धर्म और सामाजिक परिवर्तन : हरिशंकर परसाई
Dharm Aur Samajik Parivartna : Harishankar Parsai
बुद्ध की मूल चिन्ता दुःख थी। दुःख से मुक्ति मनुष्य को कैसे मिले ? जो सभाज उन्हें मिला उसमें दो वर्ग स्पष्ट थे। वे जो धन सम्पन्न थे और वे असंख्य जो वंचित और शोषित थे । समाज में एक ओर अति भोग था और दूसरी ओर अति त्याग था । स्वेच्छा से सब कुछ त्याग कर संन्यास ले लेना और अपने को तरह-तरह 'के दुःख देना भी 'साधना' माना जाता था। बुद्ध ने दुःख के कारण खोजे । इनमें एक कारण संचय भी है। कुछ लोगों द्वारा संचय, असंख्य लोगों को वंचित करता है और वे दुःखी होते हैं। इस अतिरेकी समाज-व्यवस्था में अत्याचार, शोषण, दुःख के शिकार असंख्य लोग होते हैं । वैदिक कर्मकाण्ड ने जो पुरोहित वर्ग पैदा किया था, वह भी शोषण करता था और शोषकों की मदद करता था । बुद्ध ने इस समाज व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था और धार्मिक व्यवस्था से विद्रोह किया । बुद्ध ने कहा - आचरण के दोनों अतिवाद गलत हैं - असीमित भोग भी और असीमित त्याग भी । उत्तम मार्ग है - मध्यम मार्ग, न अति भोग, न अति त्याग । अति भोग से तुम इन्द्रियों की बढ़ती जाती इच्छाओं की पूर्ति करते हो, जो कभी सन्तुष्ट नहीं होतीं । यही अति भोग तुम्हें दुःखी करता है और तुम जो स्वेच्छा से सर्वस्व त्याग संन्यास लेकर शरीर को दुःख देते हो, इन्द्रियों का दमन करते हो, और समझते हो तुम्हें 'ब्रह्म' मिल जाएगा तो ब्रह्म नहीं मिलेगा । इसलिए मध्यम मार्ग ग्रहण करो । बुद्ध का विद्रोह धर्म, मनुष्य जाति की मुक्ति और सुख 'के लिए है । कैसी व्यवस्था की कल्पना बुद्ध करते थे ? बुद्ध की कल्पना. समाजवाद के निकट जाती है । यह व्यवस्था ईसा के 'ईश्वरी राज्य' सरीखी है । ईसा ने कहा- दीन धन्य हैं क्योंकि वे ही ईश्वरी राज्य के अधिकारी होंगे ।
बुद्ध के बाद उनके अनुयायियों ने इस शुद्ध जागतिक दुःख को, जो समाज-व्यवस्था बदलने से मिटता, आध्यात्मिक दुःख बना दिया। वे तरह-तरह के कर्मकाण्डों में भी लिप्त हो गये । अवतारवाद ग्रहण कर लिया और 'बोधिसत्व के अवतारों की कथाएँ बन गईं। वे तान्त्रिक हो गये । भ्रष्ट साधनाएं करने लगे । मनुष्य के दुःख को मिटाने के लिए व्यवस्था परिवर्तन की बात रह गई । अशोक ने अवश्य जनकल्याणकारी कार्य किये । उसने बुद्ध के सच्चे उपदेशों का प्रचार भी बहुत किया। बुद्ध का प्रभाव बहुत पड़ा। परोक्ष रूप से उनके विचारों ने चिन्तन और आचरण को बहुत कुछ दिया। बुद्ध का प्रभाव दुनिया में अभी भी है । नेहरू द्वारा प्रतिपादित 'पंचशील' का सिद्धान्त बौद्ध धर्म से आया है ।
धर्मों की मूल चिन्ता मनुष्यों का दुःख मिटाना और उन्हें बेहतर मनुष्य बनाना होती है । फिलिस्तीनी समाज में दासों और दलितों के दुःख से द्रवित हुए थे ईसा । उनका धर्म गरीबों, दलितों, दासों की मुक्ति के लिए और उनके सुख के लिए है। आरम्भिक दौर में इस धर्म ने यह कार्य किया । पर आगे चलकर ईसाई धर्म पर रोमन साम्राज्यवादियों ने कब्जा किया और धर्म यूरोप के सामन्तों के हाथों में चला गया। तब यह मुक्ति का धर्म नहीं दासता और दमन का धर्म हो गया। इसी के अनुरूप उच्चस्तरीय पुरोहित वर्ग बन गया । यह पुरोहित वर्ग शक्तिशाली था । पुरोहितों ने सामान्य भोले आदमियों के विश्वासों का बहुत अनुचित लाभ उठाया । गोरे पादरी अत्याचार की प्रतिमूर्ति हो गये । इधर धन लेकर स्वर्ग में सुख-साधनों की बुकिंग करने लगे । मार्टिन लूथर ने तब विद्रोह किया था, जिसने आन्दोलन का रूप ले लिया । ईसाई धर्म में करुणा, दया, प्रेम, क्षमा, परोपकार का सबसे अधिक महत्त्व है । पर इस धर्म का पुरोहित वर्गं यथास्थितिवादी, मानव-विरोधी और शोषक हो गया । ईसाई धर्म यूरोप के साम्राज्यवादियों का सहायक हो गया। फिर भी इस धर्म में मानव सेवा की भावना बची है और मदर टेरेसा जैसे व्यक्तित्व यह काम करते हैं।
इस्लाम का जन्म भी सामाजिक परिवर्तन की जरूरत से हुआ। पैगम्बर मोहम्मद ने जो अरब समाज पाया वह भ्रष्ट था । मूर्तिपूजा होती थी और लोगों को लूटा जाता था। सूदखोरी होती थी। नैतिक मूल्यों का पतन हो चुका था । शोषण होता था । खूब धनी व्यापारी और सूदखोर थे और असंख्य लोग गरीब, शोषित थे । मोहम्मद ने इस व्यवस्था और इसे संचालित करने वाली शक्तियों के खिलाफ विद्रोह किया। अगर शायर मोहम्मद इकबाल कहते थे कि इस्लाम में लोकतन्त्र और समाजवाद दोनों हैं, तो वे सही कहते थे। पैगम्बर ने नई समाज-व्यवस्था और अर्थ व्यवस्था दी । गाँव या समूह का प्रधान 'ढाई' कहलाता था । वह सबको बराबर चीजों का वितरण करता था। एक तरह का 'कम्यून' था । खलीफा को भी वही मिलता था, जो समाज के अन्य लोगों को । खलीफा की भी सार्वजनिक आलोचना होती थी और उससे कैफियत भी माँगी जाती थी । खलीफा उमर के बारे में ऐसी घटनाएँ मशहूर हैं। हर मुसलमान को 'जकात' देना लाजिमी है। 'जकात' आयकर है। यह आमदनी के हिसाब से लिया जाता है। सख्ती से लिया जाता है। यह धन गरीबों में वितरण के लिए होता है । मौलाना अबुल आजार ने न्यायपूर्ण अर्थ व्यवस्था में 'जकात' के महत्त्व पर बहुत लिखा है । वे तो यहाँ तक कहते हैं कि इस अर्थ व्यवस्था की तुलना समाजवादी व्यवस्था से करें तो कोई हर्ज नहीं। भोपाल के मौलाना बरकतुल्ला भोपाली काबुल में स्थापित स्वतन्त्र भारत की सरकार के प्रधानमन्त्री थे । यह इस सदी के आरंम्भ की बात है। वे रूस गये थे। लेनिन से मिले थे । लेनिन उनसे कहा कि रूसी गणतन्त्र में जो मुस्लिम राज्य हैं, उन्हें आप समझाइए कि समाजवाद इस्लाम के अनुकूल है। मौलाना ने दौरे किये और समझाया कि समाजवाद इस्लाम विरोधी नहीं है ।
इस्लाम की यह न्यायपूर्ण अर्थ-व्यवस्था कुल साठ साल रही - चार खलीफाओं के काल तक । तब इस्लाम सामान्य जन के हाथ में था । फिर वही हुआ जो ईसाई धर्म के साथ हुआ। ईसाई धर्म पर रोमन साम्राज्यवादियों ने कब्जा कर लिया था और धर्म के मूल तत्त्वों को विफल कर दिया था । इस्लाम पर सामन्तों ने कब्जा कर लिया और 'जकात' का पैसा गरीबों के पास पहुँचने के बजाय सामन्तों के खजानों में और इमामों की तिजोड़ी में पहुंचने लगा । सामन्तों ने साम्राज्य बनाने के लिए इस्लाम का उपयोग किया।
हर धर्म के साथ यह दुर्घटना हुई है। न्यायपूर्ण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के लिए, शोषणहीन समाज-परिवर्तन के लिए धर्म होता है । पर उस पर शक्ति- सम्पन्न वर्ग कब्जा कर लेता है - सामन्त, साम्राज्यवादी, व्यापारी, पूँजीवादी । ये सामाजिक परिवर्तन को रोकते हैं। धर्म के जन-कल्याणकारी तत्त्वों को छोड़ देते हैं और अन्यायपूर्ण मानव-विरोधी व्यवस्था चलाते हैं ।
धर्म संस्कृति का एक प्रमुख तत्त्व है । सब धर्मों में मनुष्य के सुख, सन्तोष, प्रगति और आत्मा के उत्थान के तत्त्व होते हैं। दया, करुणा, न्याय, सदाचार आदि सब धर्म सिखाते हैं। कटुता, घृणा, द्वेष कोई नहीं सिखाता । अहंकार का सब धर्म निषेध करते हैं। पैगम्बर मुहम्मद ने कहा- जो अल्लाह को नहीं मानते, उन्हें तंग मत करो, उनके पीछे मत पड़ो। ऐसा करने से वे अल्लाह के और खिलाफ हो जाएँगे । अशोक के एक शिलालेख में लिखा है- जो मनुष्य अपने धार्मिक सम्प्रदाय के मोह में पड़कर, उसकी गौरव वृद्धि की इच्छा से दूसरे धर्म-सम्प्रदायों की निन्दा करता है, और अपने धर्म-सम्प्रदाय के प्रति समादर प्रगट करता है, वह वास्तव में अपने आचरण से अपने ही धर्म-सम्प्रदाय को हानि पहुंचाता है। इसलिए विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के बीच मेल-मिलाप वांछित है । वास्तविक धर्म-भावना से प्रेरित सूफी संतों को भी मानते हैं, और राम तथा कृष्ण को भी। वे राम और कृष्ण को भी पेगम्बर मानते हैं । वे राम और कृष्ण के भजन और कव्वालियां गाते हैं ।
दूसरे के धर्म-विश्वास के प्रति सहनशीलता और सद्भाव सब धर्म सिखाते हैं। धर्म मूल रूप में आत्मा में सौन्दर्य, प्रेम, उदात्त भावनाएं, कोमल संवेदनाएं जगाता है। धर्म संस्कृति वा एक प्रमुख तत्त्व है । कला, साहित्य, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य, स्थापत्य, चित्रकला आदि को धर्मों ने बहुत प्रोत्साहन दिया । पश्चिम के प्राचीन चित्रों में सबसे उत्तम वे हैं, जो ईसा के जीवन प्रसंगों तथा बाइबिल की कथाओं पर आधारित हैं। भारत में ही देखें । धर्म-भावनाओं से बनाये गये मन्दिर कितने सुन्दर, भव्य और कलात्मक हैं । देवी-देवताओं के चित्र कितने सुन्दर हैं । बुद्ध और महावीर को कितने तरह की कितनी कलात्मक मूर्तियाँ हैं । अजन्ता में कलाकारों ने सनातन धर्म, बौद्ध धर्म और जैन धर्म से प्रेरित होकर गुफाओं में कितने सुन्दर चित्र अंकित किये हैं. जिनके रंग अभी तक फीके नहीं हुए । धर्म ने भक्ति संगीत को जन्म दिया। भक्ति संगीत लगभग हर धर्म में है और उच्च कोटि का है । इस्लाम में संगीत वर्जित माना जाता है, पर प्रेममार्गी सूफी कैसे भावमय गीत और फटकलियां रखते हैं। भक्ति भावना से प्रेरित होकर कितना अधिक और कितनी उच्चकोटि का साहित्य हर भाषा में लिखा गया है । सूरदास और तुलसीदास का धर्म-प्रेरित काव्य कितना अद्भुत है । हमारे यहां एक पूरा काल-खण्ड रहा है, जिसमें सैकड़ों कवियों ने भक्ति काव्य लिखा । मन्दिरों में नृत्य का विकास हुआ। वास्तव में नृत्य का आरम्भ ही देवता को प्रसन्न करने के लिए हुआ । इन कलाओं से, साहित्य से मनुष्य की आत्मा का उदात्तीकरण होता है, भावनाओं का परिष्कार होता है, संवेदना गहरी और व्यापक होती है ।
समाज गतिशील होता है। नई-नई वास्तविकताएं आती हैं। नये विचार आते हैं। नई समस्याएँ और नई चुनौतियाँ आती हैं। धर्म अगर नये विचार ग्रहण कर यदि रचनात्मक ढंग से इन नई वास्तविकताओं को स्वीकार करता है, चुनौतियों का रचनात्मक समाधान करता है और इस तरह समाज को बदलने वाले विचारों और ताकतों से सहयोग करता है, तो धर्म सार्थक और जन-कल्याण- कारी है । इतिहास धर्म के लिए ठहरता नहीं है। यदि धर्म की दृष्टि में साधारण जन नहीं है, उसकी आशाओं-आकांक्षाओं और परिवर्तन की इच्छा से सहानुभूति नहीं है, तो धर्म जड़ हो जाता है और मनुष्य की प्रगति के रास्ते में दीवार बन जाता है। पहले कई बार हो चुका है कि इतिहास धर्म और उस जाति को कुचलते हुए आगे बढ़ गया है और वह जाति पिछड़ गई है।
इस तरह जब धर्म समाज की गतिशील धाराओं से दूर हो जाता है, तब वह सिर्फ कर्मकाण्डों, रूढ़ियों, सड़ी परम्पराओं, अर्थहीन मान्यताओं का समुच्चय हो जाता है । धर्म अपने समय से पीछे हो जाता है। वह हर उस चीज का, विचार का आन्दोलन का विरोध करता है, जो समाज को आगे बढ़ाते हैं। धर्म के नाम पर सम्प्रदाय बन जाते हैं। इनके नेता सम्प्रदाय के लोगों को परस्पर द्वेष करना सिखाते हैं । सम्प्रदायवाद का उपयोग निहित स्वार्थी अपने लाभ के लिए करते हैं। राजनीतिकर्मी धर्म पर बने सम्प्रदायवाद को ले लेते हैं और सम्प्रदायों में संघर्ष कराते हैं। ऐसे में धर्म का रूप साम्प्रदायिक घृणा का हो जाता है ।
धर्म की सही भूमिका क्या हो, यह स्वामी विवेकानन्द ने बताया । और अब बता रहे हैं लेटिन अमेरिका और अफ्रीका के पादरी 'लिबरेशन थियोलॉजी' ( मुक्ति की धार्मिकता) मानते हैं । विवेकानंद सन्यासी थे । अद्वैतवादी थे । लेकिन समाज चेतना और विश्व चेतना उनमें थी। उन्होंने अंगरेज साम्राज्य- वादियों द्वारा भारत की जनता के शोषण के खिलाफ आबाज उठाई। उन्होंने इस शोषण के तरीकों का अध्ययन किया और उन्हें उजागर किया। उन्होंने कहा कि भारत में साम्राज्यवाद उच्चवर्गीय संस्कृतिविहीन लोगों, ऐसे लोगों जिनकी जड़ें कहीं नहीं हैं, के कन्धों पर टिका है। विवेकानन्द न केवल भारत बल्कि विश्व साम्राज्यवाद के विरोधी थे । अमेरिका में नीग्रो लोगों की दुर्दशा पर उन्होंने गोरे अमरीकियों को वहीं शिकागो में लताड़ा था। वे वर्ण व्यवस्था के खिलाफ थे। उनकी सहानुभूति निचले वर्ग के साथ थी । वे कहते थे -- उच्च वर्ग और वर्ण के लोगों ने सदियों से समाज पर कब्जा कर रखा है। इनका कब्जा कभी का खत्म हो जाना था। आगामी युग शूद्रों की सत्ता का है। उनका मतलब है, सर्वहारा वर्ग । युवकों का उन्होंने आह्वान किया कि शूद्रों को शिक्षित करो। शोषितों और दलितों को शिक्षित करो। उनमें चेतना और अधिकार- भावना जगाओ । ये संगठित होंगे और उच्च वर्ग और वर्ण की सत्ता को खत्म कर देंगे । ये शासक और समाज के नियंता होंगे और सामाजिक व्यवस्था बदल देंगे । विवेकानन्द साम्राज्यवाद और शोषण दोनों से मुक्ति चाहते थे । बंगाल के देशभक्त तरुणों का मातृभूति की मुक्ति के लिए क्रान्तिकारी आन्दो- न की प्रेरणा विवेकानन्द थे । वे एक विश्व धर्म, मानव धर्म मानते थे। कहते थे - विभिन्न धर्म और पंथ धाराएँ हैं, जो विश्व धर्मं के सागर में समा जायेंगी ।
ईसाई धर्माचार्यों में से बहुतेरों ने 'लिबरेशन थियालॉजी' (मुक्ति की धार्मिकता) स्वीकारी है । यह लेटिन अमेरिका में शुरू हुई। अफ्रीका के अनेक पादरी 'आर्कबिशप' के पदधारी भी इस 'लिबरेशन थियोलॉजी' को मानते हैं और संघर्ष करते हैं । ये साम्राज्यवाद से मुक्ति, रंगभेद से मुक्ति के लिए चल रहे संघर्ष में अगुआई करते हैं । ये अमेरिका द्वारा समर्पित तानाशाहों के अत्याचार के खिलाफ भी लड़ते हैं । इनमें कई वामपंथी बिचारधारा वाले हैं और कई राष्ट्रवादी तथा सामाजिक न्याय के विश्वासी । दक्षिण अफ्रीका के आर्कबिशप रेवरेण्ड डेसमण्ड टुटु, जो नोबल पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं, इस आन्दोलन में अगुआ हैं। नेलसन मंडेला जब जेल से रिहा हुए, तब डेसमंड टुटु ने उनकी पहली पत्रवार्ता अपने निबास पर चर्च के अहाते में आयोजित की। इन पर जब आक्षेप होता है, तब ये जवाब देते हैं - हम वही कर रहे हैं जो बाइबिल में लिखा है । हम जीसस के आदर्शो का ही पालन कर रहे हैं।
सामाजिक प्रगति और परिवर्तन के लिए धर्म को इतना सक्षम होना चाहिए कि वह यह भूमिका निभा सके ।