देवकन्या : कर्नाटक की लोक-कथा

Devkanya : Lok-Katha (Karnataka)

एक था राजा, उसके सात बेटे थे। बड़े छह बेटों को उसने छह राज्यों के सामंत के रूप में नियुक्त किया था। छोटा बेटा ही अपनी माँ के साथ था। उसने एक दिन अपनी माँ से यह पूछा कि मेरे भाई लोग कहाँ चले गए हैं? घोड़े पर चढ़कर कहीं चले गए हैं, बताओ तो माँ, वे कहाँ गए हैं? कहते हुए जिद पकड़ ली। माँ ने उसे सबकुछ सच-सच बता दिया। तब उसने यह कहा कि कुछ भी हो, मुझे उन सबसे मिलना है। वह घोड़े पर चढ़ा और उस दिशा में चल दिया।

छोटा इस तरह अपने भाइयों से मिलने निकला और उधर से यह हुआ कि सभी भाई घर लौट रहे थे, रास्ते में इन सबकी आपस में भेंट हो गई। छोटे भाई ने उन लोगों को वापस चलने पर जोर दिया। कहा, "मैं तुम लोगों का राज्य देखने आ रहा हूँ। तुम लोग वापस चलो।"

फिर वे लोग क्या करते, वापस चल पड़े। रास्ते में एक मंदिर मिला, वहाँ पर सात देव कन्याएँ सात राजमहल बनाकर रह रही थीं। उन कन्याओं का यह स्वभाव था कि वहाँ जो भी जाता, उसे उन्हें अपने यहाँ रखकर तीन महीनों तक खूब अच्छी देखभाल करतीं, तीन महीने पूरा होते ही उनकी काली माँ को बलि दे देते।

यह छोटा भाई अपने सभी भाइयों को ऐसी जगह लेकर गया। बड़े भाई अपनी माँ से जल्द-से-जल्द मिलना चाहते थे। इसीलिए उन लोगों ने छोटे से कहा, हम लोग मंदिर देख चुके। अब वापस चलेंगे। घर में माँ घबराती रहोगी।

छोटे में अनुभव की कमी थी, विवेक भी नहीं था। वह तुरंत लौटने को तैयार न हुआ। कहने लगा, "हमें मंदिर को ठीक से देखना है, भैया। अभी रुक जाओ। फिर मंदिर में वे सातों देव कन्याएँ भी आ गईं। इन लोगों के बारे में सारी जानकारी लेकर इन्हें घोड़ों से नीचे उतरवा लिया। सातों लोगों के घोड़ों को पत्थर बना दिया। सातों देवकन्याओं ने इन सातों राजकुमारों को आपस में बाँट लिया। यह सावधनी भी बरती कि इन सातों भाइयों में से कोई भी आपस में एक-दूसरे को नहीं देख पाए।

इस तरह दो महीने बीत गए। बड़े राजकुमार को अब चिंता होने लगी। उसको इस बात की चिंता हुई कि आपस में भाई लोग एक-दूसरे का चेहरा भी नहीं देख पा रहे हैं। यहाँ आकर फंस गए हैं। मातापिता को इसकी जानकारी भी नहीं कि हम लोग कहाँ हैं?

उसने जाकर छोटी देवकन्या के पाँवों पर झुककर विनती की कि अब हम लोगों को जाने दो, नहीं तो मैं आत्महत्या कर लूँगा।

इस पर उसने कहा कि मैं अपना राज खोल दूंगी तो फिर मेरी बहनें मेरी मरम्मत करेंगी। कल को पूरे तीन महीने हो जाएँगे। कल काली माँ को तुम लोगों की बलि चढ़ाएँगे। किसी तरह कोशिश करके तुम लोग भाग जाओ। इस पर भी वह चुप न हुआ, विनती करता ही रहा। फिर अंत में उस छोटी देवकन्या ने कहा, "कल तुम लोगों को यहाँ आए तीन महीने हो जाएंगे और तुम लोगों को काली माँ की आहुति में बलि दे देंगे। किसी भी तरह कोशिश करके अपने को बचाकर निकल जाओ।" उसने फिर पूछा, "उपाय तो बताओ।"

"मैं मुसीबत में फँसूं या मेरी बहने मुझे खत्म कर देंगी, इस बात की चिंता नहीं, मगर तुम लोग बलि चढ़ने से बच जाओ।" कहकर सात नीबू हाथ में उठाए, उन्हें मंत्रित कर उसके हाथ में देकर कहा, “ये नीबू अपने पास रखो और इन्हें सात पत्थर बने घोड़ों के सिर पर फोड़ो तो वे सजीव हो उठेंगे।" फिर उसने शिकाकाई के बीज, कोयला और रेत हाथ में उठाकर उन्हें भी मंत्रित कर उसके हाथ में दिया, कहा, "अपने भाइयों के घोड़ों को आगे कर तुम उनका पीछा करो; मगर एक बात है, हम लोग जब तक काली माँ की पूजा कर देवेंद्र को प्रणाम कर यहाँ लौटे नहीं, उससे पहले तुम्हें यह काम कर देना चाहिए।"

सातों देवकन्याएँ देवेंद्र के दरबार में नर्तन कर, नमस्कार कर लौटने को थीं कि उससे भी पहले सातों राजकुमार काली मंदिर पहुंच गए। काली माँ इन लोगों को देखकर तुरंत हँस पड़ी। मंदिर में टंगे मुंडों को दिखाकर, “तुम लोगों का भी यही हाल होगा" कह दया दिखाई। इन लोगों ने उससे विनती की, "माँ, तुम्हें हम लोगों के प्रति सहानुभूति हो तो कृपया दरवाजा खोलो।" देवी ने दरवाजा खोल दिया। वह टॅगे सभी मुंड इन लोगों को देखकर हँसे, इन लोगों की नकल उतारकर कहा, “देखो, बड़े-बड़े राजा और शूर से अति शूर-वीराधिवीरों की जो हालत बनी, तैयार रहो, तुम लोगों का भी यही हाल होगा।"

सातों राजकुमारों ने काली माँ को प्रणाम अर्पित किया, फिर घोड़ों पर नीबू फोड़े, घोड़े फिर से प्राणवान बने, सातों घोड़ों पर चढ़े और तेजी से निकल पड़े। सातों देवकन्याएँ लौटीं, देखा कि राजकुमार तो निकल गए हैं।

वे कहाँ हिम्मत हारनेवाली थीं! राजकुमारों का पीछा किया। वे अदृश्य होकर माया अपनाकर जा रही थीं। इसलिए छह बड़े राजकुमार उन्हें देख नहीं पा रहे थे। छोटेवाले को मात्र वे दिख रही थीं।

छोटी देवकन्या ने छोटे से कहा था कि आगे बढ़ते समय शिकाकाई के बीज पीछे की तरफ फेंकते जाना, वह उसी अनुसार बीज फेंकता आगे बढ़ रहा था। सड़क पर शिकाकाई के काँटे पड़े थे। देवकन्याओं की साड़ियों में वे उलझ गए, मगर किसी तरह वे उन्हें छुड़ाकर आगे बढ़ीं। राजकुमार ने कोयला फेंका। आकाश तक कोयले से आग निकली-फैली। वे उसे भी लाँघकर आगे बढ़ गईं। फिर अंत में उनको देखकर वह भी घबरा गया, उस हड़बड़ाहट में उसने रेत को पीछे की तरफ फेंकना भूलकर आगे को फेंक दिया। तब वहाँ पर एक नदी फैल गई। छह भाई लोग नदी के इस पार ही रह गए। यह छोटावाला ही नदी के उस पार जा पाया। सातों देवकन्याओं ने आकर इसे पकड़ा, यह सोचकर सातों को भगा लाने का दोषी यही है। उसको पकड़कर उसका सिर काट डाला। हाथ-पाँव कुछ भी सुरक्षित नहीं रहा। सबको काट गिद्धों को उसका मांस खिलाती गईं।

अपनी बड़ी बहनों के आगे की तरफ बढ़ते समय छोटी देवकन्या छोटे राजकुमार के मांस के टुकड़ों को जमा कर अपने आँचल में छिपाती रही। महल लौटकर उसने उन सारे टुकड़ों को क्रम से जोड़ा। अब वह अपने आपको नहीं रोक सकी। बिलखकर रोने लगी। रात के बारह बज गए। पार्वती-परमेश्वर आकाश के मार्ग से विहार करते जा रहे थे।

पार्वती ने इस कन्या का रोना सुना। आखिर वे भी तो एक महिला थीं। उसे इस पर दया हो आई। इसके पास पहुँचकर इसकी ठुड्डी पर हथेली रख पूछा, “तुम कौन हो बेटी? तुम पर कौन सी विपदा आई है, बता?" तब देवकन्या ने पार्वती के आगे अपना दुखड़ा सुनाया। पूछा, “इसे प्राण देनेवाले परमात्मा कौन हैं?"

पार्वतीजी परमेश्वर के पास उसे ले आईं और विनती कर देवकन्या की माँग पूरी करने को कहा।

परमेश्वर ने उसे फिर से जीवनदान दिया और अपने रथ पर चढ़कर कैलाश लोक चले गए।

छोटे राजकुमार का अब छोटी देवकन्या पर अपार प्रेम बना। उसने कहा, "तुमने मुझे प्राणदान दिया, अब मैं तुम्हें छोड़कर अलग नहीं रह सकता। मेरी सारी संपदा तुम ही हो।"

छोटे राजकुमार की ये बातें सुनकर छोटी देवकन्या को अपनी बड़ी बहनों की कल्पना कर बहुत डर लगा। तब भी कुछ समय के लिए सबकी आँख बचाकर उसकी देखभाल की, यहाँ तक कि देवेंद्र के यहाँ भी नहीं गई।

तब देवेंद्र ने छह कन्याओं से पूछा, "माणिक्य नाम की मेरी छोटी बेटी कहाँ गई? आजकल वह क्यों नहीं आ रही है ?" बात छोटी को सुनाई दी। तो वह सावधान होकर जलक्रीड़ा कर सबके अंत में राजा (देवेंद्र) के पास पहुँची। इस पर देवेंद्र को बड़ी देवकन्याओं पर गुस्सा आया। उसने कहा, "इन लड़कियों को मर्त्यलोक भेजकर मैंने गलत किया। तुम छोटी हो, इसीलिए तुम्हारी उपेक्षा कर रही हैं। आगे से तुम इन लोगों के साथ मत आओ, अकेली ही आया करो।"

तब छोटी कन्या ने अपने पिता देवेंद्र से सारी कहानी कह सुनाई, बताया कि किस तरह उसने छोटे राजकुमार के प्राण बचाए। सुनकर देवेंद्र ने उससे कहा कि तुमने अच्छा किया। अब उसे तुम ही छिपाकर रखो। अपनी बहनों को इसकी खबर नहीं लगने देना। इस प्रकार कुछ दिन और बीते। राजकुमार को अपने शहर की याद आई। उसने देवकन्या से कहा, "मुझे यहाँ आकर बहुत दिन हो गए। अब मुझे लौटना होगा।"

छोटी कन्या ने कहा, "ठीक है, अब मैं तुम्हें सुरक्षित भेज दूंगी।"

इस पर राजकुमार ने यह कहा, "नहीं, मैं तुम्हें यहाँ अकेली रहने न दूंगा। मैं तुमसे शादी करूँगा।" छोटी ने जवाब में कहा, "यह नहीं हो सकता। मैं देवेंद्र की बेटी हूँ। मैं नर मानव से शादी नहीं कर सकती। एक काम करो, मैं तुम्हें एक तारवाला एक तानपूरा दूंगी। वह अपने पास रखना। तुम तार को ऊपर की तरफ खींचोगे तो तुम ऊपर की तरफ देवलोक में आओगे। मैं वहाँ पर तुम्हें मिलूँगी, तुम नीचे की तरफ तार खींचोगे, तब भूलोक में पहुँच जाओगे।"

छोटी कन्या ने देवेंद्र से राजकुमार की इच्छा की बात बता दी। देवेंद्र को यह बात नहीं भाई। उसने इनकार कर दिया।

फिर राजकुमार लौटकर आया, शहर के पास आकर उसने अपने भाइयों को गड़ेरियों से संदेश भेजा कि उसने देवकन्या से शादी की है। वे आकर उसे ले जाएँ।

पहले तो भाइयों को विश्वास न हुआ, क्योंकि उन्हीं के आगे छोटे की हत्या हुई थी। संदेश की परीक्षा करने के उद्देश्य से वे सब आते हैं। आकर अपने छोटे भाई को देखकर संतुष्ट होते हैं। पूछते हैं कि देवकन्या कहाँ है?

वह जवाब में कहता है, "मैं तुम लोगों को दिखाऊँगा। थोड़ा समय चाहिए।"

उन भाइयों की एक छोटी बहन थी। छोटे राजकुमार ने महल के एक कमरे में एक तार को छिपाकर रखा था।

एक दिन ऐसा हुआ कि राजकुमर कहीं बाहर गया हुआ था और तभी कौतूहलवश राजकुमारी ने राजकुमार का वह कमरा खोलकर एकतार को उठाकर बजा दिया।

वास्तव में छोटे राजकुमार को छोड़कर और कोई उसे इस्तेमाल नहीं कर सकता था। जैसे ही राजकुमारी ने तार खींचा, देवकन्या को बाहर आना ही था, आ गई।

राजकुमारी के तार खींचने से उसे गुस्सा आया। उसने राजकुमारी से कहा, "तुम अपने भाई से कहो कि अब देवकन्या कभी नहीं आएगी।"

इतना कहकर देवकन्या चली गई।

राजकुमार महल लौट आया। अपने कमरे में बैठकर खुश होकर उसने एकतार को खींचा। देवकन्या नहीं आई। उसको आश्चर्य और दुःख एक साथ हुआ। उलटा गिरकर रोने लगा। अपनी माँ से पूछा कि कमरे का दरवाजा किसने खोला था? सारी बात जानकर वह दोबारा घोड़े पर चढ़कर गया। आठ दिनों में वह किसी तरह देवकन्या के पास पहुँचा और उसे ले आया। सभी के आगे उससे शादी कर सुख से बहुत समय तक राज करता रहा।

(साभार : प्रो. बी.वै. ललितांबा)

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