धर्मबुद्धि : (आंध्र प्रदेश/तेलंगाना) की लोक-कथा

Dharmbuddhi : Lok-Katha (Andhra Pradesh/Telangana)

मणिपुर में ‘वृद्ध’ नामक एक शिल्पी रहता था। जैसा नाम है, वैसा ही वह अस्सी वर्ष का था। पत्नी और पोते के साथ वह एक झोंपड़ी में रहा करता था। ‘वृद्ध’ के पोते का नाम ‘धर्म’ था। वह आठ साल का था। बचपन में ही उसके माता-पिता गुजर गए। तब से दादा-दादी ही उसके माता-पिता बने। धर्म दुबला और कमजोर था, साथी बच्चों के साथ वह खेलता नहीं था। हमेशा दादा के साथ ही रहता था। दादा के साथ पहाड़ों पर घूमता था। शिल्प बनाने के लिए दादा जब पत्थरों को साफ कर, उन्हें टुकड़े-टुकड़े करता रहता था, तब वहीं कहीं आस-पास घूमता रहता था। छेनी और हथौड़ा लेकर छोटी-छोटी गुड़ियाँ तराशता रहता था। ‘धर्म’ मिट्ठी से भी गुड़िया बनाता था। उन गुड़ियों को दादा को दिखाकर पूछता था कि कैसी हैं? बढ़िया है, कहते हुए बेहद खुश होकर दादा गाल चूम लेता तो छिह-छिह, गीला है, कहकर पोंछ लेता था।

कभी-न-कभी मेरा पोता बहुत बड़ा शिल्पकार बनेगा। महाराज बनेगा। ‘वृद्ध’ कहा करते थे। उसकी पत्नी वैसी बातों को सुनकर आश्चर्यचकित होती थी और यों पूछती थी—

“बड़ा शिल्पकार बनेगा, कह रहे हो। ठीक ही हैं। जाति के पेशे होने से बनेगा तो बनेगा, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, लेकिन बताओ, महाराज कैसे बनेगा?”

“समय साथ देने से बनेगा,” वृद्ध कहा करता था। “तब भी यह महाराज मेरे गोद में ही लेटेगा।” कहकर, दादी दूर पर लेटे हुए ‘धर्म’ को पास में लेकर हँसती थी। उसे सुलाने के लिए गीत गाती थी। कहानियाँ सुनाती थी। ‘धर्म’ कहानियाँ सुनते समय कई सुंदर दृश्यों की कल्पना करता था। उन दृश्यों को शिल्पों के रूप में तराशना चाहता था। वह सुबह दादा के साथ पहाड़ों पर पहुँचता था और उसी काम पर लग जाता था। क्षण मात्र के लिए भी विश्राम नहीं लेता था। झटपट गुड़ियों को तराशकर दादा को दिखाता था। वे शबाश बोलते थे।

भुवनेश, मणिपुरम का शासक राजा था। उसे इकलौती बेटी थी। उस लड़की का नाम ‘बुद्धि’ है। वह छह साल की लड़की थी।

राजा हर साल बुद्धि के जन्मदिन के संदर्भ में दावत देता था। पिछले पाँच सालों से बड़े पैमाने पर प्रीतभोज चल रहा था। उस प्रीतभोज के लिए मंत्री एवं सामंत राजाओं को न्योता देकर आनंदित होना राजा की आदत थी। इस बार भी राजा ने प्रीतिभोज का आयोजन किया। बुद्धि के जन्मदिन को वह त्योहार जैसा मना रहा था।

रसोइयों को सहयोग देने के लिए पिछले पाँच सालों से वृद्ध भी राजभवन हो आ रहे थे। वृद्ध ने मात्र शिल्पी के रूप में ही नहीं, रसोइया के रूप में भी नाम कमाया था। थोड़ा-बहुत कमाने के लिए रसोई का काम भी अपना रहा था। शरीर सहयोग न देने पर भी पत्नी और पोते के पोषण के लिए प्रयास कर रहा था। पोते के साथ वृद्ध राजभवन में पहुँचा था। छोकरा ‘धर्म’ रसोई में सहयोग तो नहीं दे सकता, लेकिन थाली साफ करना, बरतन माँजना, काटे गई सब्जियों को रसोइया को देना, पकाए गए पकवानों को ढंग से मेज पर रखना आदि छोटे-मोटे काम करेगा, थोड़ी सी सहायता मिलेगी, इसी उद्देश्य से वृद्ध भी उसे साथ में ले आते थे। धर्म ढंग से काम करता था।

खाना पकाया गया। चौपाल की मेज पर ‘धर्म’ थालियाँ ढंग से रख रहा था। मेज इस छोर से उस छोर तक थी। इस ओर सौ उस ओर सौ बैठकर खाना खाने की सुविधा है। एक-एक थाली को ढंग से मेज पर रखते समय धर्म ने एक गुड़ियों को देखा। बाघ की गुड़िया, पुरानी गुड़िया। संगमरकर की गुड़िया। अच्छी तो है, लेकिन दाढ़ टूट गई। उसे अच्छा नहीं लगा। दाढ़ टूटा हुआ बाघ बिल्ली के बराबर है, यों सोचकर धर्म हँस पड़ा। राजकुमारी बुद्धि ने हँस रहे धर्म को देखा।

“क्यों हँस रहे हो।” बुद्धि ने पूछा। उत्तर देने के पहले धर्म ने बुद्धि को आँखें फाड़-फाड़कर देखा। मन-ही-मन सोचा था कि राजकुमारी गुड़िया की जैसी सुंदर है, “आपके बाघ की गुड़िया बिल्कुल ठीक नहीं है।” धर्म ने कहा। “अच्छी नहीं है तो यहाँ क्यों? निकालकर फेंक देंगे।” बुद्धि ने कहा। मेज पर की गुड़िया को खींचने का प्रयास किया। वृद्ध ने उसे देखा, उसे मना करते हुए वृद्ध ने दौड़ते हुए वहाँ पहुँच गया। सबके मनाने पर भी बुद्धि नहीं मानी। एक ओर बुद्धि उस गुड़िया को नीचे खींचने का प्रयास कर रही है तो दूसरी ओर उस गुड़िया को मजबूत रूप से पकड़ने का प्रयास कर रहा था। ताकि वह गुड़िया नीचे न गिरे, उसकी पकड़ ढीली हो गई। बुद्धि का बल अधिक था। गुड़िया नीचे गिर गई। टुकड़े-टुकड़े हो गई। टूटी हुई गुड़िया को देखकर वृद्ध परेशान हुआ। गुड़िया टूटने का कारण राजकुमारी है, यों कहने से राजा नहीं मानेगा। अपनी बेटी को दंड नहीं देगा। वृद्धा ने सोचा कि सामने दिखाई देनेवाला पोता और मुझे ही दंडित करेगा, धर्म रोते हुए दादा को देखकर दुःखित हुआ।

“क्यों रो रहे हो दादा! बाघ से बढ़िया गुड़िया को तराशकर यहाँ रखेंगे।” वृद्ध ने कहा, “तत्काल कौन तराशेगा?” बुद्धि ने पूछा। “मैं तराशूँगा।” धर्मा ने कहा। “तब मेरे चित्र को तराशना?” राजकुमारी ने अनुरोध किया।

“चलो।” धर्म ने कहा। राजकुमारी का हाथ पकड़ा। दादा ने मना किया। नहीं बेटा...नहीं...राजा के देखने पर गड़बड़ हो जाएगी, यों दादा के कितना मनाने पर भी माना नहीं। वह रसोईघर के पीछे बुद्धि को ले गया। रसोईघर से राजकुमारी को धर्म का ले जाना रसोइयों ने देखा। वे, ‘क्या हुआ, क्या हुआ?’ यों पूछते हुए वृद्ध को घेर लिया। जो हुआ था, उसे वृद्ध ने स्पष्ट किया।

“राजकुमारी की प्रतिमा तत्काल धर्म तराश सकता है क्या? असंभव, सभी ने कहा।

“तुम तराशोगे तो अच्छा रहेगा। सोचो, उधर सभी प्रीतिभोज के लिए सन्नद्ध हो रहे हैं। राजा आने के समय में वहाँ कोई गुड़िया नहीं होने से प्राण संकट की स्थिति होगी।” वृद्ध को सभी ने चेताया।

“धर्म तराशेगा या नहीं तराश सकेगा, मैं नहीं कह सकता, लेकिन मैं तत्काल किसी भी प्रकार की गुड़िया को तराश नहीं सकता हूँ। मेरे हाथ-पैर नहीं चल रहे हैं।” काँपते हुए वृद्ध ने कहा। उसने दीवार से सटकर आँखें मूँद लीं।

रसोईघर के पीछे टूटा हुआ एक संगमरमर का स्तंभ दो टुकड़ों में पड़ा हुआ। धर्म ने उसमें से एक टुकड़ा लिया, उसे सामने खड़ा कर दिया। पेड़ की छाँव में बैठने के लिए बुद्धि से कहा। वह बैठी थी। बुद्धि को देखते हुए तेजी से शिल्प तराशने लगा।

विशाल ललाट, बड़ी-बड़ी आँखें। कली जैसी नाक, लाल रंग के छोटे होंठ, जैसे गोल चंद्रबिंब सा बुद्धि का मुख है। ठीक वैसे ही मुख को धर्मा तराशते समय वृद्ध सहित सभी रसोइए एकटक देखने लगे। बुद्धि का सुंदर शिल्प आधे घंटे में तैयार हो गया। सभी ने कहा कि बिल्कुल बुद्धि जैसा ही है। उस लड़की की दुपट्टे की सिलवटें भी धर्मा ने बखूबी तराशी थीं।

“काफी बढ़िया है।” वह अपनी प्रतिमा को स्वयं देखकर फूली न समाई, उसे चूम लिया। इतने में सखियों उसे ढूँढ़ते हुए वहाँ पहुँचने पर उनके साथ अपने को अलंकृत करने के लिए ले गईं। चौखटे की मेज पर पहले जो प्रतिमा थी, वहीं पर सावधानी से बुद्धि की प्रतिमा रखी गई। दावत का इंतजाम पूरा हुआ। मंत्री एवं सामंतों के साथ भुवनेश भी वहाँ पहुँच गया। मेज पर की प्रतिमा को उसके साथ सभी ने देखा। खूब अच्छा है, खूब अच्छा है, यों कहकर सभी सराहने लगे। सचमुच राजकुमारी के बैठने के जैसा है। दुपट्टे की सिलवटें भी तराशना अद्भुत है। सभी ने कहा।

इस प्रतिमा को किसने तराशा। कब तराशा, पूछ लिया। जान लिया कि वृद्ध के पोते ने तराशा था।

“उन दोनों को प्रवेश कराओ”, भुवनेश ने आज्ञा जारी की। धर्म काँप रहे दादा के साथ, राजा के पास पहुँच गया।

“तुम्हारा नाम?” राजा ने पूछा।

“धर्म।”

“तुम ही हो, जिसने इस प्रतिमा को तराशा?”

“जी, महाराज।”

“इतने छुटपन में ही तुम इतनी महान् विद्या को सीख गए, आपके गुरु कौन हैं?” भुवनेश ने पूछा।

“यही हैं! मेरे दादा! अपने दादा के पास ही प्रतिमाओं को कैसे तराशना है , सीख लिया । मुझसे भी बढ़कर मेरे दादा और अच्छी तरह प्रतिमाओं को तराशते हैं, महाराज।" धर्मा ने कहा।

"नहीं, धर्म ही अच्छी तरह तराशता है।" पिता के पास आकर हाथ पकड़कर खड़ी हुई बुद्धि ने कहा और धर्मा को देखकर हँसी।

"जन्मदिन के संदर्भ में राजकुमारी को अद्भुत उपहार दिया। क्या तुम जानते हो, इसके प्रतिफल में मैं तुम्हें क्या उपहार देने जा रहा हूँ?" भुवनेश ने पूछा।

सभी उत्कंठा से देख रहे थे कि महाराज क्या देने जा रहा है ?

"मैं तो महाराज हूँ, मेरे साथ, मेरे बगल में बैठकर प्रीतिभोज करो। यही है आज तुझे, जो उपहार देना चाहता हूँ।"

बढ़िया उपहार है। भूल न सकनेवाला उपहार, यों कहते हुए मंत्री एवं सामंत लोग तालियाँ बजाने लगे। प्रीतिभोज करने के लिए सभी मेज के चारों ओर बैठे थे। इस तरफ धर्म उस तरफ बुद्धि, बीच में महाराज। तीनों सुंदर दिखे थे। सुंदर दृश्य था। वृद्ध ने ही पूछ-पूछकर उन्हें परोसा। खुशी के मारे आँसू उमड़ आए। सोचा था कि मेरा पोता राजा के बराबर।

दिन बीत गए।

दस वर्ष के बाद धर्म सुंदर युवक बन गया। राजकुमारी बुद्धि अत्यंत सुंदरी हो गई। दोनों ने बचपन के स्नेह को प्रेम में बदला। शादी कर ली। कुछ ही दिनों में धर्म युवराज बन गया।

"मैंने कहा था न ! भाग्य चमके तो मेरा पोता राजा बनेगा, हुआ है या नहीं?" ऐसा कोई दिन नहीं था, वृद्ध ने पत्नी से यों नहीं पूछा।

"हाँ बन तो गया! लग रहा था कि तुम्हारी ही नजर लगेगी।" यों कहकर ऐसा कोई दिन नहीं बचा धर्म की दादी ने नजर नहीं उतारी। दिन फूल जैसे विकसित होकर पूर्णिमा जैसे गुजर रहे हैं। उनका जीवन दिन दुगुना, रात चौगुना के जैसा है।

(साभार : प्रो. एस. शेषारत्नम्)

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