धर्म और विज्ञान : हरिशंकर परसाई

Dharma Aur Vigyan : Harishankar Parsai

अपनी दुनिया और सम्पूर्ण सृष्टि की व्याख्या और समझ सबसे पहले धर्म ने दी, विज्ञान ने नहीं । या यों कहें कि धर्मं पहला विज्ञान है। बाद में विज्ञानों ने जब दूसरी व्याख्याएँ कीं, दूसरे कार्य-कारण बताये, दूसरे अर्थं समझाये, तब धर्मं ने इन सबको नामंजूर कर दिया। इस तरह धर्म ने विज्ञान को नकारा ही नहीं, वैज्ञानिकों को ज्ञान देने के लिए सजा भी दी - बूनी और गेलीलियो इसके उदाहरण हैं। इससे भी पहले धर्म की आदिम अतार्किक धारणाओं को जब सुकरात ने तर्कों से गलत सिद्ध किया, तब उन्हें जहर का प्याला पीना पड़ा । कुछ साल पहले जब अमेरिकी देश में उससे बचने के लिए धर्म और विज्ञान की पटरी कभी नहीं बैठी । 'स्काई लैब' गिरने की सूचना दी गई, तो हमारे भजन-कीर्तन रात- भर होते रहे ।

मगर धर्म और विज्ञान का वैसा संघर्ष नहीं है, जैसा लोग समझते हैं । मेरा मतलब धर्म के मूल तत्त्वों से हैं। कर्मकांडों, अन्धविश्वासों, भाग्यवाद, साम्प्र दायिक विद्वेष, जड़वाद, गलत रूढ़ियाँ, सड़ी-गली परम्पराओं, तर्कहीनता, प्रमाणहीनता जो धर्म के नाम पर ही चलती हैं, इन्हें विज्ञान अस्वीकार करता है और उनका विरोधी है। मगर मूल तत्त्व से विज्ञान का विरोध नहीं है । महान वैज्ञानिक आइंस्टीन वैसे नास्तिक थे, पर उन्होंने लिखा है - " वैज्ञानिक की धर्म-भावना प्राकृतिक नियमों की एकता और सुसंगति को देखकर आनन्दा- तिरेक जनित विस्मय के रूप में प्रगट होती है । प्राकृतिक नियमों की इस एकता में जिस श्रेष्ठ बुद्धि-वैभव के दर्शन होते हैं. उसकी तुलना में मानव-जाति की समस्त व्यवस्थित चिन्ता और क्रिया नितान्त महत्त्वहीन बौद्धिक शक्ति जान पड़ती है। मनुष्य को जहाँ तक स्वार्थपूर्ण इच्छाओं के बन्धनों से अपने को मुक्त रखने में सफलता मिल पाती है, वहाँ तक परभावना उसके जीवन और कार्य का निर्देशक सिद्धान्त बनती है। निर्विवाद रूप से यह युगों की धार्मिक प्रतिभाओं को प्रभावित करने वाली चेतना से मिलती-जुलती भावना है ।"

आइंस्टीन ने ऊपर दो महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं - एक तो परम आनन्द की उपलब्धि और दूसरे स्वभावना त्याग कर परभावना को ग्रहण करना। अब इनकी धार्मिक मान्यताओं से तुलना कीजिये । ब्रह्मचिन्तन में ब्रह्मा को त्याग 'प्रज्ञानंदम् ब्रह्म' कहा है- प्रज्ञा के साथ आनन्द और स्व को त्यागकर पर को ग्रहण करने की बात तुलसीदास ने सरलता से कह दी है-

परहित सरस धरम नहिं भाई
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई

स्व को त्याग मुक्त चेतना जब शुद्ध आनन्द का अनुभव करती है तो वह ईश्वर-प्राप्ति होती है। विश्वविख्यात वायलिन वादक यहूदी मेन्यूहिन का संगीत सुनकर आइंस्टीन ने कहा- तुमने मुझे संगीत से ईश्वर में विश्वासी बना दिया - वही संगीत से परम आनन्द की अनुभूति है । दुष्ट से दुष्ट आदमी जितनी देर रविशंकर का सितार सुनता है, दुष्टता भूल जाता है; उसके मन में, मैल, द्वेष, शत्रु भाव नहीं होते ।

यह धर्मानुभूति स्व के त्याग से ऊँचे स्तर की है। यह ऐसी धर्मानुभूति नहीं है - सुबह भगवान की पूजा की, एक सौ ग्यारह नम्बर का तिलक लगाया, दूकान गये और दिन-भर आदमियों को लूटा ।

सत्य की खोज धर्म और विज्ञान दोनों का लक्ष्य है । इरेस्मक ने कहा है- जहाँ कहीं तुम्हारा सत्य से सामना हो उसे ईसाई मानो। यह भी कह सकते हैं- जहाँ कहीं सत्य से तुम्हारा सामना हो, उसे वैष्णव धर्म मानो । जहाँ कहीं तुम्हारा सत्य से सामना हो, उसे इस्लाम धर्म मानो । बहुत-से साधक चिन्तक सत्य को ही ईश्वर मानते हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि सत्य यदि ईश्वर है, तो प्रयोगों से हम उसी की खोज कर रहे हैं । परन्तु यह सब - धर्म की साधना और विज्ञान की खोज का एक ही उद्देश्य है- मनुष्य का उदात्तीकरण, उसकी ऊर्ध्व- गति, मनुष्य का मंगल । आखिर धर्म और विज्ञान का सत्य किसके लिए ? कवि चंडीदास ने कहा है- शुन के मानुष भाई । सवार ऊपर मानुष सत्य तेहार ऊपर नाई । जब धर्म मनुष्य के मंगल के ऊँचे पद से गिराया जाता है तब उसके नाम से निहित स्वार्थ अधर्मी दंगा कराकर मनुष्यों की हत्या कराते हैं । और जब विज्ञान को उसके ऊँचे लक्ष्य से स्वार्थी साम्राज्यवादी उतारते हैं तो हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिरते हैं और लाखों मनुष्य मारे जाते हैं। वह मनुष्य ही है जो धर्म और विज्ञान का सही या गलत प्रयोग करता है । वरना धर्म पोथी में है और विज्ञान प्रयोगशाला में ईश्वर को रामकृष्ण परमहंस ने सार्वभौमिक सत्य, विवेक और प्रेम माना है।

विज्ञानों में सत्य की शोध तो होती है। वैज्ञानिकों में विवेक और प्रेम हो सकता है। विज्ञान निरपेक्ष होता है। इसलिए धर्म का कहना है कि ज्ञानेन्द्रियाँ मनुष्य को बहिर्मुखी बनाती हैं। अपने अन्तर में देखो। अपनी आत्मा में उतरो । वहाँ क्या मिलेगा ? संवेदना, प्रेम, करुणा, दया। इस बाह्य और अन्तर का जब मेल होगा, तब धर्म अवैज्ञानिक नहीं होगा और विज्ञान संवेदनहीन नहीं होगा । 'अविद्या' को सब धर्मों ने घातक बताया है । पर धर्मं जिनके हाथों में चला जाता है, वे निहित स्वार्थी विद्या को भरसक नकारते हैं । इतिहास बताता है कि हर धर्म के लोग विशेषकर धर्माचार्य यह भ्रम पालते रहे हैं कि ज्ञान उन्हीं के पास है । सत्य केवल उन्हीं ने पा लिया है। दूसरे धर्मावलम्बी अज्ञानी हैं और - सत्य से दूर हैं। यह दुराग्रह अन्धकार और संकीर्णता देता है । और यही अहं- कार और संकीर्णता धर्मावलम्बियों को अज्ञान की तरफ ले जाती है और वे सत्य हो जाते हैं। ज्ञान एक सतत प्रक्रिया है । यह कभी खत्म नहीं होती । इसलिए ज्ञान के अन्तिम बिन्दु पर पहुँचने और ज्ञान पर एकाधिकार का दावा - कोई नहीं कर सकता, यह दावा आत्मघाती है।

विज्ञान धर्म से यही प्रश्न करता है। विज्ञान कई हैं- भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, समाज विज्ञान, अर्थ विज्ञान, नृतत्व विज्ञान आदि । ये सब धर्म को प्रश्न-पत्र देते हैं । उसकी परीक्षा लेते हैं । विज्ञान में कोई पैगम्बर या देव- दूत नहीं होता। वैज्ञानिक को कोई 'इलहाम' नहीं होता । विज्ञान किसी पुस्तक को ईश्वर की लिखी नहीं मानता जैसा श्रद्धालु वेदों को ईश्वर की रचना मानते हैं। विज्ञान प्रमाण चाहता है। प्रमाण तीन तरह के माने गये हैं- प्रत्यक्ष, अनु- मान और शब्द । प्रत्यक्ष के आधार पर अनुमान किया जाता है। पर शब्द- प्रमाण ? आप्त वाक्य ? विज्ञान पूछता है धर्म से कि तुम यह शब्द - प्रमाण दे रहे हो। यह शब्द कब लिखा गया ? तब सभ्यता किस स्टेज पर थी ? समाज- व्यवस्था कैसी थी ? ऐतिहासिक स्थिति कैसी थी ? अर्थ-व्यवस्था कैसी थी ? यह शब्द किन लोगों ने कहा और इससे किस वर्ग का स्वार्थ सघता था ? विज्ञानों के इन प्रश्नों का जवाब धर्म को देना होगा । ऐतिहासिक दृष्टि के बिना धर्म अप्रासंगिक हो जाता है। कोई सर्वकालिक आप्त वाक्य नहीं होता । चार्ल्स ई० रेबेन ने लिखा है - " चाहे चर्च हो या बाइबिल या खुद जीसस या और कोई, यह दावा करना कि इन्होंने जो कह दिया है वहीं अन्तिम सत्य है, यह दावा करना कि देवी संदेश ( इलहाम ) एक ऐसा भिन्न प्रकार का सत्य है, जिसमें तर्क और बुद्धि का कोई दखल ही नहीं है, जिसकी छानबीन नहीं की जा सकती, या यह मानकर चलना कि कोई भी धार्मिक सिद्धांत एक कामचलाऊ परिकल्पना से कुछ विशेष है । यह सब हम लोगों के गले नहीं उतरता जो अपनी सीमाओं को समझते हैं । इन सब बातों से हमें बड़ी परेशानी होती है ।"

शास्त्रों में लिखा है, बाइबिल में लिखा है, कुरान में लिखा है तो उसे सर्वकालिक सत्य मानो, उस पर प्रश्न मत करो, शंका मत करो, इतिहास की कसौटी पर मत कसो - यह दुराग्रह मनुष्यों को अज्ञान की अन्धी गली में से जाता है। इसीलिए बुद्ध ने कहा था - शिष्यो, कोई बात इसलिए मत मानना कि वह बुद्ध ने कही थी। स्वयं सोचना। अपने दीपक आप बनना । यानी हर बदली व्यवस्था के लिए सिद्धान्त नया होगा ।

कोई भी धर्म सत्य से बड़ा नहीं होता। विज्ञान सत्य की शोध करता है । इसलिए केवल अन्धी आस्था पर आधारित धर्म को विज्ञान के तर्क, परीक्षण और परिणाम का सामना करना ही पड़ेगा ।

जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है-धर्म का जन्म डर और अज्ञान से हुआ । अज्ञान तो था ही । एकाएक मनुष्य इस विराट ब्रह्माण्ड में आ गया, जिसके बारे में वह कुछ नहीं जानता था। मैं हूँ कौन ? किसने बनाया मुझे ? और इस सिंह को ? यह प्रकृति, ये नक्षत्र, पहाड़, नदी, सागर ये सब क्या हैं? कैसे बने ? मैं तो इन्हें नहीं बना सकता। मनुष्य ने नहीं बनाये। फिर ? मनुष्येतर कोई परम शक्ति है, जिसने यह रचना की और जिसे चलाता जाता है और नाश भीकरता जाता है। हम नहीं जानते । वेद में कहा गया- वह है या नहीं है । वह है या नहीं के बीच में है। हम नहीं जानते। वही जानता है। सम्भवतः वह भी नहीं जानता ।

फिर ये बादल, गर्जन, तर्जन, वर्षा, बिजली । यह सुन्दर है, आह्लादकारिणी है । पर यह भयावह और विनाशकारी भी है। यह देवता है । यह इन्द्र है। उसकी पूजा करो। वह हमारा मंगल करे, अमंगल न करे। देवता पैदा हो गये ।

विज्ञान कहता है-जल से सूर्य के ताप के कारण भाप बनती है । भाप इकट्ठी होती है, तो बादल बनता है। ये बादल मंडराते हैं। इन्हें ठण्ड मिलने पर भाप फिर पानी में बदल जाती है और पृथ्वी पर पानी गिरता है। और यह जो बिजली है । बादलों में ऋण और धन विद्युत् होती है । जब ये बादल पास आते हैं तब विस्फोट के साथ बिजली पैदा होती है, अनन्त प्रकाशवान और विनाशकारी । अधिकतर बिजली आकाश में ही बुझ जाती है। पृथ्वी पर गिरती है तो सबसे ऊँचे पाइंट पर । पेड़ पर इसलिए ज्यादा गिरती है कि वह ऊंचा होता है और पत्तों में लौह होता है। धातु बिजली को खींचती है । मन्दिर पर बिजली इसलिए गिरती है कि उसके शिखर पर धातु का कलश होता है । गाँव का मन्दिर बिजली से पूरे गाँव को बचा लेता है। बिजली को धातु के 'लाइटनिंग कंडक्टर' से पृथ्वी में भेजा जा सकता है।

विज्ञान ने यह सब बता दिया। कोई देवता यह सब नहीं करता । मगर धर्म क्या इन्द्र को नकार देगा ? कतई नहीं। कुछ साल पहले कर्नाटक सरकार 'के जल विभाग ने सरकारी खर्च से पण्डितों से 'पर्जण्य यज्ञ' कराया था, बंगलोर पर वर्षा के लिए, जिससे जलाशय भर जाय। उसी दिन मौसम विज्ञान की भविष्यवाणी थी कि बंगलोर और उसके आसपास वर्षा होगी। शाम को वर्षा - हुई, पर बंगलोर शहर में नहीं, आसपास । बंगलोर में छींटे ही पड़े।

विज्ञान ने बहुत-सा अज्ञान नष्ट कर दिया है । अन्धविश्वास के लिए मनुष्य - बाध्य नहीं । आस्था की जगह उसे तर्क मिल गये हैं। विज्ञान ने बहुत-से भय भी दूर कर दिये हैं, हालांकि नये भय भी पैदा कर दिये हैं। विज्ञान तटस्थ ( न्यूट्रल) होता है । उसके सवालों का, चुनौतियों का जवाब धर्म को देना होगा। मगर विज्ञान का उपयोग जो लोग करते हैं, उनमें वह गुण होना चाहिए जिसे धर्म देता है । वह 'आध्यात्मिक' (स्पिरिचुएलिज्म ) - अन्तत: मानवतावाद । वरना विज्ञान विनाशकारी भी हो जाता है ।

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