजा गया, क्योंकि फौजी अधिकारियों के अनुसार वह अब सेना में लड़ने योग्य नहीं था।

सैनिक व्यवस्था द्वारा रस चूसने के बाद थूक दी गयी ईख की खोई के समान था अम्मासी।

वह जानता था कि घर में उसके इन्तजार में, या उसके साथ खुशी मनाने के लिए कोई नहीं बैठा है। फिर भी गाँव लौटने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं था। जिस गन्दी बस्ती में वह रहता था, घृणा के साथ जिसे ठुकराकर वह सेना में भर्ती हो गया था, आज उसे दलितों की उसी। बस्ती में लौटना पड़ रहा था।

अम्मासी ने युद्ध से शादी कर ली थी। सेना को उसने ससुराल मान रखा था।

उसे दुनिया के कई देशों में अलग-अलग राष्ट्रीयता के लोगों के साथ घूमने-फिरने का अनोखा अवसर मिला था। उस समय का कोई भी व्यक्ति उसकी जाति पहचानकर उसे हट जाने को नहीं कहता था। ऐसी उदारता बरतनेवाले सैनिक जीवन को यदि उसने अपने प्राणों से भी प्यारा मान लिया तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।

संकीर्ण दृष्टि के भारतीय समाज द्वारा पतित घोषित करके हाशिये पर ढकेले गये अपने लोगों की शोचनीय लघुता से ऊबकर वह प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही सेना में भर्ती हो गया था और अठारह साल की आयु में ही समुन्दर पार करके देश-विदेश देखने का सौभाग्य उसे मिल गया था।

कुछ समय बाद युद्ध समाप्त होने पर उसे फिर से वही अभिशप्त जीवन जीने के लिए वापस भेज दिया गया। गाँव लौटकर जब वह अपने विश्व-भ्रमण के अनुभवों को समाज के लोगों के सामने सुनाता तो वे उन्हें रहस्यमय मार्मिक कहानियों की तरह मुँह बाये सुनते और बाद में उसकी पीठ पीछे इन सबको झूठ और मनगढन्त किस्सा मानकर होठ बिचकाते।

इस तरह उनके बीच रहते हुए भी वह उनसे अलग-थलग होकर कटी-कटी सी जिन्दगी जी रहा था। ऐसे में द्वितीय विश्वयुद्ध ने अम्मासी को गाँव से निकलने का एक अवसर और प्रदान कर दिया। चालीस साल की अवस्था में फिर से सैनिक जीवन पाने की खुशी में अपनी गन्दी बस्ती को सलाम करके फौजियों की शान के साथ अम्मासी निकल गया।

लड़ाई के मोर्चे में जब वह मशीनगन को अपने सीने से दबाकर दुश्मन पर गोलियाँ दाग रहा था, उस समय दुश्मनों की जबर्दस्त बमबारी का शिकार हो गया। कुछ महीनों तक फौजी अस्पताल में पड़ा था। उसके बाद डाक्टरों ने उसे सेना के लिए अयोग्य घोषित कर दिया।

वह अब अटेन्शन में तनकर खड़ा नहीं हो सकता था। मशीनगन को दोनों हाथों में सम्हालते हुए गोली दागते वक्त गोली लरजने के साथ जैसे पूरे शरीर और हाथों में एक बार कँपकँपी होती है, अब बन्दूक के बिना सहज खड़े होने पर उसी तरह की कँपकँपी पूरे शरीर में होने लग गयी।

सैनिक वर्दी में शान के साथ गाँव छोड़कर गया अम्मासी आज अकारण हिलते हुए सिर और काँपते हुए हाथ लेकर पस्त होकर लौट रहा था। उसे भलीभाँति मालूम था कि उसकी अगवानी करने के लिए कोई नहीं आएगा। फिर भी वह घर लौट रहा था।

उस छोटे-से गाँव के रेलवे स्टेशन पर सिर्फ पैसेंजर गाड़ियाँ ही रुकती थीं। वह भी केवल दिन की पैसेंजर गाड़ियाँ। कभी-कभी किसी कारण दिन की पैसेंजर गाड़ी के पहुँचने के पहले रात हो जाती, ऐसे अपवाद के मौकों पर रात में भी वहाँ गाड़ियाँ खड़ी हो जातीं।

ऐसे ही एक अपवाद के मौके पर उत्तर से आयी वह पैसेंजर गाड़ी एकमात्र मुसाफ़िर अम्मासी को वहाँ उतारने के बाद रेलवे स्टेशन की बचीखुची रोशनी भी अपने साथ समेटती हुई आगे निकल गयी। अब दुनिया से पूरी तरह कटे एकाकी व्यक्ति की तरह वह अँधेरे में चारों तरफ टुकुर-टुकुर ताकता खड़ा रहा।

फिर कन्धे पर रखे कैनवास बैग के साथ वह अपने ही गाँव की चार-पाँच गलियों में किसी अजनबी की तरह निरुद्देश्य घूमता रहा। फिर गाँव के बाहर आकर एक लम्बे अरसे से उच्च वर्ग द्वारा तिरस्कृत अपने जन्मस्थान दलितों की बस्ती को दूर से देखा। अनमने ही उसके पैर उस तरफ बढ़ते गये। उसे इसका एहसास तब हुआ जब वह बस्ती की सीमा यानी, नहर के पुल तक पहुँच गया था। उसका आगे चलने जाने का मन नहीं हुआ इसलिए वहीं ठिठक गया। बस्ती के अन्दर जाकर किससे मिलना है, क्या बात करनी है, इन विषयों पर विचार करने के लिए वह लकड़ी के उस पुल पर बैग रखकर वहीं बैठ गया।

उसके पाँव-तले नहर का पानी छल-छल करता बह रहा था। कानों में झींगुरों के झंकारने का तीखा स्वर आ रहा था। सड़क के दोनों ओर खड़े पेड़ों की काली परछाइयों पर टिमटिमाते जुगनुओं के झुण्ड नजर आ रहे थे। थोड़ी दूर पर बस्ती से आ रही हल्की रोशनी और झोंपड़ियों से उठ रहा धुआँ भी दिखाई पड़ रहा था। बच्चों का रोदन और किसी बुढ़िया का विलाप भी सुनाई पड़ा।

अम्मासी को सहसा अपनी माँ की याद आ गयी।

लकड़ी के इस पुल पर वह कितनी बार बैठा था ! उसे वे दिन याद आये जब छल-छल करके बहते उस नहर के जल में खड़ी होकर उसकी माँ घास की गठरी साफ करती थी और छोटे बालक के रूप में लँगोटी पहनकर ईख चूसते हुए वह उसी पुल पर बैठा रहता था। उसकी माँ के मन में एकमात्र इच्छा यही थी कि इसका बेटा बड़ा होकर शादी रचाए, और दूसरों की तरह खेतीबाड़ी करके या फिर ढोर-डंगर चराते हुए गाँव में खुशी से जीवन बिताए। माँ की उस इच्छा की खिल्ली उड़ाकर पैरों तले कुचलने के बाद वह प्रथम विश्वयुद्ध में फौज में भर्ती हो गया था।

जब वह मोर्चे पर था, माँ की मृत्यु हो गयी थी।

लड़ाई से लौटने के बाद ही उसे यह खबर मिली। वह माँ के लिए रोया तक नहीं।

अम्मासी के लिए मौत एक मामूली बात थी। वह मौत की विद्रूपताओं को बहुत नज़दीक से देख चुका था और कई बार उससे खेल चुका था। इस समय उसको सालनेवाली सबसे बड़ी पीड़ा यही थी कि वह जीवित रहते हुए भी किसी काम का नहीं रह गया। और उसे अब अपने जीवन के भार को व्यर्थ ही- ढोते रहना पड़ेगा।

उसके मन में आ रहा था, काश, मैं लड़ाई के मैदान में मर गया होता! अब इस दुनिया में उसका अपना कोई नहीं था। वह किसके लिए जीवित रहे? उसके पास अब सौ रुपये के कुछ नोट थे, उन्हें लेकर वह क्या करेगा ?

पचास साल के अन्दर ही वार्धक्य और अकेलेपन का अनुभव हो जाने से उसे अब मृत्यु अधिक सुखदायक लगने लगी।

उस समय धुरी की कील की क्रीचवाली संगीत के साथ ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर चढ़ने-उतरने से खड़क-खड़क आवाज करती एक बैलगाड़ी बस्ती की ओर आती दिखाई दी।

गाड़ी पास आयी। उसके अन्दर से एक युवती की आवाज़ सुनाई दी, "ऐ...चुप रह...वो देख...कोई आदमी बैठा है...।" अम्मासी ने अन्दाज लगाया कि गाड़ी के अन्दर रति-मदन की क्रीड़ा चल रही है। उसने गला खखारकर अपनी मौजूदगी जतायी।

"कौन है रे पुल पर?" गाड़ीवान ने पूछा।

"राहगीर हूँ, मडुवंकरै जाना है" अम्मासी ने उत्तर दिया। गाड़ी उसे पार करके काफी दूर निकल गयी। लेकिन गाड़ी की खड़खड़ाहट से भी बुलन्द उस औरत की हँसी, और उन दोनों के बोलने के ढंग से अम्मासी ने समझ लिया कि वे दोनों प्यार के नशे के अलावा शराब के नशे में भी धुत हैं। वह हल्के से बुदबुदाया...हुँ...यही तो उम्र है!

मन में खयाल उठा-न जाने किस मृगमरीचिका के पीछे मैं भाग रहा था और जिन्दगी से रार मोल ले लिया। आखिर क्या पाया मैंने?

थोड़ी देर पहले गाड़ी में सवार होकर जवानी की जो किलकारी उसे पार कर गयी थी, अम्मासी को लगा कि इस रूप में उसके अतीत ने उसकी खिल्ली उड़ाई हो।

अम्मासी का मन निराशा में डूब गया, वह बड़बड़ाने लगा, 'हाय, जवानी के मेरे अच्छे दिन निकल गये। मैं भी तो था अठारह-बीस का और अब चालीस-पचास साल का..हूँ...उस जवानी की परवाह किये बिना इधर-उधर भागता रहा तब...मैंने उसका मूल्य नहीं समझा था-बस, भागता रहा। लोग भले ही जाति और धर्म के नाम पर किसी को बहिष्कृत करें, भगवान के यहाँ कोई भेदभाव नहीं है। वह उदारतापूर्वक जवानी देता है। इस जवानी पर लात मारकर मैं बुद्धू की तरह भागता रहा। जब मैं उससे दूर भाग रहा था, तब वह भी मुझसे दूर भाग रही थी। काश, इस सच्चाई को उसी समय समझ लेता! अरे, जवानी के जोश ने ही तो मुझे यों भागने के लिए प्रेरित किया था! लगातार भागते-भागते थक जाने के बाद अब समझ पाया हूँ कि हाय! मेरी जवानी बीत गयी...अब पछताये होत क्या...? वह सोच सोचकर अन्दर ही अन्दर कलपता रहा।

हाँ, खोयी हुई चीज है वह...जब चीज पास होती है तब उस 'होने' के जोश में थोड़ा-थोड़ा कर 'खोने' का भान न रहने से पूर्णरूप से खोने के बाद 'हाय खो गयी' का पछतावा होता है। तब 'खोयी हुई वह वस्तु' कितनी महत्वपूर्ण बन जाती है ! किसी चीज़ के महत्वपूर्ण होने की परिभाषा यही है।

बस्ती में घुसने का मन न होने के कारण अम्मासी उस रात बड़ी देर तक लकड़ी के पुल पर ही बैठा रहा। अभी भी बस्ती से लोगों की बातचीत और कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई दे रही थी।

तभी बस्ती का कोई आदमी सिर पर पगड़ी बाँधे और मुँह में चुरुट सुलगाये, वायुमण्डल को प्रदूषित करने के संकल्प से बदबूदार धुआँ उड़ाते उधर आ रहा था। अँधेरी रात में राह चलते समय मन में उठ रहे भय को दूर करने के लिए वह ऊँची आवाज़ में कुछ गा भी रहा था। लकड़ी के पुल पर कोई आकृति बैठी देखकर उसने डरते-डरते पूछा, "कौन है उधर?" वह वहीं रुक गया; उसका गाना भी बन्द हो गया।

"डरो मत...आदमी ही हूँ!" अम्मासी ने जमीन पर जूतों को रगड़कर साबित किया।

पगड़ीधारी आदमी ने अम्मासी को पहचानने की गरज से पास आकर पूछा, "कौन है?" उसी समय अम्मासी को अपनी चचेरी बहिन कासाम्बू की याद आ गयी। उसने उसके पति चडैयाण्डी का नाम लेकर बताया कि वह उनसे मिलने के लिए आया है।

"चडैयाण्डी...? उसे तो रेलवे में पोर्टर का काम मिल गया है, वह चेन्नै चला गया है...अपनी पत्नी के साथ..., तुम्हें मालूम नहीं?" अम्मासी को निराशा-सी हुई। असल में वह कासाम्बू या उसके पति की खोज में यहाँ नहीं आया था। फिर भी बस्ती में प्रवेश किये बिना लौट जाने के लिए यही कारण पर्याप्त था। उसने पूछा, "तुम्हें पता है वे लोग चेन्नै में कहाँ रहते हैं?"

"सुना है कि चडैयाण्डी एषुम्बूर स्टेशन में पोर्टर का काम करता है। वहाँ मिल सकता है।" इतना कहकर पगड़ीधारी लौट पड़ा।

उसके चले जाने के बाद अम्मासी उठा और देर तक बस्ती की ओर घूरकर देखता रहा। उसके बाद कैनवास बैग कन्धे पर लादे पलटकर रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा।

अब जिन्दगी में बन्धुत्व का स्नेह पाने का एकमात्र अवलम्ब चचेरी बहिन कासाम्बू, बहनोई चडैयाण्डी और उनके बच्चे ही हैं। जीवन के आधार को खोज निकालने से उसकी चाल में स्फूर्ति-सी आ गयी थी।

अगले दिन सुबह, उजास होने के काफी समय बाद चन्द घण्टों की देरी से...दिन में ही उस स्टेशन पर आ खड़ी हुई वह पैसेंजर गाड़ी।

किसी डब्बे में बैठकर अम्मासी ने अपने गाँव को, दूर दिख रही अपनी गन्दी बस्ती को और नहर पर बने लकड़ी के पुल को घूरकर देखा।

उसकी बस्ती में रहनेवाले कौपीनधारी छोकरों और कमर पर केवल मैले लहँगे पहनी छोकरियों को रेलगाड़ी के पास भाग-दौड़ करते हुए ताड़फल, पान, ककड़ी आदि चीजें बेचते हुए देखकर अम्मासी मुस्कुराता रहा। उसके मन में इच्छा हुई कि इन बच्चों से कोई न कोई चीज खरीदनी चाहिए। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।

ककड़ी बेच रही एक लड़की को वह आवाज देकर पुकारते हुए जेब में हाथ डालकर पैसा निकाल ही रहा था कि गाड़ी सीटी देते हुए सरकने लगी। उसने तुरन्त उन लड़के-लड़कियों की ओर मुट्ठी-भर चिल्लर फेंक दिये।

बच्चों ने बड़ी खुशी से चिल्लर बटोरने के बाद सिर उठाकर देखा तो गाड़ी चलने लग गयी थी। अम्मासी बच्चों की तरह खिलखिलाकर हँस पड़ा। उन बच्चों ने होठों पर मुस्कान के साथ कतार में खड़े होकर फौजी को सलाम किया। अपनी जन्मभूमि को ही सलाम करने के अन्दाज में हिल रहे अपने सिर के ऊपर हाथ उठाकर अम्मासी ने भी सलाम किया। उसकी आँखों के छोर से आँसू छलक उठे।

डिब्बे में भीड़ नहीं थी। अम्मासी के सिर के ऊपर सामान रखने की पटरी पर जूते और कमर पर बाँधी धोती पर हरे रंग की सिंगापुर बेल्ट पहने एक देहाती जमीनदार युवक बीड़ी सुलगाते हुए लेटा हुआ था।

उसके सामने एक माँ अपनी सोती हुई बच्ची को गोद में लिटाये खुद भी पीछे सिर टिकाकर सो रही थी।

अम्मासी ने उसकी ओर गौर से देखा। उसके कपड़ों से लग रहा था कि वह कोई कमसिन ब्राह्मण विधवा थी। लम्बे अरसे से तपेदिक से पीड़ित होने की वजह से वह बड़ी दुबली-पतली दिखती थी। उसकी देह अस्थिपंजर बनकर रह गयी थी। अम्मासी को समझने में देर नहीं लगी कि बेचारी मृत्यु के कगार पर पहुँच गयी है, और प्राण लबों तक आ गये हैं। किसी सूखे पेड़ पर फैली हरी लता पर खिले फूल की तरह उसकी गोद में सो रही सुन्दर बच्ची का मासूम चेहरा नींद में जरा संकुचित हुआ, फिर वह मुस्कराने लगी।

रेल जब धीमी गति से चल रही थी तब उस डब्बे में सवार हुआ टिकट-निरीक्षक थोड़ी देर तक दरवाजे पर खड़ा-खड़ा सिगरेट पीता रहा। फिर अन्दर आकर अम्मासी के पास इत्मीनान से बैठ गया। वह थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा। ज्योंही उसे लगा कि अगला स्टेशन आनेवाला है, उसने अम्मासी के ऊपरवाली सीट पर लेटे देहाती युवक से टिकट माँगा। अम्मासी ने भी कोट की जेब टटोलकर टिकट निकाला।

टिकट हाथ में लेकर छोटी-सी सही करके लौटाने के बाद, सो रही उस विधवा ब्राह्मणी को जगाने के लिए टिकट निरीक्षक ने कई बार पेंसिल से पटरी पर 'ठक-ठक' आवाज की।

बेचारी औरत किन-किन शारीरिक यातनाओं और मानसिक पीड़ाओं से गुजर रही थी, वही जाने! प्राणों की झलक से रहित सूखी पुतलियाँ खोलकर उसने एक बार चारों ओर देखा। फिर उसकी तन्द्रालीन पलकें अपने-आप बन्द हो गयीं। शायद भीतर भीतर से खा रही वेदना उसके लिए बर्दाश्त के बाहर हो गयी थी। अपने फीके होठों को भींचकर भौंहें सिकोड़ती हुई वह बुदबुदायी-'हे प्रभु!'

"माँ...इधर देखो...टिकट माँग रहे हैं।" अम्मासी ने उसे धीमी आवाज़ में जगाने की कोशिश की।

उठकर सीधे बैठने की ताकत उसमें कहाँ थी? धीरे से आँखें खोलकर दीन स्वर में बोली-"टिकट!"

"क्या तुम्हारे पास टिकट नहीं है?...अगले स्टेशन पर उतर जाना, समझी?" बड़ी निर्ममता के साथ कहने के बाद टिकट-निरीक्षक दूसरी तरफ मुड़कर झाँकने लगा।

अम्मासी बड़ी गम्भीरता से उसकी दीनता पर चिन्तन करता रहा। स्टेशन आने ही वाला था। बिचारी बड़ी मुश्किल से उठने का प्रयास करने लगी। गोद में सो रही दो साल की बच्ची जाग गयी। भूखी और कच्ची नींद में उठने से हुई खीझ से वह रोने लगी।

"आपको कहाँ तक जाना है माँ?" अम्मासी ने उससे पूछा।

लम्बी साँस भरती हुई हल्की आवाज़ में उत्तर मिला-"जी, चेन्नै तक जाना है।"

"सर...चेन्नै का एक टिकट बना दीजिए...मैं पैसा देता हूँ..." कहते हुए अम्मासी ने अपने कोट की जेब से चमड़े का पर्स निकाला।

टिकट-निरीक्षक पल-भर उसकी ओर देखता रहा, उसकी उदारता की सराहना के अन्दाज में मुस्कराया। फिर, खड़े-खड़े ही एक पैर सीट पर टिकाकर घुटने के ऊपर किताब रखते हुए रसीद काटने लगा।

उस विधवा ब्राह्मणी ने अम्मासी को ढेर सारी आशीर्षे दीं-"आपके बाल-बच्चे स्वस्थ रहें, दीर्घायु हों!" अपनी पतली-पतली उँगलियाँ जोड़कर उसे प्रणाम किया। नींद से उठकर बच्ची ने फिर से माँ की गोद में अपना मुँह गड़ा लिया।

उन आशीषों को सुनकर अम्मासी ने पलभर उनके अर्थ पर विचार किया; फिर सिर झुकाकर अपने आप हँस लिया।

टिकट-निरीक्षक इधर से नीचे उतरा होगा, उधर दूसरे दरवाजे से बिना टिकट एक भिखारी अपनी पत्नी-सहित उस डिब्बे में चढ़ गया।

वह भिखारी दम्पती-बेंचों पर जगह होते हुए भी फर्श पर घुटने मोड़कर बैठ गये-इस भावना के साथ कि हाथ में टिकट न होने से वे सफर करने के भी हकदार नहीं हैं, ऐसे में बेंच पर बैठने का उन्हें अधिकार नहीं है। उस भिखारी ने हाथ का लट्ठ नीचे रखने के बाद अण्टी से मूंगफली निकालकर पत्नी को आधा हिस्सा दिया। फिर दोनों छिलका उतार-उतारकर मूंगफली खाने लगे।

गाड़ी उस स्टेशन से निकलकर लम्बी सीटी देती हुई तेजी से चल पड़ी।

एक बड़े-से जंक्शन में पैसेंजर गाड़ी ज्यादा देर तक खड़ी रही।

होश-हवास खोकर पड़ी हुई माँ की गोद में लेटी बच्ची जग गयी। आँखें फाड़कर चारों ओर देखने लगी। बिस्कुटों भरी थाली लेकर कोई बेचनेवाला खिड़की के बाहर खड़ा था। बच्ची माँ के गालों को उँगली से कुरेदती हुई दूसरा हाथ बाहर दिखाकर 'माँ चिज्जी', 'माँ चिज्जी' कहकर रोने लगी।

तभी होश में आकर माँ ने आँखें खोलकर देखा। "माँ, बच्ची रो रही है न, मैं कुछ खरीद दूँ?" बड़ी विनय और अपनेपन के साथ अम्मासी ने पूछा। उसने आँसू-भरी आँखों से सहमति दे दी।

अम्मासी गाड़ी से उतरकर प्लेटफार्म के स्टाल पर आ गया। उसने एक 'बन' और एक कप दूध खरीदा। उसे लेकर आते हुए, जैसे कोई बात याद आ गयी हो, दुबारा जाकर एक और 'बन' और दूध ले लिया। कागज में लिपटे 'बनों' को कोट की जेब में रखकर काँपते हुए हाथों में दूध के दोनों प्याले उठाये वह डिब्बे की ओर चला आया।

देखनेवाले लोगों के मन में यही खयाल आया होगा-'बीमार-सा यह बुड्डा किसलिए इतनी तकलीफ उठा रहा है?' अहा! दूसरों के लिए कष्ट उठाने में जो सुख होता है वह भुक्तभोगी ही जानता है!

डिब्बे के अन्दर आकर बेंच पर दूध के प्याले रखने के बाद 'बन' लेकर बच्ची की ओर बढ़ाया। बच्ची ने लपककर उसे ले लिया और दोनों हाथों से पकड़ते हुए बड़े चाव से खाने लगी।

उसी समय माँ ने आँखें खोलकर उसे देखा। अम्मासी ने हिचकते हुए उसकी ओर एक 'बन' बढ़ाया। उसने सिर हिलाकर मना कर दिया।

"दूध तो पी लीजिए माँ! बहुत थकी हुई लगती हैं।" उसने दूध को ठण्डा करके गिलास में थोड़ा-सा डालकर उसके हाथ में दे दिया।

उसने भी काँपते हुए हाथों से गिलास ले लिया और गटक गटककर एक ही साँस में पी लिया। ज्यों-ज्यों वह गिलास का दूध पीती रही, अम्मासी प्याले में से थोड़ा-थोड़ा करके उसमें डालता रहा। जिस तड़प के साथ वह दूध पी रही थी उसे देखकर अम्मासी समझ गया कि बेचारी भूख-प्यास और थकान से कितनी बेहाल रही होगी। अम्मासी बच्ची के लिए लाये दूध को भी ठण्डा करके उसे पिलाता रहा। उसमें से आधा पीने के बाद माँ ने कहा, "बस!" उसके बाद थकान के मारे फिर आँखें बन्द कर लीं।

बच्ची अपनी माँ को तंग न करे, इस खयाल से अम्मासी उसे अपने पास बिठाकर 'बन' को थोड़ा-थोड़ा करके तोड़कर और दूध में डुबोकर उसे खिलाने लगा। बच्ची ने बड़े अपनेपन के साथ उसकी गोद में बैठकर खा लिया। उसके बाद वह बच्ची को उठाकर दूध का प्याला लौटाने के लिए स्टाल की ओर गया। स्टाल से एक प्याला दूध और खरीदकर बच्ची को पिलाया। खुद भी एक गिलास चाय पी। तब तक बच्ची उसके साथ यों हिलमिल गयी जैसे बहुत दिनों की जान-पहचान हो। उसने बच्ची के लिए एक खिलौना भी खरीदा-दबाने पर 'क्रीच-क्रीच' करनेवाला बत्तख। वह खिलौना लेकर बच्ची बड़ी खुशी से ताली बजाकर हँसने लगी। अम्मासी भी दीन-दुनिया को भूलकर बच्ची के खेल में मग्न हो गया। तभी गाड़ी छूटने की सूचना में घण्टी बजी। बच्ची को उठाये जल्दी-जल्दी भागते हुए अम्मासी डिब्बे में सवार हो गया। इस समय उसने महसूस किया जैसे उसकी जवानी उसे वापस मिल गयी।

काफी देर तक उस जंक्शन पर खड़ी रहने के बाद गाड़ी धीरे से सरकती हुई चल पड़ी।

भूख मिट जाने की स्फूर्ति और खिलौना पाने की खुशी में, उस अनजान व्यक्ति की गोद में मुँह छिपाती और कभी उसकी ठुड्डी पकड़कर खींचती हँसती-खेलती बच्ची को देखकर माँ के होठों पर मुस्कान खिल गयी।

यह देखकर अम्मासी उससे बात करने लगा, "चेन्नै में आपको कहाँ जाना है माँ?"

जवाब देने से पहले माँ ने लम्बी साँस भरी। फिर माथे पर रिसते पसीने को पोंछते हुए कमजोर आवाज़ में कहने लगी-

"जी, चेन्नै में मेरे जान-पहचान के लोग हैं...मेरी एक सहेली...कभी जब गाँव आयी थी, उसने कहा था कि वह मुंगम्बाक्कम में रहती है। पता सही सही मालूम नहीं है। सोच रही थी, इतने बड़े शहर में कहाँ जाकर ढूँढंगी...लेकिन अब लगता है कि पहुँच ही नहीं पाऊँगी!" कहते-कहते उसका गला रुंध गया। आँखों से आँसू बहने लगे।

"ऐसा क्यों कह रही हैं माँ...आपको जहाँ भी जाना हो मैं पहुँचा दूंगा।" अम्मासी ने उसे ढाढ़स बंधाया।

उस अनजान व्यक्ति के अच्छे गुणों की मन ही मन सराहना करने के बाद माँ का हृदय उस बच्ची के विषय में सोच कर दुःखी हो गया जिसे वह इस विशाल संसार में निराधार छोड़कर सदा के लिए जानेवाली थी।

वह एकाएक उससे कहने लगी, "भैया! आप कौन हैं, मैं नहीं जानती। पर इतना मानती हूँ कि स्वयं भगवान ने आपको यहाँ भेजा है...इस समय मेरे बन्धु, मित्र, हितैषी और सगे भाई सबकुछ आप ही हैं..."

इन शब्दों को सुनकर अम्मासी पुलकित हो गया।

उस समय अपनी माँ को बिलकुल भूल चुकी बच्ची ने बत्तख का खिलौना अम्मासी के कान के पास ले जाकर उसे जोर से दबाया। सिर हिलाते हुए, शोर से परेशान होने का अभिनय करते हुए, कान बन्द कर रहे अम्मासी को देखकर बच्ची खिलखिलाकर हँसने लगी।

अम्मासी समझ गया कि वह मुझसे दिल की कोई बात कहकर सान्त्वना पाना चाहती है या फिर मुझसे कोई सहायता लेने की सोच रही है। वह हर तरह से उनकी सहायता करने के लिए सम्पूर्ण मन से उद्यतसा स्नेहपूर्वक उसको देख रहा था।

बच्ची अम्मासी के ऊपर इतना प्यार बरसा रही थी जितना पूरी जिन्दगी में उसे कहीं से नहीं मिला होगा। गोद में चढ़कर कमीज को खोलते हुए उसके सम्पूर्ण हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने लगी।

बच्ची की माँ फिर अपनी बात कहने लगी, "भैया!...मेरा कोई भी नहीं है। मैं बेसहारा विधवा हूँ..." कहती हुई वह रोने लगी। आँखों में उमड़ रही अश्रुधार को रोक नहीं पा रही थी। थोड़ी देर बाद आँसू पोंछकर बात जारी रखी-रोने के कारण उसकी आवाज भर्राई हुई थी।

"पिछले साल-अपने जन्म के एक साल के अन्दर ही-यह अपने बाप को खा गयी।"

बच्ची पर यह आरोप अम्मासी को सहन नहीं हुआ। उसने कहा, "बच्ची को क्यों दोष दे रही हैं माँ!" यह सुनकर सिर झुकाकर वह बुदबुदायी, "ठीक कह रहे हैं, बेचारी बच्ची उसके लिए क्या कर सकती है! उनकी भी तो मरने की उम्र ही थी...शादी के समय ही उनकी आयु पचास साल से ऊपर थी...मेरे पिता निर्धन जो ठहरे, दहेज देने की हैसियत नहीं थी, इसी नाते तीसरी पत्नी के रूप में उनसे शादी करा दी। अगले ही वर्ष मेरे पिता का भी देहान्त हो गया। इसके पिता ने मुझे प्यार से ही रखा था...लगता है वह ईश्वर को भी बुरा लगा...अन्धा ईश्वर!" बेवा ने दाँत पीसते हुए भगवान को कोसा।

नाक साफ करके वह आगे बोलने लगी, "इसके पिता होटल में काम करते थे। उन्हें तपेदिक हो गया। फिर किसी ने उन्हें काम पर नहीं रखा...मैंने चार बच्चों को जन्म दिया, पाल-पोसकर उन्हें बड़ा किया। फिर एक-एक करके वे मृत्यु के मुँह में चले गये। आखिर में यह पैदा हुई; यह साथ न होती तो अब तक मैं किसी तालाब या नदी में कूदकर जान दे देती...भैया, यह जो बुरा मर्ज है इसका दु:ख मुझसे बिल्कुल सहा नहीं जाता। अब बचने की कोई उम्मीद नहीं है। तिल-तिल करके मरने से एकदम मर जाना कहीं अच्छा है...लेकिन मेरे गले का बोझ बनी हुई है यह बच्ची! आप ही देखिए, दाम्पत्य ने मुझे क्या सौगात दिया है-तपेदिक की बीमारी और यह नन्ही बच्ची।" क्रोध और वैराग्य से शरीर उसका तन गया। उससे कुछ बोला न गया। जोर-ज़ोर से साँस चलने लगी। शून्य की ओर घूरकर देखती हुई वह चुप हो गयी।

वह पैसेंजर गाड़ी शोर मचाती दौड़ रही थी, लेकिन उस डिब्बे में भयंकर सन्नाटा था। ब्राह्मणी ने धीरे से आँखें बन्द कर ली। गाड़ी के हिलने के साथ-साथ आँखें मूंदै सीट पर टिका हुआ उसका सिर भी दायें-बायें हिलता रहा। यह दशा देखकर अम्मासी घबरा गया। मन में आशंका उठी'क्या उसके प्राण निकल रहे हैं?'

शुक्र है। अपने शरीर या मन के किसी असह्य वेदना से तड़पती और होंठ भींचती हुई उसने अपनी आँखें खोलीं। होठों पर कड़वी मुस्कराहट।

"स्त्री के रूप में जन्म नहीं लेना चाहिए। वैसे स्त्री जन्म लेना ही पड़े तो गरीब के घर में पैदा नहीं होना चाहिए।" यों कहने के बाद ज़रा सोचकर अपने किसी कथन को काटने के अन्दाज़ में सिर हिलाया-"गरीब घर में पैदा होने में भी कोई हर्ज नहीं। भैया, मैं नहीं जानती कि आप किस जाति या कुल के हैं। आप लोगों के यहाँ गरीब परिवार में जनमी लड़कियाँ भी अपने-अपने ढंग से खुशी से जीवन बिता रही हैं न! भले ही स्त्री के रूप में जन्म लें, गरीब घर में जन्म लें, लेकिन हमारी जात में पैदा नहीं होना चाहिए भैया! किसी गन्दी बस्ती में जन्म लेना उससे बेहतर है..." वह बोल रही थी, अम्मासी के मन में कल रात के अंधेरे में बैलगाड़ी से जानेवाली गन्दी बस्ती की युवती का विकट अट्टहास गूंज उठा।

वह युवती आँसू बहाती हुई और लम्बी साँस भरती हुई बोली, "न जाने, मैंने कौन-से पाप किये हैं, स्त्री के रूप में पैदा हुई और अब एक लड़की को जन्म दिया। न जाने इसके भाग्य में क्या-क्या भुगतना लिखा है!" उसकी बात सुनकर अम्मासी ने बच्ची के कोमल बालों को सहलाते हुए कहा, "...क्या आप सोचती हैं कि आप जिस जमाने में रहीं, इसका जमाना भी वैसा ही रहेगा?"

"भैया! जमाना क्या करेगा, जब लोग अत्याचार पर तुल जाते हैं। मेरा जन्म गाँव में हुआ था, शहर में आने के बाद मुझे भलीभाँति मालूम हो गया कि जात-पाँत और आचार-विचार सब अर्थहीन हैं, महज ढकोसला है। लेकिन बताइए इन सबको धत्ता बताकर छोड़ देने की हिम्मत कितने लोगों में है? आपने भी न सोचा, न विचार किया कि यह स्त्री कौन है, किस जाति की है। बेहोश पड़ी हुई स्त्री को देखकर आपने दूध लाकर पिलाया-मैंने भी आपके हाथ से दूध लेकर पी लिया। क्या मैं अपने समाज के चार जनों के बीच में ऐसा कर सकती थी? तब 'हट जाओ, 'हट जाओ' कहकर अपने कुलाचार बघारती। यही करती न! इसका कारण पूछिए तो बता नहीं पाऊँगी। एक अबूझ पहेली-सा वह क्या कारण हो सकता है। चार लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे? ऐसा भय सबके मन में छाया हुआ है, इसे छोड़कर और क्या कारण हो सकता है? इस तरह की असहाय स्थिति आने पर उन चार जनों में तीन लोग वही करते जो मैंने किया। वर्ना जाति और आचार को-यदि सबने कारण सहित सच्चे मन से स्वीकार किया होता तो वह कभी का बदल गया होता। हरेक व्यक्ति ने उसे झूठमूठ और दिखावे के लिए अपना रखा है। इसीसे समाज में जाति-विचार अब भी बना हुआ है। यह जाति-भावना बला की तरह मुझ जैसे गरीब लोगों को परेशान करती रहती है।"

थोड़ी देर पहले दूध पीने से उसके अन्दर इतना बोलने की शक्ति और स्फूर्ति आ गयी थी। लेकिन थोड़ी देर बोलने के बाद फिर से दम घुटने लगा। इतना सारा बोलने के बाद भी क्या अभी तक अपनी अहम बात अम्मासी के सामने रख पाई है जिसे बताने के लिए उसने बात शुरू की थी? यह खयाल आते ही वह झटपट उठ बैठी।

"आप मुझसे पूछ सकते हैं-'इतना सबकुछ बोलती हो, जातिआचार को निकाल फेंकने के लिए तुम अपनी ओर से कुछ कर सकती थी न?' सही बात है, मैंने अब तक कुछ नहीं किया। मेरा पालन-पोषण ऐसा नहीं हुआ कि मैं इस बारे में कुछ कर सकूँ...लेकिन मैं करने जा रही हूँ...हाँ, मुझे जो सजा मिली है, ऐसी सजा कम से कम मेरी बेटी को न मिले, यह देखना मेरा फर्ज है। दृढ़ निश्चय और किसी से बदला लेने के पक्के इरादे के साथ दाँत भींचते हुए उसने कहा, "मैं जरूर करूंगी।"

इस बीच में गाड़ी कई छोटे स्टेशनों में रुक-रुककर खड़-खड़ करती दौड़ रही थी।

एकाएक वह सीने पर हाथ रखते हुए उठी, उसे उल्टी आ गयी। दो घण्टे पहले जो दूध पिया था सारा बाहर आ गया। गोद में बैठी बच्ची को बेंच पर बिठाकर अम्मासी भी उठा और उसके सिर को थाम लिया। कोने पर बैठी भिखारिन भागी हुई आयी। उसके हाथ में रखा टीन का कटोरा देखकर अम्मासी ने उससे पानी लाने को कहा। बुढ़िया ने बाथरूम से पानी लाकर उसके मुँह को अच्छी तरह पोंछने के बाद दो घुट पिलाने की कोशिश की। पानी मुँह के कोने से बहने लगा, पानी के साथ खून की एक धार मुँह और नाक से बहने लगी।

"हाय रे, खून आ रहा है!" बुढ़िया चीख उठी। अम्मासी ने कोट के किनारे से खून पोंछा और उसे धीरे-से सीट पर लिटा दिया। उसके हाथ पैर ठण्डे हो गये थे। बेंच पर लिटाते हुए केवल पीठ पर गर्मी महसूस हुई। उसे लिटाने के बाद बच्ची को उठाकर उसने पास में बिठाया। बच्ची माँ की छाती पर झुककर अम्मासी को देखकर हँसी।

बच्ची की माँ ने अम्मासी की ओर हाथ बढ़ाया। बेंच के नीचे घुटनों के बल बैठे अम्मासी के हाथ को पकड़ते हुए बहुत ही धीमी आवाज़ में उसने कहा, "भैया, आप जो भी हों, मेरे लिए आप ही भगवान हैं। अगले स्टेशन पर...मेरे इस शरीर को नीचे उतारकर...जो भी करना है, कर दें...करेंगे न आप?" यह सुनकर अम्मासी भी, जिसने अभी तक सैकड़ों मौतें देखी थीं, अपने आँसू नहीं रोक पाया; उसने मुंह ढक लिया।

"आप उन विरले लोगों में से हैं, जो बिना माँगे ही मदद करते हैं...मैं बहुत देर से जो बात कहना चाहती थी...कह दूँगी...इसे...मेरी बेटी को..." आँखों पर छलके आँसू कान की ओर बहने लगे थे-"इसे अपनी बेटी समझकर...पाल लीजिए। मुझे विश्वास हो गया है...कि यह आपके हाथों अच्छी तरह पल जाएगी।..मेरी बेटी को अपने बच्चों में से एक समझकर पालेंगे, भैया?" उसके हाथ को कसकर पकड़े हुए बड़े भरोसे से मुस्कराने की कोशिश करते हुए उस माँ ने पूछा।

उसने हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया।

अब भी वह अम्मासी की कलाई पकड़े हुए थी। जैसे कोई अनाड़ी अभिनेत्री फ़िल्म में दम तोड़ने के दृश्य में गलत अभिनय कर रही हो। आश्वस्तिपूर्ण मुस्कराहट के साथ उसने आँखें बन्द कर लीं। अचानक उसके होंठ खुल गये और उस पर एक मक्खी आकर बैठ गयी। तभी अम्मासी की समझ में आया कि उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी है। वह उठकर सिर झुकाये खड़ा हो गया।

किसी छोटे स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही वह भिखारिन बुढ़िया चीख मारकर रोने लगी। यह सुनकर उस डिब्बे के आगे भीड़ जमा हो गयी। भीड़ को हटाते हुए एक रेलवे अधिकारी भीतर आया।

तीसरे दिन दोपहर को उस छोटे-से रेलवे स्टेशन पर दक्खिन से आनेवाली दिन की पैसेंजर गाड़ी के इन्तजार में बच्ची को लेकर खड़ा था अम्मासी।

अपनी माँ का अन्तिम संस्कार करने में चूक होने की कसर पूरी करते हुए अम्मासी ने कल एक माँ का क्रिया-कर्म विधिवत् सम्पन्न किया। जीवन में मिली अमूल्य निधि की तरह उस बच्ची को पूरी रात सीने से लगाये वह रेलवे स्टेशन पर गाड़ी की प्रतीक्षा में बैठा था। आज वह पैसेंजर गाड़ी नियत समय पर पहुँच गयी। अम्मासी का सिर और शरीर बराबर हिल रहा था। वह बच्ची और कैनवास बैग के साथ गाड़ी में सवार नहीं हो सकता था, इसलिए बच्ची को खिड़की के जरिये एक महिला के हाथ में देकर, हाथ में बैग उठाये अन्दर गया।

गाड़ी में बैठे लोग इस बूढ़े और बच्ची को बारी-बारी से देख रहे थे। शायद वे यही सोच रहे थे कि यह सुन्दर-सलोनी बच्ची इस बूढे की क्या लगती होगी। जिस महिला ने खिड़की के जरिये बच्ची को हाथ में लिया था, उसने पूछा, "यह लड़की आपकी बेटी है या पोती?"

जिन्दगी-भर छड़े रहे अम्मासी ने बिना कुछ सोचे झट उत्तर दिया-पोती।"

बच्ची के गाल पर लाड़ से थपकी देते हुए उस महिला ने अगला प्रश्न दाग दिया-"नाम क्या है?"

उस समय रेलगाड़ी भी 'कू...ऊ...ऊ...' करके हँस पड़ी। अम्मासी ने होंठ दबाते हुए सोचा, 'अरे इसकी माँ से नाम पूछना रह ही गया न!' रेल की कूक जब बन्द हुई उसने अपने ईजाद किए नाम की घोषणा कर दी, "पाप्पात्ती!" (ब्राह्मणी)

"पाप्पात्ती! जंचने वाला नाम है!" उस महिला ने सराहना की।

जंचे या न जंचे...अब उस बच्ची का नाम वही रहेगा।

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