ढपोरशंख : बुंदेली लोक-कथा
Dhaporshankh : Bundeli Lok-Katha
बहुत पुरानी बात है।
एक गाँव में एक ब्राह्मण रहता था।
ब्राह्मण गरीब था,पंडिताई और यजमानों से मिलने वाली दक्षिणा से उनकी रोजी-रोटी चलती थी।
इन पण्डित जी के परिवार में उनके अलावा उनकी पत्नी थीं; कोई संतान नहीं थी। संतान न होने से पंडित जी को वृद्धावस्था में भी रोज अपने काम पर निकलना पड़ता था।
एक दिन वे घर से निकले। संयोग से उसी दिन भगवान शंकर जी और पार्वती जी भूलोक का हाल-चाल जानने निकले थे।
पार्वती जी ने रास्ते में कमर झुकाकर चल रहे एक वृद्ध को देखा तो उनका मन वृद्ध की दुरावस्था से अत्यंत द्रवित हुआ। उन्होंने भगवान शंकर जी से प्रार्थना की कि इस वृद्ध की कठिनाई का निवारण करें।
भगवान शंकर जी और पार्वती जी वृद्ध के पास पहुँचे। शंकर जी ने वृद्ध को एक छोटा शंख दिया और कहा कि जब भी आप सुबह चौका लगा कर,चौक बनाकर,फिर उस पर पटा रखकर पटे पर इस शंखिया को रखोगे, फिर इस के सामने बैठोगे और आँख बंद करके हाथ जोड़कर जितने भी धन की माँग करोगे उतना धन यह शंखिया आपको देगी। इससे आपके भरण-पोषण की व्यवस्था हो जाएगी और आपको काम पर जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी।
शंखिया लेकर पंडित जी खुशी खुशी घर चले आये।
पंडित जी रात मेँ आराम से सोये। सुबह उन्होंने भगवान शंकर जी द्वारा बताई गई क्रिया करके शंखिया से सौ रुपये देने को कहा। शंखिया में से आवाज आई-"लो सौ रुपये।" पण्डित जी ने आँखें खोली तो देखा कि पटे पर सौ रुपये रखे हैं। रुपये पाकर पण्डित जी बड़े खुश हुए।
जिस समय भगवान शंकर जी, गरीब ब्राह्मण को शंखिया देकर उसकी विशेषताएँ बता रहे थे उस समय एक चोर भी शंकर जी की बात सुन रहा था। उसने सुबह छिप कर पंडित जी को शंखिया से रुपये प्राप्त करते हुए भी देखा। पक्का विश्वास होने पर उसी रात
उसने पंडित जी के घर से शंखिया चुरा ली।
अगली सुबह शंखिया को अपने स्थान पर न पाकर पंडित जी बड़े दुखी हुए।
अब क्या करते बेचारे! फिर अपने यजमानों के यहाँ जाने के लिए निकले।
शंकर,पार्वती जी आज भी भ्रमण पर थे। उन्होंने उस ब्राह्मण को आते हुए देखा तो सोचा कि क्या कारण है कि ब्राह्मण फिर काम पर पर जा रहा है ।या तो यह लोभी है या फिर कुछ खास कारण है। पार्वती जी ने परामर्श दिया कि चलकर ब्राह्मण से ही पूछा जाए। वे ब्राह्मण के पास पहुँचे ;उससे कारण पूछा, तो ब्राह्मण ने शंखिया चोरी जाने की बात बताई।
भगवान शंकर जी ने कहा, "आप चिंता न करें। आज मैं आपको शंखिया से भी अच्छी चीज देता हूँ।" इतना कहकर शंकर जी ने उसे एक बड़ा शंख दिया।
" यह क्या करेगा महाराज?"
"आप सुबह सुबह चौका लगाकर,उस पर चौक पूरकर एक पटा रखना ।उस पर इस शंख को स्थापित करना, नहा-धोकर हाथ जोड़कर आँख बंद करके इसके सामने बैठना फिर आप जितनी धनराशि माँगोगे यह उसकी दुगुनी धनराशि देगा।"
पण्डित जी शंख लेकर खुशी खुशी अपने घर लौट आये।
चोर को विश्वास हो गया था कि कोई फरिश्ता ब्राह्मण पर खुश हो गया है जो उन्हें मालामाल करना चाहता है। सो आज पण्डित जी जैसे ही अपने यजमानों के यहाँ जाने के लिए निकले थे,चोर चुपके-चुपके उनके पीछे लग गया।शंकर जी की पूरी बात चोर ने भी सुनी ।उसने सोचा शंखिया से यह शंख अधिक अच्छा है। सो अगली सुबह का मौका देने से पहले ही आज रात में ही चोर ने ब्राह्मण के यहाँ से शंख चुरा लिया।ब्राह्मण पर रहम करते हुए उन्होंने शंखिया को उनके यहाँ रख दिया।
चोर अपने घर पहुँचा ।सवेरे-सवेरे उसने नहा-धोकर,चौका लगाया,चौक पूरा ,पटा रखा फिर उस पर शंख स्थापित किया। सामने बैठकर आँख बंद करके,हाथ जोड़कर शंख से कहा- " शंख महाराज दो सौ रुपये "शंख बोला- " लो 200 रुपये।" चोर ने आँख खोलकर देखा तो वहाँ रुपये नहीं थे। फिर उसने कहा "महाराज दो ,दो सौ रुपये।" तो शंख से आवाज आई- "लो चार सौ रुपये।"चोर ने फिर आँख खोल कर देखा तो वहाँ रुपये नहीं दिखे। चोर ने कहा- " महाराज चार सौ रुपये दो तो।" शंख से आवाज आई- " लो आठ सौ रुपये।"
चोर बोला- " महाराज आप देते लेते कुछ नहीं केवल कह देते हैं। अरे रुपये दो भी तो।"
शंख मेँ से आवाज आई। -
"भैया देना,लेना तो शंखिया जाने ,हम तो केवल कहते हैं क्योंकि हम तो ढपोरशंख हैं।"
कहते हैं ढपोरशंख मुहावरा तब से ही चलन में आया है।
(साभार : डॉ आर बी भण्डारकर)