ढोल : हिंदी लोक-कथा

Dhol : Folktale in Hindi

किसी ग़रीब औरत के एक बेटा था। पैसे वालों के यहाँ चौका-बासन करके वह अपना और बेटे का पेट पालती थी। बेटे को वह कभी ढंग के कपड़े नहीं पहना सकी और न ही कभी उसके लिए खिलौना ला सकी। एक दिन चौका-बासन के बदले मिले अनाज को हाट में बेचने जाते समय उसने बेटे से पूछा, “बोल, तेरे लिए हाट से क्या लाऊँ?” बेटे ने झट जवाब दिया, “ढोल! माँ, मेरे लिए एक ढोल ले आना!”

माँ जानती थी कि उसके पास कभी इतने पैसे नहीं होंगे कि वह बेटे के लिए ढोल ख़रीद सके। वह हाट गई, वहाँ अनाज बेचा और उन पैसों से कुछ बेसन और नमक ख़रीदा। उसे दुख था कि वह बेटे के लिए कुछ नहीं ला पाई। वापस आते हुए रास्ते में उसे लकड़ी का एक सलौना टुकड़ा दिखा। उसने उसे उठा लिया और आकर बेटे को दे दिया। बेटे के कुछ समझ में नहीं आया कि उसका वह क्या करे।

फिर भी वह खेलने के लिए गया तो उसे अपने साथ ले गया। एक बुढ़िया चूल्हे में उपले जलाने की कोशिश कर रही थी, पर सीले उपलों ने आग नहीं पकड़ी। चारों तरफ़ धुआँ ही धुआँ हो गया। धुएँ से बुढ़िया की आँखों में पानी आ गया। लड़का रुका और पूछा कि वह रो क्यों रही है। बुढ़िया ने कहा कि चूल्हा नहीं जल रहा है। चूल्हा नहीं जलेगा तो वह रोटी कैसे बनाएगी! लड़के ने कहा, “मेरे पास लकड़ी का टुकड़ा है। चाहो तो उससे आग जला लो!” बुढ़िया बहुत ख़ुश हुई। उसने चूल्हा जलाया, रोटियाँ बनाईं और एक रोटी लड़के को दी।

रोटी लेकर वह चल पड़ा। चलते-चलते उसे एक कुम्हारिन मिली। उसका बच्चा मिट्टी में लोटते हुए जोर-जोर से रो रहा था। लड़का रुका और पूछा कि वह रो क्यों रहा है। कुम्हारिन ने कहा कि वह भूखा है और घर में खाने को कुछ नहीं है। लड़के ने अपनी रोटी बच्चे को दे दी। बच्चा चुप हो गया और बगर-बगर खाने लगा। कुम्हारिन ने उसका बहुत गुन माना और एक घड़ा दिया।

वह आगे बढ़ा। चलते-चलते वह नदी पर पहुँचा। वहाँ उसने धोबी और धोबिन को झगड़ते हुए देखा। लड़के ने रुककर धोबी से चिल्लाने और धोबिन को पीटने का कारण पूछा। धोबी ने कहा, “पीटूँ नहीं तो क्या करूँ? ससुरी ने घड़ा फोड़ दिया! अब मैं कपड़े किस में उबालूँ?” लड़के ने कहा, “झगड़ा मत करो! मेरा घड़ा ले लो!” इतना बड़ा घड़ा पाकर धोबी ख़ुश हो गया। बदले में उसने लड़के को एक कोट दिया।

कोट लेकर लड़का चल पड़ा। चलते-चलते वह एक पुल पर पहुँचा। वहाँ उसने एक आदमी को ठंड से ठिठुरते हुए देखा। बेचारे के शरीर पर कुर्ता तक नहीं था। लड़के ने उससे पूछा कि उसका कुर्ता कहाँ गया। आदमी ने बताया, “मैं इस घोड़े पर बैठकर शहर आ रहा था। रास्ते में डाकुओं ने सब छीन लिया। और तो और, कुर्ता तक उतरवा लिया।” लड़के ने कहा, “चिंता मत करो! लो, यह कोट पहन लो!” आदमी ने कोट लेते हुए कहा, “तुम बहुत भले हो। मैं तुम्हें यह घोड़ा भेंट करता हूँ।”

लड़के ने घोड़ा ले लिया। थोड़ा आगे उसने एक बारात को देखा। लेकिन दूल्हा, बराती, गाने-बजाने वाले सब मुँह लटकाए हुए पेड़ के नीचे बैठे थे। लड़के ने पूछा कि वे उदास क्यों हैं। दूल्हे के पिता ने कहा, “हमें लड़की वालों के यहाँ जाना है, पर दूल्हे के लिए घोड़ा नहीं है। जो घोड़ा लेने गया वह अभी तक लौटा नहीं। दूल्हा पैदल तो चलने से रहा! पहले ही बहुत देर हो गई है। कहीं विवाह का मुहूर्त न निकल जाए!” लड़के ने उन्हें अपना घोड़ा दे दिया। सबकी बाँछें खिल गईं। दूल्हे ने लड़के से पूछा कि वह उसके लिए क्या कर सकता है। लड़के ने कहा, “कुछ ख़ास नहीं। आप मुझे यह ढोल दिला दें!” दूल्हे ने ढोल बजाने वाले से उसे ढोल दिला दिया।

लड़का भागा-भागा घर पहुँचा और ढोल बजाते हुए माँ को बताया कि उसकी दी लकड़ी से उसने ढोल कैसे प्राप्त किया।

(साभार : भारत की लोक कथाएँ, संपादक : ए. के. रामानुजन)

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