देशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है? (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
आजकल जब इस सवाल पर बहस छिड़ती है कि हिन्दस्तानी उद्योग-धंधों की तरक्की क्यों नहीं होती तो आमतौर पर यह कहा जाता है कि अभी जनता में देश-प्रेम और कौमी हमदर्दी का खयाल ऐसा नहीं फैला है, कि वह निजी फायदे को नज़रअंदाज करके अपने देश की चीजों को, बावजूद उनकी ख़ामियों और बुराइयों के, दूसरे देशों की चीजों से बढ़कर जगह दें। इसमें शक नहीं है कि यह दलील एक हद तक ठीक है और वास्तविकता पर आधारित है। मगर हम यह हरगिज नहीं कह सकते कि हमारी व्यापारिक मंदी केवल इसी कारण से है। इसके कुछ और कारण भी हैं जो नीचे की पंक्तियों से प्रकट होंगे।
व्यापार के रास्ते में पहली बाधा यह है कि अभी तक हमारे देश वालों को हिन्दुस्तानी उद्योग-धंधों और कारखानों की जरा भी जानकारी नहीं है। जिन लोगों को अखबार पढ़ने की आदत है वह अलबत्ता कुछ कारखानों से परिचित हैं। आमतौर पर यह हमको नहीं मालूम कि हिन्दुस्तान में कौन-सी चीज कहां बनती है। इस अज्ञान को दूर करने का सिर्फ यही इलाज है कि विज्ञापनों से अधिक से अधिक फायदा उठाया जाए और विभिन्न देशी भाषाओं में आसानी से समझ में आने वाले विज्ञापन प्रकाशित किए जाएँ। उनको आम रास्तों पर ज्यादा से ज्यादा चिपकाया जाए। हर शहर के प्रतिष्ठित लोगों की सूची बनाई जाए और समय-समय पर विज्ञापन उनके पास भेजे जाएँ। कारखानों और उनकी जगहों के नाम खूब रौशन कर दिए जाएँ। जिन कारखानों ने इस तरकीब से फायदा उठाया है उनको आज अच्छी तरक्की हासिल है। सियालकोट, कानपुर वगैरह शहरों में खास-खास चीजों के कारखाने खूब रौनक पर हैं। देशी दवाइयों के इश्तिहार खूब छपते हैं और आम सड़कों पर भी खूब ज्यादा दिखाई पड़ते हैं। इसी वजह से हमारी देशी दवाएँ अंग्रेजी दवाओं के मुकाबले में बहुत ज्यादा गिरी हुई हालत में नहीं हैं। कई आयर्वेुदिक दवाखानों की खासी आमदनी है। अभी बहुत दिन नहीं बीते कि बनारस में नई चाल के रेशमी कपड़े बनने शुरू हुए और आज काशी सिल्क की लोकप्रियता प्राप्त है। ऐसा कौन-सा सजधज का शौकीन आदमी होगा जिसके संदूक में दो-एक जोड़े काशी सिल्क के न होंगे। इस तात्कालिक उन्नति और लोकप्रियता का यही कारण है कि हर प्रकार के नमूनों के टुकड़े आस-पास चारों तरफ काफी बड़ी संख्या में रवाना किए गए। कुछ पढ़े-लिखे लोग हर ढंग के कपड़े ले-लेकर दूर-दूर के शहरों में गए और उनकी अच्छाइयाँ और खूबियाँ जनता के दिलों पर अच्छी तरह जमा दीं।
एक बार हमने एक बजाज से पूछा कि तुम कानानोर से देशी कपड़े क्यों नहीं मँगाते। उसने जवाब दिया कि उन कपड़ों की बिक्री में नफा बहुत कम होता है। नफे की यह कमी पूंजी के सिद्धांतों से संबंध रखती है जिन पर हम इस वक्त बहस नहीं करना चाहते। कैसा अच्छा होता कि हर शहर के कुछ जिन्दादिल, पुरजोश, पढ़े-लिखे लोग कमर कसकर थोड़ी-सी पूंजी जुटा लेते और इस पूंजी से देशी कपड़े मँगाकर मोल के दामों पर बेचते। यह जरूरी नहीं है कि यह लोग एक बाकायदा दुकान खोलें और दुकान का किराया और दुकानदार की तनख्वाह बढ़ाकर कपड़े को और भी महंगा कर दें बल्कि एक उत्साही सज्जन देशप्रेम से काम लेकर आनरेरी मैनेजर हो जाएं और शाम-सबेरे घंटा-दो-घंटा समय इस काम के लिए दें। जब जनता की ओर से उनके प्रयत्नों के लिए प्रशंसा मिलने लगे, देशी कपड़ों की मांग ज्यादा हो जाए तो पूंजी भी बढ़ाई जा सकती है, दुकान और दुकानदारी का खर्चा भी उठाया जा सकता है।
जो लोग अपनी पूंजी से व्यापारिक सिद्धांतों पर देशी कपड़ों की दुकानें खोलें उनको चाहिए कि ग्राहकों की आव-भगत, खातिर-तवाजो अच्छी तरह करें। देशी चलन के पाबन्द लोगों के लिए दो-एक बीड़ा पान, दो-चार इलायचियाँ, जरा-सी तंबाकू और अंग्रेजी चलने वालों के लिए एक-आध सिगरेट या एक प्याली चाय काफी होगी। इस थोड़े से खर्चे में यकीन है कि ग्राहकों की संख्या बहुत जल्द बढ़ जाएगी क्योंकि लोगों को इस दुकान से एक खास प्रेम हो जाएगा। दुकानदार भी पढ़ा-लिखा होना चाहिए जो खरीददारों से सभ्यतापूर्वक बातचीत कर सके । ऐसे दुकानदारों को ग्राहकों के साथ उस बेगरजी और रूखेपन से नहीं पेश आना चाहिए जिससे आमतौर पर मामूली सौदागर पेश आया करते हें। अगर इन दुकानों पर दो एक अंग्रेजी और उर्दू अखबार भी रखने का बंदोबस्त कर दिया जाए तो यह एक और दिलचस्पी बहुत से खरीदारों को खींच लाएगी। पढ़े लिखे लोग यहाँ आकर बैठेंगे तो मौके और वक्त का तकाजा यही होगा कि व्यापार की उन्नति के बारे में बातचीत हो। और इस बातचीत से लोगों के दिलों में जोश पैदा होगा और यह जोश देशी व्यापार को उन्नति देने वाला होगा।
कहीं-कहीं देशी चीजों का जिस जोश और हमदर्दी से स्वागत किया गया है, वह उम्मीद दिलाता है कि अब हिन्दुस्तान का व्यापारिक जागरण बहुत दूर नहीं। लाहौर के आर्य समाज मेम्बरों को सर से पैर तक हिन्दोस्तान की बनी चीजों से सजे हुए देखना सचमुच बहुत दिलचस्प और याद रखने के काबिल दृश्य था। हम अपने समाजी भाइयों के देश-प्रेम और कौमी जोश के हमेशा से प्रशंसक रहे हैं और हमको उम्मीद है कि हमारी व्यापारिक उन्नति में यह लोग उसी सम्मान और धन्यवाद के अधिकारी होंगे जिसके कि वह राष्ट्रीय और सांस्कृतिक सुधारों में है। बंबई और कलकत्ता जैसे शहरों में स्वदेशी आंदोलन बड़े जोरों के साथ किया जा रहा है मगर हमको उससे कई गुना ज्यादा खुशी इस बात पर होती है कि हमारे सोए हुए सूबे में भी इस तरह की कमजोर आवाजें कभी-कभी सुनाई दे जाती हैं। हमको यकीन है कि इस साल बनारस में कांग्रेस के अधिवेशन का होना बनारस व लखनऊ व कानपुर के व्यापार के लिए बहुत अच्छा साबित होगा। मगर केवल पढ़े-लिखे लोगों के संरक्षण और सहानुभूति से हमारे व्यापार को भी यथेच्छ उन्नति नहीं हो सकती जब तक कि आबादी का वह बड़ा हिस्सा भी जो मुल्की और कौमी मामलों की तरफ से बेखबर है, इस अच्छे काम में हाथ न बटाए। पढ़े-लिखे लोगों के नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। उनकी रुचि और उनकी काल्पनिक आवश्यकताओं ने कुछ ऐसा रंग पकड़ लिया है, कि अभी उनको पूरा करने के लिए हमारे व्यापार को एक लम्बी अवधि दरकार है।
हमारी आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा देहातों में आबाद है, जिसमें बिना किसी अतिरंजना के निन्यानवे फीसदी तो ऐसे हैं जो अलिफ़ के नाम बे भी नहीं जानते और जिनको शहर में आने का बहुत कम इत्तफ़ाक होता है। लिहाजा शहरों में स्वदेशी दुकानों का खुलना, चाहे वह कैसे ही अच्छे उसूलों पर क्यों न हों, व्यापार को बहुत लाभ नहीं पहुंचा सकता। ऐसी दशा में उचित है कि हमारे व्यापारी भी वही ढंग अख्तियार करें जो अरसे से विलायतियों ने अख्तियार किया है।
पाठक जानते हैं कि देहाती किसानों की ज्यादातर जरूरतें कर्ज लेकर पूरी हुआ करती हैं। अगर आज आप किसी किसान को पचास रुपये की चीज उधार दे दीजिए तो वह बिना यह सोचे कि मुझमें इस चीज के खरीदने की योग्यता है या नहीं, फौरन मोल ले लेता है और फिर किसी न किसी तरह रो-धोकर उसकी कीमत अदा करता है। विलायतियों ने देहातियों के इस स्वभाव को बखूबी समझ लिया है। चुनांचे वह जत्थे के जत्थे आते हैं, शहरों में विदेशी और रद्दी माल सस्ते दामों पर खरीदते हैं और तब गाँव में जाकर किसी एक मोतबर आदमी की जमानत पर किसानों के हाथ सौदा बेचते हैं। किसान अपनी माली हालत से बिल्कुल बेखबर होता है। उसमें दूरदर्शिता नहीं होती। झुंड के झुंड कपड़े खरीदने को टूट पड़ते हैं। आजकल अगर आप किसी गाँव में निकल जाइए तो बजाए इसके कि लोग गंजी-गाढ़े पहने हुए नजर आएँ कोई तो इटली की बनी हुई बनियाइन पहने हुए दिखाई देता है, कोई अमरीका की बनी हुई चादर। वही चीज जो बाजार में मारी-मारी फिरती है, देहात में जाकर हाथों हाथ बिक जाती है और यह इसी वजह से कि किसानों को खरीदते वक्त दाम नहीं देना पड़ता। इन विलायतियों ने कितने ही जुलाहों को तबाह कर डाला और जुलाहों की तबाही से पूर्वी सूत की माँग जाती रही। इस तरह देशी रुई को मजबूरन इंगलिस्तान की खुशामद करना पड़ी।
हमारे देशी व्यापारियों को वह दिक्कतें हरगिज नहीं पेश आ सकतीं जो विलायतियों को पेश आती हैं। उनको सैकडों कोस की मंजिल तय करना पड़ती है, गाँव में प्रभाव रखने वाले लोगों का सहारा ढूँढना पड़ता है और कभी-कभी कीमत की वसूली से हाथ धोना पड़ता है। देशी व्यापारियों को इन कठिनाइयों के बदले में सिर्फ इतना करना है कि गाँव में मोतबर एजेंटों को रवाना करें, उनको उधार माल बेचने की इजाजत दें और जहाँ तक हो कम मुनाफा लें। देहाती आमतौर पर ईमानदार होते हें, सौदा ले लिया तो उसकी कीमत अदा करने में गड़बड़ी नहीं करते। अगर खुदा न ख्वास्ता उनका ईमान जरा डगमगाया भी तो वह डरपोक ऐसे होते हैं कि दो-चार धमकियों में सीधे रास्ते पर आ जाते हैं। हमने देखा है कि विलायतियों को दाम वसूल करने में बहुत कम दिक्कत होती है। बेचारा किसान सूद पर कर्ज लाता है और निश्चित समय पर चीज की कीमत अदा करता है। जब विलायतियों को वसूली में कोई दिक्कत नहीं होती तो कोई वजह नहीं कि हमारे देशी एजेंटों को इस काम में कोई दिक्कत हो। बस जाड़े में चीज दे आए, उसकी कीमत फसल तैयार होने पर वसूल कर ली। और गर्मी में जो माल बेचा, उसकी कीमत ऊख पेरने के वक्त वसूल कर ली, न कोई ठक-ठक न कोई बखेड़ा। व्यापार का यह ढंग उससे कहीं ज्यादा लाभदायक और देशभक्तिपूर्ण है जिसको हुंडी कहते हैं। बनारस, मिर्जापुर, इलाहाबाद वगैरह शहरों में हुंडी का आम रिवाज है। इसका तरीका यह है कि यह हर एक गाँव में महाजन की तरफ से कुछ लोग नौकर होते हैं। उनका काम यह है कि देहातियों को रुपया कर्ज दें और उनसे एक निश्चित अवधि के भीतर एक का सवाया वसूल कर लें। व्यापार के इस ढंग से चाहे महाजन को फायदा हो, मुल्क या कौम को सरासर नुकसान होता है। क्योंकि बेचारे किसान को दोनों तरफ से नुकसान उठाना पड़ता है। उधर तो मुगल सौदागरों को एक का डेढ़ दिया और इधर अपने महाजनों को एक का सवाया देना पड़ा। बेचारे की छोटी-सी आमदनी महाजनों ही भर की हो गई।
[‘जमाना’, जून, 1905]