देवांगना (आस्था और प्रेम का धार्मिक कट्टरता और घृणा पर विजय का एक रोचक उपन्यास) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Devangana (Novel) : Acharya Chatursen Shastri

आमुख : देवांगना

आज से ढाई हज़ार वर्ष पूर्व गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य और सदाचार की शिक्षा देकर—बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए, लोक पर दया करने के लिए, देव-मनुष्यों के प्रयोजन-हित सुख के लिए संसार में विचरण करने का आदेश दिया। वह 44 वर्षों तक, बरसात के तीन मासों को छोड़कर विचरण करते और लोगों को धर्मोपदेश देते रहे। उनका यह विचरण प्रायः सारे उत्तर प्रदेश और सारे बिहार तक ही सीमित था। इससे बाहर वे नहीं गए। परन्तु उनके जीवनकाल में ही उनके शिष्य भारत के अनेक भागों में पहुँच गये थे।

ई. पू. 253 में अशोक ने अपने धर्मगुरु आचार्य मोग्गलिपुत्र तिष्य के नेतृत्व में भारत से बाहर बौद्ध धर्मदूतों को भेजा। भारत के बाहर बौद्धधर्म का प्रचार भारतीय इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। इस समय प्रायः सारा भारत, काबुल के उस ओर हिन्दुकुश पर्वतमाला तक, अशोक के शासन में था।

बुद्ध के जीवनकाल में पेशावर और सिन्धु नदी तक, पारसीक शासानुशास दारयोश का राज्य था। तक्षशिला भी उसी के अधीन था। उन दिनों व्यापारियों के सार्थ पूर्वी और पश्चिमी समुद्र तट तक ही नहीं, तक्षशिला तक जाते-आते रहते थे। उनके द्वारा दारयोश के पश्चिमी पड़ोसी यवनों का नाम बुद्ध के कानों तक पहुँच चुका था। परन्तु उस काल का मानव संसार बहुत छोटा था। चन्द्रगुप्त के काल में सिकन्दर ने पंजाब तक पहुँचकर मानव संसार की सीमा बढ़ाई। अशोक काल में भारत का ग्रीस के राज्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हआ, जो केवल राजनैतिक और व्यापारिक ही न था, सांस्कृतिक भी था। इसी से अशोक को व्यवस्थित रूप में धर्म-विजय में सफलता मिली और बौद्धधर्म विश्वधर्म का रूप धारण कर गया। इतना ही नहीं; जब बौद्धधर्म का सम्पर्क सभ्य-सुसंस्कृत ग्रीकों से हुआ जहाँ अफलातून और अरस्तू जैसे दार्शनिक हो चुके थे तो बौद्धधर्म महायान का रूप धारण कर अति शक्तिशाली बन गया। महायान ने बौद्धधर्म जीवन का एक ऐसा उच्च आदर्श सामने रखा जिसमें प्राणिमात्र की सेवा के लिए कुछ भी अदेय नहीं माना गया तथा इस आदर्श ने शताब्दियों तक अफगानिस्तान से जापान और साइबेरिया से जावा तक सहृदय मानव को अपनी ओर आकृष्ट किया। महायान ने ही शून्यवाद के आचार्य नागार्जुन-असंग-वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति जैसे दार्शनिक उत्पन्न किए जिन्होंने क्षणिक विज्ञानवाद का सिद्धान्त स्थिर किया। जिसने गौड़पाद और शंकराचार्य के दर्शनों को आगे जन्म दिया। मसीह की चौथी शताब्दी तक महायान पूर्ण रूपेण विकसित हुआ और उसके बाद अगली तीन शताब्दियों में उसने भारत और भारत की उत्तर दिशा के बौद्धजगत् को आत्मसात् कर लिया।

इसी समय से वज्रयान उसमें से अंकुरित होने लगा। और आठवीं शताब्दी में चौरासी सिद्धों की परम्परा के प्रादुर्भाव के साथ वज्रयान भारत का प्रमुख धर्म बन गया। बौद्धधर्म का यह अन्तिम रूप था, जो अपने पीछे वाममार्ग को छोड़कर तेरहवीं शताब्दी में तुर्कों की तलवार से छिन्न-भिन्न हो गया।

भारतीय जीवन को बौद्धधर्म ने एक नया प्राण दिया। बौद्ध-संस्कृति भारतीय संस्कृति का एक अभंग और महत्त्वपूर्ण अंग थी। उसने भारतीय-संस्कृति के प्रत्येक अंग को समृद्ध किया। न्याय-दर्शन और व्याकरण में जैसे चोटी के हिन्दू विद्वान् अक्षपाद, वात्स्यायन, वाचस्पति, उदयनाचार्य थे उससे कहीं बढ़े-चढ़े बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन, वसुबन्धु, दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, प्रज्ञाकर गुप्त और ज्ञानश्री थे। पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि जैसे दिग्गज हिन्दू वैयाकरणों के मुकाबिले में बौद्ध पण्डित काशिकाकार जयादित्य, न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि तथा पाणिनि सूत्रों पर भाषा वृत्ति बनाने वाले पुरुषोत्तमदेव कम न थे। कालिदास के समक्ष अश्वघोष को हीन कवि नहीं माना जा सकता। सिद्ध नागार्जुन तो भारतीय रसायन के एकक्षत्र आचार्य हैं। आरम्भिक हिन्दी का विकास भी बौद्धों ने किया। उनके अपभ्रंश काव्यों की पूरी छाप उत्तर कालीन सन्तों की निर्गुण धारा पर पड़ी।

इतना ही नहीं, कला का विकास भी बौद्धों ने अद्वितीय रूप से किया। साँची, भरहुत, गान्धार, मथुरा, धान्य कण्टक, अजन्ता, अलची-सुभरा की चित्रकला एवं ऐलोरा-अजन्ता, कोली-भाजा के गुहाप्रासाद बौद्धों की अमर देन है। इस प्रकार साहित्य-संस्कृतिमूर्तिकला-चित्रकला और वास्तुकला के विकास में बौद्ध संस्कृति ने भारत को असाधारण देन दी।

आठवीं शताब्दी में जब शंकर और कुमारिल नये हिन्दू धर्म का शिला-रोपण कर रहे थे नालन्दा और विक्रमशिला के बौद्ध विहार परम उत्कर्ष पर थे। नालन्दा में तब शान्तिरक्षित धर्मोत्तर जैसे प्रकाण्ड दार्शनिक विराजमान थे। नवीं शताब्दी में वज्रयान का उत्कट रूप प्रकट हुआ। तब सरहपा, शबरपा, लुइपा, कण्हपा जैसे महासिद्धों का अखण्ड प्रताप भारत में चारों ओर छाया हुआ था।

खेद की बात है कि भारत के जीवन में नये प्राणों का संचार कर बौद्धधर्म भारत से लुप्त हो गया। बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में गहड़वारों की राज्यसत्ता की समाप्ति हुई और उसके साथ ही भारतीय स्वतन्त्रता का सूर्य अस्त हुआ। उसी के साथ ही साथ बौद्धधर्म का भी भारत से लोप हो गया।

प्रागैतिहासिक काल का अफगानिस्तान भारत का अंग रहा है। अफगानिस्तान की जड़ें भारतीय संस्कृति से बँधी हुई हैं। वैदिक काल में अफगानिस्तान में कई 'जन' थे, जिनके नाम अब भी अफगानिस्तान के कबीलों में मिलते हैं। बुद्ध के काल में यह भूभाग दारदोशशासानुशास के अधीन था। तब वह गान्धार देश कहलाता था। गान्धार नगर अब भी अफगानिस्तान में है। काबुल के पास की उपत्यका कपिशा विख्यात थी जिसे आज कोह दामन कहते हैं। पाणिनीय काल में वहाँ की अंगूरी शराब कापिशायिनी विख्यात थी। आज भी वहाँ के अंगूरों की समता नहीं है। तक्षशिला पूर्वी गान्धार की राजधानी थी। इस प्रकार गान्धार का राज्य कभी रावलपिण्डी से हिन्दुकुश तक फैला हुआ था। बुद्ध के काल में तक्षशिला विद्या और वाणिज्य का केन्द्र था तथा उत्तरी भारत से उसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। वहाँ के पोक्कसाति राजा ने बुद्ध का यश सुनकर राज्य छोड़ दिया था, और वह तक्षशिला से बुद्ध के पास मगध में जाकर भिक्षु बना था। अशोक ने एक धर्म प्रसारक स्तूप तक्षशिला में ही बनवाया था। मौर्य वंश के बाद तो काश्मीर और गान्धार बौद्धधर्म के केन्द्र बन गए थे। और यह कहा जा सकता है कि ग्रीक और शक जातियों को भारतीय संस्कृति की शिक्षा देने का सबसे बड़ा श्रेय गान्धार के बौद्ध भिक्षुओं को ही है। महावैयाकरण पाणिनि, महादार्शनिक असंग और वसुबन्धु पठान ही थे। कहना चाहिए कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से ईसा की दसवीं शताब्दी तक, बारह सौ वर्ष का गान्धार-अफगानिस्तान बौद्धधर्म, संस्कृति और साहित्य का केन्द्र रहा। मध्य एशिया और चीन में बौद्धधर्म के प्रसार का श्रेय भी अफगानिस्तान को ही है। उन दिनों चीन और मध्य एशिया का मार्ग कपिशा (कोहे दामन) होकर ही था। इस कारण अफगानिस्तान के लोग मध्य एशिया में केवल वाणिज्यव्यापार का ही विस्तार न करते थे, धर्म और संस्कृति की देन भी मध्य एशिया को देते थे।

आज के अफगानिस्तान में बुतपरस्ती एक जघन्य काम समझा जाता है। परन्तु कला और संस्कृति का वही स्वर्णयुग अफगानिस्तान का था जब सारा ही अफगानिस्तान बुतपरस्त था। बुतपरस्त वास्तव में फारसी शब्द 'बुद्ध-परस्त' (बुद्धपूजक) का विकृत रूप है।

चीनी तुर्किस्तान और सोवियत तुर्किस्तान दोनों ही मिलकर मध्य एशिया कहाते हैं। पश्चिमी मध्य एशिया का बुखारा नगर बौद्धधर्म का कभी प्रमुख केन्द्र था। मंगोल लोग आज भी विहार को बखारा कहते हैं। तुर्क और तत्कालीन दूसरी जातियाँ भी अपनी भाषा में विहार को बुखाटे कहती थीं। इस्लाम के वहाँ आने से प्रथम इस स्थान पर एक बहुत भारी विहार था, जिसके कारण नगर का यह नाम प्रसिद्ध हो गया। अरबों के शासन के प्रारम्भिक दिनों में इस नगर में छोटी-बड़ी अनेक बुद्ध की मूर्तियाँ बिका करती थीं जिन्हें बुत कहा जाता था। किपचिक मरुभूमि के निवासी और अन्य देशों के यात्री ये मूर्तियाँ खरीद ले जाते थे। उन दिनों तुसार देश में (तुषार), जो वक्षुनदी के दोनों पार हिन्दुकुश और दरबन्द की पहाड़ियों के बीच में था, बौद्ध विहार का जाल बिछा था।

दक्षिणी चीन में पाँचवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का भारी प्रसार हुआ। इस समय यहाँ 21 अनुवादक काम कर रहे थे। इस समय तीर्थयात्रा की भाँति भारत आने का चीन में रिवाज हो गया था। इस समय अनेक भारतीय बौद्ध विद्वान् चीन में और चीनी विद्वान् भारत में आकर सांस्कृतिक आदान-प्रदान कर रहे थे। भारतीय विद्वानों में बुद्धजीव, गुणवर्मा और गुणभद्र परमार्थ प्रमुख थे। सम्राट् ऊ-ती के पुत्र युवान-ची के निजी पुस्तकालय में 40 हज़ार पुस्तकों का संग्रह था।

सातवीं शताब्दी के आरम्भ ही से चीन में बौद्धधर्म का विरोध आरम्भ हुआ। काङ सम्राटों ने सातवीं शताब्दी का अन्त होते-होते बारह हज़ार भिक्षु-भिक्षुणियों को जबर्दस्ती गृहस्थ बना दिया। काङ सम्राट् के दरबार में इतिहासकार फू-ही ने बहस करते हुए कहा था कि इस समय एक लाख से अधिक भिक्षु-भिक्षुणियाँ हैं। मेरी सलाह है कि परम भट्टारक आज्ञा घोषित करें कि इन सभी भिक्षु-भिक्षुणियों को ब्याह करना होगा। इससे एक लाख परिवार तैयार हो जायेंगे, जो दस साल के भीतर दस लाख लड़के-लड़कियाँ पैदा करेंगे, जो सम्राट के लिए सैनिक बनेंगे। द्वितीय काङ सम्राट ने घोषित कर दिया था कि नये विहारों का बनाना, मूर्ति स्थापना तथा बौद्ध ग्रन्थों का लिखना अपराध माना जाए। परन्तु इस समय में भी चीन में 4600 मठ-विहार, 40 हज़ार मन्दिर और ढाई लाख से ऊपर बौद्ध भिक्षु थे। नवीं शताब्दी के मध्य में बौद्ध विद्वानों की सब सम्पत्ति जब्त कर ली गई। पीतल की मूर्तियाँ गलाकर सिक्के ढाले गए, लोहे की मूर्तियाँ तोड़कर किसानों के हथियार बनाए गए। सोने-चाँदी की मूर्तियाँ तोड़कर, सोना-चाँदी राजकोष में जमा कर लिया गया।

सम्राट् की आज्ञा से 4600 विहार नष्ट कर दिये गये। दो लाख 60 हज़ार भिक्षु-भिक्षुणियों को गृहस्थ बना दिया गया। 40 हज़ार मन्दिर ढहा दिए गए। दस लाख एकड़ जमीन जब्त कर ली गई और 1 लाख दासों को मुक्त कर दिया गया।

इस प्रकार चीन में बौद्धधर्म पर प्रथम प्रहार हुआ, जो फिर मध्य एशिया में फैलता हुआ भारत तक आ पहुँचा।

नवीं शताब्दी के मध्य में जब चीन में ये घटनाएँ घटित हो रही थीं, तब भारत में नालन्दा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों में वज्रयान की धूम मची हुई थी।

दसवीं शताब्दी के उषाकाल ही में काङ वंश समाप्त हो गया। और चीन में अराजकता, लूट-मार और अव्यवस्था फैल गई। इस काल में विलास भी चरम सीमा को पहुँच चुका था। काङ दरबार में 10 लाख नर्तकियाँ थीं। नृत्य में माधुर्य लाने के लिए उनके पैर बाँधकर छोटे कर दिए जाते थे। चीन में स्त्रियों के पैर बाँधकर उन्हें छोटे करने की रीति इसी काल में चली। इसी समय चीन में छापने के यन्त्र का आविष्कार हुआ, जो सम्भवत: बौद्धों ने ही किया।

तेरहवीं शताब्दी में चीन पर मंगोलों का अधिकार हुआ। मंगोल घुमक्कड़ जाति के भयंकर पुरुष थे। केवल चीन ही को नहीं सारे सभ्य संसार को इस महाप्रलय का सामना करना पड़ा। यह विनाश का अग्रदूत था मंगोल सम्राट् ते-मू-चिन् जिसे चंगेज खाँ भी कहा गया है। प्रशान्त सागर से भूमध्यसागर, साइबेरिया, हिमालय तक के विशाल भूभाग का वह अप्रतिम विजेता था। उसने अपने काल के सभी घुमक्कड़ कबीलों को एक सूत्र में संगठित किया और वह खानों का खान कहाया। मंगोलों के अनेक सम्राट् हुए। अन्त में तेरहवीं शताब्दी में कुबलै खान ने बौद्धधर्म स्वीकार कर उसे राजधर्म घोषित किया। 14वीं शताब्दी में ही मंगोल शासन का चीन में अन्त हुआ, परन्तु मंगोलों में बौद्धधर्म का विस्तार वैसा ही बढ़ता गया।

सातवीं शताब्दी के आरम्भ में जब भारत में महानृप हर्ष का अबाध शासन चल रहा था उस समय सारा तिब्बत घुमन्तू जीवन व्यतीत कर रहा था। इसी समय तिब्बत में सातवीं शताब्दी का सबसे बड़ा विजेता स्रोङगचन-सान-यो का जन्म हुआ। उसने सब घुमक्कड़ सरदारियों को तोड़कर भोट जाति का एकीकरण किया और उनकी सेना का संगठन कर, उसने आसाम से काश्मीर तक सारे हिमालय और चीन के तीन प्रदेशों को जीत लिया। उसके राज्य की सीमा हिमालय की तराई से पूर्वी मध्य एशिया के भीतर शान-सान की पहाड़ियों तक विस्तृत थी। तिब्बत से बाहर आते ही उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम जिधर भी उसने पैर बढ़ाया सर्वत्र बौद्ध सम्पर्क में आना पड़ा। उसके राज्य के दक्षिणी अंचल नेपाल और काश्मीर थे, जो भारत के भाग होने के कारण बुद्ध की जन्मभूमि समझे जाते थे। उत्तर और पूर्व में तुर्क और चीन के समृद्ध बौद्ध राज्य थे। इन सबके सम्पर्क में आकर इस नये विजेता के नेतृत्व में तिब्बत ने नये सांस्कृतिक रूप को धारण किया। उसने चीन और नेपाल की राकुमारियों से विवाह किया। लासा को राजधानी बनाया। पड़ोसी देशों की तड़क-भड़क के अनुरूप ही इस असंस्कृत सम्राट ने अपने नगर को सांस्कृतिक रूप दिया। नेपाल और चीन की रानियों ने बुद्ध मूर्ति की राजधानी में स्थापना की और उसके चतुर मन्त्री सम्मोटा ने भोट भाषा को लिपिबद्ध कर, लिखा-पढ़ी के द्वारा राज-काज चलाना आरम्भ किया। सम्राट ने स्वयं लिखने-पढ़ने का अभ्यास किया। फिर बौद्ध ग्रन्थों का, वैद्यक ग्रन्थों का और गणित की पुस्तकों का भोट भाषा में अनुवाद हुआ। और इस प्रकार नये सम्राट् की नयी जनता शिक्षित होने लगी। और जन-जागरण के साथ-साथ ही भोट जाति में बौद्ध धर्म के संस्कारों का उदय हुआ।

इस सम्राट के 100 वर्ष बाद नालन्दा के महान् दार्शनिक शान्तिरक्षित तिब्बत में आमन्त्रित किए गए। उन्होंने वहाँ पहिला मठ स्थापित किया और मगधेश्वर महाराज धर्मपाल के बनवाए उदन्तपुरी के महाविहार के अनुरूप विहार की नींव डाली गई। नालन्दा से आचार्य शान्तिरक्षित ने बारह भिक्षु बुलाए और सात भोटदेशीय कुलपुत्रों को भिक्षु बनाया। इस प्रकार भिक्षु संघ और भिक्षु विहार की तिब्बत में स्थापना हुई। 100 वर्ष की आयु में आचार्य का शरीरपात हुआ और उनका शरीर विहार की पहाड़ी पर एक स्तूप में रखा गया। उन्होंने जीवन के 25 वर्ष तिब्बत में व्यतीत किए और अब तक वे वहाँ बोधिसत्त्व की भाँति पूजे जाते हैं। इसके बाद आचार्य कमलशील तिब्बत गए। अब तिब्बत का साम्राज्य और विस्तृत हो गया था। वहाँ बहुत-से बौद्ध विद्वान् पहुँच चुके थे। स्वयं तिब्बत में भी अनेक आचार्य उत्पन्न हो गए थे। परन्तु नवीं शताब्दी में सम्राट् दटम ने बौद्धों पर अत्याचार आरम्भ कर बौद्धधर्म को तिब्बत से बहिष्कृत करने की चेष्टा की। ग्यारहवीं शताब्दी में आचार्य दीपंकर श्रीज्ञान अतिश तिब्बत गए और उन्होंने नये सिरे से वहाँ बौद्धधर्म की प्रतिष्ठा की।

वे केवल तेरह वर्ष ही वहाँ जीवित रहे। पर इस बीच उन्होंने बहुत काम किया। इसके बाद ही भारत से बौद्ध धर्म का लोप हो गया और भारत का धर्म स्रोत सूख गया।

इस समय भी भारत में बौद्धधर्म के बड़े केन्द्र थे, जहाँ विश्ववन्द्य आचार्य रहते थे। आजकल जिसे बिहार शरीफ कहते हैं, तब यह उदन्तपुरी कहाता था तथा यहाँ एक महाविहार था। इस विहार की स्थापना मगधेश्वर महाराज धर्मपाल ने की थी। गंगा तट, जिला भागलपुर, में विक्रमशिला विहार बहुत भारी विद्यापीठ था। यह सुल्तानगंज की दोनों टेकरियों पर अवस्थित था। इसकी स्थापना भी पालवंशी महाराज धर्मपाल ने 8वीं शताब्दी में की थी। उदन्तपुरी के निकट विश्वविख्यात नालन्दा विश्वविद्यालय था। बुद्धगया उस काल में वज्रासन कहाता था। दीपंकर श्रीज्ञान का जन्म भागलपुर के निकटवर्ती किसी सामन्त के घर हुआ था। पीछे उन्होंने नालन्दा, वज्रासन, विक्रमशिला, राजगृह तथा सुदूर चम्पा में जाकर ज्ञानार्जन किया था। और पीछे उनकी गणना विक्रमशिला के आठ महापण्डितों में की गई थी। उन्होंने अपने अन्तिम दिन तिब्बत को ज्ञान-दान देने में व्यतीत किए।

दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी का अन्त होते-होते उत्तर भारत में पालों, गहरवारों, चालुक्यों, चन्देलों और चौहानों के अतिरिक्त सोलंकी और परमारों के राज्य स्थापित हो गए थे। ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में भारत की शक्ति 7 दरबारों में विभाजित थी, जो सब स्वतन्त्र थे। पूर्वी भारत में बौद्धों के वज्रयानी सिद्धों का डंका बज रहा था, जिनके केन्द्र नालन्दा, विक्रमशिला, उदन्तपुरी और वज्रासन थे। पाल राजा सिद्धों के भक्त थे और उनके केन्द्र उन्हीं के द्वारा पनप रहे थे।

ईसा के पहिली दो-तीन शताब्दियों में यवन, शक, आभीर, गुर्जर आदि जातियाँ भारत में घुसीं, उस समय बौद्धों की विजय-वैजयन्ती देश में फहरा रही थी। उन्होंने विदेशियों को समाज में समानता के अधिकार दिए। ब्राह्मणों ने प्रथम तो म्लेक्ष कहकर तिरस्कार किया परन्तु पीछे जब इन म्लेक्षों में कनिष्क और मिनिन्दर जैसे श्रद्धालुओं को उन्होंने देखा, जिन्होंने मठ और मन्दिरों में सोने के ढेर लगा दिए थे, तो उन्होंने भी इन आगन्तुकों का स्वागत करना आरम्भ कर दिया। बौद्धों ने उन्हें जहाँ समानता का अधिकार दिया था, वहाँ उन्हें ब्राह्मणों ने अत्यन्त ऊँचा केवल अपने से एक दर्जे नीचा क्षत्रिय का स्थान दिया। उन्हें क्षत्रिय बना दिया और इन विदेशी नवनिर्मित क्षत्रियों के लिए अपना प्राचीन दार्शनिक धर्म छोड़ नया मोटा धर्म निर्माण कर लिया, जिसे समझने और उस पर आचरण करने में उन विदेशियों को कोई दिक्कत नहीं हुई। इन विदेशियों की टोलियाँ सामन्त राजाओं के रूप में संगठित हो गईं और वे ब्राह्मण उनके पुरोहित, धर्मगुरु और राजनैतिक मन्त्री हो गए। इस प्रकार इस नये हिन्दू धर्म में प्रथम पुरोहित, उसके बाद ये सामन्त राजा रहे। राजनीति में प्रथम राजा और उसके बाद ब्राह्मण रहे।

ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में जब ये सामन्त और उनके पुरोहित सुगठित हो चुके थे, बौद्ध धर्म निस्तेज होने लगा था। सामन्तों के हाथों में देश की सम्पूर्ण सत्ता थी और वे सम्पूर्णतया ब्राह्मणों के अधीन थे।

बौद्ध तो अभी भी दिङ्नाग और धर्मकीर्ति के दर्शनों पर गर्व करते थे। कभी-कभी वे योग-समाधि, तन्त्र-मन्त्र, भूत-प्रेत-डाकिनी के चमत्कार दिखाने लगते थे। सिद्धों के विचित्र जीवन और लोकभाषा की उनकी अटपटी रहस्यपूर्ण कविताएँ, कुछ लोगों को आकर्षित करती थीं। परन्तु सामाजिक जीवन में उनका कुछ भी हाथ न रह गया था। ब्रह्मचर्य और भिक्षु जीवन, जो बौद्धधर्म की सबसे बड़ी सम्पदा थी, अब केवल एक ढोंग रह गया था।

'वज्रयान’ जो बौद्धधर्म का सबसे विकृत रूप था, सातवीं शताब्दी के पूर्व ही देश के पूर्वी भागों में फैल गया था। नालन्दा-विक्रमशिला-उदन्तपुरी-वज्रासन इसके अड्डे थे और इनका प्रसार बिहार से आसाम तक था। ये बौद्धभिक्षु अब तांत्रिक सिद्ध कहलाते थे और वामाचारी होते थे। ऐसे 'चौरासी सिद्ध' प्रसिद्ध हैं, जिनकी अलौकिक शक्तियों और सिद्धियों पर सर्वसाधारण का विश्वास था। इन सिद्धों में जहाँ बड़े-बड़े आचार्य-विद्वान् थे वहाँ थोड़े पढ़े-लिखे नीच जाति के डोम, चमार, चाण्डाल, कहार, दर्जी, शूद्र तथा अन्य ऐसे ही आदमी अधिक होते थे। कुछ तो अनपढ़ होने के कारण और कुछ इसलिए भी कि वे जनता पर अपना प्रभाव कायम रख सकें, वे प्रचलित लोकभाषा में गूढ़ सांकेतिक कविताएँ करते थे।

इसी वज्रयान का एक अधिक विकृत रूप सहजयान सम्प्रदाय था। इसका धर्मरूप महा सुखद था। इसके प्रवर्तक 'सरहपा' थे। इन्होंने गृहस्थ समाज की स्थापना की थी, जिसमें गुप्त रीति पर मुक्त यौन सम्बन्ध पोषक चक्र, सम्बर आदि देवता, उनके मन्त्र और पूजा-अनुष्ठान की प्रतिष्ठा हुई। शक्तियों सहित देवताओं की 'युगनद्ध' मूर्तियाँ अश्लील मुद्राओं में पूजी जाने लगीं। साथ ही मन्त्र-तन्त्र, मिथ्या विश्वास और ढोंग का भी काफी प्रसार हुआ।

परन्तु जब मुहम्मद-बिन-खिलजी ने इन धर्मकेन्द्रों को ध्वंस कर सैकड़ों वर्षों से संचित स्वर्णरत्न की अपार सम्पदा को तारा, कुरुकुल्ला, लोकेश्वर मंजुश्री के मन्दिरों और मठों से लूट लिया और वहाँ के पुजारियों, भिक्षुओं और सिद्धों का एक सिरे से कत्लेआम किया, तब ये सारी दिव्य शक्तियाँ दुनिया से अन्तर्धान हो गईं। इस कत्लेआम में बौद्धों का ऐसा बिनाश हुआ कि उसके बाद बौद्धधर्म का नाम लेने वाला भी कोई पुरुष भारत में ढूँढ़े न मिला। मुसलमानों को, भारत से बाहर भी मध्य एशिया में जरफशों और वक्षु की उपत्यकाओं, फर्गाना और वाल्हीक की भूमियों में बौद्धों का मुकाबिला करना पड़ता था। घुटे चेहरे और रंगे कपड़े वाले इन बुतपरस्त (बुद्धपूजक) भिक्षुओं से वे प्रथम ही से परिचित थे। इसी से भारत में जब उनसे मुठभेड़ हुई तो उन्होंने उन पर दया नहीं दिखाई। उन्होंने खोज-खोजकर बौद्धों के सारे छोटे-बड़े विहार नष्ट कर दिए। बौद्धों को अब खड़े होने का स्थान न रह गया। भारतीय बौद्धधर्म संघ के प्रधान शाक्य श्रीभद्र विक्रमशिला विद्यालय के ध्वस्त होने के बाद भागकर पूर्वी बंगाल के 'जगत्तला’ विहार में पहुँचे। जब वहाँ भी तुर्कों की तलवार पहुँची, तब नेपाल जाकर वे शरणापन्न हुए। पीछे वे तिब्बत चले गए। शाक्य श्रीभद्र की भाँति न जाने कितने बौद्ध सिद्ध विदेशों को भाग गए। भारत में तो रंगे कपड़े पहनना मौत का वारंट था। अब न उनके खड़े होने का भारत में स्थान था, न उनका कोई संरक्षक था और न जनता का ही उन पर विश्वास रह गया था। इसलिए वे तिब्बत, चीन, बर्मा और लंका की ओर भाग गये। उनके इस प्रकार अन्तर्धान होने पर बौद्ध गृहस्थ भी अपने धर्मकृत्य भूल गए। और इस प्रकार नालन्दा, विक्रमशिला और उदन्तपुरी के ध्वंस के कुछ ही पीढ़ी बाद, बुद्ध की जन्मभूमि भारत में बौद्ध धर्म का सर्वथा लोप हो गया।

हमारा यह उपन्यास बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण की घटनाओं पर आधारित है। इस समय विक्रमशिला-उदन्तपुरी वज्रासन और नालन्दा विश्वविद्यालय वज्रयान और सहजयान सम्प्रदायों के केन्द्र स्थली हो रहे थे, तथा उनके प्रभाव से भारतीय हिन्दू-शैव-शाक्त भी वाममार्ग में फँस रहे थे। इस प्रकार धर्म के नाम पर अधर्म और नीति के नाम पर अनीति का ही बोलबाला था। हम इस उपन्यास में उसी काल की पूर्वी भारतीय जीवन की कथा उपस्थित करते हैं।

1. समारोह : देवांगना

आजकल जहाँ भागलपुर नगर बसा है, वहाँ ईसा की बारहवीं शताब्दी में विक्रमशिला नाम का समृद्ध नगर था। नगर के साथ ही वहाँ विश्वविश्रुत बौद्ध विद्यापीठ था। विक्रमशिला के नगरसेठ धनंजय का हिमधौत धवल महालय आज विविध रंग की पताकाओं, बन्दनवारों और मांगलिक चिह्नों से सजाया जा रहा था। सिंहद्वार का तोरण फूलों से बनाया गया था। बड़े-बड़े हाथियों-घोड़ों-रथों-पालकियों पर और दूसरे वाहनों पर नगर के धनी-मानी नर-नारी, सेठ-साहूकार और राजवर्गीय पुरुष आज धनंजय सेट्ठि के महालय में आ रहे थे। रंगीन कुत्तक और जड़ाऊ उष्णीष पहिने विनयधर और दण्डधर सोने-चाँदी के दण्ड हाथों में लिए दौड़-दौड़कर समागत अतिथियों की अभ्यर्थना कर रहते थे। दास-दासी, द्वारपाल सब अपनी-अपनी व्यवस्था में व्यस्त रहे थे। महालय का वातावरण अतिथियों और उनके वाहनों की धूमधाम और कोलाहल से मुखरित हो रहा था।

नगर सेट्ठि धनंजय की आयु साठ को पार कर गई थी। उनका शरीर स्थूल और रंग मोती के समान उज्ज्वल था। उनके स्निग्ध मुखमण्डल पर सफेद मूंछों का गलमुच्छा उनकी गम्भीरता का प्रदर्शन कर रहा था। वह शुभ्र परिधान पहिने, कण्ठ में रत्नहार धारण किए, मस्तक पर बहुमूल्य उष्णीष पहिने समागत अतिथियों का स्वागत कर रहे थे। उनके होंठ अवश्य मुस्करा रहे थे, पर उनका हृदय रो रहा था। उनका मुख भरे हुए बादलों के समान गम्भीर और नेत्र आर्द्र थे। आज उनका इकलौता पुत्र प्रव्रज्या लेकर भिक्षुवृत्ति ग्रहण कर रहा था। यह असाधारण समारोह इसी के उपलक्ष्य में था।

एक हजार भिक्षुसंघ सहित, आचार्य भदन्त वज्रसिद्धि प्रांगण में पहुँच चुके थे। भिक्षुगण पीत चीवर पहिने, सिर मुंडाए, मन्द स्वर से पवित्र काव्यों का उच्चारण कर रहे थे। उनका सम्मिलित कंठस्वर वातावरण में एक अद्धुत कम्पन उत्पन्न कर रहा था। महालय में जो गन्ध द्रव्य जल रहा था उसके सुवासित धूम से सुरभित वायु दूर-दूर तक फैल रही थी। विविध वाद्य बज रहे थे। सम्मानित अतिथि आपस में धीरे-धीरे भाँति-भाँति की जो बातचीत मन्द स्वर से कर रहे थे उससे सारी ही अट्टालिका मुखरित हो रही थी।

धनंजय सेट्ठि ने व्यस्त भाव से इधर-उधर देखा। सामने ही उनका अन्तेवासी विश्वस्त सेवक सुखदास उदास मुँह चुपचाप निश्चेष्ट खड़ा था। सेठ ने कहा—“भणे सुखदास, तनिक देख तो, पुत्र के तैयार होने में अब कितना विलम्ब है। भिक्षुगण तो आ ही गए हैं। अब परम भट्टारक महाराजाधिराज और आचार्य के आने में विलम्ब नहीं है।"

सुखदास ने मालिक की विषादपूर्ण दृष्टि और कम्पित स्वर को हृदयंगम किया और बिना ही उत्तर दिए स्वामी के सम्मुख मस्तक नत कर भीतर चला गया।

सुखदास सेठ का पुराना नौकर था। उसका इस महाजन के घर में परिवार के पुरुष की भाँति आदर-मान था। वह अधेड़ आयु का एक ठिगना, मोटा और गौरवर्ण का पुरुष था। चाँद उसकी गंजी थी, चेहरा सदा हास्य से भरा रहता था पर इस समारोह में उसका मुँह भी भरे हुए बादलों के समान हो रहा था। वह सेठ के दु:ख और विवशता को जानता था। उसके पुत्र की मनोदशा भी समझता था। जो कार्य हो रहा था वह उसका कट्टर विरोधी था। परन्तु वह विवश था।

बौद्धों के पाखण्ड, दुराचार और दुष्ट वृत्ति को वह जानता था। इन ढोंगी भिक्षुओं की धर्षणा करने का वह कोई अवसर चूकता नहीं था।

महाश्रेष्ठि के पुत्र का नाम दिवोदास था। वह बाईस वर्ष का दर्शनीय युवक था। रंग उसका मोती के समान था। उज्ज्वल हीरक पंक्ति-सी उसकी धवल दन्तावलि थी। उत्फुल्ल कमलदल-से उसके नेत्र थे और सघन घन गर्जन-सा उसका कण्ठस्वर था। वह नवीन वृषभ की भाँति चलता था। उसका हास्य जैसे फूल बिखेरता था।

सुखदास ने सेट्ठि पुत्र को गोद खिलाया था। उसकी अपनी कोई सन्तान न थी। इस निरीह दम्पति ने सेट्ठि पुत्र में ही अपना वात्सल्य समर्पित किया था। बालक दिवोदास सेवक सुखदास के घर जाकर उसकी गोद में बैठकर उसके हाथ से उसके घर का रूखा-सूखा भोजन करता और उसी की गोद में सुखदास की कहानियाँ सुनते-सुनते सो जाता था। श्रेष्ठि और उनकी गृहिणी को इसमें आपत्ति न थी। पुत्र के प्रति सुखदास के प्रेम से वे परिचित थे। इसमें उन्हें सुखोपलब्धि होती थी।

इसी प्रकार दिवोदास युवा हो गया। युवा होने पर भी सुखदास के प्रति उसकी आसक्ति गई नहीं। वह उसे पितृव्य कहकर पुकारता था। सुखदास दिवोदास के विवाह की कितनी ही रंगीन कल्पनाएँ करता। पति-पत्नी झूठमूठ को ही दिवोदास के विवाह की किसी काल्पनिक बात को लेकर लड़ पड़ते, और जब दोनों निर्णय के लिए श्रेष्ठि दम्पति के पास जाते, श्रेष्ठि दम्पति खिलखिलाकर हँस पड़ते थे।

आज इन सब सुखद भावनाओं पर जैसे तुषारपात हो गया। सुखदास की मर्मकथा को कौन जान सकता था! वह अपने हाहाकार करते हुए हृदय की पीड़ा को छिपाकर अन्त:पुर की ओर चला गया।

अन्त:पुर में परिचारिकाएँ दिवोदास को मन्त्रपूत जल से स्नान करा रही थीं। पाँच भिक्षु मन्त्र पाठ कर रहे थे। दिवोदास गम्भीर थे।

उनके स्वर्णगात पर केसर का उबटन किया गया था। सुगन्ध से कक्ष भर रहा था। चेरी और सुहागिनें मंगल गीत गा रही थीं। परिचारिकाओं ने स्नान के बाद दिवोदास को बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहनाए। यह देख गृहपत्नी ने आँख में आँसू भरकर कहा—“पुत्र का यह कुछ ही क्षणों का श्रृंगार है, फिर तो पीत चीवर और भिक्षापात्र!” उसकी आँखों से झर-झर अश्रुधार बह चली।

सुखदास ने गृहिणी का यह विषादपूर्ण वाक्य सुन लिया। उसने ठण्डी साँस लेकर कहा—“हाय, आज का यह दिन देखने ही को मैं जीवित रहा!” परन्तु शीघ्र ही उसने अपने को सम्हाला। आँख की कोर में आए आँसू पोंछ डाले और आगे बढ़कर कहा—“कुमार, मालिक की आज्ञा है कि महाराजाधिराज और आचार्य के पधारने में अब देर नहीं है, तनिक जल्दी करो।"

कुमार ने स्थिर स्वर में कहा—"पितृव्य, पितृचरणों में निवेदन कर दो कि यह दास तैयार है।"

सुखदास ने क्षण-भर ओस से भीगे हुए शतदल कमल की भाँति सुषमा सम्पन्न कुमार के मुख की ओर देखा—— और 'अच्छा' कहकर वहाँ से चला गया।

इसी समय श्रेष्ठि ने आकर दोनों हाथ फैलाकर कहा—"पुत्र, प्यारे पुत्र!"

दिवोदास ने सम्मुख खड़े होकर कहा——"पितृचरणों में अभिवादन करता हूँ।"

"आयुष्मान् हो, यशस्वी हो, पुत्र।"

"अनुगृहीत हुआ।"

"तो पुत्र, तुम तैयार हो?" श्रेष्ठि ने कम्पित कण्ठ से कहा।

"हाँ पिता।"

"पुत्र, मेरा हृदय बैठा जा रहा है।"

"पिताजी, यह तो आनन्द का अवसर है।"

"अरे पुत्र, तेरे बिना मैं रहूँगा कैसे? यह सारी पृथ्वी तप्त तवे की भाँति अभी से जलती दीख रही है। अब यह सुख-वैभव, धनराशि... हाय, मैंने सोचा था... किन्तु महाराज की आज्ञा..." सेठ के होंठ काँपे और नेत्रों से आँसू टपक पड़े।

सुखदास ने व्यस्त भाव से आकर कहा——"स्वामिन्, महाराजाधिराज श्री गोविन्दपाल देव तथा भिक्षुश्रेष्ठ आचार्य बन्धुगुप्त पधार रहे हैं।"

धनंजय सेठ ने आँखें पोछी और उनकी अभ्यर्थना को दौड़ चले। उन्होंने महाराज और भिक्षुश्रेष्ठ की अभ्यर्थना की और कक्ष में ले आए।

दिवोदास ने भूपात करके साष्टांग प्रणाम किया।

बन्धुगुप्त ने दोनों हाथ ऊँचे कर कहा——"कल्याण, कल्याण!" फिर आगे बढ़कर सेठ से कहा——"श्रेष्ठिराज, महासंघस्थविर वज्रसिद्धि ने आपका मंगल पूछा है, तथा मंजुश्री वज्रतारा देवी का यह गन्धमाल्य दिया है।"

धनंजय सेठ ने गन्धमाल्य लेकर मस्तक पर रक्खा। और कहा—"भला महासंघस्थविर प्रसन्न तो हैं?"

"वे सदा सबकी कल्याण-कामना में लगे रहते हैं, वे सर्वत्यागी सिद्ध महापुरुष हैं, उन्हें सुख-दु:ख नहीं व्यापता।" फिर उन्होंने आगे बढ़कर कुमार के मस्तक पर हाथ धर कहा—"धन्य कुमार! तुमने वही किया जो तथागत ने किया था, तुम्हारा जीवन धन्य हुआ।"

दिवोदास ने मौनभाव से आचार्य के चरणों में मस्तक नवा दिया।

सेठ ने कहा—“आचार्य मैंने अपना कुल-दीपक धर्म के लिए दिया।"

"श्रेष्ठिराज, यह संसार का दीपक बनेगा।"

इस समय महाराज ने आगे बढ़कर सेठ के कन्धे पर हाथ धरके कहा—"क्या तुम बहुत दुखी हो श्रेष्ठि।"

"नहीं देव, किन्तु अब यही इच्छा है कि ये महल-अटारी, धन-स्वर्ण, सभी संघ की शरण हो जाय, और वह अधम भी संघ के एक कोने में स्थान प्राप्त करे।"

आचार्य ने प्रसन्न मुद्रा में कहा—“यह बहुत अच्छा विचार है। श्रेष्ठिराज, धर्म में आपकी मति बनी रहे। अच्छा, अब देर क्यों? अनुष्ठान का मुहूर्त तो सन्निकट है।"

"सब कुछ तैयार है आचार्य।"

"तो चलिए।"

सब लोग चले। आगे-आगे सुखदास मार्ग बताता हुआ। पीछे राजा, आचार्य और धनंजय श्रेष्ठि, उनके पीछे कुमार, कुमार के पीछे स्त्रियाँ मंगल गान करती हुई और उनके पीछे मेहमान।

बाहर आने पर कुमार को सुखपाल पर सवार कराया गया। 16 दण्डधर सुखदास की अध्यक्षता में आगे-आगे चले। उनके पीछे स्त्रियाँ मंगल गान करती हुई चलीं। उनके पीछे 100 दासियाँ हाथ में पूजन सामग्री लेकर चलीं। उनके पीछे 100 भिक्षु 'नमोबुद्धाय', 'नमो अरिहन्ताय' का उच्चारण करते चले। पीछे हाथियों, घोड़ों, पालकियों पर समागत भद्रजन और पैदल।

राह में पुर-स्त्रियों ने अपने सिर के केशों से मार्ग की धूल साफ की, नागरिकों ने पथ पर बहुमूल्य दुशाले बिछाये। कुलवधुओं ने झरोखों से खिले फूल बिखेरे।

विविध वाद्य बज रहे थे, भिक्षु मंत्रपाठ करते चल रहे थे।

समारोह संघाराम के विशाल द्वार के सम्मुख आ विस्तृत मैदान में रुक गया। सब कोई पंक्तिबद्ध हो, स्तब्ध भाव से खड़े हो गये। सबकी दृष्टि संघाराम के विशाल सिंहद्वार पर थी, जिसके पट बन्द थे। उन्हीं को खोलकर महासंघस्थविर आने वाले थे।

2. प्रव्रज्या : देवांगना

संघाराम का सिंह द्वार बड़ा विशाल था। वह गगनचुम्बी सात खण्ड की इमारत थी। समारोह के पहुँचते ही संघाराम की बुर्जियों पर से भेरीनाद होने लगा।

संघाराम दुर्ग की भाँति सुरक्षित था। उसका द्वार बन्द था। सभी की दृष्टि उस बन्द द्वार पर लगी थी। यह द्वार कभी नहीं खुलता था। केवल उसी समय यह खोला जाता था जब कोई राजा, राजकुमार या वैसी ही कोटि का व्यक्ति दीक्षा ग्रहण कर भिक्षु बनता था। श्रेष्ठिपुत्र को इसी द्वार से प्रवेश होने का सम्मान दिया गया था।

बाजे बज रहे थे। भिक्षुगण मन्द स्वर में 'नमो अरिहन्ताय', 'नमो बुद्धाय’ का पाठ कर रहे थे।

भेरीनाद के साथ ही सिंहद्वार खुला। सोलह भिक्षु पवित्र पात्र लेकर वेदी के दोनों ओर आ खड़े हुए। धीरे-धीरे आचार्य वज्रसिद्धि स्वर्णदण्ड हाथ में ले स्थिर दृष्टि सम्मुख किए आगे बढ़े। उनके पीछे पाँच महाभिक्षु पवित्र जल का मार्जन करते तथा गन्धमाल्य लिए पृथ्वी पर दृष्टि गड़ाए चले। उन्हें देखते ही सब कोई पृथ्वी पर घुटने टेककर झुक गए। आचार्य सीढ़ी उतर शिष्यों सहित कुमार के पास पहुंचे। उन्होंने मंगल पाठ करके पवित्र जल कुमार के मस्तक पर छिड़का तथा स्वस्तिपाठ करके—'नमोबुद्धाय', 'नमोअरिहन्ताय' कहा। कुमार सिर झुकाए उकड़ूँ उनके चरणों में बैठे थे। आचार्य ने कहा—"उठो वत्स, और वेदी पर चलो।"

वेदी पर बुद्ध की विशाल प्रतिमा थी। उसी के नीचे कुशासन पर महासंघस्थविर बैठे। सम्म्मुख कुमार नतजानु बैठे। दीक्षा का प्रारम्भ हुआ।

आचार्य ने भिक्षुसंघ को सम्बोधित करके कहा—"भन्ते संघ सुने। यह सेट्ठिपुत्र आयुष्मान् दिवोदास उपसम्पदापेक्षी है। यदि संघ उचित समझे तो आयुष्मान् दिवोदास को उपाचार्य बन्धुगुप्त के उपाध्यायत्व में उपसम्पन्न करे।"

इस पर संघ ने मौन सम्मति दी। तब आचार्य ने दुबारा पूछा—"भन्ते संघ सुने। संघ आयुष्मान दिवोदास को उपाचार्य बन्धुगुप्त के उपाध्यायत्व में उपसम्पन्न करता है। जिसे आयुष्मान् दिवोदास की उपसम्पदा आचार्य बन्धुगुप्त के उपाध्यायत्व में स्वीकार है, वह चुप रहें। जिसे स्वीकार नहीं वह बोले।"

उन्होंने दूसरी बार भी, और फिर तीसरी बार भी यह घोषणा प्रज्ञापित की। और संघ के चुप रहने पर घोषित किया गया कि संघ को स्वीकार है।

"अब उपाचार्य आयुष्मान् को उपसम्पदा दें—प्रव्रज्या दें।"

इस पर उपाचार्य बन्धुगुप्त ने दिवोदास से कहा—"आयुष्मान्, क्या उपसम्पदा दूं?"

तब दिवोदास ने उठकर स्वीकृति दी। उसने सब वस्त्रालंकार त्याग दिया और पीत चीवर पहिन, संघ के निकट जा दाहिना कन्धा खोलकर एक कन्धे पर उत्तरासंग रख भिक्षु चरणों में वन्दना की-फिर उकड़ूँ, बैठकर हाथ जोड़कर कहा :

"भन्ते संघ से उपसम्पदा पाने की याचना करता हूँ। भन्ते संघ दया करके मेरा उद्धार करे।"

उसने फिर दूसरी बार भी और तीसरी बार भी यही याचना की।

तब संघ की अनुमति से आचार्य बन्धुगुप्त ने तीन शरण गमन से उसे उपसम्पन्न किया।

दिवोदास ने उकड़ूँ बैठकर—'बुद्धं शरणं गच्छामि।' 'संघं शरणं गच्छामि।' 'धम्म शरणं गच्छामि' कहा।

आचार्य ने पुकारकर कहा—"भिक्षुओ! अब यह भिक्षु धर्मानुज रूप में प्रव्रजित और उपसम्पन्न होकर सम्मिलित हो गया है। तुम सब इसका स्वागत करो।" इस पर भिक्षु संघ ने जयघोष द्वारा भिक्षु धर्मानुज का स्वागत किया।

इसके बाद आचार्य ने कहा—"आयुष्मान्, अब तू अपने कल्याण के लिए और जगत् का कल्याण करने के लिए गुह्य ज्ञान अर्जन कर। द्वार पंडित की शरण में जा और विहार प्रवेश कर।"

3. द्वार प्रवेश : देवांगना

महासन्धिक वज्रसिद्धि दिवोदास को प्रव्रज्या और उपसम्पदा देकर विहार में लौट गए। सिंह द्वार बन्द हो गया। नगर सेट्ठि धनंजय ने आँखों में आँसू भरकर अवरुद्ध कण्ठ से कहा—"धर्म के लिए, स्वर्ग के लिए, कल्याण के लिए मैंने तुझे विसर्जित किया। जा पुत्र, अमरत्व प्राप्त कर।"

उन्होंने पुत्र की परिजनों सहित प्रदक्षिणा की और चौधारे आँसू बहाते घर को लौट गए। शेष बन्धु-बान्धव भी चले गए। अकेला सुखदास दिवोदास के पास खड़ा रह गया। दिवोदास ने भरे हुए बादलों के स्वर में कहा—"पितृव्य, अब तुम भी जाओ। मेरा मार्ग तो अब सबसे ही पृथक् है।"

परन्तु सुखदास ने कहा—“पुत्र, तेरे बिना मैं कैसे जीऊँगा। स्वामी के पास धन-रत्न है, मेरे पास तो वह भी नहीं। तुम जैसे रत्न को गँवाकर भला अब मैं कैसे लौट जाऊँ? मैं भी मूड़ मुड़ाकर भिक्षु बन साथ ही रहूँगा। बिना मेरी सहायता के तो तुम पानी भी नहीं पी सकते पुत्र।"

दिवोदास ने कहा—"पितृव्य, तब बात और थी। और अब बात दूसरी है। अब तो मैंने त्याग का व्रत लिया है। उन सब बातों से अब क्या प्रयोजन है भला।"

"तो पुत्र, तू इस अकिंचन दास को भी त्याग देगा? ऐसा तू निर्मम और कठोर कैसे बन सकता है पुत्र, फिर मेरी वृद्धावस्था को तो देख तनिक।"

सुखदास ने दिवोदास को अंक में भर लिया। दिवोदास ने कहा—"पितृव्य, सबसे प्रथम हमें माया-मोह-ममता ही को तो त्यागना है। इसका त्याग नहीं हुआ तो फिर भला सद्धर्म की शरण जाकर क्या किया!"

"किन्तु पुत्र, तुम्हारे इस सद्धर्म में मेरी तनिक भी श्रद्धा नहीं है। इन पाखण्डी भिक्षुओं को मैं भलीभाँति जानता हूँ। यह सब तुम्हारे पिता की सम्पदा को हरण करने के ढोंग हैं। तुम्हीं इस मार्ग में कण्टक थे, सो उन्होंने इस प्रकार तुम्हें उखाड़ फेंका। परन्तु मैं अपने जीते जी उनकी नहीं चलने दूँगा। तुम्हें भी मैं अपनी आँखों से ओझल नहीं होने दूँगा।"

"पितृव्य, अब यह समय इन बातों पर विचार करने का नहीं है। मैं तो शुद्ध बुद्धि ही से धर्म की शरण आया हूँ। किसी षड्यन्त्र का शिकार मैं नहीं बनूँगा। तुम निश्चिन्त रहो, पितृव्य।"

"तो पुत्र, मैं तुम्हारे साथ हूँ। आज से इस धर्म-पाखण्ड का उन्मूलन करना मेरा धर्म हुआ।"

"और मैं भी सद्धर्म की शुद्धि के प्रयत्न में कुछ उठा न रखूँगा। अब तुम जाओ पितृव्य। अभी मुझे द्वार पण्डितों की कठिन परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना है। ऐसा न हो-द्वार पण्डित मुझे अयोग्य घोषित कर दें और मेरा कुल दूषित हो। जाओ तुम, पिता जी और माता को सान्त्वना देना।"

"जाता हूँ पुत्र, पर शीघ्र ही मिलूंगा।"

सुखदास ने आँखें पोंछी और चल दिया। अब दिवोदास पूर्व द्वार की ओर बढ़े–– रत्नाकर शान्ति पूर्वी द्वार का द्वारपण्डित था। यह महावैयाकरण था। द्वार पर पहुँचकर उसने घण्टघोष किया। घोष सुनकर द्वारपण्डित ने गवाक्ष से झाँककर कहा––"कौन हो?"

"अकिंचन भिक्षु।”

"क्या चाहते हो?"

"प्रवेश।"

"तो यह पूर्वी द्वार है। इसका सम्बन्ध शब्दशास्त्र विद्यालय से है। क्या तूने शब्द शास्त्र का अध्ययन किया है? तू मेरे साथ शास्त्रार्थ करने को उद्यत है?"

"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ, मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"

"तो भद्र, तू दूसरे द्वार पर जा। इस द्वार से तेरा प्रवेश नहीं होगा। तब दिवोदास दक्षिण द्वार पर गया। यहाँ का द्वारपण्डित प्रज्ञाकर यति था। क्या तू हेतु-विद्या सीखना चाहता है, क्या तूने अभिधर्म कोष पढ़ा है?"

"नहीं आचार्य, मैं ज्ञानान्वेषी हूँ। मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"

"तो भद्र, तू तीसरे द्वार पर जा। इस द्वार से तेरा प्रवेश नहीं होगा।"

दिवोदास ने तब पच्छिम द्वार पर पहुँचकर घण्टघोष किया। पच्छिम द्वार का द्वारपण्डित ज्ञानश्री मित्र था। घण्टघोष सुनकर उसने कहा—“भद्र, क्या तू सांख्य और वेद पढ़ना चाहता है, क्या तूने निरुक्त और षडंग पाठ किया?"

दिवोदास ने कहा—“मैं ज्ञानान्वेषी हूँ, मैं धर्म की शरण आया हूँ, मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।”

"तो भद्र, तू अन्य द्वार पर जा।"

तब दिवोदास उत्तर द्वार पर पहुँचा और घण्टघोष किया। वहाँ का द्वार पण्डित नरोपन्न था। उसने पूछा—“क्या चाहता है भद्र!"

"मैं ज्ञानान्वेषी हूँ। मैं धर्म की शरण आया हूँ। मैं धर्मतत्त्व सीखना चाहता हूँ।"

तब द्वारपण्डित ने पूछा—“क्या तू भिक्षु-पातिभिक्ख का पाठ करता है?"

"करता हूँ भन्ते।"

"क्या तू पूर्वकरण और उपोसथ कर्म करता है?"

"करता हूँ भन्ते।"

"तू अन्तरायिक कर्म नहीं करता है?"

"नहीं करता हूँ भन्ते।"

"तो भद्र, तू भीतर आ और प्रथम केन्द्रीय द्वारपण्डित रत्नवज्र की शरण में जा।" दिवोदास ने विहार के भीतर प्रवेश किया। तब वह केन्द्रीय द्वारपण्डित रत्नवज्र के सम्मुख आ बद्धांजलि खड़ा हुआ।

रत्नवज्र कठोर और शुष्क प्रकृति के पुरुष थे। वज्रयान मन्त्र-तन्त्र और सिद्धियों के ज्ञाता प्रसिद्ध थे। रंग उनका काला और आकृति बेडौल थी। उन्होंने भाँति-भाँति के प्रश्न दिवोदास से पूछे। अनेक मन्त्र-तन्त्र, जादू-टोनों से उसकी परीक्षा ली, और अन्त में उन्होंने उसे अन्तेवासी बना विहार का द्वार खोल दिया। दिवोदास विहार में प्रवेश पा गए। नियमानुसार उनके निवास आदि की व्यवस्था हो गई। यह एक असाधारण कठिनाई थी, जिस पर उन्होंने विजय पाई।

4. विहार : देवांगना

विक्रमशिला महाविहार की स्थापना पालवंशी राजा धर्मपाल ने नवीं शताब्दी में की थी। धर्मपाल बौद्ध धर्म का अनुयायी था। वह अपने को परम भट्टारक-परम परमेश्वर महाराजाधिराज कहता था। इस महाविहार में छै महाविद्यालय थे जिनमें से प्रत्येक का पृथक्-पृथक् द्वारपण्डित होता था। प्रत्येक महाविद्यालय में 100 आचार्य रहते थे। इस प्रकार विक्रमशिला महाविहार में कुल 648 आचार्य थे। जिनमें अनेक विश्वविश्रुत पण्डित थे। महाविद्यालय का सभा भवन इतना विशाल था कि उसमें 8 हज़ार भिक्षु एक साथ बैठ सकते थे।

विक्रमशिला में बौद्ध त्रिपिटक साहित्य के अतिरिक्त वेद-दर्शन तथा अन्य ज्ञान- विज्ञान की शिक्षा तो होती ही थी, पर यह विहार वज्रयान का सबसे बड़ा केन्द्र समझा जाता था। यह युग तन्त्र-मन्त्र, जादू-टोने का था। बौद्ध और पौराणिक दोनों धर्मों में तान्त्रिक महत्त्व बहुत था। इस युग में तन्त्रवाद का जो इतना बड़ा महत्त्व था, उसका श्रेय इसी महाविहार को था।

इस समय यहाँ के प्रधान कुलपति आचार्य वज्रसिद्धि थे, जो वज्रयान में प्रमाण माने जाते थे।

विक्रमशिला में शिक्षा पाए हुए विद्यार्थियों में भी अनेक प्रसिद्ध विद्वान् निकले। रत्नवज्र, रत्नकीर्ति, ज्ञानश्री मित्र, रत्नाकर शान्ति और दीपंकर अतिशा यहीं के छात्र थे। अतिशा को तिब्बत में बौद्धधर्म की पुनः स्थापना के लिए बुलाया गया था, उन्होंने वहाँ वह व्यवस्था और मर्यादा स्थापित की, जो अब तक लामाओं में चली आती है। रत्नकीर्ति अतिशा के गुरु थे। और ज्ञानश्री मित्र अतिशा के उत्तराधिकारी। जब अतिशा तिब्बत चले गए तब ज्ञानश्री मित्र विक्रमशिला विहार के प्रधान आचार्य बने थे। परन्तु इस समय उन्होंने आचार्य वज्रसिद्धि को महासंघ स्थविर धर्मनिष्ठाता बना दिया था और स्वयं गुप्तवास करते थे।

जिस समय हमारा उपन्यास आरम्भ होता है, बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध बीत रहा था। इस समय पालवंश का राजा गोविन्दपाल पूर्वी बिहार पर शासन कर रहा था। विक्रमशिला विहार के कुलपति आचार्य वज्रसिद्धि और नालन्दा के कुलपति सरहभद्र के उत्तराधिकारी महामति थे। सरहभद्र ने सहजयान सम्प्रदाय की स्थापना की थी। यह नया यान पूर्णतया वाममार्ग ही था और इसमें युग्म मूर्ति की पूजा होती थी। तथा किसी नीच जाति की सुन्दरी युवती की मुद्रा बनाकर साधना की जाती थी। यह नवीन धर्म समूचे पूर्वी बिहार और बंगाल में तेजी से फैल रहा था। स्थान-स्थान पर गुह्य समाजों की स्थापना हो गई थी। विक्रमशिला विद्याकेन्द्र भी इससे अछूता न था। इसके अतिरिक्त काशी, नवद्वीप वल्लभी तथा धारानगरी तक इस सम्प्रदाय के केन्द्र स्थापित हो गए थे। हिन्दू धर्म पर भी इस वाममार्ग का प्रभाव पड़ चुका था।

इस समय वृन्दावन में निम्बार्काचार्य कृष्ण का रूप प्रतिपादन कर रहे थे—जो निरन्तर गोपियों से घिरा रहता था। तथा भाँति-भाँति की रासलीला का प्रचार बढ़ता जाता था जिसमें परकीया भावना ही मुख्य रहती थी। निम्बार्काचार्य यद्यपि सुदूर दक्षिण के निवासी थे, पर वृन्दावन में उन्होंने अपना अड्डा बनाया था। उत्तर भारत के बहुत-से नर- नारी उनके शिष्य बनते जा रहे थे।

शैवधर्म की जड़ तो छठी शताब्दी में ही काफी मजबूत हो चुकी थी। कालिदास, भवभूति, सुबन्ध और बाणभट्ट जैसे महाविद्या-दिग्गज शैव कहे जाते थे। भारत के बाहर कम्बोज आदि देशों में भी इस धर्म का बड़ा प्रचार था। इसके अतिरिक्त दक्षिण पूर्वी एशिया के क्षेत्र, बृहत्तर भारत के अनेक देश इस धर्म से प्रभावित हो चुके थे। जिस प्रकार बौद्धों में वज्रयान सम्प्रदाय पनपा था, उसी प्रकार शैवों में पाशुपत और कापालिक सम्प्रदायों का जोर था। वज्रयान के समान शैवधर्म के ये दोनों मार्ग भी सिद्धियों और मन्त्रशक्ति में विश्वास रखते थे तथा सिद्धिप्राप्ति के लिए अनेक, रहस्यमय और गुह्य अनुष्ठान करते थे। सातवीं शताब्दी में जब चीनी यात्री हुएनसांग भारत में आया था तब बिलोचिस्तान तक में पाशुपत सम्प्रदाय की सत्ता थी। काशी में उस समय माहेश्वर की सौ फुट ऊँची ताम्बे की ठोस मूर्ति थी। इस समय वाराणसी पाशुपत आम्राय का केन्द्र बन रही थी। वहाँ इस समय सैकड़ों मन्दिर थे जिनमें पाशुपत धर्म की विधि से पूजा होती थी।

वज्रयानी की भाँति पाशुपत सम्प्रदाय वाले भी यह मानते थे कि साधक को जान- बूझकर भी वे सब काम करने चाहिए, जिन्हें लोग गर्हित समझते हैं। इसमें उनका यह तर्क होता था कि इससे साधक कर्तव्य और अकर्तव्य के विवेक से ऊँचा उठ जाता था।

इन्हीं में कापालिक लोगों का एक दल था जो सिद्धि प्राप्त करने के लिए और भी उग्र और बीभत्स कार्य करता था। ये कापालिक चिताभस्म अंग पर लगाए, नर-मुण्डमाल गले में पहिने नर-कपाल में मदिरा पानकर मत्त बने निर्द्वन्द्व घूमते, जिसका जो चाहे उठा लेते, जिसे चाहे मार बैठते, इनकी कहीं कोई दाद-फरियाद न थी। प्रायः ये घोर दुराचारी होते थे। गृहस्थ इनके नाम से डरते थे। मारण-मोहन-उच्चाटन का ये पूरा ढोंग रचते थे और सदैव कुत्सित रूप में घूमा करते थे। गुह्य सिद्धियों के लिए ये श्मशान में रहते, मुर्दे की पीठ पर बैठकर मन्त्र जाप करते, और चिताग्नि पर टिक्कड़ सेंक खाते थे।

ऐसा ही उन दिनों शाक्त धर्म था, जिसका पूर्वी बंगाल और आसाम में पूरा जोर था। ये तन्त्र-मन्त्र और गुह्य सिद्धियों के नाम पर मद्य-माँस सेवन करते, नर-बलि तक देते और आदिशक्ति देवी की उपासना रक्त से करते थे। बलि का इनके विधान में प्राधान्य था। ये शाक्तिक जंजाल में लपेटकर वज्रयानियों की भाँति बड़े ही आडम्बर से अपने अनैतिक और कुत्सित कर्मों का प्रतिपादन करते थे।

भागवत धर्म, जिसकी उन्नति गुप्तों के राज्य में हुई थी, अब वैष्णव धर्म बन चुका था। समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय जैसे परम प्रतापी गुप्त सम्राट् अपने को परम भागवत कहते थे। वास्तव में उन्हीं के समय में बौद्धों का ह्रास होकर वैष्णव और शैवधर्म की प्रतिष्ठा हुई थी। गुप्तयुग के बाद तेरहवीं शताब्दी तक यह प्रतिक्रिया जारी रही। बौद्धधर्म का यद्यपि गुप्तकाल ही में ह्रास होना आरम्भ हो चुका था पर मध्ययुग में वही भारत का मुख्य धर्म था। कन्नौज का प्रतापी महान् हर्ष यद्यपि बौद्ध न था, पर बड़ा भारी बौद्धों का समर्थक था। उसके राज्यकाल में सातवीं शताब्दी में जो चीनी पर्यटक भिक्षु ह्वेनसांग भारत में आया था उसी ने साक्षी दी है कि उसके काल में ही बौद्धभिक्षु आलसी, प्रमादी और पतित हो चुके थे। और सर्वसाधारण के हृदयों में अब उनके लिए प्राचीन श्रद्धा न रह गई थी। न उनमें वह लोकहित सम्पादन की भावना रह गई थी, जिसके कारण वह देश-विदेश में प्रसारित हो गया था।

अब तो अलौकिक सिद्धियों और गुह्य उपासनाओं ही का बोलबाला था। इस युग में भी शंकर, रामानुज और कुमारिल भट्ट ने उन्हें जबर्दस्त टक्कर दी थी। वैष्णव धर्म आरम्भ में यतिधर्म था और शुंगकाल में ही वैष्णवों के मन्दिरों की स्थापना हो चुकी थी, पर मध्ययुग में वह सीधी-सादी भक्ति आडम्बर युक्त होने लगी। मन्दिर मूर्तियों में साज, श्रृंगार, नृत्य, गान का प्राधान्य बढ़ गया और अब मन्दिरों में स्थापित मूर्तियाँ केवल उपलक्षण व प्रतीक मात्र ही नहीं रह गई थीं, वे अब जाग्रत् देवता बन गई थीं। जिनको स्नान, भोग, साज, श्रृंगार, वस्त्र आदि के द्वारा सत्कृत करने की प्रथा बढ़ती जाती थी, और इस काल में, जैसा कि हम प्रथम कह चुके हैं, गोपियों के साथ रास-क्रीड़ा, और परिक्रिया विलास का एकदम वाममार्गी स्वरूप वैष्णव धर्म बन चुका था, जिसका नग्न-अश्लील वर्णन हम प्रसिद्ध गीत गोविन्द काव्य में पढ़ते हैं।

ऐसा ही यह धर्म का अन्धकारमय काल था। एक ओर ये धर्म केन्द्र अनाचारों के अड्डे बनते जा रहे थे-दूसरी ओर उनमें अथाह सम्पदा भरती जा रही थी। राजा-रईस-सेठ साहूकारों से लेकर सर्वसाधारण तक श्रद्धा, भय तथा अन्य कारणो से निरन्तर दान देते रहते थे। इससे मन्दिरों-मठों में सैकड़ों वर्ष की सम्पदा संचित हो गई थी। राज्य नष्ट होते थे, बदलते थे पर ये धर्मकेन्द्र स्थिर थे। इसलिए धर्मकेन्द्रों के मठाधीश और पुजारी महाधनवान् बन गए थे। प्रजा का धन हड़पने के वे निरन्तर षड्यन्त्र करते रहते थे। बहुधा राज्यों को भी उलट-पलट करने के षड्यन्त्र वे करते थे। अपने सहायक राज्य का प्रसार और विरोधी का पराभव करना इनके बायें हाथ का खेल था। इन धर्माचार्यों की यह क्षमता देख बहुत-से खटपटी राजा इनके हाथ की कठपुतली बन गए थे। वे इन्हें पूर्ण छूट देते थे, और राज्य के द्वारा लगाम ढीली होने पर ये सर्व-साधारण पर मनमाना अत्याचार करते थे। बहुधा वे जबर्दस्ती श्रीमन्तों के उत्तराधिकारियों को भिक्षु बना लेते जिससे उनकी सारी सम्पदा मठों को प्राप्त हो जाय।

बौद्ध विहारों में एक परम्परा आसमिकों की थी। ये आसमिक एक प्रकार से बौद्ध विहारों की प्रजा अथवा क्रीतदास ही थे। विहारों के दान प्राप्त ग्रामों में इन्हें माफी की जमीन मिलती थी। उसे ये जोतते-बोते तथा विहारों को कर देते थे। विहारों के मठाधीश इनके साथ क्रीतदासों की भाँति व्यवहार करते थे——उनसे मनमानी बेगार लेते, उनके तरुण पुत्रों और पुत्रियों को भिक्षु-भिक्षुणी और देवदासी बना लेते, जो उनके विलास और लिप्सा का भोग बनते थे। बहुधा ये आसमिक विद्रोह करते थे। इन्हें जबर्दस्ती दबाया जाता था। उस समय इन पर रोमांचकारी अत्याचार किए जाते थे।

जहाँ छोटे-छोटे राजा-सामन्त परस्पर लड़ते और सारे देश के वातावरण को अशान्त और अराजक रखते थे––वहाँ देश-भर में यह धर्मान्धकार सारे समाज को अविद्या, अन्धविश्वास और अनाचार में धकेलता जा रहा था। ऐसा ही वह युग था। तब ईसा की बारहवीं शताब्दी बीत रही थी। उसी काल की घटना का वर्णन हम इस उपन्यास में कर रहे हैं।

5. सुखानन्द : देवांगना

सुखदास की स्त्री का नाम सुन्दरी था। वह यों तो भली स्त्री थी पर मिजाज की जरा चिड़चिड़ी थी। सुखदास घर-बार से बेपरवाह था। उसे अपने वेतन की भी चिन्ता न थी। वह नौकरी नहीं बजाता था, सेठ के घर को अपना घर समझता था।

जिस दिन कुमार दिवोदास की दीक्षा हुई, उससे एक दिन प्रथम सुखदास और उसकी पत्नी में खूब वाग्युद्ध हुआ था। वाग्युद्ध का मूल कारण यह था कि सुखदास ने तेईस वर्ष पूर्व सुन्दरी से उसके लिए एक जोड़ा नूपुर बनवा देने का वादा किया था। वे नूपुर उसने अभी तक बनवाकर नहीं दिए थे। तेईस वर्षों के इस अन्तर ने सुन्दरी को अधेड़ बना दिया था, प्राय: प्रतिदिन ही वह सुखदास से नूपुर का तकाजा करती थी और प्रतिदिन सुखदास उसे कल पर टाल देता था। इसी प्रकार कल करते-करते तेईस वर्ष बीत चुके थे। कल रात इस मामले ने बहुत गहरा रंग पकड़ा था। सुन्दरी को इसके लिए आँसू गिराने पड़े थे। और सुखदास ने प्रणबद्ध होकर वचन दिया था कि कल नूपुर नहीं बनवा दूं तो घर-बार छोड़कर भिक्षु हो जाऊँगा। सुन्दरी को नूपुर पहनने की बड़ी अभिलाषा थी, वार्धक्य आने से भी वह कम नहीं हुई थी। उसने कहा "भिक्षु हो जाओगे तो सन्तोष कर लूंगी। पर यदि कल नूपुर न लाए तो देखना मैं कुएँ-तालाब में डूब मरूँगी।" सुखदास "अच्छा, समझ गया।" कहकर घर से बाहर चला गया था।

आज सुखदास को एक साहस करना पड़ा। दिवोदास का भिक्षु होना वह सहन न कर सका। बौद्धों के पाखण्ड से वह खूब परिचित था। उसने चुपचाप दिवोदास की सहायता करने के लिए भिक्षु वेश धारण कर लिया। दाढ़ी-मूँछों का सफाया कर लिया और पीत कफनी पहन ली। उसने चुपचाप संघाराम में दिवोदास के पास रहने की ठान ली थी।

सुन्दरी आज बहुत क्रोध में थी। उसने निश्चय किया था, आज जैसे भी हो वह नूपुर बिना मँगाये न रहेगी। जब देखो झूठा बहाना। बहाने ही बहाने में खाने-पहनने के दिन बीत गए। आज वह नहीं या मैं नहीं।

वह बड़बड़ाती हुई बाहरी कक्ष में आई। उसका इरादा कल के युद्ध को फिर से जारी करके पति को परास्त कर डालने का था। कक्ष में देखा——वहाँ सुखदास के स्थान पर कोई भिक्षु पीत कफनी पहिने बैठा है। सुखदास की भाँति सुन्दरी भी भिक्षुओं को एक आँख नहीं देख सकती थी। उसने भिक्षु को देखते ही आग बबूला होकर कहा :

"यह कौन मूड़ीकाटा बैठा है, अरे तू कौन है?"

"यह मैं हूँ प्रेमप्यारी जी, तुम्हारा दास सुखदास। पर अब तुम इसे भिक्षु सुखानन्द कहना।"

सुन्दरी का कलेजा धक से रह गया। उसने घबड़ाकर कहा :

"क्या भाँग खा गए हो? मूछों का एकदम सफाया कर दिया?"

"तुम्हीं तो इन्हें कोसा करती थी? कहो अब यह मुँह कैसा लगता है?"

"आग लगे इस मुँह में, यह भिक्षु का बाना क्यों पहना है?"

"तुम्हीं ने तो कहा था कि साधु होकर घर से निकल जाओ, मैं सन्तोष कर लूंगी। लो अब जाता हूँ।"

सुखदास ने जाने का उपक्रम किया तो सुन्दरी ने बढ़कर उसके पीत वस्त्र का पल्ला पकड़ लिया। रोते-रोते कहा–"हाय-हाय, यह क्या करते हो, अरे ठहरो, कहाँ जाते हो?"

"जाता हूँ।"

"अरे मुझे भरी जवानी में छोड़ जाते हो निर्दयी।"

"अरे, वाह रे भरी जवानी! कब तक जवान रहेगी!"

"जाने दो, मैं नूपुर नहीं मागूँगी।"

"अब तुम नूपुर लेकर ही रहना। मुझसे तुम्हारा क्या वास्ता! मैं चला।"

"अरे लोगो, देखो। मैं लुट गई। नहीं, मैं नहीं जाने दूंगी।" वह रोती हुई सुखदास से लिपट गई।

"तब क्यों कहा था?"

"वह तो झूठमूठ कहा था।"

"तो प्रेमप्यारी जी, मैं भी झूठमूठ का भिक्षु बना हूँ, कोई सचमुच थोड़े ही!"

"अरे, यह क्या बात है!"

"किसी से कहना नहीं, गुपचुप की बात है।"

"अरे, तो तुम झूठमूठ क्यों मूँड़ मुड़ा बैठे?"

"तब क्या करता, मालिक की अकिल तो पिलपिली हो गई है। जवान बेटे को बैठे- बिठाए मूँड़ मुड़ाकर घर से निकाल दिया। भिक्षु बड़े पाजी होते हैं। और वह सबका गुरु घंटाल पूरा भेड़िया है। उसके दाँत सेठ की दौलत पर हैं। भैया पर न जाने कैसी बीते; मेरा उनके साथ रहना बहुत जरूरी है, समझी प्रेम-प्यारी जी!"

"पर मेरी क्या गत होगी यह कभी सोचा, नूपुर नहीं थे तो क्या तुम तो थे। इसी से सन्तोष था, अब तो तुम भी दूर हो जाओगे। आज झूठमूठ के साधु बने हो, कल सचमुच के बनने में क्या देर लगेगी।"

"नहीं प्रेमप्यारी जी, कहीं ऐसा भी हो सकता है? तुम्हें छोड़कर भला सुखदास की गत कहाँ है। पर भैया की सेवा करना भी मेरा धर्म है। लो अब मैं जाता हूँ।"

"तो फिर मुझे क्या कहते हो?"

"बस, इस झमेले से बेबाक हुआ कि मुझे नूपुर बनवाने हैं।"

"भाड़ में जाए नूपुर! मेरे लिए तुम बने रहो।"

"मैं तो पक्का बना-बनाया हूँ, चिन्ता मत करो।"

"फिर कब आओगे?"

"रोज ही आएँगे, आने में क्या है! सभी भिक्षु भिक्षा के लिए आते हैं। हम यहीं मिला करेंगे। अच्छा साध्वी, तेरा कल्याण हो, यह भिक्षु सुखानन्द चला।"

"हाय-हाय, निर्मोही न बनो!"

"सब झूठमूठ का धन्धा है। प्यारी, झूठमूठ का धन्धा!"

"पर तनिक तो ठहरो!"

"अब नहीं, देखू भैया को वहाँ कैसे रक्खा गया है।"

"तो जाओ फिर।"

"जाता हूँ।"

सुखदास धीरे-धीरे घर से बाहर चला गया। सुन्दरी आँखों में आँसू भरे एकटक देखती रही।

देवांगना : अध्याय (6-17)

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