देवदासी (कहानी) : रांगेय राघव
Devdasi (Hindi Story) : Rangeya Raghav
एक
उस समय मन्दिर निर्जन हो चुका था । निस्तब्धता सनसना रही थी। बाहर घोर अन्धकार था । आकाश में बिजली कड़क रही थी। उस युवक ने तलवार को टेका और उठ खड़ा हुआ । भीतर सब काम कर चुकने पर पुजारी ने सोचा कि अब शीघ्र ही उसे प्रतिमा के चरणों पर शीश रखकर सोने जाना चाहिए ।
पल्लव- राज के इस विशाल मन्दिर में कामाक्षी का यह भव्य स्वरूप देखने के लिए दक्षिणापथ के अनेक भागों से लोग आकर एकत्रित होते थे। तीन सौ वर्ष पहले सातवाहनों के अन्त पर सम्राट् विष्णुगोप ने पल्लव साम्राज्य को स्वतन्त्र कर दिया था । उनके उत्तराधिकारी आज कदम्बों और गांगेयों के भी प्रभु थे । पेलार नदी के पास काञ्ची का भव्य नगर भुवन -विख्यात था। राजप्रासाद के विराट् अलिन्दों में दिन में अगरू - धूम जलता, रात्रि में दीपाधारों से प्रकाश जगमगाता । बाजार-हाट में सुदूर जावा- सुमात्रा के व्यापारी आ-आकर बैठते । समुद्र-तीर पर अनेक सफेद पाल वाले जहाज खड़े रहते, प्रकाश-स्तम्भों से रात को किरणें फूट-फूटकर अथाह सागर की चंचल जलराशि पर खेल उठतीं । महेन्द्र के समान विक्रमी सम्राट् सिंहविष्णु के चरणों पर आज प्राचीन चोल और पाण्ड्य के रत्नजठिन मुकुट रखे थे, चालुक्य राज ने मैत्री का कर बढ़ा दिया था। मम्राट् सिंहविष्णु युवावस्था को आज से अनेक वर्ष पहले पार कर चुके थे । राजकुमार महेन्द्रवर्मा की संत अप्यारस्वामी के प्रति श्रद्धा होना प्रजा में प्रसिद्ध हो चुका था। क्योंकि वह पिता की आज्ञा के बिना ही नगर के ईशान कोण में शैव मन्दिर बनवा रहे थे ।
पुजारी रत्नगिरि ने इधर-उधर देख भक्ति से प्रतिमा को प्रणाम किया और सोने चला गया । प्रायः आधी रात बीत गई। आकाश में बादल गरज रहे थे । मन्दिर का विशाल प्रांगण पानी से भीग गया था। उसी समय बिजली बड़े वेग से कड़क उठी। मंदिर का विशाल गोपुर अन्धकार में एक बार चमक उठा। युवक तलवार लिये कुछ देर खड़ा रहा, फिर बाह्य परिवेष्टि को लांघकर भीतर अलिन्द में आ गया । वह एक स्तम्भ के पीछे हो गया और अन्धकार में कुछ देखने का प्रयत्न करने लगा ।
किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रखकर धीरे से कहा "आ गए रंगभद्र ?"
रंगभद्र ने मुड़कर कहा "तुम बुलाती और मैं न आता रुक्मिणी ! देवदासी का कहना तो भगवान् भी नहीं टाल सकते फिर मैं तो साधारण मनुष्य हूं।"
"तुम सचमुच बड़े साहसी हो कुमार!" देवदासी ने धीरे से कहा। युवक ने उसका यह दीर्घ निःश्वास भी सुना। उसने उद्वेग से उसका हाथ पकड़ लिया और कहा- "रुक्मिणी, मैं कब तक तुम्हारी अवहेलना में तड़पता रहूंगा ? कब तक मैं उस भविष्य के सागर में लहरों की दया पर अपना पोत भटकाता रहूंगा ? आज प्रायः एक वर्ष बीत गया। अब मुझे फिर सिंहल लौट जाना होगा। अब के मैं सिंहल के बहुमूल्य मोती काशी भेजने का व्यापार करना चाहता हूं । चलोगी मेरे साथ ?"
देवदासी ने कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप देखती रही। युवक ने फिर कहा- "सुन्दरी, तुम किस चिन्ता में डूब गयी हो ? धन की कमी नहीं, धर्म की कमी नहीं, अधिकार की कमी नही, प्रेम की कमी नहीं, और तुम रूपशालिनी हो तो फिर मुझे रूप की कमी नहीं फिर तुम्हें कौन-सी चिन्ता खाये जा रही है ?"
देवदासी कांप उठी । उमने धीरे से कहा - "धीरे कुमार, धीरे, कहीं देवता न सुन ले। मैं जाती हूँ।"
वह सचमुच एकदम चली गयी और युवक के कण्ठ में उसका स्वर अटककर रह गया ।
मन्दिर का विशाल अलिन्द सूना हो गया। युवक लौट चला।
दो
दूसरे दिन पुजारी ने पूजा समाप्त करके बाह्य प्रवेशद्वार के पास आकर देखा, सूर्य्यमणि भक्ति से नमस्कार कर रही थी । उसने गद्गद होकर उसे आशीर्वाद दिया । सूर्य्यमणि के श्याम मुख पर उस स्वर्ण मुकुट की हल्की प्रभा छिटककर उसे किंचित् हरिताभ बना रही थी । उसके सफेद चीनाशुकों में वह सुघर अंग-संगठन किसी चतुर शिल्पी की कला का अद्भुत प्रमाण लगता था । रत्नों और आभूषणों से लदी वह कुमारी, मानमरोवर के मांसल इन्दीवर-सी पुलक उठी। उनके विशाल नयनों की कोरों में शतदल के कांपते दलों की लालिमा, चपल चितवन की विद्युत वाहिनी तृष्णा को सहला देती थी । उसने कहा--"देव, आप आजकल मुझे कभी रामायण नहीं सुनाते ! पहले तो आपका स्वर गूंजता था । रुक्मिणी नृत्य करती थी । समस्त मंदिर गूज उठता था। माता कामाक्षी की प्रतिमा के अधरों पर मुस्कान छा जाती थी...।"
"बेटी,” पुजारी ने मन्दस्मित से कहा- "रत्नगिरि तो तत्पर है, किन्तु तू जब से राजमाता की सेवा में जाने लगी है तब से तुझे देव-सेवा का समय ही कहां मिलता है ? अब तो तू सेनापति के पुत्र धनंजय की पत्नी होने जा रही है न ?"
"हां, भगवन् !" सूर्य्यमणि ने अपने पांव के अंगूठे को लाज से देखते हुए कहा, " लेकिन मैं आज रामायण सुने बिना नहीं जाऊंगी।"
"अरे, तेरा हठ नहीं गया, पगली !" रत्नगिरि ने हर्षित होते हुए कहा और फिर उसने आवाज दी- 'रुक्मिणी ! "
रुक्मिणी स्तम्भ के पीछे से निकलकर आ गयी।
वृद्ध पुजारी ने कहा - "बेटी, सूर्य्यमणि रामायण सुनना चाहती है।"
"ओह," रुक्मिणी ने पुलकते हुए कहा- "मुझसे ही क्यों न कह दिया ? अभी लो।"
कुछ ही देर बाद उस अलिन्द में लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। सूर्य्यमणि ने देखा, धनंजय भी खड़ा है ।
वृद्ध रत्नगिरी ने स्वस्तिवाचन किया और मृदंग पर थाप पड़ी । उधर देवदासी रुक्मिणी का नूपुर बज उठा। ट्रिम ट्रिम के उस अप्रतिहत नाद पर यौवन से स्फीत कमल- चरण का मंथर चलन-स्तम्भों मे टकराकर समस्त अंतराल में कांप उठा। युवक धनंजय के नयन गड़ गए। देवदासी आज मेनका-सा नृत्य कर रही थी । रत्नगिरि गाने लगे । उनके गम्भीर स्वर में लोगों के हृदयों में एक पवित्र भावना छा गयी। नर्तकी के अंग- चालन का मादक उल्लास धनंजय की धमनी - धमनी में डोल उठा । सूर्य्यमणि ने एकाएक दृष्टि उठाकर देखा, धनंजय मन्त्रमुग्ध-सा लोलुप दृष्टि से देवदासी के उच्छृंखल यौवन को खा रहा था। वह चंचल हो गयी। शंका और ईर्ष्या ने उसके हृदय पर आघात किया। देवदासी नृत्य करती रही, रत्नागिरि गाता रहा और सूर्य्यमणि ने देखा, धनंजय के पास गयी। धनंजय ने उसे मुड़कर भी नही देखा। सूर्य्यमणि के लिए समस्त सौन्दर्य विष हो गया । वह एकाएक चिल्ला उठी- "रोक दो यह नृत्य ! यह नृत्य रोक दो ! नहीं, नहीं, यह नृत्य नहीं है...!"
देवदासी विभोर होकर नाच रही थी। एकाएक उसके पैर ठिठक गए, जैसे किसी ने उस पर वज्र का आघात किया हो। उसने देखा, सूर्य्यमणि उसे ज्वलन्त नेत्रों से देख रही थी । रत्नगिरि गाना रोककर उठ खड़ा हुआ । एकत्रित जनसमुदाय कोलाहल करने लगा ।
देवदासी क्रोध मे फुंकार उठी- "देवदासी का अपमान करना देवता का अपमान करना है मूर्ख लड़की ! यदि तेरे हृदय में पाप है तो तू मन्दिर छोड़कर चली जा ।"
इससे पहले कि रत्नगिरि कुछ कहे, रुक्मिणी परिक्रमा की ओर चल पड़ी । उन्मत्त सा धनंजय उसके पीछे चल दिया। सूर्य्यमणि कटे वृक्ष सी भूमि पर गिरकर रोने लगी। समुदाय तितर-बितर होने लगा । रत्नगिरि कुछ भी नहीं समझा। इस प्रकार अकारण व्याघात से उसका चित्त सूर्य्यमणि से उदासीन हो गया। वह उठकर भीतर चला गया। सूर्य्यमणि स्तम्भ के किनारे रोती रही।
तीन
वृद्ध सिंधुनाद कवि था। सूर्य्यमणि उसकी एकमात्र पुत्री थी। जब वह गाता था, साम्राज्य का बड़े से बड़ा कठोर हृदय सेना का उच्च पदाधिकारी झूम उठता था। उसके गीतों को आज पल्लव ही नहीं, चलो और पांड्य के घर-घर की स्त्रियाँ गातीं । पुरुष मुग्ध होकर सुनते और सम्राट् सिंहविष्णु उसे अपने भाई के समान प्यार करते। देवदासियाँ उसके गीतों पर जिस तन्मयता से नृत्य करतीं, उसे देखकर लगता जैसे वे सचमुच देवकन्या हों। उसके गीतों की प्रवहमान लय प्राची से पश्चिम तक गगन में अनंत वर्णों से भरी नीलिमा की छाया - सी काँपती रहती और प्रेम और करुणा का वह स्रोत कहीं भी समाप्त नहीं होता, कहीं भी जैसे विक्रांति को आवास न मिलता।
सिंधुनाद इस समय वीणा के तारों पर उँगलियाँ फेरकर यौवन के खोए हुए स्वर का उत्ताल ढूँढ रहे थे। उनके शरीर पर बहुमूल्य रेशम मंद-मंद वायु में फहरा रहा था। उनके प्रकोष्ठ की दीवारों पर सुदूर ताम्रलिप्ति के प्रसिद्ध चित्रकारों ने अद्भुत चित्र अंकित किए थे। स्फटिक के स्तंभों पर दीपों का झिलमिल प्रकाश प्रतिध्वनित हो रहा था, जैसे बादलों में बिजली चमक रही थी। मादक सुरभिवाही समीर जब अगरु धूम की कवरी खोलकर नृत्य करने लगता था तो दीवारों पर छायाएँ मुद्रा बनाने लगतीं और वीणा के करुण स्वर रुमझुम करते वायु की लहर लहर पर गा उठते ।
सिंधुनाद इस समय दमयंती का विलाप गा रहे थे। उनकी यह कविता अजर- अमर हो जाएगी। आज उनके भाव सीमा में नहीं थे। नल चला गया है। दमयंती पेड़-पेड़ से पूछ रही है, मृग-मृगी कातर होकर रो पड़े हैं, आकाश में प्रतिपदा का चंद्र उग आया है, सघन वनस्पति पर उसकी विलोल - मुखरा किरणें काँप रही हैं जैसे सागर पर फेन काँप रहे हों, जैसे श्यामा सुंदरी के कर्णफूलों की आभा से कपोलों पर प्रकाश रणरण करता अवगुंठन खींच रहा हो।
सिंधुनाद तन्मय होकर विभोर हो गए। एकाएक भारी-भारी श्वास लेती सूर्य्यमणि ने प्रवेश किया और चुपचाप पास बैठकर सुनने लगी।
दमयंती उस समय आकाश के तारों से पुकार पुकारकर पूछ रही थी, "हे नील असीम के बुदबुदो! हे अनंत कवरी के शीशफूलो! कहाँ है वह मेरे हृदय की एकमात्र सांत्वना?"
सूर्य्यमणि रो उठी। वृद्ध का स्वप्न टूट गया। गीत के आवर्तों में पड़कर सूर्य्यमणि के टूटे प्यार की भग्न नौका झटके खाने लगी। वह पिता की गोद में सिर रखकर रोने लगी। वृद्ध ने एक हाथ से वीणा को हटा दिया और फिर कहा, "क्या हुआ वत्से?" पहले उसने समझा, शायद गीत को सुनकर रो रही है। सूर्य्यमणि ने कुछ नहीं कहा। वह रोती रही। उसके मुख की पत्रलेखा बिगड़ गई। वृद्ध ने उसका सिर उठाया। वेदना से उसका मुख कातर हो उठा था। वृद्ध का हृदय विह्वल हो उठा। उसने कहा, “पुत्री, तुझे किस बात का शोक है? मैंने आज तक कभी तेरी इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया। आज तक तू ही मेरे जीवन का एकमात्र सहारा रही है। फिर तेरे नयनों में ये व्याकुल अश्रु किसलिए? करुण रात्रि की भाँति तेरे इन पंकज दलों पर ये नीहार-कण क्यों?"
सूर्य्यमणि ने कुछ उत्तर नहीं दिया। वह रोती रही। उस समय कवि को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे साक्षात् कामाक्षी आज ग्लापित कंठ से उच्छृवासरुद्ध-आर्तमना सिसक उठी थी । उसके नयनों में आँसू छा गए। देर तक दोनों कुछ न बोले सिंधुनाद अपनी पुत्री के सिर पर हाथ फेरते रहे, जैसे उन्होंने कविता को सहला दिया था। सूर्य्यमणि के सघन सुचिक्कण केशों पर वृद्ध का वात्सल्य से भरा आर्द्र श्वास ऊष्मा से भरकर बिखर गया। सूर्य्यमणि का हृदय उद्वेग से बारंबार ठोकर खाकर गिर जाता और आँसू बह-बह आते।
वृद्ध ने आंदोलित होकर कहा, “सूर्य्ये, कह न? क्या कष्ट है तुझे, जो पावस की भाँति तेरे आँसू अज्ञातवास करने निकले जा रहे हैं?"
सूर्य्यमणि ने सिर उठाया । आँखों में आँसू चमक रहे थे, जैसे हीरक के चषक वारुणी छलक रही थी। डबडबाते अश्रु प्रभात के उज्ज्वल प्रकाश के समान काँप रहे थे, जैसे सीप में मोती जगमगा उठे हों।
“सूर्य्यमणि,” वृद्ध ने फिर कहा, “पल्लव के इस समुद्रपर्यंत साम्राज्य में मैं तेरे अतिरिक्त किसी को भी इतना भाग्यशाली नहीं गिनता था। आज तेरी आँखों में यों अश्रु क्यों? सिंधुनाद ने वही किया जो तूने चाहा। जिसके लिए राजकुमारियाँ लालायित थीं, उस कामदेव के सदृश लावण्य-मनोहर धनंजय की तू पत्नी होने वाली है, फिर तुझे कैसा दुःख?"
सूर्य्यमणि ने धीरे से कहा, “पिता, वह मेरी उपेक्षा कर रहा है। आज देवमंदिर में एक साधारण नर्तकी के पीछे पागल सा घूम रहा था। मैं हृदय की साक्षी हूँ, मुझे एक बार भी मुड़कर नहीं देखा।”
“यह नहीं हो सकता सूर्य्यमणि, यह नहीं हो सकता । वृद्ध सिंधुनाद उठ खड़े हुए। “किंतु,” उन्होंने कहा, "प्रेम में बल नहीं चल सकता। मैं जानता हूँ, धनंजय युवक है। यौवन प्रेम के अतिरिक्त लोभ में भी पड़ सकता है। किंतु बल-प्रयोग भी तो नहीं किया जा सकता। मैं उसे समझाऊँगा पुत्री, इतनी व्याकुल न हो। "
"नहीं", पिता से उच्छ्वसित सूर्य्यमणि ने कहा, “नर्तकी मुझसे भी सुंदर है। उसका रंग तुहिन -सा श्वेत कमल-सा लालिम, रेशम सा चिकना है और सागर-सा गंभीर रूप है। उसमें अनावृत यौवन है, मादकता में वह मेनका जैसी है। उसके नयनों में त्रिभुवन काँपते हैं, मेखला की प्रभा से उसकी मंद- मंद गति में भुवनमोहिनी वशीकरण का सुख जैसे तुला पर टँग जाता है। उसके केशों की सुरभि से देवमंदिर कमल वन की भाँति सुगंधित रहता है, उसकी मांसल गरिमा पर चीनांशुक ऐसे दिखाई देता है, जैसे शरद् के प्रसन्न आकाश में धवल स्वर्ण-गंगा का मुखरित प्रवाह हो...। "
सिंधुनाद हठात् बोल उठे, “सूर्य्यमणि, वह कौन है?"
सूर्य्यमणि ने पराजित स्वर में कहा, "पिता, वह देवदासी रुक्मिणी है।"
“देवदासी रुक्मिणी!” उनके मुख से आश्चर्य से निकल गया।
"हाँ, पुजारी रत्नगिरि की पुत्री रुक्मिणी । "
“ओह!” कहकर कवि सिंधुनाद बैठ गए, जैसे एकाएक चलते-चलते महानद थम जाए और समस्त लहरों का कलकल नाद क्षण-भर के लिए रोककर स्तब्ध हो जाए। उन्होंने कहा, “सूर्य्यमणि, तू जा! मुझे सोचने दे ।”
सूर्य्यमणि चकित-सी लौट आई। वृद्ध सिंधुनाद को कुछ भी नहीं सूझा। वह चुपचाप वैसे ही बैठे शून्य दृष्टि से सामने जलते दीपाधार में काँपती शिखाओं को देखते रहे।
चार
रात्रि के निरावरण नीलाकश में सहस्रों नक्षत्र टिमटिमाने लगे । पुजारी रत्नगिरि सोच में पड़ गया। उसके वृद्ध मुख पर चिंता की रेखाएँ खिंच आईं। कुछ देर वह टहलता रहा। वृद्ध सिंधुनाद ने कहा, "तुम जानते हो रत्नगिरि, सब कुछ जानते हो। पर देवदासी के प्रति धनंजय का हृदय आकर्षित है, यह तुम भी नहीं जानते, मुझे इसका विस्मय है।"
“तुम भी वृद्ध हो गए हो सिंधुनाद! जीवन-भर जिसने अटूट विश्वामित्र - सा दर्प कभी नीचा नहीं होने दिया, जिसके पवित्र जीवन से संसार विस्मित हो उठा था, जिसके सामने सम्राट सिंहविष्णु एक साधारण नागरिक की भाँति सिर झुकाकर खड़ा रहता है, उसकी बात पर तुम संदेह कर रहे हो? जिसने तुम्हारे जीवन के महानतम पाप को छिपाने के लिए अपने युग-युग के संचित तप और यश को ठुकरा दिया, जिसने ब्रह्मचारी होकर भी केवल तुम्हारी मित्रता के लिए रुक्मिणी को अपनी पुत्री कहकर प्रसिद्ध कर दिया, उसकी बात पर तुम अविश्वास कर रहे हो?"
सिंधुनाद ने कंपित कंठ से कहा, "मित्र, यह तुम क्या कह रहे हो?"
रत्नगिरि ने कहा, “तुम मेरे बाल्य - सखा ही नहीं, गुरुभाई हो। तुम कवि हो। सौंदर्य को छलना ही तुम्हारे अंतस्तल की अंतिम प्रेरणा है। जिस दिन तुमने राजकुमारी इंदिरा को देखा था, उसी दिन मैंने तुमसे कहा था कि तुम भूल कर रहे हो। किंतु तुमने कुछ भी नहीं सुना। आज से बीस बरस पहले जब तुम रुक्मिणी को गोद में लेकर आए थे, मैंने उसे बिना हिचकिचाए गोद में उठा लिया था। राजकुमारी इंदिरा आज राजमाता इंदिरा है। आज संसार उसके पुण्य की गाथा गा रहा है। वह नहीं जानती कि उसका पाप आज भी जीवित है। उससे कह चुका हूँ कि रुक्मिणी मर चुकी है। किंतु सिंधुनाद, आज जब वह पाप मानव-सत्ता के परम पुण्य के रूप में मुझे एकमात्र सांत्वना दे रहा है, तुम उस पर लांछन लगा रहे हो? रुक्मिणी की पवित्रता तुषारधौत शतदल के समान है, देवता में उसकी भक्ति सुमेरु के समान है। उसने अपना तन-मन-धन देवता की सेवा में अर्पित कर दिया है। वह मनुष्य से प्रेम कर सकती है। मैं उसे नहीं दे सकता। देवी कामाक्षी की शपथ है, मैं उसे नहीं दे सकता।”
“तब तो सूर्य्यमणि रो-रोकर मर जाएगी?" सिंधुनाद ने करुण स्वर में कहा, "बोलो रत्नगिरि, मेरा इस संसार में और कौन है? किसलिए, मैं इतनी माया- ममता को परवश-सा आज भी सहेजे बैठा हूँ । यश नहीं चाहिए, धन नहीं चाहिए। सांसारिक भोगों से मैं तृप्त हो चुका हूँ। देवदासी रुक्मिणी को कुछ दिन के लिए तुम छिपा नहीं सकते? धनंजय उसके पीछे पागल हो रहा है। यदि यह दीपशिखा उसके सामने रहेगी तो वह शलभ की भाँति परिभ्रमण करके अपने पंख जला लेगा। देवदासी से कभी भी उसका विवाह नहीं हो सकता। फिर सूर्य्यमणि के जीवन पर आघात किसलिए?"
रत्नागिरि गंभीर स्वर में चिल्ला उठा, “सिंधुनाद, रुक्मिणी भी तुम्हारी पुत्री है। क्या तुम एक पुत्री के लिए दूसरी का अहित करना चाहते हो? जब संसार में तुम्हें राजकुमारी इंदिरा से बढ़कर कुछ भी नहीं था, उस समय रुक्मिणी ही तुम्हारी संतान थी। क्या अब तुमको उससे तनिक भी स्नेह नहीं? क्या संसार के नियमों में तुम्हारा हृदय इतना कायर हो गया है कि यदि संसार नहीं कह सकता तो तुम भी उसे पुत्री नहीं मान सकते?"
सिंधुनाद उद्भ्रांत से इधर-उधर घूमने लगे। उनके मुख पर आशंका काँप रही थी। वे दो पाषाणों के बीच भिंच गए थे। उन्होंने मुड़कर कहा, "तो रत्नगिरि, देवदासी को मुझे दे दो। मैं साम्राज्य के नियमों को ठोकर मारकर, देवता का अपमान करके, अपने प्राणों का मोह छोड़कर उसे अपनी पुत्री घोषित करूँगा और उसका कहीं विवाह कर दूँगा।"
रत्नागिरि ने धीरे से कहा, "यह नहीं हो सकता सिंधुनाद!”
“तुम डरते हो रत्नगिरि ?" सिंधुनाद ने आगे बढ़कर कहा, "राजमाता इंदिरा का सतीत्व डूब जाएगा? पांड्य, चोल और चालुक्य देशों में पल्लवराज के कुटुंब की निंदा के गीत गाए जाएँगे? सिंधुनाद का पाप प्रकट हो जाएगा? रत्नगिरि की घोर मिथ्या सूर्य की तरह जगमगा उठेगी, इसलिए ?”
"नहीं,” रत्नगिरि ने कहा, “रुक्मिणी फिर से पाप में लिप्त नहीं हो सकती। वह देवता को निष्काम रूप से अर्पित हो चुकी है। वह लौटाई नहीं जा सकती। उसका जीवन धर्म का एक महान् छंद है, उसको अपौरुषेय कहकर ही गाया जाता है। वह कोई साधारण हाटों में नाचने वाली स्त्री नहीं है, वह कलाओं में पारंगत होकर पुरुषों से पुष्कल के लिए विलास करने वाली गणिका नहीं है, वह उत्सर्ग कर चुकी है अपना स्त्रीत्व, अपना मातृत्व, आजन्म कुमारी रहने के लिए। वह नहीं लौट सकती। वह देवता की संपत्ति है। सिंधुनाद, तुम कर्त्य - अकर्त्य का भेद नहीं समझ पा रहे हो। तभी तुम कविता का प्रथम चरण प्रेम भूल गए हो। जाओ, लौट जाओ। देवदासी तुम सबसे अस्पृश्य आकाश-मंदाकिनी का कमल है। उसे तुम नहीं पा सकते।"
सिंधुनाद आर्त-से बैठ गए। उनसे कुछ भी नहीं कहा गया। उन्हें चारों ओर अँधेरा छाता हुआ दिखने लगा। उनके सामने सूर्य्यमणि का आतुर स्वरूप बार-बार घूम गया, जो उनकी प्रतीक्षा करती होगी, जिसे कुछ नहीं मालूम कि रुक्मिणी उसी की बहन है। जिस पिता की कीर्ति से आज पल्लव साम्राज्य में स्थित सरस्वती का अंचल श्वेत से भी अधिक उज्ज्वल हो उठा था, उसी का पाप वह कैसे सुन सकेगी? कैसे सह सकेगी वह यह घोर अंधकार की गाथा ?
कुछ भी नहीं सोच सके। एक दीर्घ निःश्वास छोड़कर वे मंदिर से बाहर चले गए और बाहर खड़े स्वर्ण रथ पर आ बैठे। सारथि ने रथ हाँक दिया। वृद्ध सिंधुनाद की आँखों में आँसू भर आए। उनके हृदय में आँधी चल रही थी ।
पाँच
रात्रि के घनघोर अंधकार में एक छाया-सी चलने लगी। दूसरी ओर से दूसरी छाया का अंगचालन हुआ। एक ने दूसरे के पास आकर कहा, "कौन? रंगभद्र, तुम आ गए?"
“हाँ, देवी!" रंगभद्र ने धीरे से कहा, "क्या तुम तत्पर हो?"
रुक्मिणी ने कुछ नहीं कहा। रंगभद्र बोला, "देवी! वहाँ तुम्हारा मान तब हो सकता है जब तुम अर्घ्य के फूल के समान अपनी गंध स्वयं नहीं पहचान पाओगी। तुम्हारी मनुष्यता के हनन पर तुम्हारा यह स्वर्ग है। किंतु क्या तुम्हारे हृदय में कोई कोमलता शेष नहीं है? क्या केवल पाषाण हो? किंतु कामाक्षी के मंदिरों में प्रस्तर गाते हैं, प्राचीरें बोलती हैं। एक तुम हो जो अपने जीवन को देव सेवा की छलना में बिताए जा रही हो। कभी किसी से पल-दो पल प्रेम की बात नहीं, तुम तो स्त्रीत्व के प्रारंभिक चिह्न तक भूल गई हो। किसलिए यह सब रुक्मिणी?"
"देवता के लिए रंगभद्र! क्या यह सब त्याग करना मेरे लिए पाप नहीं होगा?"
“पाप?” रंगभद्र ने हँसकर कहा, "पाप यह नहीं है कि जीते-जागते मनुष्य को एक कठपुतली बना दिया है? उससे उसकी दृष्टि छीनकर दूसरों को लूटने के लिए उसे नयन दे दिए हैं, उससे उसके हृदय का अपहरण करके उसे दूसरों के हृदयों पर दस्युवृत्ति करने के लिए छोड़ दिया है? यदि मनुष्य हो झूठे प्रलोभन देकर उसे मनुष्य नहीं रहने दिया तो इससे बढ़कर और कौन-सा पुण्य होगा?"
"रंगभद्र! पिताजी ने तो देव सेवा को संसार का सबसे बड़ा सुख बताया है। फिर तुम क्या कह रहे हो? मैं तुम्हारे मुख से पाप को बोलता हुआ सुनकर काँपती हूँ। किंतु न जाने क्यों, तुम जो कहते हो, वह अचानक ही मेरे हृदय पर आघात कर उठता है। मैं नहीं जानती, तुम मुझे इतने अच्छे क्यों लगते हो?"
रंगभद्र का मुख प्रफुल्लित हो गया उसने कहा, “रुक्मिणी, वह स्त्री नहीं जो अपने प्रेमी के आलिंगन में बद्ध होकर विभोर नहीं हो सकती, जो आँखों में आँखें खोकर एक बार कलकंठ से उसे अपना स्वामी कहने को उद्यत नहीं हो सकती। कहाँ है तुम्हारे जीवन की नीरव हाहाकार करती वेदना का अंत, कुमारी? जिस देवता के पीछे तुम पागल हो रही हो, क्या कभी उसने तुम्हारे हृदय पर हाथ रखकर उसकी धड़कन को सुना? क्या वसंत के मलयानिल में पुंसकोकिल की कुहू सुनकर कभी तुम्हारे हृदय में हूक नहीं उठी? बोलो देवदासी! यदि प्रेम पाप है तो किसलिए कालिदास का नाम आज प्रातः स्मरणीय है? यदि प्रेम है तो तुम्हें क्यों आजीवन देवता से प्रेम रखने का दुरभिमान सिखाया गया है?"
देवदासी सोच में पड़ गई। रंगभद्र उन्मत्त-सा कहता रहा, “क्या यह माधवी रजनी की अनंत सुगलन शून्य में केवल हाहा खाने के लिए हैं? तुम्हारा यह अनिंदित रूप, जिसको आज संसार उपेक्षा से भयावह गर्त में डाले बेसुध है, किसलिए यौवन की भुजाएँ फैलाकर हृदय में उतरता चला जाता है? पल्लव साम्राज्य की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी नहीं जानती कि यौवन क्या है? नहीं है ज्वालामुखियों में वह ताप, नहीं है आकाश के नक्षत्रों में वह रूप जो तुम्हारे श्वास में है, जो तुम्हारे नयनों में है! कांची की कुल नारियों का रूप तुम्हारी अनंत रूपराशि के सामने धूल के तुल्य है देवी!”
देवदासी ने कहा, “यही तो सेनापति तनय धनंजय कहते थे । "
"धनंजय ?" रंगभद्र ने काँपते स्वर से पूछा, "क्या वह आया था? तुम्हें कल मिला?”
देवदासी ने सिर उठाकर कहा, “कल दिन में नृत्य हुआ था। सूर्य्यमणि ने अचानक नृत्य रोक दिया। उससे रोषित होकर मैं भीतर चली चली गई। पीछे-पीछे वह भी आ गया।"
"फिर?" रंगभद्र ने आशंकित होकर पूछा।
"फिर वे कहने लगे- सुंदरी तुम्हारे सामने सूर्य्यमणि कुछ भी नहीं है । मैं उसे तनिक भी नहीं चाहता। मैं तो तुमसे प्रेम करता हूँ। संसार में मेरी कोई अभिलाषा नहीं, केवल तुमको प्राप्त करना चाहता हूँ।"
रंगभद्र ने उत्सुक होकर आवेग से पूछा, “और देवदासी, तुमने क्या कहा?"
रुक्मिणी ने उत्तर दिया, "और देवदासी ने क्या कहा, यह भी जानना चाहते हो .... मैंने कहा- तुम मूर्ख ही नहीं, पतित हो । एक देवदासी से तुम्हें ऐसी बात करते लज्जा नहीं आती? क्या तुम अपने को राजवंश का उच्चारित करने का साहस करते हो? क्या तुम्हारे वाक्यों में भीषण हलाहल है, जिससे देवमंदिर की ईंट ईंट मूर्च्छित होती जा रही है। तुम नारायण की पवित्र विभूति को अपमानित करने का दुस्साहस कर रहे हो? जिससे तुम बात कर रहे हो, वह साधारण स्त्री नहीं, एक देवदासी है। "
उसका श्वास फूल गया । वह चुप हो गई। रंगभद्र मंत्र-मुग्ध-सा उसकी ओर देख रहा था। उसने कहा, “धन्य हो तुम देवदासी! तुम प्रेम करना जानती हो । किंतु जिस पाषाण को तुम जीवन का सर्वस्व बनाती हो वह आत्मा का हनन है। मनुष्य की चरमशांति शुष्क ज्ञान नहीं, भक्ति है। वह भक्ति नहीं, जिसमें त्याग का दंभ हो देवदासी! मैं तुम्हें व्यर्थ ही यह जीवन नष्ट नहीं करने दूँगा। कहो रुक्मिणी, तुम मुझसे प्रेम करती हो?"
रुक्मिणी ने कुछ नहीं कहा। अंधकार में ही उसके हाथ ने रंगभद्र के दृढ़ हाथ को पकड़ लिया। रंगभद्र ने उसे अपने पास खींच लिया। दोनों देर तक एक- दूसरे की आँखों में झाँकते रहे। रंगभद्र ने धीरे से कहा, “तुम्हारे चरणों पर जीवन का समस्त वैभव उठाकर भिक्षा माँगेगा। तुम्हारे पाँव मेरे हृदय पर चलेंगे। तुम पल्लव साम्राज्य की सबसे बड़ी धनवती, सर्वश्रेष्ठ सुंदरी, सबसे अधिक भाग्यशालिनी स्त्री होगी रुक्मिणी! असमय का यह वैराग्य जैनियों को शोभा दे सकता है, जो अपने शरीर को कष्ट देना ही जीवन का निर्वाण समझने की भूल करते हैं। तुम वैकुंठ की लक्ष्मी हो। काशी में मोती बेचकर मैं दक्षिणापथ का सबसे धनवान् व्यक्ति हो जाऊँगा । भूल जाओ यह परिमित सीमाओं के बंधनों को अंतिम सत्य समझने की कल्मष - भरी छलना । तुम देवदासी नहीं हो, नारी हो । स्त्रीत्व का अधिकार तुमसे कोई नहीं छीन सकता।"
देवदासी का हृदय धड़क उठा। उसका कंठ वाष्पस्फीत हो गया। अंधकार में दूर, बहुत दूर कुछ हलके तारे टिमटिमा रहे थे। और कुछ नहीं । विशाल प्रांगण, दीर्घ स्तंभ, वक्राकार अलिंद द्वार सब अंधकार में एक हो गए थे। निर्जनता से चारों ओर वायु कोलाहल सा मचा रही थी। देवदासी की आशंका मन ही मन भयभीत हो गई। उसने अपना हाथ रंगभद्र के वक्ष पर रख दिया और विभोर-सी खड़ी रही। रंगभद्र ने कहा, “परसों मैं सिंहलद्वीप जा रहा हूँ। प्रतिज्ञा करो कि तुम मेरे साथ पोत पर आरूढ़ होकर मेरी अर्द्धांगिनी के रूप में चलोगी। परसों कांची के देव मंदिर में महोत्सव होगा। उस दिन लोग अपने-अपने काम में संलग्न होंगे। किसी को भी अधिक चिंता नहीं होगी। हम-तुम परिक्रमा के पीछे वाली पुष्पकरिणी के पास मिलेंगे और तुम निर्भीक, पाप की भावना से हीन मेरे साथ चली चलोगी, क्योंकि तुम मुझसे प्रेम करती हो।"
देवदासी ने अपना सिर रंगभद्र के सुदृढ़ वक्षस्थल पर टेक दिया । उसकी आँखें बंद हो गईं और मुँह से धीरे से उच्छ्वसित हुआ, "मैं प्रतिज्ञा करती हूँ रंगभद्र, मैं चलूँगी। तुमने मेरी नीरवता में जो वीणा बजाई है, उससे मेरा रंध्र- रंध्र गूँज रहा है। मैं अवश्य चलूँगी।"
छ:
रंगभद्र ने अंधकार में केशों को चूम लिया। देवदासी लाज से मुस्करा उठी।
राजमाता इंदिरा उद्यान मंदिर में विष्णु के चरणों पर सहस्र शतदल कमलों का धीरे-धीरे विसर्जन कर रही थीं। उनका हृदय पवित्र और स्निग्ध था। जब वे पूजा समाप्त करके उठीं तो उन्होंने देखा, सूर्य्यमणि उदास-सी सामने खड़ी थी। राजमाता के मुख पर करुण प्रभा फैल गई। उन्होंने कहा, "सूर्य्यमणि, आज तू इतनी उदास क्यों लगती है? श्याम मेघ की तरलच्छाया आज तेरे नयनों में आश्रयहीना - सी क्यों काँप रही है? आज तू निदाघ के कान की भाँति क्यों यह दीर्घ निःश्वास छोड़ रही है? सिकता पर चंचल क्रीड़ा करने वाली लहर के समान तेरी स्मित आज एकदम ही कहाँ लुप्त हो गई?"
सूर्य्यमणि ने सिर झुका लिया । राजमाता ने स्नेह से फिर कहा, "महाकवि की तनया को ऐसी कौन-सी पीड़ा व्याकुल कर उठी है ? बोल बेटी!”
सूर्य्यमणि ने कहा, “कुछ नहीं माता, ऐसे ही आज कुछ चित्त में अनबूझ-सी ग्लानि छा गई थी ।"
राजमाता चुप हो गईं। उन्हें याद आया कि एक दिन वे भी सिंधुनाथ के प्रेम में ऐसी ही व्याकुल हो उठी थीं। आज बीस वर्ष बीत गए। वे अब चालीस वर्ष की थीं। सिंधुनाद पचास से ऊपर था ।
उन्होंने मन ही मन अपने उस पाप को भूलने के लिए नारायण का स्मरण किया। हृदय निर्मल हो गया। आज वे राजमाता थीं। उनके पवित्र आचरणों पर दक्षिणपथ को गर्व हो सकता था। उनके पति ने अपार विक्रम से चोलराज के दाँत खट्टे कर दिए थे। सम्राट सिंहविष्णु ने तभी से विधवा को अपने संरक्षण में ले लिया था। उन्होंने कहा, “सूर्य्यमणि, तेरा विवाह कब का निश्चित हुआ है?"
सूर्य्यमणि ने मुँह फेरकर उत्तर दिया, "बसंत पंचमी को" और वह वहाँ से चली गई।
एक दासी ने झुककर कहा, "महाकवि आए हैं देवी!”
“महाकवि?" राजमाता ने विस्मय से सिर उठाकर पूछा।
“हाँ, देवी!" दासी ने सिर झुकाकर उत्तर दिया।
"उनको उद्यान में ही ले आओ।"
दासी चली गई। राजमाता शंकित होकर इधर-उधर घूमने लगीं। उनका हृदय भीतर ही भीतर काँप उठा। आज वे उस व्यक्ति को बीस बर्ष बाद फिर देखेंगी, जिसकी स्मृति भी उनके जीवन का एक महान् पाप है।
इसी समय वृद्ध सिंधुनाद ने दासी के साथ प्रवेश किया । राजमाता इंदिरा ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। एक संगमरमर की चौकी पर सिंधुनाद बैठ गए। दासी चली गई। राजमाता ने दृष्टि उठाकर देखा और फिर उनका शीश झुक गया। सिंधुनाद के नयनों में आज वही चमक थी, जो बीस वर्ष पहले उनके सर्वनाश का कारण बन गई थी। उन्होंने सारंगपाणि का मन ही मन फिर स्मरण किया और कहा, "कवि, आज आपने कैसे कष्ट किया?"
सिंधुनाद ने धीरे-धीरे कहना प्रारंभ किया, “एक दिन अनेक वर्ष पहले हम- तुम इसी उद्यान में अपना सब खो बैठे थे। उस दिन भी तुमने मुझे अपना सब कुछ दिया था। आज मैं फिर तुमसे तुम्हारा सब कुछ माँगने आया हूँ।"
राजमाता ने कहा, “कवि, मैं कुछ नहीं समझी। तुम मुझसे क्या लेना चाहते ? सूर्य्यमणि के लिए मैंने स्वयं धनंजय जैसा उपयुक्त वर खोज दिया है, फिर और तुम मुझसे क्या माँगना चाहते हो?"
सिंधुनाद ने कहा, "देवी, धनंजय एक देवदासी की ओर आकृष्ट हो गया है। वह सूर्य्यमणि की उपेक्षा कर रहा है।"
राजमाता निष्प्रभ हँसी हँस उठीं। उन्होंने कहा, “तो इतने मर्माहत क्यों हो कवि एक बात कहूँ, बुरा तो न मानोगे?"
"नहीं देवी, आज मैं सभी कुछ सुनूँगा।"
“तो सिंधुनाद,” राजमाता ने कहा, "देव-सेवा के लिए अर्पित इन सहस्रों बालिकाओं के जीवन में और एक साधारण गणिका के जीवन में भेद ही क्या है ? साम्राज्य का धर्म भले ही इसे स्वीकार न करे, किंतु जिन सामंतों के यहाँ नगर की प्रजा की ललनाएँ कुछ दिन दासी बनने आती हैं और अपने यौवन की भेंट देकर लौट जाती हैं, उन सामंतों के यहाँ क्या देवदासियाँ वेश्या ही नहीं होतीं? क्षमा करो कवि, दिन में वे देव-सेवा करती हैं, रात को छिपकर पुरुष - सेवा ! कवि, यौवन कभी भी सत्पथ पर नहीं चल सकता। उसकी ठोकर से विक्षत उँगलियों का रक्त सदा के लिए पथ पर छूट जाता है। फिर तुम्हें इतनी चिंता क्यों? कौन है वह देवदासी जो धनंजय के रूप की अवहेलना कर सकेगी? कौन है वह साधारण नर्तकी जो धनंजय के बल और यश के अंक में सब कुछ खोल न देगीं? दो दिन की यह भूख मिटा लेने दो उन्हें। जब हमारा समय था, तब हम भी तो पीछे नहीं हटे। धनंजय का यह लोभ एक आलिंगन में प्रवाहित हो जाएगा और पुरुष के लिए तो कोई पवित्रता नहीं, वह तो अनेक स्त्रियों में मत्त गजराज की भाँति क्रीड़ा कर सकता है। बसंत पंचमी को यदि वह सूर्य्यमणि के साथ अग्नि की प्रदक्षिणा न करे, पुजारी फिर से पुरुषस्य भाग्य का उन्माद न गुंजा दें तो आकर इस पापिनी से जो मन आए, कहना जो विवाह के पहले माता हो चुकी थी, किंतु जिसके छल से आज भी साम्राज्य उसकी पवित्रता के सम्मुख वैदेही और अनसूया को तुच्छ समझने लगा है। बोलो सिंधुनाद, नारी का मोल ही क्या है? पुरुषों के हाथों में खेलने वाली कठपुलती? पुरुष भूमि पर मरता है, वह आकाश को चूमने का प्रयत्न करती है। यही तो है सबसे बड़ी दासी गृहस्वामिनी का रूप - जिसकी सत्ता अपने आप में कुछ नहीं!”
“देवी!" सिंधुनाद ने क्षुब्ध होकर कहा, "बीस वर्ष पहले मैंने कहा था, मर्यादाओं का संकोच जीवन की वास्तविकता नहीं है। आओ, हम तुम इस देश को छोड़कर कहीं चले जाएँ। किंतु तुमने स्वीकार नहीं किया ।"
"लेकिन कवि,” राजमाता ने कहा, “पाप तो मिट गया, पाप की स्मृति अवश्य हृदय में चुभती है। कभी-कभी जब तुम्हारी कविता पढ़ती हूँ, तब लगता है कि वह पाप नहीं था, यह परवश जीवन सबसे बड़ा पाप है।"
"पाप ! देवी" सिंधुनाद ने कहा, "मेरे तुम्हारे जीवन का पाप ही आज फिर इस समस्त वैभव को भस्म कर देना चाहता है। मैं इसी में काँप रहा हूँ। तुम देवदासी को साधारण वेश्या कहने तक में नहीं झिझकीं, तो सुनो कि जिस साधारण नर्तकी की पवित्रता को रौंदते देखकर भी तुम्हारा गर्व कुंठित नहीं होता, वह तुम्हारी औरस पुत्री है। सूर्य्यमणि तुम्हारे प्रेमी की पुत्री है, किंतु देवदासी रुक्मिणी तुम्हारी पुत्री है, तुम्हारे यौवन-तरु का प्रथम पुष्प है, तुम्हारे जीवन - सागर में प्रतिबिंबित होने वाली प्रथम बालारुण की दीप्ति है । "
राजमाता ने काँपते हुए कहा, “किंतु रत्नगिरि ने तो मुझसे कहा था, वह मर चुकी है।"
"रत्नगिरि नहीं जानता था कि एक दिन बलशाली साम्राज्य के एक विशाल स्तंभ सेनापति का पुत्र उसके पीछे व्याकुल हो उठेगा। सहस्रों देवदासियों के बीच उसने उसे छिपा दिया था। किंतु यदि धनंजय उसकी पवित्रता को अपनी उच्छृंखलता से विध्वस्त करेगा तो रत्नगिरि उसे कभी भी नहीं सह सकेगा। उसने कठोर तप में अपना जीवन बिताया है। उसने दूसरों की भूलों को सरल चित से क्षमा किया है। उसे रुक्मिणी से पुत्री का सा स्नेह हो गया है। जिसने आजन्म अखंड स्फटिक जैसा धवल ब्रह्म तेजस् अपने चारों ओर प्रकाशित किया है, वह क्रोध में पल्लव साम्राज्य को खंड-खंड कर देगा। राजमाता, वह वैभव और सुख की इन दीवारों की नींव में पलते पाप को समूल उखाड़कर फेंक देगा। उसके दुर्वासा के से अग्नि- क्रोध को ठंडा कर सके, ऐसा साहस, ऐसी पवित्रता किसमें है? प्रजा क्या कहेगी? देवता की पवित्र संपत्ति पर वह कभी पदाघात नहीं सह सकेगा। राजमाता, मेरा मन भय से काँप उठता है।"
राजमाता सिहरकर खड़ी हो गईं। उन्होंने कहा, "कवि, चलो ! मैं रत्नगिरि से मिलना चाहती हूँ। देवदासी मेरी पुत्री है। उसे मैं अपने पास ले आऊँगी। वह मेरे शरीर का संचय है। रत्नगिरि माता की आज्ञा की उपेक्षा नहीं करेगा। मेरे वक्षस्थल में एक स्नेह काँप रहा है। मेरी पुत्री भुवन सुंदरी है ! वह मेरी है! मैं उसे देखना चाहती हूँ, कवि!"
सिंधुनाद उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा, “रत्नगिरि पाषाण है देवी ! उसके हृदय में एक सोता है और वह केवल देवदासी रुक्मिणी के लिए है। वह उसकी पवित्रता पर मुग्ध है। जिस दिन उसे उसमें अपवित्रता की गंध आएगी, वह अपने हाथ से उसका वध करके देव-प्रतिमा के चरणों पर उसे समर्पित करके आत्मघात कर लेगा। आत्मघात का पाप भी उसके सामने देवता के प्रति विश्वासघात की तुलना में कुछ नहीं। वह कठोर तपस्वी है। ममता के झूठे आवरण से उसकी आँखें कभी नहीं चौंधतीं। आज जो माता बनकर जा रही हो, वह तुम्हारे मातृ-स्नेह को ठुकरा देगा। वह पूछेगा, कहाँ था यह प्रेम उस दिन, जब सद्यः जात शिशु को स्तन से लगाने के स्थान पर तुमने रातों-रात बाहर कर दिया था। एक राजकुमारी को तुमने पाप बना दिया और जब मैंने पाप को भगवान् की छाया बना दिया है, तुम फिर उसे अपवित्र करना चाहती हो।"
राजमाता ने कहा, "फिर क्या होगा कवि ?”
सिंधुनाद ने कहा, "रथ बाहर खड़ा है देवी, चलिए! "
राजमाता ने आवाज दी, "नीला!"
दासी ने आकर शीश झुकाया।
राजमाता ने कहा, “शीघ्र ही रथ तैयार कराओ।"
"जो आज्ञा", कहकर दासी चली गई।
थोड़ी देर बाद राजमार्ग पर दो बहुमूल्य रथ दौड़ने लगे। एक पर महाकवि थे, दूसरे पर राजमाता । रथ राजमंदिर के बाहर रुक गए। दोनों उतर पड़े।
जब वे भीतर पहुँचे, उन्होंने देखा, रत्नगिरि सूर्य्यमणि के सिर पर हाथ रखकर कह रहा है, "पुत्री, यह संसार अत्यंत कुटिल है। सत्य के उन्मीलन आज के संसार में प्रलय का सूत्रपात हो जाएगा। मैं तुझे बताना नहीं चाहता, किंतु तू पवित्र है । तेरी पवित्रता की रक्षा करना, तुझे सत्यपथ पर चलाना, तेरे जीवन को श्रेष्ठ और मनोहर बनाना मेरा कर्त्तव्य है । मैं तेरी सदा सहायता करूंगा। तेरे सुखों के लिए मैं कुछ भी उठा नहीं रखूंगा। तुझे डरने का कोई कारण नही । धनंजय को लाचार होकर तुझ से प्रेम ही नहीं पवित्र परिणय करना होगा। महोत्सव के बाद मैं देवदामी रुविमणी को साथ लेकर काशी चला जाऊंगा। मैं तुझे अपने ब्रह्मणत्व की साक्षी देकर शपथ लेता हूं।"
राजमाता ने दौड़कर रोते हुए पुजारी के चरण पकड़ लिए। सिन्धुनाद गद्गद से रोने लगे। सूर्य्यमणि कुछ भी नही समझी ।
अविचलित स्वर में रत्नगिरि ने कहा- "परमों राजमाता ! परमों कवि ! कल महोत्सव है। अंतिम बार कल में कामाक्षी की अपने हाथों से पूजा करूंगा । कल मैं अपने जीवन के सारे पापों के लिए समस्त शक्ति से देवता के चरणों पर क्षमा मांगूगा । मै जीवन की इस लुकाछिपी से ऊब गया हूं कवि ! मै कही दूर चला जाना चाहता हूं । अपराध का सबसे बड़ा प्रतिदान ब्राह्मण की क्षमा है । ब्राह्मण वह नही है जो अपनी पवित्रता की स्वर्ण और राजमद के सामने बलि दे दे, ब्राह्मण वह है जो पाप को पुण्य बना दे, पुण्य को साक्षात् नारायण बना दे । उठो राजमाता, उठो! राजमाता को यदि एक पुजारी के चरणों पर लोग देखेंगे तो विस्मय करेंगे।"
राजमाता के मुख से निकला - "तुम मनुष्य नहीं हो रत्नगिरि ! तुम देवता हो।"
रत्नगिरि ने कहा - "नही राजमाता ! मै केवल देवता का एक पुजारी मात्र हूँ ।"
सूर्य्यर्माणि आश्चर्य चकित-सी देखती रही। पुजारी मुस्करा रहा था ।
सात
राजमन्दिर की शोभा आज अनुपम थी । द्वार-द्वार पर आम्रपल्लव बांधे गये थे । स्थान-स्थान पर घट स्थापित करके केले के मासगर्भा वृक्ष लगाये गये थे । समस्त मन्दिर गन्ध से सुवासित था । सम्राट सिंहविष्णु आज अपने पूरे वैभव के साथ आये थे । एक ऊंचे मण्डप में उनका स्वर्ण सिंहासन दमक रहा था । कुमारपादीय युवराजों के बाद यथायोग्य आसनों पर सामन्तगण आकर बैठ रहे थे। कुलीन स्त्रियां एक ओर एकत्रित हो रही थीं। राजकुमार महेन्द्रवर्मा चुपचाप अपने आसन पर बैठे आते-जाते मनुष्यों को देख रहे थे । श्याम सुन्दरियों की किलकारियां गवाक्षों मे से झंकारती वायु के साथ बाहर निकल जातीं और उनके अंगचालन पर विभिन्न आभूषणों की मधुर ध्वनि फूट निकलती । योद्धाओं के भारी चरणों से आहत चमकती भूमि विक्षुब्ध हो उठती और उनके हास्य-तरल स्वरों में मादकता विलोल छाया बनकर प्रभा से दीप्त दंत-पंक्तियों में छिप जाती । मेखलाओं की मंदिम मंदिम क्वणन-ध्वनि यौवन की द्रिमिक-द्रिमिक हुंकार बनकर चंदन-लेपित स्तनों के उभार के डुलन पर ताल दे रहती थी ।
एक विराट् स्तम्भ के पीछे देवदासी रुक्मिणी प्रतीक्षा कर रही थी। रंगभद्र पास आ गया । देवदासी ने कहा - " नृत्य के बाद मैं भीतर जाकर पहले वस्त्र बदलूंगी फिर पुष्करिणी के पास जाऊंगी। तुम प्रायः एक प्रहर के बाद वहां पहुंच जाना । क्या सब तैयार है ?"
रंगभद्र ने धीरे से कहा - "तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं देवी ! पेलार नदी पर श्रेष्ठि रंगभद्र के अमूल्य वस्तुओं से भरे चौबीस पोत खड़े हैं । बस हमारे पहुंचने का विलम्ब है । कल हम स्वतन्त्र होंगे ।"
"अच्छा, अब मैं जाती हूं।" और वह भीतर चली गई । रंगभद्र कुछ देर वहीं खड़ा रहा और फिर भीड़ में मिल गया। प्रसाधन प्रायः समाप्त हो चुका था। बाहर वाद्य आदि लिए सब स्थान सज्जित करके गायक आ गए थे। नृत्य प्रारम्भ होने वाला था । सब सामने के पट की ओर देख रहे थे । धीरे-धीरे यवनिका उठने लगी । जनसमुदाय स्तब्ध होकर देखने लगा । अनन्य सुन्दरी देवदासी को देखकर सबके नयन चकाचौंध हो गये। वह साक्षात् उर्वशी-सी अंगचालन कर रही थी। मृदंग का निर्घोष प्रतिध्वनित हो उठा। नर्तकी की नूपुर ध्वनि का मधुर प्रवाह सुनकर सभा चित्रलिखित-सी देखती रही। आज वह अद्भुत नृत्य कर रही थी । उसके अंग-अंग में मदन हुंकार रहा था, रति-कोमल कण्ठ में अपना अजस्र रूप बहाये दे रही थी। उसके प्रवाल से अधरों पर उन्माद की मोहक गन्ध तड़प रही थी । उसके विशाल नितम्बों को देखकर महादेव का सहस्रों वर्षो का तप आज हाथ खोलकर चिल्ला उठा था ।
एकाएक नूपुर मिलकर बज उठे। नृत्य तीव्र गतिमय हो गया। सभा स्तम्भित-सी बैठी रह गयी । उन्होंने देवदासी को देखा जैसे प्रलय के अनन्त वसुंधरा बाहर आ रही थी । मृगमद का टीका उसके स्निग्ध वर्ण पर स्वर्ण की भांति दमक रहा था।
आज नृत्य में विभोर वह हीरक की किरन उस मणिकुट्टिभ रंगमंच पर ऐसे डोल रही थी जैसे शिव के ललाट पर चन्द्र की स्निग्ध रश्मि कैलास के शिखरों पर आलोड़ित हो रही हो, जैसे वीणा पर उंगलियां द्रुतगति से झंकारमुखर होकर तन्मय हो गयी हों ! उसका उन्नत वक्षस्थल यौवन का अपराजित गर्व बनकर, अपनी पीवर मासल सुकोमलता में चंदन में लिप्त ऐसा लग रहा था ज्यों युगचंद्र पर चांदनी बार-बार झूम-झूमकर अपने आपको भूल जाती हो। वह इस प्रकार अपनी मादकता में अपने आप खो गयी जैसे मन्दाकिनी में परिमल खाकर कलकण्ठ निनादित कूजन में राजहंसिनी स्वयं अपने आपको भूलकर मृदुल लहरियों में अपने रेशम-सदृश पंखों को खोलकर क्रीड़ा करने लगती है । क्षण-भर को प्रतीत होने लगा मानो नर्त्तकी के साथ समस्त वसुमति आज स्वर्ग की ओर उड़ जायेगी। और भारालम वासना का यह मन्दिर उत्साह वारुणी की झूम में अपना अनन्त विसर्जन कर देगा ।
नृत्य रुक गया । सब अविश्वास मे चारों ओर देख उठे । सम्राट सिंहविष्णु ने गद्गद होकर कहा - "पुजारी, तुम धन्य हो। देवदासी तुम्हारी पुत्री है ?"
"हां सम्राट् ! " पुजारी ने गर्व से सिर झुका लिया ।
राजमाता इन्दिरा और महाकवि सिन्धुनाद के नयनों में आनन्द के अश्रु छा गये । सूर्य्यमणि भयार्त्त-सी मौन बैठी रही। देवदासी ने एक बार देवता को झुककर प्रणाम किया और गर्व से सिर उठा लिया। उस समय उसके मुख पर स्वर्गीय आभा खेल उठी । रंगभद्र हर्षित होकर देखता रहा। धनंजय अपने स्थान से उठ गया और अंधकार में कहीं खो गया ।
सम्राट् ने फिर कहा - "कवि, रुक्मिणी पर पल्लव को अभिमान है। क्या तुम्हारे हृदय में इस रूप को देखकर सरस्वती का संगीत नहीं उमड़ता ? "
सिन्धुनाद ने कहा - "मेरा कवित्व रूप की इस अपार राशि को देखकर विक्षुब्ध हो उठा है। मैं असमर्थ हूं।"
मन्थर गति से चलती देवदासी ने प्रांगण पार करके, ब्राह्म परिक्रमा को लांघकर भीतरी परिक्रमा में पांव रखा। उसी समय उसने सुना- " सुन्दरी ।"
उसके पाँव ठिठक गए। उसके सामने ही धनंजय खड़ा था। उसके नयनों से वासना अवगुंठन हटा दिया। वह लोलुप दृष्टि से उसकी ओर देख रहा था ।
देवदासी ने कहा, “क्या है सेनापति तनय ?” धनंजय मंत्रमुग्ध - सा उसे देखता रहा। देवदासी ने फिर कहा, “क्या है कुमार? आप क्यों मुझे निष्कारण घूर रहे हैं?"
धनंजय ने उच्छ्वसित स्वर में कहा, "देवी, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ ।"
“धनंजय!” देवदासी हुंकार उठी। बाहर प्रांगण में उस समय कोई कलकंठ से प्रेम का मनोहर और करुण गीत गा रहा था। धनंजय फिर भी देखता रहा । देवदासी ने आगे चलने को पग उठाया। नूपुर बज उठा । धनंजय को लगा, जैसे रति का विजयी डमरू आकाश, वसुंधरा और पाताल में एक घोष भरता हुआ गूँज उठा। वह पागल हो उठा और धनंजय ने आगे बढ़कर उसके कंधों को पकड़ लिया। देवदासी क्रुद्ध-सी चिल्ला उठी, “धनंजय, तुम दुस्साहस कर रहे हो। "
धनंजय व्याकुल होकर बोला, “रुक्मिणी, तुम भूल रही हो। मैं तुम्हारी पवित्रता से धोखा नहीं खा सकता। मैंने तुम्हें उस युवक से छिप छिपकर बातें करते देखा है। मेरे हृदय में आग जल रही है। आज तुम्हारे नृत्य ने हविष्य डालकर उसे धक्का दिया है। सुंदरी, आज मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता।"
देवदासी काँप उठी। उसने कहा, “तुम पागल हो गए हो धनंजय! मैं तुमसे भीख माँगती हूँ। मुझे छोड़ दो।”
किंतु धनंजय हँस उठा। उसने उसे खींचकर अपनी छाती से लगाकर उसके सुंदर मुख को चूम लिया। देवदासी क्रोध से उसके मुँह पर हाथ से आघात कर उठी। विक्षुब्ध धनंजय को एक धक्का मारकर भागने लगी। धनंजय उसे पीछे से पकड़कर चिल्ला उठा, “मैं तुझे नहीं जाने दूँगा स्त्री! तुझे मेरी प्यास बुझानी ही होगी। धनंजय आज तक कभी स्त्री से अपमानित नहीं हुआ।”
"नहीं ! नहीं ! नीच पशु ! मैं चिल्ला-चिल्लाकर सम्राट को बुला दूंगी, तू मुझ पर बलात्कार नहीं कर सकता ।"
धनंजय ने हंसकर कहा - "तो तू चिल्लाकर ही देख ले।"
देवदासी के मुंह खोलते ही उसकी कठोर उंगलियों ने उसकी कोमल ग्रीवा को कस लिया और वह दाबते हुए कहने लगा- "चिल्ला ! जितनी शक्ति हो उतना चिल्ला! चिल्ला-चिल्लाकर आकाश सिर पर उठा ले । देखें कौन तेरी रक्षा के लिए आता है ।"
धनंजय ने उन्माद में भरकर पूरी शक्ति से उसका गला दबा दिया । अपने बोलने में वह रुक्मिणी का आर्त्तस्वर नहीं सुन सका । देवदासी का शरीर झूल गया। धनंजय ने अपने हाथ खींच लिए। देवदासी का मृत शरीर पृथ्वी पर धड़ाम से गिर गया । धनंजय व्याकुल-सा देखता रहा । भय से उसका शरीर जड़ हो गया । यह उसने क्या किया ?
इसी समय एक कठोर स्वर सुनाई दिया - "धनंजय, तूने स्त्री की हत्या की है ? क्योंकि वह तेरे प्रलोभन में नहीं फंस सकी ? कुलांगार ?"
धनंजय कांप उठा । उसने मुड़कर देखा। पुजारी रत्नगिरि द्वार पर खड़ा था । धनंजय लड़खड़ा उठा । रत्नगिरि ने हंसकर कहा - "भूल गया अपना समस्त बल और वैभव के अत्याचार का बर्बर रूप ? स्त्री की हत्या करके भागना चाहता है ? तू एक देवदासी की पवित्रता को कलुषित करना चाहता था क्योंकि तुझे सेनापति का पुत्र होने का गर्व था । तेरी शक्ति के सामने देवता का अपमान एक साधारण वस्तु है ? तेरे बल के सामने एक पवित्र नारी का सतीत्व कुछ भी नहीं ? धिक्कार है ऐसे वैभव को, धिक्कार है ऐसे साम्राज्य को ! ब्राह्मण तुझे शाप देता है..."
किन्तु एकाएक पुजारी की जिह्वा रुक गई। मस्तिष्क में तीन बार कुछ चोट कर उठा । पुजारी ने कहा - "मैं सूर्य्यमणि को वचन दे चुका हूं पापी । जा भाग जा । अन्यथा अभी यहां भीड़ हो जाएगी और तू पकड़ा जाएगा। तूने अनेक हृदयों का सर्वनाश कर दिया है । किन्तु तेरे लिए जैसे युद्धभूमि में यश के लिए अनेक हत्या करना है वैसे ही एक यह भी सही । वहां तू अनेक स्त्रियों को धन और भूमि के लिए विधवा बनाता है, यहां तूने ब्राह्मण और देवता की सम्पत्ति पर पदाघात किया है।"
धनंजय वज्राहत-सा खड़ा रहा। पुजारी ने उसे धकेलकर बाहर कर दिया । उसने पास जाकर देखा, देवदासी की आंख उलट गई थी, जिह्वा बाहर निकल आयी थी । धनंजय ने पीछे से उसका गला घोंट दिया था। तभी उसके नयनों में कोई चिह्न नहीं था ।
कैसा कठोर होगा उसका हृदय जो इस फूल-सी बालिका की हत्या कर सका ? सूर्य्यमणि एक हत्यारे से विवाह करेगी? और वह देखता रहेगा किन्तु राजमाता का मान, सिन्धुनाद की उज्ज्वल देदीप्यमान कीर्ति !
वृद्ध शव पर रो उठा। उसने कहा- "उन्हें क्षमा कर दे रुक्मिणी ! सिन्धुनाद तेरा पिता है, राजमाता इन्दिरा तेरी माता है, सूर्य्यमणि तेरे पिता की पुत्री है और मैं सूर्य्यमणि को वचन दे चुका हूं । तू बिल्कुल पवित्र है । आकाश की शरद पूर्णिमा की ज्योत्स्ना से भी अधिक श्वेत ! उन्हें क्षमा कर पुत्री ! मैंने तुझे बचपन से पाला था, और वैराग्य मैंने तेरे कारण त्याग दिया। क्षमा कर रुक्मिणी! ब्राह्मण, देवता और देवदासी को सब कुछ खोकर भी क्षमा करना चाहिए पुत्री !"
उसने देवदासी के शरीर को स्पर्श करके ऊपर हाथ करके कहा - "देवता, नारायण, कामाक्षी ! देवदासी को स्वर्ग में बुला लो। वह बिल्कुल पवित्र है ।" पुजारी उठा । उसने अपने आंसू पोंछ लिए और बाहर निकल आया । बाहर कोई वीणा बजा रहा था । रत्नगिरि ने कहा- "मैंने देवदासी की हत्या की है। मैंने देवदासी रुक्मिणी का गला घोंट कर मार डाला है । भीतर परिक्रमा के पास उसका शव पड़ा है।"
गीत रुक गया। वीणा की सिसक बन्द हो गई। महासम्राट सिंहविष्णु हठात् उठ खड़े हुए। उनके उठते ही समस्त सभा हड़बड़ा कर खड़ी हो गई। चारों ओर निस्तब्धता छा गयी। प्रांगण का बिल्लौर का मध्य भाग एक उदासीनता और किंकर्त्तव्यविमूढ़ता से स्तब्ध हो गया। महोत्सव रुक गया। स्त्रियों के आभूषण चुप हो गए, पुरुषों के नयन विस्मय से खुल गए। प्राचीन राजमन्दिर की विशाल प्राचीरें विक्षुब्ध हो गयीं ।
कुछ देर तक सब चुपचाप देखते रहे । सम्राट ने कहा- "कौन ? वही जिसने अभी-अभी अमराओं का सा नृत्य किया था ?"
"हां, वही सम्राट!" रत्नगिरि ने दूर से उत्तर दिया और प्रांगण की ओर बढ़ चला ।
चारों ओर कोलाहल मच उठा - "पुजारी रत्नगिरि ने अपनी पुत्री की हत्या कर दी ? ब्राह्मण होकर उसने पवित्र देवता की सम्पत्ति को मार डाला, जन्म से जिसे उसने पाला उसी पर हाथ उठाया? उसने निरपराधिनी स्त्री का ध्वंस कर दिया ? ब्राह्मण ने आज यह घोर अपराध किया ? रत्नगिरि ने पल्लव के गौरव -वृक्ष को फल और फूलों से लदा देखकर भी कुठार चला दिया ।" प्रांगण में आकर अकेला रत्नगिरि सुनता रहा । उनको चारों ओर से सम्राट, राजकुमार, सामन्तों, नागरिकों, कुलीन ललनाओं और जनसमुदाय ने घेर लिया। सब कुछ न कुछ उसके विरुद्ध कह रहे थे । सम्राट् कुछ सोच रहे थे। किसी को भी विश्वास न था । पुजारी रत्नगिरि साम्राज्य का सबसे पवित्र ब्राह्मण था । चारों ओर से प्रश्नों की भरमार होती रही । जनसमुदाय विक्षुब्ध होकर उसे धिक्कार रहा था । सामन्तों की भृकुटि खिंच गयी थी । सब उसे क्रुद्ध दृष्टि से, घृणा से व्याकुल होकर देख रहे थे । किन्तु पुजारी रत्नगिरि निर्भीक खड़ा रहा। रंगभद्र ने उसके पास जाकर कहा - "पुजारी ! तुमने रुक्मिणी को मार डाला ? तुमने उसके मनुष्य होने के प्रयत्न को देखकर उसका वध कर दिया ? ब्राह्मण ! तुम युग-युग तक गौरव की यातना भोगोगे। तुमने एक मनुष्य को पशु बनाना चाहा था, और जब उसने मनुष्य होने का प्रयत्न किया तुमने उसे कुचल दिया ? क्योंकि वह मेरे साथ भागनेवाली थी ?" राजकुमार महेन्द्रवर्मा ने आगे बढ़कर कहा - "ब्राह्मण होने से तुम अबध्य हो पुजारी । किन्तु ब्राह्मण आज तक पशुबलि देते थे, तुमने नरमेध किया है। मैं आज उस धर्म के नाम पर पूछता हूं क्या वैष्णव भक्ति में पिता पुत्री की हत्या करके नहीं मर सकता ?” रंगभद्र की ओर दिखाकर सम्राट सिंहविष्णु ने कहा- "यदि यह युवक सत्य कहता है तो पुजारी का कोई दोष नहीं। उसने देवता की सम्पत्ति को अपवित्र होते देखकर उसका ध्वंस करके पवित्र भागवत धर्म की रक्षा कर दी । रत्नगिरि ! बोलो, कहो, देवदासी अनाचारिणी थी ।"
रत्नगिरि ने अविचलित स्वर से कहा - "यह युवक झूठ बोलता है । मैंने इसे कभी भी उससे बात करते नहीं देखा । देवदासी सदा अकलुष, पवित्र और पुण्य से भी मधुर थी। उसकी आत्मा प्रभात के नीहार की भांति उज्ज्वल कल्मषहीन थी । "
सम्राट सिंहविष्णु ने क्रोध से कहा - "तब तू ब्राह्मण नहीं है रत्नगिरि, तू चाण्डाल है । अपनी पुत्री को निष्कारण मारकर तू पत्थर की तरह मेरे सामने खड़ा है । राजकुमार महेन्द्र वर्मा सच कहता है कि ब्राह्मण को अबध्य कहना धर्म का सबसे बड़ा दुराचार है।"
रत्नगिरि ने कहा- “सम्राट, रत्नगिरि पुत्री की हत्या करके अब ब्राह्मण नहीं रहा । वह हत्यारा है ।"
इसी समय राजमाता धीरे-धीरे रत्नगिरि के सम्मुख आ खड़ी हुई । उनकी आंखों में अश्रु छा रहे थे जिनमें वात्सल्य और भय मिश्रित घृणा चमक रही थी । उन्होंने कहा - "पुजारी, सच कहो, पुत्री को तुमने ही मारा है ?"
पुजारी ने कुछ जवाब नहीं दिया। राजमाता फूट-फूटकर रो उठी। उनका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो रहा था । उन्होंने कहा - "तुम रक्षक नही हो, तुम हिंस्र पशु हो । जन्म से तुमने उसे पाला, फिर क्या इसी अन्त का तुमने उसके लिए निर्णय किया था ? पैदा होते ही क्यों न मार दिया पिशाच ? स्वर्ग की उस अमूल्य पवित्र प्रतिमा का तुमने अन्त कर दिया, तुम्हें क्या मालूम मेरे हृदय की वेदना..."
उनका कण्ठ रुंध गया। पुजारी ने उनकी ओर देखा । वह रोती रोती पीछे हट गयीं । आगे आकर कवि सिन्धुनाद ने कहा - "पुजारी, यह तुमने क्या किया ? सच कहो, तुमने यह हत्या क्यों की ? तुम तो उसे काशी लेकर जा रहे थे ! रत्नगिरि, तुमने क्या यही मित्रता दिखाई है ? आजीवन पवित्र रहे हो तुम ? तुमने स्त्री-हत्या ही नहीं की, तुमने देवदासी की हत्या की है ! ब्राह्मण होने के कारण तुम्हारी हत्या नहीं की जा सकती, क्या इसी से तुमने ऐसा किया ? आज तक तो तुमने कभी अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया ? क्या देवदासी पापिनी थी ?"
उम समय रत्नगिरि ने दृढ़ स्वर में कहा - "नहीं कवि ।"
सिन्धुनाद की आंखों में आंसू छा गए। उसने धीरे से कहा- "तुमने सबसे बड़ा पाप किया है । तुमने अनेक हृदयों पर ठोकर मारकर चूर कर दिया है। तुम मेरे मित्र हो । रत्नगिरि, क्या तुम अब जीवन भर अपने इस भीषण पाप की ज्वाला में जीवित ही नहीं मर जाओगे ? कैसे सह सकोगे यह सब ब्राह्मण ? किन्तु तुम अब सब कुछ सहोगे वज्र- हृदय ! तुमने हत्या की है। तुमने विश्वासघात किया है। तुमने इस वृद्ध का हृदय बिल्कुल ध्वस्त कर दिया है। क्या चिता की भस्म को अपने पापी नयनों से घूर रहे हो ? रत्नगिरि, यह तुमने क्या किया ?"
पुजारी ने नीचे का होंठ दांत से काट लिया और चुपचाप खड़ा रहा।
सम्राट सिंहविष्णु ने कहा - "ब्राह्मण को राजमन्दिर से बाहर निकाल दो, उसको पल्लव साम्राज्य से निर्वासित कर दो। मैं आज्ञा देता हूं कि पल्लव का एक भी नागरिक, सैनिक अथवा जो कोई भी हो ब्राह्मण को एक मुट्ठी अन्न न दे, एक बूंद पानी न दे और इसके पाप से पूर्ण मुख को देखकर चिल्ला उठे - नारायण ! नारायण ! ! "
समस्त समुदाय पुकार उठा - "नारायण ! नारायण !! "
सम्राट सिंहविष्णु ने फिर कहा – “मन्दिर को यज्ञ से पवित्र करना होगा। यहां ब्राह्मण के वेश में चाण्डाल रहता था। इसे निकाल दो।"
रत्नगिरि धीरे से मन्दिर के बाहर निकल गया। सहस्रों हृदय एक स्वर मे उसे धिक्कार उठे ।
आठ
उस समय मन्दिर निर्जन हो चुका था । निस्तब्धता सनसना रही थी । नागरिक समुदाय अपने-अपने घरों को लौट चुका था । दीप बुझ चुके थे । घोर नीरवता छा रही थी । स्तम्भ के सहारे खड़े युवक की तन्द्रा टूट गयी। वह धीरे-धीरे बाहर आया और पेलार नदी की ओर चल पड़ा ।
प्रभात का मधुर प्रकाश सिकता पर डोलने लगा। धीवरों की वंशी की करुण लहरियां सिन्धु-मिलन के लिए अधीर ऊर्म्मियों पर फहरने लगीं। सहसा युवक ने पोत पर चढ़कर पुकारा - "कदम्ब ! " सेवक ने झुककर कहा - "प्रभु ?"
"हमारे पास कितने पोत हैं ?" युवक ने अविचलित स्वर से पूछा ।
"चौबीस, प्रभु ! " सेवक ने विनीत उत्तर दिया ।
"उनकी सम्पत्ति बांट दो कदम्ब ! कांची की भूखी प्रजा को वह सब दान कर दो ।"
"प्रभु ! " कदम्ब ने विस्मय से कहा ।
"विस्मय न हो कदम्ब ! आज महाश्रेष्ठी रंगभद्र प्राणों का व्यापार करने सिंहल जा रहा है। जिस मोती को खोजने वह महासमुद्र में गोता मारने जा रहा था, वह उसे भीषण से भीषण समुद्र का मन्थन करके भी अब नहीं मिल सकता ।”
"प्रभु !" सेवक ने फिर निवेदन किया- "स्वामी का चित्त आज कुछ अस्थिर है ।"
"नहीं कदम्ब ! रंगभद्र अब कभी विचलित नहीं हो सकता। जिस धन को मैं आज एकत्रित करने जा रहा था आज उसी धन और अधिकार के मद ने मुझे आमरण जीवित ही जलने का महान् वरदान दिया है। रंगभद्र कभी भी अब कांची की अभिशप्त नगरी को नहीं लौटेगा | पल्लव साम्राज्य का यह भीषण नरमेध आज पाषाणों के चरणों को अपने रक्त से रंग चुका है। मैं इससे घृणा करता हूं कदम्ब ! मैं इससे जी भरकर घृणा करता हूं।"
कदम्ब चला गया । युवक थोड़ी देर तक खड़ा रहा और फिर सहसा ही पुकार उठा - "मांझी, पोत को बहने दो।"
कठोर मांसपेशियों वाले नाविकों की पतवारों ने अथाह नदी की लहरों को काटना प्रारम्भ किया। फेन उठाकर पोत के किनारे पर छींटे मारने लगे । अकेला पोत सागर की ओर बह चला। निराधार, अनन्त जलराशि पर डगमगाता, कांपता, भयभीत होता । पाल हवा से भरकर फैल गये । उज्ज्वल प्रकाश लहरों पर भागने लगा। तीर दूर छूट गए। पोत की गति तीव्र होने लगी ।
रंगभद्र एक बार जोर से हंस उठा और फिर सिर थामकर अर्द्धमूर्च्छित सा बैठ गया । वह न जाने कौन-सा मोती ढूंढ़ने जा रहा था ! चारों ओर महानद का ऊर्म्मिजाल अट्टहास कर उठता था और ऊर्जस्वित प्रतिध्वनि आकाश में मंडराने लगती थी ।
प्रवाह पर पोत मन्थर गति से बहा जा रहा था। दूर-सुदुर केवल जलराशि के अतिरिक्त आज चारों ओर कहीं भी कुछ न था । क्षितिज जैसे सन्निपात में कुछ मर्मर कर रहे थे, और रंगभद्र बैठा रहा, बैठा रहा, विश्रांत पराजित, विध्वस्त ... अवसाद का टूटा हुआ स्तम्भ ... अभिलाषाओं की धधकती भस्म का उन्माद !
[ मई '47 से पूर्व ]