दिन ढला रात हुई (कहानी) : डॉ. शोभा घोष

Din Dhala Raat Hui (Hindi Story) : Shobha Ghosh

‘बहू, अब जाकर सो जाओ।‘

आवाज़ सुनकर सुधा चौंक पड़ी। घूम कर देखा, ससुरजी खड़े थे। उसे बड़ा ही संकोच हुआ। अपने दुर्भाग्य की पीड़ा में स्वयं जले, पर दूसरों को जलने का उसका क्या अधिकार है? सर नीचे किये वह चुप-चाप जाने लगी ।

चौधरीजी ने बुलाया – ‘बहू सुनो।‘

सुधा रुक गयी। ‘मैंने तुमसे जो बात पूछी थी, उसके लिए तुमने कुछ सोचा है?’

‘पिताजी, नहीं, नहीं, मुझसे ऐसा नहीं होगा, नहीं होगा।‘ चिल्लाती हुई वह पागल की तरह अपने कमरे में चली गयी और बिस्तरे पर पड़कर सिसक-सिसक कर रोने लगी।

पिता की इकलौती बेटी थी सुधा। बचपन से ही लाड-प्यार से बड़ी हुई। दुःख का नाम तो उसने कभी सुना ही नहीं। गुलाब-सी कोमल, चंपा-सी सुन्दर, मुख पर अल्हड़पन की छाप, छोटी उम्र में ही शादी की पिता ने। लड़का योग्य था, पर चाँद में भी काली रेखाएं मौजूद होती हैं। सब गुणों के होते हुए भी, एक बात जो अखरने वाली थी वह थी वह फ़ौज में काम करता था। रिश्तेदारों ने आपत्ति की, माँ ने भी घोर विरोध किया। बोली-'बेटी की इच्छा पूर्ण करने के नाम पर आप उसका सुख लूटना चाहते हैं? सुहाग लूटना चाहते हैं?' पर बेटी की इच्छा के सामने आखिर माता पिता दोनों को झुकना पड़ा। अनिल से सुधा की शादी हो गयी, बड़ी धूम धाम से शादी हुई, सभी ने बधाइयाँ दी, मंगल कामनाओं की वर्षा, आनंद लहरों की पूर्व छटा- सभी सुधा के भाग्य की सराहना करने लगे। सहेलियों ने कहा - 'अगले साल तेरे मुन्ने के लिए झूला लेकर आउंगी।'

उसके गुलाबी गाल शर्म से लाल हो गए थे। उसने कहा - 'धत।'

छुटपन से ही सुधा को रानी पद्मिनी, दुर्गावती, लक्ष्मी बाई आदि वीरांगना की कहानियां बड़ी अच्छी लगती थीं। सोचती थी - कितनी अच्छी थी वे वीरांगनाएं। देश के आन पर स्वयं मर मिटीं। स्वयं उसने बन्दूक चलाना, घोड़े पर चढ़ना, कार चलाना साइकिल चलाना, तैरना आदि सीखा। माता-पिता की अत्यंत प्यारी होने के कारण उसकी हर इच्छा की पूर्ति तत्क्षण हो जाती थी। जब वह बहुत छोटी-सी थी तभी से कहती थी -'बाबू, मेरी शादी ऐसे दूल्हे से करना जो साहेब लगता हो और जो हवाई जहाज में बैठकर मुझे आसमान में घुमाये और बन्दूक चला कर शेर भालुओं को मारे और अगर हम लोगों के सामने कोई दुश्मन आ जाये तो उसे शिवाजी की तरह तलवार से मारकर घोड़े पर चढ़ कर मुझे लेकर घर आ जाये। पिता अपनी भोली-भाली बेटी की प्यारी-प्यारी बातें सुन कर हँसते थे, खुश होते थे। प्यार से उसका सर चुम कर कहते थे, - 'मेरी बेटी अपना दुल्हा घोड़े पर चढ़ कर खुद ही ढूंढ लेगी। हठ पूर्वक वह कहती थी - 'नहीं बाबू, तुम ही ढूंढ लेना।'

'अच्छा बेटा अच्छा', कहते-कहते, हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते थे वह। आज वही बातें काँटों की तरह उनके दिल में चुभ रहीं हैं। एक तो पुत्री का दुःख, और उस पर परिजनों की दिन रात भर्त्स्ना और तिरस्कार पूर्ण व्यंगबानो की बौछार।

आखिर सुधा की शादी हो गयी। दुल्हन बन कर सुधा ससुराल गयी सास ने तो मानो चाँद ही पा लिया हो। ससुर को उसका भोला-भाला चेहरा जिगर से भी प्यारा हो गया था सभी लोग चौधरीजी की भाग्य की सराहना करने लगे। लोग उन्हें बधाई दे कर कहते थे – ‘लक्ष्मी-सी बहु पायी है आपने। ऐसी सुन्दर दुल्हिन तो चिराग लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी।‘ चौधरी जी अपनी पत्नी से कहते हुए फूले नहीं समाते थे।

मधुचन्द्रिका के लिए अनिल ने एक महीने की छुट्टी ली थी। अनिल एयरफोर्स में सर्विस करता था। शादी के बाद वह भी कल्पना करता था - सुधा को नील गगन की सैर कराएगा। चंदा की चांदनी से अपनी चंद्रमुखी प्रिय की सौंदर्य छटा की होड़ लगाएगा। तारों की झिलमिलाहट में स्वप्नों का जाल बुनकर उसमें अपनी प्रिया को बिठलाकर उसका सौंदर्य पान करेगा। और ……. सुधा …..?

उसने तो अनिल को पा कर अपने सुख स्वप्नों को प्रत्यक्ष ही मां लिया था। कितनी भाग्यवती है सुधा। जैसी कल्पना थी, ठीक वैसा ही दुल्हा मिला है उसे। आखिर बाबू ने इसे कहाँ से खोज निकला? सोच-सोच कर वह आनंद बिह्वल हो उठती थी। भाग्य से, नहीं नहीं, परम भाग्य से ऐसा वर मिलता है किसी को।

मधुचन्द्रिका की तयारी होने लगी। अनिल की छुट्टियां भी स्वीकृत हो गयीं। एक महीने के भीतर उसने केवल दार्जलिंग का प्रोग्राम बनाया था। वहां जा कर क्या-क्या देखना है, क्या करना है, सारा प्रोग्राम बन गया। इधर रोज़ ही शॉपिंग होती थी। किस साड़ी के साथ कौन-सा ब्लाउज, कौन-सा गहना सेट, सब क्रम से सजा कर बॉक्स में भर कर रख दिया गया।

सास ने कहा - 'बहू, देखो तुम्हारे लिए बाबूजी सिंदूर का यह पैकेट ले आये हैं। लाओ, नई वाली चांदी की डिब्बिया में भर दूँ। अरे, आज तुमने सिन्दूर की बिंदी भी नहीं लगायी?'

‘एक दम भूल गयी अम्मा, अभी लगा लेती हूँ। लाओ इसी में से लगाए देती हूँ।‘

‘बड़ी पागल बहू है मेरी। पहले तो घर में एक ही पागल था, न खाने की चिंता, न सोने की, अब एक और पगली मिली मुझे, अब दोनों को कौन संभालेगा?’

चौखट पार करते ही ससुरजी ने कहा - 'क्यों? एक तुम, एक मैं।' दोनों हंस पड़े।

‘देखो तो बिंदी लगाने के बाद मुंह कितना खिल गया। देखो बहू, बक्से के इस किनारे पर डिबिया रख रही हूँ। हाँ सुनो एक बात, ये ५०० रुपये चुपके से अनिल को बिना बताये बक्से के नीचे रख लेना, वह बड़ा पागल है। अगर अपने सारे रुपये खर्च कर डाले तो ये रुपये निकालना और सुनो, अगर किसी तरह सारे रुपये खो जाएँ, बक्सा ही गायब हो जाये तो रत्ती भर घबराना मत। तुरंत ही टेलीग्राम कर देना, टी. एम्. ओ. से रुपये भेज देंगे। अपने पर्स में हर वक्त कुछ रुपये रख छोड़ना।‘

'देखो न, अभी तक नहीं लौटा। खा पीकर जरा आराम भी नहीं कर पायेगा। तुरंत जाने के लिए चिल्लायेगा। इतने में हॉर्न की आवाज़ सुनकर चौधरीजी उधर ही चले गए। पूछा- 'कुछ बाकी तो नहीं है?'

'जी नहीं।'

अनिल पिता के साथ खाना खाने बैठा, पूछा- 'अम्मा, सच-सच बताओ तो आज खाना किसने बनाया है?'

'क्यों? हमारी बहू ने।'

'झूठ, एकदम झूठ। हरदम खुद बनाकर अपने बहू का नाम बतलाती हो। मैं दूर से ही तरकारी का रंग देखकर और महक सूंघ कर समझ जाता हूँ कि खाना किसने बनाया है।‘

‘रहने दो, तूने समझ क्या रखा है हमारी बहू को? लाखों में एक है हमारी बहू। उसी समय दरवाजे पर जोर से नोक हुआ। सब का ध्यान उधर ही चला गया। नौकर ने आकर बतलाया कि भैयाजी का अर्जेंट टेलीग्राम आया है। अनिल ने ग्लास के पानी से हाथ धो कर जा कर टेलीग्राम ले लिया। जाकर बैठक में बैठ गया। उसे लौटने में देर होते देख कर माँ वहां गयीं। पता चला - संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर दी गई। युद्ध प्रारम्भ हो गया है। इस कारण उसकी छुट्टियां रद्द कर दी गयीं। सैनिकों के लिए रसद ले कर जहाज ले जाना है उसे। आज, अभी, इसी क्षण जाना है उसे। माँ की आँखें भर आयी, पिता ने दीर्घ स्वास ली। और सुधा?

माता पिता से आज्ञा ले कर अनिल सुधा के पास गया। सुधा का करूण मुख देखकर क्षणभर विचलित हुआ। फिर तुरंत ही अपने को संभालकर बोला - 'सुधा, अधीर न हो, देश की स्वतंत्रता और अखंडता की रक्षा के लिए जा रहा हूँ। यह तुम्हरे लिए गौरव की बात है, तुम्हारा स्नेह, सहारा, शुभकामनायें हमारे साथ रहेंगी।' इसके आगे वह कुछ भी नहीं कह सका, जल्दी से निकल कर चला गया। सुधा पत्थर की तरह बरामदे में खड़ी हो कर अनिल को देखने लगी, जल्दी ही वह उसकी आँखों से ओझल हो गया। सुधा की मूक निगाहें अश्रुधारा बहती हुई पलकें बिछाकर आशा का आंचल पकड़ कर पति मिलन की प्रतीक्षा करने लगी।

जितने ही दिन बीतते गए, सुधा अधीर होती गई। आशा की हलकी-सी रश्मिहीन किरणों की आड़ में वह फिर से मधुचंद्रिका की मधुमयी आशाओं का झाल बुनने लगी। आखिर एक दिन तो वह लौट आएगा, कितना अच्छा दिन होगा वह। अनिल उसे गले से लगा कर प्यार से कहेगा - 'सुधा, हमलोग मधुचन्द्रिका के लिए चलेंगे।'

विधि की कैसी विडम्बना थी, आशा की ये धूमिल किरणे भी उससे छीन ली गयीं। उसका जीवन अन्धकार पूर्ण हो गया। समाचार मिला, अनिल जिस जहाज को ले कर गया था, शत्रुओं ने उसे एकदम नष्ट कर दिया है। उसमें से कोई नहीं बच सका।

मासूम चेहरा, श्वेत कुन्द की पपड़ियों में लिप्त शरीर, आभूषण विहीन, अंग-प्रत्यंग, सास-ससुर से देखा नहीं जाता। सास उसकी आंख बचाकर बिलख-बिलख कर रोती, ससुर दीर्घ श्वास लेते, करुण आहें भरते। आखिर बहुत हिम्मत कर पत्नी से राय ले कर अपनी इच्छा प्रकट की। बोले – ‘बहू, तुम्हारी खुद की शांति के लिए, हमारी शांति के लिए, अनिल की शांति के लिए, मैं तुम्हारा हाथ किसी दूसरे के हाथ पर रखना चाहता हूँ।‘

सुधा ने सुन कर कान बंद कर लिए। ‘नहीं, नहीं, मुझसे ऐसा नहीं होगा, नहीं होगा।‘ चिल्लाती हुई वह पागल की तरह अपने कमरे में चली गयी और बिस्तरे पर पड़कर बिलख- बिलख कर रोने लगी। कुछ दिनों बाद सास ने फिर समझाया, पर सुधा नहीं मानी। चौधरीजी इस भयंकर मानसिक अशांति के कारण शैय्याशायी हो गए। हालत खराब होती गई। सुधा सब समझती, पर दूसरी शादी किसी और से? सोच कर सुधा सिहर उठती। पर ससुर की बहुत बुरी हालत देख कर वह अनिच्छा से ही राज़ी हो गई। बोली - पिताजी, आप ठीक हो जाइये, फिर आप जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा।'

'क्या कहा बहू तुमने? तुमने मेरी बात मान ली?’ ख़ुशी से उनकी आँखें चमक उठीं। ‘बेटी, अब में अच्छा हो जाऊंगा जरूर अच्छा हो जाऊंगा।‘

शादी की तैयारी हो रही है, आज ही उसकी शादी है। सब लोग काम में व्यस्त हैं। सुधा सबेरे से आज जो खिड़की पकड़ कर खड़ी है, वहां से हिली नहीं। सहेलियों ने उसे सजाया, फिर से सारे गहने पहनाये, हाथों में मेहँदी लगायी। वह जा कर फिर उस खिड़की के पास खड़ी हो गई। एक सहेली ने कहा, सुधा, इधर तो आ, जुड़े में फूल गूंथना है, दूसरी ने कहा, अरे भाई, उसे परेशान क्यों करती हो? वह अपने दूल्हे को देखने के लिए खड़ी है।

'दूल्हा दूल्हा, कहां है दूल्हा?' वह चिल्लाती हुई दौड़ कर आगे बढ़ी, दीवाल से धक्का खा कर गिर गई। सर में गहरी चोट लगी, खून की धारा बहने लगी। वह चेतना खो बैठी। दिन ढला, रात हुई।

इसी समय, इसी संधि बेला में रवि की धूमिल लोहित रंगारंगी किरणों की रौशनी को अपना पथ-प्रदर्शक बना कर अनिल चला गया था। आज उसकी सुंदर-सी दुल्हन अपना पूर्ण श्रृंगार कर हाथों में मेहँदी रचाकर अपनी अंतिम इच्छा पूर्ण करने पति के पास मधुचन्द्रिका के लिए जा रही है। मस्तक से निकलने वाली खून की धारा उसके सुहाग को बधाई दे रही है।