धन्य-धन्य धंधा (कहानी) : प्रकाश मनु

Dhanya-Dhanya Dhanda (Hindi Story) : Prakash Manu

1

उस छोटे से कस्बे में जाकर पहली बार इस कदर भयानक धूल, कीचड़ और मच्छर भरे माहौल से परिचय हुआ था। इसी तरह इस महामारी से पहला परिचय भी वहीं हुआ था। यह अलग बात है कि यह महामारी वहाँ एक ‘महापर्व’ समझी जाती थी और इसके स्वागत में साथी प्राध्यापक वैसे ही उत्साह प्रदर्शित करते थे, जैसे वसंत के आगमन पर विरहिणी नायिका का मन प्रिय-मिलन के लिए उत्कंठित हो उठता है।

वैसे, उनकी यह बेचैनी तो सत्र की शुरुआत यानी जुलाई से ही प्रकट होने लगती थी। बारिश के खत्म होते न होते सभी प्राध्यापक अपने आसपास घिरते लड़के-लड़कियों की संख्या को देखकर, यह साल कैसा गुजरेगा, धंधा मंदा रहेगा या चोखा, इस बात का अनुमान लगा लेते थे। सितंबर तक उन्हें आने वाले भविष्य और ‘मौसम’ की पूरी जानकारी मिल जाती थीं।

अक्तूबर से यह खास मौसम शुरू हो जाता था। जिसका प्रचार-अभियान कामयाब होता और धंधा चल निकलता था, उनके चेहरे पर परमानंद की झलक दिखाई पड़ती थी। उसे देखकर उनके पास ट्यूशन के लिए आने वाले विद्यार्थियों की संख्या को कूता जा सकता था।

मेरे लिए यह सब नया था, अजीबोगरीब था। किसी अज्ञात ‘प्रभु’ के ‘मायाजाल’ की तरह। प्रभु की माया जैसे ठीक-ठीक समझ में नहीं आती, वैसे ही...वैसे ही यह मामला भी!

“क्या चक्कर है भाईजान?” एक दिन परेशान होकर मैंने अपने साथी प्राध्यापक प्रियरंजन जी से पूछ ही लिया।

“तुम्हें नहीं मालूम...?” उन्होंने महीन-महीन हँसते हुए पूछा। जैसे पल भर में वे प्रियरंजन से छलिया कृष्ण बन गए हों।

“नहीं तो।”

“तुम्हें फिजा में कोई बदलाव, मेरा मतलब है नयापन...?”

“सो तो है, लगता है कोई ऐसा पर्व आने वाला हे जो सिर्फ यहीं मानाया जाता है।”

“क्या तुम्हारे साथ ऐसा कुछ है?”

“ऐं, क्या?” मैं चौंका, “नहीं...नहीं...!”

“क्या तुम्हें आजकल लड़के-लड़कियाँ नहीं घेरते?”

“नहीं...नहीं!” मैं घबरा गया। “मैं तो बिलकुल सही-सलामत हूँ, मुझसे किसी को कोई शिकायत भी नहीं है।”

“अरे, तुम नहीं समझोगे। तुम हो भोले भंडारी और यह...!” कहकर उन्होंने मुसकराते हुए अपनी दृष्टि फेर ली।

यह उस ‘मौसम’ यानी धंधे से मेरा पहला परिचय था। जिसमें रहस्य कम होने की बजाय कुछ और गहरा हो गया था।

अभी तो हलकी सर्दियाँ थीं, मगर सब कुछ कुहरीला-कुहरीला।

2

इसके कुछ ही दिनों बाद मैंने महसूस किया कि मेरा एक अभिन्न साथी प्रशांत गोडबोले, जिसके साथ अक्सर मेरी शामें गुजरती थीं, अब हवा में उड़ने लगा है। मुझसे दूर, बहुत दूर। मैं कोशिश करके पकड़ना चाहूँ, तो भी मुश्किल।...

‘ओह, यह क्या मामला है यारब?’ मैं चौंका। कहाँ तो हालत यह थी कि तकरीबन रोज का साथ-साथ उठना-बैठना था। शहर के मशहूर ‘आओ जी’ रेस्तराँ में उससे गपशप का सिलसिला चल पड़ता, तो निजी सुख-दुख से लेकर साहित्य और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में आने वाले तूफानों तक पर जमकर चर्चा होती। मगर हा हंत! वही मेरा अजीज दोस्त प्रशांत गोडबोले मुझसे एकदम कटा-कटा रहने लगा है।

अब जब भी मैंने उसे अपने यहाँ निमंत्रित किया या उसके यहाँ आने की बात कही, या अपने चिरपरिचित रेस्तराँ के कोने वाली उस खास मेज पर चाय और चर्चा का प्रस्ताव रखा, वह कोई न कोई बहाना करके टाल जाता था। या हर बार, हर बात को ‘इतवार’ पर ले जाता था।

“इतवार को आओ न? जमकर बातें होंगी। साथ में ‘उमराव जान’ की गजलें और कॉफी, खूब मजे रहेंगे।”

पर हमउम्र दोस्तों में तमाम ऐसी बातें होती हैं, जिनके लिए इतवार तक का इंतजार ऐसा लगता है, जैसे इधर-उधर प्रेमी-प्रेमिका खड़े हों और बीच में कोई विशालकाय पहाड़ आ गया हो।

खैर, उसकी व्यस्तता की वजह और सही हालत जानने के लिए एक दिन मैं बिना बताए उसके यहाँ जा धमका। घंटी बजाई तो बहुत देर बाद दरवाजा खुला। इस पर प्रशांत को आड़े हाथों लेने का मन था, पर यह देखकर चुप रह गया कि दरवाजा प्रशांत ने नहीं, सुमिता भाभी ने खोला है।

“नमस्कार, भाईसाहब।” सुमिता भाभी ने मुसकराते हुए कहा।

“नमस्कार, प्रशांत नहीं है क्या?”

“भीतर हैं, आप आइए तो!” और मुझे बैठक की जगह भीतर वाले कमरे में बिठा दिया गया।

इसके बाद प्रशांत आया। उसके होठों पर एक फीके से उत्साह वाली मुसकराहट थी, “ऐसा हे दोस्त, कि कुछ विद्यार्थी आ गए हैं पढ़ने के लिए।”

“ठीक है, तुम पढ़ा लो। मैं तब तक कोई पत्रिका पढ़ लेता हूँ।”

“पर यार, इसके बाद दो ग्रुप और आएँगे। शाम आठ बजे फुरसत मिलेगी।”

“ग्रुप!” शब्द पर आँखें फाड़े उसे देखता रह गया। यानी ट्यूशन। तो यह जनाब भी इस रोग की लपेट में आ गए।

“अच्छा, मैं सवा आठ बजे आऊँगा।” कहकर मैं निकल गया।

इस बीच मैं पार्क की सैर कर आया। कुछ देर सड़कें नापता रहा। एक वाचनालय में जाकर अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ीं और फिर ठीक सवा आठ बजे वहाँ पहुँच गया।

अब तक मेरा दोस्त विद्यार्थियों की तीन टोलियाँ निबटा चुका था। अगले दिन दो एकदम सुबह-सुबह आनी थीं। ट्यूशन का नशा अब उसकी आँखों में उतर आया था। उसने टेपरिकार्डर चालू कर दिया, “इस दस्त में एक शहर था, इस दस्त में...!”

गुलाम अली कमरे में झूमने लगे। फिर खुद भी थोड़ा झूमते हुए उसने चाय के लिए आवाज दी और बिना मुझे कुछ पूछने का मौका दिए, खुद ही शुरू हो गया :

“तुम ही सोचो, यार, हर महीने कम से कम बीस हजार रुपए फालतू मिल जाते हैं। किसे बुरे लगते हैं? जनवरी-फरवरी में तो सात-आठ तक ग्रुप बन जाते हैं। हर ग्रुप का पाँच हजार, यानी कुल मिलाकर चालीस हजार रुपए...! दो-तीन साल में मेरा अपना मकान बन जाएगा। लड़कों को किसी अच्छी जगह पढ़ने भेजूँगा। आखिर आदमी को शान से जीना चाहिए, क्यों?”

मैं क्या जवाब देता? अलबत्ता यह देख रहा था कि यह धंधा किसी भले-चंगे आदमी पर भी इस कदर सवार हो सकता है कि उसे सावन के अंधे की तरह हरे-हरे (नोटों) के सिवा कुछ और दिखाई ही न दे।

लौटा तो टेपरिकार्डर पर शिवकुमार बटालवी थिरक रहे थे, “किन्नी पीत्ती ते किन्नी पीनी है, मैंने एहो, हिसाब ले बैठा...मैंने एहो...एहो...ऐहो हिसाब लै बैठा...!”

पता नहीं, क्या हुआ कि मैं जल्दी से बाहर आ गया।

3

इसके बाद नया साल आया तो इस धंधे में एकाएक उछाल आ गया। अब तो ऐसे प्राध्यापक भी जिनकी ज्यादा साख नहीं थी, या जो इसी साल नए-नए आए थे, या क्लास में जिनके अटक-अटककर पढ़ाने और बार-बार भूल जाने पर सीटियाँ बजती थीं, बहुत व्यस्त दिखाई पड़ने लगे थे। फिर जो पुराने और ‘अनुभवी’ थे, उनका तो कहना ही क्या? असली बिजनेस घर हो रहा था, महज ‘साइड जॉब’ के लिए कालेज आते थे। तमाम लोग तो खाली पीरियड्स में भी अगली-बगली झाँकते हुए दो-एक टोलियाँ निबटा देते थे।

इसके बाद एक ऐसी चीज हुई जो मेरे लिए एकदम कल्पनातीत थी। यानी जितने भी पुराने प्राध्यापक थे, वे अक्सर हफ्ते या दो-दो हफ्ते की छुट्टी पर रहने लगे।

इस वजह से कई बार विद्यार्थियों के दो-दो, तीन-तीन पीरियड खाली होते और वे ‘हो-हो’ करते हुए कैंटीन के आगे खड़े हो जाते। कैंटीन वाले से जबरदस्ती चाय पीते, फिर धूप में गोला बनाकर भँगड़ा शुरू कर देते थे।

जो दो-एक क्लासें लग रही होतीं, उनके विद्यार्थी भी ‘हो-हो’ करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे। वे भी क्लास छुड़वाकर उछलते-कूदते हुए भँगड़ा देखने चल पड़ते थे।

और फिर भँगड़ा कब डिस्को डांस में बदल जाता और डिस्को गीतों में लड़कियों के नाम ले-लेकर उन पर व्यंग्य और अश्लील फब्तियों का प्रवाह शुरू हो जाता, यह किसी को पता न चलता।

कालेज के वाइस प्रिंसिपल कैलाश जी थोड़े बुजुर्ग से थे और उनका हर कोई सम्मान करता था। वहाँ आकर वे एक-एक विद्यार्थी का नाम लेकर बुलाते और अलग से समझाते थे।

उनके सामने वह विद्यार्थी मान जाता, पर मौका पाकर फिर चुपके से उस भीड़ में शामिल हो जाता था।

“देखो, साहब नाराज हो रहे हैं।” आखिर वे गुस्से में दहाड़ते।

“सर, साहब-वाहब की तो छोड़िए। हाँ, आप जो भी कहेंगे, उसे हम मान लेंगे।” विद्यार्थी उन्हें खुश करने की कोशिश करते थे।

“तो ठीक है, तुम लोग घर चले जाओ।”

अगले ही क्षण विद्यार्थियों का रेला नारे लगाता हुआ सड़कों पर दिखाई देता था और कालेज में परम शांति विराज रही होती थी।

इस बीच मक्खीकट मूँछों वाले प्राचार्य महोदय रलियाराम कुंडा अपनी कुरसी से उठकर कमरे में तेजी से घूमते रहते। उनकी खासियत यह थी कि वे सीरियस हैं, मंद-मंद मुसकरा रहे हैं या उदास हैं, उनका चेहरा देखकर कुछ भी पता न चलता। अलबत्ता यह समाचार मिलने पर कि विद्यार्थी चले गए हैं और अब सब कुछ शांत है, वे निश्चिंतता की साँस लेते और बड़ी आराम की मुद्रा में अपनी कुरसी पर बैठते थे।

और शायद ऊँघने भी लगते थे।

4

यह सब क्या हो रहा है? सब लोग देखते हुए भी स्थिति को क्यों नजरअंदाज कर रहे हैं? यह समझना मेरे लिए मुश्किल था। पर एक दिन प्रियरंजन जी ने इतवार को घर पर निमंत्रित किया तो मौजूदा हालात का ‘मर्म’ एकदम उजागर हो गया।

“क्या बात है, पंद्रह दिनों से आप छुटटी पर ही चल रहे हैं? तबीयत तो ठीक है न?”

“तबीयत को क्या होना है, यार? हाँ, धंधा चोखा चल रहा है। काफी मेहनत हो जाती है। सुबह छह बजे से रात ग्यारह बजे तक सिलसिला चलता ही रहता है। बीच में नहाने और खाने के दो घंटे निकाल दो।”

“सिलसिला...! यानी सिलसिला ट्यूशन का?” मैं बुरी तरह चौंका।

“और क्या?” वह आँख मिचकाकर बोले, “इस वक्त मैं नंबर वन हूँ।”

“तो क्या इसीलिए कालेज से छुट्टी...?”

“अरे यार, वहाँ मिलता ही क्या है? हजार रुपल्ली एक रोज की, बस! और यहाँ कम से कम डेढ़-दो हजार रुपए रोज बैठते हैं आजकल। कभी-कभी ज्यादा भी। फिर क्या मेरा दिमाग खराब है जो वहाँ सिर खपाऊँ? आखिर हर इंसान वही काम करता है जिसमें फायदा हो!”

“मगर नैतिकता, फर्ज...? आखिर कुछ तो...!”

“सब बातें हैं यार, सिर्फ तुम्हारे जैसे चुगद लोगों को बहकाने के लिए।”

“पर समाज में इसी से तो एक अध्यापक का सम्मान होता है। उस पर एक बड़ी जिम्मेदारी है, राष्ट्र-निर्माण की...मतलब, देशसेवा, युवा पीढ़ी का निर्माण!” मैंने कुछ अटकते हुए कहा।

“कौन करता है सम्मान? सब पैसे को पूजते हैं। पचीस-तीस हजार रुपए तनखा में क्या होता है? एक खोमचे वाला भी कमा लेता है इतना तो। एक छोटा-मोटा व्यापारी पचास-साठ हजार रुपए महीने कमा सकता है तो हम क्यों नहीं? हम भी कर दिखाएँगे!” उन्होंने मुट्ठी तानकर क्रांति लाने वाली मुद्रा में कहा।

“पर भाईजान, एक बात समझ में नहीं आती, आखिर इतने ट्यूशंस की जरूरत क्या है? क्यों इतने विद्यार्थी...?”

अब वे हँस दिए, “तुम्हारे पास नहीं आते न?”

“नहीं।”

“क्लास में कितना कोर्स खत्म करा दिया है?”

“करीब करीब पूरा। कुछ जरूरी सवालों के जवाब भी लिखा दिए हैं। रिवीजन चल रहा है।”

“तो ट्यूशन कोई खाक करेगा?”

“पर मुझे तो चाहिए नहीं।”

“पर हमें तो चाहिए और इसलिए हम शुरू से ही पूरा इंतजाम करते हैं।”

“वह कैसे?”

“क्लास में पढ़ाते भी हैं और नहीं भी पढ़ाते।”

“यानी?” मैं चौंका—अजब उलटबाँसी है ससुरी!

“यानी...इस तरह पढ़ाते हैं कि लगे बहुत मेहनत कर रहे हैं, पर असल में किसी की समझ में भी न आए। बातों को खूब उलझाते हैं या फिर जमाने भर की गप्पें सुनाते हैं।” प्रियरंजन जी हँसे, “हमारा दूध वाला दूध में नाले का पानी मिलाता है, हम भी वही करते हैं।”

“नाले का पानी...?” मेरी आँखें फटने को हो आईं।

“हाँ, इससे दूध पतला नहीं, कुछ गाढ़ा दिखता है। हम भी क्लास में न पढ़ाने का यही फार्मूला अपनाते हैं।”

अब और पूछने का मन नहीं था। पर प्रियरंजन जी मूड में आ चुके थे। इसलिए इस धंधे की कुछ और अंदरूनी बातें उन्होंने खुद ही उघाड़ दीं।

जरूरत पड़े तो कुछ विद्यार्थियों को पटा लिया जाता है। उनसे कहते हैं कि तुम तो भई, हमारे अपने हो। तुम से हजार की जगह पाँच सौ रुपए ले लेंगे। हाँ, अपने साथ पाँच-सात ट्यूशन और लेकर आओ।...अब वह खुद ही ढूँढक़र लाएगा।

“पिछले साल सिद्धू नंबर वन पर था, इस साल मैं हूँ। जानते हो कैसे? मैंने उसके खिलाफ प्रचार करा दिया कि यह लड़कियों के मामले में...” प्रियरंजन जी ने आँख मिचका दी। बोले, “अब लड़कियों के ट्यूशन मेरे पास ज्यादा आते हैं।”

फिर कुछ गंभीरता ओढक़र उन्होंने कहा, “सिद्धू पिछली बार पकड़ा गया था, एक ट्यूशन वाली लड़की को इम्तिहान में नकल कराते हुए। खुद उसके हाथ की लिखी परची पकड़ी गई थी। पर हम यह सब नहीं करते। आखिर आदमी को इज्जत वाला धंधा करना चाहिए। क्यों, है न?”

मैं टुकुर-टुकुर देखता रह गया। क्या कहना चाहते हैं प्रियरंजन जी?

“देख यार, मैंने इस साल से एक दूसरा साइड बिजनेस शुरू किया है। इससे ट्यूशन का धंधा और जोर-शोर से चलेगा। वो मैथ्स वाला बग्गा है न, ससुरा यही करता है। उसने मुझे सिखाया है कि...!”

“वह क्या...?”

“इम्तिहान खत्म होते ही लड़कों के नंबर बढ़वाने के लिए कुछ अटैची टूर करने होंगे।”

“आप...?”

“हाँ-हाँ, क्या बुराई है इसमें? इतने सालों से पढ़ा रहा हूँ। सब मुझे जानते हैं। मेरे पास आकर काम करा ले जाते हैं। आखिर मुझे भी तो कुछ फायदा उठाना चाहिए। एक बार मेरे ट्यूशन वालों के नंबर 60 या 70 प्रतिशत तक पहुँचे, तो फिर ट्यूशन का सारा रेला मेरी तरफ खिंचा चला आएगा। मेरी तरफ, हा-हा-हा!”

मैं प्रियरंजन जी की शक्ल देखता रह गया। फिर धीरे से पूछा, “एक बात बताइए, प्राचार्य जी कोई ऐतराज नहीं करते?”

“ऐतराज...!” प्रियरंजन जी हो-हो करके हँसे, “जनाब, आप किस दुनिया में रहते हैं? उनका हिस्सा बँधा-बँधाया है। साल के आखिर में पहुँच जाता है। वे भला क्या करेंगे ऐतराज, क्यों करेंगे?”

मुझे लगा, जैसे नागफनी के तमाम जहरीले काँटे मेरे शरीर में धँस गए हैं और मैं चेतनाशून्य होता जा रहा हूँ।

“अरे, तुम बिस्कुट नहीं ले रहे हो? और यह सिगरेट विदेश से मेरे एक दोस्त ने भेजी है। नायाब है। भई मजे हैं विदेशों के तो! लो भई, एक तो...”

“नहीं, धन्यवाद!” जैसे तैसे चाय के दो घूँट पीकर मैं जीने से नीचे उतर आया।

“आना भई, अगले किसी इतवार को, खुलकर बातें होंगी। बाकी दिनों में तो तुम जानते ही हो कि...” उनकी मुसमुसी आवाज और खोखली हँसी अब भी सुनाई दे रही थी।

  • मुख्य पृष्ठ : प्रकाश मनु : हिंदी कहानियां, उपन्यास और गद्य रचनाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां