देवदासी (कहानी) : सुभद्रा कुमारी चौहान

Devdasi (Hindi Story) : Subhadra Kumari Chauhan

सोकर उठते ही सुरेश की दृष्टि सामनेवाले मकान पर पड़ी, जो महीनों से खाली पड़ा था। उसने देखा, एक स्त्री सामने छज्जे पर खड़ी है। सिर के बाल छल्ले-छल्ले बनकर माथे पर बिखरे हुए थे। रंग बहुत गोरा न होकर भी साँवला न था। चेहरा बड़ा ही आकर्षक था। स्त्री के चेहरे पर विषाद की एक गहरी छाप स्पष्ट दिखाई दे रही थी। उम्र कुछ अधिक थी, पर सौंदर्य में किसी प्रकार की कमी न आ पाई थी। सुरेश मंत्रमुग्ध की तरह बहुत देर तक उसकी ओर देखता रहा। स्त्री नीचे सड़क की ओर देख रही थी। आँख ऊपर करते ही उसने सुरेश को देखा। दोनों की आँखें मिलीं। सुरेश की आँखों में प्रश्न था और रमणी की आँखों में याचना। तुरंत ही किसी प्रकार की आवाज सुनकर रमणी भीतर चली गई। फिर छज्जे के दरवाजे दिन भर बंद रहे। उसके नए पड़ोसी कौन हैं, यह सुरेश बिल्कुल न जान सका। शाम को सुरेश घूमने चला गया। घर लौटा तो साढ़े ग्यारह बज रहे थे। सामनेवाले मकान में अब भी प्रकाश था। सुरेश एक आरामकुरसी पर लेट-सा गया। एकाएक एक बड़ी ही मधुर, संगीत की लहर ने आकर उसकी सारी शिथिलता को दूर कर दिया। वह उठकर बाहर आया। छज्जे पर सामनेवाले मकान में कोई गा रही थी-

साँवरिया से लागि रहे दोऊ नैन।
साँवरिया से ...

गायिका संगीतकला की विशारदा जान पड़ती थी। सुरेश भी तो संगीतप्रेमी था। और केवल संगीतप्रेमी ही नहीं, संगीत के विषय में उसे ज्ञान भी काफी था। सुरेश सोचने लगा, हो न हो यह वही स्त्री है ! पुरुष के गले में इतनी मिठास आएगी कहाँ से? तब तक गायिका ने गीत का अंतरा गाया-

काह करूँ कित जाऊँ मोरी सजनी नाहीं परत मोहे चैन।
साँवरिया से लागि रहे दोउ नैन।

*****

संगीत बंद हो चुका था। सुरेश कुछ देर तक टहलता रहा। और थोड़ी देर में उसे एक हल्की सी चीख सुनाई पड़ी। फिर सबकुछ बंद। सुरेश कुछ न समझ सका कि मामला क्या है ? वह जाकर सोया रहा।

दूसरे दिन सवेरे सुरेश देर तक सोता रहा। जब वह सोकर उठा, तब तक छज्जे के सब दरवाजे बंद हो चुके थे। दोपहर को सुरेश अपने कमरे में खड़ा था। एकाएक सामनेवाले मकान की एक खिड़की का एक काँच निकल गया। सुरेश ने फिर उसी रमणी का मुँह देखा। इन दोनों के बीच काफी अंतर था। चेहरा भी बहुत साफ न दिखाई पड़ता था। रमणी बहुत देर तक सुरेश की ओर देखती रही, आँखों में याचना थी, चेहरे पर करुणा। सुरेश कुछ समझ न सका कि मामला क्या है? वह बैठ गया। बैठ जाने पर वह स्त्री दिखाई न पड़ती थी। कुछ देर बाद सुरेश ने देखा, काँच फिर उसी तरह जहाँ-का-तहाँ लगा दिया गया है।

सुरेश के सामने यह स्त्री एक समस्या बनकर प्रकट हो गई। वह कुछ समझ ही न पा रहा था कि मामला क्या है ? रमणी न तो कुलवधू सी जान पड़ती थी, न निर्लज्ज वेश्या ही वह सुरेश की ओर देखती थी जरूर, पर वासना की लपट उन आँखों में नहीं थी। उन आँखों में विषाद के साथ याचना जरूर साफ-साफ दिखाई पड़ती थी। यह भी साफ-साफ जान पड़ता था कि जैसे वह सुरेश से कुछ कहना चाहती हो, पर अवसर न मिलने के कारण न कह पाती हो। सारे दिन सुरेश इन्हीं गुत्थियों में उलझा रहा और शाम होते ही घूमने चला गया। सुरेश ने सोचा, दूसरों की चिंता में क्यों वह अपना समय खराब करे? उसने अपने जी को बहुत समझाना चाहा, किंतु पहेली के रूप में वह स्त्री बार-बार उसके नेत्रों के सामने आ जाती थी।

***

सुरेश बहुत रात गए घर लौटा। सोने की तैयारी कर रहा था कि सामनेवाले छत पर उसे कुछ बातचीत सुनाई पड़ी। रात की नीरवता में सुरेश ने साफ-साफ सुना, कोई कह रहा था, "तो तुम सीता सती हो? बस यहीं या उस मंदिर में भी, जहाँ हजारों को रिझाने के लिए तुम्हें नाचना और गाना पड़ता था।"

"सीता सती न होकर भी मैं दुराचारिणी नहीं हूँ।" सुरेश ने सुना, स्वर रमणी का था। "और आपकी बात मुझे किसी तरह भी मंजूर नहीं। यदि आपने मेरे ऊपर अपनी ताकत आजमाई तो मैं चिल्लाऊँगी।"

रमणी तेजी के साथ बाहर छज्जे पर निकल आई। अपनी छत पर खड़ा सुरेश बैठ गया। रमणी के साथ-साथ उससे बातचीत करनेवाला युवक भी बाहर आ गया। स्वर कुछ धीमा करके बोला, "प्रतिमा, तुम्हें हम समझाते आ रहे हैं, तुम्हारे साथ किसी प्रकार का जुल्म नहीं करते। हम जानते हैं, तुम कुलवधू नहीं हो। नाचने-गाने का तुम्हारा पेशा है। एक नहीं, अनेक पुरुषों से तुम्हारा संसर्ग रह चुका होगा, फिर हमारे साथ, जिसे तुमने अपने मीठे और मधुर व्यवहारों से उन्मत्त बना दिया है, तुम्हारा व्यवहार ऐसा क्यों है?"

प्रतिमा बोली, “मीठे और मधुर व्यवहार का यह अर्थ कदापि नहीं होता, नरेंद्रबाबू कि हम आपको अपना शरीर अर्पण कर दें! फिर मेरा यह शरीर तो देवता को अर्पित हो चुका है। मैं देवदासी हूँ। मुझसे वह बात न होगी।" नरेंद्र एक व्यंग्य की हँसी हँसता हुआ बोला, "तो तुम अभी तक सती हो, यही न! और वह पुजारी, जिसके पीछे-पीछे तुम..."

प्रतिमा बात काटते हुए बोली, "बस-बस रहने दीजिए, आप पुजारीजी का नाम न लीजिए। वे मेरे पिता के तुल्य हैं। वे बहुत सीधे हैं। अगर वे सीधे न होते, तो आप मुझे वहाँ से धोखा देकर ला भी न सकते थे।"

नरेंद्र का नशा इस समय जोर पर था। वह क्रोध से बोला, "मैंने उन्हें धोखा दिया है या तुमने मुझे उल्लू बनाना चाहा है? साफ-साफ कहो, क्या तुम्हारी खुद की इच्छा न थी, मेरे साथ घूमने चलने की?"

प्रतिमा-"घूमने जाना दूसरी बात है और घूमने के बहाने भाग जाना दूसरी बात है। आपने पुजारीजी से नहीं कहा था कि शाम होने से पहले लौट आएँगे?"

नरेंद्र-“ओहो! इतनी भोली तो न बनो, तुम नहीं जानती थीं कि हम लोगों ने घूमने की बात क्यों की है ? तुम बड़ी नीच हो। सबकुछ तुम्हारे ही कारण हुआ है और तुम अब मुझे ही बेवकूफ बनाना चाहती हो!"

प्रतिमा-"यदि मुझे मालूम होता कि घूमने के बहाने आप मुझे भगा ले जाएँगे, तो मैं आप लोगों के साथ कभी न आती।"

"झूठ बोलते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? किसी दूसरे से आँख लड़ गई है, यह क्यों नहीं कहती, बेहया कहीं की!” कहकर नरेंद्र गुस्से से छत पर टहलने लगा।

प्रतिमा ने कहा, “आपका व्यवहार मेरे साथ बहुत उदंड होता जा रहा है। मैं इसकी आदी नहीं हूँ।"

"उदंड व्यवहार इसको कहते हैं", कहते हुए नरेंद्र ने कसकर एक तमाचा प्रतिमा को लगा दिया। प्रतिमा चीख पड़ी। कमरे से नरेंद्र के साथी अन्य युवक बाहर निकल आये ।

उनमें से एक बोला, "यार नरेंद्र छोड़ो भी तुम क्यों इसके पीछे पड़े हो ?"

नरेंद्र बोला, "पीछे पड़ने की बात नहीं है, तुम जानते हो हम लोग एक महीने से इसीके पीछे रुपया-पैसा और समय बर्बाद कर रहे हैं । कुछ मेरा अकेला अनुमान भी नहीं तुम्हारा सभी मित्रों का अनुमान था कि यह हम लोगों के साथ भाग जाना चाहती है, तभी तो हम लोगों ने इसे वहां से निकला नहीं तो औरतों को भागना कोई हमारा पेशा थोड़े ही है ?"

"अनुमान गलत भी हो सकता है।" एक तीसरे ने कहा, जिसे अनायास ही प्रतिमा से कुछ सहानुभूति हो गई थी।

"तुम लोग बेबकूफ बन सकते हो, पर मैं न बनूँगा। मैं अभी इसे सीधी किए देता हूँ।" ऐसा कहते हुए नरेंद्र ने प्रतिमा के पास आकर कहा, "यह रोना किसे सुना रही हो? अब कोई तुम्हारे नखरों को देखकर धोखा नहीं खा सकता। तुम्हारी जात ही ऐसी होती है। उल्लू फाँसकर रखने में तुम लोग अपनी विजय समझते हो। पर हम वह उल्लू नहीं हैं कि फँस जाएँ ! पहले तुम्हें फँसा लेंगे, बाद में हम फँसेंगे।"

प्रतिमा ने कहा, "ठीक है ! आपकी कैद मैं हूँ, जो चाहे आप कर सकते हैं। पर मैंने आप लोगों को पढ़ा-लिखा सभ्य पुरुष समझा था। मैं क्या जानती थी कि पुरुष के रूप में आप राक्षस हैं।"

"हम राक्षस हैं ?" नरेंद्र ने दूसरा तमाचा प्रतिमा को जड़ दिया, “और तुम देवी हो! बदजात कहीं की! मंदिर का राई-रत्ती हाल जिसे न मालूम हो, उसके सामने अपने सतीत्व का ढोंग रचना ! यहाँ पहले ही सबकुछ जान लिया था, तब पैर आगे बढ़ाया था। हमने कोई कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं।" अब सुरेश से न रहा गया। उठकर खड़ा हो गया। टॉर्च फेंकते हुए उसने कहा, "आप लोगों की बात करीब आध घंटे से मैं सुन रहा हूँ। इतनी बातें सुनने के बाद इसी परिणाम पर पहुँचा हूँ कि आप लोगों ने इसको कैद कर रखा है। यह आपकी कोई नहीं। इसे आप भगा लाए हैं।"

नरेंद्र ने उसी क्रोध के स्वर में कहा, "हमारे आपस के झगड़े में पड़नेवाले तुम कौन हो?"

सुरेश बोला, “मैं एक मनुष्य हूँ, जो मनुष्यता का बरताव करना चाहता है। यदि आप लोगों ने मेरे साथ दूसरी तरह का बरताव किया तो फिर मुझे पुलिस का आश्रय लेना पड़ेगा।"

***

मामला पुलिस तक गया। वे चारों व्यक्ति जमानत पर छोड़े गए। प्रतिमा को उसकी इच्छानुसार सुरेश के साथ छोड़ दिया गया। सुरेश उसे उसके मंदिर के पास पहुँचा देना चाहता था, परंतु प्रतिमा उसी रात में बीमार हो गई और लगातार एक महीने तक बीमार रही। बीमारी से अच्छे होने के बाद अस्पताल से लौटकर प्रतिमा सुरेश की अतिथि हुई।

एक दिन सुरेश बोला, "अब आपको मंदिर पहुँचाना पड़ेगा, किंतु आपने अब तक यह नहीं बताया कि आप इन लोगों के चंगुल में कैसे फँस गईं?"

प्रतिमा बोली, "गुजरात के देहाती इलाके में दुर्गादेवी का एक बड़ा प्राचीन मंदिर है। मंदिर से लगी हुई बहुत सी जायदाद है, जिसकी सालाना आमदनी तीस हजार के करीब होती है। उसी मंदिर की मैं देवदासी हूँ। माता-पिता ने मन्नत माँगी थी कि यदि संतान होगी तो कन्या संतान देवता की भेंट चढ़ा देंगे। मैं उनकी दूसरी संतान हूँ। पाँच वर्ष की आयु में वे मुझे मंदिर में छोड़ गए। मंदिर के बहुत से ट्रस्टी हैं और एक प्रधान पुजारी। और कई पुजारी हैं। प्रधान पुजारी पढ़े-लिखे, विद्वान् और बहुत नेक हैं। मंदिर की आमदनी से बहुत से छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती है, बहुत से अनाथ और विधवाओं का पालन होता है। प्रधान पुजारी के कारण मंदिर में किसी प्रकार का अनाचार नहीं हो पाता। मेरे अतिरिक्त और भी देवदासियाँ हैं। मंदिर के ट्रस्टी तथा अन्य लोग देववासियों के साथ अनाचार करना चाहते हैं, पर प्रधान पुजारी के कारण यह नहीं हो पाता था। इसीलिए ट्रस्टीगण पुजारीजी से असंतुष्ट हैं। मुझे पुजारीजी ने छुटपन से ही हिंदी और संस्कृत की शिक्षा दी है। मैं मंदिर में नाचने-गाने के बाद उनका लिखने-पढ़ने का भी बहुत सा काम कर देती थी। वे बहुत बूढ़े हो चुके हैं। नरेंद्र वगैरह छह आदमी एक दिन हमारे मंदिर में पहुँचे। ये लोग पढ़े-लिखे सभ्य कहलाते हैं। पुजारीजी ने इनके आदर-सकार का भार मुझे सौंपा। इसके बाद इन्होंने मंदिर में कुछ दिन ठहरना चाहा। आने-जानेवालों के लिए ठहरने का प्रबंध वहाँ काफी अच्छा है। उसके बाद ये लोग धोखा देकर मुझे ले आए। कई जगह ले गए, कहीं एक दिन ठहरे, कहीं दो दिन। सब जगह मुझसे यही कहते रहे कि पुजारीजी से पूछ लिया है। पर मुझे संदेह हो गया। यहाँ कई दिन से ठहरे हुए हैं। जो कांड हुआ, वह आप सब जानते हैं।"

सुरेश बोला, "पहले पत्र लिखकर पुजारीजी से मंदिर का हाल-चाल पूछ लूँ, फिर तुम्हें ले चलूँ।" प्रतिमा की भी यही राय रही। सुरेश ने पत्र लिखा और कई दिन बाद उत्तर मिला, "मंदिर की एक प्रधान देवदासी के अचानक गायब हो जाने से मंदिर में बड़ी गड़बड़ी मच गई है। ट्रस्टी लोगों ने प्रधान पुजारी को अलग कर दिया है। उनके स्थान पर जो प्रधान पुजारी नियुक्त हुआ है, वह बड़ा अनाचारी है। अब मंदिर मंदिर नहीं, अत्याचारियों का अड्डा हो रहा है।

निवेदक
........."

पत्र पढ़कर प्रतिमा ने कहा, “अब मैं वहाँ जाकर क्या करूँगी?"

सुरेश ने कहा, “फिर अब क्या करना चाहिए?"

हताश-सी होकर प्रतिमा बोली, "मैं क्या कहूँ, आप ही जानिए!"

सुरेश ने कहा, "मेरा तो विचार है कि आप विवाह करके किसी भले आदमी की कुलवधू की तरह रहिए।"

प्रतिमा चौंक पड़ी, "विवाह ? मुझसे कौन विवाह करेगा और फिर विवाह की मेरी उम्र भी तो नहीं रही।"

सुरेश ने प्रतिमा के जरा पास जाकर प्रेम, श्रद्धा और आदर के भाव से कहा, "उम्र की बात मत कहो, प्रतिमा ! शेक्सपियर ने जिससे विवाह किया था, उसकी उम्र उससे नौ साल अधिक थी। विवाह दो आत्माओं का मिलन है और आत्मा कभी वृद्ध नहीं होती। मैं तुमसे विवाह कर सकता हूँ।" ।

प्रतिमा का चेहरा लज्जा से लाल हो रहा था। उसका मस्तक झुकते-झुकते सुरेश के चरणों पर आ गिरा।

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