धार (अंग्रेज़ी कहानी) : आर. के. नारायण
Dhaar (English Story in Hindi) : R. K. Narayan
उम्र के बारे में सवाल किया जाने पर रंगा जवाब देता, 'होगी पचास, साठ. या अस्सी।' फिर आप दूसरे ढंग से पूछते कि 'यह काम कब से कर रहे हो?' तो वह पूछता, 'कौन-सा काम?'
'यही सान-पत्थर से चाकु-छुरी-कैंची पर धार रखने का काम।'
'चाकू-छुरे ही नहीं, हँसिया, दरांती और रसोई में काम आने वाली हर चीज पर धार रखने का काम, ब्रेड काटने के चाकू, और जब मैं बड़ा सान-पत्थर लेकर घूमता था, तब कसाइयों की कुठारियाँ भी, और उस जमाने में तो मैं महाराजा की तलवार पर भी धार रख देता था'-उसका एक सपना यह भी था कि अगर फौजें तलवार का इस्तेमाल करती होतीं, तो वह लखपति बन जाता।
आप उसकी बातों को टोककर फिर से पूछते कि तुम चाकू-छुरियों पर सान रखने का काम कब से करते रहे हो, तो वह होंठ के ऊपर अपनी उँगली घुमाते हुए जवाब देता, 'जब से यहाँ पर मूंछ उगनी शुरू हुई, तब से।' लेकिन इससे भी आप झब्बेदार हो चुकी थीं। जाहिर है कि उसने कभी न कैलेंडर देखा, न जंत्री, न घड़ी, और शीशे में अपना मुँह भी नहीं देखा होगा। इस प्रकार परम आनंद की अवस्था में, धोती और खाकी कमीज पहने, पगड़ी बाँधे, वह मालगुडी की गलियों में रोज चक्कर लगाता और घरों के सामने से गुजरते हुए महीन पर गूंजती आवाज में पुकारता, 'धार रखवा लो, चाकू-छुरी-कैंची पर धार रखवा लो...।"
एक पुरानी साइकिल पर सामने धार रखने की चकरी लगाये, जिस पर लगी पट्टी पैडल से जुड़ी हुई थी, जिसे वह पैरों से चलाता था, वह फेरियाँ लगाता था। मार्केट रोड पर ट्रैफिक से बचते हुए वह दर्जी और नाई का दुकानों पर खासतौर से रुककर आवाज मारता, लेकिन ये लोग उससे 'हाँ हाँ तो करते रहते पर 'फिर कभी आना' कहकर उसे काम भी नहीं देते थे। क्योंकि उस समय वे अपने धंधे में लगे होते थे। अगर वे बाल काटने या कपड़े सीने में व्यस्त नहीं होते-खासतौर से दर्जी कभी एक मिनट के लिए भी खाली नहीं दिखायी पड़ते थे और चारों तरफ पड़े पुराने ऑर्डरों के कपड़ों को काटते या सीते रहते थे-तब वे दुकान बंद करके कहीं गायब हो जाते, इसलिए रंगा को बड़ी चतुराई से उन पर नजर रखनी पड़ती थी कि कब उन्हें काम पाने के लिए पकड़ा जा सकता है। इन लोगों को यह समझाना कि अपने औजार हर वक्त सही और धारदार रखने चाहिए, बड़ा ही मुश्किल काम होता था। लोगों की अनिच्छा और आलस दोनों से जूझना पड़ता था। पहले तो सब यही कहते, 'जाओ, कोई काम नहीं है," लेकिन अगर वह बिना विचलित हुए वहीं डटा रहता तो परिवार का कोई न-कोई सदस्य एकाध जंग खाया चाकू कहीं से निकाल ही लाता, और इसके बाद दूसरों को भी याद आने लगती कि घर में और कौन-कौन-सी ऐसी चीजें हैं जिन पर धार रखवा लेनी चाहिए। लेकिन इसके लिए रंगा को बहुत समझाना बुझाना और बहलाना पड़ता, और कभी-कभी धमकाना भी पड़ता कि अभी काम नहीं करवाओगे तो फिर बहुत दिनों तक इन्तजार करना पड़ेगा क्योंकि वह लंबी तीर्थयात्रा पर जा रहा है। इस पर कोई-कोई यह भी कह देता, 'कोई बात नहीं, एक और भी तो आता है, उसे बुला लेंगे'-यह एक फिजूल-सा दुबलापतला आदमी था, हाथ से चलने वाली छोटी मशीन से ही काम करता था और पैसा लेते ही गायब हो जाता था, बिना यह देखे कि औजार अब ठीक से काम कर रहा है या नहीं। इस आदमी की समाज में कोई स्थिति नहीं थी, न कोई इसका नाम जानता था और यह कि कहाँ रहता है। उसकी मशीन से चिनगारी तक नहीं निकलती थी, जब कि रंगा धार लगाते से पहले मशीन को देर तक इंजीनियर की तरह तेज करता और बच्चे मंत्रमुग्ध होकर फुलझड़ियों का यह तमाशा देखते थे।
'खैर, मुझे उससे कोइ बैर नहीं है, 'रंगा ने जवाब में कहा, 'उसकी रोजी-रोटी उसके साथ है-लेकिन अगर उसने तुम्हारे चाकू को अंडे जैसी धार दे दी, तो बाद में मैं भी उसे सही नहीं कर पाऊँगा। आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि लोहे पर हर कोई जैसे चाहे काम कर सकता है, इनमें से ज्यादातर लोग तो चाकू के फल और हथौड़े में भी कोई फर्क नहीं समझते।'
रंगा के ग्राहकों को उसकी यह बातचीत और काम दोनों ही पसंद थे और वह हमेशा अपने काम की साठ दिन की गारंटी भी देता था। 'अगर इससे पहले यह भोथरा हो जाये तो मुझे.की औलाद कहना.माफ करना, जबान फिसल गई और गाली दे बैठा।'
लेकिन अगर उसे कभी खराब काम करने के लिए कुछ कहा जाता, तो वह पलटकर कहता कि अक्सर धातु ही अच्छी नहीं होती, उस पर सूरज और पानी का असर भी पड़ता है, और सबसे बड़ी बात यह है कि आप उसका कैसे इस्तेमाल करते हैं! लेकिन वह अपने ग्राहकों से कभी बहस नहीं करता और दूसरा चक्कर लगने पर मुफ्त फिर धार लगा देता। ग्राहक यह सोचते कि यह उनकी जीत है और रंगा खुद से यह कहता, 'इसमें मेरा कोई खर्च नहीं होता, बस, पहिये के पाँच-सात चक्कर और तमाशे के लिए दो-चार चिनगारियाँ।'
लेकिन इन अवसरों पर वह कुछ और माँग लेता, जैसे कुछ चावल और छाछ या खाने की ओर कोई चीज, रसोई में उस वक्त जो कुछ भी हो, खासतौर से बच्चों वाले घरों में, और यह भी पेट भरने के लिए नहीं, बल्कि बदन में थोड़ी सी जान डालने के लिए कि आगे और भी काम कर सके। भूख तो हर हाल में आनी-जानी चीज है और अगर उसे भूल भी जायें तो भी काम चल जाता है। खाने-पीने पर ज्यादा ध्यान देना उसे पसंद भी नहीं था। वह खाने पर दिन भर में एक रुपये से ज्यादा खर्च नहीं करता था। इतने पैसे में उसे एलमोनियम का बर्तन भर चावल, साथ में कई दफा स्वादिष्ट पदार्थ, जैसे आलू या गोभी, चिकन या मीट का टुकड़ा, नीबू का अचार और भाग्य अच्छा हो तो रसगुल्ला भी मिल जाता था। उसकी पहचान का एक आदमी होटलों-रेस्त्राओं में बचे हुए खाने को इकट्ठा करने का काम करता था, रात को दस बजे वह आता और गली के एक कोने पर शान से बैठकर यह गड़बड़ घोटाला-काफी सस्ता, एक रुपये में दो कर घुल-लोगों को बेचता था। उसकी इतनी माँग थी कि अगर पूरा ध्यान न दिया जाये-खासतौर से सड़क के पार पर्ल सिनेमा का शाम का शो छूटने के बाद जब एकदम खानेवालों की भीड़ लग जाती थी-तो अक्सर कई लोगों को भूखे रह जाना पड़ता था। रंगा इस मामले में विशेष सावधान रहता था और वक्त पर लाइन में आगे लग जाता था। अपना हिस्सा भरपेट खाकर गली के नल से पानी पीता, और कृष्णा हॉल के किनारे की टूटी-फूटी इमारत में चला जाता, जिसका उस वक्त कोई मालिक नहीं था क्योंकि तीन पीढ़ियों से इसके मालिकाना हक का मुकदमा चल रहा था, जो कब खत्म होगा, इसका पता ही नहीं चलता था। रंगा जब गाँव से काम और सहारे की तलाश में शहर आया था, तब सौभाग्य से उसे पहले ही दिन इस जगह का अता-पता मालूम हो गया था। उसे इस इमारत के बड़े हॉल का एक कोना, इसके बूढ़े रखवाले की दया से, जो मानो अनंत काल से इसकी देखभाल कर रहा था, और जो अपनी पसंद के लोगों को ही इसमें रहने की थोड़ी-थोड़ी जगह देता था, रहने-सोने के लिए मिल गया था।
रंगा कहने के लिए तो शहर में रहता था, लेकिन मन उसका गाँव के घर में ही बना रहता था जहाँ उसकी बेटी उसकी कठोर स्वभाव वाली बीवी के साथ पल रही थी। वह हर महीने थोड़ा-बहुत पैसे उनके लिए भेजता था, खासतौर से बेटी के लिए, जो वहाँ के स्कूल में पढ़ रही थी। उसे इस बात पर गर्व था कि उसकी बेटी स्कूल जाती है, और अपने परिवार में वह पहला आदमी था जिसने इस दिशा में कदम उठाया था। उसकी बीवी को बेटी का पढ़ाना-लिखाना पसंद नहीं था क्योंकि उसका मानना था कि लड़की का काम घर के कामों में मदद करना है और शादी करके बच्चे पैदा करना है। लेकिन रंगा इसके बिलकुल खिलाफ था, विशेष रूप से उस घटना के बाद जब गाँव के स्कूलमास्टर ने, जो चबूतरे पर बच्चों को इकट्ठा करके पढ़ाता था, एक दिन उससे कहा था कि तुम्हारी बच्ची बड़ी तेज है, इसे बराबर पढ़ाते रहना और बड़ी होने पर पाम्बन के मिशन स्कूल में-जो गाँव के पास था और जहाँ बस से पहुंचा जा सकता था- दाखिल करा देना।
शुरुआत में रंगा ने अपनी सान चढ़ाने की मशीन गाँव के लोहार के बगल में, इमली के बड़े पेड़ के नीचे रखी भी जहाँ आस-पास के इलाकों के किसान हर वक्त गुजरते थे, जो अपने काम-धंधे के औजार यहाँ ठीक कराते थे। रंगा की मशीन देखकर उनमें से किसी को अचानक ख्याल आ जाता कि उनके हल का फाल या अनाज काटने की कसनी पर जंग लग गयी है, चलो उसे भी ठीक करा लें। लेकिन लोहार जरा ज्यादा ही चालाक था और रंगा की कमाई के हर एक रुपये पर बीस पैसे कमीशन ले लेता था, उससे काम कराने वाले ग्राहकों पर नजर रखता था और पूरी गिनती करता रहता था, और जब पैसे देने का समय आता तो भी झगड़ा करता, और इसके साथ ही शराब की माँग भी करता, जिसके कारण उसे भी शराब पीनी पड़ जाती और जिसके लिए घर लौटने पर बीवी के ताने भी सुनने पड़ते। वह बहुत चिल्लाती, झगड़ा करती और कभी-कभी खाना भी नहीं देती थी।
रंगा को कभी यह समझ में नहीं आता था कि उसकी बीवी शराब के लिए इतना फसाद क्यों करती है, क्योंकि एकाध बूंट पीने से किसी को कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि इससे सारे दिन की थकान उतर जाती है और कुछ फायदा ही होता है-लेकिन इस कूढ़मग्ज़ बीबी को कौन और कैसे समझाये? इस विचार से एक दिन वह शराब की बोतल घर ले आया कि बीवी को भी चखाकर उसका दिमाग बदलने की कोशिश करेगा, लेकिन बीवी ने शराब की बू पाते ही उसके हाथ से बोतल जबरदस्ती छीनकर जमीन पर दे मारी जिससे सारी शराब भी मिट्टी के फर्श पर बिखर गयी। आमतौर पर वह ऐसी घटना पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था लेकिन उस दिन दोस्तों के साथ जरा ज्यादा ही पी आने के कारण उसका दिमाग सातवें आसमान पर पहुँच गया था और इतनी ताकत भी आ गयी थी कि बीवी की टुकायी कर दे, लेकिन उसके हाथ उठाते ही बीवी ने झाड़ उठा ली और उस पर बरसानी शुरू कर दी। फिर उसे घर से बाहर निकालकर भीतर से कुंडी चढ़ा ली। वह परेशान तो बहुत हुआ, लेकिन इस बात से खुश भी हुआ कि उसकी बेटी, जो पास पड़ी चटाई पर सो रही थी, जगी नहीं और उसे कुछ पता नहीं चला। वह वहीं सोया रहा और सवेरे उठकर स्थिति पर विचार करने लगा। तभी उसकी बीवी भीतर से आयी और उसके सिर पर सवार होकर धमकाती हुई पूछने लगी, 'आ गयी अब अक्ल ठिकाने!"
इन घटनाओं के बाद उसने लोहार के साथ काम करना बंद कर दिया और घूम घूमकर काम करने का निश्चय किया। अब अपनी मशीन हाथ में उठाकर वह बड़े तड़के, प्याज और अचार के साथ रागी खाकर, गाँव में निकल जाता। लोहार का साथ छोड़ने के बाद उसने पाया कि अब उसकी बीवी का स्वभाव भी बदल रहा है। वह बड़े सवेरे उठकर रागी चूल्हे पर चढ़ा देती और तब तक उसे उबालती रहती जब तक वह ठोस होकर खाने लायक पिंड न बन जाये, और जब रंगा कुएँ से हाथमुँह धोकर आता, उसे खाने को दे देती। फिर वह चक्कर लगाने निकलता और लोहार की दुकान से बचकर गाँव की दस-बारह गलियों में घूम घूमकर हर दरवाजे के सामने जरा देर रुककर आवाज लगाता, 'चाकू-छुरी पर धार रखवा लो, धार...।" रात को घर लौटकर जब वह दिन भर की कमाई बीवी के सामने रखता, तो वह लालचियों की तरह कहती, 'सिर्फ दो रुपये, आज तुम हफ्ता बाजार नहीं गये... ?
'गया था लेकिन वहाँ दस और सान वाले खड़े थे।'
उसकी आमदनी घरखर्च के लिए काफी नहीं पड़ती थी, यद्यपि उसकी बीवी भी गाँव के बड़े घर में काम करके कुछ कमा लेती थी। इसलिए उसके चेहरे पर अब हमेशा चिंता की झलक दिखायी पड़ने लगी। एक दफा उसने अपनी बीवी से बात की कि अगर वह लोहार की दुकान के पास ही फिर से अपनी मशीन जमा ले, क्योंकि आस-पास के सब किसान वहीं पर इकट्ठे होते हैं, तो कैसा, रहेगा। लेकिन यह सुनते ही वह गुर्राकर बोली, 'मैं जानती हूँ तुम फिर उन शराबियों का साथ चाहते हो। " उसने शिकायत की कि तुम लगन से काम नहीं करते हो। 'मेरा ख्याल है, तुम ज्यादा जोर से आवाज नहीं लगाते। तुम अपने को बड़ा कारीगर समझते हो, इसलिए मजे से धीरे-धीरे आवाजें लगाते हुए घूम फिरकर घर आ जाते हो।' यह सुनकर रंगा बहुत परेशान हुआ और इतनी जोर से चीख मारी कि बीवी उछलकर परे हो गयी। फिर बोली, 'क्या हुआ है तुम्हें ? पागल हो गये हो क्या?' उसने जवाब दिया, 'यह तो तुम्हें यह बताने के लिए किया था कि मैं कितनी ऊँची आवाज लगा सकता हूँ-एक आदमी ने मुझसे कहा कि मेरी आवाज कसाईखाने के पार तक सुनायी देती है।'
'तो मेरा ख्याल है कि तुम्हारी आवाज सुनकर घरों में लोग डरकर छिप जाते होंगे और अपने चाकू-छुरी भी छिपाकर रख लेते होंगे।' उसके इस मजाक पर दोनों हँस पड़े।
लड़की अब इतनी बड़ी हो गयी थी कि उसे पाम्बन के मिशन स्कूल में दाखिल कराया जा सके। रंगा की उसकी किताबें, फीस, स्कूल की ड्रेस, और सबसे ज्यादा बस के किराये के लिए पैसों का इन्तजाम करना था। उसकी बीवी का कहना था कि लड़की की पढ़ाई अब बंद कर दी जाये, क्योंकि वह भी काम करने लायक बड़ी हो गयी है, पैसेवाले जमीदारों को खेतों में काम करने के लिए लोगों की जरूरत होती है, और अब वह तरह-तरह के काम सीखकर कुछ कमाई कर सकती है। लेकिन रंगा ने उसके इस आग्रह को पूरी तरह नकार दिया। दूसरे मामलों में वह बीवी से चाहे जितना डरता हो और उसकी बात मानता हो, लेकिन बेटी की पढ़ाई के मामले में वह बहुत दृढ़ था। वह चाहता था कि वे भी माँ-बाप की जिंदगी न बिताकर कुछ और जिंदगी जीये। उसकी बीवी यह देखकर दंग रह गई की इस मामले में वह कितना क्रांतिकारी है, और कुछ देर के लिए उसकी बोलती बंद हो गयी। फिर, बीवी को खुश करने के लिए वह बोला, 'तुम ज्यादा पैसा ही चाहती हो, है न?'
'हाँ लेकिन मुझे बताओ किस काले जादू से तुम पैसा ला सकते हो?'
'तुम बेटी को स्कूल जाने दो, मैं कोई रास्ता निकाल लूँगा..."
'तुम उसे बदचलन बनाना चाहते हो, जो बालों में रिबन बाँधकर घूमती फिरे, और पैसेवालों की तरह रहने के शौक पाल ले।. अगर वह झगड़ालून बन जाये तो मुझे दोष मत देना। अभी भी वह जवाब देने लगी है और आजाद हो गयी है।' - इसके बाद रंगा यह देखने मालगुडी गया कि वहाँ क्या किया जा सकता है, मालगुडी का एक चक्कर लगा आया-जो गाँव से सिर्फ 25 मील दूर था। लौटकर यह रिपोर्ट दी, 'अरे कितनी अच्छी जगह है यह, लगता है इन्द्रदेवता ने बनायी है, जैसा हमारे पंडित लोग कहते हैं। वहाँ सब कुछ मिलता है। हजारों हजारों लोग हजारों मकानों में रहते हैं, सड़कों पर बहुत-सी बसें और कारें दौड़ती फिरती हैं, नाई और दर्जी भरे पड़े हैं जो रात-दिन सैकड़ों कैंचियों और उस्तरों का इस्तेमाल करते हैं, इसके अलावा घरों में हजारों-लाखों चाकू और छुरियाँ काम में लाये जाते हैं, इस तरह वहाँ मेरे जैसे दो सौ धार चढ़ाने वालों के लिए धंधा है, पैसे भी अच्छा मिलते हैं, वहाँ के रहने वाले सजन और उदार हैं, हमारे गाँव के लोगों की तरह कंजूस नहीं हैं।'
'तुम अभी से इतने खुश हो गये और मानने लगे कि वहाँ के लोगों ने तुम्हें अपना लिया है।'
उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया और सपना देखता रहा, 'जैसे ही मास्टर साहब कोई शुभ दिन निकाल देंगे, मैं चला जाऊँगा। अगर भाग्य ने साथ दिया तो मैं घर का इन्तजाम कर लूगा और तुम सबको ले चलूगा। वहाँ बहुत से स्कूल भी हैं और हमारी बच्ची को किसी में जगह जरूर मिल जायेगी।'
उसकी बीवी ने उसे यह कहकर चुप करा दिया कि 'तुम जहाँ मर्जी हो, जाओ, लेकिन मैं यहाँ से नहीं हिलेंगी। यह घर हमारा है, इसलिए मैं इसे कभी ताला नहीं लगाऊँगी। मैं यह भी नहीं चाहूँगी कि हमारी बेटी शहर के फैशनों के पीछे दौड़ती फिरे। हम वहाँ नहीं जायेंगे। तुम जो मर्जी हो, करो, लेकिन हमें अपने साथ मत घसीटो।'
रंगा यह सब सुनकर बहुत निराश हुआ और कुछ देर तक सोच-विचार में पड़ा रहा। फिर सोचने लगा 'जो हो, मेरे साथ तो अच्छा ही हो रहा है। भगवान् मेरे ऊपर मेहरबान है और चाहता है कि मैं शहर में आजादी से रहूँ... अगर यह यहीं रहना चाहती है तो यह भी बुरा नहीं है।'
'तुम क्या भुनभुना रहे हो?' बीवी ने कहा, 'जो मन में है, जोर से कहो।'
'तुमने बुद्धिमानी की बात कही है, इसी तरह करेंगे।' उसकी यह बात सुनकर बीवी बहुत खुश हुई।
इसके बाद यह ढरा पड़ गया कि रंगा एक महीना छोड़कर तीन-चार दिन के लिए गाँव आता। अपनी सान रखने की मशीन अच्छे ढंग से जूट की बोरी में पैक करके कृष्णा हॉल में सँभालकर रख देता और मार्केट गेट से गाँव के लिए बस पकड़ लेता। उसे घर आना हमेशा बहुत अच्छा लगता था हालाँकि वहाँ रहने के दिनों में उसे बीवी की सीधी-तिरछी टिप्पणियाँ नहीं सुननी पड़तीं और उसकी चिंताओं और भय को शांत करना होता-दरअसल उसकी बीवी को एक के-बाद दूसरी चिंता करते रहने की आदत थी, पैसे की चिंता न होती तो स्वास्थ्य की होती, खुद अपनी न होती तो बेटी की होती, या किसी पड़ोसी से झगड़े की बात होती, या यह कि बेटी स्कूल में बड़ी देर लगाती है। फिर तीन दिन बाद जब वह यह कहती कि 'अब कब तक यहाँ पड़े रहोगे. अगले महीने का खर्चा कैसे चलेगा, तब वह फिर आजादी से जिन्दगी बिताने खुशी-खुशी वापस लौट पड़ता, यद्यपि बेटी से अलग होना उसे अच्छा नहीं लगता था। इन तीन दिनों में वह सवेरे-सवेरे बेटी के स्कूल जाने की तैयारियाँ देखकर, हरी स्कर्ट और पीले रंग की जैकेट में वह कितनी भली लगती थी, और शाम को स्कूल से लौटकर, वहाँ क्या-क्या किया, क्या पढ़ा, क्या खेले, यह सब कहानियाँ सुनकर, ज्यादा से-ज्यादा सुख बटोर लिया करता था। बेटी जब कुएँ पर अपनी स्कूल की ड्रेस धोने को जाती, तो वह जिन्हें वह बहुत सँभालकर रखती और सही ढंग से पहनकर स्कूल जाती-लेकिन यह माँ को बहुत खलता, वह कहती कि लड़की अपने अलावा और कुछ नहीं सोचती, अपने कपड़ों और किताबों में ही घुसी रहती है। रंगा को उसकी ये टिप्पणियाँ पसंद नहीं थीं, लेकिन उसे विश्वास हो गया था कि बेटी अपना बचाव कर सकने में समर्थ है और एक दिन माँ से भी निबट लेगी।
गाँव के घर में इसी तरह तीन दिन गुजारने के बाद एक दफा वह हाथ में अपने कपड़ों की छोटी-सी पोटली लिए नारियल के बाग के पास बस के इन्तजार में खड़ा था। बसें सामने से निकल रही थीं और जिस बस को भी वह रुकने का इशारा करता, वह रुक जाती, लेकिन वह देर तक पेड़ के नीचे ही खड़ा रहा। घंटे बीत जाते तो भी उसे पता न चलता क्योंकि उसे गिनने का कभी अभ्यास ही नहीं किया था। सामान से ऊपर तक लदी दो लारियाँ गुजर गई, और इसके बाद एक बस इतनी तेजी से निकली कि उसके रुकने के इशारे को वह देख ही नहीं सकी और चलती ही चली गयी।
'अच्छा हुआ मैं इस बस में नहीं चढ़ा," उसने सोचा, 'भगवान् ने मुझे बचा लिया। बहुत जल्द यह बस जमीन से ऊपर उड़ेगी और चंद्रमा पर पहुँच जायेगी।' बस अपने पीछे गर्द का जबरदस्त गुबार छोड़ गयी। वक्त अगर सही होता तो कभी-कभी उसे ऐसी बस मिल जाती जो सीधे कृष्णा हॉल पर ही उतार देती, लेकिन कभी-कभी उसे बड़ी देर तक इन्तजार करना पड़ता था। लेकिन उसकी बेटी हर रोज बस पकड़ लेती थी, यह सोचकर उसे अच्छा लगा। 'अपनी उम्र के लिहाज से वह बहुत चुस्त है।' उसने मन में भगवान् से प्रार्थना की कि उसकी बीवी को बेटी के मामले में सद्बुद्धि दें।' लेकिन बेटी काफी चतुर है, अपनी माँ को वह सही कर सकती है।' थोड़ी देर तक वह यही सोचता रहा कि वह किस तरह अपनी माँ से निबटती है, कभी प्यार से कभी सख्ती से, लेकिन हमेशा सफल रहती है। जिसके बाद माँ भी उसकी आजादी की कायल हो जाती है। इस औरत से पार पाने का यही ढंग है। उसने सोचा, 'काश! उसे भी यह कला आती होती, और उसने बीवी को ज्यादा छूट न दी होती। लेकिन भगवान् ने दया की और उसे आजादी से जिंदगी बिताने के लिए कृष्णा हॉल रहने भेज दिया। अगर बेटी न होती तो वह तीन साल से पहले गाँव न जाता। लड़की को पढ़-लिखकर डॉक्टर बन जाना चाहिए-डॉक्टरनियाँ तो रानियों की तरह होती हैं, यह उसे इसलिए लगता था क्योंकि जब बीवी को जचगी या किसी और बात के लिए दिखाने उसे जनाना अस्पताल ले जाता था, तब बरामदे में चुपचाप बैठकर इन्तजार करना पड़ता था और जब 'लेडी डॉक्टर' बाहर आती या किसी काम के लिए वहाँ से गुजरती तो एक सन्नाटा-सा छा जाता था।'
उसने देखा, एक गाड़ी दूसरी सड़क से मुड़कर इधर आ रही है। इस पर पीले रंग का पेन्ट था, बनावट भी कुछ अलग थी, जैसे बड़े लोगों की गाड़ी हो, इसलिए वह इसे रोकने की हिम्मत नहीं कर सका। गाड़ी सर्र से उसके सामने से गुजर गयी, उसके पीछे कुछ तस्वीरें बनी थीं। लेकिन गाड़ी थोड़ी दूर जाकर रुकी और फिर पीछे उसी की तरफ आने लगी। अब उसने देखा कि तस्वीर में एक आदमी, एक औरत और दो बदसूरत से बच्चे हैं, और उस पर कोई संदेश लिखा है। हालाँकि वह इसे पढ़ नहीं सकता था, लेकिन वह जानता था कि यह आबादी-नियंत्रण का नारा है-'दो बच्चे काफी हैं।' इसका उन दिनों बहुत प्रचार हो रहा था। मार्केट रोड का कसाई, जो उसका दोस्त भी था, रोज अखबार पढ़ता था और उसे भी खबरें बताता रहता था। गाड़ी में एक आदमी नीली बुशशर्ट पहने बैठा था, उसने खिड़की से सिर निकालकर पूछा, 'कहाँ जाना है?"
'शहर' रंगा ने जवाब दिया।
आदमी ने दरवाजा खोला, 'आओ, बैठ जाओ। तुम्हें वहाँ पहुँचा देंगे।' रंगा बैठ गया और एक रुपया निकालकर देने लगा, तो उसने कहा, 'इसे अपने पास रखो।' गाड़ी बढ़ती रही। रंगा सामने की सीट पर बैठकर बड़ा खुश था। उसे हमेशा बस या रेल दोनों में ही या तो खड़े-खड़े या फर्श पर बैठकर जाना पड़ता था, और वह भी बस की सबसे पीछे की कतार में। अब वह गद्देदार सीट पर आराम से बैठा सफर कर रहा था। उसने सोचा कि अगर उसकी बीवी होती तो देखती कि लोग उसकी कितनी इज्जत करते हैं। गाड़ी तेज रफ्तार से जा रही थी इसलिए ठंडी हवा उसे लग रही थी और बड़ा आराम दे रही थी। थोड़ी दूर चलकर एक ऐसी जगह रुक गयी जहाँ कोई कैंप-सा लगा था, छोटी-छोटी बाँस की झोपड़ियाँ मैदान में बनी हुई थीं। यह मुख्य रास्ते से अलग, कई गाँवों के पास कोई जगह थी। उसने गाड़ीवाले से पूछा, 'हम कहाँ आ गये हैं?'
आदमी ने चुस्ती दिखाते हुए कहा, 'तुम बिलकुल फिक्र मत करो। तुम्हारी पूरी देखभाल की जायेगी। आओ, कॉफी पियेंगे।' यह कहकर वह गाड़ी से उतरा और एक झोंपड़ी में से किसी को बुलाया। केले के पते पर गर्मागर्म कुछ खाने के लिए, प्याले में कॉफी उसके सामने आ गयी। रंगा ने सवेरे रागी खायी थी, उसके बाद से उसे कुछ नहीं मिला था, इसलिए उसे बहुत अच्छा लगा। कॉफी देखकर उसमें नयी जान आ गयी। 'यह सब क्यों, सर?' उसने पूछा।
आदमी ने कहा, 'खाओ, खाओ। तुम भूखे होगे।'
रंगा से आज तक किसी ने इतना अच्छा व्यवहार नहीं किया था। यह आदमी तो उससे देवता की तरह पेश आ रहा था। रंगा सोच रहा था कि इसके बाद वे अपनी यात्रा पर चल देंगे, लेकिन उस देवता ने अचानक उससे कहा, 'चलो मेरे साथ।' वह उसे एक तरफ ले गया और कान में धीरे से बोला, 'कोई चिंता मत करना। हम तुम्हारी पूरी देखभाल करेंगे। तुम्हें तीस रुपये भी मिलेंगे।"
'तीस रुपये, " रंगा जोर से बोला, 'इसके लिए मुझे क्या करना होगा? मैं तो अपनी मशीन भी नहीं लाया हूँ।'
'अब तुम मुझे जान गये हो, मुझ पर भरोसा करना और जो मैं कहता हूँ वह करना। कोई सवाल मत करना और जैसा हम कहें, वैसा करोगे तो तुम्हें तीस रुपये मिलेंगे। तुम्हें खाना भी जितना तुम चाहोगे, उतना मिलेगा और हम तुम्हें शहर पहुँचा देंगे।. यहाँ सिर्फ रात भर ठहरना होगा। आराम से सो जाना। मैं तुम्हें कल सवेरे शहर पहुँचा दूंगा। और किसी को कुछ बताना मत, किसी से बात भी मत करना। नहीं तो वे तुमसे जलने लगेंगे और तुम्हें तीस रुपये नहीं मिलने देंगे।... एक ट्रांजिस्टर रेडियो भी मिलेगा। रेडियो चाहिए न तुम्हें?'
'रेडियो चलाना मुझे नहीं आता। मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ।'
'अरे, यह तो बहुत आसान है। बटन दबाओ और गाना सुनने लगो।'
फिर वह रंगा को एकांत में ले गया और देर तक उससे बात करता रहा- हालाँकि उसकी बातें ठीक से समझ में नहीं आ रही थीं और फिर चला गया। रंगा मैदान में एक पेड़ के नीचे लेट गया और पेट भर जाने से उसे बड़ा आराम महसूस होने लगा। तीस रुपये मिलने की बात उसे अच्छी लगी, हालाँकि कुछ संदेह भी हुआ और पूरी बात ठीक से समझ में भी नहीं आयी। लेकिन उसे इस आदमी पर भरोसा करना चाहिए था-कितना देवता की तरह लग रहा था। तीस रुपये! दस दिन की कड़ी मेहनत की कमाई। वह ये रुपये अपनी बेटी को दे देगा कि जैसे चाहे खर्च करे, इसमें उसकी माँ का कोई दखल न होगा। रेडियो भी वह उसी को दे देगा। वह पढ़ी-लिखी थी और जानती थी कि उसे कैसे चलाया जाता है। लेकिन माँ की जानकारी के बिना उसे पैसा किस तरह दिया जायेगा? वह उसे स्कूल में रुपया पहुँचा देगा-पोस्टआफिस पर चिट्ठियाँ लिखने वाला जो आदमी बैठता है, वह मनीआर्डर पर नाम-पता भर देगा और फिर पच्चीस पैसे फीस के काटकर सारा पैसा उसे भेज दिया जायेगा। डाकघर पर बैठने वाला बाबू उसका अच्छा दोस्त था, उसने बिना पैसे लिये उसका पोस्टकार्ड लिख दिया था, जिसके जरिये उसने बंगलौर से धार रखने की नयी मशीन मँगायी थी। वहाँ से लोग गुजर रहे थे, इसलिए उन्हें देख वह आँखें बंद कर लेता था। फिर वह सो गया।
नीली कमीज वाले ने उसे नींद से जगाया और कैंप के एक दूसरे हिस्से में ले गया, जहाँ एक तम्बू में एक डेस्क के सामने एक आदमी बैठा था। उसने धीरे से कहा, 'ये हमारे अफसर हैं। जब तक वे कुछ न पूछे, कुछ मत बोलना। उनसे इज्जत से पेश आना। बड़े अफसर हैं।"
अफसर के सामने रंगा एकदम डरे हुए आदमी की तरह खड़ा हो गया। उसके सामने एक कागज रखा था, उस पर नजर डाल कर उसने पूछा, 'तुम्हारा नाम?' नाम लिख लेने के बाद उसने फिर पूछा, 'उम्र ?'
रंगा को समझने में कुछ वक्त लगा, लेकिन जब समझ में आ गया तो हमेशा की तरह उसने कहा, 'पचास होगी या सत्तर क्योंकि मैं." इसके बाद उसने मूंछ उगने से लेकर सान रखने की लंबी कहानी शुरू की तो अफसर ने बीच में काटकर कहा, 'मुझे ये सब बातें मत बताओ। अच्छा पचपन साल लिख दूँ?"
'ठीक है, सर, बिलकुल ठीक है। आप पढ़े-लिखे हैं और सब जानते हैं।'
अफसर ने फिर पूछा, 'शादी हुई है?"
रंगा ने फिर लंबी कहानी बयान करना शुरु की-कि कैसे उसकी बीवी बड़ी झगड़ालू है, और यह उसकी दूसरी बीवी है और कैसे रिश्तेदारों के दबाव में उसे इससे शादी करनी पड़ी थी। इसकी उसने सफाई भी दी, 'मेरे चाचा और दूसरे बुजुर्ग कहते थे कि जब आखिरी वक्त आता है तब खाना या पानी देने के लिए पास में कोई जरूर होना चाहिए। सर, यह सब भगवान् की मर्जी होती है। कौन जान सकता है कि वह क्या चाहता है !'
अफसर यह सब सुनकर बोर हो गया था, लेकिन क्या करता, उसे रोकने के लिए उसने दूसरा सवाल पूछ लिया, 'बच्चे कितने हैं?'
'अगर भगवान् मेरी पहली बीवी को लंबी जिंदगी देता तो वह दस बच्चे पैदा करती, लेकिन वह बीमार पड़ गयी और लेडी डॉक्टर ने कहा..., ' और बड़े विस्तार से वह पहली बीवी की बीमारी और मृत्यु की बातें बताता रहा। साथ ही जिंदगी को कुछ और दुर्घटनाएँ बताने के बाद एकदम पूछने लगा, 'सर, यह बतायें कि आप ये सब बातें मुझसे पूछ क्यों रहे हैं?'
अफसर ने भौंहों पर बल डाला; डॉक्टर इस सवाल को टाल दिया। इससे रंगा को याद आया कि नीली कमीज वाले ने उससे कहा था कि ज्यादा बात मत करना, सिर्फ सवालों के जवाब देना। शायद इसके बाद उसे तीस रुपये और रेडियो दिये जायेंगे। अफसर ने फिर पूछा, 'बच्चे कितने हैं?'
'छह बच्चे एक साल के होने से पहले ही मर गये। उनके नाम भी बताऊँ ? बहुत दिन हो गये, इसलिए याद नहीं आयेंगे, फिर भी मैं कोशिश करूंगा। सातवाँ होने से पहले मैं पहाड़ी पर देवी के मंदिर गया और प्रार्थना की कि अगर बच्चा जीवित रहा तो मैं सिर मुंडवाकर नंगे बदन जमीन पर लेटकर मंदिर के चक्कर लगाऊँगा, और देवी की कृपा हुई कि सातवीं बच्ची जीवित रही-लेकिन मेरी बीवी यह नहीं समझती कि यह कितनी कीमती बेटी है और उसे पढ़ने भी नहीं देना चाहती, जबकि मैं यही चाहता हूँ कियह हमारी जिंदगी से अलग कोई और जिंदगी बिताये। लेकिन बेटी बिलकुल हीरा है। रोज स्कूल जाती है और डॉक्टर बनना चाहती है। वह अपनी माँ से निबट भी लेगी।'
अफसर ने उसके खाने में लिखा-सात बच्चे। फिर हुक्म के लहजे से बोला, ' और बच्चे पैदा मत करना। अच्छी तरह समझ लो।'
रंगा शर्मिन्दा हो गया और दाँत निकालकर हँसा। फिर अफसर ने जनसंख्या के नियंत्रण, खाद्य-उत्पादन और इनसे जुड़े विषयों पर उसे एक लंबा भाषण दिया और बताया कि सरकार ने तय कर दिया है कि कोई दो से ज्यादा बच्चे पैदा न करे। फिर कागज आगे बढ़ाकर कहा, "इस पर दस्तखत करो।'
रंगा परेशान हो उठा। बोला, 'अगर मैं पढ़ा-लिखा होता तो...।"
अफसर ने कहा, 'बायाँ अंगूठा निकाली', और उस पर इंक-पैड से स्याही लगाकर कागज पर दबा दिया।
यह काम हो जाने के बाद भी रंगा यहीं खड़ा रहा। उसका ख्याल था कि अब उसे रुपये और रेडियो दिया जायेगा और उसका काम खत्म हो जायेगा। इसके बाद वह मैदान पार करेगा, सड़क पर पहुँचेगा और जो भी बस निकलेगी, उस पर बैठकर शहर चला जायेगा-अब उसके पास खर्च के लिए काफी पैसे होंगे।
लेकिन अफसर ने उसे एक स्लिप पकड़ायी और आवाज लगायी, 'दूसरे को भेजो।' एक अर्दली अपने साथ एक अधेड़ किसान को लेकर दाखिल हुआ और एक दूसरे अर्दली ने रंगा को हाथ से पकड़कर बाहर खींचा, और कैंप के एक दूसरे हिस्से में ले जाकर खड़ा कर दिया। वहाँ उसने रंगा के हाथ से पर्ची ले ली और उसने अर्दली से जो बहुत से सवाल पूछे थे, उन सब का जवाब दिये बिना, उसे वहीं छोड़कर कहीं और चला गया।
इसके बाद एक और आदमी ने उसे बाँह से पकड़ा और एक कमरे में ले गया जहाँ एक डॉक्टर बैठा था और उसके कई सहायक भी थे। उनके सामने एक लंबी मेज पड़ी थी जिस पर एक सफेद ट्रे में कई लंबे चाकू करीने से रखे थे। खुद चाकुओं का जानकार होने के कारण रंगा को इनका मतलब समझ में आ गया।
डॉक्टर ने पूछा, 'और कितने हैं?" किसी ने जवाब दिया, 'सिर्फ चार हैं, सर!" फिर एक ने रंगा से कहा, 'इस पलंग पर लेट जाओ। " रंगा यह सुनकर डर गया, लेकिन उन्होंने सावधानी से उसे पकड़कर पलंग पर लिटा दिया। एक आदमी ने उसका सिर पकड़कर नीचे किया और दो ने पैर पकड़ लिये। इससे पहले उन्होंने उसके कपड़े उतारकर एक सफेद चादर में लपेट दिया था। इस तरह एक ही कपड़े में लिपटकर उसे शर्म भी आ रही थी, लेकिन वह सोच रहा था कि इसके बाद उसे पैसा मिल जायेगा और वह अमीरी के रास्ते पर चल पड़ेगा। नीली कमीज वाले ने भी यही कहा था कि जो उससे कहा जाये, उसे करता चला जाये।
लेकिन अब अस्पताल जैसे कमरे में पलंग पर लेटे हुए, जहाँ कई आदमी उसे घेरे खड़े थे, उसके मन में फिर संशय और भय पैदा होने लगा। उसे याद आया कि उसका कसाई दोस्त अखबार पढ़कर उसे बताया करता था कि देश भर में किस तरह जगह-जगह कैंप खोलकर गाँववालों को इकट्ठा किया जाता है और उनका आपरेशन कर दिया जाता है जिससे वे और बच्चे पैदा न कर सकें।
तो यह बात थी! अब उसकी समझ में सब कुछ आ रहा था। यह सोचकर कि अब उसका बदन काटा जायेगा, वह सिर से पैर तक काँप उठा।
'हिलो मत, चुपचाप लेटे रहो, 'किसी ने धीरे से उसके कान में कहा। इससे उसे धीरज बँधा और उसने सोचा कि कुछ देखभाल कर ये लोग उसे छुट्टी दे देंगे। नीली कमीज वाले ने उसे विश्वास दिलाया था कि उस जैसे बूढ़े को कोई नुकसान नहीं पहुँचाया जायेगा। जब वह इस तरह के विचारों में खोया हुआ था।
तब उसे लगा कि एक हाथ रूई पकड़े उसके भीतर जा रहा है। फिर जब उसके बदन का कपड़ा हटाया गया और किसी के हाथ उसके लिंग को छूने लगे तो वह पागलों की तरह चीखा, 'हटाओ, वहाँ से अपना हाथ हटाओ," मुझे अकेला छोड़ दो।' जब उन्होंने उसे कसकर पकड़ने की कोशिश की तो उसने झटका देकर अपने को मुक्त कर लिया, अपने पास खड़े आदमी को सिर के धक्के से दूर फेंका और इस तरह मेज पर लुढ़का कि सफेद ट्रे और उसमें करीने से सजे सब चाकू इधर-उधर जा गिरे।
अस्पताल का कपड़ा पहने ही वह बाहर निकल आया, इस वक्त उसमें बला की ताकत आ गयी थी। मैदान में दौड़ते हुए वह चिल्लाता गया, 'मुझे कोई नहीं काटेगा...।" यह आवाज-जो शहर में 'चाकू-छुरी पर धार रखवा लो' की पुकार दूर-दूर तक लोगों को पहुँचाने के लिए बड़ी ताकत और शिद्दत से वह जिंदगी भर लगाता रहा था-चारों तरफ गूंजने लगी।