Dhan Ka Itna Lobh Kyon ?
धन का इतना लोभ क्यों?
लाहौर में एक बड़ा अमीर व्यापारी रहता था। उसका नाम था दुनीचंद उसे
अपने धन का बड़ा घमंड था। उसने अपने पिता का श्राद्ध करने की बड़े जोर-शोर से तैयारी की। इसके लिए
उसने बहुत बड़े ब्रह्म भोज का आयोजन किया। ब्रह्मभोज के लिए उसने
बहुत से ब्रह्मणों, साधुओं, संतों को न्योता दिया।
उन्हीं दिनों गुरु नानकजी और मरदाना भी लाहौर आए हुए थे। जब दुनीचंद
को यह मालूम हुआ कि गुरु नानक जी इस नगर में आये हुए हैं तो बड़े
आदर से न्योता देने गया। वह बोला-"गुरुजी, मैं अपने पिता का श्राद्ध कर रहा
हूं। इस अवसर पर मैं बहुत से ब्राह्मणों, साधुओं, संतों को भोजन करा रहा
हूं। आप भी मेरे घर भोजन करने के लिए आइए।"
गुरुजी ने पूछा-"इतने लोगों को भोजन तुम क्यों करा रहे हो?"
दुनीचंद ने कहा- "गुरुजी, पुरोहित लोग कहते हैं कि जो पुन्य-दान मैं यहां
करूंगा, वह परलोक में बैठे मेरे पितरों को मिलेगा । जो भोजन मैं ब्राह्मणों
को दूंगा, उससे परलोक में बैठे मेरे पिता की भूख मिटेगी।"
गुरु नानक जो उसकी बात सुनकर मुसकराये और उसके साथ हो लिये।
जब गुरुजी और मरदाना, दुनीचंद की हवेली पर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि
हवेली के दरवाजे पर बहुत सी झंडियां लटकी हुई हैं।
उन्होंने पूछा- "दुनीचन्द, तुमने ये झंडियां क्यों लटकाई हैं ?" दुनीचंद ने बड़े
गर्व से उत्तर दिया- 'गुरुजी, ये झंडियां मेरी दौलत
की सूचना देती है । एक झंडी का मतलब है एक लाख रुपया। जितनी
झंडियां यहां लटक रही हैं, उतने लाख की सम्पत्ति मेरे पास है।"
उसकी बात सुनकर गुरुजी फिर मुसकराये ।
जब श्राद्ध का आयोजन समाप्त हो गया और गुरुजी तथा मरदाना सेठ
दुनीचंद से विदा लेने लगे तो गुरुजी ने उससे कहा-"दुनीचंद मैं तुम्हारे पास
अपनी एक धरोहर रखना चाहता हूं । मैं तुम्हें अपनी एक सुई देता हूं। यह
मुझे बहुत प्रिय है । इसे तुम अपने पास संभालकर रखलो । जब तुम और मैं
परलोक पहुंच जाएंगे तो वहां मैं यह सुई तुमसे वापस ले लूंगा।"
उनकी बात सुनकर दुनीचंद बड़ा चकराया । वह सोचने लगा, परलोक में तो
साथ में कुछ भी नहीं जाता। फिर यह सुई मैं कैसे ले लाऊंगा । वह बोला-
"गुरुजी, आपकी बात मेरी समझ में नहीं आई। जब मैं मरूंगा, तो मेरी देह
भी चिता में जल जाएगी। मेरी आत्मा के सिवा, परलोक में कुछ भी नहीं
जाएगा। फिर आपकी सुई भला मैं कैसे वहां ले जाऊंगा?"
"देखो, अभी तुम कह रहे थे कि जो भोजन तुम यहां पुरोहित को खिला रहे
हो, वह परलोक में तुम्हारे पिता के पास पहुंच जाएगा।"
“जी गुरुजी ।" दुनीचंद बोला
गुरु जी ने कहा-"जब एक छोटी सी सुई परलोक नहीं जा सकती, तब इतना
भोजन परलोक में बैठे तुम्हारे पिता को कैसे मिलेगा?"
गुरुजी ने उसे समझाते हुए कहा-"मेरे भाई, भूखों को भोजन कराना, गरीबों
की सेवा करना बहुत अच्छी बात है । परन्तु पुरोहितों को इस उम्मीद से
भोजन कराना कि वह तुम्हारे पितरों के पास पहुंचेगा निरा भ्रम और
अंधविश्वास है।"
सेठ दुनीचंद बड़े ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था।
गुरुजी ने फिर कहा-"तुम्हें अपने धन का बड़ा अभिमान है । परन्तु तुम स्वयं
कहते हो कि मरने के बाद साथ नहीं जाता । जब तुम यहाँ से एक छोटी सी
सुई भी अपने साथ नहीं ले जा सकते तो अपने धन का इतना मान क्यों
करते हो ?"
गुरुजी की बातें सुनकर दुनोचंद के अंदर की आंखें खुल गयीं ।
उसे अपने धन, अपने अभिमान की निरर्थकता का पता लग गया। उसने
गुरुजी के चरणों पर झुककर कहा-"गुरुजी मुझे बताइए कि मैं क्या करूं।"
"अपने धन का सदुपयोग करो। इससे निर्धनों की सहायता करो । इसे
लोक-कल्याण के कामों में लगाओ"
दुनीचंद ने ऐसा ही किया ।
(डॉ. महीप सिंह)