ढलवाँ साहित्य (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Dhalvaan Sahitya (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

जैसे एक साँचे में ढले गहने होते हैं, वैसा ही कुछ साहित्य विशेष प्रकार के साँचों में ढलकर बनता है।

साँचे में सुभीता होता है-सुनार को सोचने का काम नहीं करना पड़ता। साँचे में नुकसान भी है - एक किस्म का माल ढलता है, कारीगर की कला प्रतिभा व्यर्थ चली जाती है, बदलती जनरुचि उसी के माल को कुछ दिनों बाद नापसंद करने लगती है ।

हर भाषा के साहित्य में साँचे बन जाते हैं, जिनमें ढलकर कृतियाँ आने लगती हैं । छायावादी युग में 'किसी' अलक्ष्य को पुकारने, प्रेम-निवेदन करने का एक ढाँचा था । बादलों के उस पार अंतरिक्ष के परदे में कोई बैठा हुआ, प्रेम की डोर से मन को खींचता हुआ, शायद ही किसी को दिखता हो - 'हिए की आँखों' से भी ! मगर साँचा तैयार था - लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार शब्द लाकर उसमें डालते - कविता तैयार !

इन दिनों साँचे बड़े जोर से काम में लाए जा रहे हैं। एक प्रयोगवाद का साँचा है। अछूते प्रतीकों द्वारा अब तक कवियों द्वारा विस्मृत भाव व्यक्त किए जाएँ, यह तो ठीक है लेकिन केवल 'विचित्र' बनने के लिए सर्कस के खेल किए जावें, तो अच्छा नहीं लगता । एक कविता देखी थी-

मेरा मन भावना की 'पेरेम्बुलेटर' में घूमता है,
आशा के कपोल चूमता है,
कामना की दुलहिन-संग रमता है।

मन बच्चा है तो कोई हर्ज नहीं । 'पेरेम्बुलेटर' का अर्थ बच्चा - गाड़ी होता है, यह शायद कवि महोदय की आराम करने की जगह हो । आशा के कपोल बच्चे को चूमते देख हम चौंके, पर बाद में मन को इस बात पर जारी किया कि बच्चे को माता-पिता सिखा देते हैं- 'बेटा, चूमा लो !' मगर जब 'पेरेम्बुलेटर' के बच्चे को दुलहिन के संग ' रमते' देखा, तो अक्ल गुम हो गयी। फ्रॉयड इस 'केस' का अध्ययन कर सकता था ! उन असंख्य ढलवाँ रचनाओं में से एक है यह, जिनमें महज एक यांत्रिक क्रिया की तरह प्रतीक फिट किए जाते हैं ।

दूसरा एक ढाँचा और है- प्रगतिवादी ढाँचा ! अनेक लोग प्रगतिवाद को केवल ढाँचा मानकर चल रहे हैं। सामाजिक यथार्थ को सच्चे मानवीय संवेदन के साथ बहुत कम ग्रहण करते हैं। शेष ने 'शार्टकट' अपना ली है । 'हंस' के शांति अंक में रूमानिया, बलगेरिया, रूस, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया आदि की जो कथाएँ छपी हैं, उनको हेर-फेर के साथ कई लेखकों के नाम से छपा मैंने देखा है । फिर कृष्णचंद का एक ढाँचा भी हिंदी में कुछ लोगों ने अख्तियार कर लिया है-काश्मीर की लड़कियों के रूप और 'जोबन' को खूब रँगकर लिखा और फिर उसमें किसी पर्यटक की एकाध बदमाशी मिला दी ! बस प्रगतिशील हो गया । हिंदी के कई लेखकों में मैंने यह कोरी रूमानियत देखी है। यह ढाँचा होता है, आत्मा गायब ! कई यथार्थवादी लेखक यथार्थ जीवन में प्रवेश किए बिना, जनजीवन से सीधा और संवेदनात्मक संपर्क स्थापित किए बिना, एक साँचे पर ढलाई कर रहे हैं। इनमें 'मनुष्य' कहीं नहीं दिखता। कुछ समझते हैं कि सुर्ख मेहँदी, सुर्ख सूरज, लाल कमीज, सुर्ख धरती आदि लिख देने से यह प्रगतिवाद कहलाने लगेगा। या किसी से किसी की प्रेमिका को ' सुर्ख रूमाल' भेंट दिलवाने मात्र से ही क्रांति हुए बिना नहीं रहेगी। इन रचनाओं में ठप्पेदार शब्दों के सिवा कुछ नहीं रहता। जीवन-तत्त्व गैर-हाजिर ! संवेदना लुप्त !!

रूस और चीन के लेखकों के सामने यह प्रश्न है कि क्रांतिकालीन और उसके पूर्वकालीन साहित्य की तुलना में आज का साहित्य क्यों हीन है? टालस्टाय, गोर्की, चेखव और शुन क्यों नहीं हैं? इसलिए तो नहीं कि इनका संबंध मनुष्य के जीवन से था, कोरे साँचों से। अमेरिकन और पश्चिमी यूरोप के उपन्यासों में दूसरा साँचा दिखता है-एक तो हर आदमी का लक्ष्य व्यक्तिगत स्वार्थ और सुख होता है। इस व्यक्तिगत स्वार्थ और सुख के पीछे ये दौड़ते फिरते हैं और अपनी इच्छा के लिए कुछ भी भला बुरा कर सकते हैं, किसी की भी बलि चढ़ा सकते हैं। डी. एच. लारेंस के उपन्यास 'सेंटमार' में नायिका, उपद्रवी घोड़े की उष्णता व जीवनी-शक्ति पर मुग्ध हो, उसे अपने पति की सवारी के लिए ले आयी है, जिससे वह उसके करीब रहे। मन में विचार आता है कि यदि इसने पति को मार डाला तो? ‘कोई बात नहीं' वह सोचती है। आदमी पशु है न!

जीवन को चित्रित करने के लिए जीवन देखना पड़ता है, समझना पड़ता है। मानव-जीवन गणित के सूत्रों पर नहीं चलता, वह मनोविज्ञान के नियमों से भी बँधा नहीं है। साँचों में ढला हुआ साहित्य प्राणहीन होता है।

वसुधा, वर्ष 1, अंक 10 फरवरी 1957

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