देस बिराना (हिन्दी उपन्यास) : सूरज प्रकाश
Des Birana (Hindi Novel) : Suraj Prakash
देस बिराना अध्याय 1
24 सितम्बर, 1992। कैलेंडर एक बार फिर वही महीना और वही तारीख दर्शा रहा है। सितम्बर और 24 तारीख। हर साल यही होता है। यह तारीख मुझे चिढ़ाने, परेशान करने और वो सब याद दिलाने के लिए मेरे सामने पड़ जाती है जिसे मैं बिलकुल भी याद नहीं करना चाहता।
आज पूरे चौदह बरस हो जायेंगे मुझे घर छोड़े हुए या यूं कहूं कि इस बात को आज चौदह साल हो जायेंगे जब मुझे घर से निकाल दिया गया था। निकाला ही तो गया था। मैं कहां छोड़ना चाहता था घर। छूट गया था मुझसे घर। मेरे न चाहने के बावजूद। अगर दारजी आधे- अधूरे कपड़ों में मुझे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल कर पीछे से दरवाजा बंद न कर देते तो मैं अपनी मर्जी से घर थोड़े ही छोड़ता। अगर दारजी चाहते तो गुस्सा ठंडा होने पर कान पकड़ कर मुझे घर वापिस भी तो ले जा सकते थे। मुझे तो घर से कोई नाराज़गी नहीं थी। आखिर गोलू और बिल्लू सारा समय मेरे आस-पास ही तो मंडराते रहे थे।
घर से नाराज़गी तो मेरी आज भी नहीं है। आज भी घर, मेरा प्यारा घर, मेरे बचपन का घर मेरी रगों में बहता है। आज भी मेरी सांस-सांस में उसी घर की खुशबू रची बसी रहती है। रोज़ रात को सपनों में आता है मेरा घर और मुझे रुला जाता है। कोई भी तो दिन ऐसा नहीं होता जब मैं घर को लेकर अपनी गीली आंखें न पोंछता होऊं। बेशक इन चौदह बरसों में कभी घर नहीं जा पाया लेकिन कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने खुद को घर से दूर पाया हो। घर मेरे आसपास हमेशा बना रहा है। अपने पूरेपन के साथ मेरे भीतर सितार के तारों की तरह बजता रहा है।
कैसा होगा अब वह घर !! जो कभी मेरा था। शायद अभी भी हो। जैसे मैं घर वापिस जाने के लिए हमेशा छटपटाता रहा लेकिन कभी जा नहीं पाया, हो सकता है घर भी मुझे बार-बार वापिस बुलाने के लिए इशारे करता रहा हो। मेरी राह देखता रहा हो और फिर निराश हो कर उसने मेरे लौटने की उम्मीदें ही छोड़ दी हों।
मेरा घर. हमारा घर .. हम सब का घर... जहां बेबे थी, गोलू था, बिल्लू था, एक छोटी-सी बहन थी - गुड्डी और थे दारजी...। कैसी होगी बेबे .. .. पहले से चौदह साल और बूढ़ी.. ..। और दारजी.. .. ..। शायद अब भी अपने ठीये पर बैठे-बैठे अपने औजार गोलू और बिल्लू पर फेंक कर मार रहे हों और सबको अपनी धारदार गालियों से छलनी कर रहे हों..। गुड्डी कैसी होगी.. जब घर छूटा था तो वो पांच बरस की रही होगी। अब तो उसे एमए वगैरह में होना चाहिये। दारजी का कोई भरोसा नहीं। पता नहीं उसे इतना पढ़ने भी दिया होगा या नहीं। दारजी ने पता नहीं कि गोलू और बिल्लू को भी नहीं पढ़ने दिया होगा या नहीं या अपने साथ ही अपने ठीये पर बिठा दिया होगा..। रब्ब करे घर में सब राजी खुशी हों..।
एक बार घर जा कर देखना चाहिये.. कैसे होंगे सब.. क्या मुझे स्वीकार कर लेंगे!! दारजी का तो पता नहीं लेकिन बेबे तो अब भी मुझे याद कर लेती होगी। जब दारजी ने मुझे धक्के मार कर दरवाजे के बाहर धकेल दिया था तो बेबे कितना-कितना रोती थी। बार-बार दारजी के आगे हाथ जोड़ती थी कि मेरे दीपू को जितना मार-पीट लो, कम से कम घर से तो मत निकालो।
बेशक वो मार, वो टीस और वो घर से निकाले जाने की पीड़ा अब भी तकलीफ दे रही है, आज के दिन कुछ ज्यादा ही, फिर भी सोचता हूं कि एक बार तो घर हो ही आना चाहिये। देखा जायेगा, दारजी जो भी कहेंगे। यही होगा ना, एक बार फिर घर से निकाल देंगे। यही सही। वैसे भी घर मेरे हिस्से में कहां लिखा है..। बेघर से फिर बेघर ही तो हो जाऊंगा। कुछ भी तो नहीं बिगड़ेगा मेरा।
तय कर लेता हूं, एक बार घर हो ही आना चाहिये। वे भी तो देखें, जिस दीपू को उन्होंने मार-पीट कर आधे-अधूरे कपड़ों में नंगे पैर और नंगे सिर घर से निकाल दिया था, आज कहां से कहां पहुंच गया है। अब न उसके सिर में दर्द होता है और न ही रोज़ाना सुबह उसे बात बिना बात पर दारजी की मार खानी पड़ती है।
पास बुक देखता हूं। काफी रुपये हैं। बैंक जा कर तीस हजार रुपये निकाल लेता हूं। पांच-सात हज़ार पास में नकद हैं। काफी होंगे।
सबके लिए ढेर सारी शॉपिंग करता हूं। बैग में ये सारी चीजें लेकर मैं घर की तरफ चल दिया हूं। हँसी आती है। मेरा घर.... घर... जो कभी मेरा नहीं रहा.. सिर्फ घर के अहसास के सहारे मैंने ये चौदह बरस काट दिये हैं। घर... जो हमेशा मेरी आँखों के आगे झिलमिलाता रहा लेकिन कभी भी मुकम्मल तौर पर मेरे सामने नहीं आया।
याद करने की कोशिश करता हूं। इस बीच कितने घरों में रहा, हॉस्टलों में भी रहा, अकेले कमरा लेकर भी रहता रहा लेकिन कहीं भी अपने घर का अहसास नहीं मिला। हमेशा लगता रहा, यहां से लौट कर जाना है। घर लौटना है। घर तो वही होता है न, जहां लौट कर जाया जा सके। जहां जा कर मुसाफ़िरी खत्म होती हो। पता नहीं मेरी मुसाफिरी कब खत्म होगी। बंबई से देहरादून की सत्रह सौ किलोमीटर की यह दूरी पार करने में मुझे चौदह बरस लग गये हैं, पता नहीं इस बार भी घर मिल पाता है या नहीं।
देहरादून बस अड्डे पर उतरा हूं। यहां से मच्छी बाजार एक - डेढ़ किलोमीटर पड़ता है।
तय करता हूं, पैदल ही घर जाऊं..। हमेशा की तरह गांधी स्कूल का चक्कर लगाते हुए। सारे बाज़ार को और स्कूल को बदले हुए रूप में देखने का मौका भी मिलेगा। सब्जी मंडी से होते हुए भी घर जाया जा सकता है, रास्ता छोटा भी पड़ेगा लेकिन बचपन में हम मंडी में आवारा घूमते सांडों की वजह से यहां से जाना टालते थे। आज भी टाल जाता हूं।
गांधी स्कूल के आस पास का नक्शा भी पूरी तरह बदला हुआ है। गांधी रोड पर ये हमारी प्रिय जगह खुशीराम लाइब्रेरी, जहां हम राजा भैया, चंदा मामा और पराग वगैरह पढ़ने आते थे और इन पत्रिकाओं के लिए अपनी बारी का इंतज़ार करते रहते थे। पढ़ने का संस्कार हमें इसी लाइब्रेरी ने दिया था।
आगे हिमालय आर्मस की दुकान अपनी जगह पर है लेकिन उसके ठीक सामने दूसरी मंज़िल पर हमारी पांचवीं कक्षा का कमरा पूरी तरह उजाड़ नज़र आ रहा है। पूरे स्कूल में सिर्फ यही कमरा सड़क से नज़र आता था। इस कमरे में पूरा एक साल गुज़ारा है मैंने। मेरी सीट एकदम खिड़की के पास थी और मैं सारा समय नीचे बाज़ार की तरफ ही देखता रहता था। हमारी इस कक्षा पर ही नहीं बल्कि पूरे स्कूल पर ही पुरानेपन की एक गाढ़ी-सी परत जमी हुई है। पता नहीं भीतर क्या हाल होगा। गेट हमेशा की तरह बंद है। स्कूल के बाहर की किताबों की सारी दुकानें या तो बुरी तरह उदास नज़र आ रही हैं, या फिर उनकी जगह कुछ और ही बिकता नज़र आ रहा है।
स्कूल के आगे से गुज़रते हुए बचपन के सारे किस्से याद आते हैं।
पूरे बाज़ार में सभी दुकानों का नकशा बदला हुआ है। एक वक्त था जब मैं यहां से अपने घर तक आँखें बंद करके भी जाता तो बता सकता था, बाज़ार में दोनों तरफ किस-किस चीज़ की दुकानें हैं और उन पर कौन-कौन बैठा करते हैं। लेकिन अब ऐसा नहीं हो सकता। एक भी परिचित चेहरा नजर नहीं आ रहा है। आये भी कैसे। सभी तो मेरी तरह उम्र के चौदह पड़ाव आगे निकल चुके हैं। अगर मैं बदला हूं तो और लोग भी तो बदले ही होंगे। वे भी मुझे कहां पहचान पा रहे होंगे। ये नयी सब्जी मंडी.. किशन चाचा की दुकान.. उस पर पुराना सा ताला लटक रहा है। ये मिशन स्कूल..। सारी दुकानें परिचित लेकिन लोग बदले हुए। सिंधी स्वीट शाप के तीन हिस्से हो चुके हैं। तीनों ही हिस्सों में अनजाने चेहरे गल्ले पर बैठे हैं।
अपनी गली में घुसते ही मेरे दिल की धड़कन तेज हो गयी है। पता नहीं इन चौदह बरसों में क्या कुछ बदल चुका होगा इस ढहते घर में .. या मकान में ...। पता नहीं सबसे पहले किससे सामना हो....गली के कोने में सतनाम चाचे की परचून की दुकान हुआ करती थी। वहां अब कोई जवान लड़का वीडियो गेम्स की दुकान सजाये बैठा है। पता नहीं कौन रहा होगा। तब पांच छः साल का रहा होगा। इन्दर के दरवाजे से कोई जवान-सी औरत निकल कर अर्जन पंसारी की दुकान की तरफ जा रही है। अर्जन चाचा खुद बैठा है। वैसा ही लग रहा है जैसे छोड़ कर गया था।
उसने मेरी तरफ देखा है लेकिन पहचान नहीं पाया है। ठीक ही हुआ। बाद में आ कर मिल लूंगा। मेरी इच्छा है कि सबसे पहले बेबे ही मुझे देखे, पहचाने।
अपनी गली में आ पहुंचा हूं। पहला घर मंगाराम चाचे का है। मेरे खास दोस्त नंदू का। घर बिलकुल बदला हुआ है और दरवाजे पर किसी मेहरचंद की पुरानी सी नेम प्लेट लगी हुई है। इसका मतलब नंदू वगैरह यहां से जा चुके है। मंगाराम चाचा की तो कोतवाली के पास नहरवाली गली के सिरे पर छोले भटूरे की छोटी-सी दुकान हुआ करती थी। उसके सामने वाला घर गामे का है। हमारी गली का पहलवान और हमारी सारी नयी शरारतों का अगुआ। उससे अगला घर प्रवेश और बंसी का। हमारी गली का हीरो - प्रवेश। उससे कभी नजदीकी दोस्ती नहीं बन पायी थी। उनका घर-बार तो वैसा ही लग रहा है। प्रवेश के घर के सामने खुशी भाई साहब का घर। वे हम सब बच्चों के आदर्श थे। अपनी मेहनत के बलबूते ही पूरी पढ़ाई की थी। सारे बच्चे दौड़- दौड़ कर उनके काम करते थे। सबसे रोमांचकारी काम होता था, सबकी नज़रों से बचा कर उनके लिए सिगरेट लाना। सिख होने के कारण मुझे इस काम से छूट मिली हुई थी।
अगला घर बोनी और बौबी का है। उनके पापा सरदार राजा सिंह अंकल। हमारे पूरे मौहल्ले में सिर्फ़ वहीं अंकल थे। बाकी सब चाचा थे। पूरी गली में स्कूटर भी सिर्फ उन्हीं के पास था।
ये सामने ही है मेरा घर......। मेरा छूटा हुआ घर .. ..। हमारा घर.. भाई हरनाम सिहां का शहतूतों वाला घर....। गुस्से में कुछ भी कर बैठने वाला सरदार हरनामा .... तरखाण .... हमारे घर का शहतूत...का पेड़..... हमारे घर.. .. हरनामे के घर की पहचान ...। तीन गली पहले से यह पहचान शुरू हो जाती.. ..। हरनामा तरखाण के घर जाना है? सीधे चले जाओ .. आगे एक शहतूत.. का पेड़ आयेगा। वही घर है तरखाण का ....। 14 मच्छी बाज़ार, देहरादून। घर को मोह से, आसक्ति से देखता हूं। घर के बाहर वाली दीवार जैसे अपनी उम्र पूरी कर चुकी है और लगता है, बस, आज कल में ही विदा हो जाने वाली है। टीन के पतरे वाला दरवाजा वैसे ही है। बेबे तब भी दारजी से कहा करती थी - तरखाण के घर टीन के पतरे के दरवाजे शोभा नहीं देते। कभी अपने घर के लिए भी कुछ बना दिया करो।
मै हौले से सांकल बजाता हूं। सांकल की आवाज थोड़ी देर तक खाली आंगन में गूंज कर मेरे पास वापिस लौट आयी है। दोबारा सांकल बजाता हूं। मेरी धड़कन बहुत तेज हो चली है। पता नहीं कौन दरवाजा खोले.... ।
- कोण है.. । ये बेबे की ही आवाज हो सकती है। पहले की तुलना में ज्यादा करुणामयी और लम्बी तान सी लेते हुए....
- मैं केया कोण है इस वेल्ले....। मेरे बोल नहीं फूटते। क्या बोलूं और कैसे बोलूं। बेबे दरवाजे के पास आ गयी है। झिर्री में से उसका बेहद कमज़ोर हो गया चेहरा नज़र आता है। आंखों पर चश्मा भी है। दरवाजा खुलता है। बेबे मेरे सामने है। एकदम कमज़ोर काया। मुझे चुंधियाती आंखों से देखती है। मेरे बैग की तरफ देखती है। असमंजस में पूछती हैं - त्वानु कोण चाइदा ऐ बाऊजी.. ..?
मैं एकदम बुक्का फाड़ कर रोते हुए उसके कदमों में ढह गया हूं, - बेबे.. बेबे.. मैंनू माफ कर दे मेरिये बेबे.... मैं मैं .. ।
मेरा नाम सुनने से पहले ही वह दो कदम पीछे हट गयी है.. हक्की-बक्की सी मेरी तरफ देख रही है। मैं उसके पैरें में गिरा लहक - लहक कर हिचकियां भरते हुए रो रहा हूं - मैं तेरा बावरा पुत्तर दीपू .. ..दीपू । मेरे आंसू ज़ार ज़ार बह रहे हैं। चौदह बरसों से मेरी पलकों पर अटकेध आंसुओं ने आज बाहर का रास्ता देख लिया है। बेबे घुटनों के बल बैठ गयी है.. अभी भी अविश्वास से मेरी तरफ देख रही है..। अचानक उसकी आंखों में पहचान उभरी है और उसके गले से ज़ोर की चीख निकली है, - ओये.. मेरे पागल पुत्तरा. तूं अपणी अन्नी मां नूं छड्ड के कित्त्थे चला गया सैं.. हाय हो मेरेया रब्बा। तैनूं असी उडीक उडीक के अपणियां अक्खां रत्तियां कर लइयां। मेरेया सोणेया पुत्तरां। रब्ब तैनूं मेरी वी उम्मर दे देवे। तूं जरा वी रैम नीं कित्ता अपणी बुड्डी मां ते के ओ जींदी है के मर गयी ए...।
वह आंसुओं से भरे मेरे चेहरे को अपने दोनों कमज़ोर हाथों में भरे मुझे स्नेह से चूम रही है। मेरे बालों में हाथ फेर रही है और मेरी बलायें ले रही है। उसका गला रुंध गया है। अभी हम मां-बेटे का मिलन चल ही रहा है कि मौहल्ले की दो-तीन औरतें बेबे का रोना - धोना सुन कर खुले दरवाजे में आ जुटी हैं। हमें इस हालत में देख कर वे सकपका गयी हैं।
बेबे से पूछ रही है - की होया भैंजी .. सब खैर तां है नां....!!
- तूं खैर पुछ रई हैं विमलिये ..अज तां रब्ब साडे उत्ते किन्ना मेहरबान हो गया नीं। वेखो वे भलिये लोको, मेरा दीपू किन्ने चिर बाद अज घर मुड़ के आया ए। मेरा पुत्त इस घरों रेंदा कलप्दा गया सी ते अज किन्ने चिर बाद वल्ल के आया ए। हाय कोई छेत्ती जाके ते इदे दारजी नूं ते खबर कर देवो। ओ कोई जल्दी जा के खण्ड दी डब्बी लै आवे। मैं सारेयां दा मूं मिट्ठा करा देवां। ... आजा वे मेरे पुत्त मैं तेरी नजर उतार दवां .। पता नीं किस भैड़े दी नज्जर लग गई सी।
हम दोनों का रो-रो कर बुरा हाल है। मेरे मुंह से एक भी शब्द नहीं फूट रहा है। इतने बरसों के बाद मां के आंचल में जी भर के रोने को जी चाह रहा है। मैं रोये जा रहा हूं और मोहल्ले की सारी औरतें मुंह में दुपट्टे दबाये हैरानी से मां बेटे का यह अद्भुत मिलन देख रही हैं। किसी ने मेरी तरफ पानी का गिलास बढ़ा दिया है। मैंने हिचकियों के बीच पानी खत्म किया है।
खबर पूरे मोहल्ले में बिजली की तेजी से फैल गयी है। वरांडे में पचासों लोग जमा हो गये हैं। बेबे ने मेरे लिए चारपाई बिछा दी है और मेरे पास बैठ गयी है। एक के बाद एक सवाल पूछ रही है। अचानक ही घर में व्यस्तता बढ़ गयी है। सब के सब मेरे खाने पीने के इंतजाम में जुट गये हैं। कभी कोई चाय थमा जाता है तो कोई मेरे हाथ में गुड़ का या मिठाई का टुकड़ा धर जाता है। मेरे आसपास अच्छी खासी भीड़ जुट आयी है और मेरी तरफ अजीब - सी निगाहों से देख रही है। कुछेक बुजुर्ग भी आ गये हैं। बेबे मुझे उनके बारे में बता रही है। मैं किसी - किसी को ही पहचान पा रहा हूं। किसी का चेहरा पहचाना हुआ लग रहा है तो किसी का नाम याद - सा आ रहा है।
मोहल्ले भर के चाचा, ताए, मामे, मामियां वरांडे में आ जुटे हैं और मुझसे तरह -तरह के सवाल पूछ रहे हैं। मुझे सूझ नहीं रहा कि किस बात का क्या जवाब दिया जाये। मैं बार-बार किसी न किसी बुजुर्ग के पैरों में मत्था टेक रहा हूं। सब के सब मुझे अधबीच में ही गले से लगा लेते हैं। मुझे नहीं मालूम था मैं अभी भी अपने घर परिवार के लिए इतने मायने रखता हूं।
तभी बेबे मुझे उबारती है - वे भले लोको, मेरा पुत्त किन्ना लम्बा सफर कर के आया ए। उन्नू थोड़ी चिर अराम करन देओ। सारियां गल्लां हुणी ता ना पुच्छो !! वेखो तां विचारे दा किन्ना जेयां मूं निकल आया ए..।
बेबे ने किसी तरह सबको विदा कर दिया है लेकिन लोग हैं कि मानते ही नहीं। कोई ना कोई कुण्डी खड़का ही देता है और मेरे आगे कुछ न कुछ खाने की चीज रख देता है। हर कोई मुझे अपने गले से लगाना चाहता है, अपने हाथों से कुछ न कुछ खिलाना ही चाहता है। फिर ऊपर से उनके सवालों की बरसात। मेरे लिए अड़ोस-पड़ोस की चाचियां ताइयां दसियों कप चाय दे गयी है और मैंने कुछ घूंट चाय पी भी है फिर भी बेबे ने मेरे लिए अलग से गरम -गरम चाय बनायी है। मलाई डाल के। बेबे को याद रहा, मुझे मलाई वाली चाय अच्छी लगती थी। बचपन में हम तीनों भाइयों में चाय में मलाई डलवाने के लिए होड़ लगती थी। दूध में इतनी मलाई उतरती नहीं थी कि दोनों टाइम तीनों की चाय में डाली जा सकेध। बेबे चाय में मलाई के लिए हमारी बारी बांधती थी।
बेबे पूछ रही है, मैं कहां से आ रहा हूं और क्या करता हूं। बहुत अजीब-सा लग रहा है ये सब बताना लेकिन मैं जानता हूं कि जब तक यहां रहूंगा, मुझे बार बार इन्हीं सवालों से जूझना होगा। बेबे को थोड़ा-बहुत बताता हूं कि इस बीच क्या क्या घटा। मैंने अपनी बात पूरी नहीं की है कि बेबे खुद बताने लगी है - गोलू तां बारवीं करके ते पक्की नौकरी दी तलाश कर रेया ए। कदी कदी छोटी मोटी नौकरी मिल वी जांदी ए ओनूं। अज कल चकराता रोड ते इक रेडिमेड कपड़ेयां दी हट्टी ते बैंदा ए ते पन्दरा सोलां सौ रपइये लै आंदा ए। अते बिल्लू ने तां दसवीं वीं पूरी नीं कित्ती। कैंदा सी - मेरे तें नीं होंदी ए किताबी पढ़ाई.. अजकल इस सपेर पार्ट दी दुकान ते बैंदा ऐ। उन्नू वी हजार बारा सौं रपइये मिल जांदे हन। तेरे दारजी वी ढिल्ले रैंदे ने। बेशक तैंनू गुस्से विच मार पिट के ते घरों कड दित्ता सी पर तैनूं मैं की दस्सां, बाद विच बोत रोंदे सी। कैंदे सी...। अचानक बेबे चुप हो गयी है। उसे सूझा नहीं कि आगे क्या कहे। उसने मेरी तरफ देखा है और बात बदल दी है। मैं समझ गया हूं कि वह दारजी की तरफदारी करना चाह रही थी लेकिन मेरे आगे उससे झूठ नहीं बोला गया। लेकिन मैं जानबूझ कर भी चुप रहता हूं। बेबे आगे बता रही है - तैंनू असीं किन्ना ढूंढेया, तेरे पिच्छे कित्थे कित्थे नीं गये, पर तूं तां इन्नी जई गल ते साडे कोल नराज हो के कदी मुढ़ के वी नीं आया कि तेरी बुड्डी मां जींदी ए की मर गई ए। मैं तां रब्ब दे अग्गे अठ अठ हंजू रोंदी सी कि इक वारी मैंनू मेरे पुत्त नाल मिला दे। मैं बेबे की बात ध्यान से सुन रहा हूं। अचानक पूछ बैठता हूं - सच दसीं बेबे, दारजी वाकई मेरे वास्ते रोये सी? वेख झूठ ना बोलीं। तैनूं मेरी सौं।
बेबे अचानक घिर गयी है। मेरी आंखों में आंखें डाल कर देखती है। उसकी कातर निगाहें देख कर मुझे पछतावा होने लगता है - ये मैं क्या पूछ बैठा !! अभी तो आये मुझे घंटा भर भी नहीं हुआ, लेकिन बेबे ने मुझे उबार लिया है और दारजी का सच बिना लाग लपेट के बयान कर दिया है। यह सच उस सच से बिलकुल अलग है जो अभी अभी बेबे बयान कर रही थी। शायद वह इतने अरसे बाद आये अपने बेटे के सामने कोई भी झूठ नहीं बोलना चाहती। वैसे भी वह झूठ नहीं बोलती कभी। शायद इसीलिए उससे ये झूठ भी नहीं बोला गया है या यूं कहूं कि सच छुपाया नहीं गया है।
बेबे अभी दारजी के बारे में बता ही रही है कि मैंने बात बदल दी है और गुड्डी के बारे में पूछने लगता हूं। वह खुश हो कर बताती है - गुड्डी दा बीए दा पैला साल है। विच्चों बिमार पै गई सी। विचारी दा इक साल मारेया गया। कैंदी ए - मैं सारियां दी कसर कल्ले ई पूरी करां गी। बड़ी सोणी ते स्याणी हो गई ए तेरी भैण। पूरा घर कल्ले संभाल लैंदी ए। पैले तां तैनूं बोत पुछदी सी..फेर होली होली भुल गयी..। बस कालेजों आंदी ही होवेगी।
मुझे तसल्ली होती है कि चलो कोई तो पढ़ लिख गया। खासकर गुड्डी को दारजी पढ़ा रहे हैं, यही बहुत बड़ी बात है। अभी हम गुड्डी की बात कर ही रहे हैं कि ज़ोर से दरवाजा खुलने की आवाज आती है। मैं मुड़ कर देखता हूं। सफेद सलवार कमीज में एक लड़की दरवाजे में खड़ी है। सांस फूली हुई। हाथ में ढेर सारी किताबें और आंखों में बेइन्तहां हैरानी। वह आंखें बड़ी बड़ी करके मेरी तरफ देख रही है। मैं उसे देखते ही उठ खड़ा होता हूं - गुड्डी ..! मैं ज़ोर से कहता हूं और अपनी बाहें फ ठला देता हूं।
वह लपक कर मेरी बाहों में आ गयी है। उसकी सांस धौंकनी की तरह तेज चल रही है। बहुत जोर से रोने लगी है वह। बड़ी मुश्किल से रोते रोते - वीर.. . जी.... वीर जी.. ..! ही कह पा रही है। मैं उसके कंधे थपथपा कर चुप कराता हूं। मेरे लिए खुद की रुलाई रोक पाना मुश्किल हो रहा है। बेबे भी रोने लगी है।
बड़ी मुश्किल से हम तीनों अपनी रुलाई पर काबू पाते हैं। तभी अचानक गुड्डी भाग कर रसोई में चली गयी है। बाहर आते समय उसके हाथ में थाली है। थाली में मैली, चावल और टीके का सामान है। वह मेरे माथे पर टीका लगाती है और मेरी बांह पर मौली बांधती है। उसकी स्नेह भावना मुझे भीतर तक भिगो गयी है। बेबे मुग्ध भाव से ये सब देखे जा रही है। गुड्डी जो भी कहती जा रही है, मैं वैसे ही करता जा रहा हूं। जब उसने अपने सभी अरमान पूरे कर लिये हैं तो उसने झुक कर पूरे आदर के साथ मेरे पैर छूए हैं।
मैं उसके सिर पर चपत लगा कर आशीषें देता हूं और भीतर से बैग लाने के लिए कहता हूं। वह भारी बैग उठा कर लाती है। उसके लिए लाये सामान से उसकी झोली भर देता हूं। वह हैरानी से सारा सामान देखती रह जाती है - ये सब आप मेरे लिए लाये हैं।
- तुझे विश्वास नहीं है?
- विश्वास तो है लेकिन इतना खरचा करने की क्या जरूरत थी? उसने वाकॅमैन के ईयर फोन तुरंत ही कानों से लगा लिये हैं।
- ओये बड़ी आयी खरचे की चाची, अच्छा एक बात बता - तू रोज़ ही इस तरह भाग कर कॉलेज से आती है?
- अगर रोज रोज मेरे वीरजी आयें तो मैं रोज़ ही कॉलेज से भाग कर आऊं।
वह गर्व से बताती है - अभी मैं सड़क पर ही थी कि किसी ने बताया - ओये घर जा कुड़िये, घर से भागा हुआ तेरा भाई वापिस आ गया है। बहुत बड़ा अफसर बन के। एकदम गबरू जवान दिखता है। जा वो तेरी राह देख रहा होगा। पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि हमारा वीर भी कभी इस तरह से वापिस आ सकता है। मैंने सोचा कि हम भी तो देखें कि कौन गबरू जवान हमारे वीरजी बन कर आये हैं जिनकी तारीफ पूरा मौहल्ला कर रहा है। ज़रा हम भी देखें वे कैसे दिखते हैं। फिर हमने सोचा, आखिर भाई किसके हैं। स्मार्ट तो होंगे ही। मैंने ठीक ही सोचा है ना वीर जी....!
- बातें तो तू खूब बना लेती है। कुछ पढ़ाई भी करती है या नहीं?
जवाब बेबे देती है - सारा दिन कताबां विच सिर खपांदी रैंदी ए। किन्नी वारी केया ए इन्नू - इन्ना ना पढ़ेया कर। तूं केड़ी कलकटरी करणी ए, पर ऐ साडी गल सुण लवे तां गुड्डी नां किसदा?
अभी बेबे उसके बारे में यह बात बता ही रही है कि वह मुझे एक डायरी लाकर दिखाती है। अपनी कविताओं की डायरी।
मैं हैरान होता हूं - हमारी गुड्डी कविताएं भी लिखती है और वो भी इस तरह के माहौल में।
पूछता हूं मैं - कब से लिख रही है?
- तीन चार साल से। फिर उसने एक और फाइल दिखायी है। उसमें स्थानीय अखबारों और कॉलेज मैगजीनों की कतरनें हैं। उसकी छपी कविताओं की। गुड्डी की तरक्की देख कर सुकून हुआ है। बेबे ने बिल्लू और गोलू की जो तस्वीर खींची है उससे उन दोनों की तो कोई खास इमेज नहीं बनती।
गुड्डी मेरे बारे में ढेर सारे सवाल पूछ रही है, अपनी छोटी छोटी बातें बता रही है। बहुत खुश है वह मेरे आने से। मैं बैग से अपनी डायरी निकाल कर देखता हूं। उसमें दो एक एंट्रीज ही हैं।
डायरी गुड्डी को देता हूं - ले गुड्डी, अब तू अपनी कविताएं इसी डायरी में लिखा कर।
इतनी खूबसूरत डायरी पा कर वह बहुत खुश हो गयी है। तभी वह डायरी पर मेरे नाम के नीचे लिखी डिग्रियां देख कर चौंक जाती है,
- वीरजी, आपने पीएच डी की है?
- हां गुड्डी, खाली बैठा था, सोचा, कुछ पढ़ लिख ही लें।
- हमें बनाइये मत, कोई खाली बैठे रहने से पीएच डी थोड़े ही कर लेता है। आपके पास तो कभी फ़ुर्सत रही भी होगी या नहीं, हमें शक है। सच बताइये ना, कहां से की थी?
- अब तू ज़िद कर रही है तो बता देता हूं। एमटैक में युनिवर्सिटी में टॉप करने के बाद मेरे सामने दो ऑफर थे - एक बहुत बड़ी विदेशी कम्पनी में बढ़िया जॉब या अमेरिका में एक युनिवर्सिटी में पीएच डी के लिए स्कॉलरशिप। मैंने सोचा, नौकरी तो ज़िंदगी भर करनी ही है। लगे हाथों पीएच डी कर लें तो वापिस हिन्दुस्तान आने का भी बहाना बना रहेगा। नौकरी करने गये तो पता नहीं कब लौटें। आखिर तुझे ये डायरी, ये वॉक मैन और ये सारा सामान देने तो आना ही था ना...। मैंने उसे संक्षेप में बताया है।
- जब अमेरिका गये होंगे तो खूब घूमे भी होंगे? पूछती है गुड्डी। अमेरिका का नाम सुन कर बेबे भी पास सरक आयी है।
- कहां घूमना हुआ। बस, हॉस्टल का कमरा, गाइड का कमरा, क्लास रूम, लाइब्रेरी और कैंटीन। आखिर में जब सब लोग घूमने निकले थे तभी दो चार जगहें देखी थीं।
हँसते हुए कहती है वह - वहां कोई गोरी पसंद नहीं आयी थी?
मैं हँसता हूं - ओये पगलिये। ये बाहर की लड़कियां तो बस एÿवेई होती हैं। हम लोगों के लायक थोड़े ही होती हैं। तू खुद बता अगर मैं वहा से कोई मेम शेम ले आता तो ये बेब मुझे घर में घुसने देती?
यह सुन कर बेबे ने तसल्ली भरी ठंडी सांस ली है। कम से कम उसे एक बात का तो विश्वास हो गया है कि मैं अभी कुंवारा हूं।
गुड्डी आग्रह करती है - वीरजी कुछ लिखो भी तो सही इस पर.. मैं अपनी सारी सहेलियों को दिखाऊंगी।
- ठीक है, गुड्डी, तेरे लिए मैं लिख भी देता हूं।
मैं डायरी में लिखता हूं
- अपनी छोटी, मोटी, दुलारी और प्यारी बहन
गुड्डी को
जो एक मेले के चक्कर में मुझसे बिछ़ुड़ गयी थी।
'दीप'
डायरी ले कर वह तुरंत ही उसमें पता नहीं क्या लिखने लग गयी है। मैं पूछता हूं तो दिखाने से भी मना कर देती है।
आंगन में चारपाई पर लेटे लेटे गुड्डी से बातें करते-करते पता नहीं कब आंख लग गयी होगी। अचानक शोर-शराबे से आंख खुली तो देखा, दारजी मेरे सिरहाने बैठे हैं। पहले की तुलना में बेहद कमज़ोर और टूटे हुए आदमी लगे वे मुझे। मैं तुरंत उठ कर उनके पैरों पर गिर गया हूं। मैं एक बार फिर रो रहा हूं। मैं देख रहा हूं, दारजी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए अपनी आंखें पोंछ रहे हैं। उन्हें शायद बेबे ने मेरी राम कहानी सुना दी होगी इसलिए उन्होंने कुछ भी नहीं पूछा। सिर्फ एक ही वाक्य कहा है - तेरे हिस्से विच घरों बार जा के ई आदमी बनण लिखेया सी। शायद रब्ब नूं ऐही मंज़ूर सी।
मैंने सिर झुका लिया है। क्या कहूं। बेबे मुझे अभी बता ही चुकी है घर से मेरे जाने के बाद का दारजी का व्यवहार। मुझे बेबे की बात पर विश्वास करना ही पड़ेगा। दारजी मेरे लिए कुछ भी कर सकते हैं। ये बूढ़ा जिद्दी आदमी, जिसने अपने गुस्से के आगे किसी को भी कुछ नहीं समझा। बेबे बता रही थी - जद तैनूं अद्धे अधूरे कपडेयां विच घरों कडेया सी तां दारजी कई दिनां तक इस गल्ल नूं मनण लई त्यार ई नईं सन कि इस विच उन्नादी कोई गलती सी। ओ ते सारेयां नूं सुणा-सुणा के ए ही कैंदे रये - मेरी तरफों दीपू कल मरदा ए, तां अज मर जावे। सारेयां ने एन्ना नूं समझाया सी - छोटा बच्चा ए। विचारा कित्थे मारेया मारेया फिरदा होवेगा। लेकन तेरे दारजी नईं मन्ने सी। ओ तां पुलस विच रपोट कराण वी नईं गए सन। मैं ई हत्थ जोड़ जोड़ के तेरे मामे नूं अगे भेजया सी लेकन ओ वी उत्थों खाली हत्थ वापस आ गया सी। पुलस ने जदों तेरी फोटो मंग्गी तां तेरा मामा उत्थे ई रो पेया सी - थानेदारजी, उसदी इक अध फोटो तां है, लम्मे केशां वाली जूड़े दे नाल, लेकन उस नाल किदां पता चलेगा दीपू दा ..। ओ ते केस कटवा के आया सी इसे लई तां गरमागरमी विच घर छड्ड के नठ गया ए..।
मुझे जब बेबे ये बात बता रही थी तो जैसे मेरी पीठ पर बचपन में दारजी की मार के सारे के सारे जख्म टीस मारने लगे थे। अब भी दारजी के सामने बैठे हुए मैं सोच रहा हूं - अगर मैं तब भी घर से न भागा होता तो मेरी ज़िंदगी ने क्या रुख लिया होता। ये तो तय है, न मेरे हिस्से में इतनी पढ़ाई लिखी होती और न इतना सुकून। तब मैं भी गोलू बिल्लू की तरह किसी दुकान पर सेल्समैनी कर रहा होता।
मैं दारजी के साथ ही खाना खाता हूं।
खाना जिद करके गुड्डी ने ही बनाया है।
बेबे ने उसे छेड़ा है - मैं लख कवां, कदी ते दो फुलके सेक दित्ता कर। पराये घर जावेंगी तां की करेंगी लेकन कदी रसोई दे नेड़े नईं आवेगी। अज वीर दे भाग जग गये हन कि साडी गुड्डी रोटी पका रई ए।
बेबे भी अजीब है। जब तक गुड्डी नहीं आयी थी उसकी खूब तारीफें कर रही थी कि पूरा घर अकेले संभाल लेती है और अब ...।
खाना खा कर दारजी गोलू और बिल्लू को खबर करने चले गये हैं।
मैं घर के भीतर आता हूं। सारा घर देखता हूं।
घर का सामान देखते हुए धीरे-धीरे भूली बिसरी बातें याद आने लगी हैं। याद करता हूं कि तब घर में क्या क्या हुआ करता था। कुल मिला कर घर में पुरानापन है। जैसे अरसे से किसी ने उसे जस का तस छोड़ रखा हो। बेशक इस बीच रंग रोगन भी हुआ ही होगा लेकिन फिर भी एक स्थायी किस्म का पुरानापन होता है चीजों में, माहौल में और कपड़ों तक में, जिसे झाड़ पोंछ कर दूर नहीं किया जा सकता।
हां, एक बात जरूर लग रही है कि पूरे घर में गुड्डी का स्पर्श है। हलका-सा युवा स्पर्श। उसने जिस चीज को भी झाड़ा पोंछा होगा, अपनी पसंद और चयन की नैसर्गिक महक उसमें छोड़ती चली गयी होगी। यह मेरे लिए नया ही अनुभव है। बड़े कमरे में एक पैनासोनिक के पुराने से स्टीरियो ने भी इस बीच अपनी जगह बना ली है। एक पुराना ब्लैक एंड व्हाइट टीवी भी एक कोने में विराजमान है। जब गया था तो टीवी तब शहर में पूरी तरह आये ही नहीं थे। टीवी चला कर देखता हूं। खराब है।
बंद कर देता हूं। सोचता हूं, जाते समय एक कलर टीवी यहां के लिए खरीद दूंगा। अब तो घर-घर में कलर टीवी हैं।
छोटे कमरे में जाता हूं। हम लोगों के पढ़ने लिखने के फालतू सामान रखने का कमरा यही होता था। हम भाइयों और दोस्तों के सारे सीक्रेट अभियान यहीं पूरे किये जाते थे क्योंकि दारजी इस कमरे में बहुत कम आते थे। इसी कमरे में हम कंचे छुपाते थे, लूटी हुई पतंगों को दारजी के डर से अलमारी के पीछे छुपा कर रखते थे। गुल्ली डंडा तो खैर दारजी ने हमें कभी बना कर दिये हों, याद नहीं आता। मुझे पता है, अल्मारी के पीछे वहां अब कुछ नहीं होगा फिर भी अल्मारी के पीछे झांक कर देखता हूं। नहीं, वहां कोई पतंग नहीं है। जब गया था तब वहां मेरी तीन चार पतंगें रखी थीं। एक आध चरखी मांझे की भी थी।
रात को हम सब इकट्ठे बैठे हैं। जैसे बचपन में बैठा करते थे। बड़े वाले कमरे में। सब के सब अपनी अपनी चारपाई पर जमे हुए। तब इस तरह बैठना सिर्फ सर्दियों में ही होता था। बेबे खाना बनाने के बाद कोयले वाली अंगीठी भी भीतर ले आती थी और हम चारों भाई बहन दारजी और बेबे उसके चारों तरफ बैठ कर हाथ भी सेंकते रहते और मूंगफली या रेवड़ी वगैरह खाते रहते। रात का यही वक्त होता था जब हम भाई बहनों में कोई झगड़ा नहीं होता था।
अब घर में गैस आ जाने के कारण कोयले वाली अंगीठी नहीं रही है। वैसे सर्दी अभी दूर है लेकिन सब के सब अपनी अपनी चारपाई पर खेस ओढ़े आराम से बैठे हैं। मुझे बेबे ने अपने खेस में जगह दे दी है। पता नहीं मेरी अनुपस्थिति में भी ये जमावड़े चलते रहते थे या नहीं।सबकी उत्सुकता मेरी चौदह बरस की यात्रा के बारे में विस्तार से सुनने की है जबकि मैं यहां के हाल चाल जानना चाहता हूं।
फैसला यही हुआ है कि आज मैं यहां के हाल चाल सुनूंगा और कल अपने हाल बताऊंगा। वैसे भी दिन भर किस्तों में मैं सबको अपनी कहानी सुना ही चुका हूं। ये बात अलग है कि ये बात सिर्फ़ मैं ही जानता हूं कि इस कहानी में कितना सच है और कितना झूठ।
शुरूआत बेबे ने की है। बिरादरी से..। इस बीच कौन-कौन पूरा हो गया, किस-किस के कितने-कितने बच्चे हुए, शादियां, दो-चार तलाक, दहेज की वजह से एकाध बहू को जलाने की खबर, किसने नया घर बनाया और कौन-कौन मोहल्ला छोड़ कर चले गये और गली में कौन-कौन नये बसने आये। किस के घर में बहू की शक्ल में डायन आ गयी है जिसने आते ही अपने मरद को अपने बस में कर लिया है और मां-बाप से अलग कर दिया है, ये और ऐसी ढेरों खबरें बेबे की पिटारी में से निकल रही हैं और हम सब मज़े ले रहे हैं।
अभी बेबे ने कोई बात पूरी नहीं की होती कि किसी और को उसी से जुड़ी और कोई बात याद आ जाती है तो बातों का सिलसिला उसी तरफ मुड़ जाता है।
मैं गोलू से कहता हूं - तू बारी बारी से बचपन के सब साथियों के बारे में बताता चल।
वह बता रहा है - प्रवेश ने बीए करने के बाद एक होटल में नौकरी कर ली है। अंग्रेजी तो वह तभी से बोलने लगा था। आजकल राजपुर रोड पर होटल मीडो में बड़ी पोस्ट पर है। शादी करके अब अलग रहने लगा है। ऊपर जाखन की तरफ घर बनाया है उसने।
- बंसी इसी घर में है। हाल ही में शादी हुई है उसकी। मां-बाप दोनों मर गये हैं उनके।
- और गामा?
मुझे गामे की अगुवाई में की गयी कई शरारतें याद आ रही हैं। दूसरों के बगीचों में अमरूद, लीची और आम तोड़ने के लिए हमारे ग्रुप के सारे लड़के उसी के साथ जाते थे।
बिल्लू बता रहा है - गामा बेचारा ग्यारहवीं तक पढ़ने के बाद आजकल सब्जी मंडी के पास गरम मसाले बेचता है। वहीं पर पक्की दुकान बना ली है और खूब कमा रहा है।
- दारजी, ये नंदू वाले घर के आगे मैंने किसी मेहरचंद की नेम प्लेट देखी थी। वे लोग भी घर छोड़ गये हैं क्या? मैं पूछता हूं।
- मंगाराम बिचारा मर गया है। बहुत बुरी हालत में मरा था। इलाज के लिए पैसे ही नहीं थे। मजबूरन घर बेचना पड़ा। उसके मरने के बाद नंदू की पढ़ाई भी छूट गयी। लेकिन मानना पड़ेगा नंदू को भी। उसने पढ़ाई छोड़ कर बाप की जगह कई साल तक ठेला लगाया, बाप का काम आगे बढ़ाया और अब उसी ठेले की बदौलत नहरवाली गली के सिरे पर ही उसका शानदार होटल है। विजय नगर की तरफ अपना घर-बार है और चार आदमियों में इज्जत है।
- मैं आपको एक मजेदार बात बताती हूं वीर जी।
ये गुड्डी है। हमेशा समझदारी भरी बातें करती है।
- चल तू ही बोल दे पहले। जब तक मन की बात न कह दे, तेरे ही डकार ज्यादा अटके रहते हैं। बिल्लू ने उसे छेड़ा है।
- रहने दे बड़ा आया मेरे डकारों की चिंता करने वाला। और तू जो मेरी सहेलियों के बारे में खोद खोद के पूछता रहता है वो...। गुड्डी ने बदला ले लिया है।
बिल्लू ने लपक कर गुड्डी की चुटिया पकड़ ली है - मेरी झूठी चुगली खाती है। अब आना मेरे पास पंज रपइये मांगने।
गुड्डी चिल्लायी है - देखो ना वीरजी, एक तो पंज रपइये का लालच दे के ना मेरी सहेलियों ....। बिल्लू शरमा गया है और उसने गुड्डी के मुंह पर हाथ रख दिया है - देख गुड्डी, खबरदार जो एक भी शब्द आगे बोला तो।
सब मजे ले रहे हैं। शायद ये उन दोनों के बीच का रोज का किस्सा है।
- तूं वी इन्नां पागलां दे चक्कर विच पै गेया एं। ऐ ते इन्ना दोवां दा रोज दा रोणा ऐ। बेबे इतनी देर बाद बोली है।
- असी ते सोइये हुण। गोलू ने अपने सिर के ऊपर चादर खींच ली है। गप्पबाजी का सिलसिला यहीं टूट गया है।
बाकी सब भी उबासियां लेने लगे हैं। तभी बिल्लू ने टोका है - लेकिन वीरा, आपके किस्से तो रह ही गये ।
- अब कल सुनना किस्से। अब मुझे भी नींद आ रही है। कहते हुए मैं भी बेबे की चारपाई पर ही मुड़ी-त़ुड़ी हो कर पसर गया हूं। बेबे मेरे बालों में उंगलियां फिरा रही है। चौदह बरस बाद बेबे के ममताभरे आंचल में आंखें बंद करते ही मुझे तुरंत नींद आ गयी है। कितने बरस बाद सुकून की नींद सो रहा हूं।
देख रहा हूं इस बीच बहुत कुछ बदल गया है। बहुत कुछ ऐसा भी लग रहा है जिस पर समय के क्रूर पंजों की खरोंच तक नहीं लगी है। सब कुछ जस का तस रह गया है। घर में भी और बाहर भी.. । दारजी बहुत दुबले हो गये हैं। अब उतना काम भी नहीं कर पाते, लेकिन उनके गुस्से में कोई कमी नहीं आयी है। कल बेबे बता रही थी - बच्चे जवान हो गये हैं, शादी के लायक होने को आये लेकिन अभी भी उन्हें जलील करने से बाज नहीं आते। उनके इसी गुस्से की वजह से अब तो कोई मोया ग्राहक ही नहीं आता।
गोलू और बिल्लू अपने अपने धंधे में बिजी है। बेबे ने बताया तो नहीं लेकिन बातों ही बातों में कल ही मुझे अंदाजा लग गया था कि गोलू के लिए कहीं बात चल रही है। अब मेरे आने से बात आगे बढ़ेगी या ठहर जायेगी, कहा नहीं जा सकता। अब बेबे और दारजी उसके बजाये कहीं मेरे लिए .. .. नहीं यह तो गलत होगा। बेबे को समझाना पड़ेगा।
ये गोलू और बिल्लू भी अजीब हैं। कल पहले तो तपाक से मिले, थोड़ी देर रोये-धोये। जब मैंने उन्हें उनके उपहार दे दिये तो बहुत खुश भी हुए लेकिन जब बाद में बातचीत चली तो मेरे हालचाल जानने के बजाये अपने दुखड़े सुनाने लगे। दारजी और बेबे की चुगलियां खाने लगे। मैं थोड़ी देर तक तो सुनता रहा लेकिन जब ये किस्से बढ़ने लगे तो मैंने बरज दिया - मैं ये सब सुनने के लिए यहां नहीं आया हूं। तुम्हारी जिससे भी जो भी शिकायतें हैं, सीधे ही निपटा लो तो बेहतर। इतना सुनने के बाद दोनों ही उठ कर चल दिये थे। रात को बेशक थोड़ा-बहुत हंसी मज़ाक कर रहे थे, लेकिन सवेरे-सवेरे ही तैयार हो कर - अच्छा वीरजी, निकलते हैं, कहते हुए दोनों एक साथ ही दरवाजे से बाहर हो गये हैं। गुड्डी के भी कॉलेज का टाइम हो रहा है, और फिर उसने सब सहेलियों को भी तो बताना है कि उसका सबसे प्यारा वीर वापिस आ गया है।
हँसती है वह - वीरजी, शाम को मेरी सारी सहेलियां आपसे मिलने आयेंगी। उनसे अच्छी तरह से बात करना।
मैं उसकी चुटिया पकड़ कर खींच देता हूं - पगलिये, मैंने तेरी सारी सहेलियों से क्या बियाह रचाना है जो अच्छी तरह से बात करूं। ले ये दो सौ रुपये। अपनी सारी सखियों को मेरी तरफ से आइसक्रीम खिला देना। वह खुशी-खुशी कॉलेज चली गयी है।
छत पर खड़े हो कर चारों तरफ देखता हूं। हमारे घर से सटे बछित्तर चाचे का घर। मेरे हर वक्त के जोड़दार जोगी, जोगिन्दर सिंह का घर। उनके के टूटे-फूटे मकान की जगह दुमंजिला आलीशान मकान खड़ा है। बाकी सारे मकान कमोबेश उन्हीं पुरानी दीवारों के कंधों पर खड़े हैं। कहीं-कहीं छत पर एकाध कमरा बना दिया गया है या टिन के शेड डाल दिये गये हैं।
नीचे उतर कर बेबे से कहता हूं - जरा बाजार का एक चक्कर लगा कर आ रहा हूं। वापसी पर नंदू की दूकान से होता हुआ आऊंगा।
मैं गलियां गलियों ही तिलक रोड की तरफ निकल जाता हूं और वहां से बिंदाल की तरफ से होता हुआ चकराता रोड मुड़ जाता हूं। कनाट प्लेस के बदले हुए रूप को देखता हुआ चकराता रोड और वहां से घूमता-घामता घंटाघर और फिर वहां से पलटन बाज़ार की तरफ निकल आया हूं। यूं ही दोनों तरफ़ की दुकानों के बोर्ड देखते हुए टहल रहा हूं।
मिशन स्कूल के ठीक आगे से गुज़रते हुए बचपन की एक घटना याद आ रही है। तब मैं एक पपीते वाले से यहीं पर पिटते-पिटते बचा था। हमारी कक्षा के प्रदीप अरोड़ा ने नई साइकिल खरीदी थी। मेरा अच्छा दोस्त था प्रदीप। राजपुर रोड पर रहता था वो। घर दूर होने के कारण वह खाने की आधी छुट्टी में खाना खाने घर नहीं जाता था बल्कि स्कूल के आस-पास ही दोस्तों के साथ चक्कर काटता रहता था। मैं खाना खाने घर आता था लेकिन आने-जाने के चक्कर में अकसर वापिस आने में देर हो ही जाती थी। इसलिए कई बार प्रदीप अपनी साइकिल मुझे दे देता। इस तरह मेरे दस- पद्रह मिनट बच जाते तो हम ये समय भी एक साथ गुज़ार पाते थे। साइकिल चलानी तब सीखी ही थी। एक दिन इसी तरह मैं खाना खा कर वापिस जा रहा था कि मिशन स्कूल के पास भीड़ के कारण बैलेंस बिगड़ गया। इससे पहले कि मैं साइकिल से नीचे उतर पाता, मेरा एक हाथ पपीतों से भरे एक हथठेले के हत्थे पर पड़ गया। मेरा पूरा वजन हत्थे पर पड़ा और मेरे गिरने के साथ ही ठेला खड़ा होता चला गया। सारे पपीते ठेले पर से सड़क पर लुढ़कते आ गिरे। पपीते वाला बूढ़ा मुसलमान वहीं किसी ग्राहक से बात कर रहा था। अपने पपीतों का ये हाल देखते ही वह गुस्से से कांपने लगा। मेरी तो जान ही निकल गयी। साइकिल के नीचे गिरे-गिरे ही मैं डर के मारे रोने लगा। पिटने का डर जो था सो था, उससे ज्यादा डर प्रदीप की साइकिल छिन जाने का था। वहां एक दम भीड़ जमा हो गयी थी। इससे पहले कि पपीते वाला मुसलमान मेरी साइकिल छीन कर मुझ पर हाथ उठा पाता, किसी को मेरी हालत पर तरस आ गया और उसने मुझे तेजी से खड़ा किया, साइकिल मुझे थमायी और तुरंत भाग जाने का इशारा किया। मैं साइकिल हाथ में लिये लिये ही भागा था।
उस दिन के बाद कई दिन तक मैं मिशन स्कूल वाली सड़क से ही नहीं गुजरा था। मुझे पता है, पपीते के ठेले वाला वह बूढ़ा मुसलमान इतने बरस बाद इस समय यहां नहीं होगा लेकिन फिर भी फलों के सभी ठेले वालों की तरफ एक बार देख लेता हूं।
आगे कोतवाली के पास ही नंदू का होटल है।
चलो, एक शरारत ही सही। अच्छी चाय की तलब भी लगी हुई है। नंदू के हेटल में ही चाय पी जाये। एक ग्राहक के रूप में। परिचय उसे बाद में दूंगा। वैसे भी वह मुझे इस तरह से पहचानने से रहा।
नंदू काउंटर पर ही बैठा है। चेहरे पर रौनक है और संतुष्ट जीवन का भाव भी। मेरी ही उम्र का है लेकिन जैसे बरसों से इसी तरह धंधे करने वाले लोगों के चेहरे पर एक तरह का घिसी हुई रकम वाला भाव आ जाता है, उसके चेहरे पर भी वही भाव है। बहुत ही अच्छा बनाया है होटल नंदू ने। बेशक छोटा-सा है लेकिन उसमें पूरी मेहनत और कलात्मक अभिरुचि का पता चल रहा है। दुकान के बाहर ही बोर्ड लगा हुआ है - आउटडोर कैटेरिडग अंडर टेकन।
वेटर पानी रख गया है। मैं चाय का आर्डर देता हूं। चाय का पेमेंट करने के बाद मैं वेटर से कहता हूं कि ज़रा अपने साहब को बुला लाये। एक आउटडोर कैटरिडग का आर्डर देना है।
नंदू भीतर आया है। हाथ में मीनू कार्ड और आर्डर बुक है - कहिये साहब, कैसी पार्टी देनी है आपको? उसने बहुत ही आदर से पूछा है।
- बैठो। मैंने उसे आदेश दिया है।
उसके चेहरे का रंग बदला है और वह संकोच करते हुए बैठ गया है।
मैं अपने को भरसक नार्मल बनाये रखते हुए उससे पूछता हूं
- आपके यहां किस किस्म की पार्टी का इंतजाम हो सकता है?
वह आराम से बैठ गया है - देखिये साहब, हम हर तरह की आउटडोर कैटेरिंग के आर्डर लेते हैं। आप सिर्फ हमें ये बता दीजिये कि पार्टी कब, कहां और कितने लोगों के लिए होनी है। बाकी आप हम पर छोड़ दीजिये। मीनू आप तय करेंगे या..
वह अब पूरी तरह दुकानदार हो गया है - आप को बिलकुल भी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा। वेज, नॉन-वेज और आप जैसे खास लोगों के लिए हम ड्रिंक्स पार्टी का भी इंतजाम करते हैं।
तभी उसे ख्याल आता है - आप कॉफी लेंगे या ठंडा?
- थैंक्स। मैंने अभी ही चाय पी है।
- तो क्या हुआ? एक कॉफी हमारे साथ भी लीजिये। वह वेटर को दो कॉफी लाने के लिए कहता है और फिर मुझसे पूछता है
- बस, आप हमें अपनी ज़रूरत बता दीजिये। कब है पार्टी ?
- ऐसा है खुराना जी कि पार्टी तो मैं दे रहा हूं लेकिन सारी चीजें, मीनू, जगह, तारीख मेहमान आप पर छोड़ता हूं। सब कुछ आप ही तय करेंगे। मैं आपको मेहमानों की लिस्ट दे दूंगा। उनमें से कितने लोग शहर में हैं, ये भी आप ही देखेंगे और उन्हें आप ही बुलायेंगे और ....।
- बड़ी अजीब पार्टी है, खैर, आप फिक्र न करें। आप शायद बाहर से आये हैं। हम आपको निराश नहीं करेंगे। तो हम मीनू तय कर लें ..?
- उसकी कोई ज़रूरत नहीं है, आप बाद में अपने आप देख लेना।
मैं बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोक पा रहा हूं। नंदू को बेवकूफ बनाने में मुझे बहुत मज़ा आ रहा है। उसे समझ में नही आ रहा है कि ये पार्टी करेगा कैसे...।
कॉफी आ गयी है।
आखिर वह कहता है - आप कॉफी लीजिये और मेहमानों के नाम पते तो बताइये ताकि मैं उन्हें आपकी तरफ से इन्वाइट कर सकूं,.. या आप खुद इन्वाइट करेंगे? वह साफ-साफ परेशान नज़र आ रहा है।
- ऐसा है कि फिलहाल तो मैं अपने एक खास मेहमान का ही नाम बता सकता हूं। आप उससे मिल लीजिये, वही आपको सबके नाम और पते बता देगा। मैं उसकी परेशानी बढ़ाते हुए कहता हूं।
- ठीक है वही दे दीजिये। उसने सरंडर कर दिया है।
- उसका नाम है नंद लाल खुराना, कक्षा 7 डी, रोल नम्बर 27, गांधी स्कूल।
यह सुनते ही वह कागज पैन छोड़ कर उठ खड़ा हुआ है और हैरानी से मेरे दोनों कंधे पकड़ कर पूछ रहा है - आप .. आप कौन हैं ? मैं इतनी देर से लगातार कोशिश कर रहा हूं कि इस तरह की निराली पार्टी के नाम पर आप ज़रूर मुझसे शरारत कर रहे हैं। कौन हैं आप, ज़रूर मेरे बचपन के और सातवीं क्लास के ही दोस्त रहे होंगे..!
मैं मुस्कुरा रहा हूं - पहचानो खुद !
वह मेरे चेहरे-मोहरे को अच्छी तरह देख रहा है। अपने सिर पर हाथ मार रहा है लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा, मैं कौन हो सकता हूं।
वह याद करते हुए दो-तीन नाम लेता है उस वक्त की हमारी क्लास के बच्चों के। मैं इनकार में सिर हिलाता रहता हूं। उसकी परेशानी बढ़ती जा रही है।
अचानक उसके गले से चीख निकली है - आप .. आप गगनदीप, दीप.. दीपू..!
वह लपक कर सामने की कुर्सी से उठ कर मेरी तरफ आ गया है और ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए तपाक से मेरे गले से लग गया है। वह रोये जा रहा है। बोले जा रहा है - आप कहां चले गये थे। हमें छोड़ कर गये और एक बार भी मुड़ कर नहीं देखा आपने। सच मानिये, आपके आने से मेरे मन पर रखा कितना बड़ा बोझ उतर गया है। हम तो मान बैठे थे कि इस जनम में तो आपसे मिलना हो भी पायेगा या नहीं।
मैं भी उसके साथ सुबक रहा हूं। रो रहा हूं। अपने मन का बोझ हलका कर रहा हूं।
रोते रोते पूछता हूं - क्यों बे क्या बोझ था तेरे मन पर। और ये क्या दीप जी दीप जी लगा रखा है ?
- सच कह रहा हूं जब आप गये थे, तुम .. ..तू गया था तो हम सब के सब तेरे चारों तरफ भीड़ लगा कर खड़े थे। तुझे रोते-रोते सुबह से दोपहर हो गयी थी। हम सब बीच-बीच में घर जा कर खाना भी खा आये थे लेकिन तुझे खाने को किसी ने भी नहीं पूछा था। तेरे घर से तो खाना क्या ही आता। तेरे भाई भी तो वहीं खड़े थे। सिर्फ मैं ही था जो बिना किसी को बताये तेरे लिए खाने का इंतज़ाम कर सकता था। तेरे लिए अपने बाऊ की हट्टी से एक प्लेट छोले भटूरे ही ला देता। लेकिन हम सब बच्चों को जैसे लकवा मार गया था। हम बच्चे तेरे जाने के बाद बहुत रोये थे। तुझे बहुत दिनों तक ढूंढते रहे थे। बहुत दिनों तक तो हम खेलने के लिए बाहर ही नहीं निकले थे। एक अजीब सा डर हमारे दिलों में बैठ गया था।
हम दोनों बैठ गये हैं। नंदू अभी भी बोले जा रहा है - मुझे बाद में लगता रहा कि मार खाना तेरे लिए कोई नई बात नहीं थी। तेरे केस कटाने की वज़ह भी मैं समझ सकता था लेकिन मुझे लगता रहा कि सारा दिन भूखे रहने और घर वालों के साथ-साथ सारे दोस्तों की तरफ से भी परवाह न किये जाने के कारण ही तू घर छोड़ कर गया था। अगर हमने तेरे खाने का इंतज़ाम कर दिया होता और किसी तरह रात हो जाती तो तू ज़रूर रुक जाता। हो सकता है हमारी देखा-देखी कोई बड़ा आदमी ही बीच बचाव करके तुझे घर ले जाता। लेकिन आज तुझे इस तरह देख कर मैं बता नहीं सकता, मैं कितना खुश हूं। वैसे लगता तो नहीं, तूने कोई तकलीफ भोगी होगी। जिस तरह की तेरी पर्सनैलिटी निकल आयी है, माशा अल्लाह, तेरे आगे जितेन्दर-पितेन्दर पानी भरें।
उसने फिर से मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये हैं - मैं आपको बता नहीं सकता, आपको फिर से देख कर मैं कितना खुश हूं। वैसे कहां रहे इतने साल और हम गरीबों की याद इतने बरसों बाद कैसे आ गयी?
- क्या बताऊं। बहुत लम्बी और बोर कहानी है। न सुनने लायक, न सुनाने लायक। फिलहाल इतना ही कि अभी तो बंबई से आया हूं। दो दिन पहले ही आया हूं। कल और परसों के पूरे दिन तो घर वालों के साथ रोने-धोने में निकल गये। दारजी तेरे बारे में बता रहे थे कि तू यहीं है। सबसे पहले तेरे ही पास आया हूं कि तेरे ज़रिये सबसे मुलाकात हो जायेगी। बता कौन-कौन है यहां ?
- अब तो उस्ताद जी, सबसे आपकी मुलाकात ये नंद लाल खुराना, कक्षा 7 डी, रोल नम्बर 27, गांधी स्कूल ही कराएगा और एक बढ़िया पार्टी में ही करायेगा।
वह ज़ोर से हँसा है - अब आप देखिये, नंद लाल खुराना की कैटरिडग का कमाल। चल, बीयर पीते हैं और तेरे आने की सेलिब्रेशन की शुरूआत करते हैं।
- मैं बीयर वगैरह नहीं पीता।
- कमाल है। हमारा यार बीयर नहीं पीता। तो क्या पीता है भाई?
- अभी अभी तो चाय और कॉफी पी हैं।
- साले, शर्म तो आयी नहीं कि चाय का बिल पहले चुकाया और मुझे बाद में बुलवाया।
- मैं देखना चाहता था कि तू मुझे पहचान पाता है या नहीं। वैसे बता तो सही, यहां कौन-कौन हैं। यहां किस-किस से मुलाकात हो सकती है?
- मुलाकात तो बॉस, पार्टी में ही होगी। बोल कब रखनी है?
- जब मर्जी हो रख ले, लेकिन मेरी दो शर्तें हैं।
- तू बोल तो सही।
- पहली बात ये कि पार्टी मेरी तरफ से होगी और दूसरी बात यह कि सबको पहले से बता देना कि मेरे इन चौदह बरसों के बारे में मुझसे कोई भी किसी भी किस्म का सवाल नहीं पूछेगा। सबके लिए इतना ही काफी है कि मैं वापिस आ गया हूं, ठीक-ठाक हूं और फिलहाल किसी भी तरह की तकलीफ़ में नहीं हूं।
- दूसरी शर्त तेरी मंज़ूर लेकिन पार्टी तो मेरी ही तरफ से और मेरे ही घर पर होगी। परसों ठीक रहेगी?
- चलेगी। अब चलता हूं। सुबह से निकला हूं। बेबे राह देखती होगी।
- खाना खा कर जाना।
- फिर आऊंगा। अभी नहीं।
बेबे के पास बैठा हूं। मेरे लिए खास तौर पर बेबे ने तंदूर तपाया है और मेरी पसंद की प्याज वाली तंदूरी परौंठिया सेंक रही है। मैं वहीं बैठा परौंठियों के लिए आटे के पेड़े बनाने के चक्कर में अपने हाथ खराब कर रहा हूं।
तभी बेबे ने कहना शुरू किया है - वेख पुत्तरा, हुण तूं पुराणियां गल्ला भुला के ते इक कम कर। बेबे रुकी है और मेरी तरफ देखने लगी है। तंदूर की आग की लौ से उसका चेहरा एकदम लाल हो गया है।
मैं गरमागरम परौंठे का टुकड़ा मुंह में डालते हुए पूछता हूं - मैंनु दस ते सई बेबे, की करना है। हलका सा डर भी है मन में, पता नहीं बेबे क्या कह दे।
- तेरे दारजी कै रये सी कि हुण तां तैनूं कोई तकलीफ नईं होवेगी अगर तूं गुरूद्वारे विच जा के ते अमरित चख लै। रब्ब मेर करे, साडी वी तसल्ली हो जावेगी अते बिरादरी वी तैंनू फिर तों ...। बेबे ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया है।
मैं हंसता हूं - वेख बेबे, तेरी गल्ल ठीक है कि मैं अमरित चख के ते इक वार फिर सिखी धरम विच वापस आ जावां। त्वाडी वी तसल्ली हो जावेगी ते बिरादरी वी खुश हो जायेगी। अच्छा मैंनु इक गल्ल दस बेबे, इस अमरित चक्खण दे बाद मैंनू की करना होवेगा।
बेबे की आंखों में चमक आ गयी है। उसे विश्वास नहीं हो रहा कि मैं इतनी आसानी से अमरित चखने के लिए मान जाऊंगा - अमरित चखन दे बाद बंदा इक वारी फिर सुच्चा सिख बण जांदा ए। इस वास्ते केस, किरपाण, कछेहरा, कंघा अते किरपाण धारण करने पैंदे ने ते इसदे बाद कोई वी बंदा केसां दा अपमान नीं कर सकता, मुसलमानां ते हत्थ का कटेया मांस नीं खा सकता , दूजे दी वोटी दे नाल..
- रैण दे बेबे। मैं तैंनू दस देवां कि अमरित चक्खण दे बाद कीं होंदा है। मैं तैंनू पैली वारी दस रेंया हां कि मैं इन्ना सारियां चीजां नूं जितना मनदां हां ते जाणदा हां, उतना ते इत्थे दे गुरुद्वारे दे भाईजी वी नीं जाणदे होणगे।
- मैं समझी नीं पुत्त। बेबे हैरानी से मेरी तरफ देख रही है।
- हुण गल्ल निकली ई है तां सुण लै। मैं ए सारे साल मणिकर्ण ते अमरितसर दे गुरूद्वारेयां विच रै के कटे हन। तूं कैंवे ते मैं तैनूं पूरा दा पूरा गुरु ग्रंथ साहिब जबानी सुणा देवां। मैं नामकरण, आनंद कारज, अमरित चक्खण दियां सारियां विधियां करदा रेया हां। बेशक मैं कदी वी पूरे केस नीं रखे पर हमेशा फटका बन्न के रेया हां। गुरूग्रंथ साहिब दा पाठ करदा रेया हां। जित्थे तक अमरित चख के ते बिरादरी नूं खुश करण दी गल्ल है, मैं इसदी जरूरत नीं समझदा। बाकी मैं तैंनू विश्वास दिला दवां कि मैं केसां वगैरा दा वादा ते नीं कर सकता पर ऐ मेरे तों लिख के लै लै कि मैं कदी वी मीट नीं खावांगा, कदी खा के वी नीं वेखया, दूजे दी वोटी नूं अपणी भैण मन्नांगा, सिगरेट, शराब नूं कदी हत्थ नीं लावांगा। होर कुज..?
बेबे हैरानी से मेरी तरफ देखती रह गयी है। उसे कत्तई उम्मीद नहीं थी कि सच्चाई का यह रूप उसे देखने का मिलेगा। वह कुछ कह ही नही पायी है।
- लेकन पुत्तर , तेरे दारजी..बिरादरी..
- बिरादरी दी गल्ल रैण दे बेबे, मैं दो चार दिन्नां बाद चले जाणा ए। बिरादरी हुण मेरे पिच्छे पिच्छे बंबई ते नीं ना आवेगी। चल मैं तेरी इन्नीं गल्ल मन्न लैनां कि घर विच ई अस्सी अखण्ड पाठ रख लैंने हां। सारेयां दी तसल्ली हो जायेगी।
थोड़ी हील हुज्जत के बाद बेबे अखण्ड पाठ के लिए मान गयी है, लेकिन उसने अपनी यह बात भी मनवा ली है कि पाठ के बाद लंगर भी होगा और सारी बिरादरी को बुलवाया जायेगा।
मैंने इसके लिए हां कर दी है। बेबे की खुशी के लिए इतना ही सही। दारजी का मनाने का जिम्मा बेबे ने ले लिया है। वैसे उसे खुद भी विश्वास नहीं है कि दारजी को मना पायेगी या नहीं।
आज अखण्ड पाठ का आखिरी दिन है।
पिछले तीन दिन से पूरे घर में गहमागहमी है। पाठी बारी-बारी से आकर पाठ कर रहे हैं। बीच बीच में बेबे और दारजी की तसल्ली के लिए मैं भी पाठ करने बैठ जाता हूं। बेशक कई साल हो गये हैं दरबारजी के सामने बैठै, लेकिन एक बार बैठते ही सब कुछ याद आने लगा है। दारजी मेरे इस रूप को देख कर हैरान भी हैं और खुश भी।
बेबे ने आस-पास के सारे रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों को न्योता भेजा है। वैसे भी अब तक सारे शहर को ही खबर हो ही चुकी है। लंगर का इंतजाम कर लिया गया है। बेबे सब त्योहारों की भरपाई एक साथ ही कर देना चाहती है। मैंने बेबे को बीस हजार रुपये थमा दिये हैं ताकि वह अपनी साध पूरी कर सके। आखिर इस सारे इंतजाम में खरचा तो हो ही रहा है। उसकी खुशी में ही मेरी खुशी है। पहले तो बेबे इन पैसों को हाथ ही लगाने के लिए तैयार न हो लेकिन जब मैंने बहुत ज़ोर दिया कि तू ये सब मेरे लिए ही तो कर रही है तब उसने ले जाकर सारे पैसे दारजी को थमा दिये हैं। दारजी ने जब नोट गिने तो उनकी आंखें फटी रह गयी हैं। वैसे तो उन्होंने मेरे कपड़ों, सामान और उन लोगों के लिए लाये सामान से अंदाजा लगा ही लिया होगा कि मैं अब अच्छी खासी जगह पर पहुंच चुका हूं। बेबे से दारजी ने जरा नाराज़गी भरे लहजे में कहा है - लै तूं ई रख अपणे पुत्त दी पैली कमाई। मैं की करणा इन्ने पैसेंया दा।
मुझे खराब लगा है। एक तरफ तो वे मान रहे हैं कि उनके लिए ये मेरी पहली कमाई है और दूसरी तरफ उसकी तरफ ऐसी बेरुखी। बेबे बता रही थी कि आजकल दारजी का काम मंदा है। गोलू और बिल्लू मिल कर तीन चार हजार भी नहीं लाते और उसमें से भी आधे तो अपने पास ही रख लेते हैं।
अरदास हो गयी है और कड़ाह परसाद के बाद अब लोग लंगर के लिए बैठने लगे हैं। मुझे हर दूसरे मिनट किसी न किसी बुजुर्ग का पैरी पौना करने के लिए कहा जा रहा है। कोई दूर का फूफा लगता है तो कोई दूर का मामा ताया.... कोई बेबे को सुनाते हुए कह रहा है - नीं गुरनाम कोरे, हुण तेरा मुंडा दोबारा ना जा सके इहदा इंतजाम कर लै। कोई चंगी जई कुड़ी वेख के इन्नू रोकण दा पक्का इंतजाम कर लै, तो कोई जा के दारजी को चोक दे रहा है - ओये हरनामेया... इक कम्म तां तू ऐ कर कि इन्नू अज ही अज इन्नू इत्थे ई रोकण दा इंतजाम कर लै।
दारजी को मैं पहली बार हंसते हुए देख रहा हूं - फिकर ना करो बादशाहो ... दीपू नूं रोकण दा अज ही अज पक्का इंतजाम है।
मुझे समझ में नहीं आ रहा कि ये सब हो क्या रहा है। मुझे रोकने वाली बात समझ में नहीं आ रही।
मुझे लग रहा है कि इस अखण्ड पाठ के ज़रिये कोई और ही खिचड़ी पक रही है। तभी बेबे एक बुजुर्ग सरदारजी को लेकर मेरे पास आयी है और बहुत ही खुश हो कर बता रही है - सत श्री अकाल कर इन्ना नूं पुत्तर। अज दा दिन साडे लई किन्ना चंगा ऐ कि घर बैठे दीपू लई इन्ना सोणा रिश्ता आया ए..। मैं ते कैनी आं भरा जी, तुसी इक अध दिन इच दीपे नूं वी कुड़ी विखाण दा इंतजाम कर ई देओ।
- जो हुकम भैणजी, तुसी जदो कओ, असी त्यार हां। बाकी साडा दीपू वल के आ गया ए, इस्तों वड्डी खुशी साडे लई होर की हो सकदी है।
- ये मैं क्या सुन रहा हूं। ये कुड़ी दिखाने का क्या चक्कर है भई। बेबे या दारजी इस समय सातवें आसमान पर हैं, उन्हें वहां से न तो उतारना संभव है और न उचित ही। पता तो चले, कौन हैं ये बुजुर्ग और कौन है इसकी लड़की । .... कमाल है .. ..मुझसे पूछा न भाला, मेरी सगाई की तैयारियां भी कर लीं। अभी तो मुझे यहां आये चौथा दिन ही हुआ है और इन्होंने अभी से मुझे नकेल डालनी शुरू की दी। कम से कम मुझसे पूछ तो लेते कि मेरी भी क्या मर्जी है। कुछ न कुछ करना होगा.. जल्दी ही, ताकि वक्त रहते बात आगे बढ़ने से पहले ही संभाली जा सके।
pइस वक्त मेरा सारा ध्यान उस करतार सिहां की तरफ है जो अपनी लड़की मेरे पल्ले बांधने की पूरी योजना बना कर आया हुआ है। अच्छा ही है कि आज मैं नंदू के साथ बाहर निकल जाऊंगा, नहीं तो वो मुझे अपने सवालों से कुरेद - कुरेद कर छलनी कर देगा। कैसे शातिराना अंदाज पूछ रहा था - बंबई विच तुसीं कित्थे रैंदे हो और घर बार दा की इंतजाम कित्ता होया ए तुसी..? जैसे मैं बंबई से उसकी दसवीं या नौंवी पास लड़की से रिश्ता तय करने के लिए यहां आया हूं न बात न चीत, निकाल के पांच सौ एक रुपये मेरी तरफ बढ़ा दिये - ऐ रख लओ तुसी..।
क्यों रख ले भई, कोई वजह भी तो हो पैसे रख लेने की। मेरा दिमाग बुरी तरह भन्ना रहा है। हमारी बेबे भी जरा भी नहीं बदली.. उसका काम करने का वही पुराना तरीका है। अपने आप ही सब कुछ तय किये जाती है। लेकिन इस मामले में तो दोनों की मिली भगत ही लग रही है मुझे..!
मै दारजी को न तब समझ पाया था और न अब समझ पा रहा हूं। हालांकि जब से आया हूं उनका गुस्सा तो देखने में नहीं आया है लेकिन जैसे बहुत खुश भी नहीं नज़र आते। अपना काम करते रहते हैं या इधर उधर निकल जाते हैं और घंटों बाद वापिस आते हैं। मुझसे भी जो कुछ कहना होता है बेबे के जरिये ही कहते हैं - दारजी ए कै रये सन या दारजी पुछ रये सन....।
हिसाब लगाता हूं दारजी अब पचपन-छप्पन के तो हो ही गये होंगे। अब उमर भी तो हो गयी है। आदमी आखिर सारी ज़िंदगी अपनी जिद लेकर लड़ता झगड़ता तो नहीं रह सकता.. आदमी मेहनती हैं और पूरे घर का खर्च चला ही रहे हैं। गुड्डी की पढ़ाई है। गोलू, बिल्लू ने भी अभी ढंग से कमाना शुरु नहीं किया है। ऐसा तो नहीं हो सकता कि मेरे आने से दारजी को खुशी न हुई हो। लगता तो नहीं है, लेकिन वे जाहिर ही नहीं होने देते कि उनके मन में क्या है। जब भी उनके पास बैठता हूं, एकाध छोटी मोटी बात ही पूछते रहे हैं - बंबई में सुना है, मकान बहुत मुश्किल से मिलते हैं। खाने-वाने की भी तकलीफें होंगी। क्या इस तरफ ट्रांसफर नहीं हो सकता....। और इसी तरह की दूसरी बातें।
कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा.... किसकी मदद ली जाये....कोई भी तो यहां मेरा राज़दार नहीं है। सभी कटे-कटे से रहते है। गोलू बिल्लू भी मुझे ऐसे देखते हैं मानो मैं उनका बड़ा भाई न होकर दुश्मन सरीखा होऊं। जैसे मैं उनका कोई हक छीनने आ गया होऊं। पहले ही दिन तो गले मिल मिल कर रोये थे और दो-चार बातें की थीं, उनमें भी अपनी परेशानियां ज्यादा बता रहे थे। उसके बाद तो मेरे साथ बैठ कर बातें करते ही नहीं हैं।
जब से मैं आया हूं, गुड्डी ही सबसे ज्यादा स्नेह बरसा रही है मुझ पर। जब भी बाहर से आती है, उसके साथ एक न एक सहेली ज़रूर ही होती है जिससे वह मुझसे मिलवाना चाहती है।
उसी को घेरता हूं।
उसने मेरा लाया नया सूट पहना हुआ है। लेकिन चप्पल उसके पास पुराने ही हैं। यही तरीका है उसे घर से बाहर ले जाने का और पूरी बात पूछने का।
उसे बुलाता हूं - गुड्डी, जरा बाजार तक चल, मुझे एक बहुत ज़रूरी चीज़ लेनी है। जरा तू पसंद करा दे।
- क्या लेना है वीर जी, वह बड़ी-बड़ी आंखों से मेरी तरफ़ देखती है।
- तू चल जो सही। बस दो मिनट का ही काम है।
- अभी आयी वीर जी, जरा बेबे को बता हूं आपके साथ जा रही हूं।
रास्ते में पहले तो मैं उससे इधर-उधर की बातें कर रहा हूं। उसकी पढ़ाई की, उसकी सहेलियों की और उसकी पसंद की। बेचारी बहुत भोली है। सारा दिन फिरकी की तरफ घर में घूमती रहती है। स्वभाव की बहुत ही शांत है। आजकल मेरे लिए स्वेटर बुन रही है। अपने खुद के पैसों से ऊन लायी है..। मेरी सेवा तो इतने जतन से कर रही है कि जैसे इन सारे बरसों की सारी कसर एक साथ पूरी करना चाहती हो। जूतों की दुकान में मैं सेल्समैन को उसके लिए कोई अच्छे से सैंडिल दिखाने के लिए कहता हूं।
गुड्डी बिगड़ती है - ये क्या वीर जी, आप तो कह रहे थे कि आप को अपने लिए कुछ चाहिये और यहां ... मेरे पास हैं ना..
- तू चुप चाप अपने लिए जो भी पसंद करना है कर, ज्यादा बातें मत बना।
- सच्ची, वीरजी, जब से आप आये हैं, हम लोगों पर कितना खर्च कर रहे हैं ..
- ये सब सोचना तेरा काम नहीं है।
गुड्डी की शापिंग तो करा दी है लेकिन मैं तय नहीं कर पर रहा हूं कि जो सवाल उससे पूछना चाहता हूं, कैसे पूछूं।
हम वापिस भी चल पड़े हैं। अभी दो मिनट में ही अपनी गली में होंगे और मेरा सवाल फिर रह जायेगा।
उससे कहता हूं - गुड्डी, बता यहां गोलगप्पे कहां अच्छे मिलते हैं, वहां तो आदमी इन चीजों के लिए तरस जाता है।
वह झांसे में आ गयी है।
आपको इतने शानदार गोलगप्पे खिलाऊंगी कि याद रखेंगे। हमारा पैट गोलगप्पे वाला है कैलाश.।
- कहां है तुम्हारे कैलाश का गोलगप्पा पर्वत..?
- बस, पास ही है।
- वैसे गुड्डी बीए के बाद तेरा क्या करने का इरादा है। मैं भूमिका बांधता हूं।
- मैं तो वीरजी, एमबीए करना चाहती हूं। लेकिन एमबीए के लिए किसी बड़े शहर में हॉस्टल में रहना, कहां मानेंगे मेरी बात ये लोग? आपको तो पता ही है दारजी बीए के लिए भी कितनी मुश्किल से राजी हुए थे।
- चल तेरी ये जिम्मेवारी मेरी। तू बीए में अच्छे मार्क्स ले आ तो एमबीए तुझे बंबई से ही करा दूंगा। मेरा भी दिल लगा रहेगा। मेरा खाना भी बना दिया करना।
- सच वीर जी, आप कितने अच्छे हैं, आज आप कितनी अच्छी अच्छी खबरें सुना रहे है। चलिये, गोलगप्पे मेरी तरफ से। लेकिन मैं आपका खाना क्यों बनाने लगी। आयेगी ना हमारी भाभी....।
अब सही मौका है .. मैं पूछ ही लेता हूं - अच्छा गुड्डी, बताना, ये जो करतार सिहं वगैरह आये थे सवेरे, क्या चक्कर है इनका, मैं तो परेशान हो रहा हूं।
- कोई चक्कर नहीं है वीर जी, हमारे लिए भाभी लाने का इंतजाम हो रहा है।
- लेकिन गुड्डी, ऐसे कैसे हो सकता है?
- तू खुद सोच, मैं अपनी पढ़ाई-लिखाई को थोड़ी देर के लिए एक तरफ रख भी दूं, अपनी अफसरी को भी भूल जाऊं, लेकिन ये तो देखना ही चाहिये ना कि कौन लोग हैं, क्या करते हैं, लड़की क्या करती है, मेरे साथ देस परदेस में उसकी निभ पायेगी या नहीं, कई बातें सोचनी पड़ती हैं, मैं अकेले रहते रहते थक गया था गुड्डी, इसलिए घर वापिस आ गया हूं लेकिन इतना वक्त तो लेना ही चाहिये कि पहले मेरे घर वाले ही मुझे अच्छी तरह से समझ लें।
- आपकी बात ठीक है वीर जी, लेकिन बेबे और दारजी का कुछ और ही सोचना है। अभी परसों की बात है, आप कहीं बाहर गये हुए थे। मैं दारजी के लिए रोटी बना रही थी। बेबे भी वहीं पास ही बैठी थी। तभी आपकी बात चल पड़ी। वैसे तो जब से आप आये हैं, घर में आपके अलावा और कोई बात होती ही नहीं, तो दारजी बेबे से कह रहे थे - कुछ ऐसा इंतजाम किया जाये कि अब से दीपू का घर में आना जाना छूटे नहीं। कहीं ऐसा न हो कि आज आया है फिर अरसे तक आये ही नहीं।
- तो ?
- बेबे बोली फिर - इसका तो एक ही इलाज है कि कोई चंगी सी कुड़ी वेख के दीपे की सगाई कर देते हैं। शादी बेशक साल छः महीने बाद भी कर सकते हैं, लेकिन यहीं सगाई हो जाने से उसके घर से बंधे रहने का एक सिलसिला बन जायेगा।
- तो दारजी ने क्या कहा..?
- दारजी ने कहा - लेकिन इतनी जल्दी लड़की मिलेगी कहां से..?
- तो बेबे बोली - उसकी चिंता मुझ पे छोड़ दो। मेरे दीपू के लिए अपनी ही बिरादरी में एक से एक शानदार रिश्ते मिल जायेंगे। जब से दीपू आया है, अच्छे अच्छे घरों के कई रिश्ते आ चुके हैं। मैं ही चुप थी कि बच्चा कई सालां बाद आया है, कुछ दिन आराम कर ले। कई लोग तो हाथों हाथ दीपू को सर आंखों पर बिठाने वाले खड़े हैं।
- अच्छा तो ये बात है। सारी प्लैनिंग मुझे घेरने के लिए बनायी जा रही है। मेरी आवाज में तीखापन आ गया है।
- नहीं वीरजी यह बात नहीं है .. लेकिन .. गुड्डी घबरा गयी है। उसे अंदाजा नहीं था कि उसकी बतायी बात से मामला इस तरह से बिगड़ जायेगा।
- अच्छा एक बात बता। उसका मूड ठीक करने करने के लिहाज से मैं पूछता हूँ - ये करतार जी करते क्या हैं और इनकी कुड़ी क्या करती है। जानती है तू उसे?
- बहुत अच्छी तरह से तो नहीं जानती, ये लोग धर्म पुर में रहते हैं। शायद दसवीं करके सिलाई कढ़ाई का कोर्स किया था उसने।
- तू मिली है उससे कभी?
- पक्के तौर तो नहीं कह सकती कि वही लड़की है।
- खैर जाने दे, ये बता ये सरदारजी क्या करते हैं..?
- उनकी पलटन बाजार में बजाजी की दुकान है..।
- कहीं ये खालसा क्लॉथ शाप वाले करतार तो नहीं? मुझे याद आ गया था कि इन्हें मैंने बचपन में किस दुकान पर बैठे देखा था। मैं तब से परेशान हो रहा था कि इस सरदार को कहीं देखा है लेकिन याद नहीं कर पा रहा था।
गुड्डी के याद दिलाने से कन्फर्म हो गया है।
मैं गुड्डी का कंधा थपथपाता हृं ।
- लेकिन वीरजी, आपको एक प्रॉमिस करना पड़ेगा, आप किसी को बतायेंगे नहीं कि मैंने आपको ये सारी बातें बतायी हैं।
- गाड प्रॉमिस, धरम दी सौं बस। मुझे बचपन का दोस्तों के बीच हर बात पर कसम खाना याद आ गया है - वैसे एक बात बता, तू चाहती है कि मेरा रिश्ता इस करतार सिंह की सिलाई-कढ़ाई करने और तकिये के गिलाफ काढ़ने वाली अनजान लड़की से हो जाये। देख, ईमानदारी से बतायेगी तो आइसक्रीम भी खिलाऊंगा।
हंसी है गुड्डी - रिश्वत देना तो कोई आपसे सीखे वीरजी, जरा सी बात का पता लगाने के लिए आप इतनी सारी चीजें तो पहले ही दिलवा चुके है। मेरी बात पूछो तो मुझे ये रिश्ता कत्तई पसंद नहीं है। हालांकि मैंने अपनी होने वाली भाभी को नहीं देखा है, लेकिन ये मैच जमेगा नहीं। पता नहीं क्यों मेरा मन नहीं मान रहा है लेकिन आप तो जानते ही हैं, दारजी और बेबे को।
- ओये पगलिये, अभी तुझे तेरी होने वाली भाभी से मिलवाता हूं।
उसके मन का बोझ दूर हो गया है लेकिन मेरी चिंता बढ़ गयी है। अब इस मोर्चे पर भी अपनी सारी शक्ति लगा देनी पड़ेगी। पता नहीं दारजी और बेबे को समझाने के लिए क्या करना पड़ेगा।
हम घर की तरफ लौट रहे हैं तभी गुड्डी पूछती है - वीरजी, कभी हमें भी बंबई बुलायेंगे ना.. मेरा बड़ा मन होता है ऐक्टरों और हीरोइनों को नजदीक से देखने का। सुना है वहां ये लोग वैसे ही घूमते रहते हैं..और अपनी सारी शॉपिंग खुद ही करते हैं। वह लगातार बोले चली जा रही है - आपने कभी किसी ऐक्धटर को देखा है।
मैं झल्ला कर पूछता हूं - पूरे हो गये तेरे सवाल या कोई बाकी है?
- वीरजी, आप तो बुरा मान गये। कोई बंबई आये और अपनी पसंद के हीरो से न मिले तो इत्ती दूर जाने का मतलब ही क्या....?
- तो सुन ले मेरी भी बात .. तुझे अगर जो मेरे पास आना है तो
तू अभी चली चल मेरे साथ। मैं भी तेरे साथ ही बंबई देख लूंगा। और जहां तक तेरे एक्टरों का सवाल है, वो मेरे बस का नहीं। मुझे वहां अपनी तो खबर रहती नहीं, उनकी खोज खबर कहां से रखूं...।
लौट रहा हूं वापिस। एक बार फिर घर छूट रहा है..। अगर मुझे ज़रा-सा भी आइडिया होता कि मेरे यहां आने के पांच-सात दिन के भीतर ही ऐसे हालात पैदा कर दिये जायेंगे कि मैं न इधर का रहूं और न उधर का तो मैं आता ही नहीं।
यहां तो अजीब तमाशा खड़ा कर दिया है दारजी ने। कम से कम इतना तो देख लेते कि मैं इतने बरसों के बाद घर वापिस आया हूं। मेरी भी कुछ आधी-अधूरी इच्छायें रही होंगी, मैं घर नाम की जगह से जुड़ाव महसूस करना चाहता होऊंगा। चौदह बरसों में आदमी की सोच में ज़मीन-आसमान का फ़र्क आ जाता है और फिर मैं कहीं भागा तो नहीं जा रहा था। दारजी तो बस, अड़ गये - तुझे शादी तो यहीं करतारे की लड़की से ही करनी पड़ेगी। मैं कौल दे चुका हूं। दारजी का कौल सब कुछ और मेरी ज़िंदगी कुछ भी नहीं। अजीब धौंस है। उन्हें पता है, मैं उनके आगे कुछ भी नहीं कह पाऊंगा तो मेरी इसी शराफ़त का फायदा उठाते हुए म़ुझे हुक्म सुना दिया - शाम को कहीं नहीं जाना, हम करतारे के घर लड़की देखने जा रहे हैं। मैंने जब बेबे के आगे विरोध करना चाहा, तो दारजी बीच में आ गये - बेबे को बीच में लाने की ज़रूरत नहीं है बरखुरदार, यह मर्दों की बात है। हम सब कुछ तय कर चुके हैं। सिर्फ तुझे लड़की दिखानी है ताकि तू ये न कहे, देखने-भालने का मौका ही नहीं दिया। वैसे उनका घर-बार हमारा देखा भाला है..। पिछली तीन पीढ़ियों से एक-दूसरे को जानते हैं। संतोष को भी तेरी बेबे ने देखा हुआ है।
यह हुक्मनामा सुना कर दारजी तो साथ जाने वाले बाकी रिश्तेदारों को खबर करने चल दिये और मैं भीतर-बाहर हो रहा हूं। बेबे मेरी हालत देख रही है। जानती भी है कि मैं इस तरह से तो शादी नहीं ही कर पाऊंगा। परसों रात भी मैंने बेबे को समझाने की कोशिश की थी कि अभी मैं इस तरह की दिमागी हालत में नहीं हूं कि शादी के बारे में सोच सकूं और फिर बंबई में मेरे पास अपने ही रहने का ठिकाना नहीं है, आने वाली को कहां ठहराउंगा, तो बेबे अपने रोने सुनाने लगी - तूं इन्ने चिरां बाद आया हैं। सान्नू इन्नी साध तां पूरी कर लैंणे दे कि अपणे होंदेयां तेरी वोटी नूं वेख लइये।
मैंने समझाया - वेख बेबे, तेनू नूं दा इन्ना ई शौक है तां बिल्लू ते गोलू दोंवां दा वया कर दे। तेरियां दो दो नूंआ तेरी सेवा करन गी।
- पागल हो गया हैं वे पुत्तर, वड्डा भरा बैठा होवे ते छोटेयां दे बारे विच सोचेया वी नीं जा सकदा पुत्तर। तू कुड़ी तां वेख लै। अस्सी सगन लै लवां गे। शादी बाद विच होंदी रऐगी। पर तूं हां तां कर दे। जिद नीं करींदी। मन जा पुत्त।
मैं नहीं समझा पा रहा बेबे को। जब बेबे के आगे मेरी नहीं चलती तो दारजी के आगे कैसे चलेगी।
ठंडे दिमाग से कुछ सोचना चाहता हूं।
मैं बेबे से कहता हूं - ज़रा घंटाघर तक जा रहा हूं, कुछ काम है, अभी आ जाऊंगा, तो बेबे आवाज लगाती है - छेत्ती आ जाईं पुत्तरा।
मैं निकलने को हूं कि गुड्डी की आवाज आती है - वीरजी, मैं भी कॉलेज जा रही हूं। पलटन बाज़ार तक मैं भी आपके साथ चलती हूं।
- चल तू भी। कहता हूं उससे।
- बहुत परेशान हैं, वीरजी ?
- कमाल है, यहां मेरी जान पर बन रही है और तू पूछ रही है परेशान हूं। तू ही बता, क्या सही है दारजी और बेबे का ये फैसला....।
- वीर जी, बात सिर्फ आपकी जान की नहीं है, किसी और को भी बली का बकरा बनाया जा रहा है। उसकी तो किसी को परवाह ही नहीं है।
- क्या मतलब? और किस को बलि का बकरा बनाया जा रहा है?
वह रुआंसी हो गयी है।
- तू बोल तो सही, मामला क्या है ?
- यहीं राह चलते बताऊं क्या ?
- अच्छा, यह बात है, बोल कहां चलना है। लग रहा है मामला कुछ ज्यादा ही सीरियस है।
- इस शहर की यही तो मुसीबत है कि कहीं बैठने की ढंग की जगह भी नहीं है।
- चल, नंदू के रेस्तरां में चलते हैं। वहां फैमिली केबिन है। वहां कोई डिस्टर्ब भी नहीं करेगा।
नंदू कहीं काम से गया हुआ है, लेकिन उसका स्टाफ मुझे पहचानने लगा है..। सब नमस्कार करते हैं। मैं बताता हूं - ये मेरी छोटी बहन है। हम बात कर रहे हैं। कोई डिस्टर्ब न करे!
- हां अब बता, क्या मामला है, और तेरी ये आंखें क्यों भरी हुई हैं, पहले आंसू पोंछ ले, नहीं तो चाय नमकीन लगेगी।
- यहां किसी की जान जा रही है और आप को मज़ाक सूझ रहा है वीर जी।
- तू बात भी बतायेगी या पहेलियां ही बुझाती रहेगी, बोल क्या बात है...।
- कल रात जब आप नंदू वीरजी के घर गये हुए थे तो बेबे और दारजी बात कर रहे थे। उन्होंने समझा, मैं सो गयी हूं, लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। तभी दारजी ने बेबे को बताया - करतारे ने इशारा किया है कि वो सगाई पर पचास हजार नकद, सारे रिश्तेदारों को सगन और हमें गरम कपड़े वगैरह देगा और शादी के मौके पर दीपू के लिए मारूति कार और चार लाख नकद देगा।
- अच्छा तो यह बात है।
- टोको नहीं बीच में। पूरी बात सुनो।
- सॉरी, तो बेबे ने क्या कहा?
- बेबे ने कहा कि हमारी किस्मत चंगी है जो दीपू इन्ने चंगे मौके पर आ गया है। हमारे तो भाग खुल गये।
- तो दारजी कहने लगे - दीपू की शादी के लिए तो हमें कुछ खास करना नहीं पड़ेगा। उसके पास बहुत पैसा है। आखिर अपनी शादी पर खरच नहीं करेगा तो कब करेगा। ये पचास हजार ऊपर एक कमरा बनाने के काम आ जायेंगे। बाकी करतारा शादी के वक्त तो जो पैसे देगा, वो पैसे गुड्डी के काम आ जायेंगे। साल छः महीने में उसके भी हाथ पीले कर देने हैं। उसके लिए भी एक दो लड़के हैं मेरी निगाह में.. ।
यह कहते हुए गुड्डी रोने लगी है - मेरी पढ़ाई का क्या होगा वीरजी, मुझे बचा लो वीर जी, मैं बहुत पढ़ना चाहती हूं। आप तो फिर भी अपनी बात मनवा लेंगे। मेरी तो घर में कोई सुनता ही नहीं।
- मुझे नहीं मालूम था गुड्डी, मामला इतना टेढ़ा है। कुछ न कुछ तो करना ही होगा।
- जो कुछ भी करना है, आज ही करना होगा, कहीं शाम को सब लोग पहुंच गये लड़की देखने तो बात लौटानी मुश्किल हो जायेगी।
- क्या करें फिर..?
- आप क्या सोचते हैं ?
- देख गुड्डी, तेरी पढ़ाई तो पूरी होनी ही चाहिये। तेरी पढ़ाई और शादी की जिम्मेवारी मैं लेता हूं। तुझे हर महीने तेरी ज़रूरत के पैसे भेज दिया करूंगा। तेरी शादी का सारा खर्चा मैं उठाऊंगा। तू बेफिकर हो कर कॉलेज जा। पढ़ाई में मन लगा। बाकी मैं देखता हूं। दारजी और बेबे को समझाता हूं।
मैं जेब से पर्स निकालता हूं - ले फिलहाल हज़ार रुपये रख। बंबई से और भेज दूंगा, और ये रख मेरा कार्ड। काम आयेगा..।
गुड्डी फिर रोने लगी है - क्या मतलब वीरजी, आप.... आप.. ये सब क्या कह रहे हैं और ये पैसे क्यों दे रहे हैं। आपके दिये कितने सारे पैसे मेरे पास हैं।
- देख, अगर दारजी और बेबे न माने तो मेरे पास यही उपाय बचता है कि मैं शाम होने से पहले ही बंबई लौट जाऊं। इस सगाई को रोकने का और कोई तरीका नहीं है। जिस तरह मेरे आने के दूसरे दिन से ही ये षडयंत्र शुरू हो गये हैं, मैं इनसे नहीं लड़ सकता। मैं यहां अपने घर वापिस आया था कि अकेले रहते-रहते थक गया था और यहां तो ये और ही मंसूबे बांध रहे हैं।
गुड्डी मेरी तरफ देखे जा रही है।
- देख गुड्डी, मेरे आने से एक ही अच्छा काम हुआ है कि तू मुझे मिल गयी है। बाकी सब कुछ वैसा ही है जैसा मैं छोड़ गया था। न दारजी बदले हैं और न बेबे। देख, तू घबराना नहीं। मैं खुद अपने आंसू रोक नहीं पा रहा हूं लेकिन उसे चुप करा रहा हूं - हो सकता है शाम को तू जब कॉलेज से वापिस आये तो मैं मिलूं ही नहीं तुझे।
गुड्डी रोये जा रही है। हिचकियां ले ले कर। उसके लिए और पानी मंगाता हूं, फिर समझाता हूं - तू इस तरह से कमज़ोर पड़ जायेगी तो अपनी लड़ाई किस तरह से लड़ेगी पगली, चल मुंह पोंछ ले और दुआ कर कि बेबे और दारजी को अक्कल आये और वे हमारी सौदेबाजी बंद कर दें।
- आप सचमुच चले जायेंगे वीरजी ...?
- यहां रहा तो मैं न ख्दा को बचा पाऊंगा न तुझे। तू ही बता क्या करूं ....?
- आपके आने से मैं कितना अच्छा महसूस कर रही थी। आपने मुझे ज़िंदगी के नये मानी समझाये। अब ये नरक फिर मुझे अकेले झ्टालना पड़ेगा। ऐनी वे, गुड्डी ने अचानक अंासू पोंछ लिये हैं और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया है - आल द बेस्ट वीरजी, आप कामयाब हों। गुड लक.. ..। उसने बात अधूरी ही छोड़ दी है और वह तेजी से केबिन से निकल कर चली गयी है। मैं केबिन के दरवाजे से उसे जाता देख रहा हूं .. एक बहादुर लड़की की चाल से वह चली जा रही है। उसे जाता देख रहा हूं, और बुदबुदाता हूं - बेस्ट विशेज की तो तुझे ज़रूरत थी पगली, तू मुझे दे गयी ......।
मुझे नहीं पता, अब गुड्डी से फिर कब मुलाकात होगी!! पता नहीं होगी भी या नहीं उससे मुलाकात !!
घर पहुंचा तो दारजी वापिस आ चुके हैं। अब तो उन्हें देखते ही मुझे तकलीफ़ होने लगी है। कोई भी मां-बाप अपने बच्चे के इतने दुश्मन कैसे हो जाते हैं कि अपने स्वार्थ के लिए उनकी पूरी ज़िंदगी उजाड़ कर रख देते हैं। इनकी ज़रा-सी जिद के कारण मैं कब से बेघर-बार सा भटक रहा हूं और जब मैं अपना मन मार कर किसी तरह घर वापिस लौटा तो फिर ऐसे हालात पैदा कर रहे हैं कि पता नहीं अगले आधे घंटे बाद फिर से ये घर मेरा रहता है या नहीं, कहा नहीं जा सकता।
इनको अच्छी तरह से पता है कि गुड्डी पढ़ना चाहती है, लेकिन उस बेचारी के गले में अभी से घंटी बांधने की तैयारी चल रही है और इंतज़ाम भी क्या बढ़िया सोचा है कि एक बेटे की शादी में दहेज लो और अपनी लड़की की शादी में वही दहेज देकर दूसरे का घर भर दो। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा कि चीज़ें किस तरह से मोड़ लेंगी और क्या बनेगा इस घर का।
मैं यही सोचता अंदर-बाहर हो रहा हूं कि दारजी टोक देते हैं
- क्या बात है बरखुरदार, बहुत परेशान नज़र आ रहे हो? मामला क्या है ?
- मामला तो आप ही का बनाया बिगाड़ा हुआ है दारजी। कम से कम मुझसे पूछ तो लिया होता कि मैं क्या चाहता हूं। मुझे अभी आये चार दिन भी नहीं हुए और.. .. मेरी नाराज़गी आखिर हौले-हौले बाहर आ ही गयी है।
- देख भई दीपेया, हम जो कुछ भी कर रहे हैं तेरे और इस घर के भले के लिए ही कर रहे हैं। हम तो चाहते हैं कि तेरा घर-बार बस जाये तो हम बाकी बच्चों की भी फिकर करें। अब इतना अच्छा रिश्ता.....!
- दारजी, ये रिश्ता तो न हुआ। ये तो सौदेबाजी हुई। मैं किसी तरह हिम्मत जुटा कर कहता हूं।
- कैसी सौदे बाजी ओये....?
- क्या आप इस रिश्ते में नकद पैसे नहीं ले रहे ?
- तो क्या हुआ, दारजी ने गरम होना शुरू कर दिया है।
- तुझे पता नहीं है, आजकल पढ़ा लिखा लड़का किसी को यूं ही नहीं मिल जाता। समझे.. और तेरे जैसा लड़का तो उन्हें दस लाख में भी न मिलता। हम तो शराफत से उतना ही ले रहे हैं जितना वे खुशी से अपनी लड़की को दे रहे हैं। हमने कोई डिमांड तो नहीं रखी है।
- ये मेरी सौदेबाजी नहीं है तो क्या है दारजी...?
- ओये चुप कर बड़ा आया सौदेबाजी वाला ... दारजी अब अपने पुराने रूप में आने लगे हैं और मेरे सिर पर आ खड़े हुए हैं - तू एक बात बता। कल को गुड्डी के भी हाथ पीले करने हैं कि नहीं। तब कौन से धरम खाते से पैसे निकाल कर लड़के वालों के मुंह पर मारूंगा। बता जरा...?
- गुड्डी की जिम्मेवारी मेरी। अभी वो पढ़ना चाहती है।
- तो उसने आते ही तेरे कान भर दिये हैं। कोई ज़रूरत नहीं है उसे आगे पढ़ाने की। ठीक है संभाल लेना उसकी जिम्मेवारी। आखिर तेरी छोटी बहन है। तेरा फ़रज बनता है। बाकी यहां तो हम कौल दे चुके हैं। शादी बेशक साल दो साल बाद करें। मुझे तो सबका देखना है। उधर गोलू बिल्लू एकदम तैयार बैठे हैं और उन्होंने अपनी तरफ से पहले ही अल्टीमेटम दे दिया है।
उन्होंने अपना आखिरी फैसला सुना दिया है - तू शाम को घर पर ही रहना। इधर-उधर मत हो जाना। सारी रिश्तेदारी आ रही है। चाहे तो नंदू को साथ ले लेना।
इसका मतलब ये लोग अपनी तरफ से मेरे और कुछ हद तक गुड्डी के भाग्य का फैसला कर ही चुके हैं। मैं भी देखता हूं, कैसे सगाई करते हैं संतोष कौर से मेरी...।
उन्हें नहीं पता कि जो बच्चा एक बार घर छोड़ कर जा सकता है, दोबारा भी जा सकता है। मैं अपने साथ दो-चार जोड़ी कपड़े ही लेकर आया था। यहां छूट भी जायें तो भी कोई बात नहीं। गोलू बिल्लू पहन लेंगे। बैग भी उनके काम आ जायेगा। रास्ते में रेडीमेड कपड़े और दूसरा सामान खरीद लूंगा।
पहली बार खाली पेट घर छूटा था, अब बेबे से कहता हूं - बेबे, जरा छेती नाल दो फुलके तां सेक दे। बजार जा के इक अध नवां जोड़ा तां लै आवां। बेबे को तसल्ली हुई है कि शायद मामला सुलट गया है। मैं बेबे के पास रसोई में ही बैठ कर रोटी खाता हूं। भूख न होने पर भी दो-एक रोटी ज्यादा ही खा लेता हूं। पता नहीं फिर कब बेबे के हाथ की रोटी नसीब हो। उठते समय बेबे के घुटने को छूता हूं। पता नहीं, फिर कब बेबे का आशीर्वाद मिले। पूरे घर का एक चक्कर लगाता हूं। रंगीन टीवी तो रह ही गया। नंदू के घर की पार्टी भी रह गयी। हालांकि इस बीच कई यार दोस्त आ कर मिल गये हैं लेनि सबसे एक साथ मिलना हो जाता।
घर से बाहर निकलते समय मैं एक बार फिर बेबे को देखता हूं। वह अब दारजी के लिए फुलके सेक रही है। दारजी अपनी खटपट में लगे हैं। दोनों को मन ही मन प्रणाम करता हूं - माफ़ कर देना मुझे बेबे और दारजी, मैं आपकी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी का यह सौदा नहीं कर सकता। अपने लिए बेशक कर भी लेता, लेकिन आपने इसके साथ गुड्डी की किस्मत को भी नत्थी कर दिया है। मैं इस दोहरे पाप का भागी नहीं बन सकता मेरी बेबे। मैं एक बार फिर से बिना बताये घर छोड़ कर जा रहा हूं। आगे मेरी किस्मत।
और मैं एक बार फिर खाली हाथ घर छोड़ कर चल दिया हूं। इस बार मेरी आंखों में आंसू हैं तो सिर्फ गुड्डी के लिए... वो अपनी लड़ाई नहीं लड़ पायेगी। मैं भी तो अपनी लड़ाई का मैदान छोड़ कर बिना लड़े ही हार मान कर जा रहा हूं। एक ही मैदान से दूसरी बार पीठ दिखा कर भाग रहा हूं ।
देस बिराना अध्याय 2
तो ... अब ... हो गया घर भी..। जितना रीता गया था, उससे कहीं ज्यादा खालीपन लिये लौटा हूं। तौबा करता हूं ऐसे रिश्तों पर। कितना अच्छा हुआ, होश संभालने से पहले ही घर से बेघर हो गया था। अगर तब घर न छूटा होता तो शायद कभी न छूटता.. उम्र के इस दौर में आ कर तो कभी भी नहीं। बस, यही तसल्ली है कि सबसे मिल लिया, बचपन की खट्टी-मीठी यादें ताज़ा कर लीं और घर के मोह से मुक्त भी हो गया। जिसके लिए जितना बन पड़ा, थोड़ा-बहुत कर भी लिया। बेबे और गुड्डी के ज़रूर अफ़सोस हो रहा है कि उन्हें इन तकलीफ़ों से निकालने का मेरे पास कोई उपाय नहीं है।
गुड्डी बेचारी पढ़ना चाहती है लेकिन लगता नहीं, उसे दारजी पढ़ने देंगे। चाहे एमबीए करे या कोई और कोर्स, उसे देहरादून तो छोड़ना ही पड़ेगा। उसके लिए दारजी परमिशन देने से रहे। बस, किसी तरह वह बीए पूरा कर ले तो उसके लिए यहीं कुछ करने की सोचूंगा। एक बार मेरे पास आ जाये तो बाकी सब संभाला जा सकता है। फिलहाल तो सबसे बड़ा काम यही होगा कि उसे दारजी किसी तरह बीए करने तक डिस्टर्ब न करें और वह ठीक - ठाक नम्बर ला सके।
आते ही फिर से उन्हीं चक्करों में खुद को उलझा लिया है। पता नहीं अब कब तक इसी तरह की ज़िंदगी को ठेलते जाना होगा। बिना किसी ख़ास मकसद के....।
आज गुड्डी का पार्सल मिला है। उसने बहुत ही खूबसूरत स्वेटर बुन कर भेजा है। सफेद रंग का। एकदम नन्हें-से खरगोश की तरह नरम। इसमें गुड्डी की मेहनत और स्नेह की असीम गरमाहट फंदे-फंदे में बुनी हुई है। साथ में उसका लम्बा खत है।
लिखा है उसने
- वीरजी,
सत श्री अकाल
उस दिन आपके अचानक चले जाने के बाद घर में बहुत हंगामा मचा। वैसे मैं जानती थी कि मेरे वापिस आने तक आप जा चुके होंगे। और कुछ हो भी नहीं सकता था। आप बाज़ार से शाम तक भी वापिस नहीं आये तो चारों तरफ आपकी खोज-बीन शुरू हुई। वहां जाने वाले सभी लोग आ चुके थे। ले जाने के लिए मिठाई वगैरह खरीदी जा चुकी थी। लेकिन आप जब कहीं नज़र नहीं आये तो बेबे को लगा - एक बार फिर वही इतिहास दोहराया जा चुका है। मैं चार बजे कॉलेज से आ गयी थी तब तक दारजी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। उन्हें मुझ पर शक हुआ कि जरूर मुझे तो पता ही होगा कि वीरजी बिना बताये कहां चले गये हैं। तब गुस्से में आ कर दारजी ने मुझे बालों से पकड़ कर खींचा और गालियां दीं। मैं जानती थी, ऐसा ही होगा। सबकी निगाहों में मैं ही आपकी सबसे सगी बनी फिर रही थी। लेकिन मार खा कर भी मैं यही कहती रही कि मुझे नहीं मालूम। बेबे ने भी बहुत हाय-तौबा मचाई और बिल्लू और गोलू ने भी। आखिर परेशान हो कर वहां झूठा संदेसा भिजवा दिया गया कि आपको अचानक ऑफिस से तुरंत बंबई पहुंचने के लिए बुलावा आ गया था, इसलिए हम लोग नहीं आ पा रहे हैं। बाद की कोई तारीख देख कर फिर बतायेंगे।
बाद में दारजी तो कई दिन तक बिफरे शेर की तरह आंगन खूंदते रहे और बात बे बात पर आपको गालियां बकते रहे।
करतार सिंह वाला मामला फिलहाल ठप्प पड़ गया है लेकिन जिस को भी पता चलता है कि इस बार भी आप दारजी की जिद के कारण घर छोड़ कर गये हैं, वही दारजी को लानतें भेज रहा है कि अपनी लालच के कारण तूने हीरे जैसा बेटा दूसरी बार गंवा दिया है।
बाकी आप मुझमें आत्म-विश्वास का जो बीज बो गये हैं, उससे मैं, जहां तक हो सका, अपनी लड़ाई अपने अकेले के बलबूते पर लड़ती रहूंगी। आप ही मेरे आदर्श हैं। काश, मैं भी आपकी तरह अपने फ़ैसले खुद ले सकती। अपनी खास सहेली निशा का पता दे रही हूं। पत्र उसी के पते पर भेजें। मेरी जरा भी चिंता न करें और अपना ख्याल रखें।
सादर,
आपकी बहन,
गुड्डी।
पगली है गुड्डी भी!! ऐसे कमज़ोर भाई को अपना आदर्श बना रही है जो किसी भी मुश्किल स्थिति का सामना नहीं कर सकता और दो बार पलायन करके घर से भाग चुका है।
उसे लम्बा खत लिखता हूं।
- गुड्डी,
प्यार,
तेरा पत्र मिला। समाचार भी। अब तू भी मानेगी कि इस तरह से चले आने का मेरा फैसला गलत नहीं रहा। सच बताऊं गुड्डी, मुझे भी दोबारा चोरों की तरह घर से भागते वक्त बहुत खराब लग रहा था, लेकिन मैं क्या करता। जब मैंने पहली बार छोड़ा था तो चौदह साल का था। समझ भी नहीं थी कि क्यों भाग रहा हूं और भाग कर कहां जाउं€गा, लेकिन जब दारजी ने घर से धक्के दे कर बाहर कर ही दिया तो मेरे सामने कोई उपाय नहीं था। अगर दारजी या बेबे ने उस वक्त मेरे कान पकड़ कर घर के अंदर वापिस बुला लिया होता, जबरदस्ती एक-आध रोटी खिला दी होती तो शायद मैं भागा ही न होता, बल्कि वहीं बना रहता, बेशक मेरी ज़िंदगी ने जो भी रुख लिया होता, बल्कि इस बार भी उन्होंने मुझसे कहा होता कि देख दीपे, हम हो गये हैं अब बुड्ढे और हमें चाहिये घर के लिए एक देखी-भाली शरीफ बहू तो, सच मान गुड्डी, मैं वहीं खड़े-खड़े उनकी पसंद की लड़की से शादी भी कर लेता और अपनी बीवी को उनकी सेवा के लिए भी छोड़ आता, लेकिन दोनों बार सारी चीजें शुरू से ही मेरे खिलाफ कर दी गयी थीं। इस बार भी मुझे बिलकुल सोचने का मौका ही नहीं मिला और एक बार फिर मैं घर के बाहर था। एक तरह से पहली बार का भागना भी मेरे लिए अच्छा ही रहा कि दूसरी बार भी मैं उनके अन्याय को मानने के बजाये चुपचाप चला आया। तुम इसे मेरा पलायन भी कह सकती हो, लेकिन तुम्हीं बताओ, अगर मैं न भागता तो क्या करता। वहां तो मुझे और मेरे साथ तुम्हें भी फंदे में कसने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। मेरे भाग आने से कम से कम तुम्हारे सिर पर से तो फिलहाल मुसीबत टल ही गयी है। अब बाकी लड़ाई तुम्हें अकेले ही लड़नी होगी। लड़ सकोगी क्या?
यहां आने के बाद एक बार फिर वही ज़िंदगी है मेरे सामने। बस एक ही फ़र्क है कि यहां से जिस ऊब से भाग कर गया था, घर के जिस मोह से बंधा भागा था, उससे पूरी तरह मुक्त हो गया हूं। बेशक मेरी ऊब और बढ़ गयी है। पहले तो घर को लेकर सिर्फ उलझे हुए ख्याल थे, बिम्ब थे और रिश्तों को लेकर भी कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं बनती थी, लेकिन घर से आने के बाद घर के बारे में मेरी सारी इमेज बुरी तरह से तहस-नहस हो गयी हैं। बार-बार अफ़सोस हो रहा है कि मैं वहां गया ही क्यों था। न गया होता तो बेहतर था, लेकिन फिर ख्याल आता है कि इस पूरी यात्रा की एक मात्र यही उपलब्धि यही है कि सबसे मिल लिया, तुझे देख लिया और तुझे एक दिशा दे सका, तेरे लिए कुछ कर पाया और घर के मोह से हमेशा के लिए मुक्त हो गया। अब कम से कम रोज़ रोज़ घर के लिए तड़पा नहीं करूंगा। बेशक तेरी और बेबे की चिंता लगी ही रहेगी।
यहां आने के बाद दिनचर्या में कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा है। सिर्फ यही हुआ है कि अंधेरी में जिस गेस्ट हाउस में रह रहा था, वह छोड़ दिया है और इस बार बांद्रा वेस्ट में एक नये घर में पेइंग गेस्ट बन गया हूं। पता दे रहा हूं। ऑफिस से आते समय कोशिश यही रहती है कि खाना खा कर एक ही बार कमरे में आऊं। तुझे हैरानी होगी जान कर कि बंबई में पेइंग गेस्ट को सुबह सिर्फ एक कप चाय ही दी जाती है। बाकी इंतज़ाम बाहर ही करना पड़ता है। वैसे कई जगह खाने के साथ भी रहने की जगह मिल जाती है।
अगर छुट्टी का दिन हो या कमरे पर ही होऊं तो मैं सिर्फ खाना खाने ही बाहर निकलता हूं। अपने कमरे में बंद पड़ा रहता हूं। शायद यही वजह है कि मैं कभी भी बोर नहीं होता।
कल एक अच्छी बात हुई कि सामने वाले घर में रहने वाले मिस्टर और मिसेज भसीन से हैलो हुई। सीढ़ियां चढ़ते समय वे मेरे साथ-साथ ही आ रहे थे। उन्होंने ही पहले हैलो की और पूछा - क्या नया आया हूं सामने वाले घर में। उन्होंने मेरा नाम वगैरह पूछा और कभी भी घर आने का न्यौता दिया।
कभी जाऊंगा। आम तौर पर मैं किसी के घर में भी जाने में बहुत संकोच महसूस करता हूं।
दारजी, बेबे और गोलू, बिल्लू ठीक होंगे। तेरी सहेली निशा ठीक होगी और तेरे साथ खूब गोलगप्पे उड़ा रही होगी। दोबारा जा भी नहीं पाये तेरे कैलाश गोलगप्पा पर्वत में। तेरे लिए हज़ार रुपये का ड्राफ्ट भेज रहा हूं। खूब शॉपिंग करना।
जवाब देना।
तेरा ही
वीर...
आज दीपावली का त्योहार है। चारों तरफ त्योहार की गहमा-गहमी है। लेकिन मेरे पारसी मकान मालिक इस हंगामे से पूरी तरह बाहर हैं। हर छुट्टी के दिन की तरह सारा दिन कमरे में ही रहा। दोपहर को खाना खा कर कमरे में वापिस आ रहा था कि नीचे ही मिस्टर और मिसेज भसीन मिल गये हैं। दीपावली की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ तो वे पूछने लगे - क्या बात है घर नहीं गये? क्या छुट्टी नहीं मिली या घर बहुत दूर है?
- दोनों ही बातें नहीं हैं, दरअसल एक प्रोजेक्ट में बिजी हूं, इसलिए जाना नहीं हो पाया। वैसे अभी हाल ही में घर हो कर आया था। मैं किसी तरह बात संभालता हूं।
यह सुनते ही कहने लगे - तो आप शाम हमारे साथ ही गुज़ारिये। खाना भी आप हमारे साथ ही खायेंगे। मैंने बहुत टालना चाहा तो वे बहुत जिद करने लगे। मिसेज भसीन बोलने में इतनी अच्छी हैं कि मुझसे मना ही नहीं किया जा सका। इनकार करने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है उन्होंने।
हां कर दी है - आऊंगा।
आम तौर पर किसी के घर आता जाता नहीं, इसलिए कोई खास ज़ोर दे कर बुलाता भी नहीं है। लेकिन दिवाली के दिन वैसे भी अकेले बैठे बोर होने के बजाये सोचा, चलो किसी भरे पूरे परिवार में ही बैठ लिया जाये।
दरवाजा मिसेज भसीन ने खोला है। मैं उन्हें दिवाली की बधाई देता हूं - हैप्पी दिवाली मिसेज भसीन। मैं बहुत ज्यादा संकोच महसूस कर रहा हूं। वैसे भी युवा महिलाओं की उपस्थिति में मैं जल्दी ही असहज हो जाता हूं।
वे हँसते हुए जवाब देती हैं - मेरा नाम अलका है और मुझे जानने वाले मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।
वे मुझे भीतर लिवा ले गयी हैं और बहुत ही आदर से बिठाया है।
मैं बहुत ही संकोच के साथ कहता हूं - दरअसल मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं ... दिवाली के दिन किसी के घर जाना.. ..।
वे मुझे आश्वस्त करती हैं - आप बिलकुल भी औपचारिकता महसूस न करें और बिलकुल सहज हो कर इसे अपना ही घर समझें।
यह सुन कर कुछ हद तक मेरा संकोच दूर हुआ है।
कहता हूं मैं - मैं भी आपके दरवाजे पर नेम प्लेट देखता था तो रोज़ ही सोचता था, कभी बात करूंगा। भसीन सरनेम तो पंजाबियों का ही होता है। मैं दरअसल मोना सिख हूं। कई बार अपनी ज़ुबान बोलने के लिए भी आदमी.. ..। मैं झेंपी सी हँसी हँसता हूं।
बात अलका ने ही आगे बढ़ाई है।
पूछ रही हैं - कहां है आपका घर-बार और कौन-कौन है घर में आपके।
इतना सुनते ही मैं फिर से संकोच में पड़ गया हूं।
अभी मैं अपना परिचय दे ही रहा हूं कि मिस्टर भसीन आ गये हैं । उठ कर उन्हें नमस्कार करता हूं। वे बहुत ही स्नेह से मेरे हाथ दबा कर मुझे दिवाली की शुभ कामना देते हैं।
घर से आने के बाद इतने दिनों में यह पहली बार हो रहा है कि घर के माहौल में बैठ कर बातें कर रहा हूं और मन पर कोई दबाव नहीं है। बहुत अच्छा लगा है उनके घर पर बैठना, उनसे बात करना।
मैं देर तक उनके घर बैठा रहा और हम तीनों इधर-उधर की बातें करते रहे। इस बीच मैं काफी सहज हो गया हूं और उनसे किसी पुराने परिचित की तरह बातें करने लगा हूं।
अलका ने मुझे खाना खाने के लिए जबरदस्ती रोक लिया है। मैं भी उनके साथ पूजा में बैठा हूं। पूरी शाम उनके घर गुज़ार कर जब मैं वापिस लौटने लगा तो अलका और मिस्टर भसीन दोनों ने एक साथ ही आग्रह किया है कि मैं उनके घर को अपना ही घर समझूं और जब भी मुझे उसे घर की याद आये या पारिवारिक माहौल में कुछ वक्त गुज़ारने की इच्छा हो, निसंकोच चला आया करूं।
मैं अचानक उदास हो गया हूं। भर्राई हुई आवाज में कहता हूं - आप लोग बहुत अच्छे हैं। मुझे नहीं पता था लोग अनजान आदमी से भी इतनी अच्छी तरह से पेश आते हैं। मैं फिर आऊंगा। थैंक्स। कह कर मैं तेजी से निकल कर चला आया हूं।
बाद में भाई दूज वाले दिन अलका ने फिर बुलवा लिया था। तब मैं उनके घर ढेर सारी मिठाई वगैरह ले आया था। चाय पीते समय अलका ने बहुत संकोच के साथ मुझे बताया था - मेरा कोई भाई नहीं है, क्या तुम्हें मुझे भइया कह कर बुला सकती हूं।
यह कहते समय अलका की आंखों में आंसू भर आये थे और वह रोने-रोने को थी।
उसका मूड हलका करने के लिए मैं हंसा था - मेरी भी कोई बड़ी बहन नहीं है। क्या मैं आपको दीदी कह कर पुकार सकता हूं। तब हम तीनों खूब हंसे थे। अलका ने न केवल मुझे भाई बना लिया है बल्कि भाई दूज का टीका भी किया। और इस तरह मैं उनके भी परिवार का एक सदस्य बन गया हूं। मैं अब कभी भी उनके घर चला जाता हूं और काफी देर तक बैठा रहता हूं।
हालांकि उनके घर आते जाते मुझे एक डेढ़ महीना हो गया है और मैं अलका और देवेद्र भसीन के बहुत करीब आ गया हूं और उनसे मेरे बहुत ही सहज संबंध हो गये हैं लेकिन फिर भी उन्होंने मुझसे कोई व्यक्तिगत प्रश्न नहीं ही पूछे हैं।
आज इतवार है। दापहर की झपकी ले कर उठा ही हूं कि देवेद्र जी का बुलावा आया है। अलका मायके गयी हुई है। तय है, वे खाना या तो खुद बनाएंगे या होटल से मंगवायेंगे तो मैं ही प्रस्ताव रखता हूं - आज का डिनर मेरी तरफ से। शाम की चाय पी कर हम दोनों टहलते हुए लिंकिंग रोड की तरफ निकल गये हैं।
खाना खाने कि लिए हम मिर्च मसाला होटल में गये हैं। वेटर पहले ड्रिंक्स के मीनू रख गया है। मीनू देखते ही देवेद्र हॅंसे हैं - क्यों भई, पीते-वीते हो या सूफी सम्प्रदाय से ताल्लुक रखते हो। देखो अगर जो पीते हो तो हम इतनी बुरी कम्पनी नहीं हैं और अगर अभी तक पीनी शुरू नहीं की है तो उससे अच्छी कोई बात ही नहीं है।
- आपको क्या लगता है?
- कहना मुश्किल है। वैसे तो तुम तीन साल अमेरिका गुज़ार कर आये हो, और यहां भी अरसे से अकेले ही रह रहे हो, इसलिए कहना मुश्किल है कि तुम्हारे हाथों अब तक कितनी और कितनी तरह की बोतलों का सीलभंग हो चुका होगा। वे हँसे हैं।
- आपको जान कर हैरानी होगी कि मैंने अभी तक कभी बीयर भी नहीं पी है। कभी ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। वहां अमेरिका के ठंडे मौसम में भी, जहां खाने का एक एक कौर नीचे उतारने के लिए लोग गिलास पर गिलास खाली करते हैं, मैं वहां भी इससे दूर ही रहा। वैसे न पीने के कई कारण रहे। आर्थिक भी रहे। फिर उस किस्म की कम्पनी भी नहीं रही। यह भी रहा कि कभी इन चीज़ों के लिए मुझे फुर्सत ही नहीं मिली। अब जब फ़ुर्सत है, पैसे भी हैं औरे अकेलापन भी है तो अब ज़रूरत ही नहीं महसूस होती। वैसे आप तो पीते ही होंगे, आप ज़रूर मंगायें। मैं तो आपसे बहुत छोटा हूं, पता नहीं मेरी कम्पनी में आपको पीना अच्छा लगे या नहीं.... वैसे मुझे अच्छा लगेगा। मैं कोल्ड ड्रिंक ले लूंगा।
वे मुझे आश्वस्त करते हैं - यह बहुत अच्छी बात है कि तुम अब तक इन खराबियों से बचे हुए हो। मैं भी कोई रेगुलर ड्रिंकर नहीं हूं। बस, कभी-कभार ही वाला मामला है,
- आप अगर मेरी सूफी कम्पनी का बुरा न मानें तो आपके लिए कुछ मंगवाया जाये। बेचारा वेटर कब से हमारे आर्डर का इंतज़ार कर रहा है। मैं कहता हूं।
- तुम्हारी कम्पनी का मान रखने के लिए मैं आज बीयर ही लूंगा।
मैंने उनके लिए बीयर का ही आर्डर दिया है।
हमने पूरी शाम कई घंटे एक साथ गुज़ारे हैं और ढेर सारी बातें की हैं। बातचीत के दौरान जब मैं उन्हें वीरजी कह कर बुला रहा हूं तो उन्होंने टोका है - तुम किस औपचारिकता में पड़े हो, चाहो तो मुझे नाम से भी बुला सकते हो।
- दरअसल मैं कभी परिवार में नहीं रहा हूं। रिश्ते-नाते कैसे निभाये जाते हैं, नहीं जानता। तेरह -चौदह साल की उम्र थी जब घर छूट गया। तब से एक शहर से दूसरे शहर भटक रहा हूं।
- क्या मतलब ? घर छूट गया था का मतलब? तो ये सब पढ़ाई और एमटैक और पीएचडी तक की डिग्री?
- दरअसल एक लम्बी कहानी है। मैंने आज तक कभी भी किसी के भी सामने अपने बारे में बातें नहीं की हैं। आपको मैं एक रहस्य की बात यह बताऊं कि दुनिया में मेरे परिचितों में कोई भी मेरे बारे में पूरे सच नहीं जानता। यहां तक कि, मेरे मां-बाप भी मेरे बारे में कुछ खास नहीं जानते। मैंने कभी किसी को राज़दार बनाया ही नहीं है। यहां तक कि मैं अभी चौदह साल के बाद घर गया था तो वहां भी किसी को अपने सच का एक टुकड़ा दिखाया तो किसी को दूसरा। अपनी छोटी बहन जिसे मिल कर मैं बेहद खुश हुआ हूं, उसे भी मैंने अपनी सारी तकलीफों का राज़दार नहीं बनाया है। उसे भी मैंने सारे सच नहीं बताये क्योंकि मैंने कभी नहीं चाहा कि कोई मुझ पर तरस खाये। मेरे लिए अफ़सोस करे। मुझे अगर किसी शब्द से चिढ़ है तो वह शब्द है - बेचारा।
- यह तो बहुत ही अच्छी बात है कि हम क्यों किसी के सामने अपने जख्म दिखाते फिरें। मैं तुम्हें बिलकुल भी मजबूर नहीं करूंगा कि अपने मन पर बोझ डालते हुए कोई भी काम करो। मैं तुम्हारी भावनाएं समझ सकता हूं। सैल्फ मेड आदमी की यही खासियत होती है कि वह अपने ही बारे में बात करने से बचना चाहता है।
- नहीं, वह बात नहीं है। दरअसल मेरे पास बताने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे शेयर करने में मैं गर्व का अनुभव करूं। अपनी तकलीफ़ों की बात करके मैं आपकी शाम खराब नहीं करना चाहता।
- जैसी तुम्हारी मर्जी। विश्वास रखो, मैं तुमसे कभी भी कोई भी पर्सनल सवाल नहीं पूछूंगा। इसके लिए तुम्हें कभी विवश नहीं करूंगा।
पहले घर छोड़ने से लेकर दोबारा घर छोड़ने तक के अपने थोड़े-बहुत सच बयान कर दिये हैं उनकी मोटी-मोटी जानकारी के लिए।
बताता हूं उन्हें - अब पिछले तीन-चार साल से यहां जॉब कर रहा हूं तो आस-पास दुनिया को देखने की कोशिश कर रहा हूं। मैं कई बार ये देख कर हैरान हो जाता हूं कि मैं कितने बरसों से बिना खिड़कियों वाले किसी कमरे में बंद था और दुनिया कहां की कहां पहुंच गयी है। जैसे मै कहीं ठहरा हुआ था या किसी और ही रफ्तार से चल रहा था। खैर, पता नहीं आज अचानक आपके सामने मैं इतनी सारी बातें कैसे कर गया हूं।
- सच मानो, मैं सोच भी नहीं सकता था कि तुम, जो हमेशा इतने सहज और चुप्पे बने रहते हो, कभी बात करते हो और कभी बंद किताब की तरह हो जाते हो, अपनी इस छोटी-सी ज़िंदगी में कितने कितने तूफान झेल चुके हो।
खाना खा कर लौटते हुए बारह बज गये हैं। मुझे लग रहा है कि मैं एक परिचित के साथ खाना खाने गया था और बड़े भाई के साथ वापिस लौट रहा हूं।
देवेद्र जी के साथ दस दिन की बातचीत के कुछ दिन बाद ही अलका दीदी ने घेर लिया है। उनके साथ बैठा चाय पी रहा हूं तो पूछा है उन्होंने - ऑफिस से आते ही अपने कमरे में बंद हो जाते हो। खराब नहीं लगता?
- लगता तो है, लेकिन आदत पड़ गयी है।
- कोई दोस्त नहीं है क्या?
- नहीं। कभी मेरे दोस्त रहे ही नहीं। आप लोग अगर मुझसे बात करने की शुरूआत न करते तो मैं अपनी तरफ से कभी बात ही न कर पाता।
- कोई गर्ल फ्रैंड भी नहीं है क्या? अलका ने छेड़ा है - तेरे जैसे स्मार्ट लड़के को लड़कियों की क्या कमी!
क्या जवाब दूं। मैं चुप ही रह गया हूं लेकिन अलका ने मेरी उदासी ताड़ ली है। मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछती है - ऐसी भी क्या बेरूखी ज़िंदगी से कि न कोई पुरुष दोस्त हो और न ही कोई लड़की मित्र ही। सच बताओ क्या बात है। वह मेरी अंाखों में आंखें डाल कर पूछती है।
- सच मानो दीदी, कोई ख़ास बात नहीं है। कभी दोस्ती हुई ही नहीं किसी से, वैसे भी मुझे लड़कियों से बात नहीं करनी ही नहीं आती।
- क्यों, क्या वहां आइआइटी में या अमेरिका में लड़कियां नहीं थीं ?
- होंगी, उनके बारे में मुझे ज्यादा नहीं पता, क्योंकि तब मैं उनकी तरफ़ देखता ही नहीं था कि कहीं मेरी तपस्या न भंग हो जाये। जिस वक्त सारे लड़के हॉस्टल के आसपास देर रात तक हा हा हू हू करते रहते, मैं किताबों मे सिर खपाता रहता। आप ही बताओ दीदी, प्यार-व्यार के लिए वक्त ही कहां था मेरे पास?
- तो अब तो है वक्त और जॉब भी है और पैसे भी हैं। वैसे तो उस वक्त भी एक-आध लड़की तो तुम्हारी निगाह में रही ही होगी।
- वैसे तो थी एक।
- लड़की का नाम क्या था?
- लड़की जितनी सुंदर थी, उसका नाम भी उतना ही सुंदर था - ऋतुपर्णा। घर का उसका नाम निक्की था।
- उस तक अपनी बात नहीं पहुंचायी थी? उसके नाम की ही तारीफ कर देते, बात बन जाती।
- कहने की हिम्मत ही कहां थी। आज भी नहीं है।
- किसी और से कहलवा दिया होता।
- कहलवाया था।
- तो क्या जवाब मिला था?
- लेकिन ज़िंदगी के इसी इम्तिहान में मैं फेल हो गया था।
- क्या बात हो गयी थी ?
- वह उस समय एमबीबीएस कर रही थी। हमारे ही एक प्रोफेसर की छोटी बहन थी। कैम्पस में ही रहते थे वे लोग। कभी उनके घर जाता तो थ़ेड़ी बहुत बात हो पाती थी। एकाध बार लाइब्रेरी वगैरह में भी बात हुई थी। वैसे वह बहुत कम बातें करती थी लेकिन अपने प्रति उसकी भावनाओं को मैं उसके बिना बोले भी समझ सकता था। मैं तो खैर, अपनी बात कहने की हिम्मत ही नहीं जुटा सकता था। मेरा फाइनल ईयर था। जो कुछ कहना करना था, उसका आखिरी मौका था। मैं न लड़की से कह पा रहा था और उसके भाई के पास जाने की हिम्मत ही थी। उन्हीं दिनों हमारे सीनियर बैच की एक लड़की हमारे डिपार्टमेंट में लेक्चरर बन कर आयी थी। उसी को विश्वास में लिया था और उसके ज़रिये लड़की के भाई से कहलवाया था।
- क्या जवाब मिला था?
- लड़की तक तो बात ही नहीं पहुंची थी लेकिन उसके भाई ने ही टका-सा जवाब दे दिया था कि हम खानदानी लोग हैं। किसी खानदान में ही रिश्ता करेंगे। मैं ठहरा मेहनत-मज़दूरी करके पढ़ने वाला। उनकी निगाह में कैसे टिकता।
- बहुत बदतमीज था वो प्रोफेसर, सैल्फ - मेड आदमी का भी भला कोई विकल्प होता है। हम तुम्हारी तकलीफ़ समझ सकते हैं। अकेलापन आदमी को कितना तोड़ देता है। देवेद्र बता रहे थे कि तुमने तो अपनी तरफ से घर वालों से पैच-अप करने की भी कोशिश की लेकिन इतना पैसा खर्च करने के बाद भी तुम्हें खाली हाथ लौटना पड़ा है।
- छोड़ो दीदी, मेरे हाथ में घर की लकीरें ही नहीं हैं। मुझे भी अच्छा लगता अगर मेरा घर होता, आप दोनों के घर की तरह।
- क्यों, क्या ख़ास बात है हमारे घर में? देवेद्र जी ने आते-आते आधी बात सुनी है।
- जब भी आप दोनों को इतने प्यार से रहते देखता हूं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। काश, मैं भी ऐसा ही घर बसा पाता।
- अच्छा एक बात बताओ, अलका दीदी ने छेड़ा है - घर कैसा होना चाहिये?
- क्यों, साफ सुथरे, करीने से लगे घर ही तो सबको अच्छे लगते हैं । वैसे मैं कहीं आता-जाता नहीं लेकिन इस तरह के घरों में जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
- लेकिन अपने घर को लेकर तुम्हारे मन में क्या इमेज है?
मैं सकपका गया हूं। सूझा ही नहीं कि क्या जवाब दूं। बहुत उधेड़बुन के बाद कहा है - मेरे मन में बचपन के अपने घर और बाद में बाबा जी के घर को लेकर जो आतंक बैठा हुआ है, उससे मैं आज तक मुक्त नहीं हो पाया हूं। मैं अपने बचपन में या तो पिटते हुए बड़ा हुआ या फिर लगातार सिरदर्द की वजह से छटपटाता रहा। घर से भाग कर जो घर मिला, वहां बाबाजी ने घर की मेरी इमेज को और दूषित किया। बाद में बेशक अलग-अलग घरों में रहा लेकिन वहां मैं न कभी खुल कर हँस ही पाता था और न कभी पैर फैला कर बैठ ही सकता था। कारण मैं नहीं जानता। फिर ज्यादातर वक्त हॉस्टलों में कटा, जहां घर के प्रति मेरा मोह तो हमेशा बना रहा लेकिन कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं बनती थी कि घर कैसा होना चाहिये, बस, जहां भी बच्चों की किलकारियां सुनता या हसबैंड वाइफ को प्यार से बात करते देखता, एक दूसरे की केयर करते देखता, लगता शायद घर यही होता है।
- घर को लेकर तुम्हारी जो इमेज है, दरअसल तुम्हारे अनुभवों की विविधता की वजह से और घर को दूर से देखने के कारण बनी है, देवेद्र जी बता रहे हैं - तुम हमेशा या तो ऐसे घरों में रहे जहां माहौल सही नहीं था या ऐसे घरों में रहे जो तुम्हारे अपने घर नहीं थे। वैसे देखा जाये तो हर आदमी के लिए घर के मायने अलग होते हैं। माना जाये तो किसी के लिए फुटपाथ या उस पर बना टीन टप्पर का मामूली सा झोपड़ा भी घर की महक से भरा हुआ हो सकता है और ऐसा भी हो सकता है कि किसी के लिए महल भी घर की परिभाषा में न आता हो और वहां रहने वाला घर की चाहत में इधर-उधर भटक रहा हो। बेशक तुम्हें अपने पिता का घर छोड़ कर भागना पड़ा था क्योंकि वह घर अब तुम्हारे लिए घर ही नहीं रहा था लेकिन तुम्हारी मां या भाइयों के लिए तब भी वह घर बना ही रहा था क्योंकि उनके लिए न तो वहां से मुक्ति थी और न मुक्ति की चाह ही। हो सकता है तुम्हारे सामने घर छोड़ने का सवाल न आता तो अब भी वह घर तुम्हारा बना ही रहता। उस पिटाई के बावजूद उस घर में भी कुछ तो ऐसा रहा ही होगा जो तुम्हें आज तक हाँट करता है। पिता की पिटाई के पीछे भी तुम्हारी बेहतरी की नीयत छुपी रही होगी जिसे बेशक तुम्हारे पिता अपने गुस्से की वजह से कभी व्यक्त नहीं कर पाये होंगे। इसमें कोई शक नहीं कि आपसी प्रेम और सेंस ऑफ केयर से घर की नींवें मज़बूत होती हैं, लेकिन हम दोनों भी आपस में छोटी-छोटी चीज़ों को ले कर लड़ते-झगड़ते हैं। एक दूसरे से रूठते हैं और एक-दूसरे को कोसते भी हैं। इसके बावज़ूद हम दोनों एक ही बने रहते हैं क्योंकि हमें एक दूसरे पर विश्वास है और हम एक दूसरे की भावना की कद्र भी करते हैं। हम आपस में कितना भी लड़ लें, कभी बाहर वालों को हवा भी नहीं लगने देते और न एक दूसरे की बुराई ही करते हैं। शायद इसी भावना से घर बनता है। हां, जहां तक साफ-सुथरे घर को लेकर तुम्हारी जो इमेज है, अगर तुम बच्चों की किलकारियां भी चाहो और होटल के कमरे की तरह सफाई भी, तो शायइ यह विरोधाभास होगा। घर घर जैसा ही होना और लगना चाहिये। घर वो होता है जहां शाम को लौटना अच्छा लगे न कि मजबूरी। जहां आपसी रिश्तों की महक हमेशा माहौल को जीवंत बनाये रखे, वही घर होता है। तुम्हें शायद देखने का मौका न मिला हो, यहां बंबई में जितने भी बीयर बार हैं या शराब के अड्डे हैं वहां तुम्हें हज़ारों आदमी ऐसे मिल जायेंगे जिन्हें घर काटने को दौड़ता है। वज़ह कोई भी हो सकती है लेकिन ऐसे लोग होशो-हवास में घर जाने से बचना चाहते हैं। वे चाहें तो अपने घर को बेहतर भी बना सकते हैं जहां लौटने का उनका दिल करे लेकिन हो नहीं पाता। आदमी जब घर से दूर होता है तभी उसे घर की महत्ता पता चलती है। वह किसी भी तरीके से घर नाम की जगह से जुड़ना चाहता है। घर चाहे अपना हो या किसी और का, घर का ही अहसास देता है। तो बंधुवर, हम तो यही दुआ करते हैं कि तुम्हें मनचाहा घर जल्दी मिले।
- बिलीव मी, वीर जी, आपने तो घर की इतनी बारीक व्याख्या कर दी।
- चिंता मत करो, तुम्हें भी अपना घर जरूर मिलेगा और तुम्हारी ही शर्तों पर मिलेगा।
- मैं घर को लेकर बहुत सेंसिटिव रहा हूं लेकिन अब घर से लौटने के बाद से तो मैं बुरी तरह डर गया हूं कि क्या कोई ऐसी जगह कभी होगी भी जिसे मैं घर कह सकूं। मैं अपनी तरह के घर को पाने के लिए कुछ भी कर सकता था लेकिन.. अब तो....।
- घबराओ नहीं, ऊपर वाले ने तृम्हारे नाम भी एक खूबसूरत बीवी और निहायत ही सुकून भरा घर लिखा होगा। घर और बीबी दोनों ही तुम तक चल कर आयेंगे।
- पता नहीं घर की यह तलाश कब खत्म होगी।
- जल्दी ही खतम होगी भाई, अलका ने मेरे बाल बिखेरते हुए कहा है - अगर हमारी पसंद पर भरोसा हो तो हम दोनों आज ही से इस मुहिम पर जुट जाते हैं।
मैं झेंपी हँसी हँसता हूं - क्यों किसी मासूम की जिंदगी ख़राब करती हैं इस फालतू आदमी के चक्कर में।
- यह हम तय करेंगे कि हीरा आदमी कौन है और फालतू आदमी कौन?
गुड्डी की चिट्ठी आयी है। समाचार सुखद नहीं हैं ।
- वीरजी,
आपकी चिट्ठी मिल गयी थी। बेबे बीमार है। आजकल घर का सारा काम मेरे जिम्मे आ गया है। बेबे के इलाज के लिए मुझे अपनी बचत के काफी पैसे खर्च करने पड़े जिससे दारजी और बेबे को बताना पड़ा कि मुझे आपसे काफी पैसे मिले हैं।
वीरजी, यह गलत हो गया है कि सबको पता चल गया है कि आप मुझे पैसे भेजते रहते हैं। अब बीमार बेबे के एक्सरे और दूसरे टैस्ट कराने थे और घर में उतने पैसे नहीं थे, मैं कैसे चुप रहती। अपनी सारी बचत निकाल कर दारजी के हाथ पर रख दी थी। वैसे भी ये पैसे मेरे पास फालतू ही तो रखे हुए थे।
आप यहां की चिंता न करें। मैं सब संभाले हुए हूं। अपने समाचार दें। अपना कॉटैक्ट नंबर लिख दीजियेगा।
आपकी
गुड्डी
मैं तुरंत ही पांच हजार रुपये का ड्राफ्ट गुड्डी के नाम कूरियर से भेजता हूं और लिखता हूं कि मुझे फोन करके तुरंत बताये कि अब बेबे की तबीयत कैसी है। एक पत्र मैं नंदू को लिखता हूं। उसे बताता हूं कि किन हालात के चलते मुझे दूसरी बार मुझे बेघर होना पड़ा और मैं आते समय किसी से भी मिल कर नहीं आ सका। एक तरह से खाली हाथ और भरे मन से ही घर से चला था। बेबे बीमार है। ज़रा घर जा कर देख आये कि उसकी तबीयत अब कैसी है। गुड्डी को पैसे भेजे हैं। और पैसों की जरूरत हो तो तुरंत बताये।
pसोचता हूं, जाऊं क्या बेबे को देखने? लेकिन कहीं फिर घेर लिया मुझे किसी करतारे या ओमकारे की लड़की के चक्कर में तो मुसीबत हो जायेगी। फिर इस बार तो बेबे की बीमारी का भी वास्ता दिया जायेगा और मैं किसी भी तरह से बच नहीं पाऊंगा। गुड्डी की चिट्ठी आ जाये फिर देखता हूं।
नंदू का फोन आ गया है।
बता रहा है - आप किसी किस्म की फिकर मत करो। बेबे अब ठीक है। घर पर ही है और डॉक्टरों ने कुछ दिन का आराम बताया है। वैसे चिंता की कोई बात नहीं है।
पूछता हूं मैं - लेकिन उसे हुआ क्या था ?
- कुछ खास नहीं, बस, ब्लड प्रेशर डाउन हो गया था। दवाइयां चलती रहेंगी। बाकी मुझे गुड्डी से सारी बात का पता चल गया है। आप मन पर कोई बोझ न रखें। मैं गुड्डी का भी ख्याल रख्गां और बेबे का भी। ओके, और कुछ !!
- जरा अपने फोन नम्बर दे दे।
- लो नोट करो जी। घर का भी और रेस्तरां का भी। और कुछ?
- मैं अपने पड़ोसी मिस्टर भसीन का नम्बर दे रहा हूं। एमर्जेंसी के लिए। नोट कर लो और गुड्डी को भी दे देना।
फोन नम्बर नोट करता हूं और उसे थैंक्स कर फोन रखता हूं..।
तसल्ली हो गयी है कि बेबे अब ठीक है और यह भी अच्छी बात हो गयी कि अब नंदू के जरिये कम से कम तुरंत समाचार तो मिल जाया करेंगे।
इस बीच दारजी चिट्ठी आयी है। गुरमुखी में है। हालांकि उनकी हैण्ड राइटिंग बहुत ही खराब है लेकिन मतलब निकाल पा रहा हूं ।
यह एक पिता का पुत्र के नाम पहला पत्र है।
लिखा है
- बरखुरदार,
नंदू से तेरा पता लेकर खत लिख रहा हूं। एक बाप के लिए इससे और ज्यादा शरम का बात क्या होगी कि उसे अपने बेटे के पते के वास्ते उसके दोस्तों के घरों के चक्कर काटने पड़ें। बाकी तूने जो कुछ हमारे साथ किया और दूसरी बार बीच चौराहे उत्ते मेरी पगड़ी उछाली, उससे मैं बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने केध काबिल नहीं रहा हूं..। सब लोग मुझ पर ही थू थू कर रहे हैं। कोई यह नहीं देखता कि तू किस तरह इस बार भी बिना बताये चोरों की तरह निकल गया। तेरी बेबे तेरा इंतजार करती रही और जनाब ट्रेन में बैठ कर निकल गये। बाकी आदमी में इतनी गैरत और लियाकत तो होनी ही चाहिये कि वह आमने-सामने बैठ कर बात कर सके। तेरी बेबे इस बात का सदमा बरदाश्त नहीं कर पायी और तब से बीमार पड़ी है। तुझसे तो इतना भी न हुआ कि उसे देखने आ सके। बाकी तूने अपनी बेबे को हमेशा ही दुख दिया है और कभी भी इस घर के सुख-दुख में शामिल नहीं हुआ है। छोटी-मोटी बातों पर घर छोड़ देना शरीफ घरों के लड़कों को शोभा नहीं देता। तुम्हारी इतनी पढ़ाई-लिखाई का क्या फायदा जिससे मां-बाप को दुख के अलावा कुछ भी न मिले।
बाकी मेरे समझाने-बुझाने के बाद करतार सिंह तेरी यह ज्यादती भुलाने के लिए अभी भी तैयार है। तू जल्द से जल्द आ जा ताकि घर में सुख शांति आ सके। इस बहाने अपनी बीमार बेबे को भी देख लेगा। वो तेरे लिए बहुत कलपती है। वैसे भी उसकी आधी बीमारी तुझे देखते ही ठीक हो जायेगी। तू जितनी भी ज्यादती करे हमारे साथ, उसके प्राण तो तुझमें ही बसते हैं।
तुम्हारा,
दारजी
ज़िंदगी में एक बाप पहली बार अपने बेटे को चिट्टी लिख रहा है और उसमें सौदेबाजी वाली यह भाषा!! दारजी जो भाषा बोलते हैं वही भाषा लिखी है। न बोलने में लिहाज करते हैं न लिखने में किया है।
अब ऐसे ख़त का क्या जवाब दिया जा सकता है। वे यह नहीं समझते कि इस तरह से वे मेरी परेशानियां ही बढ़ा रहे हैं।
अगले ही दिन की डाक में गुड्डी का एक और खत आया है।
लिखा है उसने
- वीरजी, पत्र लिखने में देर हो गयी है। जब नंदू वीरजी ने बताया कि उन्होंने आपको बेबे की तबीयत के बारे में फोन पर बता दिया है इसलिए भी लिखना टल गया। बेबे अब ठीक हैं लेकिन कमज़ोरी है और ज्यादा देर तक काम नहीं कर पाती। वैसे कुछ सदमा तो उन्हें आपके जाने का ही लगा है और आजकल उनमें और दारजी में इसी बात को लेकर अक्सर कहा-सुनी हो जाती है।
बेबे की बीमारी के कारण कई दिन तक कॉलेज न जा सकी और घर पर ही पढ़ती रही। वैसे निशा आ कर नोट्स दे गयी थी।
दारजी ने मुझसे आपका पता मांगा था। मैंने मना कर दिया कि जिस लिफाफे में ड्राफ्ट आया था उस पर पता था ही नहीं। पता न देने की वज़ह यही है कि पिछले दिनों करतार सिंह ने संदेसा भिजवाया था कि अब हम और इंतजार नहीं कर सकते। अगर दीपू यह रिश्ता नहीं चाहता या जवाब नहीं देता तो वे और कोई घर देखेंगे। उन पर भी बिरादरी की तरफ से दबाव है।
पता है वीरजी, दारजी ने करतार सिंह के पास इस संदेस के जवाब में क्या संदेसा भिजवाया था - तू संतोष का ब्याह बिल्लू या गोलू से कर दे., दहेज बेशक आधा कर दे। करतार सिंह ने दारजी को जवाब दिया कि बोलने से पहले कुछ तो सोच भी लिया कर। तू बेशक व्यापारी न सही, मैं व्यापारी आदमी हूं और कुछ सोच कर ही तेरे दीपू का हाथ मांग रहा था। दारजी का मुंह इतना सा रह गया।
दारजी नंदू से आपका पता लेने गये थे। वे शायद आपको लिखें, या लिख भी दिया हो .. आप उनके फंदे में मत फंसना वीरजी।
आपके भेजे पांच हज़ार के ड्राफ्ट के लिए दारजी ने मेरा खाता खुलवा दिया है, लेकिन यह खाता उन्होंने अपने साथ ज्वाइंट खुलवाया है।
नंदू वीरजी अकसर बेबे का हालचाल पूछने आ जाते है। आपकी चिट्ठी का पूछ रहे थे। वे आपकी बहुत इज्जत करते हैं।
पत्र देंगे।
आपकी बहना,
गुड्डी
समझ में नहीं आ रहा, किन झमेलों में फंस गया हूं। जब तक घर नहीं गया था, वे सब मेरी दुनिया में कहीं थे ही नहीं, लेकिन एक बार सामने आ जाने के बाद मेरे लिए यह बहुत ही मुश्किल हो गया है कि उन्हें अपनी स्मृतियों से पूरी तरह से निकाल फेंकूं। हो ही नहीं पाता ये सब। वहां मुझे हफ्ता भर भी चैन से नहीं रहने दिया और जब वहां से भाग कर यहां आ गया हूं तो भी मुक्ति नहीं है मेरी।
अलका दीदी मेरी परेशानियां समझती हैं लेकिन जब मेरे ही पास इनका कोई हल नहीं है तो उस बेचारी के पास कहां से होगा। मुझे उदास और डिस्टर्ब देख कर वह भी मायूस हो जाती है, इसलिए कई बार उनके घर जाना भी टालता हूं। लेकिन दो दिन हुए नहीं होते कि खुद बुलाने आ जाती हैं। मजबूरन मुझे उनके घर जाना ही पड़ता है।
डिप्रैशन के भीषण दौर से गुज़र रहा हूं। जी चाहता है कहीं दूर भाग जाऊं। बाहर कहीं नौकरी कर लूं जहां किसी को मेरी खबर ही न हो कि मैं कहां चला गया हूं। एक तो ज़िंदगी में पसरा दसियों बरसों का यह अकेलापन और उस पर से घर से आने वाली इस तरह की चिट्ठियां। खुद की नादानी पर अफ़सोस हो रहा है कि बेशक गुड्डी को ही सही, पता दे कर ही क्यों आया..। मैं अपने हाल बना रहता और उन्हें उनके ही हाल पर छोड़ आता। लेकिन बेबे और गुड्डी .. यहीं आ कर मैं पस्त हो जाता हूं।
अब मैं इस दिशा में ज्यादा सोचने लगा हूं कि यहां से कहीं बाहर ही निकल जाऊं। बेशक कहीं भी खुद को एडजस्ट करने में, जमाने में वक्त लगेगा लेकिन यहां ही कौन सी जमी-जमायी गृहस्थी है जो उखाड़नी पड़ेगी। सब जगह हमेशा खाली हाथ ही रहा हूं। जितनी बार भी शहर छोड़े हैं या जगहें बदली हैं, खाली हाथ ही रहा हूं, यहां से भी कभी भी वैसे ही चल दूंगा। किसी भी कीमत पर इंगलैण्ड या अमेरिका की तरफ निकल जाना है।
ऑफिस से लौटा ही हूं कि अलका दीदी का बुलावा आ गया है। पिछले कितने दिनों से उनके घर गया ही नहीं हूं।
फ्रेश हो कर उनके घर पहुंचा तो दीदी ने मुस्कुराते हुए दरवाजा खोला है। भीतर आता हूं। सामने ही एक लम्बी-सी लड़की बैठी है। दीदी परिचय कराती हैं - ये गोल्डी है। सीएमसी में सर्विस इंजीनियर है। उसे मेरे बारे में बताती है। मैं हैलो करता हूं। हम बैठते हैं। दीदी चाय बनाने चली गयी है।
किसी भी अकेली लड़की की मौजूदगी में मैं असहज महसूस करने लगता हूं। समझ ही नहीं आता, क्या बात करूं और कैसे शुरूआत करूं। वह भी थोड़ी देर तक चुप बैठी रहती है फिर उठ कर दीदी के पीछे रसोई में ही चली गयी है। चलो, अच्छा है। उसकी मौजूदगी से जो तनाव महसूस हो रहा था, कम से कम वो तो नहीं होगा। लेकिन दीदी भी अजीब हैं। उसे फिर से पकड़ कर ड्राइंग रूम में ले आयी है - बहुत अजीब हो तुम दोनों? क्या मैं इसीलिए तुम दोनों का परिचय करा के गयी थी कि एक दूसरे का मुंह देखते रहो और जब दोनों थक जाओ तो एक उठ कर रसोई में चला आये।
मैं झेंप कर कहता हूं - नहीं दीदी, ऐसी बात नहीं है दरअसल .. मैं ..
- हां, मुझे सब पता है कि तुम लड़कियों से बात करने में बहुत शरमाते हो और कि तुम्हारा मूड आजकल बहुत खराब चल रहा है और मुझे यह भी पता है कि ये लड़की तुझे खा नहीं जायेगी। बेशक कायस्थ है लेकिन वैजिटेरियन है। दीदी ने मुझे कठघरे में खड़ा कर दिया है। कहने को कुछ बचा ही नहीं है।
मैं बात शुरू करने से हिसाब से पूछता हूं उससे - कहां से ली थी कम्प्यूटर्स में डिग्री?
- इंदौर से। वह भी संकोच महसूस कर रही है कि उठ, कर रसोई में क्यों चली गयी थी।
- बंबई पहली बार आयी हैं?
- जॉब के हिसाब तो पहली ही बार ही आयी हूं, लेकिन पहले भी कॉलेज ग्रुप के साथ बंबई घूम चुकी हूं।
- चलो, गगनदीप के लिए अच्छा हुआ कि उसे गोल्डी को बंबई नहीं घुमाना पड़ेगा।
- आप तो मेरे पीछे ही पड़ गयी हैं दीदी, मैंने ऐसा कब कहा...
- हां, अब हुई न बात। तो अब पूरी बात सुन। गोल्डी एक हफ्ता पहले ही बंबई आयी है। बिचारी को आते ही रहने की समस्या से जूझना पड़ा। कल ही विनायक क्रॉस रोड पर रहने वाली हमारी विधवा चाची की पेइंग गेस्ट बन कर आयी है। इसे कुछ शॉपिंग करनी है। तू ज़रा इसके साथ जा कर इसे शॉपिंग करा दे।
- ठीक है दीदी, करा देता हूं। दीदी की बात टालने की मेरी हिम्मत नहीं है।
- जा गोल्डी। वैसे तुझे बता दूं कि ये बहुत ही शरीफ लड़का है। पता नहीं रास्ते में तुझसे बात करे या नहीं या तुझे चाट वगैरह भी खिलाये या नहीं, तू ही इसे कुछ खिला देना।
- दीदी, इतनी तो खिंचाई मत करो। अब मैं इतना भी गया गुजरा नहीं हूं कि ....।
- मैं यही सुनना चाहती थी। दीदी ने हँसते हुए हमें विदा किया है।
हम दोनों एक साथ नीचे उतरते हैं।
सीढ़ियों में ही उससे पूछता हूं - आपको किस किस्म की शॉपिंग करनी है? मेरा मतलब उसी तरह के बाज़ार की तरफ जायें।
- अब अगर यहीं रहना है तो सुई से लेकर आइरन, बाल्टी, इलैक्ट्रिक कैटल सब कुछ ही तो लेना पड़ेगा। पहले यही चीजें ले लें - ऑटो ले लें? बांद्रा स्टेशन तक तो जाना पड़ेगा।
दो तीन घंटे में ही उसने काफी शॉपिंग कर ली है। बहुत अच्छी तरह से शॉपिंग की है उसने। उसने सामान भी बहुत बढ़िया क्वालिटी का खरीदा है। ज्यादातर सामान पहली नज़र में ही पसंद किया गया है। दीदी की बात भूला नहीं हूं। गोल्डी को आग्रह पूर्वक शेरे पंजाब रेस्तरां में खाना खिलाया है। इस बीच उससे काफी बात हुई है। गोल्डी कराटे में ब्लू बैल्ट है। पुराने संगीत की रसिया है और अच्छे खाने की शौकीन है। उसे फिल्में बिलकुल अच्छी नहीं लगती।
उसने मेरे बारे में भी बहुत कुछ जानना चाहा है। संकट में डाल दिया है उसने मुझे मेरी डेट ऑफ बर्थ पूछ कर। कभी सोचा भी नहीं था, इधर-उधर के फार्मों में लिखने के अलावा जन्म की तारीख का इस तरह भी कोई महत्व होता है। एक तरह से अच्छा भी लगा है। आज तक यह तारीख महज एक संख्या थी। आज एक सुखद अहसास में बदल गयी है।
मैं भी उससे उसकी डेट ऑफ बर्थ पूछता हूं। बताती है - बीस जुलाई सिक्सटी नाइन।
मैं हँसता हूं - मुझसे छः साल छोटी हैं।
वह जवाब देती है - दुनिया में हर कोई किसी न किसी से छोटा होता है तो किसी दूसरे से बड़ा। अगर सब बराबर होने लगे तो चल चुकी दुनिया की साइकिल....।
काफी इंटेलिजेंट है और सेंस ऑफ ह्यूमर भी खूब है। आज से ठीक बीस दिन जनम दिन है गोल्डी का। देखें, तब यहां होती भी है या नहीं....!
- आपका ऑफिस तो बांद्रा कुर्ला कॉम्पलैक्स में है। सुना है बहुत ही शानदार बिल्डिंग है।
- हां बिल्डिंग तो अच्छी है। कभी ले जाऊंगी आपको। अभी तो नयी हूं इसलिए हैड क्वार्टर्स दिया है। मैं तो फील्ड स्टाफ हूं। अपने काम के सिलसिले में सारा दिन एक जगह से दूसरी जगह जाना पड़ेगा।
- बंबई से बाहर भी?
- हां, बाहर भी जाना पड़ सकता है।
हम लदे फदे वापिस पहुंचे हैं। गोल्डी का काफी सारा सामान मेरे दोनों हाथों में है। उसे चाची के घर के नीचे विदा करता हूं तो पूछती है - ये सारा सामान लेकर मैं अकेली ऊपर जाऊंगी तो आपको खराब नहीं लगेगा!
- ओह, सॉरी, मैं तो ये समझ रहा था मेरा ऊपर जाना ही आपको खराब लगेगा, इसलिए चुप रह गया। लाइये, मैं पहुंचा देता हूं सामान।
चाची को नमस्ते करता हूं। उनसे अक्सर दीदी के घर मुलाकात हो जाती है। हालचाल पूछती हैं। गोल्डी का सामान रखवा कर लौटने को हूं कि वह कहती है - थैंक्स नहीं कहूंगी तो आपको खराब लगेगा और थैंक्स कहना मुझे फॉर्मल लग रहा है।
- इसमें थैंक्स जैसी कोई बात नहीं है। इस बहाने मेरा भी घूमना हो गया। वैसे भी कमरे में बैठा बोर ही तो होता।
हँसती है - वैसे तो दीदी ने मुझे डरा ही दिया था कि आप बिलकुल बात ही नहीं करते। एनी वे थैक्स फॉर द नाइस डिनर। गुड नाइट।
किसी लड़की के साथ इतना वक्त गुज़ारने का यह पहला ही मौका है। वह भी अनजान लड़की के साथ पहली ही मुलाकात में। ऋतुपर्णा के साथ भी कभी इतना समय नहीं गुज़ारा था। गोल्डी के व्यक्तित्व के खुलेपन के बारे में सोचना अच्छा लग रहा है। कोई दुराव छुपाव नहीं। साफगोई से अपनी बात कह देना।
चलो, अलका दीदी ने जो ड्यूटी सौंपी थी, उसे ठीक-ठाक निभा दिया।
सुबह सुबह ही मकान मालिक ने बताया है कि दरवाजे पर कोई सिख लड़का खड़ा है जो तुम्हें पूछ रहा है। मैं लपक कर बाहर आता हूं।
सामने बिल्लू खड़ा है। पास ही बैग रखा है। मुझे देखते ही आगे बढ़ा है और हौले से झुका है।
मैं हैरान - न चिट्ठी न पत्री, हज़ारों मील दूर से चला आ रहा है, कम से कम खबर तो कर देता। उसे भीतर लिवा लाता हूं। मकान मालिक उसे हैरानी से देख रहा है। उन्हें बताता हूं - मेरा छोटा भाई है। यहां एक इन्टरव्यू देने आया है। मकान मालिक की तसल्ली हो गयी है कि रहने नहीं आया है।
उसे भीतर लाता हूं। पूछता हूं - .. इस तरह .. अचानक ही.. कम से कम खबर तो कर ही देता.. मैं स्टेशन तो लेने आ ही जाता..।
हंसता है बिल्लू - बस, बंबई घूमने का दिल किया तो बैग उठाया और चला आया।
मैं चौंका हूं - घर पर तो बता कर आया है या नहीं ?
- उसकी चिंता मत करो वीर, उन्हें पता है, मैं यहां आ रहा हूं।
मुझे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि घर वह कह कर आया है। सोच लिया है मैंने, रात को नंदू को फोन करके बता दूंगा - घर बता दे, बिल्लू यहां ठीक ठाक पहुंच गया है। फिकर न करें।
- बेबे कैसी है? दारजी, गुड्डी और गोलू?
- बेबे अभी भी ढीली ही है। ज्यादा काम नहीं कर पाती। बाकी सब ठीक हैं।
मकान मालिक ने इतनी मेहरबानी कर दी है कि दो कप चाय भिजवा दी है।
बिल्लू नहा धो कर आया है तो मैं देखता हूं कि उसके कपड़े, जूते वगैरह बहुत ही मामूली हैं। घर पर रहते हुए मैंने इस तरफ़ ध्यान ही नहीं दिया था। आज-कल में ही दिलवाने पड़ेंगे। घुमाना-फिराना भी होगा। यही काम मेरे लिए सबसे मुश्किल होता है। मैंने खुद बंबई ढंग से नहीं देखी है, उसे कैसे घुमाऊंगा। पता नहीं कितने दिन का प्रोग्राम बना कर आया है।
पूछ रहा है बिल्लू - क्या सोचा है वीर शादी के बारे में। उसने अपने बैग में से संतोष की तस्वीर निकाल कर मेरे आगे रख दी है। लगता है मुझे शादी के लिए तैयार करने और लिवा लेने के लिए आया है। उसे लिखा-पढ़ा कर भेजा गया है। वह जिस तरह से मेरी चीजों को उलट-पुलट कर देख रहा है और सारी चीजों के बारे में पूछ रहा है उससे तो यही लगता है कि वह मेरा जीवन स्तर, रहने का रंग ढंग और मेरी माली हालत का जायजा लेने आया है। कहा उसने बेशक नहीं है लेकिन उसके हाव-भाव यही बता रहे हैं।
परसों अलका दीदी ने दोनों को खाने पर बुला लिया था। गोल्डी भी थी। वहां पर भी वह सबके सामने मेरे घर छोड़ कर आने के बारे में उलटी-सीघी बातें करने लगा। जब मैं चुप ही रहा तो अलका को मेरे बचाव में उसे चुप करना पड़ा तो जनाब नाराज़ हो गये - आपको नहीं पता है भैनजी, ये किस तरह बिना बताये घर छोड़ कर आ गये थे कि सारी बिरादरी इनके नाम पर आज भी थू थू कर रही है। सगाई की सारी तैयारियां हो चुकी थीं। वो तो लोग-बाग दारजी का लिहाज कर गये वरना..इन्होंने कोई कसर थोड़े ही छोड़ रखी थी।
वह ताव में आ गया था। बड़ी मुश्किल से हम उसे चुप करा पाये थे। हमारी सारी शाम खराब हो गयी थी। गोल्डी क्या सोचेगी मेरे बारे में कि इतना ग़ैर-जिम्मेवार आदमी हूं। उससे बात ही नहीं हो पायी थी। मैं देख सकता था कि वह भी बहुत आक्वर्ड महसूस कर रही थी।
इस बीच देवेन्द्र और अलका जी ने दोबारा बुलाया है लेकिन मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही कि उसे वहां ले जाऊं। ले ही नहीं गया। अब तो बिल्लू से बात करने की ही इच्छा नहीं हो रही है। इसके बावजूद बिल्लू को ढेर सारी शापिंग करा दी है। घुमाया-फिराया है और हजारों रुपयों की चीज़ें दिलवायीं हैं। वह बीच-बीच में संतोष कौर का जिक्र छेड़ देता है कि बहुत अच्छी लड़की है, मैं एक बार उसे देख तो लेता। आखिर मुझे दुखी हो कर साफ-साफ कह ही देना पड़ा कि अगली बार जो तूने उस या किसी भी लड़की का नाम लिया तो तुझे अगली ट्रेन में बिठा दूंगा। तब कहीं जा कर वह शांत हुआ है।
अब उसकी मौजूदगी मुझमें खीज पैदा करने लगी है।
उसकी वज़ह से मैं हफ्ते भर से बेकार बना बैठा हूं। जनाब ग्यारह बजे तो सो कर उठते हैं। नहाने का कोई ठिकाना नहीं। खाने-पीने का कोई वक्त नहीं। यहां संकट यह है कि पूरी ज़िंदगी मैं हमेशा सारे काम अनुशासन से बंध कर करता रहा। जरा-सी भी अव्यवस्था मुझे बुरी तरह से बेचैन कर देती है। घूमने-फिरने के लिए निकलते-निकलते डेढ दो बजा देना उसके लिए मामूली बात है। तीन-चार घंटे घूमने के बाद ही जनाब थक जाते हैं और फिर बेताल डाल पर वापिस।
पूरे हफ्ते से उसका यही शेड्यूल चल रहा है। उसकी शॉपिंग भी माशा अल्लाह अपने आप में अजूबा है। पता नहीं किस-किस की लिस्टें लाया हुआ है। यह भी चाहिये और वह भी चाहिये। अब अगर किसी और ने सामान मंगाया है तो उसके लिए पैसे भी तो निकाल भाई। लेकिन लगता है उसके हाथों ने उसकी जेबों का रास्ता ही नहीं देखा। उसकी खुद की हजारों रुपये की शॉपिंग करा ही चुका हूं। उसमें मुझे कोई एतराज़ नहीं है। लेकिन किसी ने अगर कैमरा मंगवाया है या कुछ और मंगवाया है तो उसके लिए भी मेरी ही जेब ढीली करा रहा है। उसके खाने-पीने में मैंने कोई कमी नहीं छोड़ी है। मैं खुद रोज़ाना ढाबे में या किसी भी उडिपी होटल मे खा लेता हूं लेकिन उसे रोज ही किसी न किसी अच्छे होटल में ले जा रहा हूं। इसलिए जब उसने कहा कि मैं गोवा घूमना चाहता हूं तो मुझे एक तरह से अच्छा ही लगा। उसे गोवा की बस में बिठा दिया है और हाथ में पांच सौ रुपये भी रख दिये हैं। तभी पूछ भी लिया है - आजकल रश चल रहा है। ऐन वक्त पर टिकट नहीं मिलेगी। तेरा कब का टिकट बुक करा दूं?
उसे अच्छा तो नहीं लगा है लेकिन बता दिया है उसने
- गोवा से शुक्रवार तक लौटूंगा। शनिवार की रात का करा दें।
और इस तरह से बिल्लू महाराज जी मेरे पूरे ग्यारह दिन और लगभग आठ हजार रुपये स्वाहा करने के बाद आज वापिस लौट गये हैं। लेकिन जाते-जाते वह मुझे जो कुछ सुना गया है, उससे एक बार फिर सारे रिश्तों से मेरा मोह भंग हो गया है। उसकी बातें याद कर करके दिमाग की सारी नसें झनझना रही हैं। कितना अजीब रहा यह अनुभव अपने ही सगे भाई के साथ रहने का। क्या वाकई हम एक दूसरे से इतने दूर हो गये हैं कि एक हफ्ता भी साथ-साथ नहीं रह सकते। उसके लिए इतना कुछ करने के बाद भी उसने मुझे यही सिला दिया है....।
गोल्डी से इस बीच एक दो बार ही हैलो हो पायी है। वह भी राह चलते। एक बार बाज़ार में मिल गयी थी। मैं खाना खा कर आ रहा था और वह कूरियर में चिट्ठी डालने जा रही थी। तब थोड़ी देर बात हो पायी थी।
उसने अचानक ही पूछ लिया था - आप आइसक्रीम तो खा लेते होंगे?
- हां खा तो लेता हूं लेकिन बात क्या है?
- दरअसल आइसक्रीम खाने की बहुत इच्छा हो रही है। मुझे कम्पनी देंगे ?
- ज़रूर देंगे। चलिये।
- लेकिन खिलाऊंगी मैं।
- ठीक है आप ही खिला देना। तब आइसक्रीम के बहाने ही उससे थोड़ी बहुत बात हो पायी थी।
- बहुत थक जाती हूं। सारा दिन शहर भर के चक्कर काटती हूं। न खाने का समय न वापिस आने का।
- मैं समझ सकता हूं लेकिन आपके सामने कम से कम सुबह के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक की समस्या तो नहीं है।
- वो तो खैर नहीं है। फिर भी लगता नहीं इस चाची नाम की लैंड लेडी से मेरी ज्यादा निभ पायेगी। किराया जितना ज्यादा, उतनी ज्यादा बंदिशें। शाम को मैं बहुत थकी हुई आती हूं। तब सहज-सी एक इच्छा होती है कि काश, कोई एक कप चाय पिला देता। लेकिन चाची तो बस, खाने की थाली ले कर हाज़िर हो जाती है। अब सुबह का दूध शाम तक चलता नहीं और पाउडर की चाय में मज़ा नहीं आता।
- मैं आपकी तकलीफ़ समझ सकता हूं।
- और भी दस तरह की बंदिशें हैं। ये मत करो और वो मत करो। रात दस बजे तक घर आ जाओ। अब मैं जिस तरह के जॉब में हूं, वहां देर हो जाना मामूली बात है। कभी कोई कॉल दस मिनट में भी ठीक हो जाती है तो कई बार बिगड़े सिस्टम को लाइन पर लाने में दसियों घंटे लग जाना मामूली बात है। तब वहां हम सामने खुला पड़ा सिस्टम देखें या चाची का टाइम टेबल याद करें।
- किसी गर्ल्स हॉस्टल में क्यों नहीं ट्राई करतीं।
- सुना है वहां का माहौल ठीक नहीं होता और बंदिशें वहां भी होंगी ही। खैर, आप भी क्या सोचेंगे, आइसक्रीम तो दस रुपये की खिलायी लेकिन बोर सौ रुपये का कर गयी। चलिये।
हम टहलते हुए एक साथ लौटे थे।
कहा था उसने - कभी आपके साथ बैठ कर ढेर सारी बातें करेंगे।
उसके बाद एक बार और मिली थी वह। अलका दीदी के घर से वापिस जा रही थी और मैं घर आ रहा था।
पूछा था तब उसने - कुछ फिक्शन वगैरह पढ़ते हैं क्या?
- ज़िंदगी भर तो भारी-भारी टैक्निकल पोथे पढ़ता रहा, फिक्शन के लिए पहले तो फुर्सत नहीं थी, बाद में पढ़ने का संस्कार ही नहीं बन पाया। वैसे तो ढेरों किताबें हैं। शायद कोई पसंद आ जाये। देखना चाहेंगी ?
- चलिये। और वह मेरे साथ ही मेरे कमरे में वापिस आ गयी है।
यहां भी पहली ही बार वाला मामला है। मेरे किसी भी कमरे में आने वाली वह पहली ही लड़की है।
- कमरा तो बहुत साफ सुथरा रखा है। वह तारीफ करती है।
- दरअसल यह पारसी मकान मालिक का घर है। और कुछ हो न हो, सफाई जो ज़रूर ही होगी। वैसे भी अपने सारे काम खुद ही करने की आदत है इसलिए एक सिस्टम सा बन जाता है कि अपना काम खुद नहीं करेंगे तो सब कुछ वैसे ही पड़ा रहेगा। बाद में भी खुद ही करना है तो अभी क्यों न कर लें।
- दीदी आपकी बहुत तारीफ कर रही थीं कि आपने अपने कैरियर की सारी सीढ़ियां खुद ही तय की हैं। ए कम्पलीट सैल्फ मेड मैन। वह किताबों के ढेर में से अपनी पसंद की किताबें चुन रही है।
हँसता हूं मैं - आप सीढ़ियां चढ़ने की बात कर रही हैं, यहां तो बुनियाद खोदने से लेकर गिट्टी और मिट्टी भी खुद ही ढोने वाला मामला है। देखिये, आप पहली बार मेरे कमरे में आयी हैं, अब तक मैंने आपको पानी भी नहीं पूछा है। कायदे से तो चाय भी पिलानी चाहिये।
- इन फार्मेलिटीज़ में मत पड़िये। चाय की इच्छा होगी तो खुद बना लूंगी।
- लगता है आपको संगीत सुनने का कोई शौक नहीं है। न रेडियो, न टीवी, न वॉकमैन या स्टीरियो ही। मैं तो जब तब दो-चार घंटे अपना मन पसंद संगीत न सुन लूं, दिन ही नहीं गुज़रता।
- बताया न, इन किताबों के अलावा भी दुनिया में कुछ और है कभी जाना ही नहीं। अभी कहें आप कि फलां थ्योरी के बारे में बता दीजिये तो मैं आपको बिना कोई भी किताब देखे पूरी की पूरी थ्योरी पढ़ा सकता हूं।
- वाकई ग्रेट हैं आप। चलती हूं अब। ये पांच-सात किताबें ले जा रही हूं। पढ़ कर लौटा दूंगी।
- कोई जल्दी नहीं है। आपको जब भी कोई किताब चाहिये हो, आराम से ले जायें। देखा, चाय तो फिर भी रह ही गयी।
- चाय ड्यू रही अगली बार के लिए। ओके।
- चलिये, नीचे तक आपको छोड़ देता हूं।
जब उसे उसके दरवाजे तक छोड़ा तो हँसी थी गोल्डी - इतने सीधे लगते तो नहीं। लड़कियों को उनके दरवाजे तक छोड़ कर आने का तो खूब अनुभव लगता है। और वह तेजी से सीढ़ियां चढ़ गयी थी।
घर लौटा तो देर तक उसके ख्याल दिल में गुदगुदी मचाये रहे। दूसरी-तीसरी मुलाकात में ही इतनी फ्रैंकनेस। उसका साथ सुखद लगने लगा है। देखें, ये मुलाकातें क्या रुख लेती हैं। बेशक उसके बारे में सोचना अच्छा लग रहा है लेकिन उसे ले कर कोई भी सपना नहीं पालना चाहता।
अब तक तो सब ने मुझे छला ही है। कहीं यहां भी...!
बिल्लू को गये अभी आठ दिन भी नहीं बीते कि दारजी की चिट्ठी आ पहुंची है।
समझ में नहीं आ रहा, यहां से भाग कर अब कहां जाऊं। वे लोग मुझे मेरे हाल पर छोड़ क्यों नहीं देते। क्या यह काफी नहीं है उनके लिए कि मैं उन पर किसी भी किस्म का बोझ नहीं बना हुआ हूं। मैंने आज तक न उनसे कुछ मांगा है न मांगूंगा। फिर उन्हें क्या हक बनता है कि इतनी दूर मुझे ऐसे पत्र लिख कर परेशान करें।
लिखा है दारजी ने
- बरखुरदार
बिल्लू के मार्फत तेरे समाचार मिले और हम लोगों के लिए भेजा सामान भी। बाकी ऐसे सामान का कोई क्या करे जिसे देने वाले के मन में बड़ों के प्रति न तो मान हो और न उनके कहे के प्रति कोई आदर की भावना। हम तो तब भी चाहते थे और अब भी चाहते हैं कि तू घर लौट आ। पुराने गिले शिकवे भुला दे और अपणे घर-बार की सोच। आखर उमर हमेशा साथ नहीं देती। तू अट्ठाइस-उनतीस का होने को आया। हुण ते करतारे वाला मामला भी खतम हुआ। वे भी कब तक तेरे वास्ते बैठे रहते और लड़की की उमर ढलती देखते रहते। हर कोई वक्त के साथ चला करता है सरदारा.. और कोई किसी का इंतजार नहीं करता। हमने बिल्लू को तेरे पास इसी लिए भेजा था कि टूटे-बिखरे परिवार में सुलह सफाई हो जाये, रौनक आ जाये, लेकिन तूने उसे भी उलटा सीधा कहा और हमें भी। पता नहीं तुझे किस गल्ल का घमंड है कि हर बार हमें ही नीचा दिखाने की फिराक में रहता है। बाकी हमारी दिली इच्छा थी और अभी भी है कि तेरा घर बस जाये लेकिन तू ही नहीं चाहता तो कोई कहां तक तेरे पैर पकड़े। आखर मेरी भी कोई इज्जत है कि नहीं। अब हमारे सामने एक ही रास्ता बचता है कि अब तेरे बारे में सोचना छोड़ कर बिल्लू और गोलू के बारे में सोचना शुरू कर दें। कोई मुझसे यह नहीं पूछने आयेगा कि दीपे का क्या हुआ। सबकी निगाह तो अब घर में बैठे दो जवान जहान लड़कों की तरफ ही उठेगी।
एक बार फिर सोच ले। करतारा न सही, और भी कई अच्छे रिश्तेवाले हमारे आगे पीछे चक्कर काट रहे हैं। अगर बंबई में ही कोई लड़की देख रखी हो तो भी बता, हम तेरी पसंद वाली भी देख लेंगे।
तुम्हारा,
दारजी...।
अब ऐसे खत का क्या जवाब दिया जाये!
देस बिराना अध्याय 3
अलका दीदी छेड़ रही हैं - कै सी लगती है गोल्डी?
- क्यों क्या हो गया हो उसे? मैं अनजान बन जाता हूं।
- ज्यादा उड़ो मत, मुझे पता है आजकल दोनों में गहरी छन रही है।
- ऐसा कुछ भी नहीं है दीदी, बस, दो-एक बार यूं ही मिल गये तो थोड़ी बहुत बात हो गयी है वरना वो अपनी राह और मैं अपनी राह?
- अब तू मुझे राहों के नक्शे तो बता मत और न ये बता कि मुझे कुछ पता नहीं है, गोल्डी बहुत ही शरीफ लड़की है। तुझसे उसकी जो भी बातें होती हैं मुझे आ कर बता जाती है। बल्कि तेरी बहुत तारीफ कर रही थी कि इतनी ऊंची जगह पहुंच कर भी दीपजी इतने सीधे सादे हैं।
- गोल्डी अच्छी लड़की है लेकिन आपको तो पता ही है मैं जिस दौर से गुज़र रहा हूं वहां किसी भी तरह का मोह पालने की हिम्मत ही नहीं ही नहीं होती। बहुत डर लगता है दीदी अब इन बातों से। वैसे भी पांच-सात मुलाकातों में किसी को जाना ही कितना जा सकता है।
- उसकी चिंता मत कर। रोज़-रोज़ मिलने से वैसे भी प्यार कम हो जाता है। तू मुझे सिर्फ ये बता कि उसके बारे में सोचना अच्छा लगता है या नहीं?
- अब जाने भी दो दीदी, पिछले कई दिनों से उसे देखा भी नहीं।
- बाहर गयी हुई थी। आज शाम को ही लौटी है। अभी फोन आया था। पूछ रही थी तुझे। आज आयेगी यहां। जी भर के देख लेना। तुम दोनों खाना यहीं खा रहे हो।
हम दोनों गोल्डी की बात कर ही रहे हैं कि दरवाजे की घंटी बजी। दीदी ने बता दिया है - जा, अपनी मेहमान को रिसीव कर।
- आपको कैसे पता वही है? मैं हैरानी से पूछता हूं।
- अब तेरे लिए ये काम भी हमें ही करना पड़ेगा। कदमों की आहट, कॉलबैल की आवाज पहचाननी तुझे चाहिये और बता हम रहे हैं। जा दरवाजा खोल, नहीं तो लौट जायेगी।
दरवाजे पर गोल्डी ही है। हँसते हुए भीतर आती है। हाथ में मेरी किताबें हैं।
- हम तेरी ही बात कर रहे थे। दीदी उसे बताती हैं।
- दीपजी ज़रूर मेरी चुगली खा रहे होंगे कि मैं उनकी किताबें लेकर बिना बताये शहर छोड़ कर भाग गयी हूं। इसीलिए यहां आने से पहले सारी किताबें लेती आयी हूं।
- आपको हर समय यही डर क्यों लगा रहता रहता है कि आपकी ही चुगली खायी जा रही है। आपकी तारीफ भी तो हो सकती है।
- आपके जैसा अपना इतना नसीब कहां कि कोई तारीफ भी करे। खैर, तो क्या बातें हो रही थी हमारी?
- आज दीप तुझे आइसक्रीम खिलाने ले जा रहा है।
- वॉव !! सिर्फ हमें ही क्यों ? आपको भी क्यों नहीं।
- आपके जैसा अपना नसीब कहां । दीदी ज़ोर से हँसती हैं।
हम देर तक यूं ही हलकी-फुलकी बातें करते रहे हैं। जब आइसक्रीम के लिए जाने का समय आया तब तक चुन्नू सो चुका है। मैं आइसक्रीम वहीं ले आया हूं।
वापिस जाते समय पूछा है गोल्डी ने - कुछ किताबें बदल लें क्या?
- ज़रूर .... ज़रूर। चलिये।
किताबें चुन लेने के बाद वह जाने के लिए उठी है। जब हम दरवाजे पर पहुंचे हैं तो उसने छेड़ा है - आज अपने मेहमान को फिर चाय पिलाना भूल गये जनाब....और वह तेजी से नीचे उतर गयी है।
मैं हँसता हूं - ये लड़की भी अजीब है। रिश्तों में ज़रा सी भी औपचारिकता का माहौल बरदाश्त नहीं कर सकती। अब उसे ले कर मेरे मन में अक्सर धुकधुकी होने लगती है। - गोल्डी आइ हैव स्टार्टेड लविंग यू.. लेकिन क्या मैं ये शब्द उससे कभी कह पाऊंगा !
दीदी को पता चल गया है कि हम दोनों अक्सर मिलते हैं। इसी चक्कर में हम दोनों ही अब उतने नियमित रूप से दीदी के घर नहीं जा पाते। गोल्डी कभी चर्चगेट आ जाती है तो हम मैरीन ड्राइव पर देर तक घूमते रहते हैं। खाना भी बाहर एक साथ ही खा लेते हैं। मैं और गोल्डी रोजाना नयी जगह पर नये खाने की तलाश में भटकते रहते हैं। दोनों पूरी शाम खूब मस्ती करते हैं। उसके जन्म दिन पर मैंने उसे जो वॉकमैन दिया था, वह उसे हर समय लगाये रहती है। मेरी बात सुनने के लिए उसे बार-बार ईयर फोन निकालने पड़ते हैं लेकिन बात सुनते ही वह फिर से ईयर फोन कानों में अड़ा लेती है।
गोल्डी ने मेरे जीवन में रंग भर दिये है। एक ही बार में कई कई रंग। उसके संग-साथ में अब जीवन सार्थक लगने लगा है। उसने जबरदस्ती मेरा जनम दिन मनाया। सिर्फ हम दोनों की पार्टी रखी और मुझे एक खूबसूरत रेडीमेड शर्ट दी। मेरी याद में मेरा पहला जनमदिन उपहार। उसके स्नेह से अब जीवन जीने जैसा लगने लगा है और बंबई शहर रहने जैसा। शामें गुज़ारने जैसी और दिन उसके इंतज़ार करने जैसा। बेशक हम दोनों ने ही अभी तक मुंह से प्यार जैसा कोई शब्द नहीं कहा है लेकिन पता नहीं, इतने नज़दीकी संबंध जीने के बाद ये ढाई शब्द कोई मायने भी रखते हैं या नहीं। कुल मिला कर मेरे जीवन में गोल्डी की मौजूदगी मुझे एक विशिष्ट आदमी बना रही है।
कमरे पर पहुंचा ही हूं कि मेज पर रखा लिफाफा नज़र आया है। गोल्डी का खत है। उससे आज मिलना ही है। वह डिनर दे रही है। उसके लिए मैंने कुछ अच्छी किताबें खरीद रखी हैं। कमरे पर किताबें लेने और चेंज करने आया हूं। हैरान हो रहा हूं, जब मिल ही रहे हैं तो खत लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ गयी है।
लिफाफा खोलता हूं। सिर्फ तीन पंक्तियां लिखी हैं -
- दीप
आज और अभी ही एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में हैदराबाद जाना पड़ रहा है। पता नहीं कब लौटना हो। तुमसे बिना मिले जाना खराब लग रहा है, लेकिन सीधे एयरपोर्ट ही जा रही हूं।
कान्टैक्ट करूंगी।
सी यू सून..
लॉट्स ऑफ लव।
गोल्डी।
मैं पत्र हाथ में लिये धम्म से बैठ गया हूं। तो ....गोल्डी भी गयी..। एक और सदमा...। कम से कम मिल कर तो जाती!! फोन तो कर ही सकती थी। रोज़ ही तो करती थी फोन। कहीं भी होती थी बता देती थी और वहां से चलने से पहले भी फोन ज़रूर करती थी। आज ही ऐसी कौन सी बात हो गयी। पता नहीं क्यों लग रहा है, यह सी यू सून शब्द भी धोखा दे गये हैं। ये शब्द अब हम दोनों को कभी नहीं मिलायेंगे।
मेरी आंखें नम हो आयी हैं। अचानक सब कुछ खाली-खाली सा लगने लगा है। सब कुछ इतनी जल्दी निपट गया? अपने आप पर हँसी भी आती है - पता नहीं हर बार ये सब मेरे साथ ही क्यों होता है। अभी खत हाथ में लिये बैठा ही हूं कि दीदी सामने दरवाजे पर नज़र आयी है। मैं तेजी से अपनी गीली आंखें पोंछता हूं। उनके सामने कमज़ोर नहीं पड़ना चाहता। मुस्कुराता हूं। आखिर अपना उदास चेहरा उन्हें क्यों दिखाऊं!! लेकिन यह क्या !! दीदी की आंखें लाल हैं। साफ लग रहा है, वे रोती रही हैं। मैं चुपचाप खड़ा रह गया हूं। दीदी अचानक मेरे पास आती हैं और मेरे कंधे से लग कर सुबकने लगती हैं। मैं समझ गया हूं कि गोल्डी उन्हें सब कुछ बता गयी है। मैं संकट में पड़ गया हूं। कहां तो अपने आंसू छुपाना चाहता था और कहां दीदी के आंसू पोंछने की ज़रूरत आ पड़ी है। मैं उनके हाथ पर हाथ रखता हूं। उनसे आंखें मिलती हैं। मैं गोल्डी का खत उन्हें दिखाता हूं और अपनी सारी पीड़ा भूल कर उन्हें चुप कराने की कोशिश करता हूं - आप बेकार में ही परेशान हो रही हैं दीदी। मुझे इन सारी बातों की अब तो आदत पड़ गयी है। आप कहां तक और कब तक मेरे लिए आंसू बहाती रहेंगी।
जबरदस्ती हँसती हैं दीदी - पगले मैं तेरे लिए नहीं, उस पागल लड़की के लिए रोती हूं।
- क्यों ? उसके लिए रोने की क्या बात हो गयी? कम से कम मैं तो उसे आपसे ज्यादा ही जानता था। वह ऐसी तो नहीं ही थी कि कोई उसके लिए आंसू बहाये।
- इसीलिए तो रो रही हूं। एक तरफ तेरी तारीफ किये जा रही थी और दूसरी तरफ तेरे लिए अफ़सोस भी कर रही थी कि तुझे इस तरह धोखे में रख कर जा रही है।
- क्या मतलब ? धोखा कैसा ? आखिर ऐसा क्या हो गया है ?
- तुझे उसने लिखा है कि वह एक प्रोजेक्ट के लिए हैदराबाद जा रही है और उसने तुझे सी यू सून लिखा है....।
- इसके बावज़ूद मैं जानता हूं दीदी वह अब कभी वापिस नहीं आयेगी।
- मैं तुझे यही बताना चाहती थी। दरअसल उसने मुझे कई दिन पहले ही बता दिया था कि वह हैदराबाद जा रही है। किसी प्रोजेक्ट के लिए। आज ही जाते-जाते उसने बताया कि दरअसल ट्रांसफर पर शादी के लिए जा रही है।
- शादी के लिए ?
- हां दीप, वह और उसका इमिडियेट बॉस शादी कर रहे हैं। उसका बॉस भी इंदौर का है और उससे सीनियर बैच का है। दरअसल वह तुम्हारी इतनी तारीफ कर रही थी और साथ ही साथ अफसोस भी मना रही थी कि इस तरह से .....।
मैंने खुद पर काबू पा लिया है। जानता हूं अब रोने-धोने से कुछ नहीं होने वाला। माहौल को हलका करने के लिए पूछता हूं
- मैं भी सुनूं, आखिर वह क्या कर रही थी मेरे बारे में?
- कह रही थी कि उसने अपनी ज़िंदगी में दीपजी जैसा ईमानदार, मेहनती, सैल्फमेड और शरीफ आदमी नहीं देखा। उनकी ज़िंदगी में जो भी लड़की आयेगी, वह दुनिया की सबसे खुशनसीब लड़की होगी।
मैं हँसा हूं - तो उसने दुनिया की सबसे खुशनसीब लड़की बनने का चांस क्यों खो दिया?
- अब मैं क्या बताऊं। वह खुद इस बात को लेकर बहुत परेशान थी कि उसे इस तरह का फैसला करना पड़ रहा है। दरअसल वह तुम्हें कभी उस रूप में देख ही नहीं पायी कि .. ....
- तो इसका मतलब दीदी, उन दोनों ने पहले से सब कुछ तय कर रखा होगा?
- यह तो उसने नहीं बताया कि क्या मामला है लेकिन तुम्हें इस तरह से छोड़ कर जाने में उसे बहुत तकलीफ हो रही थी।
- अब जाने दो, दीदी, मैं उन्हें दिलासा देता हूं - आपको तो पता ही है मेरे हाथों में सिर्फ दुर्घटनाओं की ही लकीरें हैं। इन्हें न तो मैं बदल सकता हूं और न मिटा ही सकता हूं। गोल्डी पहली और आखिरी लड़की तो नहीं है।
मैं हँसता हूं - अब आप अपना सुंदर, गृह कार्य में दक्ष और योग्य कन्या खोज अभियान जारी रख सकती हैं।
दीदी आखिर हँसी हैं - वो तो मैं करूंगी ही लेकिन गोल्डी को ऐसा नहीं करना चाहिये था। इधर तेरे साथ इतनी आत्मीयता और उधर....
मैं जानता हूं कि दीदी कई दिनों तक इस बात को लेकर अफसोस मनाती रहेंगी कि गोल्डी मुझे इस तरह से धोखा दे कर चली गयी है।
गोल्डी के इस तरह अचानक चले जाने से मैं खाली-खाली सा महसूस करने लगा हूं। हर बार मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है कि मेरे दिल को हर आदमी खेल का मैदान समझ कर दो चार किक लगा जाता है। जब तक अकेला था, अपने आप में खुश था। किसी के भरोसे तो नहीं था और न किसी का इंतज़ार ही रहता था। गोल्डी ने आ कर पहले मेरी उम्मीदें बढ़ायीं। यकायक चले जा कर मेरे सारे अनुशासन तहस-नहस कर गयी है। पहले सिर्फ अकेलापन था, अब उसमें खालीपन भी जुड़ गया है जो मुझे मार डाल रहा है। समझ में नहीं आता, उसने मेरे साथ जानते-बूझते हुए ये खिलवाड़ क्यों किया!
एक तरह से अच्छा ही हुआ कि वह मुझसे मिले बिना ही चली गयी है।
घर से धमकी भरे पत्र आने अभी भी बंद नहीं हुए हैं। आये दिन या तो कोई मांग चली आती है या वे परेशान करने वाली कोई ऐसी बात लिख देते हैं कि न सहते बने न जवाब देते। मैं तो थक गया हूं। पूरी दुनिया में कोई भी तो अपना नहीं है जो मेरी बात सुने, मेरे पक्ष में खड़ा हो और मेरी तकलीफों में साझेदारी करे। गुड्डी बेचारी इतनी छोटी और भोली है कि उसे अभी से इन दुनियादारी कर बातों में उलझाना उसके साथ अत्याचार करने जैसा लगता है। अलका दीदी मेरे लिए इतना करती हैं और मुझे इतना मानती हैं लेकिन उनकी अपनी गृहस्थी है। अपनी तकलीफें हैं। उन्हें भी कब तक मैं अपने दुखड़े सुना-सुना कर परेशान करता रहूं। अब तो यही दिल करता है कि कहीं दूर निकल जाऊं। जहां कोई भी न हो। न कहने वाला, न सुनने वाला, न कोई बात करने वाला ही। न कोई अपना होगा और न कोई मोह ही पालूंगा और न बार-बार दिल टूटेगा।
इतने दिनों के आत्ममंथन के बाद मैंने अब सचमुच बाहर जाने के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया है। इसके लिए अलग अलग चैनलों की खोज करनी भी शुरू कर दी है कि कहां-कहां और कैसे-कैसे जाया जा सकता है। जब बोस्टन युनिवर्सिटी में पीएच डी कर रहा था तो कुछेक स्थानीय लोगों के पते वगैरह लिये थे। दो एक फैकल्टी मेम्बर्स से भी वहीं नौकरी के बारे में हलकी सी बात हुई थी। उस वक्त तो सारे प्रस्ताव ठुकरा कर चला आया था कि अपने ही देश की सेवा करूंगा, लेकिन अब उन्हीं के पते खोज कर वहां के बारे में पूछ रहा हूं। अखबारों में विदेशी नौकरियों के विज्ञापन भी देखने शुरू कर दिये हैं। हालांकि देश छोड़ने के बारे में मैं फैसला कर ही चुका हूं, विदेश जाने के लिए इच्छुक होने के बावजूद विदेशी नौकरी के लिए थोड़ा हिचकिचा भी रहा हूं क्योंकि आजकल विदेशी नौकरी का झांसा दे कर सब कुछ लूट लेने वालों की बाढ़-सी आयी हुई है और आये दिन इस तरह की खबरों से अखबार भरे रहते हैं।
ऑफिस में कोई बता रहा था कि आजकल विदेश जाने का सबसे सुरक्षित तरीका है कि वहां रहने वाली किसी लड़की से ही शादी कर लो। बेशक घर जंवाई बनना पड़ सकता है लेकिन न वीजा का झंझट, न नौकरी का और न ही रहने-खाने का।
बात हालांकि बहुत कन्विसिंग नहीं है लेकिन इस पर विचार तो किया ही जा सकता है। हो सकता है इस तरह का कोई प्रोपोजल ही क्लिक कर जाये। यह रास्ता भी मैंने बंद नहीं रखा है। बाहर बेशक नौकरी मिल ही जायेगी लेकिन सिर्फ नौकरी से इस अकेलेपन की कैद से छुटकारा तो नहीं ही मिल पायेगा। उसके लिए नये सिरे से जद्दोजहद करनी पड़ेगी। उसके लिए यहां आते भी रहना पड़ेगा। मैं इसी से बचना चाहता हूं और सोच रहा हूं कि कोई बीच का रास्ता मिल जाये तो बेहतर। नौकरी के विज्ञापनों के साथ-साथ मैंने अब अखबारों के इस तरह के मैट्रिमोनियल कॉलमों पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। आजकल इसी तरह के पत्राचार में उलझा रहता हूं।
आखिर मेरी मेहनत रंग लायी है। शादी के लिए ही एक बहुत अच्छा प्रस्ताव अचानक ही सामने आ गया है। अब मैं इस दुनिया से काफी दूर जा पाऊंगा। बेशक वह मेरी मनमाफिक दुनिया नहीं होगी लेकिन कम से कम ऐसी जगह तो होगी जहां कोई मुझे परेशान नहीं करेगा और सतायेगा नहीं।
मुझे बताया गया है कि गौरी बीए पास है और इन कम्पनियों में से एक की फुल टाइम डाइरेक्टर है। यह मेरी मर्जी पर छोड़ दिया गया है कि दामाद बन जाने के बाद चाहे तो इन्हीं में से किसी कम्पनी का सर्वेसर्वा बन सकता हूं या फिर कहीं और अपनी पंसद और योग्यता के अनुसार अलग से काम भी देख सकता हूं। ऐसी कोई भी नौकरी तलाशने में मेरी पूरी मदद करने की पेशकश की गयी है। सारी जानकारी के भेजने के बीच और उनके यहां आ कर मिलने के बीच उन्होंने महीने भर का भी समय नहीं लिया है। ट्रेवल डॉक्यूमेंट्स की तैयारी में जो समय लगेगा वही समय अब मेरे पास बचा है।
यह समय मेरे लिए बहुत मुश्किल भरा है। मैंने इस संबंध में अब तक अपने घर में कुछ भी नहीं लिखा है। लिखने का मतलब ही नहीं है।
घर का तो ये हाल है कि वे तो हर खत के जरिये एक नया शगूफा छेड़ देते हैं। मैं अभी उनकी दी एक परेशानी से मुक्त हुआ नहीं होता कि वे परेशान करने वाली दूसरी हरकत के साथ फिर हाज़िर हो जाते हैं। आजकल वे बिल्लू और गोलू की शादी की तारीखें तय करके भेजने में लगे हुए हैं। इन सारे खतों के जवाब में मैं बिलकुल चुप बना हुआ हूं। उनके किसी खत का जवाब ही नहीं देता। मैं वहां नहीं पहुंचता तो यह तारीख आगे खिसका दी जाती है।
सारी तैयारियां हो चुकी हैं। नौकरी से इस्तीफा दे दिया है और ऑफिस को बता दिया है - जाने से एक दो दिन पहले तक काम पर आता रहूंगा। अलका दीदी बहुत उदास हो गयी हैं। आखिर उनका मुंहबोला भाई जो जा रहा है। रोती हैं वे - कितनी मुश्किल से तो तुम्हारे जैसा हीरा भाई मिला था, वो भी रूठ कर जा रहा है।
मैं समझाता हूं - मैं आपसे रूठ कर थोड़े ही जा रहा हूं। अब हालात ऐसे बना दिये गये हैं मेरे लिए कि अब यहां और रह पाना हो नहीं पायेगा। आप तो देख ही रही हैं मेरे परिवार को। किस तरह सताया जा रहा है मुझे। कोई दिन भी तो ऐसा नहीं होता जब उनकी तरफ से कोई डिमांड या परेशान करने वाली बात न आती हो।
- क्यों अब क्या नयी डिमांड आ गयी है?
- आप खुद ही देख लो। कल की ही डाक में आयी है ये। यह कहते हुए मैं दारजी की ताजा चिट्ठी उनके आगे कर देता हूं। वे ही तो मेरी हमराज़ हैं यहां पर आजकल। वरना घर वालों ने तो मुझे पागल कर छोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है।
वे पढ़ती हैं ।
- बरखुदार
तेरी तरफ से हमारी पिछली तीन-चार चिठ्ठियों का कोई जवाब नहीं आया है। क्या माने हमें इसे - हमारे प्रति लापरवाही, बेरूखी या फिर आलस। तीनों ही बातें रिश्तों में खटास पैदा करने वाली हैं। हम यहां रोज़ ही तेरी डाक का इंतजार करते रहते हैं कि आखिर तूने कुछ तो तय किया होगा। हमारे सारे प्रोग्राम धरे के धरे रह जाते हैं।
फिलहाल खबर यह है कि आजकल बछित्तर यहां आया हुआ है। वे सारा मकान बेचना चाहते हैं। इसमें वैसे तो पांच हिस्से बने हुए हैं जो एक साथ होते हुए भी अलग अलग माने जा सकते हैं। वे लोग मकान एक ही पार्टी को बेचना चाहते हैं लेकिन अगर बड़ी पार्टी न मिली तो अलग-अलग हिस्से भी बेच सकते हैं।
तुझे तो पता ही है कि उनकी और हमारी एक दीवार आगे से पीछे तक सांझी है। इस दीवार के साथ साथ उनका एक वरांडा, रसोई, लैट्रीन और आगे-पीछे दो कमरे बने हुए हैं। ये हिस्सा जोगी का है। मैंने बछित्तरे से बात की है। वह इस बात के लिए राजी हो गया है कि अगर हम उसका यह वाला हिस्सा ले लेते हैं तो वह दूसरी पार्टियों के साथ इस हिस्से की बात ही नहीं चलायेगा।
मकान अभी हाल ही में बनाया गया है और उसमें कभी कोई रहा ही नहीं है। उनके पास जैसे-जैसे पैसा आता गया, वे एक के बाद एक हिस्सा बनाते गये थे। हम सब का दिल है कि बछित्तरे से अगर पूरा मकान नहीं तो कम से कम ये वाला हिस्सा तेरे लिए खरीद ही लें। वह हमारा लिहाज करते हुए इतने बड़े हिस्से का सिर्फ दो लाख मांग रहा है वरना तुझे तो पता ही है आजकल मकानें की कीमतें आसमान को छू रही हैं। आज नहीं तो कल को तू यहां रहने के लिए आयेगा ही। तब तक इसी मकान की कीमत पांच-सात गुना बढ़ चुकी होगी। जायदाद बनाने का इससे अच्छा मौका फिर नहीं मिलेगा। मकान बिलकुल तैयार है और अच्छा बना हुआ भी है। मैं यह मान कर चल रहा हूं कि तुझे यह पेशकश मंज़ूर होगी। तू बेशक हमारी परवाह न करे हमें तो तेरा ही ख्याल रहता है कि तेरा घर बार बन जाये। यही सोच कर मैं आजकल में ही इंतज़ाम करके उसे बयाना दे दूंगा। तू वापसी डाक से लिख, कब तक पूरी रकम का इंतजाम कर पायेगा। तेरे ऑफिस से मकान के लिए कर्जा तो मिलता ही होगा।
बाकी हम बेसब्री से तेरे खत की राह देख रहे हैं। रकम मिलते ही रजिस्ट्री करवा देंगे। अगर जो तुझे अपने बूढ़े बाप पर भरोसा हो तो ये काम मैं करवा दूंगा वरना तू खुद आ कर ये नेक काम कर जाना। इस बहाने हम सबसे मिल भी लेगा। कितना अरसा हो गया है तुझे गये। बेबे तुझे सुबह शाम याद करती है।
जवाब जल्दी देना कि कब तक रकम आ जायेगी।
तेरा ही
दारजी
अलका दीदी ने पत्र पढ़ कर लौटा दिया है और चाय बनाने चली गयी हैं। मैं जानता हूं वे अपनी आंखों के आंसू मुझसे छुपाने के लिए ही रसोई में गयी हैं। उन्हें नार्मल होने में कम से कम एक घंटा लगता है। लेकिन आश्चर्य, वे रसोई से मुस्कुराती हुई वापिस आ रही हैं। चाय के साथ मट्ठी भी है।
आते ही मुझे छेड़ती हैं - चलो, तेरी एक समस्या तो हल हुई। अब तो बना-बनाया घर भी मिल रहा है। मेरी मान, तू उसी कुड़ी, क्या नाम था उसका, संतोष कौरे से शादी कर ही ले। दोनों काम एक ही साथ ही निपटा दे। इस बहाने हम देहरादून भी देख लेंगे।
- दीदी, यहां मेरी जान पर बनी हुई है और आपको मज़ाक सूझ रहा है।
- सच्ची कह रही हूं। तेरे दारजी को भी मानना पड़ेगा। तेरे लिए एक के बाद एक चुग्गा तो ऐसे डालते हैं कि पूछो मत। कुछ पैसे-वैसे भेजने की ज़रूरत नहीं है। तू आराम से इस चिट्ठी को भी हजम कर जा। उनके पास बयाने तक के तो पैसे नहीं हैं, लिखा है, इंतजाम करके बयाना दे दूंगा। और दो लाख का मकान खरीद रहे हैं। उनके चक्करों में पड़ने की ज़रूरत नहीं है।
- आपकी बातों से मेरी आधी चिंता दूर हो गयी है। वैसे तो मैं भी कुछ भेजने वाला नहीं था, अब आपके कहने के बाद तो बिलकुल भी इस चक्कर में नहीं फंसूंगा।
यहां से जाने से पहले गुड्डी को आखिरी पत्र लिख रहा हूं
- प्यारी बहना गुड्डी,
जब तक तुझे यह पत्र मिलेगा मैं यहां से बहुत दूर जा चुका होऊंगा। मैंने बहुत सोच समझ कर देश छोड़ कर लंदन जाने का फैसला किया है। बेशक आखरी उपाय के रूप में ही किया है। मेरे सामने और कोई रास्ता नहीं था। वैसे मेरी बहुत इच्छा थी कि कम से कम तेरी पढ़ाई पूरी होने तक और कहीं ठीक-ठाक जगह तेरी नौकरी का पक्का करके और तेरा अच्छा सा रिश्ता कराने के बाद ही मैं यहां से जाता लेकिन मैं ये दोनों ही काम पूरे किये बिना भाग रहा हूं। इसे मेरा एक और पलायन समझ लेना लेकिन मुझसे अब और बरदाश्त नहीं होता। दारजी की धमकी भरी चिट्ठियां और बिल्लू के हिकारत भरे खत अब मुझसे और बरदाश्त नहीं होते। ये लोग मुझे क्यों चैन से नहीं रहने देते। मैं किसी दिन पागल हो जाऊंगा ये सब पढ़ पढ़ कर। मुझे अभी भी अफसोस होता है कि एक बार घर छोड़ देने के बाद मैं क्यों वापिस लौटा जबकि मुझे पता था कि दारजी जिस मिट्टी के बने हुए हैं उनमें कम से कम इस उम्र में बदलाव की तो कोई उम्मीद ही नहीं की जा सकती। अफसोस तो यही है कि बिल्लू भी दारजी के नक्शे कदम पर चल रहा है। वह भी अभी से वही भाषा बोलने लगा है। तो हालात अब इतने बिगड़ गये है कि मेरे लिए और निभाना हो नहीं हो पायेगा। जब से दारजी वगैरह को मेरा पता मिला है, हर महीने कोई न कोई डिमांड आ जाती है। अब तक मैं सत्तर अस्सी हज़ार रुपये भेज चुका हूं और तकलीफ की बात यही है कि मेरा छोटा भाई मुझे धमकी दे जाता है कि मैं उसकी शादी में रोड़े अटका रहा हूं। मेरी तरफ से वो एक की जगह चार शादियां करे। मुझसे जो बन पड़ेगा मैं करूंगा भी लेकिन कम से कम तरीके से तो पेश आये। मैंने तुझे जानबूझ कर नहीं लिखा था कि जब वह यहां आया था तो किस तरह की भाषा में मुझसे क्या-क्या बातें करके गया था। मुझे लिखते हुए भी शर्म आती है। जब वह जाते समय स्टेशन पर मुझे इस तरह की बातें सुना रहा था तो मैंने उससे कहा था - तू कहे तो मैं लिख के दे देता हू कि तू मुझसे पहले शादी कर ले लेकिन फार गॉड सेक, मुझे ये मत बता कि कहां ज्यादा दहेज मिल रहा है और मैं कहां शादी कर लूं। तू अपनी फिकर कर। मेरी रहने दे। तो पता है उसने क्या कहा। कहने लगा - ठीक है, आप दारजी को यही बात लिख दो। मैंने ये सारी बातें एक खत में लिखी थीं लेकिन वह खत तुझे डालने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाया और वह खत मैंने फाड़ दिया दिया था।
तो गुड्डी, अब मैं इस इकतरफा पैसे वाले प्यार से थक चुका हूं। वैसे सच तो यह है कि मैं इस खानाबदोशों वाली जिंदगी से ही थक चुका हूं। कितने साल हो गये संघर्ष करते हुए। अकेले लड़ते हुए और हासिल के नाम पर कुछ भी नहीं। मैं यहां से सब कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं दूर निकल जाना चाहता हूं। मै जिम्मेवारियों से नहीं भागता लेकिन मुझे भी तो लगे कि मेरी भी कहीं कदर है। मुझे नहीं पता था कि मुझे घर लौटने की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। शायद मेरे हिस्से में घर लिखा ही नहीं है।
एक और मोरचे पर भी मुझे करारी हार का सामना कर पड़ा है। उस बात ने भी मुझे भीतर तक तोड़ दिया है। मैं तुझे यह खबर देने ही वाला था कि एक बहुत ही सुंदर और गुणी लड़की से मेरा परिचय हुआ है और आगे जा कर शायद कुछ बात बने। इस रिश्ते से मुझे बहुत मानसिक बल मिला था और मैं उम्मीद कर रहा था कि ये परिचय मेरी ज़िंदगी में एक खूबसूरत मोड़ ले कर आयेगा, लेकिन अफसोस, इस रिश्ते का महल भी रेत के घर की तरह ढह गया और मैं एक छोटे बच्चे की तरह बुरी तरह छला गया। मैं हद दरजे तक अकेला और तनहा हूं, पहले भी अकेला था और आज भी हूं। एक तू ही है जिससे मैं अपने दिल की बात कह पाता हूं। इस अकेलेपन और बार-बार की ठोकरों के बाद ही सोच समझ कर मैंने लंदन जाने का फैसला कर लिया है। फैसला सही है या गलत यह तो वक्त ही बतायेगा। यूं समझ ले कि मैंने खुद को हालात पर छोड़ दिया है। जो भी पहला मौका सामने आया है, उसके लिए हां कर दी है।
लंदन का कोई हांडा परिवार है। वे लोग पिछले दिनों यहां आये हुए थे। वहां उनकी कई कंपनियां हैं, बीस पच्चीस। उनकी लड़की है गौरी। वह भी आयी हुई थी। लड़की ठीक-ठाक लगी। उसी से मेरी शादी तय हुई है। शादी की कोई शर्तें नहीं हैं। मैं चाहूं तो अपना कोई काम काज तलाश सकता हूं या चाहूं तो उनकी किसी कम्पनी में भी अपनी पसंद का काम देख सकता हूं। सब कुछ मुझ पर छोड़ दिया गया है। ट्रेवल फार्मेलिटीज पूरी होते ही निकल जाऊंगा। गौरी की एक तस्वीर भेज रहा हूं।
मैं जानता हूं कि यह मेरी वादा खिलाफी है और मैं अपने वादे पूरे किये बगैर तुझे इस हालत में छोड़ कर जा रहा हूं। मुझे पता है तेरी लड़ाई बहुत मुश्किल है। जब मैं ही नहीं लड़ पाया इनसे, फिर तू तो लड़की है। मैं सोच-सोच कर परेशान हूं कि तू अपनी लड़ाई अकेले के बलबूते पर कैसे लड़ेगी। लेकिन एक बात याद रखना, हम सब को कभी न कभी, कहीं न कहीं जीवन के इस महाभारत में अपने हिस्से की लड़ाई लड़नी होती है। यह महाभारत बहुत ही अजीब होता है। इस महाभारत में हर योद्धा को अपनी लड़ाई खुद ही तय करनी और लड़नी पड़ती है। यहां न तो कोई कृष्ण होता है न अर्जुन। हमें अपने हथियार भी खुद चुनने पड़ते हैं और अपनी रणनीति भी खुद ही तय करनी पड़ती है। कई बार हार-जीत भी कोई मायने नहीं रखती क्योंकि यह तो अंतहीन लड़ाई है जो हमें हर रोज सुबह उठते ही लड़नी होती है। कभी खुद से, कभी सामने वाले से तो कभी अपनों से तो कभी परायों से। तुझे भी आगे से अपनी सारी लड़ाइयां खुद ही लड़नी होंगी। कई बार ये लड़ाई खुद से भी लड़नी पड़ती है। सबसे मुश्किल होती है ये लड़ाई। लेकिन अगर एक बार आप अपने भीतर के दुश्मन से जीत गये तो आगे की सारी लड़ाइयां आसान हो जाती हैं। तू समझदार है और न तो खुद के खिलाफ़ ही कोई अन्याय होने देगी। पहले तुझे अपनी कमजोरियों के खिलाफ, अपने गलत फैसलों के खिलाफ और अपने खिलाफ गलत फैसलों के खिलाफ लड़ना सीखना होगा। तय कर ले कि न गलत फैसले खुद लेगी और न किसी को गलत फैसले खुद पर थोपने देगी। तू तो खुद कविताएं लिखती है और तेरी कविताओं में भी तो बेहतर जीवन की कामना ही होती है। कर सकेगी ना यह काम अपनी बेहतरी के लिए। खुद को बचाये रखने के लिए?
तो गुड्डी, मैं तुझे जीवन के इस कुरूक्षेत्र में लड़ने के लिए अकेला छोड़े जा रहा हूं। मैं अपनी लड़ाई बीच में ही छोड़े जा रहा हूं। मुझे भी अपनों से लड़ना था और तुझे भी अपनों से ही लड़ना है। मैं तीसरी बार मैदान छोड़ कर भाग रहा हूं। लड़ना आता है मुझे भी लेकिन अब मुझसे नहीं होगा। बस यही समझ लो। मैं खुद को परास्त मान कर मैदान छोड़ रहा हूं। कह लो लड़ने से ही इनकार कर रहा हूं।
मेरे पास लगभग तीन लाख रुपये हैं। इसमें से दो ढाई तेरे लिए छोड़े जा रहा हूं। साइन किये हुए पांच कोरे चैक साथ में भेज रहा हूं। जब भी तेरी शादी तय हो या तुझे पढ़ाई के लिए जरूरत हो, अपने खाते के जरिये निकलवा लेना..। इन पैसों के बारे में किसी को भी न तो बताने की ज़रूरत है और न इन्हें किसी के साथ शेयर करने की। किसी भी हालत में नहीं। ये सिर्फ तेरा हिस्सा है..। एक बेघर-बार बड़े भाई की तरफ से छोटी बहन को घर की कामना के साथ एक छोटी सी सौगात।
अपनी किताबें वगैरह जरूरतमंद स्टूडेंट्स के बीच बांट दी हैं। थोड़े से कपड़े और दूसरा सामान है, वे भी जरूरतमंद लोगों को दे जाऊंगा। यहां से मैं अपने ज़रूरत भर के कपड़े और तेरा बनाया स्वेटर ही साथ ले कर जाऊंगा। वही तो तेरी याद होगी मेरे पास। नंदू को मेरे बारे में बता देना। लंदन पहुंचते ही नया पता भेज दूंगा। अभी दारजी वगैरह को कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है। मैं खुद ही खत लिख कर बता दूंगा...।
मन पर किसी तरह का बोझ मत रखना और अपनी पढ़ाई में दिल लगाना।
अफसोस!! अपने वीर की शादी में नाचने-गाने की की तेरी हसरत पूरी नहीं हो पायेगी। वैसे भी अपनी शादी में मैं लड़के वालों की तरफ से अकेला ही तो होऊंगा। तो इस खत में इतना ही.. ..।
तेरा वीर,
दीप......
सारी तैयारियां हो गयी हैं। सामान से भी मुक्ति पा ली है। तनावों से भी। बेशक एक दूसरे किस्म का, अनिश्चितता का हलका-सा दबाव है। पता नहीं, आगे वाली दुनिया कैसी मिले। जो कुछ पीछे छूट रहा है, अच्छा भी, बुरा भी, उससे अब किसी भी तरह का मोह महसूस करने का मतलब नहीं है। पूरे होशो-हवास में सब कुछ छोड़ रहा हूं। लेकिन जो कुछ पाने जा रहा हूं, वह कैसे और कितना मिलेगा, या मिलेगा भी या नहीं, इसी की हलकी-सी आशंका है। उम्मीद भी और वायदा भी। वैसे तो इतना कुछ सह चुका हूं कि कुछ न मिले तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।
आज की आखरी डाक में दारजी का खत है। पत्र खोलने की हिम्मत नहीं हो रही। फिर कोई मांग होगी या मुझे किसी न किसी चक्कर में फांसने की उनकी कोई लुभावनी योजना। सोचता हूं अब जाते-जाते मैं उनके लिए क्या कर सकता हूं। पत्र एक तरफ रख देता हूं। बाद में देखूंगा।
सहार एयरपोर्ट के लिए निकलने से पहले पत्र उठा कर जेब में डाल लिया था। अलका और देवेन्द्र साथ आये थे। मैं सिक्युरिटी एरिया जा रहा हूं और वे दोनों आंखों में आंसू भरे मुझे विदा करके लौट गये हैं। मैंने आज तक किसी भी परिवार से इतना स्नेह नहीं पाया जितना इन दोनों ने दिया है। दोनों सुखी बने रहें।
उनसे वादा करता हूं - उन्हें पत्र लिखता रहूंगा।
जेब में कुछ कड़ा महसूस होता है। देखता हूं - दारजी का ही पत्र है। खोल कर देखता हूं
- बरखुरदार,
जीते रहो।
एक बार फिर तेरे कारण मुझे उस बछित्तरे के आगे नीचा देखना पड़ा। वो तो भला आदमी है इसलिए बयाने के पैसे लौटा दिये हैं वरना.... अब तेरे हाथों ये भी लिखा था हमारी किस्मत में। अच्छा खासा घर मिट्टी के मोल मिल रहा था, तेरे कारण हाथ से निकल गया। बाकी खबर यह है कि बिल्लू के लिए एक ठीक-ठाक घर मिल गया है। उम्मीद तो यही है कि बात सिरे चढ़ जायेगी। बाकी रब्ब राखा। सोचते तो यही हैं कि कुड़माई और लावां फेरे एक ही साथ ही कर लें। पता नहीं अब कैसे निभेगा। तेरी बेबे चाहती है कि तू अब भी आ जाये तो तेरे लिए भी कोई अच्छी सी कुड़ी वेख कर दोनों भराओं की बारात एक साथ निकालें। अगर तुझे मंजूर हो तो तार से खबर कर और तुरंत आ। बाकी अगर तूने क्वांरा ही रहने का मन बना लिया हो तो कम से कम बड़े भाई का फरज निभाने ही आ जा। हम लड़की वालों को कहने लायक तो हो सकें कि हमारे घर में कोई बड़ा अफसर है और हम किसी किस्म की कमी नहीं रहने देंगे। बाकी तू खुद समझदार है.।
खत मिलते ही अपने आने की खबर देना।
बेबे ने आसीस कही है।
तुम्हारा
दारजी।
तो यह है असलियत। खत लिखना तो कोई दारजी से सीखे। उन्होंने रुपये पैसे को लेकर एक भी शब्द नहीं लिखा है लेकिन पूरा का पूरा खत ही जैसे आवाजें मार रहा है - तेरे छोटे भाई की शादी है और तू घर की हालत देखते हुए मदद नहीं करेगा तो तुझे बड़ा कौन कहेगा...।
सॉरी दारजी और सॉरी बिल्लू जी...अब वाकई देर हो चुकी है। इस समय मैं एयरपोर्ट की लाउंज में बैठा आपका पत्र पढ़ रहा हूं। अब मैं बैंक, चैक या ड्राफ्ट की सीमाओं से बाहर जा चुका हूं। रात के बारह बजे हैं। सारे बैंक बंद हो चुके हैं। बैंक खुले भी होते तो भी उसमें रखे सारे पैसे किसी और के नाम हो चुके हैं। वैसे दारजी, आपने दहेज के लेनदेन की बात तो पक्की कर ही रखी होगी। मैं मदद न भी करूं तो चलेगा। वैसे भी सिर्फ एक घंटे बाद मेरी फ्लाइट है और मैं चाह कर भी न तो अपने छोटे भाई की शादी में शामिल हो पाऊंगा और न ही तुम लोगों को ही इसी महीने लंदन में होने वाली अपनी शादी में बुलवा पाऊंगा।
फलाइट का समय हो चुका है। सिक्योरिटी चैक हो चुका है और बोर्डिंग कार्ड हाथ में लिए मैं लाउंज में बैठा हूं।
तो !! अलविदा मेरे प्यारे देश भारत। तुमने बहुत कुछ दिया मुझे मेरे प्यारे देश! बस, एक घर ही नहीं दिया। घर नाम के दो शब्दों के लिए मुझे कितना रुलाया है.. क्या क्या नहीं दिखाया है मुझे..। हर बार मेरे लिए ही घर छलावा क्यों बना रहा। मैं एक जगह से दूसरी जगह भटकता रहा। खोजता रहा कहां है मेरा घर!! जो मिला, वह घर क्यों नही रहा मेरे लिए !! आखिर मैं गलत कहां था और मेरा हिस्सा मुझे क्यों नहीं मिला अब तक। अब जा रहा हूं दूसरे देश में। शायद वहां एक घर मिले मुझे!! मेरी राह देखता घर। मेरी चाहत का घर। मेरे सपनों का एक सीधा सादा सा घर। चार दीवारों के भीतर घर जहां मैं शाम को लौट सकूं। घर जो मेरा हो, हमारा हो। कोई हो उस घर में जो मेरी राह देखे। मेरे सुख-दुख की भागीदार बने और अपनेपन का अहसास कराये। जहां लौटना मुझे अच्छा लगे न कि मजबूरी।
सॉरी गुड्डी, तुम्हें दिये वचन पूरे नहीं कर पाया। तुममें हिम्मत जगा कर मैं ही कमज़ोर निकल गया। अब अपना ख्याल तुम्हें खुद ही रखना है। बेबे मैं तुम्हें कभी सुख नहीं दे सका। हमेशा दुख ही तो दिया है। बाकी तेरे नसीब बेबे। देख ना तेरे दो-दो लड़कों की शादियां हो रही हैं लेकिन बड़ा लड़का छोटे की शादी में नहीं होगा और बड़े की शादी में तो खैर, तुम्हें बुलाया ही नहीं जा रहा है।
मेरी आंखों से आंसू बह रहे हैं। मैंने ऐसा घर तो नहीं चाहा था बेबे..।
मैं घड़ी देखता हूं। जहाज में चढ़ने की घोषणा हो चुकी है।
तभी अचानक सामने बने एसटीडी बूथ की तरफ मेरी निगाह पड़ती है। सोचता हूं, जाते जाते बड़े भाई का तथाकथित फर्ज भी अदा कर कर दिया जाये। मैं तेजी एसटीडी बूथ की तरफ बढ़ता हूं। नंदू का नम्बर मिलाता हूं।
घंटी जा रही है। आधी रात को आदमी को उठने में इतनी देर तो लगती ही है।
लाइन पर नंदू ही है।
- नंदू सुन, मैं दीपू बोल रहा हूं।
- बोलो भाई, इस वक्त!! खैरियत तो है। वह पूरी तरह जाग गया है।
- तू मेरी बात सुन पूरी। मेरे पास वक्त कम है, मैं बस पांच-सात मिनट में ही लंदन चला जाऊंगा। गुड्डी तुझे पूरी बात बता देगी। आज ही दारजी की चिट्ठी आयी है, बिल्लू की शादी कर रहे हैं वे। मैं यहां सारे खाते बंद कर चुका हूं और मेरे पास पैसे तो हैं लेकिन समय नहीं है।... मैंने गुड्डी के पास कुछ कोरे चैक भेजे हैं। ये पैसे मैंने गुड्डी की पढ़ाई और शादी के लिए अलग रखे थे। वो ये चैक तेरे पास रखवाने आयेगी। तू इसमें से एक चैक पर पचास हज़ार की रकम लिख कर पैसे निकलवा लेना और दारजी को देना। करेगा ना मेरा ये काम..? उसके लिए बाद में और भेज दूंगा।
- तू फिकर मत कर। तेरा काम हो जायेगा। अगर गुड्डी चैक नहीं भी लायेगी तो भी दारजी तक रकम पहुंच जायेगी। और कोई काम बोल..?
- बस, रखता हूं फोन। फ्लाइट के लिए टाइम हो चुका है।
- ओ के गुड लक, वीरा, अपना ख्याल रखना।
- ओ के नंदू। खत लिखूंगा।
मैं फोन रखता हूं और जहाज की तरफ लपकता हूं।
तो...मैं .. आखिर देस छोड़ कर परदेस में आ ही पहुंचा हूं। कब चाहा था मैंने - मुझे इस तरह से और इन वज़हों से घर और अपना देस छोड़ना पड़े। घर तो मेरा कभी रहा ही नहीं। दो-दो बार घर छूटा। गोल्डी ज़िंदगी में ताजा फुहार की तरह आकर जो तन-मन भिगो गयी थी उससे भी लगने लगा था, ज़िंदगी में अब सुख के पल बस आने ही वाले हैं, लेकिन वह सब भी छलावा ही साबित हुआ।
अब मेरे सामने एक नया देश है, नये लोग और एकदम नया वातावरण है। एक नयी तरह की ज़िंदगी की शुरूआत एक तरह से हो ही चुकी है। जिंदगी को नये अर्थ मिल रहे हैं। इतने बरस तक उपेक्षित और अकेले रहने के बाद सारा संसार भरा पूरा और अपनेपन से सराबोर लग रहा है। शादी के पहले दिन से लगातार दावतों का सिलसिला चल रहा है। गौरी बहुत खुश है। जैसे-जैसे हम दोनों एक दूसरे के नज़दीक आ रहे हैं, एक दूसरे के साथ ज्यादा वक्त गुजार रहे हैं, हमें एक दूसरे को अच्छी तरह से समझने का मौका मिल रहा है। वह मेरे डरावने अतीत के बारे में कुछ भी नहीं जानती। उसे जानना भी नहीं चाहिये। मैंने उसे अपने घर-परिवार के बारे में बहुत कम बातें ही बतायी हैं। सिर्फ गुड्डी के बारे में बताया है कि वह किस तरह से पढ़ना चाहती है और कविताएं लिखती है। मैंने गौरी को जब गुड्डी का बनाया स्वेटर दिखाया तो उसने तुरंत ही वह स्वेटर मुझसे हथिया लिया और इठलाती हुई बोली थी - हाय, कितना सॉफ्ट और शानदार बनाया है स्वेटर। अब ये मेरा हो गया। तुम उसे मेरी तरफ से लिख देना कि तृम्हें एक और बना कर भेज देगी। जब लैटर लिखो तो मेरी तरफ से खूब थैंक्स लिख देना और मेरी तरफ से ये गिफ्ट भी भेज देना। और उसने अपनी अलमारी से गुड्डी के लिए एक शानदार गिफ्ट निकाल कर दे दिया था।
मुझे गुड्डी पर गर्व हो आया था कि उसकी बनायी चीज़ किस तरह से गौरी ने प्यार से अपने लिए रख ली है।
गुड्डी के अलावा गौरी और किसी के नाम वगैरह भी नहीं जानती। वैसे मैंने उसके चाचा और कजिन को भी तो सिर्फ यही बताया था कि मैं बंबई में अकेला ही रहता हूं और जब उन्होंने मेरे मां-बाप से मिलने की इच्छा जाहिर की थी तो मैंने उन्हें यही बताया था कि अपनी ज़िंदगी के सारे फैसले मुझे खुद ही करने हैं। मैंने न उन्हें अपने संघर्षों के बारे में बताया था न गौरी को ही अपने संघर्षों की हवा लगने दी थी।
गौरी को दुनियादारी की बातों से कोई लेना-देना नहीं है। आजकल तो वैसे भी उसकी ज़िदंगी के बस दो-चार ही मकसद रह गये हैं। खूब खाना, सोना और भरपूर सैक्स। इनके अलावा उसे न कुछ सूझता है और न ही वह कुछ सोचना ही चाहती है। वह भीतर-बाहर की सारी प्यास एक साथ ही बुझा लेना चाहती है। ज़रा-सा भी मौका मिलते ही वह बेडरूम के दरवाजे बंद कर लेने की फिराक में रहती है। कई बार मुझे खराब भी लगता है, लेकिन वैसे भी हमारे पास करने-धरने को कुछ भी काम नहीं है। दावतें खाना और सैक्स भोगना। वैसे मेरे साथ दूसरा ही संकट है। ज़िंदगी में कभी भी किसी के भी साथ इतना वक्त एक साथ नहीं गुज़ारा। अकेलेपन के इतने लम्बे-लम्बे दौर गुज़ारे हैं कि अब कई बार लगातार गौरी के साथ-साथ रहने से मन घबराने भी लगता है। आजकल तो यह हालत हो गयी है कि हम बाथरूम जाने के अलावा दिन-रात लगातार साथ-साथ ही रहते हैं।
लगता है, सोने के मामले में हम दोनों को ही अपनी आदतें बदलनी होंगी या उसे बता देना पड़ेगा कि हम बेशक एक साथ सोयें, लेकिन गले लिपटे-लिपटे सोने से मेरा दम घुटता है। हालांकि हनीमून पर हम अगले हफते ही जा पायेंगे लेकिन इस बीच हमें जितने दिन भी मिले हैं, हम दोनों ही जी भी कर एंजाय कर रहे हैं। हनीमून के लिए बचा ही क्या है?
इतने दिनों से गुड्डी को भी पत्र लिखना बाकी है। वैसे आज मेरे पास थोड़ा वक्त है। गौरी अपनी शापिंग के लिए गयी हुई है। गुड्डी को पत्र ही लिख लिया जाये।
प्यारी बहना, गुड्डी
तो मैं आखिर लंदन पहुंच ही गया। पिछली बीस तारीख को जब मैं यहां हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरा तो हांडा परिवार के कई लोग मुझे लेने आये हुए थे। इनमें से मैं सिर्फ दो ही लोगों को पहचानता था। एक गौरी के चाचा चमन हांडा को और दूसरे गौरी के कजिन राजकुमार हांडा को। ये लोग ही मुझे बंबई में मिले थे और इनसे ही सारी बातें हुई थीं। मुझे एयरपोर्ट से सीधे ही हांडा कंपनीज के गेस्ट हाउस में ले जाया गया। वहीं मुझे ठहराया गया था।
शाम को गौरी मिलने आयी थी। थोड़ी देर हाल चाल पूछे, कॉफी पी और चली गयी। जाते-जाते अपना फोन नम्बर दे गयी थी, कहा उसने - फोन करूंगी और आपको ज़रूरत पड़े तो आप भी फोन कर लें। मेरे लिए वे लोग शोफर ड्रिवेन गाड़ी छोड़ गये थे।
खैर, दो-चार दिन मेरी खूब सेवा हुई। सबसे मिलवाया गया। हांडा परिवार के मुखिया से भी मिलवाया गया। वे गौरी के ताऊ जी हैं। सबसे पहले वे ही पचासों साल पहले यहां आये थे और धीरे-धीरे अपनी जायदाद खड़ी की। इन पचास सालों में कम से कम नहीं तो अपने कम से कम सौ आदमी तो लंदन ले ही आये होंगे। अपने आप में बेहद दिलचस्प आदमी हैं। गौरी ने अपने पापा से भी मिलवाया और मम्मी से भी। यहां इंडियन अमीरों की एक बस्ती है - कारपैंडर्स पार्क। वहीं मेरी ससुराल की भव्य इमारत है। वैसे सबके अलग अलग अपार्टमेंट्स हैं।
तो ....मेरी भी शादी हो गयी। हमारी शादी.. मेरी और गौरी की..। बिल्लू की शादी के आगे-पीछे। अब बिल्लू को यह शिकायत नहीं रही होगी कि मैंने उसके रास्ते में रोड़े अटका रखे हैं। हमारी शादी दो तरह से हुई। पहले कोर्ट में, रजिस्ट्रार ऑफ मैरिजेस के ऑफिस में और बाद में पूरी बिरादरी के सामने आर्य समाजी तरीके से। अपनी शादी में लड़के वालों की तरफ से मैं अकेला ही घा। मैं ही दूल्हा, मैं ही बाराती, सबाला और मैं ही बैंड मास्टर। हँसी आ रही थी मुझे अपनी सिंगल मैन बारात देख कर।
मुझे ससुर साहब ने नयी लैक्सस कार की चाबी दी और गौरी को फर्निश्ड अपार्टमेंट की चाबी। ये कार यहां की काफी शानदार कार मानी जाती है। जब मैंने उनसे कहा कि मुझे कार चलानी तो आती ही नहीं है तो उन्होंने गौरी का हाथ मेरे हाथ में थमा दिया और बोले - ऐ लो जी शोफर भी लो। टर्म्स खुद तय कर लेना।
हनीमून के लिए हमें अगले हफ्ते पैरिस जाना है लेकिन मेरे इंडियन टूरिस्ट पासपोर्ट पर वीसा मिलने में थोड़ी दिक्कत आ रही है। उम्मीद तो यही है कि जा पायेंगे। अगर नहीं भी जा पाये तो भी परवाह नहीं। यहीं इतना घूमना-फिरना और मौज मस्ती हो रहे हैं कि हम दोनों ही लगातार सातवें आसमान रह रहे है। ख्बा दावतें खा रहे हैं।
एक नयी ज़िंदगी की शुरूआत हुई है।
गौरी बहुत खुश है इस शादी से और मुझसे एक पल के लिए अलग नहीं होना चाहती। अकसर तेरे बारे में पूछती रहती है। शादी के और लंदन के कुछ फोटो भेज रहे हैं। तेरे लिए शादी का एक छोटा सा तोहफा मेरी तरफ से और एक गौरी की तरफ से। तेरा बनाया स्वेटर गौरी ने मुझसे छीन लिया था और तुरंत ही पहन भी लिया था। अब तुझे मेरे लिए एक और खरगोशनुमा स्वेटर बनाना पड़ेगा। बना कर भेजेगी ना....।
अपना ख्याल रखना..
दारजी और बेबे को मेरी सत श्री अकाल और गोलू और बिल्लू को प्यार। मेरी छोटी भाभी के लिए भी एक तोहफा मेरी तरफ से। बेबे की तबीयत नयी बहू के आने से संभल गयी होगी।
पता दे रहा हूं। अपने समाचार देना।
तेरा वीर
दीप
अलका दीदी और नंदू को भी इसी तरह के पत्र लिखता हूं। शादी के कुछ फोटो और लंदन के कुछ पिक्चर पोस्ट कार्ड भी भेजता हूं। दीदी को पत्र लिखते समय पता नहीं क्यों बार-बार गोल्डी का ख्याल आ रहा है। अच्छी लड़की थी। अगर मुझसे कहती - मैं शादी करने जा रही हूं। ज़रा मेरी शापिंग करा दो, शादी का जोड़ा दिलवा दो तो मैं मना थोड़े ही करता। हमेशा की तरह उसकी शॉपिंग कराता। एक पत्र अपने पुराने ऑफिस को भी लिखता हूं ताकि वे मेरे बकाया पैसों का हिसाब किताब कर दें।
गौरी मेरे लिए क्रेडिट कार्ड का फार्म लायी है। मैंने मना कर दिया है - मुझे क्या करना क्रेडिट कार्ड!
- क्यों पैरिस जायेंगे तो ज़रूरत पड़ेगी। वैसे भी यहां लंदन में कोई भी किसी भी काम के लिए कैश ले कर नहीं चलता। दिन में दस तरह के पेमेंट करने पड़ते हैं।
- देखो गौरी, मैं क्या करूंगा ये कार्ड लेकर। न मुझे कोई शॉपिंग करनी है, न कोई पेमेंट ही करने होंगे। तुम हो न मेरे साथ। तुम्हीं करती रहना सब पेमेंट।
- समझा करो दीप, तुम्हें सिर्फ खर्च करना है। तुम्हें क्रेडिट कार्ड का पेमेंट करने के लिए कौन कह रहा है।
- फिलहाल रहने दो, बाद में देखेंगे।
- जैसी तुम्हारी मर्जी।
हनीमून बढ़िया रहा। शानदार रहना और शानदार घूमना फिरना। सब कुछ भव्य तरीके से। सारी व्यवस्थाएं पहले से ही कर ली गयी थीं। चलते समय ससुर साहब ने मुझे एक भारी सा लिफाफा पकड़ाया था।
जब मैंने पूछा कि क्या है इसमें तो वे हँसे थे - भई, आप अपना तो कर लेंगे, लेकिन शोफर के लिए तो खरचा पानी चाहिये ही होगा ना.. थोड़ी बहुत करेंसी है। गौरी बता रही थी कि आपने क्रेडिट कार्ड के लिए मना कर दिया है। यहां उसके बिना चलता नहीं है, वैसे आपकी मर्जी।
वह लिफाफा मैंने उनके सामने ही गौरी को थमा दिया था - हमारी तो पैकेज डील है। जितना खर्च हो वो करे और बाकी जो बचे वो टिप।
गौरी खिलखिलायी थी - पापा, आपने तो कमाल का दामाद ढूंढा है। यहां तो इतनी टिप मिल जाया करेगी कि कुछ और करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।
मैं हँस दिया हूं - हमारे साथ रहोगी तो यूं ही ऐश करोगी।
पैरिस अच्छा लगा। हम दोनों ही तो सातवें आसमान पर थे। गौरी ने खूब शॉंपिंग की। अपने लिए भी और मेरे लिए भी। वैसे भी पैसे तो उसके पास ही रखे थे। मैं चाहता भी तो कुछ नहीं खरीद सकता था। इंडिया से जो थोड़ी बहुत रकम लाया था, उससे तो गौरी की एक दिन की शॉपिंग भी नहीं हो पाती। इसलिए मैं अपनी गांठ ढीली करने की हालत में नहीं था। अलबत्ता गौरी के लिए एकाध चीज़ ज़रूर खरीद ली ताकि उसे यह भी न लगे कि कैसे कंगले के साथ आयी है।
हम नये घर में सारी चीजें व्यवस्थित कर रहे हैं। गौरी यह देख कर दंग है कि मैं न केवल रसोई की हर तरह की व्यवस्था संभाल सकता हूं बल्कि घर भर के सभी काम कर सकता हूं। कर भी रहा हूं।
पूछ रही है - आपने ये सब जनानियों वाले काम कब सीखे होंगे। आपकी पढ़ाई को देख कर लगता तो नहीं कि इन सबके लिए समय मिल पाता होगा।
- सिर्फ जनानियों वाले काम ही नहीं, मैं तो हर तरह के काम जानता हूं। देख तो रही ही हो, कर ही रहा हूं। कोई भी काम सीखने की इच्छा हो तो एक ही बार में सीखा जा सकता है। उसे बार-बार सीखने की ज़रूरत नहीं होती। बस, शौक रहा, और सारी चीजें अपने आप आ गयीं।
- थैंक्स दीप, अच्छा लगा ये जान कर कि आप चीजों के बारे में इतने खुलेपन से सोचते हैं। मेरे लिए तो और भी अच्छा है। मैं तो मैंडिंग और रिपेयरिंग के चक्कर में पड़ने के बजाये चीजें फेंक देना आसान समझती हूं। अब आप घर-भर की बिगड़ी चीजें ठीक करते रहना।
कुल मिला कर अच्छा लग रहा है घर सजाना। अपना घर सजाना। बेशक यहां का सारा सामान अलग-अलग हांडा कम्पनीज़ या स्टोर्स से ही आया है, लेकिन अब से है तो हमारा ही और इन सारी चीजों को एक तरतीब देने में भी हम दोनों को सुख मिल रहा है। वैसे काफी चीजें इस बीच हमने खरीदी भी हैं।
हम दोनों में बीच-बीच में बहस हो जाती है कि कौन सी चीज़ कहां रखी जाये। आखिर एक दूसरे की सलाह मानते हुए और सलाहें देते हुए घर सैट हो ही गया है।
इतने दिनों से आराम की ज़िंदगी गुज़ारते हुए, तफरीह करते हुए मुझे भी लग रहा है कि मेरे सारे दुख दलिद्दर अब खत्म हो गये हैं। अब मुझे मेरा घर मिल गया है।
ससुर साहब की तरफ से बुलावा आया है। वैसे तो हर दूसरे तीसरे दिन वहां जाना हो ही जाता है या फोन पर ही बात हो जाती है लेकिन हर बार गौरी साथ होती है। इस बार मुझे अकेले ही बुलाया गया है। पता नहीं क्या बात हो गयी हो। शायद मेरे भविष्य के बारे में ही कोई बात कहना चाहते हों। वैसे भी अब मज़ा और आराम काफी हो लिये। कुछ काम धाम का सिलसिला भी शुरू होना चाहिये। आखिर कब तक घर जंवाई बन कर ससुराल की रोटियां तोड़ता रहूंगा।
वहां पहुंचा हूं तो मेरे ससुर और उनके बड़े भाई हांडा ग्रुप के मुखिया, दोनों भाई ही बैठे हुए हैं। मैं बारी बारी से दोनों को आदर पूर्वक झुक कर प्रणाम करता हूं। यहां लंदन में भी इस परिवार ने कई भारतीय परम्पराएं बनाये रखी हैं। यहां छोटे-बड़े सभी बुजुर्गों के पैर छू कर ही अभिवादन करते हैं। कोई भी ऊंची आवाज में बात नहीं करता। एक बात और भी देखी है मैंने यहां पर कि हांड़ा ग्रुप के मुखिया हों या और कोई बुजुर्ग, किसी की भी बात काटी नहीं जाती। वे जो कुछ भी कहते हैं, वही आदेश होता है। ना नुकुर की गुंजाइश नहीं होती। एक दिन गौरी ने बताया था कि बेशक पापा या ताऊजी किसी के भी काम में दखल नहीं देते और न ही रोज़ रोज़ सबसे मिलते ही हैं लेकिन फिर भी इतने बड़े एम्पायर में कहां क्या हो रहा है उन्हें सबकी खबरें मिलती रहती हैं।
- घूमना फिरना कैसा रह़ा!
- बहुत अच्छा लगा। काफी घूमे।
- कैसा लग रहा है हमारे परिवार के साथ जुड़ना?
- दरअसल मैं यहां पहुंचने तक कुछ भी विजुअलाइज़ नहीं कर पा रहा था कि यहां आ कर ज़िंदगी कैसी होगी। एकदम नया देश, नये लोग और बिलकुल अपरिचित परिवार में रिश्ता जुड़ना, लेकिन यहां आ कर मेरे सारे डर बिलकुल दूर हो गये हैं। बहुत अच्छा लग रहा है।
- और आपकी शोफर के क्या हाल हैं, ससुर साहब ने छेड़ा है - उससे कोई टर्म्स तय की हैं या बेचारी मुफ्त में ही तुम्हारी गाड़ी चला रही है।
- गौरी बहुत अच्छी है लेकिन अब काम धंधे का कुछ सिलसिला बैठे तो टर्म्स भी तय कर ही लेंगे।
- हमने इसी लिए बुलाया है आपको। वैसे आपने खुद काम काज के बारे में क्या सोचा है? वे खुद ही मुद्दे की बात पर आ गये हैं।
- जैसा आप कहें। मैं खुद भी सोच रहा था कि आपसे कहूं कि घूमना फिरना बहुत हो गया है और पार्टियां भी बहुत खा लीं। आपकी इजाज़त हो तो मैं किसी अपनी पसंद के किसी काम. .. .. मैंने जानबूझ कर बात अधूरी छोड़ दी है।
- देखो बेटे, हम भी यही चाहते हैं कि तुम अपनी लियाकत, एक्सपीरियंस और पसंद के हिसाब से काम करो। हम तुम्हारी पूरी मदद करेंगे। लेकिन दो एक बातें हैं जो हम क्लीयर कर लें।
- जी.. ..
- पहली बात तो यह कि अभी तुम टूरिस्ट वीसा पर आये हो। यहां काम करने के लिए तुम्हें वर्क परमिट की ज़रूरत पड़ेगी जो कि तुम्हें टूरिस्ट वीसा पर मिलेगा नहीं।
- आप ठीक कह रहे हैं। मैंने इस बारे में तो सोचा ही नहीं था।
मैंने सचमुच इस बारे में नहीं सोचा था कि मुझे अपनी पसंद का काम चुनने में इस तरह की तकलीफ भी आ सकती है।
- लेकिन पुत्तर जी हमें तो सारी बातों का ख्याल रखना पड़ता है ना जी..।
- आप सही कह रहे हैं। लेकिन फिर मेरा ....
- उसकी फिकर आप मत करो। इसी लिए आपको बुलाया था कि पहले आपकी राय ले लें, तभी फैसला करें।
- जी हुक्म कीजिये...मेरी सांस तेज़ हो गयी है।
- ऐसा है कि इस समय लंदन में हांडा ग्रुप की कोई तीस-चालीस फर्में हैं। पैट्रोल पम्प हैं। डिपार्टमेंटल स्टोर्स हैं और भी तरह तरह के काम काज हैं।
- जी.. गौरी ने बताया था और कुछ जगह तो वो मुझे ले कर भी गयी थी।
- हां, ये तो बहुत अच्छा किया गौरी ने कि तुम्हें सब जगह घुमा फिरा दिया है। तुम्हें अपनी फलोरिस्ट शाप में भी ले गयी थी या नहीं?
- इस बारे में तो उसने कोई बात ही नहीं की है।
- यही तो उसकी खासियत है। वैसे तुम्हें बता दें कि हैरो ऑन द हिल पर उसकी फ्लोरिस्ट शॉप लंदन की गिनी चुनी शॉप्स में से एक है। पैलेस और ड्राउनिंग स्ट्रीट के लिए जाने वाले बुके वगैरह उसी के स्टाल से जाते हैं।
- लेकिन इतने दिनों में तो उसने एक बार भी नहीं बताया कि वह कोई काम भी करती है।
- कमाल है, उसने तुम्हें हवा भी नहीं लगने दी। आजकल उसका काम उसकी ही एक कज़िन नेहा देख रही है। दो एक दिन में गौरी भी काम पर जाना शुरू कर देगी। हां तो, हमने सोचा है कि अपना सबसे बड़ा और सबसे रेपुटेड डिपार्टमेंटल स्टोर्स - द बिज़ी कॉर्नर नाम की शाप तुम्हारे नाम कर दें। ये स्टोर्स वेम्ब्ले हाइ स्ट्रीट पर है। गौरी ले जायेगी तुम्हें वहां। तुम्हें पसंद आयेगा। काफी नाम और काम है उसका। वैसे हम उसे नयी इमेज देना चाह रहे हैं। काम बहुत है उसका और नाम भी है लेकिन जरा पुराने स्टाइल का है। हम चाहते हैं कि तुम उसे अपने मैनेजमेंट में ले लो और जैसे चाहे संभालो। क्या ख्याल है?
- जैसा आपका आदेश. . ..। मैंने कह तो दिया है लेकिन मैं तय नहीं कर पा रहा हूं कि अपनी इन डिग्रियों और काम काज के अनुभव के साथ मैं डिपार्टमेंटल स्टोर्स में भला क्या कर पाऊंगा। लेकिन इन लोगों के सामने मना करने की गुजांइश नहीं है। गौरी ने पहले ही इशारा कर दिया था - किसी भी तरह की बहस में मत उलझना। जो कुछ कहना सुनना है, वो खुद बाद में देख लेगी।
- वैसे हमारे और भी कई प्लांस हैं। हम कुछ नये एरियाज़ में डाइवर्सीफाई करने के बारे में सोच रहे हैं, वैसे तुम्हें कभी भी किसी किस्म की तकलीफ नहीं होगी।
- जानता हूं जी, आप लोगों के होते हुए....।
- वैसे सारी चीजें आपको धीरे धीरे पता चल ही जायेंगी। आप हमारे परिवार के नये मैम्बर हैं। खूब पढ़े लिखे और ब्राइट आदमी हैं। हमें यकीन है आप खूब तरक्की करेंगे और आपका हमारे खानदान से जुड़ना हमें और आपको, दोनों को रास आयेगा। यू आर एन एसेट टू हांडा एम्पायर। गॉड ब्लैस यू। हमारे इस प्रोपोजल के बारे में क्या ख्याल है ?
- जी दुरुस्त है। मैं कल से ही वहां जाना शुरू कर दूंगा। मैं चाहूं तो भी अब विरोध नहीं कर सकता। टूरिस्ट वीसा पर आने पर और घर जवांई बनने की कुछ तो कीमत अदा करनी ही पड़ेगी।
- कोई जल्दी नहीं है। वहां और लोग तो हैं ही सही। जब जी चाहे जाओ, आओ, और आराम से सारी चीजों को समझो, जो मरजी आये चेंज करो वहां और उसे अपनी पर्सनैलिटी की मुहर लगा दो। ओके !!
- जी थैंक्स। गुड नाइट। और मैं दोनों को एक बार फिर पैरी पौना करके बाहर आ गया हूं।
घर आते ही गौरी ने घेर लिया है - क्या क्या बात हुई और क्या दिया गया है आपको।
मैं निढाल पड़ गया हूं। समझ में नहीं आ रहा, कैसे बताऊं कि अब आगे से मेरी ज़िंदगी क्या होने जा रही है। इंडिया में फंडामेंटल रिसर्च के सबसे बड़े सेंटर टीआइएफआर का सीनियर सांइटिस्ट डॉ. गगनदीप बेंस अब लंदन में अपनी ससुराल के डिपार्टमेंटल स्टोर्स में अंडरवियर और ब्रा बेचने का काम करेगा। कहां तो सोच रहा था, यहां रिसर्च के बेहतर मौके मिलेंगे और कहां .. .। मुझे वर्क परमिट का ज़रा सा भी ख्याल होता तो शायद ये प्रोपोजल मानता ही नहीं।
मेरा खराब मूड देख कर, गौरी डर गयी है। बार बार मेरा चेहरा अपने हाथों में लेकर मेरे हाथ पकड़ कर पूछ रही है - आखिर इतने टेंस क्यों हो। तुम्हें मेरी कसम। सच बताओ, क्या बात हुई।
मैं उसकी आंखों में झांकता हूं - वहां मुझे स्नेह का एक हरहराता समंदर ठांठें मारता दिखायी दे रहा है - वह मेरे माथे पर एक गहरा चुंबन अंकित करती है और एक बार फिर कहती है - खुद को अकेला मत समझो, डीयर। बताओ, किस बात से इतने डिस्टर्ब हो!!
मैं उसे बताता हूं। अपने सपनों की बात और अपने कैरियर की बात और इन सारी चीजों के सामने उसके पापा के प्रोपोजल।
पूछता हूं उसी से - क्या मुझे यही सब करना होगा, मैं तो सोच कर आया था कि .. ..।
वह हँसने लगी है। यहां मेरी जान पर बनी हुई है और ये पागलों की तरह रही है - रिलैक्स डीयर, जब घर में ही इतने सारे शानदार काम हैं तो बाहर किसी और की गुलामी करने की क्या जरूरत। वैसे भी वर्क परमिट के बिना तो आप घरों के बाहर अखबार डालने का काम भी पता नहीं कर पायेंगे या नहीं। आप हांडा ग्रुप के फैमिली मैम्बर हैं। हजारों में से चुन कर लाये गये हैं और आपको लंदन के सबसे बड़े स्टोर्स का काम काज संभालने के लिए दिया जा रहा है। हमारे खानदान के कितने ही लड़कों की निगाह उस पर थी। बल्कि मैं मन ही मन मना रही थी कि तुम्हें द बिजी कार्नर ही मिले। कहीं गैस स्टेशन वगैरह दे देते तो मुसीबत होती। यू आर लकी डियर। चलो, इसे सेलेब्रेट करते हैं। कैंडिल लाइट डिनर मेरी तरफ से।
इतना सुन कर भी मेरा हौसला वापिस नहीं आया है। वह चीयर अप करती है - आप जाकर अपना काम देखें तो सही। वहां बहुत स्कोप है। आप खुद ही तो बता रहे थे कि आपकी निगाह में कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। आप छोटे से छोटे काम को भी पूरी लगन और मेहनत से शानदार तरीके से कर सकते हैं। उसमें पूरा सैटिस्फैक्शन पा सकते हैं। फिर भी वहां अगर आपका मन न लगे तो डाइवर्सीफिकेशन करके आप अपनी पसंद का कोई भी काम शुरू कर सकते हैं। बस, मेरी पोजीशन का भी ख्याल रखना।
इसका मतलब अब मेरे पास इस प्रोपोजल को मानने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। चलो यही सही, जब चमगादड़ की मेहमाननवाजी स्वीकार की है तो उलटा तो लटकना ही पड़ेगा।
हम पहले गौरी के स्टाल पर गये हैं। पूरा स्टाफ उसे और मुझे शादी की विश कर रहा है। कई लोग तो आये भी थे रिसेप्शन में। अब वह सबसे मेरा परिचय करा रही है। स्टाफ की तरफ से हमें एक खूबसूरत बुके दिया गया है। वाकई बहुत अच्छी शाप है उसकी। वहां कॉफी पी कर गौरी मुझे द बिज़ी कॉर्नर में ले कर आयी है। मैनेजर से परिचय कराया है। मैनेजर साउथ इंडियन है। उसने बहुत ही सज्जनता से हमारा स्वागत किया है और पूरे स्टाफ से मिलवाया है। स्टोर्स में सब जगह घुमाया है। सारे सैक्शंस में ले कर जा रहा है और सारी चीजों के बारे में बोरियत की हद तक बता रहा है।
गौरी लगातार मेरे साथ है और मेरे साथ ही सारी चीजें समझ रही है। कहीं कहीं कुछ पूछ भी लेती है मैनेजर से। एकाउंट्स और इन्वैंटरी में हमने सबसे ज्यादा वक्त बिताया है। मैनेजर हमें अपने केबिन में लेकर गया है। केबिन क्या है, ज़रा सी जगह को ग्लास की दीवारों से कवर कर दिया गया है। वहीं तीन शार्ट सर्किट टीवी क्रीन लगे हैं जो बारी-बारी से पूरे स्टोर्स में अलग अलग लोकेशनों की गतिविधियां दिखा रहे हैं।
मैनेजर इन सारी चीजों के बारे में बोरियत की हद तक विस्तार से बात कर रहा है।
मैंने और कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा है। मैं सब कुछ देख समझ रहा हूं। कल से तो मुझे यहीं आना ही है। अभी तो पता नहीं कितने दिन लगें इस तंत्र को समझने में।
आज स्टोर्स में दूसरा ही दिन है। मैं अकेला ही पहुंचा हूं। गौरी ने भी आज ही से अपना काम शुरू किया है। वह अल-सुबह ही निकल गयी थी। मेरे जागने से पहले वह तैयार भी हो चुकी थी और अगर मैं उठ कर उसके लिए चाय न बनाता तो बिना मिले और बिना एक कप चाय पिये ही वह चली जाती। तब मैंने ही उठ कर उसके लिए चाय बनायी और उसे एक स्वीट किस के साथ विदा किया।
आज मैनेजर ने मुझे सारी चीजें फिर से समझानी शुरू कर दी हैं। वह आखिर इतने डिटेल्स में क्यों जा रहा है। सब कुछ तो मैं पहले दिन समझ ही चुका हूं। और फिर ऐसी भी क्या जल्दी है कि सब कुछ एक साथ ही समझ लिया जाये। मैं हैरान हूं कि ये सारी औपचारिकताएं किस लिये दोहरायी जा रही हैं। वह भी जिस तरीके से हर मामूली से मामूली चीज के बारे में बता रहा है, मुझे अटपटा लग रहा है लेकिन मैं उसे टोक भी नहीं पा रहा हूं। सारा दिन उसी के साथ माथा पच्ची करते बीत गया है।
दिन ही बेहद थकाऊ रहा। दुनिया भर की चीजों की इन्वैंट्री दिखा डाली है मैनेजर ने। वैसे भी दिमाग भन्नाया हुआ है। दिन भर ग्राहकों की भीड़ और हिसाब किताब देखने, समझने और रखने का झंझट। इस किस्म के काम का न तो अनुभव है और मानसिक तैयारी ही। गौरी बीच बीच में फोन करती रही है। चार बजे के करीब आयी गौरी तभी मैनेजर नाम के पिस्सु से छुटकारा मिल सका है।
आज दो महीने हो गये हैं मुझे स्टोर्स संभाले। लंदन आये लगभग तीन महीने। मैं ही जानता हूं कि दो महीने का यह बाद वाला अरसा मेरे लिए कितना भारी गुज़रा है। एक - एक पल जैसे आग पर बैठ कर गुज़ारा हो मैंने। स्टोर्स में जाने के अगले हफ्ते ही उस मैनेजर को स्टोर से निकाल दिया गया था। वह इसीलिए हड़बड़ी में दिखायी दे रहा था। अब मैं ही इसका नया मैनेजर था।
मैं इस नयी हैसियत से डिस्टर्ब हो गया हूं। यह क्या मज़ाक है। मैंने इस घर में शादी की है और इस शादी का मैनेजरी से क्या मतलब? गौरी के पापा ने तो ये कहा था कि ये स्टोर्स मेरे हवाले कर रहे हैं। अगर यही बात ही थी तो मैनेजर को निकालने का क्या मतलब? अगर वे मैनेजर की ही सेलेरी बचाना चाहते थे तो मुझसे साफ-साफ कह दिया होता कि हमें दामाद नहीं दो-ढाई हज़ार पाउंड वाला मैनेजर चाहिये। मैं तब तय करता कि मुझे आना भी है या नहीं। यहां की नौकरी करना तो बहुत दूर की बात थी। मुझे वर्क परमिट का ख्याल नहीं था या पता ही नहीं था लेकिन उन्हें तो पता था कि यहां मैं आऊं या और कोई दामाद आये, ये समस्या तो आने ही वाली है। इसका मतलब इन लोगों ने अच्छी तरह से सोच-समझ कर ये जाल बुना है। अब दिक्कत ये है कि कहीं सुनवाई भी तो नहीं है। धीरे-धीरे मुझे सारी चीजें समझ में आने लगी थीं। सारा चक्कर ही इन सारी दुकानों के लिए भरोसे का और एक तरह से बिना पैसे का स्टाफ जुटाने का ही था। मैंने पूरी स्टडी की है और मेरा डर सही निकला है।
मुझसे पहले चार लड़कियों के लिये दामाद इसी तरह से लाये गये हैं। पांचवां मैं हूं। उनके सभी दामाद हाइली क्वालिफाइड हैं। पांचों की शादियां इसी तरह से की गयी हैं। न लड़कियां घर से बाहर गयी हैं और न बिजिनेस ही। सबसे बड़ी शिल्पा की शादी शिशिर से हुई है। शिशिर एमबीए है और चार गैस स्टेशन देख रहा है। सुचेता के पति सुशांत के पास सारे पब और रेस्तरां हैं। वह कैमिकल इंजीनियर है। दोनों मिल कर संभालते हैं ये सारे ठीये। नीलम का आर्कीटेक्ट पति देवेश बुक शॉप में है और संध्या का एमकॉम पति रजनीश सेन्ट्रल स्टोर्स संभालता है और सारे स्टोर्स के लिए और सारे घरों के लिए सप्लाई देखता है। अलबत्ता घर के सारे आदमी और लड़के इन कम्पनियों के या तो अकेले कर्त्ता हैं या ज्वाइंटली सारा कामकाज संभालते हैं। उनके पास बेहतर पोजीशंस वाली ऐसी इंटरनेशनल कम्पनियां हैं जिनमें खूब घूमना-फिरना और कॉटैक्ट्स हैं। वैसे तो इनकी लड़कियों की पोजीशन भी उनकी पढ़ाई के हिसाब से है लेकिन दामादों की हालत मैनेजरों या उसके आसपास वाली है। जहां लड़की दामाद एक साथ हैं भी, वहां वाइफ ही सर्वेसर्वा है और उसके हसबैंड की पोजीशन दोयम दरजे की ही है। हां, लड़का बहू वाले मामले में भी यही दोहरे मानदंड अपनाये गये हैं। बहुएं भी आम तौर पर इंडियन ही हैं और उनके जिम्मे अलग-अलग ठीये हैं।
हम सभी दामाद भारतीय अखबारों के जरिये घेरे गये हैं। पता नहीं पूरे खानदान में कितनी लड़कियां और बाकी हैं और कितने दामाद अभी और इम्पोर्ट किये जाने हैं।
अब मुझे गौरी के फ्लोरिस्ट स्टाल पर बैठने का भी कारण समझ में आ गया है। वजह बहुत सीधी सादी है। उसे वहां बहुत कम देर के लिए बैठना पड़ता है और बाकी वक्त वह फिल्में देखते हुए और कॉमिक्स पढ़ते हुए गुजारती है। कई बार वह नहीं भी जाती और स्टाफ ही सारा काम देखता रहता है। वह अक्सर अपनी कजिंस की शॉप्स पर चली जाती है।
अब मेरे सामने इस स्टोर्स में मैनेजरी संभालने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। गलती मेरी ही थी। मैं ही तो भागा-भागा इतने सारे लालच देख कर खिंचा चला आया हूं। यह तो मुझे ही देखना चाहिये था कि बिना वर्क परमिट के मेरी औकात यहां सड़क पर खड़े मज़दूर जितनी भी नहीं।
लेकिन यहां कोई भी तो नहीं है जिससे मैं ये बातें कह सकूं। हांडा ग्रुप से तो पहली मुलाकात में ही लाल सिग्नल मिल गया था कि नो डिस्कशन एट ऑल। अब कहूं भी तो किससे? मेरे पास घुट-घुट कर जीने कुढ़ने के अलावा उपाय ही क्या है ?
जब मैनेजर को निकाला गया था तो मैंने गौरी से इस बारे में बात की थी - तुम्हें नहीं लगता गौरी, इस तरह से स्टोर्स के मैनेजर को निकाल कर उसकी जगह मुझे दे देना, एनी हाऊ, मैं पता नहीं क्यों इसे एक्सेप्ट नहीं कर पा रहा हूं।
- देखो दीप, जो आदमी वहां का काम देख रहा था, दरअसल स्टॉपगैप एरेंजमेंट था। पहले वहां मेरा कजिन देवेश काम देखता था। उस वक्त वहां कोई मैनेजर नहीं था। वैसे भी हमारे ज्यादातर एस्टेबलिशमेंट्स में मैनेजर नहीं हैं।
उसने मेरा हाथ दबाते हुए कहा है - भला हम तुम्हें मैनेजर की बराबरी पर कैसे रख सकते हैं।
बेशक गौरी ने अपनी तरफ से मुझे बहलाने के लिए ये सारी बातें कही हैं लेकिन असलियत वही है जो मेरे सामने है। मैनेजर का जाना और मेरा आना, इसमें तो मुझे पाउंड बचाने के अलावा और कोई तर्क नज़र नहीं आता।
इस बीच मैंने बारीकी से सारी चीजें देखी भाली हैं और सारे तंत्र को समझने की कोशिश की है। मैंने पाया है कि यहां, घर स्टोर्स में, फैमिली मैटर्स में, बिजिनेस में, मेरे स्टोर्स में हर चीज के लिए सिस्टम बना हुआ है। यही लंदन की खासियत है। कहीं कोई चूक नहीं। कोई सिस्टम फेल्यर नहीं। जब मैनेजर के जाने के बाद के महीने में हांडा ग्रुप के कार्पोरेट ऑफिस से स्टाफ की सेलरी का स्टेटमेंट आया था तो मैंने देखा, पिछली बार की तुलना में मैनेजर की सैलरी के खाते में पूरे ढाई हज़ार पौंड महीने के बचा लिये गये हैं। अब सारा खेल मेरी समझ में आ गया है। मुफ्त का, भरोसेमंद मैनेजर, घर जवांई का घर जवांई। न घर छोड़ कर जाये और न दुकान। अब गौरी के सारे तर्कों की भी पोल खुल गयी है।
मैं पूरी तरह घिर चुका हूं। अपने घर का सपना एक बार फिर मुझे छल गया है। मेरे हाथ खाली हैं और पूरे देश में मैं किसी को भी नहीं जानता। यहां तो घर में किसी और से कुछ भी कहने का न हक है, न मतलब। यह तो मुझे पहले ही दिन बता दिया गया था कि मुझे जो कुछ कहना है गौरी के जरिये ही कहना है। अलबत्ता सिस्टम, परिवार या पसर्नल लाइफ के बारे में कुछ भी कहने की मनाही है। गौरी से बात करो तो उसके बहलाने के अपने तरीके हैं - क्यों टैंशन लेते हो डीयर। तुम्हें किस बात की चिंता? किस बात की तकलीफ है तुम्हें?
इन सारी मानसिक परेशानियों के बावजूद मैंने एक फैसला किया है कि जो काम मुझे सौंपा गया है, वह मैं कर के दिखाऊंगा। गौरी ने जो मेरी ही बात का ताना मारा था कि मेरे लिए कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं है तो सचमुच ऐसा ही है। मैं एक बार तो यह भी कर के दिखा ही देता हूं कि मैं स्टोर्स भी संभाल सकता हूं और इस पर भी अपनी छाप छोड़ सकता हूं। इसमें ऐसा क्या है जो एक मामूली और कम पढ़ा लिखा मद्रासी संभाल सकता है और मैं नहीं संभाल सकता। बल्कि मुझे तो इस बात के पूरे अधिकार भी दे दिये गये हैं कि मैं जैसा चाहूं इसे बना संवार सकूं।
मैंने देख लिया है कि मेरे सामने क्या काम है और उसे कैसे करना है। मैंने स्टोर्स की लुक, इसकी सर्विस, इसकी डिज़ाइनिंग और इसकी ओवरऑल इमेज को बेहतर बनाने के लिए सारी चीजों की स्टडी की है। इस पूरे प्रोजेक्ट के लिए मैंने तीन महीने का समय तय किया है और अपनी रिपोर्ट में यह भी ज़िक्र कर दिया है कि इस बीच कुछ सैक्शन्स को शिफ्ट करना पड़ सकता है या एक आध हफ्ते के लिए बंद भी करना पड़ सकता है लेकिन कुल मिला कर रोजाना के कामकाज पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
गौरी ने जब रिपोर्ट देखी है तो वह दंग रह गयी है कि मैं इतने सिस्टम से काम करता हूं - आप तो यार, छुपे रुस्तम निकले। हमारे यहां आज तक किसी ने भी इतनी दिलचस्पी से किसी काम को लेकर रिपोर्ट तैयार नहीं की होगी।
मै गौरी को बताता हूं - ये तुम्हारे ही उकसाने की नतीजा है कि मैं ये प्रोजेक्ट कर रहा हूं।
कुल मिला कर गौरी बहुत खुश है कि उसके हसबैंड ने हांडा एम्पायर के लिए कुछ नया सोचा है।
रिपोर्ट हाथों हाथ एप्रूव कर दी गयी हेदिया गया और पूरे काम का एजेंसी को कांट्रैक्ट दे दिया गया है।
इस तरह से मैंने खुद को स्टोर्स को बेहतर बनाने के लिए व्यस्त कर लिया है। इसके अलावा मैंने जब देखा कि यहां जितने कम्प्यूटर्स थे, वे पुराने थे और उनमें जो पैकेजेस थे वे स्टोर्स की ज़रूरत जैसे तैसे पूरी कर रहे थे।
स्टोर्स के रेनोवेशन का काम पूरा हो गया है। अब नये रूप में स्टोर्स की शक्ल ही बदल गयी है और इसकी इमेज भी एक तरह से नयी हो गयी है। हालांकि इस सबमें खर्च हुआ है और मेहनत भी लगी है, लेकिन रिजल्ट्स सामने हैं।
देस बिराना अध्याय 4
हांडा ग्रुप के मुखिया तक ये बातें पहुंच गयी हैं। एक दिन वे खुद आये थे और सारी चीजें खुद देखी भाली थीं। उनके साथ राजकुमार, शिशिर और सुशांत भी थे। सबने काफी तारीफ की थी। मिस्टर हांडा बोले थे - मुझे ये तो मालूम था कि यहां काम करने की जरूरत है लेकिन तुम आते ही इतनी तेजी से और इतनी सिस्टेमैटिकली ये सब कर दोगे, हम सोच भी नहीं सकते थे। वी आर प्राउड ऑफ यू माई सन। गॉड ब्लेस यू। यू हैव डन ए ग्रेट जॉब। उन्होंने वहीं खड़े खड़े राजकुमार से कह दिया है कि लैन और दूसरे सारे पैकेज सभी जगहों के लिए डेवलेप कर लिये जायें। जरूरत पड़े तो दीप जी को इस काम के लिए पूरी तरह फ्री कर दिया जाये।
रिनोवेशन प्रोजेक्ट पूरा होते ही सारी व्यस्तताएं खत्म हो गयी हैं। स्टोर्स का सारा काम स्ट्रीमलाइन हो जाने से अब सुपरविजन का काम नहीं के बराबर रह गया है। अब मैं पूरी तरह खाली हो जाने की वज़ह से फिर अकेला हो गया हूं। फिर से सारे ज़ख्म हरे हो गये हैं और एक सफल प्रोजेक्ट की इन सारी सफलताओं के बावजूद मैं अपने आपको फिर से लुटा-पिटा और अकेला पा रहा हूं।
सारी चिंताओं में घिरा ही हुआ हूं कि एक साथ तीन चिट्ठियां आयी हैं। इस उम्मीद में एक-एक करके तीनों खत खोलता हूं कि शायद इनमें से ही किसी में कोई सुकून भरी बात लिखी हो लेकिन तीनों ही पत्रों में ऐसा कुछ भी नहीं है।
पहला खत गुड्डी का है -
वीरजी,
आपका प्यारा सा पत्र, आपकी नन्हीं सी प्यारी सी दुल्हन के फोटोग्राफ्स और खूबसूरत तोहफे मिले। इससे पहले बंबई से भेजा आपका आखरी खत भी मिल गया था। मैं बता नहीं सकती कि मैं कितनी खुश हूं। आखिर आपको अपना घर नसीब हुआ। बेशक सात समंदर पार ही सही। मेरी खुशी तो आपका घर बस जाने की है।
पहले बिल्लू की शादी के समाचार। मैंने किसी को भी नहीं बताया था कि आप इस तरह से लंदन जा रहे हैं, बल्कि जा चुके हैं। मैं आपकी तकलीफ समझ रही थी लेकिन काश..मैं आपकी किसी खुशी के लिए कुछ भी कर पाती तो ..मुझे बाद में बता चला था कि दारजी ने आपको एक और खत लिखा है - वही आपको मनाने की उनकी तरकीबें और आपसे पैसे निकलवाने के पुराने हथकंडे। मैं रब्ब से दुआ कर रही थी कि वह खत आपको मिले ही नहीं और आप एक और ज़हमत से बच जायें लेकिन आपके जाने के अगले दिन ही नंदू वीरजी ने मुझे बुलवाया और चेकों के बारे में पूछा। मैंने उन्हें बताया कि मैं ये लिफाफा ले कर आपके पास आने ही वाली थी। तब उन्होंने एयरपोर्ट से आपके फोन के और दारजी के खत के बारे मैं बताया। मैं सारे चैक उन्हें दे आयी थी।
इधर दारजी की हालत खराब हो रही थी और वे रोज डाकिये की राह देख रहे थे। एक आध बार शायद नंदू के पास भी चक्कर लगाये कि शायद उसके पास कोई फोन आया हो। अगर आपका ड्राफ्ट न आये तो उनकी हालत खराब हो जाने वाली थी। तभी नंदू वीरजी जैसे उनके लिए देवदूत की तरह प्रकट हुए और पचास हजार के कड़कते नोट उनके हाथ पर धर दिये। साथ में एक चटपटी कहानी भी परोस दी.. आपका दीपू अब बंबई में नहीं है। एक बहुत बड़ी नौकरी के सिलसिले में रातों रात उसे लंदन चले जाना पड़ा। वहां जाते ही उसे आपकी चिट्ठी रीडाइरेक्ट हो कर मिली और वह बड़ी मुश्किल से कंपनी से एडवांस ले कर ये पैसे मेरे बैंक के जरिये भिजवा पाया है ताकि आपका नेक कारज न रुके। बल्कि कल आधी रात ही लंदन से उसका फोन आया था। बहुत जल्दी में था। कह रहा था दारजी और बेबे को कह देना कि अपने घर में खुशी के पहले मौके पर भी नहीं पहुंच पा रहा हूं। क्या करूं नौकरी ही ऐसी है। रात-दिन काम ही काम कि पूछो नहीं।
इतने सारे कड़कते नोट देख कर तो दारजी खुशी के मारे पागल हो गये। वे तो सिर्फ पद्रह बीस हजार की उम्मीद लगाये बैठे थे। सारी बिरादरी में आपकी जय-जय कार करा दी है दारजी ने। नंदू वीरजी वाली कहानी को ही खूब नमक मिर्च लगा कर सारी बिरादरी को सुनाते रहे। घर से आपके घर से अचानक चले जाने को भी अब दारजी ने एक और किस्से के जरिये ऑफिशियल बना दिया है - मैंन ते जी बाद विच पता लगेया। दरअसल साडे दीपू दे बार जाण दी गल चल रई सी, ते उन्ने पासपोरट वास्ते जी अप्लाई कित्ता होया सी। उत्थों ई अचानक तार आ गयी सी कि छेत्ती आ जाओ। कुछ सरकारी कागजां दा मामलां सी। विचारा पक्की रोटी छड्ड के ते दिलियों हवाई जहाज ते बैठ के बंबई पोंचेया सी।..
तो वीर जी, ये रही आपके पीछे तैयार की गयी कहानी..।
आप इस भ्रम में न रहें वीरजी कि दारजी बदल गये हैं या अब आपके घर वापिस लौटने पर वे आपसे बेहतर तरीके से पेश आयेंगे। दरअसल वे इस तरह की कहानियां कह के बिल्लू के ससुराल में अपनी मार्केट वैल्यू तो बढ़ा ही रहे हैं, गोलू के लिए भी जमीन तैयार कर रहे हैं। वे हवा में ये संकेत भेज रहे हैं कि उन्हें अब कोई लल्लू पंजू न समझे। उनका बड़ा लड़का अब बहुत बड़ी नौकरी में लंदन में है। अब उनसे उनकी नयी मार्केट वैल्यू के हिसाब से बात की जाये।
बिल्लू की शादी अच्छी तरह से हो गयी है। गुरविन्दर कौर नाम है हमारी भाभी का। छोटी सी गोल मटोल सी है। स्वभाव की अच्छी है। बिल्लू खुश है। बेबे भी। उसे दिन भर का संग साथ भी मिल गया और काम में हाथ बंटाने वाला भी। मुझे भी अपने बराबर की एक सहेली मिल गयी है। बेबे ने दहेज की सारी अच्छी अच्छी चीजें यहां तक कि उस बेचारी की रोजाना की जरूरत की चीजें भी बड़े बक्से में पह़ुंचा दी हैं। मेरे दहेज में देने के लिए। छी मुझे कितनी शरम आ रही है लेकिन मुझे पूछता ही कौन है। मैं भाभी को चुपके से बाजार ले गयी थी और उन्हें सारी की सारी चीजें नयी दिलवा दीं। उस बेचारी को कम से कम चार दिन तो खुशी से अपनी चीजें इस्तेमाल कर लेने देते।
इतना ही,
मेरी प्यारी भाभी को मेरी तरफ से ढेर सा प्यार.।, भाभी की एक फोटो भेज रही हूं।
आपकी बहन,
गुड्डी
दूसरा ख़त दारजी का है-
बेटे दीपजी
(तो इस बार दारजी का संबोधन दीपजी हो गया है। जरूर कुछ बड़ी रकम चाहिये होगी!!)
जींदे रहो। पहले तो शादी और परदेस की नौकरी की बधाई लो। बाकी हमें और खास कर तेरी बेबे को चंगा लगा कि तुम बहुत वडी नौकरी के सिलसिले में लंदन जा पहुचे हो। रब्ब करे खूब तरक्की करो और खुशियां पाओ। बाकी तुम्हारी शादी की खबर से भी हमें अच्छा लगा कि तुम्हारा घर बार बस गया और अब तुम्हें दुनियादारी से कोई शिकायत नहीं होनी चाहिये। बेशक हम सबकी तुम्हारी शादी में शामिल होने की हसरत तो रह ही गयी। तुम्हें और तुम्हारी वोटी को खुद आसीसें देते तो हमें चंगा लगता। बाकी हमारी आसीसें हमेशा तुम्हारे साथ हैं। बाकी तुमने बिल्लू के वक्त जो अपना फरज निभाया, उससे बिरादरी में हमारा सीना चौड़ा हो गया कि तुमने परदेस में जाते ही कैसे भी करके इतनी बड़ी रकम का इंतजाम करके हमारे हाथ मजबूत किये। सब अश अश करने लगे कि बेटा हो तो दीपजी जैसा!! बेटेजी अब तो मेरी एक ही चिंता है कि किसी तरह गुड्डी के हाथ पीले कर दूं। तुझे तो पता ही है कि बेबे की तबीयत ठीक नहीं रहती और मेरा भी काम धंधा मंदा ही है। अब उमर भी तो हो चली है। कब तक खटता रहूंगा जबकि मेरा घर बार संभालने वाले तीन-तीन जवान जहान बेटे हैं। बाकी बिल्लू की शादी के बाद से हाथ थोड़ा तंग हो गया है। उसके अपने खरचे भी बढ़े ही हैं। वैसे अगर तेरा भी रिश्ता यहीं हो जाता तो बात ही और थी। बिल्लू के सगों ने भी एक तरह से निराश ही किया है। मैंने तो तेरी बहुत हवा बांधी थी लेकिन कुछ बात बनी नहीं। अब तो यही देखना है कि गुड्डी के समय हमारी इज्जत रह जाये। गोलू फिर भी एकाध बरस इंतजार कर सकता है लेकिन लड़की कितनी भी पढ़ी लिखी क्यों न हो, सीने पर बोझ तो रहता ही है। ये खत सिरफ इस वास्ते लिखा कि कभी भी गुड्डी की बात आगे बढ़ सकती है। दो- एक जगह बात चल भी रही है। बाकी तुम खुद समझदार हो।
तुम्हारा,
दारजी
तो यह बात थी। कैसी मीठी छुरी चलाते हैं दारजी भी। पहले से खबर कर रहे हैं कि भाया, तैयारी रख, तेरी बहन के हाथ भी पीले करने हैं। आज ही नंदू से बात करनी पड़ेगी कि किसी भी तरह से दारजी को समझाये कि गुड्डी के लिए जल्दीबाजी न मचायें। कब और कैसे रुख बदलना है, दारजी बखूबी जानते हैं।
अलबत्ता तीसरी चिट्ठी मेरे लिए थोड़ी सुकून भरी है। पत्र टीआइएफआर से है। उन्होंने मेरे बकाया पैसों का स्टेटमेंट बना कर भेजा है और पूछा है कि मैं ये पैसे कहां और कैसे लेना चाहूंगा। लगभग दो लाख के करीब हैं।
सोचता हूं ये पैसे मैं भसीन साहब के जरिये किसी चैनल से यहां मंगवा लूं । वक्त जरूरत काम आयेंगे। रोजाना कितनी तो ज़रूरतें होती हैं मेरी और मुझे गौरी के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। ऑफिस को यही लिख दिया है मैंने कि ये पैसे मिस्टर देवेन्द्र को दे दिये जायें। ऑफिस और देवेन्द्र जी को ऍथारिटी लैटर भेज दिया है।
शिशिर आया है। मेरे डेवलेप किये हुए पैकेज लेने। वैसे हम कई बार मिले हैं। उनके घर खाना खाने भी गये हैं और पार्टियों में भी मिलते रहे हैं लेकिन यह पहली बार है कि हम दोनों अकेले आमने सामने बात कर रहे हैं। वह मेरा सबसे बड़ा साढ़ू है। वह भी मेरी ही तरह हांका करके लाया गया है। चार साल हो गये हैं उसकी शादी को। एक बच्चा भी है उनका। कलकत्ता से एमबीए है। अच्छी भली नौकरी कर रहा था कि लंदन में मेरी ही तरह शानदार कैरियर का चुग्गा देख कर फंस गया था। वह गैस स्टेशनों का काम देख रहा है। हम सब जवांइयों में से उसकी हालत कुछ बेहतर है क्योंकि उसने अपनी बीवी को बस में कर रखा है और लड़ झगड़ कर अपनी बात मनवा लेता है।
पूछ रहा है वह -आपने तो वाकई कमाल कर दिया कि इतने कम समय में अपने ठीये को पूरी तरह चेंज करके रख दिया। वह हँसा है - बस हमारा ख्याल रखना, कहीं हमें घर से या ससुराल से मत निकलवा देना। और कोई ठिकाना नहीं है अपना।
- क्यों मेरे जले पर नमक छिड़क रहे हो भाई। ये तो मैं ही जानता हूं कि ये सब मैंने क्यों और किसलिए किया। अचानक इतने दिनों से दबा मेरा आक्रोश बाहर का रास्ता तलाशने लगा है। मेरी आवाज भारी हो गयी है।
शिशिर ने मेरे कंधे पर हाथ रखा है - आयम सौरी गगनदीप, मुझे नहीं मालूम था। वैसे आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं। बेशक मेरी भी वही हालत है जो कमोबेश आपकी है बल्कि मैंने तो यहां इससे भी बुरे दिन देखे हैं। आपने कम से कम कुछ काम करके अपनी इमेज तो ठीक कर ली है।
- दरअसल मुझे यहां के जो सब्जबाग दिखाये गये थे और मैं जो उम्मीदें ले कर आया था, शादी के कुछ ही दिन बाद मुझे लगने लगा था कि मैं बुरी तरह छला गया हूं।
- बेशक हम आपस में आमने सामने नहीं मिले है लेकिन मैं आपकी हालत के बारे में जानता हूं कि आप बहुत भावुक किस्म के आदमी हैं और उतने प्रैक्टिकल नहीं हैं। लेकिन मुझे ये नहीं पता था कि आप किसी जिद में या खुद को जस्टीफाई करने के लिए ये सब कर रहे हैं। चलिये, कहीं बाहर चलते हैं। वहीं बात करते हैं।
- चलिये।
हम सामने ही कॉफी शॉप में गये हैं ।
मैं बात आगे बढ़ाता हूं - मुझे पता नहीं कि आपकी बैक ग्राउंड क्या है और आप यहां कैसे आ पहुंचे लेकिन मैं यहां एक घर की तलाश में आया था। मुझे पता नहीं था कि घर तो नहीं ही मिलेगा, मेरी आजादी और प्राइवेसी भी मुझसे छिन जायेंगे। इतने दिनों के बाद शिशिर अपना-सा लग रहा है जिसके सामने मैं अपने आपको खोल पा रहा हूं।
- आप ठीक कहते हैं। हम सबकी हालत कमोबेश एक जैसी ही है। हम में से किसी का भी अपना कहने को कुछ भी नहीं है। जो कुछ अपना था भी वह भी उन्होंने रखवा लिया है। न हम कहीं जॉब तलाश कर सकते हैं और न वापिस भाग ही सकते हैं। हम में से कुछ ने एकाध बच्चा भी पैदा करके अपने गले के फंदे को और भी मजबूती से कसवा लिया है। मैं खुद पछता रहा हूं कि मैं इस बच्चे वाले चक्कर में फंसा ही क्यों। खैर। मैं तो अब इस बारे में सोचता ही नहीं... जो है जैसा है, चलने दो, लेकिन आप नये आये हैं, अकेले हैं और किसी को जानते भी नहीं हैं। न हांडा परिवार में और न हममें से किसी को। और शायद आप सोचते भी बहुत हैं, इसीलिए भी आपको ऐसा लगता रहा है।
शिशिर की बात सुन कर मेरा दबा आक्रोश फिर सिर उठा रहा है। शिशिर मेरे मन की बात ही तो कर रहा है - हम बंधुआ मजदूर ही तो हैं जिनकी आज़ादी का कोई जरिया नहीं है।
आज मैंने और शिशिर ने इस पहली ही मुलाकात में अपने अपने जख्म एक दूसरे के सामने खोल दिये हैं। एक मायने में शिशिर की हालत मुझसे अलग और बेहतर है कि वह घर परिवार से आया है, मेरी तरह घर की तलाश में नहीं आया। उसके पीछे इंडिया में कुछ जिम्मेवारियां हैं जिन्हें वह चोरी छुपे पूरी कर रहा है। उसने हेरा-फेरी के कुछ बहुत ही बारीक तरीके ढूंढ लिये हैं या इजाद कर लिये हैं और इस तरह हर महीने चार पांच सौ पौंड अलग से बचा लेता है। इस तरह से कमाये हुए पैसों को वह नियमित चैनलों से भारत भेज रहा है।
मैं उसकी बात सुन कर दंग रह गया हूं। उसने मेरा हाथ दबाया है - आप ही पहले शख्स हैं जिसे मैंने इस सीक्रेट में राज़दार बनाया है। मैंने अपने घर वालों को सख्त हिदायत दे रखी है कि भूल कर भी अपने पत्रों में रुपये पैसे मंगाने या पाने का जिक्र न करें। अपनी पसर्नल डाक भी मैं अलग-अलग दोस्तों के पतों पर मंगाता हूं और ये पते बदलता रहता हूं। वह बता रहा है - पहले मैं भी आपकी तरह कुढ़ता रहता था लेकिन जब मैंने देखा कि यहां की गुलामी तो हम चाह कर भी खत्म नहीं कर सकते और मरते दम तक हांडा परिवार के गुलाम ही बने रहेंगे तो फिर हमीं क्यों हरिश्चंद्र की औलाद बने रहें। पहले तो मैं भी बहुत डरा, मेरी आत्मा गवारा ही नहीं करती थी। आज तक मैंने कोई ऐसा काम नहीं किया था लेकिन आज तक किसी ने मेरा शोषण भी नहीं किया था इसलिए मैंने भी मन मार कर ये सब करना शुरू कर दिया है, बेशक चार पांच सौ पौंड यहां के लिहाज से कुछ नहीं होते लेकिन वहां मेरा पूरा घर इसी से चलता है। इनके भरोसे रहें तो जी चुके हम और हमारे परिवार वाले।
शिशिर से मिलने के बाद बहुत सुकून मिला है। एक अहसास यह भी है कि मैं ही अकेला नहीं हूं। दूसरा, यह भी कि शिशिर है जिससे मैं कभी-कभार सलाह ले सकता हूं या अपने मन की बात कह सकता हूं।
शिशिर ने वादा किया है कि वह नियमित रूप से फोन करता रहेगा और हफ्ते दस दिन में मिलता भी रहेगा।
इधर गौरी बहुत खुश है कि मैंने हांडा परिवार के लिए, अपने ससुराल के लिए, गौरी के मायके के लिए इतना कुछ किया है। लेकिन मैं ही जानता हूं कि इन दिनों मैं किस मानसिक द्वंद्व से गुजर रहा हूं। गौरी का साथ भी अब मुझे उतना सुख नहीं दे पाता। जब मन ही ठिकाने पर न हो तो तन कैसे रहेगा।
अभी उस दिन मैं अपने पुराने कागज देख रहा था तो देखा - मेरे सारे पेपर्स अटैची में से गायब हैं। मैं एकबारगी तो घबरा ही गया कि कहीं चोरी तो नहीं चले गये हैं। जब गौरी से पूछा तो वह लापरवाही से बोली - संभाल कर रख दिये हैं। तुमने तो इतनी लापरवाही से खुली अटैची में रखे हुए थे। वैसे भी तुम्हें क्या ज़रूरत है इन सब पेपर्स की?
मैं चुप रह गया था। क्या जवाब देता। मैं जानता था कि गौरी झूठ बोल रही है। मेरे पेपर्स ख्ली अटैची में तो कत्तई नहीं रखे हुए थे। मैं कभी भी अपनी चीजों के बारे में लापरवाह नहीं रहा।
डिपार्टमेंटल स्टोर का सारा हिसाब-किताब कम्प्यूटराइज्ड होने के कारण मैं हमेशा खाली हाथ ही रहता हूं। यहां तक कि मुझे अपनी पसर्नल ज़रूरतों के लिए भी गौरी पर निर्भर रहना पड़ता है। मैं भरसक टालता हूं लेकिन फिर भी शेव, पैट्रोल, बस, ट्राम, ट्यूब वगैरह के लिए ही सही, कुछ तो पैसों की जरूरत पड़ती ही है। मांगना अच्छा नहीं लगता और बिन मांगे काम नहीं चलता। इस कुनबे के अलिखित नियमों में से एक नियम यह भी है कि कोई भी कहीं से भी हिसाब में से पैसे नहीं निकालेगा। निकाल सकता भी नहीं क्योंकि कैश आपके हाथों तक पहुंचता ही नहीं और न सिस्टम में कहीं गुंजाइश ही है। ज़रूरत है तो अपनी अपनी बीवी से मांगो। बहुत कोफ्त होती है गौरी से पैसे मांगने में। बेशक घर में अलमारी में ढेरों पैसे रखे रहते हैं और गौरी ने कह भी रखा है कि पैसे कहां रखे रहते हैं जब भी ज़रूरत हो ले लिया करूं लेकिन इस तरह पैसे उठाने में हमेशा मुझे क्या किसी को भी संकोच ही होगा। यहां तो न बोलने का इजाज़त है न किसी बात पर उंगली उठाने की।
दिन भर स्टोर में ऐसी-तैसी कराओ, रात में थके हारे आओ। मूड है तो नहाओ, अगर गौरी जाग रही है तो डिनर उसके साथ लो, नहीं तो अकेले खाना भकोसो और अंधेरे में उसके बिस्तर में घुस कर, इच्छा हो या न हो, सैक्स का रिचुअल निभाओ। बात करने का कोई मौका ही नहीं। अगर कभी बहुत जिद कर के बात करने की कोशिश भी करो तो गौरी की भृकुटियां तन जातीं हैं - तुम्हीं अकेले ही तो नहीं खटते डियर, यहां सभी बराबरी का काम करते हैं। मैं भी तो तुम्हारे बराबर ही काम करती हूं, मैंने तो कभी अपने लिए अलग से कुछ नहीं मांगा। तुम्हारी सारी ज़रूरतें तो ठाठ से पूरी हो रही हैं।
मैं उसे कैसे बताऊं कि ये ज़रूरतें तो मैं भारत में भी बहुत शानदार तरीके से पूरी कर रहा था और अपनी शर्तों पर कर रहा था। मैं यहां कुछ सपने ले कर आया था। घर के, परिवार के और एक सुकून भरी ज़िदंगी के, प्यार दे कर प्यार पाने के लेकिन गौरी के पास न तो इन सारी बातों को समझ सकने लायक दिमाग है और न ही फुर्सत।
एक अच्छी बात हुई कि देवेन्द्र जी ने टीआइएफआर से मेरे बकाया पैसे ले कर अपने किसी परिचित के जरिये का हवाला के जरिये यहीं पर दिलवा दिये हैं। उनके ऑफिस का कोई आदमी यहां आया हुआ है। उसे बंबई अपने घर पैसे भिजवाने थे। उसके पैसे देवेन्द्र जी ने वहीं बंबई में दे दिये हैं और वह आदमी मुझे यहीं पर पाउंड दे गया है। फिलहाल मुझे एक हज़ार पाउंड मिल गये हैं और मैं रातों रात अमीर हो गया हूं। हँसी भी आती है अपनी अमीरी पर। इतने पैसे तो गौरी दो दिन में ही खर्च कर देती है। मेरी तो इतने भर से ही काफी बड़ी समस्या हल हो गयी है। पैसों को ले कर गौरी से रोज़ रोज़ की खटपट के बावजूद आज़ मैंने उसे डिनर दिया है। मेरी अपनी कमाई में से पहला डिनर। बेशक कमाई पहले की है। फिर भी इस बात की तसल्ली है कि घर जवांई होने के बावजूद मेरे पास आज अपने पैसे हैं। गौरी डिनर खाने के बावजूद मेरे सैंटीमेंट्स को नहीं समझ पायी। न ही उसने ये पूछा कि जब तुम्हारे पास पैसे नहीं होते तो तुम कैसे काम चलाते हो ! क्यों अपनी ये छोटी सी पूंजी को इस तरह उड़ा रहे हो, हज़ार पाउंड आखिर होते ही कितने हैं? लेकिन उसने एक शब्द भी नहीं कहा।
आज की डाक में तीन पत्र एक साथ आये हैं। तीनों ही पत्र परेशानी बढ़ाने वाले हैं।
पहला खत गुड्डी का है।
लिखा है उसने
- वीरजी,
सत श्री अकाल
कैसे लिखूं कि यहां सब कुछ कुशल है। होता तो लिखने की जरूरत ही न पड़ती। आप भी क्या सोचते होंगे वीरजी कि हम लोग छोटे-छोटे मसले भी खुद सुलटा नहीं सकते और सात समंदर पार आपको परेशान करते रहते हैं। मैं आपको आखरी बार परेशान कर रही हूं वीरजी। अब कभी नही करूंगी। मैं हार गयी वीर जी। मेरी एक न चली और मेरे लिए तीन लाख नकद और अच्छे कहे जा सकने वाले दहेज में एक इंजीनियर खरीद लिया गया हालांकि उसका बाजार भाव तो बहुत ज्यादा था। वीर जी, ये कैसा फैसला है जो मेरी बेहतरी के नाम पर मुझ पर थोपा जा रहा है।
दारजी को उस गोभी के पकौड़े जैसी नाक वाले इंजीनियर मे पता नहीं कौन से लाल लटकते नज़र आ रहे थे कि बस हां कर दी कि हमें रिश्ता मंज़ूर है जी। आप कहेंगे वीरजी, मेरी मर्जी के खिलाफ मेरी शादी हो रही है और मुझे मजाक सूझ रहा है। हँसूं नहीं तो और क्या करूं वीर जी। मैं कितना रोई, छटपटाई, दौड़ कर नंदू वीरजी को भी बुला लायी लेकिन दारजी ने उन्हें देखते ही बरज दिया- यह हमारा घरेलू मामला है बरखुरदार..। जब आधी-आधी रात को पैसे चाहिये होते हैं तो यही नंदू वीरजी सबसे ज्यादा सगे हो जाते हैं और जब वे मेरे पक्ष में सही बात करने के लिए आये तो वे बाहर के आदमी हो गये।
मेरा तो जी करता है कहीं भाग जाऊं। काश, हम लड़कियों के लिए भी घर छोड़ कर भागना आसान हो पाता। गलत न समझें लेकिन आप इतने सालों बाद घर लौट कर आये तो सबने आपको सर आंखों पर बिठाया। अगर मैं एक रात भी घर से बाहर गुजार दूं तो मां-बाप तो मुझे फाड़ खायेंगे ही, अड़ोसी-पड़ोसी भी लानतें भेजने में किसी से पीछे नहीं रहेंगे।
ऐसा क्यों होता है वीरजी, ये हमारे दोहरे मानदंड क्यों। आप को संतोष पसंद नहीं थी तो आप एक बार फिर घर छोड़ कर भाग गये। किसी ने आपको तो कुछ भी नहीं कहा.. लेकिन मुझे वो पकोड़े जैसी नाक वाला आदमी रत्ती भर भी पसंद नहीं है तो मैं कहां जाऊं। क्यों नहीं है मुक्ति हम लड़कियों की। जो रास्ता आपके लिए सही है वही मेरे लिए गलत क्यों हो जाता है। मैं क्यों नहीं अपनी पसंद से अपनी ज़िंदगी के फैसले ले सकती !! आप हर बार पलायन करके भी अपनी बातें मनवाने में सफल रहे। आप बिना लड़े भी जीतते रहे और मैं लड़ने के बावजूद क्यों हार रही हूं। क्या विकल्प है मेरे पास वीरजी !!
मैं भी घर से भाग जाऊं !! सहन कर पायेंगे आप कि आपकी कविताएं लिखने वाली और समझदार बहन जिस पर आपको पूरा भरोसा था, घर से भाग गयी है। संकट तो यही है वीरजी, कि भाग कर भी तो मेरी या किसी भी लड़की की मुक्ति नहीं है। अकेली लड़की कहां जायेगी और कहां पहुंचेगी। अकेली लड़की के लिए तो सारे रास्ते वहीं जाते हैं। मैं भी आगे पीछे वहीं पहुंचा दी जाऊंगी। मेरे पास भी सरण्डर करने के और कोई उपाय नहीं है। बीए में पढ़ने वाली और कविताएं लिखने वाली बेचारी लड़की भूख हड़ताल कर सकती है, जहर खा सकती है, जो मैं नहीं खाऊंगी। तीन महीने बाद, इसी वैसाखी पर मैं दुल्हन बना दी जाऊंगी। हो सकता है, अब तक आपके पास दारजी का पत्र पहुंच गया हो। आप नंदू वीर जी को फोन करके बता दें कि उनके पास जो चैक रखे हैं उनका क्या करना है। मुझे नहीं पता दारजी ने किस भरोसे से पकौड़े वालों से तीन लाख नकद की बात तय कर ली है। रब्ब न करे इंतज़ाम न हो पाया तो स्टोव तो मेरे लिए ही फटेगा।
कब से ये सारी चीजें मुझे बेचैन कर रही थीं। आपको न लिखती तो किसे लिखती वीर जी, आप ही ने तो मुझे बोलना सिखाया है। बेशक मैं वक्त आने पर अपने हक के लिए नहीं बोल पायी।
मेरी बेसिर पैर की बातों का बुरा नहीं मानेंगे।
आपकी लाडली
गुरप्रीत कौर
उसने इतनी चिट्ठियों में पहली बार अपना नाम गुरप्रीत लिखा है। मैं उसकी हालत समझ सकता हूं।
दूसरा खत नंदू का है, लिखा है उसने -
प्रिय दीपजी
अब तक आपको गुड्डी का पत्र मिल गया होगा। मेरे पास आयी थी। बहुत रोती थी बेचारी कि मैं शादी से इनकार नहीं करती कम से कम मुझे पढ़ाई तो पूरी करने दें। मेरा और मेरे वीरजी का सपना है कि मैं एमबीए करूं। सच मान मेरे वीरा, मैं भी दारजी को समझा-समझा कर थक गया कि उसे पढ़ाई तो पूरी कर लेने दो। आखिर मैंने एक चाल चली। तुमने जो चैक मेरे पास रख छोड़े हैं, उनके बारे में उन्हें कुछ भी नहीं पता। ये पैसे मैं उन्हें ऐन वक्त पर ही दूंगा कि दीपजी ने भेजे हैं.. तो उन्हीं पैसों को ध्यान में रखते हुए मैंने उन्हें समझाया कि आखिर दीप को भी तो कुछ समय दो कि वह अपनी बहन के लिए लाख दो लाख का इंतज़ाम कर सके। उसकी भी तो नयी नौकरी है और परदेस का मामला है। कुछ भी ऊंच-नीच हो सकती है। बात उनके दिगाम में बैठ गयी है, और वे कम से कम इस बात के लिए राजी हो गये हैं कि वे लड़के वालों को कहेंगे कि भई अगर शादी धूमधाम से करना चाहते हो तो वैसाखी के बाद ही शादी हो पायेगी। मेरा ख्याल है तब तक गुडडी के बीए फाइनल के पेपर हो चुके होंगे। तब तक वह अपनी पढ़ाई भी बिना किसी तकलीफ के कर पायेगी।
थोड़ी सी गलती मेरी भी है कि मैंने यहां पर लंदन में तुम्हारी नौकरी, रुतबे, और दूसरी चीजों की कुछ ज्यादा ही हवा बांध दी है जिससे दारजी हवा में उड़ने लगे हैं।
तू यहां की चिंता मत करना। मैं अपनी हैसियत भर संभाले रहूंगा। गुड्डी का हौसला बनाये रखूंगा। वैसे लड़का इतना बुरा भी नहीं है। कोई आदमी किसी को पसंद ही न आये तो सारी अच्छाइयों के बाद भी उसमें ऐब ही ऐब नजर आते हैं। वैसे भी गुड्डी इस वक्त तनावों से ग़ुज़र रही है और किसी से भी शादी से बचना चाह रही है। अपना ख्याल रखना..मैं यहां की खबर देता रहूंगा। तू निश्चिंत रह।
तेरा ही
नंदू
तीसरा खत दारजी का है।
बेटे दीप जी
खुश रहो।
बाकी खास खबर ये है कि सानू गुड्डी के लिए एक बहुत ही चंगा लड़का ते रजेया कजेया घर मिल गया है। असां सगाई कर दित्ती है। लड़का बिजली महकमे विच इंजीनियर है और उनकी कोई खास डिमांड नहीं है। बाकी बाजार में जो दस्तूर चल रहा है तीन-चार लाख आजकल होता क्या है। लोग मुंह खोल के बीस-बीस लाख मंग भी रहे हैं और देण वाले दे भी रहे हैं। ज्यादा दूर क्यों जाइये। त्वाडे वास्ते भी तो पांच छः लाख नकद और कार और दूसरी किन्नी ही चीजों की ऑफर थी। आखिर देण वाले दे ही रहे थे कि नहीं। अब हम इतने नंगे बुच्चे भी तो नहीं हैं कि कुड़ी को खाली हाथ टोर दें। आखिर उसका भाई भी बड़ा इंजीनियर है और विलायत विच काम करता है। हमें तो सारी बातें देखणी हैं और बिरादरी में अपनी नाक भी ऊंची रखणी है।
बाकी हम तो एक दो महीने में ही नेक कारज कर देना चाहते थे कि कुड़ी अपने घर सुख सांद के साथ पहुंच जाये लेकन नंदू की बात मुझे समझ में आ गयी है कि रकम का इंतजाम करने में हमें कुछ वकत तो लग सकता है। परदेस का मामला है, और फिर रकम इन्नी छोटी वीं नइं है। बाकी अगर ते त्वाडा आना हो सके तो इस तों चंगी कोई गल्ल हो ही नहीं सकती। बाकी तुसी वेख लेणा। बाकी गौरी नूं असां दोंवां दी असीस।
तुम्हारा
दारजी
समझ में नहीं आ रहा कि इन पत्रों का क्या जवाब दूं। अपने यहां के मोरचे संभालूं या देहरादून के। दोनों ही मोर्चे मुझे पागल बनाये हुए हैं। गुड्डी ने तो कितनी आसानी से लिख दिया है बेशक भारी मन से ही लिखा है लेकिन मैं कैसे लिख दूं कि यहां भी सब खैरियत है जबकि सब कुछ तो क्या कुछ भी ठीक ठाक नहीं है। मैं तो चाह कर भी नहीं लिख सकता कि मेरी प्यारी बहना, खैरियत तो यहां पर भी नहीं है। मैं भी यहां परदेस में अपने हाथ जलाये बैठा हूं और कोई मरहम लगाने वाला भी नहीं है।
तीनों चिट्ठियां पिछले चार दिन से जेब में लिये घूम रहा हूं। तीनों ही खत मेरी जेब जला रहे हैं और मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूं।बात करूं भी तो किससे? कोई भी तो नहीं है यहां मेरा जिससे अपने मन की बात कह सकूं। गौरी से कुछ भी कहना बेकार है। पहले दो एक मौकों पर मैं उसके सामने गुड्डी का ज़िक्र करके देख चुका हूं। अब उसकी मेरे घर बार के मामलों में कोई दिलचस्पी नहीं रही है। बल्कि एक आध बार तो उसने बेशक गोल-मोल शब्दों में ही इशारा कर दिया था - डीयर, तुम छोड़ो अब वहां के पचड़ों को। तुम अपने नसीब को भोगो। वे अपनी किस्मत का वहीं मैनेज कर ही लेंगे।
अचानक शिशिर का फोन आया है तो मुझे सूझा है, उसी से अपनी बात कह कर मन का कुछ तो बोझ हलका किया जा सकता है।
शिशिर को बुलवा लिया है मैंने। हम बाहर ही मिले हैं। उसे मैं संक्षेप में अपनी बैकग्राउंड के बारे में बताता हूं और तीनों पत्र उसके सामने रखता हूं। वह तीनों पत्र पढ़ कर लौटा देता है।
- क्या सोचा है तुमने इस बारे में। पूछता है शिशिर।
- मैं यहां आने से पहले गुड्डी के लिए वैसे तो इंतज़ाम कर आया था। उसे मैं तीन लाख के ब्लैंक चैक दे आया था। दारजी को इस बारे में पता नहीं हैं। मैं बेशक यहां से न तो ये शादी रुकवा सकता हूं और न ही उसके लिए यहां या वहां बेहतर दूल्हा ही जुटा सकता हूं। अब सवाल यह है कि उसकी ये शादी मैं रुकवाऊं तो रुकवाऊं कैसे? वैसे नंदू इसे अप्रैल तक रुकवाने में सफल हो ही चुका है। तब तक वह बीए कर ही लेगी। मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है इसीलिए तुम्हें मैंने बुलाया था।
- फिलहाल तो तुम यही करो कि गुड्डी को यही समझाओ कि जब तक शादी टाल सके टाले, जब बिलकुल भी बस न चले तो करे शादी। दारजी को भी एक बार लिख कर तो देख लो कि उसे पढ़ने दें। एक बार शादी हो जाने के बाद कभी भी पढ़ाई पूरी नहीं हो पाती। और अगर गुड्डी को लड़का पसंद नहीं है तो क्यों नहीं वे कोई बेहतर लड़का देखते। बीए करने के बाद तो गुड्डी के लिए बेहतर रिश्ते भी आयेंगे ही।
- हां, ये ठीक रहेगा। मैं इन्हीं लाइंस पर तीनों को लिख देता हूं। आज तुम से बात करके मेरा आधी परेशानी दूर हो गयी है।
- ये सिर्फ तुम्हारी ही समस्या नहीं है मेरे दोस्त। वहां घर घर की यही कहानी है। अगर तुम्हारी गुड्डी की शादी के लिए तुम्हें लिखा जा रहा है तो मेरी बहनों अनुश्री और तनुश्री की शादी के लिए भी मेरे बाबा भी मुझे इसी तरह की चिट्ठियां लिखते हैं। तुम लकी हो कि तुम गुड्डी के लिए कम से कम तीन लाख का इंतज़ाम करके तो आये थे और इस फ्रंट के लिए तुम्हें रातों की नींद तो खराब नहीं करनी है। हर समय ये हिसाब तो नहीं लगाना पड़ता कि तुम्हारा जुटाया या बचाया या चुराया हुआ एक पाउंड वहां के लिए क्या मायने रखता है और उनकी कितनी ज़रूरतें पूरी करता है। मुझे यहां खुद को मेनटेन करने के लिए तो हेराफेरी करनी ही पड़ती है, साथ ही वहां का भी पूरा हिसाब-किताब दिमाग में रखना पड़ता है। मुझे न केवल दोनों बहनों के लिए यहीं से हर तरह के दंद फंद करके दहेज जुटाना पड़ा बल्कि मैं तो आज भी बाबा, मां और दोनों बहनों, जीजाओं की हर तरह की मांगें पूरी करने के लिए अभिशप्त हूं। मैं पिछले चार साल से यानी यहां आने के पहले दिन से ही यही सब कर रहा हूं।
- तो बंधु, हम लोगों की यही नियति है कि घर वालों के सामने सच बोल नहीं सकते और झूठ बोलते बोलते, झूठी ज़िदंगी जीते जीते एक दिन हम मर जायेंगे। तब हमारे लिए यहां कोई चार आंसू बहाने वाला भी नहीं होगा। वहां तो एक ही बात के लिए आंसू बहाये जायेंगे कि पाउंड का हमारा हरा-भरा पेड़ ही सूख गया है। अब हमारा क्या होगा।
- कभी वापिस जाने के बारे में नहीं सोचा?
- वापिस जाने के बारे में मैं इसलिए नहीं सोच सकता कि शिल्पा और मोंटू मेरे साथ जायेंगे नहीं। अकेले जाने का मतलब है - तलाक ले कर, सब कुछ छोड़-छाड़ कर जाओ। फिर से नये सिरे से जिंदगी की शुरूआत !! वह अब इस उम्र में हो नहीं पायेगा। अब यहां जिस तरह की ज़िंदगी की तलब लग गयी है, वहां ये सब कहां नसीब होगा। खटना तो वहां भी पड़ेगा ही लेकिन हासिल कुछ होगा नहीं। जिम्मेवारियां कम होने के बजाये बढ़ ही जायेंगी। तो यहीं क्या बुरा है।
- तुम सही कह रहे हो शिशिर। आदमी जिस तरह की अच्छी बुरी ज़िंदगी जीने का आदी हो जाता है, उम्र के एक पड़ाव के बाद उसमें चेंज करना इतना आसान नहीं रह जाता। मैं भी नहीं जानता, क्या लिखा है मेरे नसीब में। यहां या कहीं और, कुछ भी तय नहीं कर पाता। वहां से भाग कर यहां आया था, अब यहां से भाग कर कहां जाऊंगा। यहां कहने को हम हांडा खानदान के दामाद हैं लेकिन अपनी असलियत हम ही जानते हैं कि हमारी औकात क्या है। हम अपने लिए सौ पाउंड भी नहीं जुटा सकते और अपनी मर्जी से न कुछ कर सकते हैं न किसी के सामने अपना दुखड़ा ही रो सकते हैं।
- आयेंगे अच्छे दिन भी, शिशिर हँसता है और मुझसे विदा लेता है।
मैं शिशिर के सुझाये तरीके से दारजी और गुड्डी को संक्षिप्त पत्र लिखता हूं। एक पत्र नंदू को भी लिखता हूं। मैं जानता हूं कि इन खतों का अब कोई अर्थ नहीं है फिर भी गुड्डी की हिम्मत बढ़ाये रखनी है। मैंने दारजी को यह भी लिख दिया है कि मैं यहां गुड्डी के लिए कोई अच्छा सा लड़का देखता रहूंगा। अगर इंतज़ार कर सकें। उस इंजीनियर से अच्छा लड़का यहां भी देखा जा सकता है लेकिन इसके लिए वे मुझे थोड़ा टाइम जरूर दें।
बहुत दिनों बाद मिला है शिशिर इस बार।
- कैसे हो, दीप, तुम्हारे पैकैजेस ने तो धूम मचा रखी है।
- जाने दो यार, अब उनकी बात मत करो। अपनी कहो, नयी फैक्टरी की बधाई लो शिशिर, सुना है तुमने इन दिनों हांडा ग्रुप को अपने बस में कर रखा है। तुम्हारे लिए एक फैक्टरी लगायी जा रही है। इससे तो तुम्हारी पोजीशन काफी अच्छी हो जायेगी।
- वो सब शिल्पा के ज़रिये ही हो पाया है। मैंने उसे ही चने के झाड़ पर चढ़ाया कि मैं कब तक गैस स्टेशनों पर हाथों की ग्रीस उतारने के लिए उससे साबुन मांगता रहूंगा, आखिर वही सबसे बड़ी है। उसके हसबैंड को भी अच्छी पोजीशन दी जानी चाहिये। बस बात क्लिक कर गयी और ये फैक्टरी हांडा ग्रुप ने मेरे बेटे के नाम लगाने का फैसला किया है।
- चलो, कहीं तो मोंटू की किस्मत चमकी।
- खैर, तुम कहो, होम फ्रंट पर कैसा चल रहा है। पूछा है शिशिर ने।
- बस, चल ही रहा है। मैं भरे मन से कहता हूं।
- क्या कोई ज्यादा डिफरेंसेंस हैं?
- हैं भी और नहीं भी। अब तो कई बार तो हममें बात तक नहीं होती।
- कोई खास वज़ह?
- यही वज़ह क्या कम है? जब आपका मन ही ठिकाने पर न हो, आप को मालूम हो कि आपके आस पास जो कुछ भी है, एक झूठा आवरण है और कदम कदम पर झूठ बोल कर आपको घेर कर लाया गया है तो आप अपने सबसे नजदीकी रिश्ते भी कहां जी पाते हैं। और उस उस रिश्ते में भी खोट हो तो .. ..। खै। मेरी छोड़ो, अपनी कहो।
- नहीं दीप नहीं, तुम्हारी बात को यूं ही नहीं जाने दिया जा सकता। अगर तुम इसी तरह घुटते रहे तो अपनी ही सेहत का फलूदा बनाओगे। यहां तब कोई पूछने वाला भी नहीं मिलेगा। मुझसे मत छिपाओ, मन की बात कह दो। आखिर मैं इन लोगों को तुमसे तो ज्यादा ही जानता हूं। सच बताओ, क्या बात है। उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा है।
- सच बात हो यह है कि मैं थक गया हूं। अब बहुत हो गया। आदमी कब तक अपना मन मार कर रहता रहे, जबकि सुनवाई कहीं नहीं है। यहां तो हर तरफ झूठ ही झूठ है।
- बताओ तो सही बात क्या है।
- कुछ दिन पहले हम एक कपबोर्ड का सामान दूसरे कमरे में शिफ्ट कर रहे थे तो गौरी के पेपर्स में मुझे उसका का बायोडाटा मिला। आम तौर पर मैं गौरी की किसी भी चीज़ को छूता तक नहीं और न ही उसके बारे मे कोई भी सवाल ही पूछता हूं। दरअसल उन्हीं कागजों से पता चला कि गौरी सिर्फ दसवीं पास है जबकि मुझे बताया गया था कि वह ग्रेजुएट है। मुझे समझ नहीं आ रहा कि इस बारे में भी मुझसे झूठ क्यों बोला गया? मुझे तो यह भी बताया गया था कि वह अपनी कम्पनी की फुल टाइम डाइरेक्टर है। यहां तो वह सबसे कम टर्नओवर वाले फ्लोरिस्ट स्टाल पर है और स्टाल का एकाउंट भी सेन्ट्रलाइज है।
- यही बात थी या और भी कुछ?
- तो क्या यह कुछ कम बात है। मुझसे झूठ तो बोला ही गया है ना....।
- तुम मुझसे अभी पूछ रहे थे ना कि मैंने अपनी पोजीशन काफी अच्छी कैसे बना रखी है। तो सुनो, मेरी बीबी शिल्पा डाइवोर्सी है और यह बात मुझसे भी छुपायी गयी थी।
- अरे...तो पता कैसे चला तुम्हें...?
- इन लोगों ने तो पूरी कोशिश की थी कि मुझ तक यह राज़ जाहिर न हो लेकिन शादी के शुरू शुरू में शिल्पा के मुंह से अक्सर संजीव नाम सुनाई दे जाता लेकिन वह तुरंत ही अपने आप को सुधार लेती। कई बार वह मुझे भी संजीव नाम से पुकारने लगती। हनीमून पर भी मैंने पाया था कि उसका बिहेवियर कम से कम कुंवारी कन्या वाला तो नहीं ही था। वापिस आ कर मैंने पता किया, पूरे खानदान में संजीव नाम का कोई भी मेम्बर नहीं रहा था। मेरा शक बढ़ा। मैंने शिल्पा को ही अपने विश्वास में लिया। जैसे वही मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी हो। उसे खूब प्यार दिया। फिर उसके बारे में बहुत कुछ जानने की इच्छा जाहिर की। वह झांसे में आ गयी। बातों बातों में उसके दोस्तों का जिक्र आने लगा तो उसमें संजीव का भी जिक्र आया। वह इसका क्लास फेलो था। पता चला, हमारी शादी से दो साल पहले उन दोनों की शादी हुई थी। यह शादी कुल चार महीने चली थी। हालांकि मैं अब इस धोखे के खिलाफ कुछ नहीं कर सकता था लेकिन मैंने इसी जानकारी को तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। शिल्पा भी समझ गयी कि मुझे सब पता चल चुका है। तब से मेरी कोई भी बात न तो टाली जाती है और न ही कोई मेरे साथ कोई उलटी सीधी हरकत ही करता है। बल्कि जब जरूरत होती है, मैं उसे ब्लैक मेल भी करता रहता हूं। कई बार तो मैंने उससे अच्छी खासी रकमें भी ऐंठी हैं।
- लेकिन इतनी बड़ी बात जान कर भी चुप रह जाना.... मेरा तो दिमाग खराब हो जाता..।
- दीप तुम एक बात अच्छी तरह से जान लो। मैंने भी अपने अनुभव से जानी है और आज यह सलाह तुम्हें भी दे रहा हूं। बेशक शिल्पा डाइवोर्सी थी और यह बात मुझसे छिपायी गयी लेकिन यहां लंदन में तुम्हें कोई लड़की कुंवारी मिल जायेगी, इस बात पर सपने में यकीन नहीं किया जा सकता। अपोज़िट सैक्स की फ्रैंडशिप, मीटिंग और आउटिंग, डेटिंग और इस दौरान सैक्स रिलेशंस यहां तेरह चौदह साल की उम्र तक शुरू हो चुके होते हैं। अगर नहीं होते तो लड़की या लड़का यही समझते हैं कि उन्हीं में कोई कमी होगी जिसकी वज़ह से कोई उन्हें डेटिंग के लिए बुला नहीं रहा है। कोई कमी रह गयी होगी वाला मामला ऐसा है जिससे हर लड़का और लड़की बचना चाहते हैं। दरअसल ये चीजें यहां इतनी तेजी से और इतनी सहजता से होती रहती हैं कि सत्तर फीसदी मामलों में नौबत एबार्शन तक जा पहुंचती है। अगर शादी हो भी जाये तो रिलेशंस पर से चांदी उतरते देर नहीं लगती। तब डाइवोर्स तो है ही सही। इसलिए जब मैंने देखा कि ऐसे भी और वैसे भी यहां कुंवारी लड़की तो मिलने वाली थी नहीं, यही सही। बाकी अदरवाइज शिल्पा इज ए वेरी गुड वाइफ। दूसरी तकलीफ़ें अगर मैं भुला भी दूं तो कम से कम इस फ्रंट पर मैं सुखी हूं।
हँसा है शिशिर - बल्कि कई बार अब मैं ही रिश्तों में बेईमानी कर जाता हूं और इधर-उधर मुंह मार लेता हूं। वैसे भी दूध का धुला तो मैं भी नहीं आया था। यहां भी वही सब जारी है।
- यार, तुम्हारी बातें तो मेरी आंखें खोल रही हैं। मैं ठहरा अपनी इंडियन मैंटेलिटी वाला आम आदमी। इतनी दूर तक तो सोच भी नहीं पाता। वैसे भी तुम्हारी बातों ने मुझे दोहरी दुविधा में डाल दिया है। इसका मतलब ..
- पूछो.. पूछो.. क्या पूछना चाहते हे.. शिशिर ने मेरी हिम्मत बढ़ाई है।
- तो क्या गौरी भी...?
- अब अगर तुममें सच सुनने की हिम्मत है और तुम सच सुनना ही चाहते हो और सच को झेलने की हिम्मत भी रखते हो तो सुनो, लेकिन यह बात सुनने से पहले एक वादा करना होगा कि इसके लिए तुम गौरी को कोई सज़ा नहीं दोगे और अपने मन पर कोई बोझ नहीं रखोगे।
- तुम कहो तो सही।
- ऐसे नहीं, सचमुच वादा करना पड़ेगा। वैसे भी तुम्हारे रिश्तों में दरार चल रही है। बल्कि मैं तो कहूंगा कि तुम भी अपनी लाइफ स्टाइल बदलो। हर समय देवदास की तरह कुढ़ने से न तो दुनिया बदलेगी और न कुछ हासिल ही होगा। उठो, घर से बाहर निकलो और ज़िंदगी को ढंग से जीओ। ये ज़िंदगी एक ही बार मिली है। इसे रो धो कर गंवाने के कुछ भी हासिल नहीं होने वाला।
- अरे भाई, अब बोलो भी सही।
- तो सुनो। गौरी को भी एबार्शन कराना पड़ा था। हमारी शादी के पहले ही साल। यानी तुम्हारी शादी से तीन साल पहले। उसे शिल्पा ही ले कर गयी थी। लेकिन मैंने कहा न.. ऐसे मामलों में शिल्पा या गौरी या विनिता या किसी भी ल़ड़की का कोई कुसूर नहीं होता। यहां की हवा ही ऐसी है कि आप चाह कर भी इन रिश्तों को रोक नहीं सकते। मां-बाप को भी तभी पता चलता है जब बात इतनी आगे बढ़ चुकी होती है। थोड़ा बहुत रोना-धोना मचता है और सब कुछ रफा दफा कर दिया जाता है। इंडिया से कोई भी लड़का ला कर तब उसकी शादी कर दी जाती है। अब यही देखो ना, कि इस हांडा फेमिली के ही लड़के भी तो यहां की लड़कियों के साथ यही सब कुछ कर रहे होंगे और उन्हें प्रैगनेंट कर रहे होंगे।
- लेकिन ..गौरी भी.. अचानक मुझे लगता है किसी ने मेरे मुंह पर एक तमाचा जड़ दिया है या बीच चौराहे पर नंगा कर दिया है.. ये सब मेरे साथ ही क्यूं होता है। मैं एकाएक चुप हो गया हूं।
- देखो दीप मैंने तुम्हें ये बात जानबूझ कर बतायी ताकि तुम इन इन्हीबीशंस से मुक्त हो कर अपने बारे में भी कुछ सोच सको। अब तुम ये भी तो देखो कि गौरी अब तुम्हारे प्रति पूरी तरह ईमानदार है बल्कि गौरी ने खुद ही शिल्पा को बताया था कि वह तुम्हें पा कर बहुत सुखी है। खुश है और शी इज रीयली प्राउड आफ यू। वह शिल्पा को बता रही थी कि वह एक रात भी तुम्हारे बिना नहीं सो सकती। तो भाई, अब तुम अपने इंडियन सैंटीमेंटस की पुड़िया बना कर दफन करो और अपनी भी ज़िंदगी को एंजाय करो। वैसे बुरा मन मानना, गौरी ने तो तुमसे शादी से पहले के रिलेशंस के बारे में कुछ नहीं पूछा होगा।
मैं झेंपी हँसी हँसता हूं - पूछ भी लेती तो उसे कुछ मिलने वाला नहीं था। गौरी से पहले तो मैंने किसी लड़की को चूमा तक नहीं था। बिस्तर पर मैं कितना अनाड़ी था, ये तो गौरी को पहली ही रात पता चल गया था।
- इसके बावजूद वह तुम्हारे बिना एक रात भी सोने के लिए तैयार नहीं है। इसका कोई तो मतलब होगा ही सही।
- तुम गौरी पर पूरा भरोसा रखो और उसके मन में इस बात के लिए कोई गिल्ट मत आने दो। अव्वल तो तुम बदला ले नहीं सकते। लेना भी चाहो तो अपना ही नुक्सान करोगे। खैर, अब तुम मन पर बोझ मत रखो। बेईमानी करने को जी करता है तो जरूर करो लेकिन फॉर गॉड सेक, अपनी इस रोनी सूरत से छुटकारा पाओ। रियली इट इज किलिंग यू। ओके!! टेक केयर ऑफ यूअरसेल्फ।
शिशिर बेशक इतनी आसानी से सारी बातें कह गया था लेकिन मेरे लिए ये सारी बातें इतनी सहजता से ले पाना इतना आसान नहीं है। शिशिर जिस मिट्टी का बना हुआ है, उसने शिल्पा की सच्चाई जानने के बावजूद उसे न केवल स्वीकार कर रखा है बल्कि अपने तरीके से उसे ब्लैकमेल भी कर रहा है और रिश्तों में बेईमानी भी कर रहा है। ये तीनों बातें ही मुझसे नहीं हो पा रहीं। न मैं गौरी के अतीत का सच पचा पा रहा हूं, न उसे ब्लैकमेल कर पाऊंगा और न ही इन सारी बातें के बावजूद पति-पत्नी के रिश्ते में बेईमानी ही कर पाऊंगा। हालांकि गौरी मेरी बगल में लेटी हुई है और मेरा हाथ उसके नंगे सीने पर है, वह रोज ऐसे ही सोती है, मेरे मन में उसके प्रति कोई भी कोमल भाव नहीं उपज रहा। आज भी उसकी सैक्स की बहुत इच्छा थी लेकिन मैंने मना कर दिया कि इस समय मूड नहीं है। बाद में रात को देखेंगे। अक्सर ऐसा भी हो जाता है। कई बार उसका भी मूड नहीं होने पर हम बाद के लिए तय करके सो जाते हैं और बाद में नींद खुलने पर इस रिचुअल को भी निभा लेते हैं। अब यह रिचुअल ही तो रहा है। न हमारे पास एक दूसरे के सुख दुख के लिए समय है न हम अपनी पर्सनल बातें ही एक दूसरे से शेयर कर पाते हैं। डिनर या लंच हम एक साथ छुट्टी के दिनों में ही ले पाते हैं और एक दूसरे के प्रति पूरा आकर्षण खो चुके हैं। कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है। मुझे पता है कि गौरी का मेरे प्रति आकर्षण का एक और एकमात्र कारण भरपूर सैक्स है और उसके बिना उसे नींद नही आती। मेरी मजबूरी है कि मुझे खाली पेट नींद नहीं आती। कई बार हमारा झगड़ा भी हो जाता है और हम दोनों ही किसी नतीजे पर पहुंचे बिना एक दूसरे से रूठ कर एक अलग-अलग सो जाते हैं लेकिन नींद दोनों को ही नहीं आती। गौरी को पता है मैं खाली पेट सो ही नहीं सकता और मुझे पता है जब तक उसे उसका टॉनिक न मिल जाये, वह करवटें बदलती रहेगी। कभी उठ कर बत्ती जलायेगी, कभी दूसरे कमरे में जायेगी, कोई किताब पढ़ने का नाटक करेगी या बार-बार मुझे सुनाते हुए तीखी बातें करेगी। उसके ये नाटक देर तक चलते रहेंगे। वैसे तो मैं भी नींद न आने के कारण करवटें ही बदलता रहूंगा। तब मान मनौव्वल का सिलसिला शुरू होगा और बेशक रोते धोते ही सही, कम्बख्त सैक्स भी ऐसी नाराज़गी भरी रातों में कुछ ज्यादा ही तबीयत से भोगा जाता है।
अब शिशिर की बातें लगातार मन को मथे जा रही हैं।
गौरी के इसी सीने पर किसी और का भी हाथ रहा होगा। गौरी किसी और से भी इसी तरह हर रोज सैक्स की, भरपूर सैक्स की मांग करती होगी और खूब एंजाय करने के बाद सोती होगी। आज यह मेरी बीवी बन कर मेरे साथ इस तरह अधनंगी लेटी हुई है, किसी और के साथ भी लेटती रही होगी। छी छी। मुझे ही ये सब क्यों झेलना पड़ता है!! मैं ही क्यों हर बार रिसीविंग एंड पर होता हूं। क्या मैं भी शिशिर की तरह गौरी से बेईमानी करना शुरू कर दूं या उसे ब्लैकमेल करना शुरू कर दूं। ये दोनों ही काम मुझसे नहीं होंगे और जिस काम के लिए शिशिर ने मुझे मना किया है, मैं वही करता रहूंगा। लगातार कुढ़ता रहूंगा और अपनी सेहत का फलूदा बनाता रहूंगा।
मेरा मन काम से उचटने लगा है। नतीजा यह हुआ है कि मैं घुटन महसूस करने लगा हूं। मेरी बेचैनी बढ़ने लगी है। मैं पहले भी अकेला था अब और अकेला होता चला गया हूं। इसी दौर में मैंने बाहर एकाध जगह काम की तलाश की है। काम बहुत हैं और मेरी लियाकत और ट्रेनिंग के अनुरूप हैं, लेकिन दिक्कतें हैं कि हांडा परिवार से कहा कैसे जाये और दूसरे वर्क परमिट को हासिल किया जाये।
कई बार इच्छा भी होती है कि मैं भी पैसे के इस समंदर में से अपनी मुट्ठियों में भर कर थोड़े बहुत पाउंड निकाल लूं लेकिन मन नहीं माना। यह कोई बहुत इज्जतदार सिलसिला तो नहीं ही है। हम यहां बेशक बेगारी की जिंदगी जी रहे हैं और हेरा फेरी जैसी टुच्ची हरकतों से इस जलालत के बदले कुछ ही तो भरपाई हो पायेगी। हालांकि कई बार गौरी मेरी बेचैनी और छटपटाहट को समझने की कोशिश करती है लेकिन या तो उसके सामने भी बंधन हैं या फिर जिस तरह की उसकी परवरिश है, वहां इन सब चीजों के लिए कोई जगह ही नहीं है। हम पांच जवान, पढ़े-लिखे लड़के उस घर के जवाईं हैं, बेशक घर जवाईं लेकिन हैं तो उस खानदान में सबसे पढ़े लिखे, लेकिन हमें कभी भी घर के सदस्य की तरह ट्रीटमेंट नहीं मिलता। मैं इस घर में कभी भी, एक दिन के लिए भी, न तो कभी सहज हो पाया हूं और न ही मेरी नाराजगी की, उदासी की वजह ही किसी ने पूछने की ज़रूरत ही समझी है।
दारजी और नंदू के पत्र आये हैं। आखिर गुड्डी की शादी कर ही दी गयी।लिखा है नंदू ने - टीचर्स की हड़ताल की वज़ह से मार्च में ही पता चल गया था कि बीए की परीक्षाएं अप्रैल में नहीं हो पायेंगी। गुड्डी ने दारजी से भी कहा था और मेरे ज़रिये भी दारजी कहलवाया था कि वह शादी से इनकार नहीं करती लेकिन कम से कम उसके इम्तिहान तो हो जाने दें लेकिन दारजी ने साफ साफ कह दिया - शादी की सारी तैयारियां हो चुकी हैं अब तारीख नहीं बदलेंगे।
वही हुआ और गुड्डी इतनी कोशिशों के बावजूद बीए की परीक्षा नहीं दे पायी। मुझे नहीं लगता कि गुड्डी की ससुराल वाले इतने उदार होंगे कि उसे इम्तिहान में बैठने दें। वैसे मैं खुद गुड्डी के घरवाले से मिल कर उसे समझाने की कोशिश करूंगा। शादी ठीक-ठाक हो गयी है। बेशक तेरी गैर हाजरी में मैंने गुड्डी के बड़े भाई का फर्ज निभाया है लेकिन तू होता तो और ही बात होती। तेरी सलाह के अनुसार मैंने सारे पेमेंट्स कर दिये थे और दारजी तक यह खबर दे दी थी कि जो कुछ भी खरीदना है या लेनदेन करना है, मुझे बता दें। मैं कर दूंगा। मैंने उन्हें पटा लिया था कि दीप ने गुड्डी की शादी के लिए जो ड्राफ्ट भेजा है, वह पाउंड में है और उसे सिर्फ इन्टरनेशनल खाते में ही जमा किया जा सकता है। दारजी झांसे में आ गये और सारे खर्चे मेरी मार्फत ही कराये। मैं इस तरीके से काफी फालतू खर्च कम करा सका। दारजी और गुड्डी के खत भी आगे पीछे पहुंच ही रहे होंगे।
नंदू के खत के साथ-साथ गुड्डी का तो नहीं पर दारजी का खत जरूर मिला है। इसमें भी गुड्डी की शादी की वही सारी बातें लिखी हैं जो नंदू ने लिखी हैं। अलबत्ता दारजी की निगाह में दूसरी चीजें ज्यादा अहमियत रखती हैं, वही उन्होंने लिखी हैं। मेरे भेजे गये पैसों से बिरादरी में उनकी नाक ऊंची होना, शादी धूमधाम से होना, फिर भी काफी कर्जा हो जाना वगैरह वगैरह। उन्होंने इस बात का एक बार भी जिक्र नहीं किया है कि गुड्डी उनकी ज़िद के कारण बीए होते होते रह गयी या वे इस बात की कोशिश ही करेंगे कि गुड्डी के इम्तहानों के लिए उसे मायके ही बुला लेंगे। सारे खत में दारजी ने अपने वही पुराने राग अलापे हैं। इस बात का भी कोई जिक्र नहीं है कि ये सब मेरे कारण ही हो पाया है और कि अगर मैं वहां होता तो कितना अच्छा होता।
दारजी का पत्र पढ़ कर मैंने एक तरफ रख दिया है।
अलबत्ता अगर गुड्डी का पत्र आ जाता तो तसल्ली रहती।
इन दिनों खासा परेशान चल रहा हू। न घर पर चैन मिलता है न स्टोर्स में। समझ में नहीं आता, मुझे ये क्या होता जा रहा है। अगर कोई बंबई का कोई पुराना परिचित मुझे देखे तो पहचान ही न पाये, मैं वही अनुशासित और कर्मठ गगनदीप हूं जो अपने सारे काम खुद करता था और कायदे से, सफाई से किया करता था। जब तक बंबई में था, मुझे ज़िंदगी में जरा सी भी अव्यवस्था पसंद नहीं थी और गंदगी से तो जैसे मुझे एलर्जी थी। अब यहां कितना आलसी हो गया हूं। चीजें टलती रहती हैं। अब न तो उतना चुस्त रहा हूं और न ही सफाई पसंद ही। अब तो शेव करने में भी आलस आने लगा है। कई बार एक-एक हफ्ता शेव भी नहीं करता। गौरी ने कई बार टोका तो दाढ़ी ही बढ़ानी शुरुकर दी है। मैं अब ऐसे सभी काम करता हूं जो गौरी को पसंद नहीं हैं। छुट्टी के दिन गौरी की बहुत इच्छा होती है, कहीं लम्बी ड्राइव पर चलें, किसी के घर चलें या किसी को बुला ही लें, मैं तीनों ही काम टालता हूं।
वैसे भी जब से आया हूं, गौरी पीछे पड़ी है, घर में दो गाड़ियां खड़ी हैं, कम से कम ड्राइविंग ही सीख लो। मैंने भी कसम खा रखी है कि ड्राइविंग तो नहीं ही सीखूंगा, भले ही पूरी ज़िंदगी पैदल ही चलना पड़े। अभी तक गौरी और मेरे बीच इस बात पर शीत युद्ध चल रहा है कि मै उससे पैसे मांगूंगा नहीं। वह देती नहीं और मैं मांगता नहीं। एक बार शिशिर ने कहा भी था कि तुम्हीं क्यों ये सारे त्याग करने पर तुले हो। क्यों नहीं अपनी ज़रूरत के पैसे गौरी से मांगते या गौरी के कहने पर पूल मनी से उठा लेते। आखिर कोई कब तक अपनी ज़रूरतें दबाये रह सकता है।
गौरी को जब पता चला तो उसने उंह करके मुंह बिचकाया था - अपनी गगनदीप जानें। मेरा पांच सात हज़ार पाउंड का जेब खर्च मुझे मिलना ही चाहिये।
जब शिशिर को यह बात पता चली तो वह हँसा था - यार, तुम्हें समझना बहुत मुश्किल है। भला ये सब तुम सब किस लिए कर कर रहे हो। अगर तुम एक्सपेरिमेंट कर रहे हो तो ठीक है। अगर तुम गौरी या हांडा ग्रुप को इम्प्रेस करना चाहते हो तो तुम बहुत बड़ी गलती कर रहे हो। वे तो ये मान लेंगे कि उन्हें कितना अच्छा दामाद मिल गया है जो ससुराल का एक पैसा भी लेना या खर्च करना हराम समझता है। उनके लिए इससे अच्छी और कौन सी बात हो सकती है। दूसरे वे ये भी मान कर चल सकते हैं कि वे कैसे कंगले को अपना दामाद बना कर लाये हैं जो अंडरग्राउंड के चालीस पैंस बचाने के लिए चालीस मिनट तक पैदल चलता है और ये नहीं देखता कि इन चालीस मिनटों को अपने कारोबार में लगा कर कितनी तरक्की कर सकता था। इससे तुम अपनी क्या इमेज बनाओगे, ज़रा यह भी देख लेना।
- मुझे किसी की भी परवाह नहीं है। मेरी तो आजकल ये हालत है कि मैं अपने बारे में कुछ नहीं सोच पा रहा हूं।
गुड्डी का खत आया है। सिर्फ तीन लाइन का। समझ नहीं पा रहा हं,झ जब उसके सामने खुल कर खत लिखने की आज़ादी नहीं है तो उसने ये पत्र भी क्यों लिखा! बेशक पत्र तीन ही पंक्तियों का है लेकिन मैं उन बीस पच्चीस शब्दों के पीछे छुपी पीड़ा को साफ साफ पढ़ पा रहा हूं।
लिखा है उसने
- वीरजी,
इस वैसाखी के दिन मेरी डोली विदा होने के साथ ही मेरी ज़िंदगी में कई नये रिश्ते जुड़ गये हैं। ये सारे रिश्ते ही अब मेरा वर्तमान और भविष्य होंगे। मुझे अफ़सोस है कि मैं आपको दिये कई वचन पूरे न कर सकी। मैं अपने घर, नये माहौल और नये रिश्तों की गहमागहमी में बहुत खुश हूं। मेरा दुर्भाग्य कि मैं आपको अपनी शादी में भी न बुला सकी। मेरे और उनके लिए भेजे गये गिफ्ट हमें मिल गये थे और हमें बहुत पसंद आये हैं।
मेरी तरफ से किसी भी किस्म की चिंता न करें।
आपकी छोटी बहन,
हरप्रीत कौर
(अब नये घर में यही मेरा नया नाम है।)
इस पत्र से तो यही लगता है कि गुड्डी ने खुद को हालात के सामने पूरी तरह सरंडर कर दिया है नहीं तो भला ऐसे कैसे हो सकता था कि वह इतना फार्मल और शुष्क खबर देने वाला ऐसा खत लिखती और अपना पता भी न लिखती।
मैं भी क्या करूं गुड्डी! एक बार फिर तुझसे भी माफी मांग लेता हूं कि मैं तेरे लिए इस जनम में कुछ भी नहीं कर पाया। वो जो तू अपने बड़े भाई की कद काठी, पर्सनैलिटी और लाइफ स्टाइल देख कर मुग्ध हो गयी थी और लगे हाथों मुझे अपना आदर्श बना लिया था, मैं तुझे कैसे बताऊं गुड्डी कि मैं एक बार फिर यहां अपनी लड़ाई हार चुका हूं। अब तो मेरी ख्दा की जीने की इच्छा ही मर गयी है। तुझे मैं बता नहीं सकता कि मैं यहां अपने दिन कैसे काट रहा हूं। तेरे पास फिर भी सगे लोग तो हैं, बेशक उनसे अपनापन न मिले, मैं तो कितना अकेला हूं यहां और खालीपन की ज़िंदगी किसी तरह जी रहा हूं। मैं ये बातें गुड्डी को लिख भी तो नहीं सकता।
कल रात गौरी से तीखी नोंक झोंक हो गयी थी। बात वही थी। न मैं पैसे मांगूंगा और न उसे इस बात का ख्याल आयेगा। हम दोनों को एक शादी में जाना था। गौरी ने मुझे सुबह बता दिया था कि शादी में जाना है। कोई अच्छा सा गिफ्ट ले कर रख लेना। मैं वहीं तुम्हारे पास आ जाऊंगी। सीधे चले चलेंगे। जब गौरी ने यह बात कही थी तो उसे चाहिये था कि मेरे स्वभाव और मेरी जेब के मिज़ाज को जानते हुए बता भी देती कि कितने तक का गिफ्ट खरीदना है और कहती - ये रहे पैसे। उसने दोनों ही काम नहीं किये थे। अब मुझे क्या पड़ी थी कि उससे पैसे मांगता कि गिफ्ट के लिए पैसे दे दो। जब हांडा ग्रुप घर खर्च के सारे पैसे तुम्हें ही देता है तो तुम्हीं संभालो ये सारे मामले। फिलहाल तो मैं ठनठन गोपाल हूं और मैं किसी को गिफ्ट देने के लिए गौरी से पैसे मांगने से रहा।
शाप बंद हो जाने के बाद गौरी जब शादी के रिसेप्शन में जाने के लिए आयी तो कार में मेरे बैठने के साथ ही उसने पूछा - तुम्हारे हाथ खाली हैं, गिफ्ट कहां है?
- नहीं ले पाया।
- क्यों, कहा तो था मैंने, उसने गाड़ी बीच में ही रोक दी है।
- बताया न, नहीं ले पाया, बस।
- लेकिन कोई वज़ह तो होगी, न लेने की। अब सारी शॉप्स बंद हो गयी हैं। क्या शादी में खाली हाथ जायेंगे। दीप, तुम भी कई बार .. वह झल्ला रही है।
- गौरी, इस तरह से नाराज़ होने की कोई ज़रूरत नहीं है। न चाहते हुए भी मेरा पारा गर्म होने लगा है। तुम्हें अच्छी तरह से पता है, मेरे पास पैसों का कोई इंतज़ाम नहीं है। और तुम्हें यह भी पता है कि न मैं घर से बिना तुम्हारे कहे पैसे उठाता हूं और न ही स्टोर्स में से अपने पर्सनल काम के लिए कैशियर से वाउचर ही बनवाता हूं। गिफ्ट के लिए कहते समय तुम्हें इस बात का ख्याल रखना चाहिये था।
- यू आर ए लिमिट ! गौरी ज़ोर से चीखी है। मैं तो तंग आ गयी हूं तुम्हारे इन कानूनों से। मैं ये नहीं करूंगा और मैं वो नहीं करूंगा। आखिर तुम्हें हर बार ये जतलाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है कि तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं। क्यों बार-बार तुम यही टॉपिक छेड़ देते हो। आखिर मैं भी क्या करूं? क्रेडिट कार्ड तुम्हें चाहिये नहीं, कैश तुम उठाओगे नहीं और मांगोगे भी नहीं, बस, ताने मारने का कोई मौका छोड़ोगे नहीं।
- देखो गौरी, इस तरह से शोर मचाने की ज़रूरत नहीं है। मैं फिर भी ख्दा को शांत रखे हुए हूं - जहां तक पैसों या किसी भी चीज को लेकर मेरे प्रिंसिपल्स की बात है, तुम कई बार मेरे मुंह से सुन चुकी हो कि मैं अपने आप कहीं से भी पैसे नहीं उठाउं€गा। काम होता है या नहीं होता, मेरी जिम्मेवारी नहीं है।
- मैं तुमसे कितनी बार कह चुकी हूं, डीयर कि धहमें जो पैसे दिये जाते हैं वे हम दोनों के लिए हैं और सांझे हैं। हम दोनों के कॉमन पूल में रखे रहते हैं। तुम उसमें से लेते क्यों नहीं हो। अब तो तुम नये नहीं हो। न हमारे रिश्ते इतने फार्मल हैं कि आपस में एक दूसरे से पूछना पड़े कि ये करना है और वो करना हैं। अब तुम्हारी ज़रा सी जिद की वज़ह से गिफ्ट रह गया न.. अब जा कर अपनी शॉप से कोई बुके ही ले जाना पड़ेगा।
- हमारे आपसी रिश्तों की बात रहने दो, बाकी, जहां तक पैसों की बात है तो मैं अभी भी अपनी बात पर टिका हुआ हूं कि मैं आज तक हांडा ग्रुप का सिस्टम समझ नहीं पाया कि मेरी हैसियत क्या है इस घर में !!
- अब फिर लगे कोसने तुम हांडा ग्रुप को। इसी ग्रुप की वजह से तुम...।
- डोंट क्रॉस यूअर लिमिट गौरी। मुझे भी गुस्सा आ गया है - पहली बात तो यह कि मैं वहां सड़क पर नहीं बैठा था कि मेरे पास यहां रहने खाने को नहीं है, कोई मुझे शरण दे दे और दूसरी बात कि बंबई में पहली ही मुलाकात में ही तुम्हारे सामने ही मुझसे दस तरह के झूठ बोले गये थे। मुझे पता होता कि यहां आ कर मुझे मुफ्त की सैल्समैनी ही करनी है तो मैं दस बार सोचता।
- दीप, तुम ये सारी बातें मुझसे क्यों कर रहे हो। आखिर क्या कमी है तुम्हें यहां..मजे से रह रहे हो और शानदार स्टोर्स के अकेले कर्त्ताधर्त्ता हो। अब तुम्हीं पैसे न लेना चाहो तो कोई क्या करे!!
- पैसे देने का कोई तरीका भी होता है। अब मैं रहूं यहां और पैसे इंडिया में अपने घर से मंगाऊं, ये तो नहीं हो सकता।
- तुम्हें किसने मना किया है पैसे लेने से। सारे दामाद कॉमन पूल से ले ही रहे हैं और क्रेडिट कार्ड से भी खूब खर्च करते रहते हैं। कैश भी उठाते रहते हैं। कभी कोई उनसे पूछता भी नहीं कि कहां खर्च किये और क्यों किये। किसी को खराब नहीं लगता। तुम्हारी समझ में ही यह बात नहीं आती। तुम्हें किसने मना किया है पैसे लेने से।
- मेरे अपने कुछ उसूल हैं।
- तो उन्हीं उसूलों का ड्रिंक बना कर दिन रात पीते रहो। सारा मूड ही चौपट कर दिया। गौरी झल्लाई है।
- कभी मेरे मूड की भी परवाह कर लिया करो। मैंने भी कह ही दिया है।
- तुमसे तो बात करना भी मुश्किल है।
कार में हुई इस नोंक-झोंक का असर पूरे रास्ते में और बाद में पार्टी में भी रहा है। शिशिर ने एक किनारे ले जा कर पूछा है - आज तो दोनों तरफ ही फुटबाल फूले हुए हैं। लगता है, काफी लम्बा मैच खेला गया है।
मैं भरा पड़ा हूं। हालांकि मुझे अफसोस भी हो रहा है कि मैं पहली बार गौरी से इतने ज़ोर से बोला और उससे ऐसी बातें कीं जो मुझे ही छोटा बनाती हैं। लेकिन मैं जानता हूं, मेरी ये झल्लाहट सिर्फ पैसों के लिए या गिफ्ट के लिए नहीं है। इसके पीछे मुझसे बोले गये सारे झूठ ही काम कर रहे हैं। जब से शिशिर ने मुझे गौरी के अबॉर्शन के बारे में बताया है, मैं तब से भरा पड़ा था। आज गुस्सा निकला भी तो कितनी मामूली बात पर। हालांकि मैं शिशिर के सामने मैं खुद को खोलना नहीं चाहता लेकिन उसके सामने कुछ भी छुपाना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो जाता है।
मैंने उसे पूरा किस्सा सुना दिया है। शिशिर ने फिर मुझे ही डांटा है
- तुम्हें मैं कितनी बार समझा चुका हूं कि अब तो तुम्हें यहां रहते इतना अरसा हो गया है। अब तक तो तुम्हें हांडा ग्रुप से अपने लायक एक आध लाख पाउंड अलग कर ही लेने चाहिये थे। इतना बड़ा स्टोर्स संभालते हो और तुम्हारी जेब में दस पेंस का सिक्का भी खोजे नहीं मिलेगा। मेरी मानो, इन बातों की वजह से गौरी से लड़ने झगड़ने की ज़रूरत नहीं है। थोड़ी डिप्लोमेसी भी सीखो। चोट कहीं और करनी चाहिये तुम्हें और एनर्जी यहां वेस्ट कर रहे हो। खैर, ये भी ठीक हुआ कि तुमने गौरी से ही सही, अपने मन की बात कही तो सही। अब देखें, ये बातें कितनी दूर तक जाती हैं।
इस बीच मेरी छटपटाहट बहुत बढ़ चुकी है। गौरी से अबोला चल रहा है। न वह अपने किये के लिए शर्मिंदा है, न मैं यह मानने के लिए तैयार हूं कि मैं गलत हूं। अब तो वह भी बिना सैक्स के सो रही है और मैं भी, जो भी मिलता है, खा लेता हूं। दोनों ही एक दूसरे से काफी दूर होते जा रहे हैं। मैं भी अब चाहने लगा हूं, ये सब यहीं खत्म हो जाये तो पिंड छूटे। किसी तरह वापिस लौटा जा सकता तो ठीक रहता। काम की तरफ ध्यान देना मैंने कब से छोड़ दिया है। भाड़ में जायें सब। मैं ही हांडा परिवार की दौलत बढ़ाने के लिए क्यों दिन रात खटता रहूं। मेरी सेहत भी आजकल खराब चल रही है। मैं बेशक इस बाबत किसी से बात नहीं करता और किसी से कोई शिकायत भी नहीं करता लेकिन बात अब हांडा परिवार के मुखिया तक पहुंच ही गयी है।
उन तक बात पहुंचाने के पीछे गौरी का नहीं, शिशिर का ही हाथ लगता है।
शिशिर ने शिल्पा से कहा होगा और शिल्पा ने अपने पापा तक बात पहुंचायी होगी कि ज़रा ज़रा सी बात पर गौरी दीप से लड़ पड़ती है और बार बार उस बेचारे का अपमान करती रहती है। उसी ने पापा से कहा होगा कि आप लोग बीच में पड़ कर मामले को सुलझायें वरना अच्छा खासा दामाद अपना दिमाग खराब कर बैठेगा। शायद उसने उन्हें पैसे न लेने के बारे में मेरी ज़िद के बारे में भी कहा हो। बताया होगा - अगर यही हाल रहा तो आप लोग एक अच्छे भले आदमी को इस तरह से मार डालेंगे। इसमें नुक्सान आपका और गौरी का ही है। पता नहीं, उन्हें ये बात क्लिक कर गयी होगी, इसीलिए गौरी के शॉप पर जाने के बाद पापा मुझसे मिलने आये हैं।
यह इन दो ढाई साल में पहली बार हो रहा है कि मैं और मेरे ससुर इस तरह अकेले और इन्फार्मली बात कर रहे हैं। उन्होंने मेरी सेहत के बारे में पूछा है। मेरी दिनचर्या के बारे में पूछा है और मेरी उदासी का कारण जानना चाहा है। पहले तो मैं टालता हूं। उनसे आंखें मिलाने से भी बचता हूं लेकिन जब उन्होंने बहुत ज़ोर दिया है तो मैं फट पड़ा हूं। इतने अरसे से मैं घुट रहा था। कितना कुछ है जो मैं किसी से कहना चाह रहा था लेकिन आज तक कह नहीं पाया हूं और न ही किसी ने मेरे कंधे पर हाथ ही रखा है। पहले तो वे चुपचाप मेरी बातें ध्यान से सुनते रहे। मैंने उन्हें विस्तार से सारी बातें बतायी हैं। बंबई में हुई पहली मुलाकात से लेकर आज तक कि किस तरह मेरे साथ एक के बाद एक झूठ बोले गये और एक तरह से झांसा दे कर मुझे यहां लाया गया है। मैंने उन्हें गौरी की पढ़ाई के बारे में बोले गये झूठ के बारे में भी बताया लेकिन उसके एबार्शन वाली बात गोल कर गया। यह एक पिता के साथ ज्यादती होती। जब उन्होंने देखा कि मैं जो कुछ कहना चाहता था, कह चुका हूं तो वे धीरे से बोले हैं
- तुम्हारे साथ बहुत जुल्म हुआ है बेटे। मुझे नहीं मालूम था कि तुम अपने सीने पर इतने दिनों से इतना बोझ लिये लिये घूम रहे हो। तुम अगर मेरे पास पहले ही आ जाते तो यहां तक नौबत ही न आती। इस तरह तो तुम्हारी सेहत खराब हो जायेगी। तुम चिंता मत करो। हमें एक मौका और दो। तुम्हें अब किसी भी बात की शिकायत नहीं रहेगी। गौरी ने भी कभी ज़िक्र नहीं किया और न ही चमन वगैरह ने ही बताया कि तुम्हारी क्या बातें हुई थीं। बल्कि हम तो शॉप में और हांडा ग्रुप में तुम्हारी दिलचस्पी देख कर बहुत खुश थे। आज तक किसी भी दामाद ने हमारे ऐस्टैब्लिशमेंट में इतनी दिलचस्पी नहीं ली थी। बेहतर यही होगा कि तुम अब इस हादसे को भूल जाओ और हमें एक मौका और दो। मैं गौरी को समझा दूंगा। तुम्हारे लिए एक अच्छी खबर है कि तुम्हारी शॉप के प्रॉफिट भी इस दौरान बहुत बढ़े हैं। सब तुम्हारी मेहनत का नतीजा है। तुम्हें इसका ईनाम मिलना ही चाहिये। एक काम करते हैं, गौरी और तुम्हारे लिए पूरे योरोप की ट्रिप एरेंज करते हैं। थोड़ा घूम फिर आओ। थकान भी दूर हो जायेगी और तुम दोनों में पैचअप भी हो जायेगा। जाओ, एंजाय करो और एक महीने से पहले अपनी शक्ल हमें मत दिखाना। जाने का सारा इंंतजाम हो जायेगा। गौरी भी खुश हो जायेगी कि तुम्हारे बहाने उसे भी घूमने फिरने का मौका मिल रहा है। जाते जाते वे मेरे हाथ में फिर एक बड़ा सा लिफाफा दे गये हैं - अपने लिए शॉपिंग कर लेना। उन्होंने मेरा कंधा दबाया है - देखो इनकार मत करना। मुझे खराब लगेगा। और सुनो, ये पैसे गौरी को दिये जाने वाले पैसों से अलग हैं इसलिए इनके बारे में गौरी को बताने की जरूरत नहीं है।
मैं समझ रहा हूं कि ये रिश्वत है मुझे शांत करने की, लेकिन अब वे खुद पैच अप का प्रस्ताव ले कर आये हैं तो एक दम इनकार करना भी ठीक नहीं है।
मुझे हनीमून के बाद आज पहली बार एक साथ इतने पैसे दिये जा रहे हैं।
जब शिशिर को इस बारे में मैंने बताया तो वह खुशी से उछल पड़ा - अब आया न उं€ट पहाड़ के नीचे। ये सब मेरी ही शरारत का नतीजा है कि तुमने इतना बड़ा हाथ मारा है। अब बीच बीच में इस तरह के नाटक करते रहोगे तो सुखी रहोगे।
और इस तरह मेरे सामने ये चुग्गा डाल दिया गया है। हालांकि गौरी ने सौरी कह दिया है लेकिन मलाल की बारीक सी रेखा भी उसके चेहरे पर नहीं है। जिस तरह की बातें उसने की थीं, उससे मेरी मानसिक अशांति इतनी जल्दी दूर नहीं होगी। वैसे भी जब भी मेरे सामने पड़ती है, मुझे उसके अतीत का भूत सताने लगता है और मैं बेचैन होने लगता हूं। उसके प्रति मेरे स्नेह की बेलें सूखती चली जा रही हैं।
लेकिन मेरी ये खुशी भी कितनी अल्पजीवी है। हांडा ग्रुप से पैसे मिलने के अगले दिन ही नंदू का पत्र आ गया है। पत्र वाकई परेशानी में डालने वाला है। उसने लिखा है कि गुड्डी की ससुराल में उसे दहेज के लिए परेशान किया जा रहा है। दारजी उसके पास बहुत परेशानी में गये थे और उसे बता रहे थे कि गुड्डी की ससुराल वालों ने न तो उसे इम्तिहान देने दिये और न ही वे उसे मायके ही आने देते हैं। ऊपर से दहेज के लिए सता रहे हैं कि तुम्हारे लंदन वाले भाई का क्या फायदा हुआ। एक लाख की मांग रखी है उन्होंने।
नंदू ने लिखा है - ये पैसे तो मैं भी दे दूं लेकिन संकट ये है कि उनका मुंह एक बार खुल गया तो वे अक्सर मांग करते रहेंगे और न मिलने पर गुड्डी को सतायेंगे। बोलो, क्या करूं। हो सके तो फोन कर देना।
हमारे दारजी ने तो जैसे पूरे परिवार को ही तबाह करने की कसम खा रखी है। मुझे बेघर करके भी उन्हें चैन नहीं था, अब उस मासूम की जान ले कर ही छोड़ेंगे। उन्हें लाख कहा कि गुड्डी की शादी के मामले में जल्दीबाजी मत करो लेकिन दारजी अगर किसी की बात मान लें तो फिर बात ही क्या !! अब पैसे दे भी दें तो इस बात की क्या गारंटी कि वे लोग अब गुड्डी को सताना बंद कर देंगे। अब तो उनकी निगाह लंदन वाले भाई पर है। इतनी आसानी से थोड़े ही छोड़ेंगे। नंदू से फोन पर बात करके देखता हूं।
नंदू ने तसल्ली दी है कि वैसे घबराने की कोई जरूरत नहीं है। दारजी ने कुछ ज्यादा ही बढ़ा- चढ़ा कर बात कही थी। वैसे वे लोग गुड्डृाú पर दबाव बनाये हुए हैं कि कुछ तो लाओ, लेकिन दारजी के पास कुछ हो तो दें। मैं उन्हें बता दूंगा कि तुझसे बात हो गयी है। तू घबरा मत। मैं सब संभाल लूंगा।
नंदू ने बेशक तसल्ली दे दी है लेकिन मैं ही जानता हूं कि इस वक्त गुड्डी बेचारी पर क्या गुज़र रही होगी। उसने तो मुझे पत्र लिखना भी बंद कर दिया है ताकि उसकी तकलीफों की तत्ती हवा भी मुझ तक न पहुंचे। इस बारे में शिशिर से बात करके देखनी चाहिये, वही कोई राह सुझायेगा। मेरा तो दिमाग काम नहीं कर रहा है।
शिशिर ने पूरी बात सुनी है। उसका कहना है कि वैसे तो यहां से इस तरह के नाज़ुक संबंधों का निर्वाह कर पाना बहुत मुश्किल है, क्योंकि यहां से तुम कुछ भी करो, तुम्हारे दारजी सारे कामों पर पानी फेरने के लिए वहां बैठे हुए हैं। दूसरे, तुम्हें फीडबैक आधा अधूरा और इतनी देर से मिलेगा कि तब तक वहां कोई और डेवलेपमेंट हो चुका होगा और तुम्हें पता भी नहीं चल पायेगा। फिर भी, यह बहन की ससुराल का मामला है। ज़रा संभल कर काम करना होगा और फिर गुड्डी का भी देखना होगा। उसे भी इस तरह से उन जंगलियों के बीच अकेला भी नहीं छोड़ा जा सकता। उसकी सुख शांति में तुम्हारा भी योगदान होगा ही। वैसे, थोड़ा इंतज़ार कर लेने में कोई हर्ज़ नहीं है।
उसी की सलाह पर मैं नंदू को फिर फोन करता हूं और बताता हूं कि मैं पचास हजार रुपये के बराबर पाउंड भिजवा रहा हूं। कैश कराके दारजी तक पहुंचा देना। बस दारजी ये देख लें कि वे लोग ये पैसे देख कर बार बार मांग न करने लगें और कहीं इसके लिए गुड्डी को सतायें नहीं। नंदू को यह भी बता दिया है मैंने कि मैं महीने भर की ट्रिप पर रहूंगा। वैसे मैं उससे कांटैक्ट करता रहूंगा फिर भी कोई अर्जेंट मैसेज हो तो इस नम्बर पर शिशिर को दिया जा सकता है। मुझ तक बात पहुंच जायेगी।
नंदू को बेशक मैंने तसल्ली दे दी है लेकिन मेरे ही मन को तसल्ली नहीं है, फिर भी ड्राफ्ट भेज दिया है। शायद ये पैसे ही गुड्डी की ज़िंदगी में कुछ रौनक ला पायें।
हमारी ट्रिप अच्छी रही है लेकिन मेरे दिमाग में लगातार गुड्डी ही छायी रही है। इस ट्रिप में वैसे तो हम दोनों की ही लगातार कोशिश रही कि पैच अप हो जाये और हमारे संबंधों में जो खटास आ गयी है उसे कम किया जा सके। मैं अपनी ओर से इस ट्रिप को दुखद नहीं बनाना चाहता। मैं भरसक नार्मल बना हुआ हूं। दिमाग में हर तरह की परेशानियां होते हुए भी उसके सुख और आराम का पूरा ख्याल रख रहा हूं।
गौरी ने फिर जिद की है कि मैं भी क्रेडिट कार्ड बनवा लूं या उसी के कार्ड में ऐड ऑन ले लूं लेकिन इस बार भी मैंने मना कर दिया है।
हम लौट आये हैं। हम दोनों ने हालांकि आपसी संबंध नार्मल बनाये रखे हैं लेकिन मुझे नहीं लगता, जो दरार हम दोनों के बीच एक बार आ चुकी है, उसे कोई भी सीमेंट ठीक से जोड़ पायेगा।
लौटने के बाद भी स्थितियों में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। सिर्फ बोलचाल हो रही है और हम जाहिर तौर पर किसी को भनक नहीं लगने देते कि हममें डिफरेंसेस चल रहे हैं। जो पैसे मुझे दिये गये थे, उसमें से जो बचे हैं वे मेरे ही पास हैं। वे भी इतने हैं कि मेरे जैसे कंजूस आदमी के लिए तो महीनों काफी
रहेंगे।
मेरी गैरहाजरी में सिर्फ अलका दीदी और देवेद्र जी का ही पत्र आया हुआ है। एक तरह से तसल्ली भी हुई है कि घर से कोई पत्र नहीं आया है, इसलिए मैं मान कर चल रहा हूं कि वहां सब ठीक ही होगा। फिर भी शिशिर से पूछ लेता हूं कि नंदू का कोई फोन वगैरह तो नहीं आया था। वह इनकार करता है - नहीं, कोई संदेश नहीं आया तो सब ठीक ही होना चाहिये। वैसे तुम भी एक बार नंदू को फोन करके हाल चाल ले ही लो।
मैं भी यही सोच कर नंदू से ही बात करता हूं। वह जो कुछ बताता है वह मुझे परेशान करने के लिए काफी है। नंदू ने जब ये बताया कि उसे तो आज ही मेरा भेजा एक हज़ार पाउंड का दूसरा ड्राफ्ट भी मिल गया है तो मैं हैरान हो गया हूं। ज़रूर दूसरा ड्राफ्ट शिशिर ने ही भेजा होगा जबकि मुझे मना कर रहा था कि नंदू का कोई फोन नहीं आया।
मैं नंदू से ही पूछता हूं - तूने शिशिर को फोन किया था क्या ?
बताता है वह - हां, किया तो था लेकिन पैसों के लाए नहीं बल्कि यह बताने के लिए कि तुझ तक यह संदेश पहुंचा दे कि ड्राफ्ट मिल गया है और कि गुड्डी की परेशानी में कोई कमी नहीं आयी है। बेशक वह ससुराल की कोई शिकायत नहीं करती और उनके संदेशे हम तक पहुंचाती भी नहीं, लेकिन कुल मिला कर वह तकलीफ में है।
बता रहा है कि दारजी आये थे और रो रहे थे कि किन भुक्खे लोगों के घर अपनी लड़की दे दी है। बेचारी को घर भी नहीं आने देते। वही बता रहे थे किसी तरह पचास हज़ार का इंतज़ाम हो जाता तो उनका मुंह बंद कर देते। बहुत सोचने विचारने के बाद मैंने तेरे भेजे ड्राफ्ट में से दारजी को पचास हज़ार रुपये दिये थे ताकि उनका मुंह बंद कर सकें। मैंने तो खाली शिशिर को यही कहा था कि तुझे खबर कर दे कि पैसों को ले कर परेशान होने की जरूरत नहीं है।
पूछता हूं मैं - और पैसे भेजूं क्या?
- नहीं ज़रूरत नहीं है। ये दो हज़ार पाउंड भी तो एक लाख रुपये से ऊपर ही होते हैं। तू फिकर मत कर.. मैं हूं न....।
मैं दोहरी चिंता में पड़ गया हूं। उधर गुड्डी की परेशानी और इधर अपने आप आगे बढ़ कर शिशिर ने इतनी बड़ी रकम भेज दी है। पचास हजार की रकम कोई मामूली रकम नहीं होती और जब मैंने पूछा तो साफ मुकर गया कि कोई फोन ही नहीं आया था। उससे इन पैसों के बारे में कुछ कह कर उसे छोटा बना सकता हूं और न ही चुप ही रह सकता हूं। उसने इधर उधर से इंतज़ाम किया होगा। शायद अपने घर भेजे जाने वाले पैसों में ही कुछ कमी कटौती की हो उसने। उधर नंदू अपने आप मेरी जगह मेरे घर की सारी जिम्मेवारी उठा रहा है और बिना एक भी शब्द बोले दारजी को पचास हजार थमा आता है कि उनकी लड़की को ससुराल में कोई परेशानी न हो। ये वही दारजी है जिन्होंने गुड्डी की सिफारिश लाने पर उससे कह दिया था कि ये हमारा घरेलू मामला है, और मैं यहां अपने घर से सात समंदर पार सारी जिम्मेवारियों से मुक्त बैठा हुआ हूं। उनके लिए न कुछ कर पा रहा हूं और न उनके सुख दुख में शामिल हो पा रहा हूं।
दारजी, नंदू, गुड्डी और अलका दीदी को लम्बे लम्बे पत्र लिखता हूं। मन पर इतना बोझ है कि जीने ही नहीं दे रहा है। गौरी अपनी दुनिया में मस्त है और मै अपने संसार में। द बिजी कार्नर ठीक ठाक चल रहा है और अब उसमें ऐसा कुछ भी नहीं बचा जिसे चैलेंज की तरह लिया जा सके। सब कुछ रूटीन हो चला है। अब तो दिल करता है, यहां से भी भाग जाऊं। कहीं भी दूर चला जाऊं। जहां कुछ करने के लिए नया हो, कुछ चुनौतीपूर्ण हो और जिसे करने में मज़ा आये। अलबत्ता कम्प्यूटर से ही नाता बना हुआ है और मैं कुछ न कुछ नया करता रहता हूं।
शिशिर के लिए तो पैकेज बना कर दिये ही हैं, सुशांत की बुक शॉप्स के लिए भी प्रोग्रामिंग करके कुछ नये पैकेज बना दिये हैं जिससे उसका काम आसान हो गया है। अब वह भी शिशिर की तरह मेरे काफी नज़दीक आ गया है और हम सुख दुख की बातें करने लगे हैं।
नंदू का फोन आया है। उसने जो खबर सुनाई है उससे मैं एकदम अवाक् रह गया हूं। नंदू ने यह क्या बता दिया है मुझे! गुड्डी की मौत की खबर सुनने से पहले मैं मर क्यों नहीं गया! मैंने उससे दो तीन बार पूछा - क्या वह गुड्डी की ही बात कर रहा है ना ? तो नंदू ने जवाब दिया है - हां, दीप, मैं अभागा नंदू तुझे गुड्डी की ही मौत की खबर दे रहा हूं। उन लुटेरों ने हमारी प्यारी बहन को हमसे छीन लिया है। उसे दहेज का दानव खा गया और हम कुछ भी नहीं कर सके। यह समाचार देते समय नंदू ज़ार ज़ार रो रहा था।
मैं हक्का बक्का बैठा रह गया हूं। यह क्या हो गया मेरी बेबे !! मेरे दारजी !! आपने तो उसके लिए रजेया कजेया घर देखा था और ये क्या हो गया। इतना दहेज देने के बाद भी स्टोव उसी के लिए क्यों फटा ओ मेरे रब्बा !! लिखा भी तो था गुड्डी ने कि अगर पैसों का इंतजाम न हो पाया तो स्टोव तो उसी के लिए फटेगा। दारजी ने तो ठोक बजा कर दामाद खोजा था, वह कसाई कैसे निकल गया।
गुड्डी के बारे में सोच सोच कर दिमाग की नसें फटने लगी हैं। नंदू बताते समय हिचकियां ले ले कर रो रहा था - मुझे माफ कर देना दीप, मैं तेरी बहन को उन राक्षसों के हाथ से नहीं बचा पाया मेरे दोस्त, बेशक गुड्डी की ससुराल वालों को पुलिस ने पकड़ लिया है लेकिन उनकी गिरफ्तारी से गुड्डी तो वापिस नहीं आ जायेगी। तू धीरज धर।
नंदू मेरे यार, मैं तुझे तो माफ कर दूं, लेकिन मुझे कौन माफ करेगा। तू मेरी जगह मेरे घर की सारी जिम्मेवारियां निभाता रहा और मैं सिर्फ अपने स्वार्थ की खातिर यहां परदेस मैं बैठा अपने घर के ही सपने देखता रहा। न मैं अपना घर बना पाया, न गुड्डी का घर बसता देख पाया। अब तो वही नहीं रही, मैं माफी भी किससे मांगूं। वह कितना कहती थी कि मैं आगे पढ़ना चाहती हूं, कुछ बन के दिखाना चाहती हूं, और मिला क्या उस बेचारी को!! आखिर दारजी की जिद ने उस मासूम की जान ले ही ली। मेरा जाना तो नहीं हो पायेगा। जा कर होगा भी क्या। मैं किस की सुनूंगा और किसको जवाब दूंगा। दोनों ही काम मुझसे नहीं हो पायेंगे।
दारजी, बेबे, नंदू और अलका दीदी को भी लम्बे पत्र लिखता हूं ताकि सीने पर जमी यह शिला कुछ तो खिसके। गौरी भी इस खबर से भौंचकी रह गयी है। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा है कि मात्र एक दो लाख रुपये के दहेज के लिए किसी जीते जाने इंसान को यूं जलाया भी जा सकता है।
बताता हूं उसे - गुड्डी बेचारी दहेज की आग में जलने वाली अकेली लड़की नहीं है। वहां तो घर-घर में यह आग सुलगती रहती है और हर दिन वहां दहेज कम लाने वाली या न लाने वाली मासूम लड़कियों को यूं ही जलाया जाता है।
पूछ रही है वह - इंडिया में हवस और लालच इतने ज्यादा बढ़ गये हैं और आपका कानून कुछ नहीं करता?
- अब कैसा कानून और किसका कानून, मैं उसे भरे मन से बताता हूं - जहां देश का राजकाज चलाने वाले आइएएस अधिकारी का दहेज के मार्केट में सबसे ज्यादा रेट चलता हो, वहां का कानून कितना लचर होगा, तुम कल्पना कर सकती हो। बेशक गौरी ने गुड्डी की सिर्फ तस्वीर ही देखी है फिर भी वह डिस्टर्ब हो गयी है। दुख की इस घड़ी में वह मेरा पूरा साथ दे रही है।
शिशिर भी इस हादसे से सन्न रह गया है। वह बराबर मेरे साथ ही बना हुआ है। उसी ने सबसे पहले हमारी सस्जाराल में खबर दी थी। मेरे ससुर और दूसरे कई लोग तुरंत अफसोस करने आये थे। हांडा साहब ने पूछा भी था - अगर जाना चाहो इंडिया, तो इंतज़ाम कर देते हैं, लेकिन मैंने ही मना कर दिया था। अब जा कर भी क्या करूंगा।
गौरी और शिशिर के लगातार मेरे साथ बने रहने और मेरा हौसला बढ़ाये रखने के बावजूद मैं खुद को एकदम अकेला महसूस कर रहा हूं। अब तो स्टोर्स में जाने की भी इच्छा नहीं होती। थोड़ी देर के लिए चला जाता हूं। सारा दिन गुड्डी के लिए मेरा दिल रोता रहता है। कभी किसी के लिए इतना अफसोस नहीं मनाया। अपने दुख किसी के सामने आने नहीं दिये लेकिन गुड्डी का यूं चले जाना मुझे बुरी तरह तोड़ गया है, बार बार उसका आंखें बड़ी बड़ी करके मेरी बात सुनना, वीरजी ये और वीरजी वो कहना, बार बार याद आते हैं। कितने कम समय के लिए मिली थी और कितना कुछ दे गयी थी मुझे और कितनी जल्दी मुझे छोड़ कर चली भी गयी।
जब से गुड्डी का यह दुखद समाचार मिला है, मैं महसूस कर रहा हूं कि मेरा सिर फिर से दर्द करने लगा है। ये दर्द भी वैसा ही है जैसा बचपन में हुआ करता था। मैं इसे वहम मान कर भूल जाना चाहता हूं लेकिन सिर दर्द है कि दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। पता नहीं, उस दर्द के अंश बाकी कैसे रह गये हैं। हालांकि इलाज तो तब भी नहीं हुआ था लेकिन दर्द तो ठीक हो ही गया था। गौरी को मैं बता भी नहीं सकता, मेरा क्या छिन गया है।
देस बिराना अध्याय 5
अस्पताल में दस दिन काटने के बाद आज ही घर वापिस आया हूं। इनमें से तीन दिन तो आइसीयू में ही रहा। बाद में पचास तरह के टेस्ट चलते रहे और बीसियों तरह की रिपोर्टें तैयार की गयीं, निष्कर्ष निकाले गये लेकिन नतीजा ज़ीरो रहा। डॉक्टर मेरे सिर दर्द का कारण तलाशने में असमर्थ रहे और मैं जिस दर्द के साथ आधी रात को अस्पताल ले जाया गया था उसी दर्द के साथ दस दिन बाद लौट आया हूं। गौरी बता रही थी, एक रात मैं सिर दर्द से बुरी तरह से छटपटाने लगा था। वह मेरी हालत देख कर एकदम घबरा गयी थी। उसने तुरंत डॉक्टर को फोन किया था। उसने मुझे कभी एक दिन के लिए भी बीमार पड़ते नहीं देखा था और उसे मेरी इस या किसी भी बीमारी के बारे में कुछ भी पता नहीं था इसलिए वह डॉक्टर को इस बारे में कुछ भी नहीं बता पायी थी। डॉक्टर ने बेशक दर्द दूर करने का इंजेक्शन दे दिया था लेकिन जब वह कुछ भी डायग्नोस नहीं कर पाया तो उसने अस्पताल ले जाने की सलाह दी थी। गौरी ने तब अपने घर पापा वगैरह को फोन किया और मेरी हालत के बारे में बताया था। सभी लपके हुए आये थे और इस तरह मैं अस्पताल में पहुंचा दिया गया था।
अब बिस्तर पर लेटे हुए और इस समय भी दर्द से कराहते हुए मुझे हॅसी आ रही है - क्या पता चला होगा डॉक्टरों को मेरे दर्द के बारे में। कोई शारीरिक वज़ह हो भी तो वे पता लगा सकते। रिपोर्टें इस बारे में बिलकुल मौन हैं।
इस बीच कई बार पूछ चुकी है गौरी - अचानक ये तुम्हें क्या हो गया था दीप ? क्या पहले भी कभी.. .. ..?
- नहीं गौरी, ऐसा तो कभी नहीं हुआ था। तुमने तो देखा ही है कि मुझे कभी जुकाम भी नहीं होता। मैं उसे आश्वस्त करता हूं। बचपन के बारे में मैं थोड़ा-सा झूठ बोल गया हूं। वैसे भी वह मेरे केसों के मामले और दर्द के संबंध और अब गुड्डी की मौत के लिंक तो क्या ही जोड़ पायेगी। कुछ बताऊं भी तो पूरी बात बतानी पड़ेगी और वह दस तरह के सवाल पूछेगी। यही सवाल उसके घर के सभी लोग अलग-अलग तरीके ये पूछ चुके हैं। मेरा जवाब सबके लिए वही रहा है।
शिशिर भी पूछ रहा था। मैं क्या जवाब देता। मुझे पता होता तो क्या ससुराल के इतने अहसान लेता कि इतना महंगा इलाज कराता!! वैसे दवाएं अभी भी खा रहा हूं और डॉक्टर के बताये अनुसार कम्पलीट रेस्ट भी कर ही रहा हूं, लेकिन सारा दिन बिस्तर पर लेटे-लेटे रह-रह के गुड्डी की यादें परेशान करने लगती हैं। आखिर उस मासूम का कुसूर क्या था। जो दहेज हमने गुड्डी को देना था या दिया था वो हमारी जिम्मेवारी थी। हम पूरी कर ही रहे थे। ज़िंदगी भर करते ही रहते।
सारा दिन बिस्तर पर लेटा रहता हूं और ऐसे ही उलटे-सीधे ख्याल आते रहते हैं। अपनी याद में यह पहली बार हो रहा है कि मैं बीमार होने की वज़ह से इतने दिनों से बिस्तर पर लेटा हूं और कोई काम नहीं कर रहा हूं। बीच-बीच में सबके फोन भी आते रहते हैं। गौरी दिन में कई बार फोन कर लेती है।
लेटे लेटे संगीत सुनता रहता हूं। इधर शास्त्राúय संगीत की तरफ रुझान शुरू हुआ है। गौरी ने एक नया डिस्कमैन दिया है और शिशिर इंडियन क्लासिकल संगीत की कई सीडी दे गया है। शिल्पा भी कुछ किताबें छोड़ गयी थी। और भी सब कुछ न कुछ दे गये हैं ताकि मैं लेटे लेटे बोर न होऊं।
लगभग छः महीने हो गये हैं सिरदर्द को झेलते हुए। इस बीच ज्यादातर अरसा आराम ही करता रहा या तरह तरह के टैस्ट ही कराता रहा। नतीजा तो क्या ही निकलना था। वैसे सिरदर्द के साथ मैं अब स्टोर्स में पूरा पूरा दिन भी बिताने लगा हूं लेकिन मैं ही जानता हूं कि मैं कितनी तकलीफ से गुज़र रहा हूं। बचपन में भी तो ऐसे ही दर्द होता था और मैं किसी से भी कुछ नहीं कह पाता था। सारा सारा दिन दर्द से छटपटाता रहता था जैसे कोई सिर में तेज छुरियां चला रहा हो। तब तो के स कटवा कर दर्द से मुक्ति पा ली थी लेकिन अब तो केस भी नहीं हैं। समझ में नहीं आता, अब इससे कैसे मुक्ति मिलेगी। यहां के अंग्रेज़ डॉक्टरों को मैंने जानबूझ कर बचपन के सिर दर्द और उसके दूर होने के उपाय के बारे में नहीं बताया है। मैं जानता हूं ये अंग्रेज तो मेरे इस अनोखे दर्द और उसके और भी अनोखे इलाज के बारे में सुन कर तो मेरा मज़ाक उड़ायेंगे ही, गौरी और उसके घर वालों की निगाह में भी मैं दकियानूसी और अंधविश्वासी ही कहलाऊंगा। मैं ऐसे ही भला। बेचारी बेबे भी नहीं है जो मेरे सिर में गर्म तेल चुपड़ दे और अपनी हथेलियों से मेरे सिर में थपकियां दे कर सुला ही दे।
अभी सो ही रहा हूं कि फोन की घंटी से नींद उचटी है। घड़ी देखता हूं, अभी सुबह के छः ही बजे हैं। गौरी बाथरूम में है। मुझे ही उठाना पड़ेगा।
- हैलो,
- नमस्ते दीप जी, सो रहे थे क्या?
एकदम परिचित सी आवाज, फिर भी लोकेट नहीं कर पा रहा हूं, कौन हैं जो इतनी बेतकल्लुफी से बात कर रही हैं।
- नमस्ते, मैं ठीक हूं लेकिन माफ कीजिये मैं पहचान नहीं पा रहा हूं आपकी आवाज....
- कोशिश कीजिये!
- पहले हमारी फोन पर बात हुई है क्या?
- हुई तो नहीं है।
- मुलाकात हुई है क्या?
- दो तीन बार तो हुई ही है।
- आप ही बता दीजिये, मैं पहचान नहीं पर रहा हूं।
- मैं मालविका हूं। मालविका ओबेराय।
- ओ हो मालविका जी। नमस्ते. आयम सौरी, मैं सचमुच ही पहचान नहीं पा रहा था, गौरी अकसर आपका ज़िक्र करती रहती है। कई बार सोचा भी कि आपकी तरफ आयें। इतने अरसे बाद भी उसका दिपदिपाता सौन्दर्य मेरी आंंखों के आगे झिलमिलाने लगा है।
- लेकिन मैं शर्त लगा कर कह सकती हूं कि आपको हमारी कभी याद नहीं आयी होगी। शक्ल तो मेरी क्या ही याद होगी।
- नहीं, ऐसी बात तो नहीं है। दरअसल मुझे आपकी शक्ल बहुत अच्छी तरह से याद है, बस उस तरफ आना ही नहीं हो पाया। फिलहाल कहिये कैसे याद किया..कैसे कहूं कि जो उन्हें एक बार देख ले, ज़िदंगी भर नहीं भूल सकता।
- आपका सिरदर्द कैसा है अब?
- अरे, आपको तो सारी खबरें मिलती रहती हैं।
- कम से कम आपकी खबर तो है मुझे, मैं आ नहीं पायी लेकिन मुझे पता चला, आप खासे परेशान हैं आजकल इस दर्द की वज़ह से।
- हां हूं तो सही, समझ में नहीं आ रहा, क्या हो गया है मुझे।
- गौरी से इतना भी न हुआ कि तुम्हें मेरे पास ही ले आती। अगर आपको योगाभ्यास में विश्वास हो तो आप हमारे यहां क्यों नहीं आते एक बार। वैसे तो आपको आराम आ जाना चाहिये, अगर न भी आये तो भी कुछ ऐसी यौगिक क्रियाएं आपको बता दूंगी कि बेहतर महसूस करेंगे। योगाभ्यास के अलावा एक्यूप्रेशर है, नेचूरोपैथी है और दूसरी भारतीय पद्धतियां हैं। जिसे भी आजमाना चाहें।
- ज़रूर आउंगा मैं। वैसे भी पचास तरह के टेस्ट कराके और ये दवाएं खा खा कर दुखी हो गया हूं।
- अच्छा एक काम कीजिये, मैं गौरी से खुद ही बात कर लेती हूं, आपको इस संडे लेती आयेगी। गौरी से बात करायेंगे क्या?
- गौरी अभी बाथरूम में है और अभी थोड़ी देर पहले ही गयी है। उसे कम से कम आधा घंटा और लगेगा।
- खैर उसे बता दीजिये कि मैंने फोन किया था। चलो इस बहाने आप से भी बात हो गयी। आपका इंतज़ार रहेगा।
- जरूर आयेंगे। गौरी के साथ ही आऊंगा।
- ओके , थैंक्स।
मालविका से मुलाकात अब याद आ रही है। गौरी के साथ ही गया था उनके सेन्टर में। नार्थ वेम्बले की तरफ़ था कहीं। गौरी के साथ एक - आध बार ही वहां जा पाया था।
जब हम वहां पहली बार गये थे तब मालविका एक लूज़ सा ट्रैक सूट पहने अपने स्टूडेंट्स को लैसन दे रही थी।
उन्हें देखते ही मेरी आंखें चुंधियां गयी थीं। मैं ज़िंदगी में पहली बार इतना सारा सौंदर्य एक साथ देख रहा था। भरी भरी आंखें, लम्बी लहराती केशराशि। मैं संकोचवश उनकी तरफ देख भी नहीं पा रहा था। वे बेहद खूबसूरत थीं और उन्हें कहीं भी, कभी भी इग्नोर नहीं किया जा सकता था। मैं हैरान भी हुआ था कि रिसेप्शन में मैं उनकी तरफ ध्यान कैसे नहीं दे पाया था।
गौरी ने उबारा था मुझे - कहां खो गये दीप, मालविका कब से आपको हैलो कर रही है। मैं झेंप गया था।
हमने मालविका से एपाइंटमेंट ले लिया है और आज उनसे मिलने जा रहे हैं। जब मैंने गौरी को मालविका का मैसेज दिया तो वह अफसोस करने लगी थी - मैं भी कैसी पागल हूं। तुम इतने दिन से इस सिरदर्द से परेशान हो और हमने हर तरह का इलाज करके भी देख लिया लेकिन मुझे एक बार भी नहीं सूझा कि मालविका के पास ही चले चलते। आइ कैन बैट, अब तक तुम ठीक भी हो चुके होते। ऐनी आउ, अभी भी देर नहीं हुई है।
मालविका जी हमारा ही इंतज़ार कर रही हैं। उन्होंने उठ कर हम दोनों का स्वागत किया है। दोनों से गर्मजोशी से हाथ मिलाया है और गौरी से नाराज़गी जतलायी है - ये क्या है गौरी, आज कितने दिनों बाद दर्शन दे रही हो। तुमसे इतना भी न हुआ कि दीप जी को एक बार मेरे पास भी ला कर दिखला देती। ऐसा कौन-सा रोग है जिसका इलाज योगाभ्यास न से किया जा सकता हो। अगर मुझे शिशिर जी ने न बताया होता तो मुझे तो कभी पता ही न चलता। वे मेरी तरफ देख कर मुस्कुरायी हैं।
गौरी ने हार मान ली है - क्या बताऊं मालविका, इनकी ये हालत देख-देख कर मैं परेशान थी कि हम ढंग से इनके मामूली सिरदर्द का इलाज भी नहीं करवा पा रहे हैं। लेकिन बिलीव मी, मुझे एक बार भी नहीं सूझा कि इन्हें तुम्हारे पास ही ले आती।
- कैसे लाती, जब कि तुम खुद ही साल भर से इस तरफ नहीं आयी हो। अपनी चर्बी का हाल देख रही हो, कैसे लेयर पर लेयर चढ़ी जा रही है। खैर, आइये दीप जी, हमारी ये नोक झोंक तो चलती ही रहेगी। पहले आप ही को एनरोल कर लिया जाये। वैसे तो आपको शादी के तुंरत बाद ये यहां आना शुरू करदेना चाहिये था।
मैं देख रहा हूं मालविका जी अभी भी उतनी ही स्मार्ट और सुंदर नज़र आ रही हैं। स्पॉटलैस ब्यूटी। मानना पड़ेगा कि योगाभ्यास का सबसे ज्यादा फायदा उन्हीं को हुआ है।
उन्होंने मुझे एक फार्म दिया है भरने के लिए - जब तक कॉफी आये, आप यह फार्म भर दीजिये। हमारे सभी क्लायंट्स के लिए ज़रूरी होता है यह फार्म।
वे हँसी हैं - इससे हम कई उलटे-सीधे सवाल पूछने से बच जाते हैं। इस बीच मैं आपकी सारी मेडिकल रिपोर्ट्स देख लेती हूं। मैं फार्म भर रहा हूं। व्यक्तिगत बायोडाटा के अलावा इसमें बीमारियों, एलर्जी, ईटिंग हैबिट्स वगैरह के बारे में ढेर सारे सवाल हैं। जिन सवालों के जवाब हां या ना में देने हैं, वे तो मैंने आसानी से भर दिये हैं लेकिन बीमारी के कॉलम में मैं सिर दर्द लिख कर ठहर गया हूं। इसके अगले ही कालम में बीमारी की हिस्ट्री पूछी गयी है। समझ में नहीं आ रहा, यहां पर क्या लिखूं मैं ? क्या बचपन वाले सिरदर्द का जिक्र करूं यहां पर।
मैंने इस कालम में लिख दिया है - बचपन में बहुत दर्द होता था लेकिन केस कटाने के बाद बिलकुल ठीक हो गया था। नीचे एक रिमार्क में यह भी लिख दिया है कि इस बारे में बाकी डिटेल्स आमने सामने बात दूंगा। फार्म पूरा भर कर मैंने उसे मालविका जी को थमा दिया है। इस बीच कॉफी आ गयी है। कॉफी पीते-पीते वे मेरा भरा फार्म सरसरी निगाह से देख रही हैं।
कॉफी खत्म करके उन्होंने गौरी से कहा है - अब तुम्हारी ड्यूटी खत्म गौरी। तुम जाओ। अब बाकी काम मेरा है। इन्हें यहां देर लगेगी। मैं बाद में तुमसे फोन पर बात कर लूंगी। चाहो तो थोड़ी देर कुछ योगासन ही कर लो। गौरी ने इनकार कर दिया है और जाते-जाते हँसते हुए कह गयी है - अपना ख्याल रखना दीप, मालविका इज वेरी स्ट्रिक्ट योगा टीचर। एक बार इनके हत्थे चढ़ गये तो ज़िंदगी भर के लिए किसी मुश्किल आसन में तुम्हारी गर्दन फंसा देगी।
मालविका जी ने नहले पर दहला मारा है - शायद इसीलिए तुम महीनों तक अपना चेहरा नहीं दिखातीं।
गौरी के जाने के बाद मालविका जी इत्मिनान के साथ मेरे सामने बैठ गयी हैं। मैं उनकी आंखों का तेज सहन करने में अपने आपको असमर्थ पा रहा हूं। मैं बहुत कम ऐसी लड़कियों के सम्पर्क में आया हूं जो सीधे आंखें मिला कर बात करें।
वे मेरे सामने तन कर बैठी है।
पूछ रही हैं मुझसे - देखिये दीप जी, नैचुरोपैथी वगैरह में इलाज करने का हमारा तरीका थोड़ा अलग होता है। जब तक हमें रोग के कारण, उसकी मीयाद, उसके लक्षण वगैरह के बारे में पूरी जानकारी न मिल जाये, हम इलाज नहीं कर सकते। इसके अलावा रोगी का टेम्परामेंट, उसकी मनस्थिति, रोग और उसके इलाज के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में भी जानना हमारे लिए और रोगी के लिए भी फायदेमंद होता है। तो जनाब, अब मामला यह बनता है कि आपने फार्म में बचपन में होने वाले दर्द का जिक्र किया है और ये केस कटाने वाला मामला। आप उसके बारे में तो बतायेंगे ही, आप यह समझ लीजिये कि आप मालविका के सामने अपने-आपको पूरी तरह खोल कर रख देंगे। यह आप ही के हित में होगा। आप निश्ंिचत रहें। आप का कहा गया एक-एक शब्द सिर्फ मुझ तक रहेगा और उसे मैं सिर्फ आपकी बेहतरी के लिए ही इस्तेमाल करूंगी।
मैं मंत्रमुग्ध सा उनके चेहरे पर आंखें गड़ाये उनका कहा गया एक एक शब्द सुन रहा हूं। वे धाराप्रवाह बोले जा रही हैं। उनके बोलने में भी सामने वाले को मंत्र मुग्ध करने का ताकत है। मैं हैरान हूं, यहां लंदन में भी इतनी अच्छी हिन्दी बोलने वाले लोग रहते हैं।
वे कह रही हैं - दीप जी, अब आप बिलकुल नःसंकोच अपने बारे में जितना कुछ अभी बताना चाहें, बतायें। अगर अभी मन न हो, पहली ही मुलाकात में मेरे सामने इस तरह से खुल कर बात करने का, तो कल, या किसी और दिन के लिए रख लेते है। यहां इस माहौल में बात न करना चाहें तो बाहर चलते हैं। लेकिन एक बात आप जान लें, आप के भले के लिए ही कह रही हूं आप मुझ से कुछ भी छुपायेंगे नहीं । तो ठीक है ?
- ठीक है।
मैं समझ रहा हूं, इन अनुभवी और अपनत्व से भरी आंखों के आगे न तो कुछ छुपाया जा सकेगा और न ही झूठ ही बोला जा सकेगा।
- गुड। उन्होंने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया है।
- समझ नहीं पा रहा हूं मालविका जी कि मैं अपनी बात किस तरह से शुरू करूं। दरअसल....
- ठहरिये, हम दूसरे कमरे में चलते हैं। वहीं आराम से बैठ कर बात करेंगे। ¸ú ›¸ ž¸ú ›¸ì ˆÅ
जूस, बीयर वगैरह हैं वहां फ्रिज में। किसी किस्म के तकल्लुफ की ज़रूरत नहीं है।
हम दूसरे कमरे में आ गये हैं और आरामदायक सोफों पर बैठ गये हैं। उन्होंने मुझे बोलने के लिए इशारा किया है।
मैं धीरे-धीरे बोलना शुरुकरता हूं - इस दर्द की भी बहुत लम्बी कहानी है मालविका जी। समझ में नहीं आ रहा, कहां से शुरू करूं। दरअसल आजतक मैंने किसी को भी अपने बारे में सारे सच नहीं बताये हैं। किसी को एक सच बताया तो किसी दूसरे को उसी सच का दूसरा सिक्का दिखाया। मैं हमेशा दूसरों की नज़रों में बेचारा बनने से बचता रहा। मुझे कोई तरस खाती निगाहों से देखे, मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं है लेकिन आपने मुझे जिस संकट में डाल दिया है, पूरी बात बताये बिना नहीं चलेगा। दरअसल मोना सिख हूं। सारी समस्या की जड़ ही मेरा सिख होना है। आपको यह जान कर ताज्जुब होगा कि मैंने सिर्फ चौदह साल की उम्र में घर छोड़ दिया था और आइआइटी, कानपुर से एमटैक और फिर अमेरिका से पीएच डी तक पढ़ाई मैंने खुद के, अपने बलबूते पर की है। वैसे घर मैंने दो बार छोड़ा है। चौदह साल की उम्र में भी और अट्ठाइस साल की उम्र में भी। पहली बार घर छोड़ने की कहानी भी बहुत अजीब है। विश्वास ही नहीं करेंगी आप कि इतनी-सी बात को लेकर भी घर छोड़ना पड़ सकता है। हालांकि घर पर मेरे पिताजी, मां और दो छोटे भाई हैं और एक छोटी बहन थी। दुनिया की सबसे खूबसूरत और समझदार बहन गुड्डी जो कुछ अरसा पहले दहेज की बलि चढ़ गयी। इस सदमे से मैं अब तक उबर नहीं सका हूं। मुझे लगता है, दोबारा सिरदर्द उखड़ने की वज़ह भी यही सदमा है। अपनी बहन के लिए सब कुछ करने के बाद भी मैं उसके लिए खुशियां न खरीद सका। लाखों रुपये के दहेज के बाद भी उसकी ससुराल वालों की नीयत नहीं भरी थी और उन्होंने उस मासूम की जान ले ली। उस बेचारी की कोई तस्वीर भी नहीं है मेरे पास। बहुत ब्राइट लड़की थी और बेहद खूबसूरत कविताएं लिखती थी। गुड्डी के जिक्र से मेरी आंखों में पानी आ गया है। गला रुंध गया है और मैं आगे कुछ बोल ही नहीं पा रहा हूं। मालविका जी ने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया है।
मुझे थोड़ा वक्त लगता है अपने आपको संभालने में। मालविका जी की तरफ़ देखता हूं। वे आंखों ही आंखों में मेरा हौसला बढ़ाती हैं। मैं बात आगे बढ़ाता हूं -हां, तो मैं अपने बचपन की बातें बता रहा था। मेरे पिता जी कारपेंटर थे और घर पर रह कर ही काम करते थे। हम लोगों का एक बहुत पुराना, बड़ा सा घर था। हमारे पिता जी बहुत गुस्से वाले आदमी थे और गुस्सा आने पर किसी को भी नहीं बख्शते थे। आज भी अगर मैं गिनूं तो पहली बार घर छोड़ने तक, यानी तेरह-चौदह साल की उम्र तक मैं जितनी मार उनसे खा चुका था उसके बीसियों निशान मैं आपको अभी भी गिन कर दिखा सकता हूं। तन पर भी और मन पर भी। गुस्से में वे अपनी जगह पर बैठे बैठे, जो भी औजार हाथ में हो, वही दे मारते थे। उनके मारने की वजहें बहुत ही मामूली होती थीं। बेशक आखरी बार भी मैं घर से पिट कर ही रोता हुआ निकला था और उसके बाद पूरे चौदह बरस बाद ही घर लौटा था। एक बार फिर घर छोड़ने के लिए। उसकी कहानी अलग है।
यह कहते हुए मेरा गला भर आया है और आंखें फिर डबडबा आयी हैं। कुछ रुक कर मैंने आगे कहना शुरुकिया है :
- बचपन में मेरे केश बहुत लम्बे, भारी और चमकीले थे। सबकी निगाह में ये केश जितने शानदार थे, मेरे लिए उतनी ही मुसीबत का कारण बने। बचपन में मेरा सिर बहुत दुखता था। हर वक्त जैसे सिर में हथौड़े बजते रहते। एक पल के लिए भी चैन न मिलता। मैं सारा-सारा दिन इसी सिर दर्द की वजह से रोता। न पढ़ पाता, न खेल ही पाता। दिल करता, सिर को दीवार से, फर्श से तब तक टकराता रहूं, जब तक इसके दो टुकड़े न हो जायें। मेरे दारजी मुझे डॉक्टर के पास ले जाते, बेबे सिर पर ढेर सारा गरम तेल चुपड़ कर सिर की मालिश करती। थोड़ी देर के लिए आराम आ जाता लेकिन फिर वही सिर दर्द। स्कूल के सारे मास्टर वगैरह आस पास के मौहल्लों में ही रहते थे और दारजी के पास कुछ न कुछ बनवाने के लिए आते रहते थे, इसलिए किसी तरह ठेलठाल कर पास तो कर दिया जाता, लेकिन पढ़ाई मेरे पल्ले खाक भी नहीं पड़ती थी। ध्यान ही नहीं दे पाता था। डाक्टरों, वैद्यों, हकीमों के आधे अधूरे इलाज चलते, लेकिन आराम न आता। मुझे अपनी बाल बुद्धि से इसका एक ही इलाज समझ में आता कि ये केश ही इस सारे सिरदर्द की वजह हैं। जाने क्यों यह बात मेरे मन में घर कर गयी थी कि जिस दिन मैं ये केश कटवा लूंगा, मेरा सिर दर्द अपने आप ठीक हो जायेगा। मैंने एकाध बार दबी जबान में बेबे से इसका जिक्र किया भी था लेकिन बेबे ने दुत्कार दिया था - मरणे जोग्या, फिर यह बात मुंह से निकाली तो तेरी जुबान खींच लूंगी।
शायद रब्ब को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन मैंने भी तय कर लिया, जुबान जाती है तो जाये, लेकिन ये सिरदर्द और बरदाश्त नहीं होता। ये केश ही सिरदर्द की जड़ हैं। इनसे छुटकारा पाना ही होगा। और मैं घर से बहुत दूर एक मेले में गया और वहां अपने केश कटवा आया। केश कटवाने के लिए भी मुझे खासा अच्छा खासा नाटक करना पड़ा। पहले तो कोई नाई ही किसी सिख बच्चे के केश काटने को तैयार न हो। मैं अलग-अलग नाइयों के पास गया, लेकिन ये मेरी बात किसी ने न मानी। तब मैंने एक झूठ बोला कि मैं मोना ही हूं और मेरे मां-बाप ने मानता मान रखी थी कि तेरह-चौदह साल तक तेरे बाल नहीं कटवायेंगे और तब तू बिना बताये ही बाल कटवा कर आना और मैंने नाई के आगे इक्कीस रुपये रख दिये थे।
नाई बुदबुदाया था - बड़े अजीब हैं तेरी बिरादरी वाले। वह नाई बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ था। उस दिन मैंने पहली बार घर में चोरी की थी। मैंने बेबे की गुल्लक से बीस रुपये निकाले थे। एक रात पहले से ही मैं तय कर चुका था कि ये काम कर ही डालना है। चाहे जो हो जाये। एकाध बार दारजी के गुस्से का ख्याल आया था लेकिन उनके गुस्से की तुलना में मेरी अपनी ज़िंदगी और पढ़ाई ज्यादा ज़रूरी थे।
वैसे हम लोग नियमित रूप से गुरूद्वारे जाते थे और वहां हमें पांच ककारों के महत्व के बारे में बताया ही जाता था। फिलहाल ये सारी चीजें दिमाग में बहुत पीछे जा चुकी थीं।
जब मैं अपना गंजा सिर लेकर घर में घुसा था तो जैसे घर में तूफान आ गया था। मेरे घर वालों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह घुन्ना-सा, हर बात पर मार खाने वाला तेरह-चौदह साल का मरियल सा छोकरा सिक्खी धर्म के खिलाफ जा कर केश भी कटवा सकता है। मेरी बेबे को तो जैसे दौरा पड़ गया था और वह पछाड़ें खाने लगी थी। सारा मौहल्ला हमारे अंागन में जमा हो गया था। मेरी जम कर कुटम्मस हुई थी। लानतें दी गयी थीं। मेरे दारजी ने उस दिन मुझे इतना पीटा था कि पिटते-पिटते मैं फैसला कर चुका था कि अब इस घर में नहीं रहना है। वैसे अगर मैं यह फैसला न भी करता तो भी मुझसे घर छूटना ही था। दारजी ने उसी समय खड़े-खड़े मुझे घर से निकाल दिया था। गुस्से में उन्होंने मेरे दो-चार जोड़ी फटे-पुराने कपड़े और मेरा स्कूल का बस्ता भी उठा कर बाहर फेंक दिये थे। मैं अपनी ये पूंजी उठाये दो-तीन घंटे तक अपने मोहल्ले के बाहर तालाब के किनारे भूखा-प्यासा बैठा बिसूरता रहा था और मेरे सारे यार-दोस्त, मेरे दोनों छोटे भाई मेरे आस-पास घेरा बनाये खड़े थे। उनकी निगाह में मैं अब एक अजूबा था जिसके सिर से सींग गायब हो गये थे।
उस दिन चौबीस सितम्बर थी। दिन था श्जाक्रवार। मेरी ज़िंदगी का सबसे काला और तकलीफ़देह दिन। इस चौबीस सितम्बर ने ज़िंदगी भर मेरा पीछा नहीं छोड़ा। हर साल यह तारीख मुझे रुलाती रही, मुझे याद दिलाती रही कि पूरी दुनिया में मैं बिलकुल अकेला हूं। बेशक यतीम या बेचारा नहीं हूं लेकिन मेरी हालत उससे बेहतर भी नहीं है। अपने मां-बाप के होते हुए दूसरों के रहमो-करम पर पलने वाले को आप और क्या कहेंगे? खैर, तो उस दिन दोपहर तक किसी ने भी मेरी खाने की सुध नहीं ली थी तो मैंने भी तय कर लिया था, मैं इसी गंजे सिर से वह सब कर के दिखाऊंगा जो अब तक मेरे खानदान में किसी ने न किया हो। मेरे आंसू अचानक ही सूख गये थे और मैं फैसला कर चुका था।
मैंने अपना सामान समेटा था और उठ कर चल दिया था। मेरे आस पास घेरा बना कर खड़े सभी लड़कों में हड़बड़ी मच गयी थी। इन लड़कों में मेरे अपने भाई भी थे। सब के सब मेरे पीछे पीछे चल दिये थे कि मैं घर से भाग कर कहां जाता हूं। मैं काफी देर तक अलग अलग गलियों के चक्कर काटता रहा था ताकि वे सब थक हार कर वापिस लौट जायें। इस चक्कर में शाम हो गयी थी तब जा कर लड़कों ने मुझे अकेला छोड़ा था। अकेले होते ही मैं सीधे अपने स्कूल के हैड मास्टरजी के घर गया था और रोते-रोते उन्हें सारी बात बतायी थी। उनके पास जाने की वजह यह थी कि वे भी मोने सिख थे। हालांकि उनका पूरा खानदान सिखों का ही था और उनके घर वाले, ससुराल वाले कट्टर सिख थे। वे मेरे दारजी के गुस्से से वाकिफ थे और मेरी सिरदर्द की तकलीफ से भी। मैंने उनके आगे सिर नवा दिया था कि मुझे दारजी ने घर से निकाल दिया है और मैं अब आपके आसरे ही पढ़ना चाहता हूं। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा था। वे भले आदमी थे। मेरा दृढ़ निश्चय देख कर दिलासा दी थी कि पुत्तर तूं चिंता न कर। मैं तेरी पढ़ाई-लिखाई का पूरा इंतजाम कर दूंगा। अच्छा होता तेरे घर वाले तेरी तकलीफ को समझते और तेरा इलाज कराते। खैर जो ऊपर वाले को मंजूर। उन्होंने तब मेरे नहाने-धोने का इंतज़ाम किया था और मुझे खाना खिलाया था। उस रात मैं उन्हीं के घर सोया था। शाम के वक्त वे हमारे मोहल्ले की तरफ एक चक्कर काटने गये थे कि पता चले, कहीं मेरे दारजी वगैरह मुझे खोज तो नहीं रहे हैं। उन्होंने सोचा था कि अगर वे लोग वाकई मेरे लिए परेशान होंगे तो वे उन लोगों को समझायेंगे और मुझे घर लौटने के लिए मनायेंगे। शायद तब मैं भी मान जाता, लेकिन लौट कर उन्होंने जो कुछ बताया था, उससे मेरा घर न लौटने का फैसला मज़बूत ही हुआ था। गली में सन्नाटा था और किसी भी तरह की कोई भी सुगबुगाहट नहीं थी। हमारा दरवाजा बंद था। हो सकता है भीतर मेरी बेबे और छोटे भाई वगैरह रोना-धोना मचा रहे हों, लेकिन बाहर से कुछ भी पता नहीं चल पाया था। रात के वक्त वे एक चक्कर कोतवाली की तरफ भी लगा आये थे - दारजी ने मेरे गुम होने की रिपोर्ट नहीं लिखवायी थी। अगले दिन सुबह - सुबह ही वे एक बार फिर हमारे मोहल्ले की तरफ चक्कर लगा आये थे, लेकिन वहां कोई भी मेरी गैर-मौजूदगी को महसूस नहीं कर रहा था। वहां सब कुछ सामान्य चल रहा था। तब वे एक बार फिर कोतवाली भी हो आये थे कि वहां कोई किसी बच्चे के गुम होने की रिपोर्ट तो नहीं लिखवा गया है। वहां ऐसी कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करायी गयी थी।
उन्होंने तब मेरे भविष्य का फैसला कर लिया था। पास ही के शहर सहारनपुर में रहने वाले अपने ससुर के नाम एक चिट्ठी दी थी और मुझे उसी दिन बस में बिठा दिया था। इस तरह मैं उनसे दूर होते हुए भी उनकी निगरानी में रह सकता था और जरूरत पड़ने पर वापिस भी बुलवाया जा सकता था। उनके ससुर वहां सबसे बड़े गुरुद्वारे की प्रबंधक कमेटी के कर्त्ताधर्ता थे और उनके तीन-चार स्कूल चलते थे। ससुर साहब ने अपने दामाद की चिट्ठी पढ़ते ही मेरे रहने खाने का इंतजाम कर दिया था। मेरी किस्मत खराब थी कि उनके ससुर उतने ही काइयां आदमी थे। वे चाहते तो मेरी सारी समस्याएं हल कर सकते थे। वहीं गुरूद्वारे में मेरे रहने और खाने का इंतजाम कर सकते थे, मेरी फीस माफ करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। उन्होंने मुझे अपने ही घर में रख लिया था। बेशक स्कूल में मेरा नाम लिखवा दिया था लेकिन न तो मैं नियमित रूप से स्कूल जा पाता था और न ही पढ़ ही पाता था। हैड मास्टर साहब ने तो अपने ससुर के पास मुझे पढ़ाने के हिसाब से भेजा था लेकिन यहां मेरी हैसियत घरेलू नौकर की हो गयी थी। मैं दिन भर खटता, घर भर के उलटे सीधे काम करता और रात को बाबाजी के पैर दबाता। खाने के नाम पर यही तसल्ली थी कि दोनें वक्त खाना गुरूद्वारे के लंगर से आता था सो पेट किसी तरह भर ही जाता था। असली तकलीफ पढ़ाई की थी जिसका नाम सुनते ही बाबा जी दस तरह के बहाने बनाते। मैं अब सचमुच पछताने लगा था कि मैं बेकार ही घर से भाग कर आया। वहीं दारजी की मार खाते पड़ा रहता, लेकिन फिर ख्याल आता, यहां कोई कम से कम मारता तो नहीं। इसके अलावा मैंने यह भी देखा मैं इस तरह घर का नौकर ही बना रहा तो अब तक का पढ़ा-लिखा सब भूल जाऊंगा और यहां तो ज़िदगी भर मुफ्त का घरेलू नौकर ही बन कर रह जाउं€गा तो मैंने तय किया, यहां भी नहीं रहना है। जब अपना घर छोड़ दिया, उस घर से मोह नहीं पाला तो बाबा जी के पराये घर से कैसा मोह। मैंने वहां से भी चुपचाप भाग जाने का फैसला किया। मैंने सोचा कि अगर यहां सिंह सभा गुरूद्वारा और स्कूल एक साथ चलाती है तो दूसरे शहरों में भी चलाती ही होगी।
तो एक रात मैं वहां से भी भाग निकला। बाबाजी के यहां से भागा तो किसी तरह मेहनत-मजदूरी करते हुए, कुलीगिरी करते हुए, ट्रकों में लिफ्ट लेते हुए आखिर मणिकर्ण जा पहुंचा। इस लम्बी, थकान भरी और तरह तरह के ट्टे मीठे अनुभवों से भरी मेरी ज़िंदगी की सबसे लम्बी अकेली यात्रा में मुझे सत्रह दिन लगे थे। वहां पहुंचते ही पहला झूठ बोला कि हमारे गांव में आयी बाढ़ में परिवार के सब लोग बह गये हैं। अब दुनिया में बिलकुल अकेला हूं और आगे पढ़ना चाहता हूं। यह नाटक करते समय बहुत रोया। यह जगह मुझे पसंद आयी थी और आगे कई साल तक साल की यानी जिस कक्षा तक का स्कूल हो, वहीं से पढ़ाई करने का फैसला मैं मन-ही-मन कर चुका था। इसलिए ये नाटक करना पड़ा।
वहां मुझे अपना लिया गया था। मेरे रहने-खाने की स्थायी व्यवस्था कर दी गयी थी और एक मामूली-सा टेस्ट लेकर मुझे वहां के स्कूल में सातवीं में दाखिला दे दिया गया था। मेरी ज़िंदगी की गाड़ी अब एक बार फिर से पटरी पर आ गयी थी। अब मैं सिर पर हर समय पटका बांधे रहता। एक बार फिर मैं अपनी छूटी हुई पढ़ाई में जुट गया था। स्कूल से फुर्सत मिलते ही सारा वक्त गुरूद्वारे में ही बिताता। बहुत बड़ा गुरूद्वारा था। वहां रोजाना बसों और कारों में भर भर कर तीर्थ यात्री आते और खूब चहल-पहल होती। वे एक आध दिन ठहरते और लौट जाते। मुझे अगली व्यवस्था तक यहीं रहना था और इसके लिए ज़रूरी था कि सब का दिल जीत कर रहूं। कई बार बसों या कारों में आने वाले यात्रियों का सामान उठवा कर रखवा देता तो थोड़े बहुत पैसे मिल जाते। सब लोग मेरे व्यवहार से खुश रहते। वहां मेरी तरह और भी कई लड़के थे लेकिन उनमें से कुछ वाकई गरीब घरों से आये थे या सचमुच यतीम थे। मैं अच्छे भले घर का, मां बाप के होते हुए यतीम था।
अब मेरी ज़िंदगी का एक ही मकसद रह गया था। पढ़ना, और सिर्फ पढ़ना। मुझे पता नहीं कि यह मेरा विश्वास था या कोई जादू, मुझे सिरदर्द से पूरी तरह मुक्ति मिल चुकी थी। वहां का मौसम, ठंड, लगातार पड़ती बर्फ, पार्वती नदी का किनारा, गर्म पानी के सोते और साफ-सुथरी हवा जैसे इन्हीं अच्छी अच्छी चीजों से जीवन सार्थक हो चला था। यहां किसी भी किस्म की कोई चिंता नहीं थी। स्कूल से लौटते ही मैं अपने हिस्से के काम करके पढ़ने बैठ जाता। मुझे अपनी बेबे, बहन और छोटे भाइयों की बहुत याद आती थी। अके ले में मैं रोता था कि चाह कर भी उनसे मिलने नहीं जा सकता था, लेकिन मेरी भी जिद थी कि मुझे घर से निकाला गया है, मैंने खुद घर नहीं छोड़ा है। मुझे वापिस बुलाया जायेगा तभी जाउं€गा।
मैं हर साल अपनी कक्षा में फर्स्ट आता। चौथे बरस मैं हाई स्कूल में अपने स्कू ल में अव्वल आया था। मुझे ढेरों ईनाम और वजीफा मिले थे।
हाई स्कूल कर लेने के बाद एक बार फिर मेरे सामने रहने-खाने और आगे पढ़ने की समस्या आ खड़ी हुई थी। यहां सिर्फ दसवीं तक का ही स्कूल था। बारहवीं के लिए नीचे मैदानों में उतरना पड़ता। मणिकर्ण का शांत, भरपूर प्राकृतिक सौन्दर्य से भरा वातावरण और गुरुद्वारे का भत्तिरस से युक्त पारिवारिक वातावरण भी छोड़ने का संकट था।
मैं अब तक के अनुभवों से बहुत कुछ सीख चुका था और आगे पढ़ने के एकमात्र उद्देश्य से इन सारी नयी समस्याओं के लिए तैयार था। छोटे मोटे काम करके मैंने अब तक इतने पैसे जमा कर लिये थे कि दो-तीन महीने आराम से कहीं कमरा ले कर काट सकूं। अट्ठारह साल का होने को आया था। दुनिया भर के हर तरह के लोगों से मिलते-जुलते मैं बहुत कुछ सीख चुका था। वजीफा था ही। सौ रुपये प्रबंधक कमेटी ने हर महीने भेजने का वायदा कर दिया था।
तभी संयोग से अमृतसर से एक इंटर कॉलेज का एक स्कूली ग्रुप वहां आया। मेरे अनुरोध पर हमारे प्रधान जी ने उनके इन्चार्ज के सामने मेरी समस्या रखी। यहां रहते हुए साढ़े तीन-चार साल होने को आये थे। मेरी तरह के तीन-चार और भी लड़के थे जो आगे पढ़ना चाहते थे। हमारे प्रधान जी ने हमारी सिफारिश की थी कि हो सके तो इन बच्चों का भला कर दो। हमारी किस्मत अच्छी थी कि हम चारों ही उस ग्रुप के साथ अमृतसर आ गये।
मणिकर्ण का वह गुरूद्वारा छोड़ते समय मैं एक बार फिर बहुत रोया था लेकिन इस बार मैं अके ला नहीं था रोने वाला और रोने की वज़ह भी अलग थी। मैं अपनी और सबकी खुशी के लिए, एक बेहतर भविष्य के लिए आगे जा रहा था।
अब मेरे सामने एक और बड़ी दुनिया थी। यहां आकर हमारे रहने खाने की व्यवस्था अलग-अलग गुरसिक्खी घरों में कर दी गयी थी और हम अब उन घरों के सदस्य की तरह हो गये थे। हमें अब वहीं रहते हुए पढ़ाई करनी थी।
जहां मैं रहता था, वे लोग बहुत अच्छे थे। बेशक यह किसी के रहमो-करम पर पलने जैसा था और मेरा बाल मन कई बार मुझे धिक्कारता कि मैं क्यों अपना घर-बार छोड़ कर दूसरों के आसरे पड़ा हुआ हूं, लेकिन मेरे पास जो उपाय था, घर लौट जाने का, वह मुझे मंज़ूर नहीं था। और कोई विकल्प ही नहीं था। मैं उनके छोटे बच्चों को पढ़ाता और जी-जान से उनकी सेवा करके अपनी आत्मा के बोझ को कम करता।
मैं एक बार फिर पढ़ाईद में जी-जान से जुट गया था। इंटर में मैं पूरे अमृतसर में फर्स्ट आया था। घर छोड़े मुझे छ: साल होने को आये थे, लेकिन सिर्फ कुछ सौ मील के फासले पर मैं नहीं गया था। अखबारों में मेरी तस्वीर छपी थी। जिस घर में मैं रहता था, उन लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं था। इसके बावज़ूद मैं उस रात खूब रोया था।
मुझे मेरा चाहा सब कुछ मिल रहा था और ये सब घर परिवार त्यागने के बाद ही। मैं मन ही मन चाहने लगा था कि घर से कोई आये और मेरे कान पकड़ कर लिवा ले जाये जबकि मुझे मालूम था कि उन्हें मेरी इस सफलता की खबर थी ही नहीं। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि उन्होंने कभी मेरी खोज-खबर भी ली थी या नहीं। आइआइटी, कानपुर में इंजीनियरिडग में एडमिशन मिल जाने के बाद मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं अपने घर जाऊं लेकिन संकट वही था, मैं ही क्यों झुकूं। मैं बहुत रोया था लेकिन घर नहीं गया था। घर की कोई खबर नहीं थी मेरे पास। मेरी बहुत इच्छा थी कि कम-से-कम अपने गॉडफादर हैड मास्टर साहब से ही मिलने चला जाऊं लेकिन हो नहीं पाया था। मैं जानता था कि वे इतने बरसों से उनके मन पर भी इस बात का बोझ तो होगा ही कि उनके ससुर ने मेरे साथ इस तरह का व्यवहार करके मुझे घर छोड़ने पर मज़बूर कर दिया था तो मैं कहां गया होऊंगा। मैंने अपने वचन का मान रखा था। उन्हीं के आशीर्वाद से इंजीनियर होने जा रहा था। तब मैंने बहुत सोच कर उन्हें एक ग्रीटिंग कार्ड भेज दिया था। सिर्फ अपना नाम लिखा था, पता नहीं दिया था। बाद में घर जाने पर ही पता चला था कि वे मेरा कार्ड मिलने से पहले ही गुज़र चुके थे।
अगले चार छ: साल तक मैं खूद को जस्टीफाई करता रहा कि मुझे कुछ कर के दिखाना है। आप हैरान होंगी मालविका जी कि इन बरसों में मुझे शायद ही कभी फुर्सत मिली हो। मैं हमेशा खटता रहा। कुछ न कुछ करता रहा। बच्चों को पढ़ाता रहा। आपको बताऊं कि मैंने बेशक बीटेक और एमटैक किया है, पीएच डी की है, लेकिन गुरूद्वारे में रहते हुए, अमृतसर में भी और बाद में आइआइटी कानपुर में पढ़ते हुए भी मैं बराबर ऐसे काम धंधे भी सीखता रहा और करता भी रहा जो एक कम पढ़ा-लिखा आदमी जानता है या रोज़ी-रोटी कमाने के लिए सीखता है। मैं ज़रा-सी भी फ़ुर्सत मिलने पर ऐसे काम सीखता था। मुझे चारपाई बुनना, चप्पलों की मरम्मत करना, जूते तैयार करना, कपड़े रंगना, बच्चों के खिलौने बनाना या कारपेंटरी का मेरा खानदानी काम ये बीसियों धंधे आते हैं। मैं बिजली की सारी बिगड़ी चीजें दुरुस्त कर सकता हूं। बेशक मुझे पतंग उड़ाना या क्रिकेट खेलना नहीं आता लेकिन मैं हर तरह का खाना बना सकता हूं और घर की रंगाई-पुताई बखूबी कर सकता हूं। इतने लम्बे अरसे में मैंने शायद ही कोई फिल्म देखी हो, कोई आवारागर्दी की हो या पढ़ाई के अलावा और किसी बात के बारे में सोचा हो लेकिन ज़रूरत पड़ने पर मैं आज भी छोटे से छोटा काम करने में हिचकता नहीं। साथ में पढ़ने वाले लड़के अक्सर छेड़ते - ओये, तू जितनी भी मेहनत करे, अपना माथा फोड़े या दुनिया भर के ध्ंाधे करे या सीखे, मज़े तेरे हिस्से में न अब लिखे हैं और न बाद में ही तू मज़े ले पायेगा। तू तब भी बीवी बच्चों के लिए इसी तरह खटता रहेगा। तब तो मैं उनकी बात मज़ाक में उड़ा दिया करता था, लेकिन अब कई बार लगता है, गलत वे भी नहीं थे। मेरे हिस्से में न तो मेरी पसंद का जीवन आया है और न घर ही। अपना कहने को कुछ भी तो नहीं है मेरे पास। एक दोस्त तक नहीं है।
मैं रुका हूं। देख रहा हूं, मालविका जी बिना पलक झपकाये ध्यान से मेरी बात सुन रही हैं। शायद इतने अच्छे श्रोता के कारण ही मैं इतनी देर तक अपनी नितांत व्यक्तिगत बातें उनसे शेयर कर पा रहा हूं।
- दोबारा घर जाने के बारे में कुछ बताइये, वे कहती हैं।
उन्हें संक्षेप में बताता हूं दोबारा घर जाने से पहले की बेचैनी की, अकु लाहट की बातें और घर से एक बार फिर से बेघर हो कर लौट कर आने की बात।
- और गुड्डी?
- मुझे लगता है मैंने ज़िंदगी में जितनी गलतियां की हैं, उनमें से जिस गलती के लिए मैं खुद को कभी भी माफ नहीं कर पाऊंगा, वह थी कि घर से दोबारा लौटने के दिन अगर मैं गुड्डी को भी अपने साथ बंबई ले आता तो शायद ज़िंदगी के सारे हादसे खत्म हो जाते। मेरी ज़िंदगी ने भी बेहतर रुख लिया होता और मैं गुड्डी को बचा पाता। उसकी पढ़ाई लिखाई पूरी हो पाती, लेकिन ....
- अपने प्रेम प्रसंगों के बारे में कुछ बताइये।
- मेरा विश्वास कीजिये, इस सिर दर्द का मेरे प्रेम प्रसंगों के होने या न होने से कोई संबंध नहीं है।
लगता है आपसे आपके प्रेम प्रसंग सुनने के लिए आपको कोई रिश्वत देनी पड़ेगी। चलिए एक काम करते हैं, कल हम लंच एक साथ ही लेंगे। वे हॅसी हैं - घबराइये नहीं, लंच के पैसे भी मैं कन्सलटेंसी में जोड़ दूंगी। कहिये, ठीक रहेगा?
- अब आपकी बात मैं कैसे टाल सकता हूं।
- आप यहीं आयेंगे या आपको आपके घर से ही पिक-अप कर लूं?
- जैसा आप ठीक समझें।
- आप यहीं आ जायें। एक साथ चलेंगे।
- चलेगा, भला मुझे क्या एतराज हो सकता है।
मालविका जी लंच के लिए जिस जगह ले कर आयी हैं, वह शहरी माहौल से बहुत दूर वुडफोर्ड के इलाके में है। भारतीय रेस्तरां है यह। नाम है चोर बाज़ार। बेशक लंदन में है लेकिन रेस्तरां के भीतर आ जाने के बाद पता ही नहीं चलता, हम लंदन में हैं या चंडीगढ़ के बाहर हाइवे के किसी अच्छे से रेस्तरां में बैठे हैं। जगह की तारीफ करते हुए पूछता हूं मैं - ये इतनी शानदार जगह कैसे खोज ली आपने ? मुझे तो आज तक इसके बारे में पता नहीं चल पाया।
हंसती हैं मालविका जी - घर से बाहर निकलो तो कुछ मिले।
बहुत ही स्वादिष्ट और रुचिकर भोजन है। खाना खाते समय मुझे सहसा गोल्डी की याद आ गयी है। उसके साथ ही भटकते हुए मैंने बंबई के अलग-अलग होटलों में खाने का असली स्वाद लिया था। पता नहीं क्यों गोल्डी के बारे में सोचना अच्छा लग रहा है। उसकी याद भी आयी तो कहां और कैसी जगह पर। कहां होगी वह इस समय?
इच्छा होती है मालविका जी को उसके बारे में बताऊं। मैं बताऊं उन्हें, इससे पहले ही उन्होंने पूछ लिया है -किसके बारे में सोच रहे हैं दीप जी? क्या कोई खास थी?
बताता हूं उन्हें - मालविका जी, कल आप मेरे प्रेम प्रसंगों के बारे में पूछ रही थीं।
- मैं आपको यहां लायी ही इसलिए थी कि आप अपने प्रेम प्रसंगों के बारे में खुद ही बतायें। मेरा मिशन सफल रहा, आप बिलकुल सहज हो कर उस लड़की के बारे में बतायें जिस की याद आपको यह स्वादिष्ट खाना खाते समय आ गयी है। ज़रूर आप लोग साथ-साथ खाना खाने नयी-नयी जगहों पर जाते रहे होंगे।
- अक्सर तो नहीं लेकिन हां, कई बार जाते थे।
- क्या नाम था उसका ?
- गोल्डी, वह हमारे घर के पास ही रहने आयी थी।
मैं मालविका जी को गेल्डी से पहली मुलाकात से आखिरी तय लेकिन न हो पायी मुलाकात की सारी बातें विस्तार से बताता हूं। इसी सिलसिले में अलका दीदी और देवेद्र जी का भी ज़िक्र आ गया है। मैं उनके बारे में भी बताता हूं।
हम खाना खा कर बाहर आ गये हैं। वापिस आते समय भी वे कोई न कोई ऐसा सवाल पूछ लेती हैं जिससे मेरे अतीत का कोई नया ही पहलू खुल कर सामने आ जाता है। बातें घूम फिर कर कभी गोलू पर आ जाती हैं तो कभी गुड्डी पर। मेरी एक बात खत्म नहीं हुई होती कि उसे दूसरी तरफ मोड़ देती हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं, वे मुझमें और मुझसे जुड़ी भूली बिसरी बातों में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रही हैं। वैसे एक बात तो है कि उनसे बात करना अच्छा लग रहा है। कभी किसी से इतनी बातें करने का मौका ही नहीं मिला। हर बार यही समझता रहा, सामने वाला कहीं मेरी व्यथा कथा सुन कर मुझ पर तरस न खाने लगे। इसी डर से किसी को अपने भीतर के अंधेरे कोनों में मैंने झांकने ही नहीं दिया।
मालविका जी की बात ही अलग लगती है। वे बिलकुल भी ये नहीं जतलातीं कि वे आपको छोटा महसूस करा रही हैं या आप पर तरस खा रही हैं।
जब उन्होंने मुझे घर पर ड्रॉप करने के लिए गाड़ी रोकी है तो मुझे फिर से गोल्डी की बातें याद आ गयी हैं।
मैंने यूं ही मालविका जी से पूछ लिया है - भीतर आ कर इस बंदे के हाथ की कॉफी पी कर कुछ कमेंट नहीं करना चाहेंगी?
उन्होंने हँसते हुए गाड़ी का इंजन बंद कर दिया है और कह रही हैं - मैं इंतज़ार कर रही थी कि आप कहें और मैं आपके हाथ की कॉफी पीने के लिए भीतर आऊं। चलिये, आज आपकी मेहमाननवाज़ी भी देख ली जाये।
वे भीतर आयी हैं।
बता रही हैं -गौरी के मम्मी पापा वाले घर में तो कई बार जाना हुआ लेकिन यहां आना नहीं हो पाया। आज आपके बहाने आ गयी।
- आपसे पहले परिचय हुआ होता तो पहले ही बुला लेते। खैर, खुश आमदीद।
जब तक मैं कॉफी बनाऊं, वे पूरे फ्लैट का एक चक्कर लगा आयी हैं।
पूछ रही हैं वे - मैं गौरी के एस्थेटिक सैंस से अच्छी तरह से परिचित हूं, घर की ये साज-सज्जा कम से कम उसकी की हुई तो नहीं है और न लंदन में इस तरह की इंटीरियर करने वाली एजेंसियां ही हैं। आप तो छुपे रुस्तम निक ले। मुझे नहीं पता था, आप ये सब भी जानते हैं। बहुत खूब। ग्रेट।
मैं क्या जवाब दूं - बस, ये तो सब यूं ही चलता रहता है। जब भी मैं अपने घर की कल्पना करता था तो सोचता था, बैडरूम ऐसे होगा हमारा और ड्रंइगरूम और स्टडी ऐसे होंगे। अब जो भी बन पड़ा...।
- क्यों, क्या इस घर से अपने घर वाली भावना नहीं जुड़ती क्या?
- अपना घर न समझता तो ये सब करता क्या? मैंने कह तो दिया है, लेकिन मैं जानता हूं कि उन्होंने मेरी बदली हुई टोन से ताड़ लिया है, मैं सच नहीं कह रहा हूं ।
- एक और व्यक्तिगत सवाल पूछ रही हूं, गौरी से आपके संबंध कैसे हैं?
मैं हँस कर उनकी बात टालने की कोशिश करता हूं - आज के इन्टरव्यू का समय समाप्त हो चुका है मैडम। हम प्रोग्राम के बाद की ही कॉफी ले रहे हैं।
- बहुत शातिर हैं आप, जब आपको जवाब नहीं होता तो कैसा बढ़िया कमर्शियल ब्रेक लगा देते हैं। खैर, बच के कहां जायेंगे। अभी तो हमने आधे सवाल भी नहीं पूछे।
मालविका जी के सवालों से मेरी मुक्ति नहीं है। पिछले महीने भर से उनसे बीच-बीच में मुलाकात होती ही रही है। हालांकि उन्होंने इलाज या योगाभ्यास के नाम पर अभी तक मुझे दो-चार आसन ही कराये हैं लेकिन उन्होंने एक अलग ही तरह की राय देकर मुझे एक तरह से चौंका ही दिया है। उन्होंने मुझे डायरी लिखने के लिए कहा है। डायरी भी आज की नहीं, बल्कि अपने अतीत की, भूले बिसरे दिनों की। जो कुछ मेरे साथ हुआ, उसे ज्यों का त्यों दर्ज करने के लिए कहा है। अलबत्ता, उन्होंने मुझसे गौरी के साथ मेरे संबंधों में चल रही खटास के बारे में राई रत्ती उगलवा लिया है। बेशक उन सारी बातों पर अपनी तरफ से एक शब्द भी नहीं कहा है। इसके अलावा ससुराल की तरफ से मेरे साथ जो कुछ भी किया गया या किस तरह से शिशिर ने मेरे कठिन वक्त में मेरा साथ दिया, ये सारी बातें मैंने डायरी में बाद में लिखी हैं, उन्हें पहले बतायी हैं। डायरी लिखने का मैंने यही तरीका अपनाया है। उनसे दिन में आमने-सामने या फोन पर जो भी बात होती है, वही डायरी में लिख लेता हूं। मेरा सिरदर्द अब पहले की तुलना में काफी कम हो चुका है। गौरी भी हैरान है कि मात्र दो-चार योग आसनों से भला इतना भयंकर सिरदर्द कैसे जा सकता है। लेकिन मैं ही जानता हूं कि ये सिरदर्द योगासनों से तो नहीं ही गया है। अब मुझे मालविका जी का इलाज करने का तरीका भी समझ में आ गया है। मैंने उनसे इस बारे में जब पूछा कि आप मेरा इलाज कब शुरू करेंगी तो वे हँसी थीं - आप भी अच्छे-खासे सरदार हैं। ये सब क्या है जो मैं इतने दिनों से कर रही हूं। ये इलाज ही तो चल रहा है आपका। आप ही बताइये, आज तक आपका न केवल सिरदर्द गायब हो रहा है बल्कि आप ज्यादा उत्साहित और खुश-खुश नज़र आने लगे हैं। बेशक कुछ चीज़ों पर मेरा बस नहीं है लेकिन जितना हो सका है, आप अब पहले वाली हालत में तो नहीं हैं। है ना यही बात?
- तो आपकी निगाह में मेरे सिरदर्द की वज़ह क्या थी?
- अब आप सुनना ही चाहते हैं तो सुनिये, आपको दरअसल कोई बीमारी ही नहीं थी। आपके साथ तीन-चार तकलीफ़ें एक साथ हो गयी थीं। पहली बात तो ये कि आप ज़िंदगी भर अकेले रहे, अकेले जूझते भी रहे और कुढ़ते भी रहे। संयोग से आपने अपने आस-पास वालों से जब भी कुछ चाहा, या मांगा, चूंकि वो आपकी बंधी बंधायी जीवन शैली से मेल नहीं खाता था, इसलिए आपको हमेशा लगता रहा, आप छले गये हैं। आप कभी भी व्यावहारिक नहीं रहे इसलिए आपको सामने वाले का पक्ष हमेशा ही गलत लगता रहा। ऐसा नहीं है कि आपके साथ ज्यादतियां नहीं हुईं होंगी। वो तो हुई ही हैं लेकिन उन सबको देखने-समझने और उन्हें जीवन में ढालने के तरीके आपके अपने ही थे। दरअसल आप ज़िंदगी से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा बैठे थे इसलिए सब कुछ आपके खिलाफ़ होता चला गया। जहां आपको मौका मिला, आप पलायन कर गये और जहां नहीं मिला, वहां आप सिरदर्द से पीड़ित हो गये। आप कुछ हद तक वहम रोग जिसे अंग्रेजी में हाइपोकाँड्रियाक कहते हैं, के रोगी होते चले जा रहे थे। दूसरी दिक्कत आपके साथ यह रही कि आप कभी भी किसी से भी अपनी तकलीफें शेयर नहीं कर पाये। करना चाहते थे और जब करने का वक्त आया तो या तो लोग आपको सुनने को तैयार नहीं थे और जहां तैयार थे, वहां आप तरस खाने से बचना चाहते हुए उनसे झूठ-मूठ के किस्से सुना कर उन्हें भी और खुद को भी बहलाते रहे। क्या गलत कह रही हूं मैं?
- माई गॉड, आपने तो मेरी सारी पोल ही खोल कर रख दी। मैंने तो कभी इस निगाह से अपने आपको देखा ही नहीं।
- तभी तो आपका यह हाल है। कब से दर-बदर हो कर भटक रहे हैं और आपको कोई राह नहीं सूझती।
- आपने तो मेरी आंखें ही खोल दीं। मैं अब तक कितने बड़े भ्रम में जी रहा था कि हर बार मैं ही सही था।
- वैसे आप हर बात गलत भी नहीं थे लेकिन आपको ये बताता कौन। आपने किसी पर भी भरोसा ही नहीं किया कभी। आपको बेचारा बनने से एलर्जी जो थी। है ना..।
- आपको तो सारी बातें बतायी ही हैं ना..।
- तो राह भी तो हमने ही सुझायी है।
- उसके लिए तो मैं आपका अहसान ज़िंदगी भी नहीं भूलूंगा।
- अगर मैं कहूं कि मुझे भी सिर्फ इसी शब्द से चिढ़ है तो..?
- ठीक है नहीं कहेंगे।
मालविका जी से जब से मुलाकात हुई है, ज़िंदगी के प्रति मेरा नज़रिया ही बदल गया है। मैंने अब अपने बारे में भी सोचना शुरुकर दिया है और अपने आबजर्वेशन अपनी डायरी में लिख रहा हूं। मैं एक और चार्ट बना रहा हूं कि मैंने ज़िंदगी में कब-कब गलत फैसले किये और बाद में धोखा खाया या कब कब कोई फैसला ही नहीं किया और अब तक पछता रहा हूं। ये डायरी एक तरह से मेरा कन्फैशन है मेरे ही सामने और मैं इसके आधार पर अपनी ज़िंदगी को बेहतर तरीके से संवारना चाहता हूं।
बेशक मुझे अब तक सिरदर्द से काफी हद तक आराम मिल चुका है और मैं अपने आपको मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ भी महसूस कर रहा हूं फिर भी गौरी से मेरे संबंधों की पटरी नहीं बैठ पा रही है। जब से उसने देखा है कि मुझे सिरदर्द से आराम आ गया है मेरे प्रति उसका लापरवाही वाला व्यवहार फिर श्जारू हो गया है। मैं एक बार फिर अपने हाल पर अकेला छोड़ दिया गया हुं। स्टोर्स जाता हूं लेकिन उतना ही ध्यान देता हूं जितने से काम चल जाये। ज्यादा मारामारी नहीं करता। मैं अब अपनी तरफ ज्यादा ध्यान देने लगा हूं। बेशक मेरे पास बहुत अधिक पाउंड नहीं बचे हैं फिर भी मैंने मालविका जी को बहुत आग्रह करके एक शानदार ओवरकोट दिलवाया है।
इसी हफ्ते गौरी की बुआ की लड़की पुष्पा की शादी है। मैनचेस्टर में। हांडा परिवार की सारी बहू बेटियां आज सवेरे-सवेरे ही निकल गयी हैं। हांडा परिवार में हमेशा ऐसा ही होता हे। जब भी परिवार में शादी या और कोई भी आयोजन होता है, सारी महिलाएं एक साथ जाती हैं और दो-तीन दिन खूब जश्न मनाये जाते हैं। हम पुरुष लोग परसों निकलेंगे। मैं शिशिर के साथ ही जाऊंगा।
अभी दिन भर के कार्यक्रम के बारे में सोच ही रहा हूं कि मालविका जी का फोन आया है। उन्होंने सिर्फ तीन ही वाक्य कहे हैं - मुझे पता है गौरी आज यहां नहीं है। बल्कि पूरा हफ्ता ही नहीं है। आपका मेरे यहां आना कब से टल रहा है। आज आप इनकार नहीं करेंगे और शाम का खाना हम एक-साथ घर पर ही खायेंगे। बनाऊंगी मैं। पता लिखवा रही हूं। सीधे पहुंच जाना। मैं राह देखूंगी। और उन्होंने फोन रख दिया है।
अब तय हो ही गया है कि मैं अब घर पर ही रहूं और कई दिन बाद एक बेहद खूबसूरत, सहज और सुकूनभरी शाम गुजारने की राह देखूं। कई दिन से उन्हीं का यह प्रस्ताव टल रहा है कि मैं एक बार उनके गरीबखाने पर आऊं और उनकी मेहमाननवाजी स्वीकार करूं।
मौसम ने भी आख़िर अपना रोल अदा कर ही लिया। बरसात ने मेरे अच्छे-ख़ासे सूट की ऐसी-तैसी कर दी। बर्फ के कारण सारे रास्ते या तो बंद मिले या ट्रैफिक चींटियों की तरह रेंग रहा था। बीस मिनट की दूरी तय करने में दो घंटे लगे। मालविका जी के घर तक आते-आते बुरा हाल हो गया है। सारे कपड़ों का सत्यानास हो गया। सिर से पैरों तक गंदी बर्फ के पानी में लिथड़ गया हूं। जूतों में अंदर तक पानी भर गया है। सर्दी के मारे बुरा हाल है वो अलग। वे भी क्या सोचेंगी, पहली बार किस हाल में उनके घर आ रहा हूं।
उनके दरवाजे की घंटी बजायी है। दरवाजा खुलते ही मेरा हुलिया देख कर वे पहले तो हँसी के मारे दोहरी हो गयी हैं लेकिन तुरंत ही मेरी बांह पकड़ कर मुझे भीतर खींच लेती हैं - जल्दी से अंदर आ जाओ। तबीयत खराब हो जायेगी।
मैं भीगे कपड़ों और गीले जूतों के साथ ही भीतर आया हूं। उन्होंने मेरा रेनकोट और ओवरकोट वगैरह उतारने में मदद की है। हँसते हुए बता रही हैं - मौसम का मूड देखते हुए मैं समझ गयी थी कि आप यहां किस हालत में पहुंचेंगे। बेहतर होगा, आप पहले चेंज ही कर लें। इन गीले कपड़ों में तो आपके बाजे बज जायेंगे। बाथरूम तैयार है और पानी एकदम गर्म। वैसे आप बाथ लेंगे या हाथ मुंह धो कर फ्रेश होना चाहेंगे। वैसे इतनी सर्दी में किसी भले आदमी को नहाने के लिए कहना मेरा ख्याल है, बहुत ज्यादती होगी।
- आप ठीक कह रही हैं लेकिन मेरी जो हालत है, उसे तो देख कर मेरा ख्याल है, नहा ही लूं। पूरी तरह फ्रेश हो जाउं€गा।
- तो ठीक है, मैं आपके नहाने की तैयारी कर देती हूं, कहती हुई वे भीतर के कमरे में चली गयी हैं। मैं अभी गीले जूते उतार ही रहा हूं कि उनकी आवाज आयी है
- बाथरूम तैयार है।
वे हंसते हुए वापिस आयी हैं - मेरे घर में आपकी कद काठी के लायक कोई भी ड्रैसिंग गाउन या कुर्ता पायजामा नहीं है। फिलहाल आपको ये शाम मेरे इस लुंगी-कुर्ते में ही गुज़ारनी पड़ेगी। चलिये, बाथरूम तैयार है।
एकदम खौलते गरम पानी से नहा कर ताज़गी मिली है। फ्रेश हो कर फ्रंट रूम में आया तो मैं हैरान रह गया हूं। सामने खड़ी हैं मालविका जी। मुसकुराती हुई। एयर होस्टेस की तरह हाथ जोड़े। अभिवादन की मुद्रा में। एक बहुत ही खूबसूरत बुके उनके हाथ में है - हैप्पी बर्थडे दीप जी। मैं ठिठक कर रह गया हूं। यह लड़की जो मुझे ढंग से जानती तक नहीं और जिसका मुझसे दूर दूर तक कोई नाता नहीं है, कितने जतन से और प्यार से मेरा जनमदिन मनाने का उपक्रम कर रही हैं। और एक गौरी है ..क्या कहूं, समझ नहीं पाता।
- हैप्पी बर्थ डे डियर दीप। वे फिर कहती हैं और आगे बढ़ कर उन्होंने बुके मुझे थमाते-थमाते हौले से मेरी कनपटी को चूम लिया है। मेरा चेहरा एकदम लाल हो गया है। गौरी के अलावा आज तक मैंने किसी औरत को छुआ तक नहीं है। मैं किसी तरह थैंक्स ही कह पाता हूं। आज मेरा जनमदिन है और गौरी को यह बात मालूम भी थी। वैसे यहां मेरा यह चौथा साल है और आज तक न तो गौरी ने मुझसे कभी पूछने की ज़रूरत समझी है और न ही उसे कभी फुर्सत ही मिली है कि पूछे कि मेरा जनमदिन कब आता है, या कभी जनमदिन आता भी है या नहीं, तो आज भी मैं इसकी उम्मीद कैसे कर सकता था, जबकि गौरी को हर बार मैं न केवल जनमदिन की विश करता हूं बल्कि उसे अपनी हैसियत भर उपहार भी देने की कोशिश करता हूं। गोल्डी से मुलाकात होने से पहले तक तो मेरे लिए यह तारीख़ सिर्फ एक तारीख़ ही थी। उसी ने इस तारीख़ को एक नरम, गुदगुदे अहसास में बदला था। गोल्डी के बाद से जब भी यह तारीख़ आती है, ख्याल तो आता ही है। बेशक सारा दिन मायूसी से ही गुज़ारना पड़ता है।
मैं हैरान हो रहा हूं, इन्हें कैसे पता चला कि आज मेरा जनमदिन है। मेरे लिए एक ऐसा दिन जिसे मैं कभी न तो याद करने की कोशिश करता हूं और न ही इसे आज तक सेलेब्रेट ही किया है। मैं झ्टंापी सी हँसी हँसा हूं और पूछता हूं - आपको कैसे पता चला कि आज इस बदनसीब का जनमदिन है।
- आप भी कमाल करते हैं दीप जी, पहली बार आप जब आये थे तो मैंने आपका हैल्थ कार्ड बनवाया था। वह डेटा उसी दिन मेरे कम्प्यूटर में भी फीड हो गया और मेरे दिमाग में भी। - कमाल है !! कितने तो लोग आते हेंगे जिनके हैल्थ कार्ड बनते होंगे हर रोज़। सबके बायोडाटा फीड कर लेती हैं आप अपने दिमाग में।
- सिर्फ बायोडाटा। बर्थ डेट तो किसी किसी की ही याद रखती हूं । समझे। और आप भी मुझसे ही पूछ रहे हैं कि मुझे आपके जनमदिन का कैसे पता चला!!
मैं उदास हो गया हूं। एक तरफ गौरी है जिसे मेरा जनमदिन तो क्या, हमारी शादी की तारीख तक याद नहीं है। और एक तरफ मालविका जी हैं जिनसे मेरी कुछेक ही मुलाकातें हैं। बाकी तो हम फोन पर ही बातें करते रहे हैं और इन्हें ......।
मैं कुछ कहूं इससे पहले ही वे बोल पड़ी है - डोंट टेक इट अदरवाइज़। आज का दिन आपके लिए एक खास दिन है और आज आप मेरे ख़ास मेहमान हैं। आज आपके चेहरे पर चिंता की एक भी लकीर नजर नहीं आनी चाहिये.. ओ के !! रिलैक्स नाउ और एंजाय यूअर सेल्फ। तब तक मैं भी ज़रा बाकी चीजें देख लूं।
मैं अब ध्यान से कमरा देखता हूं। एकदम भारतीय शैली में सज़ा हुआ। कहीं से भी यह आभास नहीं मिलता कि मैं इस वक्त यहां लंदन में हूं। पूरे कमरे में दसियों एक से बढ़ कर एक लैम्प शेड्स कमरे को बहुत ही रूमानी बना रहे हैं। पूरा का पूरा कमरा एक उत्कृष्ट कलात्मक अभिरुचि का जीवंत साक्षात्कार करा रहा है। कोई सोफा वगैरह नहीं है। बैठने का इंतजाम नीचे ही है। एक तरफ गद्दे की ही ऊंचाई पर रखा सीडी चेंजर और दूसरी तरफ हिन्दी और अंग्रेजी के कई परिचित और खूब पढ़े जाने वाले ढेर सारे टाइटल्स। चेंजर के ही ऊपर एक छोटे से शेल्फ में कई इंडियन और वेस्टर्न क्लासिकल्स के सीडी। मैं मालविका जी की पसंद और रहन सहन के बारे में सोच ही रहा हूं कि वे मेरे लिए एक गिलास लेकर आयी हैं - मैं जानती हूं, आप नहीं पीते। वैसे मैं कहती भी नहीं लेकिन जिस तरह से आप ठंड में भीगते हुए आये हैं, मुझे डर है कहीं आपकी तबीयत न खराब हो जाये। मेरे कहने पर गरम पानी में थोड़ी-सी ब्रांडी ले लें। दवा का काम करेगी। मैं उनके हाथ से गिलास ले लेता हूं। मना कर ही नहीं पाता। तभी मैं देखता हूं वे पूरे कमरे में ढेर सारी बड़ी-बड़ी रंगीन मोमबत्तियां सजा रही हैं। मैं कुछ समझ पाऊं इससे पहले ही वे इशारा करती हैं - आओ ना, जलाओ इन्हें। मैं उनकी मदद से एक -एक करके सारी मोमबत्तियां जलाता हूं। कुल चौंतीस हैं। मेरी उम्र के बरसों के बराबर। सारी मोमबत्तियां झिलमिलाती जल रही हैं और खूब रोमांटिक माहौल पैदा कर रही हैं । उन्होंने सारी लाइटें बुझा दी हैं। कहती हैं - हम इन्हें बुझायेंगे नहीं। आखिर तक जलने देंगे। ओ के !!
मैं भावुक होने लगा हूं..। कुछ नहीं सूझा तो सामने रखे गुलदस्ते में से एक गुलाब निकाल कर उन्हें थमा दिया है - थैंक यू वेरी मच मालविका जी, मैं इतनी खुशी बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा। सचमुच मैं .. ...। मेरा गला रुंध गया है।
- जनाब अपनी ही खुशियों के सागर मे गोते लगाते रहेंगे या इस नाचीज को भी जनमदिन के मौके पर शुभकामना के दो शब्द कहेंगे।
- क्या आपका भी आज ही जनमदिन है, मेरा मतलब .. आपने पहले क्यों नहीं बताया?
- तो अब बता देते हैं सर कि आज ही इस बंदी का भी जनमदिन है। मैं इस दिन को लेकर बहुत भावुक हूं और मैं आज के दिन अकेले नहीं रहना चाहती थी। हर साल का यही रोना है। हर साल ही कम्बख्त यह दिन चला आता है और मुझे खूब रुलाता है। इस साल मैं रोना नहीं चाहती थी। कल देर रात तक सोचती रही कि मैं किसके साथ यह दिन गुजारूं। अब इस पूरे देश में मुझे जो शख्स इस लायक नजर आया, खुशकिस्मती से वह भी आज ही के दिन अपना जनमदिन मनाने के लिए हमारे जैसे किसी पार्टनर की तलाश में था। हमारा शुक्रिया अदा कीजिये जनाब कि ......और वे ज़ोर से खिलखिला दी हैं। मैंने संजीदा हो कर पूछा है - आपके लिए तो पांच-सात मोमबत्तियां कम करनी पड़ेंगी ना !!
- नहीं डीयर, अब आपसे अपनी उम्र क्या छुपानी !! हमने भी आपके बराबर ही पापड़ बेले हैं जनाब। वैसे वो दिन अब कहां फुर हो गये हैं !! ये क्या कम है कि तुम इनमें दो चार मोमबत्तियां और नहीं जोड़ रहे हो !!
- ऐसी कोई बात नहीं है। चाहो तो मैं ये सारी मोमबत्तियां बेशक अपने नाम से जला देता हूं लेकिन अपनी उम्र आपको दे देता हूं। वैसे भी मेरी जिंदगी बेकार जा रही है। आपके ही किसी काम आ सके तो !! मैंने बात अधूरी छोड़ दी है।
- नो थैंक्स !! अच्छा तुम एक काम करो दीप, धीरे-धीरे अपनी ब्रांडी सिप करो। और लेनी हो तो गरम पानी यहां थर्मस में रखा है। बॉटल भी यहीं है। और उन्होंने अपना छोटा-सा बार कैबिनेट खोल दिया है।
- तब तक मैं भी अपना बर्थडे बाथ ले कर आती हूं।
मैं उनका सीडी कलेक्शन देखता हूं - सिर्फ इंडियन क्लासिक्स हैं। मैं चेंजर पर भूपेन्दर की ग़ज़लों की सीडी लगाता हूं। कमरे में उसकी सोज़ भरी आवाज गूंज रही है - यहां किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता। सच ही तो है। मेरे साथ भी तो ऐसा ही हो रहा है। कभी पैरों तले से ज़मीं गायब होती है तो कभी सिर के ऊपर से आसमां ही कहीं गुम हो जाता है। कभी यह विश्वास ही नहीं होता कि हमारे पास दोनों जहां हैं। आज पता नहीं कौन से अच्छे करमों का फल मिल रहा है कि बिन मांगे इतनी दौलत मिल रही है। ज़िंदगी भी कितने अजीब-अजीब खेल खेलती है हमारे साथ। हम ज़िंदगी भर गलत दरवाजे ही खटखटाते रह जाते हैं और कोई कहीं और बंद दरवाजों के पीछे हमारे इंतज़ार में पूरी उम्र गुज़ार देता है। और हमें या तो खबर ही नहीं मिल पाती या इतनी देर से ख़बर मिलती है कि तब कोई भी चीज़ मायने नहीं रखती। बहुत देर हो चुकी होती है।
बाहर अभी भी बर्फ पड़ रही है लेकिन भीतर गुनगुनी गरमी है। मैं गाव तकिये के सहारा लेकर अधलेटा हो गया हूं और संगीत की लहरियों के साथ डूबने उतराने लगा हूं। ब्रांडी भी अपना रंग दिखा रही है। दिमाग में कई तरह के अच्छे बुरे ख्याल आ रहे हैं। खुद पर अफ़सोस भी हो रहा है, लेकिन मैं मालविका जी के शानदार मूड और हम दोनों के जनमदिन के अद्भुत संयोग पर अपने भारी और मनहूस ख्यालों की काली छाया नहीं पड़ने देना चाहता। मुझे भी तो ये शाम अरसे बाद, कितनी तकलीफ़ों के सफ़र अकेले तय करने के बाद मिली है। पता नहीं मालविका जी भी कब से इस तरह की शाम के लिए तरस रही हों। इन्हीं ख्यालों में और ब्रांडी के हलके-हलके नशे में पता नहीं कब झपकी लग गयी होगी। अचानक झटका लगा है। महसूस हुआ कि मालविका जी मेरी पीठ के पीछे घुटनों के बल बैठी मेरे बालों में अपनी उंगलियां फिरा रही हैं। पता चल जाने के बावजूद मैंने अपनी आंखें नहीं खोली हैं। कहीं यह मुलायम अहसास बिखर न जाये। तभी मैंने अपने माथे पर उनका चुंबन महसूस किया है। उनकी भरी-भरी छातियों का दबाव मेरी पीठ पर महसूस हो रहा है। मैंने हौले से आंखें खोली हैं। मालविका जी मेरी आंखों के सामने हैं। मुझ पर झुकी हुई। वे अभी-अभी नहा कर निकली हैं। गरम पानी, खुशबूदार साबुन और उनके खुद के बदन की मादक महक मेरे तन-मन को सराबोर कर रही है। ज़िंदगी में यह पहली बार हो रहा है कि गौरी के अलावा कोई और स्त्राú मेरे इतने निकट है। मेरे संस्कारों ने ज़ोर मारा है - ये मैं क्या कर रहा हूं.. लेकिन इतने सुखद माहौल में मैं टाल गया हूं। .. जो कुछ हो रहा है और जैसा हो रहा है होने दो। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा .. । मैं कुछ पा ही तो रहा हूं। खोने के लिए मेरे पास है ही क्या।
तभी मालविका ने मेरी पीठ पर झुके झुके ही मेरे चेहरे को अपने कोमल हाथों में भरा है और मेरी दोनों आंखों को बारी-बारी से चूम लिया है। उनका कोमल स्पर्श और सुकोमल चुंबन मेरे भीतर तक ऊष्मा की तरंगें छोड़ते चले गये। मैंने भी उसी तरह लेटे-लेटे उन्हें अपने ऊपर पूरी तरह झुकाया है, उनकी गरदन अपनी बांह के घेरे में ली है और हौले से उन्हें अपने ऊपर खींच कर उनके होठों पर एक आत्मीयता भरी मुहर लगा दी है - हैप्पी बर्थडे डीयर।
हम दोनों काफी देर से इसी मुद्रा में एक दूसरे के ऊपर झुके हुए नन्हें-नन्हें चुम्बनों का आदान-प्रदान कर रहे हैं। मैं सुख के एक अनोखे सागर में गोते लगा रहा हूं। यह एक बिलकुल ही नयी दुनिया है, नये तरह का अहसास है जिसे मैं शादी के इन चार बरसों में एक बार भी महसूस नहीं कर पाया था।
मालविका अभी भी मेरी पीठ की तरफ बैठी हैं और उनके घने और कुछ-कुछ गीले बाल मेरे पूरे चेहरे पर छितराये हुए हैं। उनमें से उठती भीनी भीनी खुशबू मुझे पागल बना रही है। उन्होंने सिल्क का वनपीस गाउन पहना हुआ है जो उनके बदन पर फिसल-फिसल रहा है। हम दोनों ही बेकाबू हुए जा रहे हैं लेकिन इससे आगे बढ़ने की पहल हममें से कोई भी नहीं कर कर रहा है। तभी मालविका ने खुद को मेरी गिरफ्त में से छुड़वाया है और उठ कर कमरे में जल रहे इकलौते टैबल लैम्प को भी बुझा दिया है। अब कमरे में चौंतीस मोमबत्तियों की झिलमिलाती और कांपती रौशनी है जो कमरे के माहौल को नशीला, नरम और मादक बना रही है। मैं उनकी एक-एक अदा पर दीवाना होता चला जा रहा हूं। जानता हूं ये मेरी नैतिकता के खिलाफ है लेकिन मैं ये भी जानता हूं आज मेरी नैतिकता के सारे के सारे बंधन टूट जायेंगे। मेरे सामने इस समय मालविका हैं और वे इस समय दुनिया का सबसे बड़ा सच हैं। बाकी सब कुछ झूठ है। बेमानी है।
मैंने उनके दोनों कानों की लौ को बारी-बारी से चूमते हुए कहा है - मेरे जनमदिन पर ही मुझे इतना कुछ परोस देंगी तो मेरा हाजमा खराब नहीं हो जायेगा। कहीं मुझे पहले मिल गयी होतीं तो !!
जवाब में उन्होंने अपनी हँसी के सारे मोती एक ही बार में बिखेर दिये हैं - देखना पड़ता है न कि सामने वाला कितना भूखा प्यासा है। वैसे मेरे पीछे पागल मत बनो। मैं एक बहुत ही बुरी और बदनाम औरत हूं। कहीं मेरे चंगुल में पहले फंस गये होते तो अब तक कहीं मुंह दिखाने के काबिल भी न होते।
- आपके जैसी लड़की बदनाम हो ही नहीं सकती। मैंने उन्हें अब सामने की तरफ खींच लिया है और अपनी बाहों के घेरे मे ले लिया है। मेरे हाथ उनके गाउन के फीते से खेलने लगे हैं।
उन्होंने गाउन के नीचे कुछ भी नहीं पहना हुआ है और हालांकि वे मेरे इतने निकट हैं और पूरी तरह प्रस्तुत भी, फिर भी मेरी हिम्मत नहीं हो रही, इससे आगे बढ़ सकूं । वे मेरा संकोच समझ रही हैं और शरारतन मेरी उंगलियों को बार-बार अपनी उंगलियों में फंसा लेती हैं। आखिर मैं अपना एक हाथ छुड़ाने में सफल हो गया हूं और गाउन का फीता खुलता चला गया है। मालविका ने अपनी आंखें बंद कर ली हैं और झूठी सिसकारी भरी है
- मत करो दीप प्लीज।
मैंने इसरार किया है - जरा देख तो लेने दो।
- और अगर इन्हें देखने के बाद आपको कुछ हो गया तो !!
- शर्त बद लो, कुछ भी नहीं होगा। उनकी बहुत आनाकानी करने के बाद ही मैं उनका गाउन उनके कंधों के नीचे कर पाया हूं।
और मैं शर्त हार गया हूं। मैंने जो कुछ देखा है, मैं अपनी आंखों पर यकीन नहीं कर पा रहा हूं। मालविका का अनावृत सीना मेरे सामने है। मैंने बेशक गौरी के अलावा किसी भी औरत को इस तरह से नहीं देखा है, लेकिन जो कुछ मेरे सामने है, मैं कभी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैंने न तो फिल्मों में, न तस्वीरों में और न ही किसी और ही रूप में किसी भी स्त्राú के इतने विराट, उदार, संतुलित, सुदृढ़ और ख्बासूरत उरोज देखे हैं। मैं अविश्वास से उन गोरे-चिट्टे दाग रहित और सुडौल गोलार्धो की तरफ देखता रह गया हूं और पागलों की तरह उन्हें अपने हाथों में भरने की नाकाम कोशिशें करने लगा हूं। उन्हें दीवानों की तरह चूमने लगा हूं। मालविका ने अपनी अंाखें बंद कर ली हैं। वे मेरे सुख के इन खूबसूरत पलों में आड़े नहीं आना चाहतीं!! वे अपनी इस विशाल सम्पदा का मोल जानती रही होंगी तभी तो वे मुझे उनका भरपूर सुख ले लेने दे रही हैं। मैं बार-बार उन्हें अपने हाथों में भर-भर कर देख रहा हूं। उन्हें देखते ही मुझ जैसे नीरस और शुष्क आदमी को कविता सूझने लगी है। कहीं सचमुच कवि होता तो पता नहीं इन पर कितने महाकाव्य रच देता!
मैं एक बार फिर जी भर कर देखता हूं - वे इतने बड़े और सुडौल हैं कि दोनों हाथों में भी नहीं समा रहे।
मैं उन्हें देख कर, छू कर और अपने इतने पास पा कर निहाल हो गया हूं। अब तक मैं जब भी मालविका से मिला था, उन्हें ट्रैक सूट में, फार्मल सूट में या साड़ी के धऊपर लाँग कोट पहने ही देखा था। शाम को भी उन्होंने हाउसकोट जैसा कुछ पहना हुआ था और उनके कपड़े कभी भी जरा-सा भी यह आभास नहीं देते थे कि उनके नीचे कितनी वैभवशाली सम्पदा छुपी हुई है। वे इस समय मेरे सामने अनावृत्त बैठी हुई हैं। घुटने मोड़ कर। वज्रासन में। साधिका की-सी मुद्रा में। उनका पूरा अनावृत्त शरीर मेरे एकदम निकट है। पूरी तरह तना हुआ। निरंतर और बरसों के योगाभ्यास से निखरा और संवारा हुआ। कहीं भी रत्ती भर भी अधिकता या कमी नहीं। एक मूर्ति की तरह सांचे में ढला हुआ। ऐसी देह जिसे इतने निकट देख कर भी मैं अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूं। ..वे आंखें बंद किये हुए ही मुझसे कहती हैं - अपने कपड़े उतार दो और मेरी तरह वज्रासन लगा कर बैठ जाओ। कुर्ता उतारने में मुझे संकोच हो रहा है, लेकिन वे मुझे पुचकारती हैं - डरो नहीं, मेरी आंखें बंद हैं।
मैं वज्रासन में बैठने की कोशिश करता हूं लेकिन उन्हीं के ऊपर गिर गया हूं। वे खिलखिलाती हैं और मुझे अपने सीने से लगा लेती हैं। उनके जिस्म की आंच मेरे जिस्म को जला रही है। कुछ ब्रांडी का नशा है और बाकी उनकी दिपदिपाती देह का। इतनी सारी मोमबत्तियों की झिलमिलाती रौशनी में उनकी देह की आभा देखते ही बनती है। उन्होंने अभी भी अपनी आंखें शरारतन बंद कर रखी हैं और बंद आंखों से ही मुझे हैरान-परेशान देख कर मजे ले रही हैं। तभी मैं उठा हूं और बुके के सभी फूलों को निकाल कर उन फूलों की सारी की सारी पंखुड़ियां उनके गोरे चिट्टे सुडौल बदन पर बिखेर दी हैं। उन्होंने अचानक आंखें खोली हैं और पखुंड़ियों की वर्षा में भीग-सी गयी हैं। उनके बदन से टकराने के बाद पंखुड़ियों की खुशबू कई गुना बढ़ कर सारे कमरे में फैल गयी है।
वे खुशी से चीख उठी हैं। मैंने उन्हें गद्दे पर लिटाया है और हौले हौले उनके पूरे बदन को चूमते हुए एक-एक पंखुड़ी अपने होठों से हटा रहा हूं। मैं जहां से भी पंखुड़ी हटाता हूं, वहीं एक ताजा गुलाब खिल जाता है। थोड़ी ही देर में उनकी पूरी काया दहकते हुए लाल सुर्ख गुलाबों में बदल गयी है।
मैं उनके पास लेट गया हूं और उन्हें अपने सीने से लगा लिया है। उन्होंने भी अपनी बाहों के घेरे में मुझे बांध लिया है।
समय थम गया है। अब इस पूरी दुनिया में सिर्फ हम दो ही बचे हैं। बाकी सब कुछ खत्म हो चुका है। हम एक दूसरे में घुलमिल गये हैं। एकाकार हो गये हैं।
बाहर अभी भी लगातार बर्फ पड़ रही है और खिड़कियों के बाहर का तापमान अभी भी शून्य से कई डिग्री नीचे है लेकिन कमरे के भीतर लाखों सूर्यों की गरमी माहौल को उत्तेजित और तपाने वाला बनाये हुए है।
आज हम दोनों का जनम दिन है और हम दोनों की उम्र भी बराबर है। दो चार घंटों का ही फर्क होगा तो होगा हममें। हम अपनी अलग-अलग दुनिया मे अपने अपने तरीके से सुख-दुख भोगते हुए और तरह-तरह के अनुभव बटोरते हुए यहां आ मिले हैं बेशक हम दोनों की राहें अलग रही हैं। हमने आज देश, काल और समय की सभी दूरियां पाट लीं हैं और अनैतिक ही सही, एक ऐसे रिश्ते में बंध गये हैं जो अपने आप में अद्भुत और अकथनीय है। मुझे आज पहली बार अहसास हो रहा है कि सैक्स में कविता भी होती है। उसमें संगीत भी होता है। उसमें लय, ताल, रंग, नृत्य की सारी मुद्राएं और इतना आनन्द, तृप्ति, सम्पूर्णता का अहसास और सुख भी हुआ करते हैं। मैं तो जैसे आज तक गौरी के साथ सैक्स का सिर्फ रिचुअल निभाता रहा था।
देस बिराना अध्याय 6
हम दोनों एक साथ ही एक नयी दुनिया की सैर करके एक साथ ही इस खूबसूरत ख्वाबगाह में लौट आये हैं। पूरी तरह से तृप्त, फिर भी दोबारा वही सब कुछ एक बार फिर पा लेने की, उसी उड़ान पर एक बार फिर सहयात्री बन कर उड़ जाने की उत्कट चाह लिये हुए।
हम अभी भी वैसे ही साथ साथ लेटे हुए हैं। एक दूसरे को महसूस करते हुए, छूते हुए और एक दूसरे की नजदीकी को, ऊष्मा को अपने भीतर तक उतारते हुए। यह पूरी रात ही हम दोनों ने एक दूसरे की बाहों में इसी तरह गुजार दी है। हमने इस दौरान एक दूसरे के बहुत से राज़ जाने हैं, बेवकूफियां बांटी हैं, जख्म सहलाये हैं और उपलब्धियों के लिए एक दूसरे को बधाई दी है।
हमने आधी रात को खाना खाया है। खाया नहीं, बल्कि मनुहार करते हुए, लाड़ लड़ाते हुए एक दूसरे को अपने हाथों से एक-एक कौर खिलाया है।
मालविका नशीली आवाज में पूछ रही है - यहां आकर अफसोस तो नहीं हुआ ना !!
- हां, मुझे अफसोस तो हो रहा है।
- किस बात का ?
- यहां पहले ही क्यों नही आ गया मैं।
- फिर आओगे!!
मैंने उसके दोनों उरोजों पर चुंबन अंकित करते हुए जवाब दिया है - आप हर बार इसी तरह स्वागत और सत्कार करेंगी तो जरूर आऊंगा।
- अगर तुम हर बार मेरे कपड़े उतारोगे तो बाबा, बाज आये हम ! हमें कपड़े उतारने वाले मेहमान नहीं चाहिये !!
- अच्छी बात है, नहीं उतारेंगे कपड़े, लेकिन आयेंगे जरूर हम। इस खज़ाने की देखभाल करने कि कोई इन्हें लूट तो नहीं ले गया है।
- जब इसका असली रखवाला ही भाग गया तो कोई कब तक लुटेरों और उच्चकों से रखवाली करता फिरे !!
- तुमने कभी बताया नहीं वो कौन बदनसीब था जो इतनी धन दौलत छोड़ कर चला गया। उस आदमी में जरा सा भी सौंदर्य बोध नहीं रहा होगा।
- तुम मेरी जिस दौलत को देख-देख कर इतने मोहित हुए जा रहे हो, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि इन्होंने मुझे कितनी कितनी तकलीफ दी है। इन्हीं की वजह से मैं यहां परदेस में अकेली पड़ी हुई हूं।
- कभी तुमने बताया नहीं।
- तुमने पूछा ही कब।
- तो अब बता दो, तुम्हारे हिस्से में ऊपर वाले ने कौन कौन से हादसे लिखे थे।
- कोई एक हो तो बताऊं भी। यहां तो जब से होश संभाला है, रोजाना ही हादसों से दो चार होना पड़ता है।
- मुझे नहीं मालूम था तुम्हारा सफर भी इतना ही मुश्किल रहा है, अपने बारे में आज सब कुछ विस्तार से बताओ ना..
- रहने दो। क्या करोगे मेरी तकलीफों के बारे में जान कर। ये तो हर हिन्दुस्तानी औरत की तकलीफें हैं। सब के लिए एक जैसी।
- अच्छा तकलीफों के बारे में मत बताओ, अपने बचपन के बारे में ही कुछ बता दो।
- बहुत चालाक हो तुम। तुम्हें पता है, एक बार बात शुरू हो जाये तो सारी बाते खुलती चली जायेंगी।
- ऐसा ही समझ लो।
- तो ठीक है। मैं तुम्हें अपने बारे में बहुत कुछ बताऊंगी, लेकिन मेरी दो तीन शर्तें हैं।
- तुम्हारे बताये बिना ही सारी शर्तें मंजूर हैं।
- पहली शर्त कि ये सारी बत्तियां भी बंद कर दो। मुझे बिलकुल अंधेरा चाहिये।
- हो जायेगा अंंंधेरा। दूसरी शर्त।
- तुम मेरे एकदम पास आ जाओ, मेरे ही कम्बल में। जैसे मैं लेटी हूं वैसे ही तुम लेट जाओ।
- मतलब .. सारे कपड़े?
- कहा न जैसे मैं लेटी हूं वैसे ही.. और कोई हरकत नहीं चाहिये। चुपचाप, छत की तरफ देखते हुए लेटे रहना। और खबरदार। लेना-देना काफी हो चुका। अब कोई भी हरकत नहीं होगी।
- नहीं होगी हरकत, लेकिन ये मेहमानों के कपड़े उतारने वाली बात कुछ हजम नहीं हुई। वैसे भी मांगे हुए कपड़े हैं ये।
- चुप रहो और तीसरी शर्त कि तुम मेरी पूरी बात खतम होने तक बिलकुल भी नहीं बोलोगे। हां हूं भी नहीं करोगे। सिर्फ सुनोगे और कभी भी न तो इसका किसी से जिक्र करोगे और न ही अभी या कभी बाद में मुझसे इस बारे में और कोई सवाल करोगे, न मुझ पर तरस खाओगे। बोलो मंजूर हैं ये सारी शर्तें।
- ये तो बहुत ही आसान शर्तें हैं। और कुछ ?
- बस और कुछ नहीं। अब मैं जब तक न कहूं तुम एक भी शब्द नहीं बोलोगे।
मैंने मालविका की शर्तें भी पूरी कर दी हैं। सारी बत्तियां बुझा दी हैं लेकिन भारी परदों की झिर्रियों से बाहर की पीली बीमार रोशनी अंदर आ कर जैसे अंधेरे को डिस्टर्ब कर रही है। मैं मालविका की बगल में आ कर लेट गया हूं। उन्होंने हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ अपनी नाभि पर रख दिया है।
धीरे धीरे अंधेरे में उनकी आवाज उभरती है।
- मेरा घर का नाम निक्की है। तुम भी मुझे इस नाम से बुला सकते हो। जब से यहां आयी हूं, किसी ने भी मुझे इस नाम से नहीं पुकारा। एक बार मुझे निक्की कह कर बुलाओ प्लीज़ ..
मैं बारी-बारी उनके दोनों कानों में हौले से निक्की कहता हूं और उनके दोनों कान चूम लेता हूं। निक्की खुश हो कर मेरे होंठ चूम लेती है।
- हां तो मैं अपने बचपन के बारे में बता रही थी।
- मेरे बचपन का ज्यादातर हिस्सा गुरदासपुर में बीता। पापा आर्मी में थे इसलिए कई शहरों में आना-जाना तो हुआ लेकिन हमारा हैडक्वार्टर गुरदासपुर ही रहा। मैं मां-बाप की इकलौती संतान हूं। मेरा बचपन बहुत ही शानदार तरीके से बीता लेकिन अभी आठवीं स्कूल में ही थी कि पापा नहीं रहे। हम पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। हम जिस लाइफ स्टाइल के आदी थे, रातों-रात हमसे छीन ली गयी। मज़बूरन मम्मी को जॉब की तलाश में घर से बाहर निकलना पड़ा। मम्मी ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं इसलिए भी परेशानियां ज्यादा हुईं। लेकिन वे बहुत हिम्मत वाली औरत थीं इसलिए सबकुछ संभाल ले गयीं। हालांकि मेरी पढ़ाई तो पूरी हुई लेकिन हम लगातार दबावों में रहने को मजबूर थे। ये दबाव आर्थिक भी थे और मानसिक भी। ये मम्मी की हिम्मत थी कि हमारी हर मुश्किल का वे कोई न कोई हल ढूंढ ही लेती थी। उसने मुझे कभी महसूस ही न होने दिया कि मेरे सिर पर पापा का साया नहीं है। वही मेरे लिए मम्मी और पापा दोनों की भूमिका बखूबी निभाती रही।
और उन्हीं दिनों मेरी ये समस्या शुरू हुई। वैसे तो मुझे पीरियड्स शुरू होने के समय से ही लगने लगा था कि मेरी ब्रेस्ट्स का आकार कुछ ज्यादा ही तेजी से बढ़ रहा है लेकिन एक तो वो खाने-पीने की उम्र थी और दूसरे शरीर हर तरह के चेंजेस से गुजर रहा था इसलिए ज्यादा परवाह नहीं की थी लेकिन सोलह-सत्रह तक पहुंचते पहुंचते तो यह हालत हो गयी थी कि मैं देखने में एक भरपूर औरत की तरह लगने लगी थी। कद काठी तो तुम्हारे सामने ही है। समस्या यह थी कि ये आकार में बढ़ते ही जाते। हर पद्रह दिन में ब्रेज़री छोटी पड़ जाती। मुझे बहुत शरम आती। सारा तामझाम खर्चीला तो था ही, मुझे आकवर्ड पोजीशन में भी डाल रहा था। मम्मी ने जब मेरी यह हालत देखी तो डॉक्टर के पास ले गयी। मम्मी ने शक की निगाह से देखते हुए पूछा भी कि कहीं मैं गलत लड़कों की संगत में तो नहीं पड़ गयी हूं।
डाक्णटर ने अच्छी तरह से मेरा मुआइना किया था और हँसते हुए कहा था - दूसरी लड़कियां इन्हें बड़ा करने के तरीके पूछने आती हैं और तुम इन्हें बढ़ता देख परेशान हो रही हो। गो, रिलैक्स एंड एंजाय। कुछ नहीं है, सिर्फ हार्मोन की साइकिल के डिस्टर्ब हो जाने के कारण ऐसा हो रहा है। तुम बिलकुल नार्मल हो।
लेकिन न मैं नार्मल हो पा रही थी, और न एंजाय ही कर पा रही थी। मेरी हालत खराब थी। सहेलियां तो मुझ पर हँसती ही थीं, कई बार टीचर्स भी हँसी मज्öााक करने से बाज़ नहीं आती थीं। मोहल्ले की भाभी और दीदीनुमा शादीशुदा लड़कियां मज़ाक-मज़ाक में पूछतीं - ज़रा हमें भी बताओ, कौन से तेल से मालिश करती हो।
मेरी हालत खराब थी। मैं कितना भी सीना ढक कर चलती, मोटे, डार्क कपड़े के दुपट्टे सिलवाती और बहुत एहतियात से ओढ़ती लेकिन गली-मौहल्ले के दुष्ट लड़कों की पैनी निगाह से भला कैसे बच पाती..। आते जाते उनके घटिया जुमले-सुनने पड़ते।
मुझे अपने आप पर रोना आता कि मैं सारी ज़िंदगी किस तरह इनका बोझ उठा पाउंगी!! वैसे देखने में इनकी शेप बहुत ही शानदार थी और नहाते समय मैं इन्हें देख-देख कर खुद भी मुग्ध होती रहती, लेकिन घर से निकलते ही मेरी हालत खराब होने लगती। तन को छेदती लोगों की नंगी निगाहें, अश्लील जुमले और मेरी खुद की हालत। बीएससी करते-करते तो मेरी यह हालत हो गयी थी कि मैं ब्रेजरी के किसी भी साइज की सीमा से बाहर जा चुकी थी। मम्मी बाजार से सबसे बड़ा साइज ला कर किसी तरह से जोड़ -तोड़ कर मेरे लिए गुज़ारे लायक ब्रेज़री बना कर देती। मम्मी भी मेरी वजह से अलग परेशान रहती कि मैं यह खज़ाना उठाये-उठाये कहां भटकूंगी!! पता नहीं, कैसी ससुराल मिले और कैसा पति मिले।
बदकिस्मती से न तो ससुराल ही ऐसी मिली और न पति ही कद्रदान मिला।
जिन दिनों बलविन्दर से मेरी शादी की बात चली, तब वह यहीं लंदन से ख़ास तौर पर शादी करने के लिए इंडिया आया हुआ था। वे लोग मेरठ के रहने वाले थे। हमें बताया गया था कि बलविन्दर का लंदन में इंडियन हैंडीक्राफ्ट्स का अपना कारोबार है। मिडलसैक्स में उसका अपना अपार्टमेंट है, कार है और ढेर सारा पैसा है। वे लोग किसी छोटे परिवार में रिश्ता करना चाहते थे जहां लड़की पढ़ी-लिखी हो ताकि पति के कारोबार में हाथ बंटा सके और बाद में चाहे तो अपने परिवार को भी अपने पास लंदन बुलवा सके। बलविन्दर देखने में अच्छा-ख़ासा स्मार्ट था और बातचीत में भी काफी तेज़ था। जिस वक्त हमारे रिश्ते की बातचीत चल रही थी तो हमें बलविन्दर के, उसके गुणों के, कारोबार के और खानदान के बहुत ही शानदार सब्जबाग दिखाये गये थे। हमारे पास न तो ज्यादा पड़ताल करने का कोई ज़रिया था और न ही वे लोग इसका कोई मौका ही दे रहे थे। वे तो सगाई के दिन ही शादी करने के मूड में थे कि वहां उसके कारोबार का हर्जा हो रहा है। मेरी मम्मी के हाथ-पांव फूल गये थे कि हम इतनी जल्दीबाजी में सारी तैयारियां कैसे कर पायेंगे। इससे भी हमें बलविन्दर ने ही उबारा था।
एक दिन उसका फोन आया था। उसने मम्मी को अपनी चाशनीपगी भाषा में बताया था कि मालविका के लिए किसी भी तरह के दहेज की जरूरत नहीं है। लंदन में उसके पास सब कुछ है। बहुत बड़ी पार्टी-वार्टी देने की भी जरूरत नहीं है। वे लोग पांच आदमी लेकर डोली लेने आ जायेंगे, किसी भी तरह की टीम- टाम की भी ज़रूरत नहीं हैं।
मम्मी ने अपनी मज़बूरी जतलायी थी - इतनी बड़ी बिरादरी है। लोग क्या कहेंगे बिन बाप की बेटी को पहने कपड़ों में विदा कर दिया। तब रास्ता भी बलविन्दर ने ही सुझाया था - तब ऐसा कीजिये मम्मी जी, कि आप लोग शादी के बाद एक छोटी-सी पार्टी तो रख ही लीजिये, बाकी आप मालविका को उसका घर-संसार बसाने के लिए जो कुछ भी देना चाहती हैं, उसका एक ड्राफ्ट बनवा कर उसे दे देना। वही उसका स्त्राúधन रहेगा और उसी के पास रहेगा। मेरे पास सब कुछ है। आपके आशीर्वाद के सिवाय कुछ भी नहीं चाहिये।
मम्मी बेचारी अकेली और सीधी सादी औरत। उसकी झांसापट्टी में आ गयी। उसके बाद तो यह हालत हो गयी कि हर दूसरे दिन उसका फोन आ जाता और वह मम्मी को एक नयी पट्टी पढ़ा देता। मम्मी खुश कि देखो कितना अच्छा दामाद मिला है कि जो इस घर की भी पूरी जिम्मेवारी संभाल रहा है। इन दिनों वही उनका सगा हो गया था। उसने अपने शालीन व्यवहार से हमारा मन जीत लिया था।
मेरी ससुराल वाले बहुत खुश थे कि उनके घर में इतनी सुंदर और पढ़ी लिखी बहू आयी है। शादी से पहले ही यह खबर पूरे ससुराल में फैल चुकी थी कि आने वाली बहू के एसेट्स कुछ ज्यादा ही वज़नदार हैं। औरतों और लड़कियों का मेरे पास किसी न किसी बहाने से आना तो फिर भी चल जाता था, लेकिन जब गली मुहल्ले के हर तरह के लड़के और जवान रिश्तेदार बार-बार बलविन्दर के पास किसी न किसी बहाने से आकर मेरे एसेट्स की एक झलक तक पाने के लिए आसपास मंडराते रहते तो हम दोनों को बहुत खराब लगता। वैसे बलविन्दर मन ही मन बहुत खुश था कि उसकी बीवी इतनी अच्छी है कि उसे किसी न किसी बहाने से देखने के लिए सारा दिन सारा दोस्तों का जमघट लगा ही रहता है। शुरू के कई दिन तो गहमा गहमी में बीत गये। सारा दिन मेहमानों के आने जाने में दिन का पता ही नहीं चलता था। लेकिन तीन चार दिन बाद जब हम हनीमून पर गये तो वहां बलविन्दर की खुशी देखते ही बनती थी। उसके हिसाब से उन दिनों उस हिल स्टेशन पर जितने भी हनीमून वाले जोड़े घूम रहे थे, उन सबसे खूबसूरत मैं ही थी। मुझे देखने के लिए राह चलते लोग एक बार तो जरूर ही ठिठक कर खड़े हो जाते थे। मुझे भी तसल्ली हुई थी कि चलो, मेरी एक बहुत बड़ी समस्या सुलझ गयी। कम से कम इस फ्रंट पर तो कॉम्पलैक्स पालने की जरूरत नहीं है।
रात को बलविन्दर मेरी फिगर की बहुत तारीफ करता। मेरे पूरे बदन को चूमता, मेरे उरोजों को चूमता, सहलाता और अपने हाथों में भरने की कोशिश करता। सारा दिन होटल में हम दोनों प्रेम के गहरे सागर में गोते लगाते रहते।
हनीमून से लौट कर भी उसके स्नेह में कोई कमी नहीं आयी थी। अलबत्ता, बलविन्दर के घर आने वाले लोगों की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। लोग किसी न किसी बहाने से मेरे एसेट्स की एक झलक पाने के लिए मौके तलाशते, घूर घूर कर देखते। मेरी ननंदें, जिठानियां और आस पास की भाभियां वगैरह भी वही सवाल पूछतीं, जो पिछले आठ सालों से मुझसे तरह तरह से पूछे जा रहे थे। कुल मिला कर अपने नये जीवन की इतनी शानदार शुरूआत से मैं बहुत खुश थी। मैं मम्मी को फोन पर अपने समाचार देती और उन्हें बताती कि मेरी ससुराल कितनी अच्छी है।
लेकिन सच्चाई बहुत ही जल्दी अपने असली रंग दिखाने लगी थी। बलविन्दर ने घर पर यह नहीं बताया था कि उसने खुद ही दहेज के लिए मना किया है और उसके बजाये मां से मेरे नाम पर पांच लाख का ड्राफ्ट हासिल कर रखा है। मां ने अपनी ज़िंदगी भर की बचत ही उसे सौंप दी थी। बाकी जो बचा था, वह मेरे कपड़े गहनों पर खर्च कर दिया था। बेशक मेरे रूप और गुणों के, मेरे लाये कीमती कपड़ों और गहनों के गुणगान दो चार दिन तक ऊंचे स्वर में किये जाते रहे लेकिन जल्दी ही दहेज के नाम पर कुछ भी न पाने का मलाल उनसे मेरी और मेरे परिवार की बुराइयां कराने लगा। मैं नयी थी और अकेली थी, सबके मुंह कैसे बंद करती। एक - आध बार मैंने बलविन्दर से कहा भी कि तुम कम से कम अपने मां-बाप को तो बता सकते हो कि तुम खुद ही दहेज के लिए मना कर आये थे और उसके बदले नकद पैसे ले आये हो तो वह हंस कर टाल गया - ये मूरख लोग ठहरे। इनकी बातें सुनती रहो और करो वही जो तुम्हें अच्छा लगता है। इन्हें और कोई तो काम है नहीं।
बलविन्दर ने शादी के एक हफ्ते के भीतर ही एक ज्वांइट खाता खुलवाया था और मुझे दहेज के नाम पर मिला पांच लाख का ड्राफ्ट जमा करा दिया गया था। बलविन्दर ने मुझे उस खाते का नम्बर देने का ज़रूरत ही नहीं समझी थी और न चेक बुक वगैरह ही दी थी। मुझे खराब तो लगा था लेकिन मैं चुप रह गयी थी। शादी के एक हफ्ते केध अंदर पति पर अविश्वास करने की यह कोई बहुत बड़ी वज़ह नहीं थी।
बलविन्दर शादी के एक महीने तक वहीं रहा था और लंदन की अपनी योजनाएं मुझे समझाता रहा था। उसने बताया था कि अपनी एक बुआ के ज़रिये पांच साल पहले लंदन पहुंचा था और सिर्फ पांच बरसों में ही उसने अपना खुद का अच्छा-ख़ासा कारोबार खड़ा कर लिया है। मेरे पासपोर्ट के लिए एप्लाई करा दिया गया था और बलविन्दर वहां पहुंचते ही मुझे वहीं बुलवा लेने की कोशिश करने वाला था।
लंदन के लिए विदा होने से पहले वाली रात वह बहुत ही भावुक हो गया था और कहने लगा था - तुम्हें यहां अकेले छोड़ कर जाने का जरा भी मन नहीं है, लेकिन क्या किया जाये। ट्रेवल डौक्यूमेंट्स की फार्मैलिटी तो पूरी करनी ही पड़ेगी।
उसके जाते ही मेरे सामने कई तरह की परेशानियां आ खड़ी ह़ुई थीं। मुझे दहेज में कुछ भी न लाने के लिए ससुराल वालों ने सताना शुरू कर दिया कि मैं कैसी कंगली आयी हूं कि सामान के नाम पर एक सुई तक नही लायी हूं। मुझे बहुत खराब लगा। बलविन्दर ने खुद ही तो कहा था कि उन्हें सामान नहीं चाहिये। आखिर जब पानी सिर के ऊपर से जाने लगा तो मुझे भी अपना मुंह खोलना ही पड़ा - आप ही का संदेश ले कर तो बलविन्दर मम्मी के पास गया था कि हमें कुछ भी नहीं चाहिये और जो कुछ भी देना है वह ड्राफ्ट के जरिये दे दिया जाये। लेकिन वहां तो मेरी बात सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं था। जब मैंने ज्वांइट खाते में जमा कराये गये पांच लाख के ड्राफ्ट की बात की तो दूसरी ही सच्चाइयां मेरे सामने आने लगी थीं। हमारा खाता धो पोंछ कर साफ किया जा चुका था। उसने मेरी जानकारी के बिना मेरे ड्राफ्ट के पूरे पैसे निकलवा लिये थे और मुझे हवा तक नहीं लगने दी थी कि वह खाता बिलकुल साफ करके जा रहा है। यह तो बाद में पता चला था कि उसने उन में से आधे पैसे तो अपने घर वालों को दे दिये थे और बाकी अपने पास रख लिये थे। उसने अपने घर वालों के साथ यही झूठ बोला कि वह ये पैसे लंदन से कमा कर लाया था और शादी में खर्च करने के बाद जो कुछ भी बचा है, वह दे कर जा रहा है। वह हमारे पैसों के बल पर अपने घर में अपनी शानदार इमेज बना कर मुझे न केवल कंगला बना गया था बल्कि हम लोगों को सुनाने के लिए अपने घर वालो को एक स्थायी किस्सा भी दे गया था। मेरे तो जैसे पैरों के तले से जमीन ही खिसक गयी थी। मम्मी को यह बात नहीं बतायी जा सकती थी। अब तो मेरे सामने यह संकट भी मंडराने लगा था कि पता नहीं बलविन्दर लंदन गया भी है या नहीं और मुझे कभी बुलवायेगा भी या नहीं। मैं अजीब दुविधा में फंस गयी थी। कहती किसे कि मैं कैसी भ्ंावर में फंस गयी हूं। इतना बड़ा धोखा कर गया था बलविन्दर मेरे साथ। उसे अगर मेरे पैसों की ज़रूरत थी भी तो कम से कम मुझे बता तो देता। मम्मी ने ये पैसे हमारे लिए ही तो दिये थे। वक्त पड़ने पर हमारे ही काम आने थे। बलविन्दर जाते समय न तो वहां का पता दे गया था और न ही कोई फोन नम्बर ही। यही कह गया था कि पहुंचते ही अपना अपार्टमेंट बदलने वाला है। शिफ्ट करते ही अपना नया पता दे देगा। उसने अपनी पहुंच का पत्र भी पूरे एक महीने बाद दिया था। मैं बता नहीं सकती कि यह वक्त मेरे लिए कितना मुश्किल गुजरा था। ससुराल में तो बलविन्दर के जाते ही सबकी आंखें पलट गयी थीं और सब की नजरों में मैं ही दोषी थी, हालांकि घर पर आने वाले ऐसे मेहमानों की कोई कमी नहीं थी जो आ कर पूछते कि मुझे बलविन्दर के बिना कोई तकलीफ तो नहीं है। मैं सब समझती थी लेकिन कर ही क्या सकती थी। बलविन्दर ने महीने भर बाद भेजे अपने पहले खत में लिखा था कि वह यहां आते ही अपने बिजिनेस की कुछ परेशानियों में फंस गया है और अभी मुझे जल्दी नहीं बुलवा पायेगा।
उसने जो पता दिया था वह किसी के केयर ऑफ था। उसने जो पत्र मुझे लिखा था उसमें बहुत ही भावुक भाषा का प्रयोग करते हुए अफ़सोस जाहिर किया था कि वह मेरे बिना बहुत अकेलापन महसूस करता है लेकिन चाह कर भी मुझे जल्दी बुलवाने के लिए कुछ भी नहीं कर पा रहा है।
इस पत्र में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे मुझे तसल्ली मिलती। पता मिल जाने के बाद सिर्फ एक ही रास्ता यह खुला था कि मैं उससे पूछ सकती थी कि आखिर उसने मेरे साथ ऐसा धोखा क्यों किया कि मेरे पास मेरे पांच लाख रुपयों में से एक हजार रुपये भी नहीं छोड़े कि मैं अपनी दिन प्रतिदिन की शापिंग ही कर सकूं। मैंने उसे एक कड़ा पत्र लिखा था कि उसके इस व्यवहार से मुझे कितनी तकलीफ पहुंची है।
मैंने उसे लिखा था कि मैं उसके सुख दुख में हमेशा उसके साथ रहूंगी लेकिन उसे ऐसा नहीं करना चाहिये था कि अपने परिवार की नज़रों में मेरी इमेज इतनी खराब हो।
एक महीने तक उसका कोई जवाब नहीं आया था। मेरे पास इस बात का कोई जरिया नहीं था कि मैं बलविन्दर से सम्पर्क कर पाती। मैं मम्मी के पास जाना चाहती थी ताकि कुछ वक्त उनके साथ गुजार सकूं लेकिन रोज़ाना बलविन्दर के ख़त के इंतज़ार में मैं अटकी रह जाती थी।
उसके पत्र के इंतज़ार में मुझे बहुत लम्बा लम्बा अरसा गुज़ारना पड़ रहा था। इधर मेरी ससुराल वालों के ताने और जली कटी बातें। मैं अकेली पड़ जाती और. जवाब नहीं दे पाती थी। एक तो वहां करने धरने के लिए कुछ नहीं होता था और दूसरे बलविन्दर की नीयत का कुछ पता नहीं चल पा रहा था। पूरे दो महीने के लम्बे इंतज़ार के बाद उसका चार लाइनों का पत्र आया था। उसने इस बात पर गहरा अफ़सोस जाहिर किया था कि वह अपने बिजिनेस की परेशानियों के चक्कर में मुझे उन पैसों की बाबत नहीं बता सका था। उसने लिखा था कि मुझे बिना बताये उसे ये पैसे निकलवाने पड़े। उसने लिखा था कि दिल्ली की ही एक पार्टी से पिछला कुछ लेन देन बकाया था। जब मैं उसके पास अगला सामान बुक कराने गया तो उसने साफ मना कर दिया कि जब तक पिछले भुगतान नहीं हो जाते, आगे कुछ भी नहीं मिलेगा। मेरे सामने संकट था कि उसके सामान के बिना दुकान चलानी मुश्किल हो जाती। मजबूरन तुम्हारे खाते में से उसे चैक दे देना पड़ा। मैने इस बारे में तुम्हें इसलिए नहीं लिखा कि यहां आते ही मैं बिजिनेस संभलते ही इनका इंतज़ाम करके तुम्हारे खाते में वापिस जमा करा देने वाला था। तुम्हें पता ही न चलता और खाते में पैसे वापिस जमा हो जाते, लेकिन स्थितियां हैं कि नियंत्रण में ही नहीं आ पा रही हैं।
इस बार भी उसने केयर ऑफ का ही पता दिया था।
बेशक यह चिट्ठी मेरी ससुराल वालों की निगाह में मुझे इस इल्ज़ाम से बरी करती थी कि मैं कंगली नहीं आयी थी और मेरे लाये पांच लाख रुपये आड़े वक्त में बलविन्दर के ही काम आ रहे हैं। लेकिन पता नहीं मेरी ससुराल वाले किस मिट्टी के बने हुए थे कि मुझे इस इल्ज़ाम से बरी करने के बजाये दूसरे और ज्यादा गंभीर इल्ज्öााम से घेर लिया - कैसी कुलच्छनी आयी है कि आते ही महीने भर के भीतर हमारे बलविन्दर का चला चलाया बिजिनेस चला गया। पता नहीं, परदेस में कैसे अकेले संभाल रहा होगा। देखो बिचारे ने पता भी तो अपने किसी दोस्त का दिया है। पता नहीं बेचारे का अपना घर भी बचा है या नहीं।
अब मेरे लिए हालत यह हो गयी थी कि न कहते बनता था न रहते। मैं चारों तरफ से घिर गयी थी। मेरा सबसे बड़ा संकट यही था कि कहीं मम्मी को ये सारी बातें पता न चल जायें। वे बिचारी तो कही की न रहेंगी। उन्हें ये सब बताने का मतलब होता, उन्हें अपनी ही निगाहों में छोटा बनाना, जो मैं किसी भी कीमत पर नहीं कर सकती थी।
अब मेरे पास एक ही उपाय बचता था कि मैं ससुराल की जली-कटी बातों से बचने के लिए कुछ दिनों के लिए मम्मी के पास लौट आऊं और लंदन में स्थितियों के सुधरने का इंतज़ार करुं ।
मैंने बलविन्दर का हौसला बढ़ाते हुए उसे एक लम्बा पत्र लिखा। मैं उसे अपने प्रति उसके घर वालों के व्यवहार के बारे में लिख कर और परेशान नहीं करना चाहती थी। मुझे यह भी पता नहीं था कि उसके घर वाले उसे मेरे बारे में क्या क्या लिखते रहे हैं। मैंने उसे लिखा कि वह अपना ख्याल रखे और मेरी बिलकुल भी चिंता न करे और कि मैं लंदन में उसकी स्थिति सुधरने तक अपनी मम्मी के पास ही रहना चाहूंगी। वह अगला पत्र मुझे मम्मी के पते पर ही लिखे।
और तब मैं मम्मी के घर लौट आयी थी।
यह लौटना हमेशा के लिए लौटना था।
मम्मी को यह समझाना बहुत ही आसान था कि बलविन्दर जब तक मेरे ट्रेवल डॉक्यूमेंट्स तैयार करा के नहीं भेज देता, मैं उन्हीं के पास रहना चाहूंगी। मम्मी को इस बात से खुशी ही होनी थी कि ससुराल में अकेले पड़े रहने के बजाये मैं इंडिया में अपना बाकी समय उनके साथ गुजार रही हूं। मम्मी को न तो मैंने पैसों की बाबत कुछ बताया था और न ही ससुराल में अपने प्रति व्यवहार के बारे में ही। बेकार में ही उन्हें परेशान करने का कोई मतलब नहीं था। मैंने अपना वक्त गुज़ारने के लिए योगा कलासेस ज्वाइन कर लीं। इससे वकत तो ठीक-ठाक गुज़र जाता था साथ ही अपनी सेहत को ठीक रखने का ज़रिया भी मिल गया था। जीवन के कुछ अर्थ भी मिलने लगे थे।
इस पूरे वक्त के दौरान मेरे पास बलविन्दर के गिने चुने पत्र ही आये थे। उनमें वही या उस से मिलती-जुलती दूसरी समस्याओं के बारे में लिखा होता। मैं उसके हर अगले पत्र के साथ सोच में डूब जाती कि आखिर इन समस्याओं का कहीं अंत भी होगा या नहीं और मैं कब तक उसके महीने दो महीने के अंतराल पर आने वाले ख़तों के इंतजार में अपनी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दौर यूं ही गंवाती रहूंगी।
उसे गये छः महीने होने को आये थे और अभी तक उम्मीद की एक किरण भी कहीं नज़र नहीं आ रही थी। उधर मेरे ससुराल वाले मुझे पूरी तरफ भुला बैठे थे। मैं योगाभ्यास का कोर्स पूरा कर चुकी थी। वक्त काटने की नीयत से मैंने तब योगा टीचर की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी। साथ ही साथ नेचुरोपैथी का भी कोर्स ज्वाइन कर लिया। वैसे योगाभ्यास से एक फ़ायदा ज्öारूर हुआ था कि अब मैं झल्लाती या भड़कती नहीं थी और धैर्य से इंतजार करती रहती थी कि जो भी होता है अगर मेरे बस में नहीं है तो वैसा ही होने दो। मेरा शरीर भी योगाभ्यास से थोड़ा और निखर आया था। इस बीच मेरा पासपोर्ट बन कर आ गया था। मैंने इसकी इत्तला बलविन्दर को दे दी थी लेकिन उसका कोई जवाब ही नहीं आ रहा था। मैं इधर परेशान होने के बावजूद कुछ भी नहीं कर पा रही थी। मेरे पास उससे सम्पर्क करने का कोई ज़रिया ही नहीं था।
उन्हीं दिनों हमारे ही पड़ोस के एक लड़के की पोस्टिंग उसके ऑफिस की लंदन शाखा में हुई। जाने से पहले वह मेरे पास आया था कि अगर मैं बलविन्दर को एक खत लिख दूं और उसे एयरपोर्ट आने के लिए कह दूं तो उसे नये देश में शुरूआती दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा। मेरे लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती थी कि इतने अरसे बाद बलविन्दर के पास सीधे ही संदेश भेजने का मौका मिल रहा था। मैंने बलविन्दर को उसके बारे में विस्तार से खत लिख दिया था। तब मैंने बलविन्दर के लिए ढेर सारी चीजें बनायी थीं ताकि उन्हें हरीश के हाथ भेज सकूं। मेरे पत्र के साथ मम्मी ने भी बलविन्दर को एक लम्बा पत्र लिख दिया था। हरीश के लंदन जाने की तारीख से कोई दसेक दिन पहले बलविन्दर का पत्र आ गया था। वह कुछ अलग ही कहानी कह रहा था।
लिखा था बलविन्दर ने। कैसे लिखूं कि मेरे कितने दुर्दिन चल रहे हैं। एक मुसीबत से पीछा छुड़ाया नहीं होता कि दूसरी गले लग जाती है। मैंने तुम्हें पहले नहीं लिखा था कि कहीं तुम परेशान न हो जाओ, लेकिन हुआ यह था कि इंडिया से जो कन्साइनमेंट आया था उसमें पार्टी ने मुझसे पूरे पैसे ले लेने के बावजूद बदमाशी से अपने ही किसी क्लायेंट से लिए कुछ ऐसा सामान भी रख दिया था जिसे यहां लाने की परमिशन नहीं है। उसने सोचा था कि जब मैं कन्साइनमेंट छुड़वा लूंगा तो आराम से अपनी पार्टी को कह कर मुझसे वो सामान मंगवा लेगा। कहीं कुछ गड़बड़ हो गयी तो साफ मुकर जायेगा। और बदकिस्मती से हुआ भी यही। वह माल पकड़ा गया है और इलज़ाम मुझ पर है क्योंकि ये सामान मेरे ही गोडाउन में मिला है।
मेरी कोई सफाई नहीं मानी गयी है। यहां के कानून तुम्हें मालूम नहीं है कि कितनी सख्ती बरती जाती है। अब पता नहीं क्या होगा मेरा। इसी चिंता के चलते कई दिनों से अंडरग्राउंड हो कर मारा-मारा फिर रहा हूं और घर भी नहीं गया हूं। अपने कान्टैक्ट्स की मदद से मामला रफ़ा दफ़ा कराने के चक्कर में हूं। अब संकट ये है कि इम्पोरियम ख्ले तो कुछ कारोबार हो लेकिन मुझे डर है कि कहीं इम्पोरियम के खुलते ही पुलिस मुझे गिरफ्तार न कर ले। तुम भी सोचती होवोगी कि किस पागल से रिश्ता बंधा है कि अभी तो हाथों की मेंहदी भी नहीं उतरी कि ये सब चक्कर शुरू हो गये। लेकिन चिंता मत करो डियर, सब ठीक हो जायेगा। एक अच्छा वकील मिल गया है। है तो अपनी तरफ का लेकिन यहां के कानूनों का अच्छा जानकार है और कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेगा। मैं मामले से तो बच ही जाऊंंगा। मेरा तो कई लाख का माल इस चक्कर में फंसा हुआ है वो भी रिलीज हो जायेगा। बस एक ही दिक्कत है। उसकी फीस कुछ ज्यादा ही तगड़ी है। ये समझ लो कि अगर यहीं इंतज़ाम करना पड़ा तो कम से कम पचास लोगों के आगे हाथ फैलाने पड़ें। मेरी स्थिति तुम समझ पा रही होगी। अंडरग्राउंड होने के कारण मैं सबके आगे हाथ जोड़ने भी नहीं जा सकता। पहले से ही तुम्हारा देनदार हूं और ऊपर से ये मुसीबत। मैं तुम्हारी तरफ ही उम्मीद भरी निगाह से देख सकता हूं। क्या किसी तरह एक डेढ़ लाख का इंतज़ाम हो पायेगा। जानता हूं। तुम्हारे या मम्मी जी के लिए लिए यह रकम बहुत बड़ी है। आप लोग अभी पहले ही इतना ज्यादा कर चुके हैं। लेकिन मैं सच कहता हूं, इस मामले से निकलते ही सब कुछ ठीक हो जायेगा और मैं निश्ंिचत हो कर तुम्हें और मम्मी जी को यहां बुलवाने के लिए कोशिश कर सकूंगा। अब तक तुम्हारा पासपोर्ट भी आ गया होगा। एक ख़ास पता दे रहा हूं। पैसे चाहे इंडियन करेंसी में हो या पाउंड्स में, इसी पते पर भिजवाना। ये पैसे रिज़र्व बैंक की परमिशन के बिना भिजवाये नहीं जा सकते इसलिए तुम्हें कोई और ही जरिया ढूंढना होगा। मैं जानता हूं यह मामला मुझे खुद ही सुलटाना चाहिये था और तुम्हें इसकी तत्ती हवा भी नहीं लगने देनी चाहिये थी, लेकिन मुसीबतें किसी का दरवाजा खटखटा कर तो नहीं ही आतीं। मम्मी जी को मेरी पैरी पौना कहना। जो भी डेवलपमेंट होगा तुम्हें तुरंत लिखूंगा।
पत्र पढ़ कर मैं बहुत परेशान हो गयी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। सच में हो भी रहा है या कोई नाटक चल रहा है। कैसे पता चले कि सच क्या है। एक बात तो थी कि अगर मामला झूठा भी हो तो पता नहीं चल सकता था और सच के बारे में पता करने का कोई ज़रिया ही नहीं था। इतने महीनों के बाद मैंने मम्मी को पहली बार बलविन्दर के पहले के पत्रों के बारे में बताया था। मम्मी भी यह और पिछले पत्र पढ़ कर बहुत परेशान हो गयी थी। बिना पूरी बात जाने एक डेढ़ लाख रुपये और भेजने की भी हम हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे थे। वैसे भी कहीं न कहीं से इंतज़ाम ही करना पड़ता। मेरी शादी में ही मम्मी अपनी सारी बचत खर्च कर चुकी थी।
हम दोनों सारी रात इसी मसले के अलग-अलग पहलुओं के बारे में सोचती रही थीं। हमारे सामने कभी इस तरह की स्थिति ही नहीं आयी थी कि इतनी माथा पच्ची करनी पड़ती। आखिर हम इसी नतीजे पर पहुंचे थे कि मेरा पासपोर्ट आ ही चुका है। क्यों न मैं खुद ही लंदन जा कर सब कुछ अपनी आंखों से देख लूं। आगे-पीछे तो जाना ही है। पता नहीं बलविन्दर कब बुलवाये या बुलवाये भी या नहीं। आखिर रिश्तेदारी के भी सवाल गाहे बगाहे उठ ही जाते थे कि सात-आठ महीने से लड़की घर बैठी हुई है। ले जाने वाले तो महीने-पद्रह दिन में ही साथ ले जाते हैं। अभी इस तरह से जाने से सच का भी पता चल जायेगा। सोचा था हमने कि कोशिश की जाये तो हफ्ते भर में टूरिस्ट वीसा तो बन ही सकता है। साथ देने के लिए हरीश है ही सही। बलविन्दर को एक और तार भेज दिया जायेगा कि वह रिसीव करने आ जाये।
मेरे सारे गहने या तो बेचे गये या गिरवी वगैरह रखे गये। जहां जहां से भी हो सकता था हमने पैसे जुटाये। टिकट और दूसरे इंतजाम करने के बाद मेरे पास लंदन लाने के लिए लगभग एक लाख तीस हजार रुपये इकट्ठे हो गये थे। तय किया था कि तीस हज़ार मम्मी के पास रखवा दूंगी और एक लाख ही ले कर चलूंगी। मुझे बहुत खराब लग रहा था कि मैं एक ही साल में दूसरी बार मम्मी की सारी पूंजी निकलवा कर ले जा रही थी। और कोई उपाय भी तो नहीं था। हमने जानबूझ कर बलविन्दर के घर वालों को इसकी खबर नहीं दी थी। मेरी किस्मत अच्छी थी कि हरीश की कम्पनी की मदद से मुझे टूरिस्ट वीजा वक्त पर मिल गया था और मैं हरीश के साथ उसी फ्लाइट से लंदन आ सकी थी।
और इस तरह मैं हमेशा के लिए लंदन आ गयी थी। लंदन, जिसके बारे में मैं पिछले छः सात महीने से लगातार सपने देख रही थी। कभी सोचा भी नहीं था कि कभी देश की सीमाएं भी पार करने का मौका मिलेगा। मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। दुआ कर रही थी कि बलविन्दर के साथ सब ठीक-ठाक हो और वह हमें एयरपोर्ट लेने भी आया हो। अगर कहीं न आया हो तो.. इस के बारे में मैं डर के मारे सोचना भी नहीं चाहती थी।
हम लंदन पहुंचे तो यहां एक और सदमा मेरा इंतज़ार कर रहा था।
हीथ्रो पर काफी देर तक हम दोनों बलविन्दर इंतजार करते खड़े रहे थे और जब उस जैसी शक्ल का कोई भी आदमी काफी देर तक नज़र नहीं आया तो हमने ग्राउंड स्टाफ की मदद से एनाउंसमेंट भी करवाया लेकिन वह कहीं नहीं था। बलविन्दर के चक्कर में उस बेचारे ने अपने ऑफिस में किसी को खबर नहीं की थी। मैं तो एकदम घबरा गयी थी। एकदम अनजाना देश और पति महाशय का ही कहीं ठिकाना नहीं। पता नहीं उसे पत्र और तार मिले भी हैं या नहीं, लेकिन उसने जो पता ड्राफ्ट भेजने के लिए दिया था, उसी पर तो भेजे थे पत्र और तार। मन ही मन डर भी रही थी कि कहीं और कोई गड़बड़ न हो गयी हो। अब मेरे पास इस के अलावा और कोई उपाय नहीं था कि मैं वह रात हरीश के साथ ही कहीं गुजारूं और अगले दिन तड़के ही बलविन्दर की खोज खबर लूं।
संयोग से हरीश के पास वाइएमसीए के हास्टल का पता था। हम वहीं गये थे। एडवांस बुकिंग न होने के कारण हमें तकलीफ तो हुई लेकिन दो दिन के लिए हमें दो कमरे मिल गये थे। इतनी साध पालने के बाद आखिर मैं अपने होने वाले शहर लंदन आ पहुंची थी और अपनी पहली ही रात अपने पति के बिना एक गेस्ट हाउस में गुज़ार रही थी। संयोग से हरीश के पास एक पूरा दिन खाली था और उसे ऑफिस अगले दिन ही ज्वाइन करना था। हम दोनों अगले दिन निकले थे। अपने पति को खोजने। एकदम नया और अनजाना देश, अलग भाषा और संस्कृति और यहां के भ्झागोल से बिलकुल अनजाने हम दोनों। हमें वाइएमसीए से लंदन की गाइड बुक मिल गयी थी और रिसेप्शनिस्ट ने हमें विलेसडन ग्रीन स्टेशन तक पहुंचने के रास्ते के बारे में, बस रूट और ट्रेन रूट के बारे में बता दिया था। रिसेप्शनिस्ट ने साथ ही आगाह भी कर दिया था कि आप लोग यहां बिलकुल नये हैं और ये इलाका काले हब्शियों का है। ज़रा संभल कर जायें। हमें वह घर ढूंढने में बहुत ज्यादा तकलीफ़ हुई। हमें अभी इस देश में आये हुए पद्रह - सोलह घंटे भी नहीं हुए थे और हम सात समन्दर पार के इतने बड़े और अनजान शहर में बलविन्दर के लिए मारे-मारे फिर रहे थे।
उस पर गुस्सा भी आ रहा था और रह रह कर मन आंशकाओं से भर भी जाता था कि बलविन्दर बिलकुल ठीक हो और हमें मिल जाये।
आखिर दो तीन घंटे की मशक्कत के बाद हम वहां पहुंचे थे और काफी देर तक भटकने के बाद हमें वह घर मिला था। रिसेप्शनिस्ट ने सही कहा था, चारो तरफ हब्शी ही हब्शी नज़र आ रहे थे। गंदे, गलीज और शक्ल से ही डरावने। मैं अपनी ज़िदंगी में एक साथ इतने हब्शी देख रही थी। उन्हें देखते ही उबकाई आती थी।
ये घर मेन रोड से पिछवाड़े की तरफ की गंदी गलियों में डेढ कमरे का छोटा सा फलैट था। जब हरीश ने दरवाजे की घंटी बजायी तो काफी देर बाद एक लड़के ने दरवाजा खोला। वह नशे में धुत्त था। उसी कमरे में चार पांच लोग अस्त व्यस्त हालत में पसरे हुए शराब पी रहे थे। चारों तरफ सिगरेट के टोटे, बिखरे हुए मैले कुचैले कपड़े और शराब की खाली बोतलें। लगता था महीनों से कमरे की सफाई नहीं हुई थी। कमरा एकदम ठंडा था। हरीश ने ही बात संभाली - हमें बलविन्दर जी से मिलना है। उन्होंने हमें यहीं का पता दे रखा है। हरीश ने एक अच्छी बात यह की कि वहां बलविन्दर को न पा कर और माहौल को गड़बड़ देखते ही उसने मेरा परिचय बलविन्दर की पत्नी के रूप में न देकर अपनी मित्र के रूप में दिया।
सारे लड़के छोटा-मोटा धंधा करने वाले इंडियन ही लग रहे थे। हमें देखते ही वे लोग थोड़ा डिस्टर्ब हो गये थे। जिस लड़के ने दरवाजा खोला था, उसने हमें अंदर आने के लिए तो कह दिया था लेकिन अंदर कहीं बैठने की जगह ही नहीं थी। हम वहीं दरवाजे के पास खड़े रह गये थे। काफी देर तक तो वे एक दूसरे के ही पूछते रहे कि ये लोग कौन से बलविन्दर को पूछ रहे हैं। उसके काम ध्ंाधे के बारे में भी वे पक्के तौर पर कुछ नहीं बता पाये कि वह क्या करता है। जब मैंने उन्हें उसकी शक्ल सूरत के बारे में और मिडलसैक्स में उसके इंडियन हैंडीक्राफट्स के इम्पोरियम के बारे में बताया तो वे सब के सब हँसने लगे - मैडम कहीं आप मेरठी वैल्डर बिल्ली को तो नहीं पूछ रहे। जब मैंने हां कहा - येस येस हम उसी का पूछ रहे हैं, लेकिन उसने तो बताया था.. उसका वो इम्पोरियम ??
मैंने किसी तरह बात पूरी की थी। जवाब में वह फिर से हंसने लगा था - वो बिल्ली तो जी यहां नहीं रहता। कभी कभार आ जाता है। शायद इंडिया से किसी डौक्यूमेंट्स का इंतजार था उसे। बता रहा था यहीं के पते पर आयेगा।
- लेकिन आपका वह बिल्ली. .. वह करता क्या है? मैंने दोबारा पूछा था। जवाब में एक दूसरा लड़का हंसने लगा था - बताया न वैल्डर है। पता नहीं आपका बिल्ली वही है। दरअसल अपने घर वालों की नजर में हम सब के सब किसी न किसी शानदार काम से जुड़े हुए हैं। ये जो आप संजीव को देख रहे हैं, एम ए पास है और अपनी इंंडिया में लोग यही जानते हैं कि ये यहां पर एक बहुत बड़ी कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर है जबकि असलियत में ये यहां पर सुबह और शाम के वक्त लोगों के घरों में सब्जी की होम डिलीवरी करता है। अपने परिचय के जवाब में संजीव नाम के लड़के ने हमें तीन बार झुक कर सलाम बजाया। तभी दूसरा लड़का बीच में बोल पड़ा - जी मुझे इंडिया में लोग हर्ष कुमार के नाम से जानते हैं। उनके लिए मैं यहां एक मेडिकल लैब एनालिस्ट हूं, लेकिन मैं लंदन का हैश एक बर्गर कार्नर में वेटर का काम करता हूं और दो सौ बीस पाउंड हफ्ते के कमाता हूं। क्यों ठीक है ना और टिप ऊपर से। गुजारा हो जाता है। यह कहते हुए उसने अपने गिलास की बची-खुची शराब गले से नीचे उतारी और जोर जोर से हंसने लगा।
पहले वाले लड़के ने तब अपनी बात पूरी की थी - और मैं प्रीतम सिंह इंडिया में घर वालों की नज़र में कम्प्यूटर प्रोग्रामर और यहां की सचाई में सबका प्यारा प्रैटी द वाशरमैन। मैं बेसमेंट लांडरी चलाता हूं और गोरों के मैले जांगिये धोता हूं। यह कहते हुए उसके मुंह पर अजीब-सा कसैलापन उभर आया था और उसने अपना गिलास एक ही घूंट में खाली कर दिया था।
काफी हील हुज्ज़त के बाद ही उन्होंने माना कि बलविन्दर वहीं रहता है लेकिन उसके आने-जाने का कोई ठिकाना नहीं है।
मेरी आंखों के आगे दिन में ही तारे नाचने लगे थे। इसका मतलब - हम ठगे गये हैं। जिस बलविन्दर को मैं जानती हूं और जिस बिल्ली का ये लोग जिक्र कर रहे हैं वो दो अलग अलग आदमी हैं या एक ही हैं। दोनों ही मामलों में मुसीबत मेरी ही थी। तभी उनमें से एक लड़के की आवाज सुनायी दी थी - वैसे जब उसके पास इंडिया से लाये पैसे थे तो अकेले ऐश करता रहा लेकिन जब खतम हो गये तो इधर उधर मारा मारा फिरता है। जब कहीं ठिकाना नहीं मिलता तो कभी कभार यहां चक्कर काट लेता है । वो भी अपनी डाक के चक्कर में।
मेरा तन-मन सुलगने लगा था। अब वहां खड़े रहने का कोई मतलब नहीं था। मैंने हरीश को इशारा किया था चलने के लिए। जब हम वापिस चलने लगे थे तो उन्हीं में से एक ने पूछा था - कोई मैसेज है बिल्ली के लिए तो मैंने पलट कर गुस्से में जवाब दिया था - हां है मैसेज। कहीं अगर मिले आपको आपका बिल्ली या हमारा बिल्ली कभी अपनी डाक लेने आये तो उससे कह दीजिये कि इंडिया से उसकी बीवी मालविका उसके लिए उसके डौक्यूमेंट्स ले कर आ गयी है। उसे ज़रूरत होगी। मैं वाइएमसीए में ठहरी हुई हूं। आ कर ले जाये।
वे सब के सब अचानक ठगे रहे गये थे। अब अचानक उन्हें लगा था कि नशे में वे क्या भेद खोल गये हैं। अब सबका नशा हिरण हो चुका था लेकिन किसी को नहीं सूझा था कि सच्चाई सुन कर कुछ रिएक्ट ही कर पाता।
चलते समय मैं एकदम चुप थी। कुछ भी नहीं सूझ रहा था मुझे। मुझे बिलकुल पता नहीं चला था कि हम हॉस्टल कब और कैसे पहुंचे थे।
कमरे में पहुंचते ही मैं बिस्तर पर ढह गयी थी। अरसे से रुकी मेरी रुलाई फूट पड़ी थी।
तो यह था तस्वीर का असली रंग। मैं यहां न आयी होती तो उसकी कहानी पर रत्ती भर भी शक न करती क्योंकि वह मुझे हनीमून के दौरान ही अपने कारोबार के बारे में इतने विस्तार से सारी बातें बता चुका था। अब मुझे समझ में आ रहा था कि उसने तब अपने इस सो कॉल्ड धंधे के बारे में इतनी लम्बी लम्बी और बारीक बातें क्यों बतायीं थीं।
अब सब कुछ साफ हो चुका था कि हम छले जा चुके थे और मेरी शादी पूरे दहेज के साथ अब एक याद न किये जा सकने वाले भद्दे मज़ाक में बदल चुकी थी। मेरा कौमार्य, मेरा सुहाग, मेरा हनीमून, मेरी हसरतें, मेरी खुशियां, मेरे छोटे छोटे सपने, बलविन्दर जैसे झूठे और मक्कार आदमी के साथ बांटे गये नितांत अंतरंग क्षण, मेरे सारे अरमान सब कुछ एक भयानक धोखा सिद्ध हो चुके थे। मैं अपनी रुलाई रोक नहीं पा रही थी। मुझे अपने ही तन से घिन्न आने लगी थी। अपने आप पर बुरी तरह से गुस्सा आने लगा था कि मैंने यह सोने जैसा तन उस धोखेबाज, झूठे और फरेबी आदमी को सौंपा था। मेरे शरीर पर उसने हाथ फिराये थे और मैंने उस आदमी को, जो मेरा पति कहलाने लायक बिलकुल भी नहीं था, एक बार नहीं बल्कि कई कई बार अपना शरीर न केवल सौंपा था, बल्कि जिसकी भोली भाली बातों के जाल में फंसी मैं कई कई महीनों से उसके प्रेम में पागल बनी हुई थी। अब उन पलों को याद करके भी मुझे घिन्न होने लगी थी। मेरा मन बुरी तरह छलनी हो चुका था। मैं दहाड़ें मार कर रोना चाहती थी, लेकिन यहां इस नये और अपरिचित माहौल में मैं खुल कर रो भी नहीं पा रही थी। यहां कोई सीन क्रियेट नहीं करना चाहती थी। मैं गुस्से से लाल पीली हो रही थी। हरीश थोड़ी देर मेरे कमरे में बैठ कर मुझे एकांत देने की नीयत से अपने कमरे में चला गया था। उस बेचारे को भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक ये सब क्या हो गया था।
मुझे मम्मी के लिए भी अफ़सोस हो रहा था। उन्हें फोन करके इस स्टेज पर ये बातें बता कर परेशान नहीं करना चाहती थीं। अब इसमें उनका क्या कुसूर कि उनका देखा-भाला जमाई खोटा निकल गया था। उन्होंने तो उससे सिर्फ दो-चार मुलाकातें ही की थीं और उसके शब्दजाल में ही फंसी थी। मैं मूरख तो न केवल उसकी बातों में फंसी थी, उसे अपना सब कुछ न्यौछावर कर आयी थी। अपना सुहाग भी और पांच लाख रुपये भी। मम्मी से बड़ा कुसूर तो मेरा ही था। अब सज़ा भी मुझ अकेली को ही भोगनी थी।
उस सारी रात मैं अकेली रोती छटपटाती करवटें बदलती रही। बार बार मुझे अपने इस शरीर से घृणा होने लगती कि मेरा इतना सहेज कर संभाल कर रखा गया शरीर दूषित किया भी तो एक झूठे और मक्कार आदमी ने। पता नहीं मुझसे पहले कितनी लड़कियों के साथ खिलवाड़ कर चुका होगा। अब यह बात जिस किसी को भी बतायी जाये, हमारा ही मज़ाक उड़ायेगा कि तुम्हीं लोग लंदन का छोकरा देख कर लार टपकाये उसके आगे पीछे हो रहे थे। हमने तो पहले ही कहा था, बाहर का मामला है, लड़के को अच्छी तरह ठोक बजा कर देख लो, लेकिन हमारी सुनता ही कौन है। अब भुगतो।
अब मेरा सबसे बड़ा संकट यही था कि मैं इस परदेस में अकेली और बेसहारा किसके भरोसे रहूंगी। इतनी जल्दी वापिस जाने का भी तो नहीं सोचा जा सकता था। क्या जवाब दूंगी सबको कि मैं लुटी पिटी न शादीशुदा रही, न कुंवारी। मैं सोच-सोच के मरी जा रही थी कि क्या होगा मेरा अब। पता नहीं बलविन्दर से मुलाकात भी हो पायेगी या नहीं और मिलने पर भी कभी बलविन्दर जैसे बेईमान और झूठे आदमी से पैच अप हो पायेगा या नहीं या फिर मैं हमेशा हमेशा से आधी कुंवारी और आधी शादीशुदा वाली हालत में उसका या उसके सुधरने का उसका इंतजार करते करते बूढ़ी हो जाऊंगी। मुझे ये सोच सोच कर रोना आ रहा था कि जिस आदमी के अपने पेपर्स का ठिकाना नहीं है, रहने खाने और काम का ठौर नहीं है, अगर उससे कभी समझौता हो भी गया तो मुझे कहां रखेगा और कहां से खिलायेगा। वहां तो फिर भी मम्मी थी और सब लोग थे, लेकिन यहां सात समंदर पार मेरा क्या होगा। मैं भी कैसी मूरख ठहरी, न आगा सोचा न पीछा, लपकी लपकी लंदन चली आयी।
वह पूरी रात मैंने आंखों ही आंखों में काट दी थी और एक पल के लिए भी पलकें नहीं झपकायीं थीं।
हॉस्टल में हमारा यह तीसरा दिन था। आखिरी दिन। बड़ी मुश्किल से हमें एक और दिन की मोहलत मिल पायी थी। इतना ज़रूर हो गया था कि अगर हम चाहते तो आगे की तारीखों की एडवांस बुकिंग करवा सकते थे लेकिन अभी एक बार तो हॉस्टल खाली करना ही था। हमारा पहला दिन तो बलविन्दर को खोजने और उसे खोने में ही चला गया था। वहां से वापिस आने के बाद मैं कमरे से निकली ही नहीं थी। हरीश बेचारा खाने के लिए कई बार पूछने आया था। उसके बहुत जिद करने पर मैंने सिर्फ सूप ही लिया था। अगले दिन वह अपने ऑफिस चला गया था लेकिन दिन में तीन-चार बार वह फोन करके मेरे बारे में पूछता रहा था। मुझे उस पर तरस भी आ रहा था कि बेचारा कहां तो बलविन्दर के भरोसे यहां आ रहा था और कहां मैं ही उसके गले पड़ गयी थी। जिस दिन हमें हॉस्टल खाली करना था, उसी शाम को वापिस आने पर उसने दो तीन अच्छी खबरें सुनायी थीं। उसके लिए ग्रीनफोर्ड इलाके में एक गुजराती परिवार के साथ पेइंग गेस्ट के रूप में रहने का इत्ंाज़ाम हो गया था। लेकिन उसने एक झूठ बोल कर मेरा काम भी बना दिया था। उसने वहां बताया था कि उसकी बड़ी बहन भी एक प्रोजैक्ट के सिलसिले में उसके साथ आयी हुई है पद्रह बीस दिन के लिए। फिलहाल उसी घर में उसके लिए भी एक अलग कमरे का इंतज़ाम करना पड़ेगा ताकि वह अपना प्रोजेक्ट बिना किसी तकलीफ़ के पूरा कर सके। बीच-बीच में उसे काम के सिलसिले में बाहर भी जाना पड़ सकता है। हरीश की अक्लमंदी से ये इंतज्öााम हो गये थे और हमें अगले दिन ही वहां शिफ्ट कर जाना था।
मैं दोहरी दुविधा में फंस गयी थी। एक तरफ हरीश पर ढेर सारा प्यार आ रहा था जो मेरी इतनी मदद कर रहा था और दूसरी तरफ बलविन्दर पर बुरी तरह गुस्सा भी आ रहा था कि देखो, हमें यहां आये तीसरा दिन है और अब तक जनाब का पता ही नहीं है।
दो तीन दिन के इस आत्म मंथन के बीच मैं भी तय कर चुकी थी कि मैं अब यहां से वापिस नहीं जाऊंगी। बलविन्दर या नो बलविन्दर, अब यही मेरा कार्य क्ष्टात्र रहेगा। तय कर लिया था कि काम करने के बारे में यहां के कानूनों के बारे में पता करूंगी और सारे काम कानून के हिसाब से ही करूंगी।
अब संयोग से हरीश ने रहने का इंतजाम कर ही दिया था। अभी तो मेरे पास इतने पैसे थे कि ठीक-ठाक तरीके से रहते हुए बिना काम किये भी दो तीन महीने आराम से काटे जा सकते थे।
हम अभी रिसेप्शन पर हिसाब कर ही रहे थे, तभी वह आया था। बुरी हालत थी उसकी। बिखरे हुए बाल। बढ़ी हुई दाढ़ी और मैले कपड़े। जैसे कई दिनों से नहाया ही न हो। मैं उसे सात आठ महीने बाद देख रही थी। अपने पति को, बलविन्दर को। वह मेरी तरफ खाली खाली निगाहों से देख रहा था।
उसने मेरी तरफ देखा, हरीश की तरफ देखा और हमारे सामान की तरफ देखा जैसे तय कर रहा हो, इनमें से कौन-कौन से बैग मेरे हो सकते हैं। फिर उसने बिना कुछ पूछे ही दो बैग उठाये और हौले से मुझसे कहा - चलो।
मैं हैरान - ये कै सा आदमी है, जिसमें शर्म हया नाम की कोई चीज ही नहीं है। जिस हालत में मुझसे सात महीने बाद मिल रहा है, चार दिन से मैं लंदन में पड़ी हुई हूं, मेरी खबर तक लेने नहीं आया और अब सामान उठाये आदेश दे रहा है - चलो। कैसे व्यवहार कर रहा है। हरीश भी उसका व्यवहार देख कर हैरान था। हरीश की हैरानी का कारण यह भी था कि बलविन्दर के दोनों हाथों में उसी के बैग थे। बलविन्दर पूरी निश्चिंतता से बैग उठाये बाहर की तरफ चला जा रहा था। मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहूं और कैसे कहूं कि हे मेरे पति महाशय, क्या यही तरीका है एक सभ्य देश के सभ्य नागरिक का आपके देश में पहली बार पधारी पत्नी का स्वागत करने का।
मुझे गुस्सा भी बहुत आ रहा था और रुलाई भी फूटने को थी - क्या मैं इसी शख्स का इतने महीनों से गुरदासपुर में इंतज़ार कर रही थी कि मेरा पिया मुझे लेने आयेगा और मैं उसके साथ लंदन जाऊंगी।
बलविन्दर ने जब देखा कि मैं उसके पीछे नहीं आ रही हूं बल्कि वहीं खड़ी उसका तमाशा देख रही हूं तो दोनों बैग वहीं पर रखे, वापिस पलटा और मेरे एकदम पास आ कर बोला - घर चलो, वहीं आराम से सारी बातें करेंगे। और वह मेरे जवाब का इंतज़ार किये बिना फिर बैगों की तरफ चल दिया। मैं दुविधा में थी, ख्शा होऊं कि मेरा पति मुझे लेने आ गया है या रोऊंं कि जिस हाल में आया है, न आया होता तो अच्छा होता। उधर हरीश हैरान परेशान मेरे इशारे का इंतज़ार कर रहा था।
मैंने यही बेहतर समझा कि आगे पीछे एक बार तो बलविन्दर के साथ जाना ही पड़ेगा। उसका पक्ष भी सुने बिना मुक्ति नहीं होगी तो इसे क्यों लटकाया जाये। जो कुछ होना है आज निपट ही जाये। उसके साथ बाकी जीवन गुज़ारना है तो आज ही से क्यों नहीं और अगर नहीं गुज़ारना है तो उसका भी फैसला आज ही हो जाये।
मैंने हरीश से फुसफुसा कर कहा - सुनो हरीश
- जी दीदी
- आज तो मुझे इनके साथ जाने ही दो। जो भी फ़ैसला होगा मैं तुम्हें फोन पर बता दूंगी। अलबत्ता पेइंग गेस्ट वाली मेरी बुकिंग कैंसिल मत करवाना।
- ठीक है दीदी, मैं आपके फोन का इंतज़ार करूंगा। बेस्ट ऑफ लक, दीदी।
हम दोनों आगे बढ़े थे। हमें आते देख बलविन्दर की आंखों में किसी भी तरह की चमक नहीं आयी थी। उसने फिर से बैग उठा लिये थे। मुझे हंसी भी आ रही थी - देखो इस शख्स को, चौथे दिन मेरी खबर लेने आया है। न हैलो न और कोई बात, बस बैग उठा कर खड़ा हो गया है।
मैंने हरीश का झूठा परिचय कराया था - ये हरीश है। मेरी बुआ का लड़का। हमारी शादी के वक्त बंबई में था। यहां नौकरी के लिए आया है।
बलविन्दर ने एक शब्द बोले बिना अपना हाथ आगे बढ़ा दिया था।
हरीश ने तब अपने बैग बलविन्दर के हाथ से लिये थे और अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया था - चलता हूं दीदी। अपनी खबर देना। ओके जीजाजी, कहते हुए वह तेज़ी से बाहर निकल गया था।
मिनी कैब में बैठा बलविन्दर लगातार बाहर की तरफ देखता रहा था। पूरे रास्ते न तो उसने मेरी तरफ देखा था और न ही उसने एक शब्द ही कहा था। मैं उम्मीद कर रही थी और कुछ भी नहीं तो कम से कम मेरा हाथ ही दबा कर अपने आप को मुझसे जोड़ लेता। मैं तब भी उसके सारे सच-झूठ मान लेती। पता नहीं क्या हो गया है इसे। इतने अजनबियों की तरह व्यवहार कर रहा है।
मिनी कैब विलेसडन ग्रीन जैसी ही किसी गंदी बस्ती में पहुंच गयी थी। वह ड्राइवर को गलियों में दायें बायें मुड़ने के लिए बता रहा था।
आखिर हम आ पहुंचे थे।
क्या कहती इसे - मेरा घर.. ..मेरी ससुराल .. ..या एक और पड़ाव....।. बलविन्दर ने दरवाजा खोला था। सामान अंदर रखा था। मैं उम्मीद कर रही थी अब तो वह आगे बढ़ कर मुझे अपने गले से लगा ही लेगा और मुझ पर चुंबनों की बौछार कर देगा। मेरे सारे शरीर को चूमते- चूमते खड़े-खड़े ही मेरे कपड़े उतारते हुए मुझे सोफे या पलंग की तरफ ले जायेगा और उसके बाद.. मैं यही उम्मीद कर सकती थी.. चाह सकती थी और इस तरह के व्यवहार के लिए तैयार भी थी। आख़िर हम नव विवाहित पति पत्नी थे और पूरे सात महीने बाद मिल रहे थे, लेकिन उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया था और रसोई में चाय बनाने चला गया था।
मैंने देखा था, यह घर भी उन लड़कों वाले उस घर की तरह ही था लेकिन उसकी तुलना में साफ-सुथरा था और सामान भी बेहतर और ज्यादा था। मैं सोच ही रही थी कि अगर यह घर बलविन्दर का है तो उसने उस गंदे से घर का पता क्यों दिया था। लेकिन दो मिनट में ही मेरी शंका का समाधान हो गया था। यह घर भी बलविन्दर का नहीं था। जरूर उसके किसी दोस्त का रहा होगा और इसका इंतज़ाम करने में ही बलविन्दर को दो तीन दिन लग गये होंगे। जब मैं बाथरूम में गयी तो बाथरूम ने पूरी पोल खोल दी थी। वहां एक नाइट गाउन टंगा हुआ था। बलविन्दर नाइट गाउन नहीं पहनता, यह बात उसने मुझे हनीमून के वक्त ही बता दी थी। वह रात को सोते समय किसी भी मौसम में बनियान और पैंट पहन कर ही सोता था। बाथरूम में ही रखे शैम्पू और दूसरे परफयूम उसकी चुगली खा रहे थे। ये दोनों चीजें ही बलविन्दर इस्तेमाल नहीं करता था।
कमरे में लौट कर मैंने ग़ौर से देखा था, वहां भी कई चीजें ऐसी थीं जो बलविन्दर की नहीं हो सकती थीं। किताबों के रैक में मैंने जो पहली किताब निकाल कर देखी उस पर किसी राजेन्दर सोनी का नाम लिखा हुआ था। दूसरी और तीसरी किताबें भी राजेन्दर सोनी की ही थीं।
बलविन्दर अभी भी रसोई में ही था। वहां से डिब्बे खोलने बंद करने की आवाजें आ रही थीं। मुझे इतने तनावपूर्ण माहौल में भी हँसी आ गयी। जरूर चाय पत्ती चीनी ढूंढ रहा होगा।
आखिर वह चाय बनाने में सफल हो गया था। लेकिन शायद खाने के लिए कुछ नहीं खोज पाया होगा। वह अब मेरे सामने बैठा था। मैं इंतज़ार कर रही थी कि वह कुछ बोले तो बात बने। लेकिन वह मुझसे लगातार नज़रें चुरा रहा था।
बात मैंने ही शुरू की थी- ये क्या हाल बना रखा है। तुम तो अपने बारे में ज़रा-सी भी लापरवाही पसंद नहीं करते थे।
- क्या बताउं€, कितने महीने हो गये, इन मुसीबतों की वजह से मारा-मारा फिर रहा हूं। अपने बारे में सोचने की भी फुर्सत नहीं मिल रही है। तुम.. तुम.. अचानक .. इस तरह से .. बिना बताये..।
- तुम्हें अपनी परेशानियों से फुर्सत मिले तो दुनिया की कुछ खबर भी मिले .. मैंने तुम्हें दो तार डाले, दो खत डाले। वहां हम हीथ्रो पर एक घंटा तुम्हारा इंतज़ार करते रहे। एनाउंसमेंट भी करवाया और तुम्हें खोजने वहां तुम्हारे उस पते पर भी गये। और तुम हो कि आज चौथे दिन मिलने आ रहे हो। इस पर भी तुमने एक बार भी नहीं पूछा... कैसी हो.. मेरी तकलीफ़ का ज़रा भी ख्याल नहीं था तुम्हें।
- सच में मैं मुसीबत में हूं। मेरा विश्वास तो करो मालविका, मैं बता नहीं सकता, मुझे आज ही पता चला कि ....
- झूठ तो तुम बोलो मत.. तुम हमेशा से मुझसे झूठ बोलते रहे हो। एक के बाद दूसरा झूठ।
- मेरा यकीन करो, डीयर, मुझे सचमुच आज ही पता चला।
- सच बताओ तुम्हारा असली परिचय क्या है, और तुम्हारा घर कहां है। कोई घर है भी या नहीं,.. मुझे गुस्सा आ गया था।
इतनी देर में वह पहली बार हँसा था - तुम तो स्कॉटलैंड यार्ड की तरह ज़िरह करने लगी।
- तो तुम्हीं बता दो सच क्या है।
- सच वही है जो तुम जानती हो।
- तो जो कुछ तुम्हारे उन लफंगे दोस्तों ने बताया, वो किसका सच है।
- तुम भी उन शराबियों की बातों में आ गयीं। क्या है कि उन लोगों का खुद का कोई काम धंधा है नहीं, न कुछ करने की नीयत ही है। बस जो भी उनकी मदद न करे उसके बारे में उलटी सीधी उड़ा देते हैं। अब पता नहीं मेरे बारे में उन्होंने तुम्हारे क्या कान भरे हैं।
- तो ये वैल्डर बिल्ली कौन है।
- बिल्ली ... अच्छा वो ...था एक। अब वापिस इंडिया चला गया है। लेकिन तुम उसके बारे में कैसे जानती हो।
- मुझे बताया गया है तुम्हीं बिल्ली वैल्डर हो।
- बकवास है।
- ये घर किसका है?
- क्यों .. अब घर को क्या हो गया...मेरा ही है। मैं तुम्हें किसी और के घर क्यों लाने लगा।
- तो बाथरूम में टंगा वो नाइट गाउन, शैम्पू, परफयूम्स और ये किताबें.. .. कौन है ये राजेन्दर सोनी?
हकलाने लगा बलविन्दर - वो क्या है कि जब से बिजिनेस के चक्करों में फंसा हूं, काम एकदम बंद पड़ा है। कई बार खाने तक के पैसे नहीं होते थे मेरे पास, इसीलिए एक पेइंग गेस्ट रख लिया था।
- बलविन्दर, तुम एक के बाद एक झूठ बोले जा रहे हो। क्यों नहीं एक ही बार सारे झूठों से परदा हटा कर मुक्त हो जाते।
- यकीन करो डियर मेरा, मैं सच कर रहा हूं।
- तकलीफ तो यही है कि तुम मुझसे कभी सच बोले ही नहीं। यहीं तुम्हारे इस घर में आ कर मुझे पता चल रहा है कि मकान मालिक के कपड़े तो अटैची में रहते हैं और पेइंग गेस्ट के कपड़े अलमारियों में रखे जाते हैं। मकान मालिक रसोई में चाय और चीनी के डिब्बे ढूंढने में दस मिनट लगा देता है और अपने ही घर में मेहमानों की तरह जूते पहने बैठा रहता है।
- तुम्हें लिखा तो था मैंने कि कब से अंडरग्राउंड चल रहा हूं। कभी कहीं सोता हूं तो कभी कहीं।
- मैं तुम्हारी सारी बातों पर यकीन कर लूंगी। मुझे अपने शो रूम के पेपर्स दिखा दो।
- वो तो शायद विजय के यहां रखे हैं। वह फिर से हकला गया था।
- लेकिन शो रूम की चाबी तो तुम्हारे पास होगी।
- नहीं, वो वकील के पास है।
- तुम्हारे पास अपने शोरूम का पता तो होगा। मुझे गुस्सा आ गया था - कम से कम टैक्सी में बैठे बैठे दूर से तो दिखा सकते हो। मैं उसी में तसल्ली कर लूंगी।
- दिखा दूंगा,. तुम इतने महीने बाद मिली हो। इन बातों में समय बरबाद कर रही हो। मेरा यकीन करो। मैं तुम्हें सारी बातों का यकीन करा दूंगा। अब यही तुम्हारा घर है और तुम्हें ही संभालना है। यह कहते हुए वह उठा था और इतनी देर में पहली बार मेरे पास आ कर बैठा था। उस समय मैं उस शख्स से प्यार करने और उसे खुद को प्यार करने देने की बिलकुल मनस्थिति में नहीं थी। यहां तक कि उसका मुझे छूना भी नागवार गुज़र रहा था। मैंने उसका बढ़ता हुआ हाथ झटक दिया था और एक आसान सा झूठ बोल दिया था - अभी मैं इस हालत में नहीं हूं। मेरे पीरियड्स चल रहे हैं।
वह चौंक कर एकदम पीछे हट गया था और फिर अपनी जगह जा कर बैठ गया था। उसे इतना भी नहीं सूझा था कि पीरियड्स में सैक्स की ही तो मनाई होती है, अरसे बाद मिली बीवी का हाथ थामने, उसे अपने सीने से लगाने और चूमने से कुछ नहीं होता। मैंने भी तय कर लिया था, जब तक वह अपनी असली पहचान नहीं बता देता, मैं उसे अपने पास भी नहीं फटकने दूंगी। बेशक उस वक्त मैं सैक्स के लिए बुरी तरह तड़प रही थी और मन ही मन चाह रही थी कि वह मुझसे जबरदस्ती भी करे तो मैं मना नहीं करूंगी। लेकिन वह तो हाथ खींच कर एकदम पीछे ही हट गया था।
मेरा वहां यह तीसरा दिन था। ये तीनों दिन वहां मैंने एक मेहमान की तरह काटे थे। जब घर के मालिक की हालत ही मेहमान जैसी हो तो मैं भला कैसे सहज रह सकती थी। हम आम तौर पर इस दौरान चुप ही रहे थे। इन तीन दिनों में मैंने उससे कई बार कहा था, चले शो रूम देखने, वकील से मिलने या विजय के यहां शो रूम के पेपर्स देखने लेकिन वह लगातार एक या दूसरे बहाने से टालता रहा।
मैं तीन दिन से उसकी लंतरानियां सुनते सुनते तंग आ चुकी थी। हम इस दौरान दो एक बार ही बाज़ार की तरफ गये थे। सामान लेने और बाहर खाना खाने और दो एक बार फोन करने। मम्मी को अपनी पहुंच की खबर भी देनी थी। कब से टाल रही थी। मैंने मम्मी को सिर्फ यही बताया कि यहां सब ठीक ठाक है और मैं बाकी बातें विस्तार से पत्र में लिखूंगी। बलविन्दर की अब तक की सारी बातें उसके खिलाफ़ जा रही थीं लेकिन फिर भी वह बताने को तैयार नहीं था कि उसकी असलियत क्या है। वह हर बार एक नया बहाना बना देता। एकाध बार फोन करने के बहाने बाहर भी गया लेकिन लौट कर यही बताया कि वो घर पर नहीं है, बाहर गया है, कल आयेगा या परसों आयेगा। आखिर तंग आ कर मैंने उसे अल्टीमेटम दे दिया था - अगर कल तक तुमने मुझे अपनी असलियत का कोई सुबूत नहीं दिखाया तो मेरे पास यह मानने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा कि तुम और कोई नहीं, बिल्ली वैल्डर ही हो और तुम मुझसे लगातार झूठ बोलते रहे हो। तब मुझे यहां इस तरह रोकने का कोई हक नहीं रहेगा।
पूछा था उसने - कहां जाओगी मुझे छोड़ कर..।
जवाब दिया था मैंने - जब सात समंदर पार करके यहां तक आ सकती हूं तो यहां से कहीं और भी जा सकती हूं।
- इतना आसान नहीं है यहां अकेले रहना। मैं आदमी हो कर नहीं संभाल पा रहा हूं...।
- झूठे आदमी के लिए हर जगह तकलीफें ही होती हैं।
- तुम मुझे बार बार झूठा क्यों सिद्ध करने पर तुली हुई हो। मैं तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊं,..
- दुकान के, घर के, काराबार के पेपर्स दिखा दो.. मैं यकीन कर लूंगी और न केवल अपने सारे आरोप वापिस लूंगी बल्कि तुम्हें मुसीबतों से बाहर निकालने के लिए अपनी जान तक लड़ा दूंगी। पता नहीं तुम्हारा पासपोर्ट भी असली है या नहीं। कहीं चोरी छुपे तो नहीं आये हुए हो यहां ?
- वक्त आने दो। सारी चीजें दिखा दूंगा।
- मैं उसी वक्त का इंतजार कर रही हूं।
- यू आर टू डिफिकल्ट ।
लेकिन तीसरी रात वह टूट गया था। हम दोनों अलग अलग सो रहे थे। रोजाना इसी तरह सोते थे। मैं उसे अपने पास भी नहीं फटकने दे रही थी। वह अचानक ही आधी रात को मेरे पास आया था और मेरे सीने से लग कर फूट-फूट कर रोने लगा था। उसका इस तरह रोना मुझे बहुत अखरा था लेकिन शायद वह भी थक चुका था और अपना खोल उतार कर मुक्त हो जाना चाहता था। चलो, कहीं तो बर्फ पिघली थी। मैंने उसे पुचकारा था, चुप कराया था और उसके बालों में उंगलियां फिराने लगी थी।
उसने तब कहा था - हम सब कुछ भुला कर नये सिरे से ज़िंदगी नहीं शुरू कर सकते क्या। मैं मानता हूं, मैं तुमसे कुछ बातें छुपाता रहा हूं, लेकिन इस समय मैं सचमुच मुसीबत में हूं और अगर तुम भी मेरा साथ नहीं दोगी तो मैं बिलकुल टूट जाउं€गा। और वह फफक फफक कर रोने लगा था।
उस रात मैंने उसे स्वीकार कर लिया था और कहा था - ठीक है। तुम अब चुप हो जाओ। इस बारे में हम बाद में बात करेंगे।
बेशक उसमें अब पहले वाला जोश खरोश नहीं रह गया था। शायद उसकी मानसिक हालत और कुछ हद तक आर्थिक हालत भी इसके लिए जिम्मेवार थी। शायद यह डर भी रहा हो कि कहीं मैं सचमुच चली ही न जाऊं।
अगले दिन उसके व्यवहार में बहुत तब्दीली आ गयी थी और वह सहजता से पेश आ रहा था। कई दिन बाद उसने शेव की थी और ढंग से कपड़े पहने थे। मुझे घुमाने ले गया था और बाहर खाना खिलाया था। एक ही बार के सैक्स से और अपने झूठ से मुक्ति पा कर वह नार्मल हो गया था। मैं इंतज़ार कर रही थी कि वह अपने बारे मे सब कुछ सच सच बता देगा लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वह ऐसे व्यवहार कर रहा था मानो कुछ हुआ ही न हो। इसके बजाये उसने रात को बिस्तर पर आने पर पहला सवाल यही पूछा - मैंने तुम्हें कुछ पैसों के बारे में लिखा था, कुछ इंतज़ाम हो पाया था क्या....।
मैं हैरान हो गयी थी। कल रात तो नये सिरे से ज़िंदगी शुरुकरने की बात कही जा रही थी और अब..कहीं कल रात का नाटक मुझसे पैसे निकलवाने के लिए ही नाटक तो नहीं था।
फिर भी कहा था मैंने - अपने वकील से मिलवा दो। मैं उसकी फीस का इंतजाम भी कर दूंगी।
- नहीं, दरअसल मैं कोई नया धंधा शुरू करना चाहता था।
- क्यों, मैंने छेड़ा था - वो इम्पोरियम यूं ही हाथ से जाने दोगे?
- अब छोड़ो भी उस बात को। कहा न... कुछ नया करना चाहता हूं। कुछ मदद कर पाओगी।
अब आया था ऊंट पहाड़ के नीचे। मैंने उस वक्त तो उसे साफ मना कर दिया था कि बड़ी मुश्किल से हम किराये के लायक ही पैसे जुटा पाये थे। बस, किसी तरह मैं आ पायी हूं। वह निराश हो गया था। मैं जानती थी, अगर उसे मैं सारे पैसे सौंप भी दूं तो भी कोई क्रांति नहीं होने वाली है। बहुत मुश्किल था अब उस पर विश्वास कर पाना। अब इस परदेस में कुल जमा यही पूंजी मेरे पास थी। अगर कहीं ये भी उसके हत्थे चढ़ गयी तो मैं तो कहीं की न रहूंगी। मन का एक कोना यह भी कह रहा था पैसा पति से बढ़ कर तो नहीं है। अब जब उसने माफी मांग ही ली है तो क्यें नहीं उसकी मदद कर देती। आखिर रहना तो उसी के साथ ही है। जो कुछ कमायेगा, घर ही तो लायेगा। अब ये तो कोई तुक नहीं है कि पैसे घर में बेकार पड़े रहें और घर का मरद काम करने के लिए पूंजी के लिए मारा मारा फिरे ....।
और इस तरह मैंने उस पर एक और बार विश्वास करके उसे पांच सौ पाउंड दिये थे। नोट देखते ही उसकी आंखें एकदम चमकने लगीं थीं।
कहा था मैंने उससे - बस, यही सब कुछ है मेरे पास। इसके अलावा मेरे पास एक धेला भी नहीं है। अगर कहीं कल के दिन तुम मुझे घर से निकाल दो तो मेरे पास पुलिस को फोन करने के लिए एक सिक्का भी नहीं है।
- तुम बेकार में शक कर रही हो। मैं भला तुम्हें घर से क्यों निकालने लगा। तुमने तो आकर मेरी अंधेरी ज़िंदगी में नयी रौशनी भर दी है। अब देखना इन पांच सौ पाउंडों के कितने हज़ार पाउंड बना कर दिखाता हूं।
लेकिन इस बार भी मैंने ही धोखा खाया था। वह पैसे लेने के बाद कई दिन तक सारा सारा दिन गायब रहता लेकिन ये सारे पैसे पांच- सात दिन में ही अपनी मंज़िल तलाश करके बलविन्दर से विदा हो गये थे। कारण वही घिसे पिटे थे। जो काम हाथ में लिया था, उसका अनुभव न होने के कारण घाटा हो गया था। एक बार फिर वह नये सिरे से बेकार था।
इधर वह अब मुझे पहले की तरह ही खूब प्यार करने लगा था, इधर मैंने एक बात पर गौर किया था कि वह रात के वक्त लाइटें जला कर मेरा पूरा शरीर बहुत देर तक निहारता रहता और उसकी खूब तारीफ करता। मुझे बहुत शरम आती लेकिन अच्छा भी लगता कि मैं अभी उसकी नज़रों से उतरी नहीं हूं।
लेकिन इसकी सचाई भी जल्दी ही सामने आ गयी थी। एक दिन वह एक बढ़िया कैमरा ले कर आया था और अलग-अलग पोज में मेरी बहुत सारी तस्वीरें खींचीं थीं। जब तस्वीरें डेवलप हो कर आयी थीं तो वह बहुत खुश था। तस्वीरें बहुत ही अच्छी आयी थीं। एक दिन वह ये सारी तस्वीरें लेकर कहीं गया था तो बहुत खुश खुश घर लौटा था।
बताया था उसने - एक ऐड एजेंसी को तुम्हारी तस्वीरें बहुत पसंद आयी हैं। वे तुम्हें मॉडलिंग का चांस देना चाहते हैं। अगर तुम्हारी तस्वीरें सेलेक्ट हो जायें तो तुम्हें मॉडलिंग का एक बहुत बड़ा एसाइनमेंट मिल सकता है। लेकिन उसके लिए एक फोटो सैशन उन्हीं के स्टूडियो में कराना होगा। क्या कहती हो... हाथ से जाने दें यह मौका क्या....।
यह मेरे लिए अनहोनी बात थी। अच्छा भी लगा था कि यहां भी खूबसूरती के कद्रदान बसते हैं। अपनी फिगर और चेहरे मोहरे की तारीफ बरसों से देखने वालों की निगाह में देखती आ रही थी। एक से बढ़ कर एक कम्पलीमेंट पाये थे लेकिन मॉडलिंग जैसी चीज के लिए गुरदासपुर जैसी छोटी जगह में सोचा भी नहीं जा सकता था। अब यहां लंदन में मॉडलिंग का प्रस्ताव.. वह भी आने के दस दिन के भीतर.. रोमांच भी हो रहा था और डर भी था कि इसमें भी कहीं धोखा न हो। वैसे भी बलविन्दर के बारे में इतनी आसानी से विश्वास करने को जी नहीं चाह रहा था। बलविन्दर ने मेरी दुविधा देख कर तसल्ली दी थी - कोई जल्दीबाजी नहीं है.. आराम से सोच कर बताना.. ऐसे मामलों में हड़बड़ी ठीक नहीं होती। मैं भी इस बीच सारी चीजें देख भाल लूं।
मैंने भी सोचा था - देख लिया जाये इसे भी.. बलविन्दर साथ होगा ही। कोई जबरदस्ती तो है नहीं। काम पसंद न आया तो घर वापिस आ जाऊंगी।
जर्मन फोटोग्राफर की आंखें मुझे देखते ही चमकने लगीं थीं। तारीफ भरी निगाहों से मुझे देखते हुए उसने कहा था - यू आर ग्रेट, सच ए प्रॅटी फेस एंड परफैक्ट फिगर.. आइ बैट यू विल बी एन इंसटैंट हिट। वैलकम माय डियर.. मुझे रोमांच हो आया था। अपनी तारीफ में आज तक बीसियों कम्पलीमेंट सुने थे लेकिन कभी भी किसी अजनबी ने पहली ही मुलाकात में इतने साफ शब्दों में कुछ नहीं कहा था।
मुझे अंदर स्टूडियो में ले जाया गया था। बलविन्दर देर तक उस अंग्रेज फोटोग्राफर से बात करता रहा था। जब मुझे मेकअप के लिए ले जाया जाने लगा तो बलविन्दर ने मुझे गुडलक कहा था और बेशरमी से हँसा था - अब तो तुम टॉप क्लास मॉडल हो। हमें भूल मत जाना। मुझे उसका इस तरह हँसना बहुत खराब लगा था। लेकिन माहौल देख कर मैं चुप रह गयी थी।
फोटाग्राफर की असिस्टेंट ने मेरा मेक अप किया था। उसके बाद एक और लड़की आयी थी जिसने मुझे एक पैकेट पकड़ाते हुए कहा - ये कॉस्ट्यूम है। चेंज रूम में जा कर पहन लीजिये। मैं कुछ समझी थी और कुछ नहीं समझी थी। लेकिन जब भीतर जा कर पैकेट खोल देखा तो मेरे तो होश ही उड़ गये थे। दो इंंच की पट्टी की नीले रंग की ब्रा थी और तीन इंच की पैंटी। अब सारी बातें मेरी समझ में आ गयी थीं - बलविन्दर का मेरे शरीर को कई कई दिन तक घूरते रहना, उसकी हँसी, मेरे फोटो खींचना और यहां तक घेर-घार का लाना और उसकी कुटिल हँसी हँसते हुए कहना - अब तो तुम टॉप क्लास मॉडल हो। हमें भूल मत जाना।
मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरा अपना पति इतना गिर भी सकता है कि अभी मुझे आये हुए चार दिन भी नहीं हुए और मेरी नंगी तस्वीरें खिंचवाने ले आया है। पैसों की हेराफेरी फिर भी मैं बरदाश्त कर गयी और उसे माफ भी कर दिया था लेकिन उसकी ये हरकत..मैं गुस्से से लाल पीली होते हुए चेंज रूम से बाहर आयी थी और बलविन्दर को पूछा था।
फोटोग्राफर ने बदले में मुझसे ही बहुत ही प्यार से पूछा था - कोई प्राब्लम है मैडम? लेकिन जब मैंने बलविन्दर को ही बुलाने के लिए कहा तो उसने बताया था - आपके हसबैंड ने यहां से एक फोन किया था। उन्हें अचानक ही एक पार्टी से मिलने जाना पड़ा। उन्हें दो एक घंटे लग जायेंगे। वे कह गये थे कि अगर उन्हें देर हो जाये तो आप घर चली जायें। डोंट वरी मैडम, वे घर की चाबी दे गये हैं। हमारी कार आपको घर छोड़ आयेगी।
यह सुनते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी थी। यह क्या हो रहा था मेरे भगवान, मेरा अपना पति मुझसे ऐसे काम भी करवा सकता है। इससे तो अच्छा होता मैं यहां आती ही नहीं।
फोटोग्राफर यह सीन देख कर घबरा गया था। उसने तुरंत अपनी असिस्टैंट को बुलाया था। वह मुझे भीतर ले गयी थी। पूछा था - आपकी तबीयत तो ठीक है। मैं उसे कैसे बताती कि अब तो कुछ भी ठीक नहीं रहा। वह देर तक मेरी पीठ पर हाथ फे रती रही थी। जब मैं कुछ संभली थी तो उसने फिर पूछा था - बात क्या है। मैं उसे अपनी दोस्त ही समझूं और पूरी बात बताऊं। वह मेरी पूरी मदद करेगी।
तब मैंने बड़ी मुश्किल से उसे सारी बात बतायी थी। यह भी बताया था कि यहां आये हुए मुझे दस दिन भी नहीं हुए हैं और मेरा पति मुझसे झूठ बोल कर यहां ले आया है। मुझे जरा सा भी अंंदाजा होता कि मुझे स्विमिंग कॉस्ट्यूम्स के लिए मॉडलिंग करनी है तो मैं आती ही नहीं। उसने पूरे धैर्य के साथ मेरी बात सुनी थी और जा कर अपने बॉस को बताया था। उसका धैर्य देख कर लगता था उसे इस तरह की सिचुएशन से पहले भी निपटना पड़ा होगा। फोटोग्राफर ने तब मुझे अपने चैम्बर में बुलाया था और उस लड़की की मौजूदगी में मुझसे कई कई बार माफी मांगी थी कि कम्यूनिकेशन गैप की वजह से मुझे इस तरह की अपमानजनक स्थिति से गुजरना पड़ा। तब उसी ने मुझे बताया था कि बलविन्दर खुद ही उनके पास मेरी तस्वीरें ले कर आया था और इस तरह का प्रोपोजल रखा था कि मेरी वाइफ किसी भी तरह की मॉडलिंग के लिए तैयार है।
- अगर हमें पहले पता होता मि. बलविन्दर ने आपसे झूठ बोला है तो...खैर.. डोंट वरी, हम आपकी मर्जी के बिना कुछ भी नहीं करेंगे। बस, एक ही प्राब्लम है कि मिस्टर बलविन्दर जाते समय हमसे इस एसाइनमेंट के लिए एडवांस पैसे ले गये हैं। वो तो खैर कोई बहुत बड़ी प्राब्लम नहीं है। फिर भी मेरा एक सजेशन है। अगर आपको मंजूर हो। आप एक काम करें मैडम। जस्ट ए हम्बल रिक्वेस्ट। आप इसी साड़ी में ही, या इस एलबम में जो भी कपड़े आपको ग्रेसफुल लगें, उनमें कुछ फोटोग्राफ्स ख्चांवा लें। जस्ट फ्यू ब्यूटीफुल फोटोग्राफ्स ऑफ ए ग्रेसफुल एंड फोटोजेनिक फेस। ओनली इफ यू लाइक। हमारा एसाइनमेंट भी हो जायेगा और आपकी मॉडलिंग भी। हम इस बारे में मि. बलविन्दर को कुछ नहीं बतायेंगे। आइ थिंक इसमें आपको कोई एतराज नहीं होगा।
उसने तब मुझे कई एलबम दिखाये और बताया था कि `उस` तरह की फोटोग्राफी तो वे कम ही करते हैं, ज्यादातर फोटोग्राफी वे नार्मल ड्रेसेस में ही करते हैं। उस लड़की ने भी मुझे समझाया था कि मेरे जैसी खूबसूरत लड़की को इस प्रोपोजल के लिए ना नहीं कहनी चाहिये।
और इस तरह मॉडलिंग का मेरा पहला एसाइनमेंट हुआ था। तकरीबन तीस चालीस फोटो खींचे गये थे। कहीं कोई जबरदस्ती नहीं, कोई भद्दापन नहीं था, बल्कि हर फोटो में मेरे भीतरी सौन्दर्य को ही उभारने की कोशिश की गयी थी। फोटोग्राफर की असिस्टैंट हँस भी रही थी कि रोने के बाद मेरा चेहरा और भी उजला हो गया था। मुझे वहां पूरा दिन लग गया था लेकिन बलविन्दर वापिस नहीं आया था।
चलते समय फोटोग्राफर ने मुझे डेढ़ सौ पाउंड दिये थे। एसाइनमेंट की बाकी रकम। उन्होंने तब बताया था कि कुल तीन सौ पाउंड बनते थे मेरे जिसमें से डेढ़ सौ पाउंड बलविन्दर पहले ही ले चुका है। उन्होंने यह भी पूछा था कि वह इनकी कॉपी मुझे किस पते पर भिजवाये। मैंने उनसे अनुरोध किया था कि पहली बात तो वह इनकी एक भी कॉपी बलविन्दर को न दें और न ही उसे इस फोटो सैशन के बारे में बतायें। दूसरे इनकी कॉपी मैं बाद में कभी भी मंगवा लूंगी। उन्होंने मेरी दोनों बातें मान ली थीं और एक रसीद मुझे दे दी थी ताकि मैं किसी को भेज कर फोटो मंगवा सकूं। जब मैं चलने लगी थी तो उन्होंने एक बार फिर मुझसे माफी मांगी थी और कहा था कि मैं उनके बारे में कोई भी बुरा ख्याल न रखूं और उन्हें फिर सेवा का मौका दूं। उन्होंने एक बार फिर अनुरोध किया था कि वे मुझे दोबारा अपने स्टूडियो में एक और फोटो सैशन के लिए देख कर बहुत खुश होंगे।
चलते चलते उन्होंने झिझकते हुए मुझे एक बंद लिफाफा दिया था और कहा था - इसे मैं घर जा क र ही खोलूं। यही लिफाफा लेकर बलविन्दर आया था और वे पूरा का पूरा पैकेट मुझे लौटा रहे हैं। उन्होंने हिन्दुस्तानी तरीके से हाथ जोड़ कर मुझे विदा किया था। मैं आते समय सोच रही थी कि एक तरफ यहां ऐसे भी लोग हैं जो सच्चाई पता चलने पर पूरी इन्सानियत से पेश आते हैं और दूसरी तरफ मेरा अपना पति मुझे बाज़ार में बेचने के लिए छोड़ गया था.. मैंने सोच लिया था अब उसके घर में एक मिनट भी नहीं रहना है।
मैंने घर पहुंचते ही लिफाफा खोल कर देखा था - लिफाफा खोलते ही मेरा सिर घूमने लगा था - बलविन्दर फोटोग्राफ्स के जो पैकेट वहां दे कर आया था उसमें मेरी सोते समय और नहाते समय ली गयी कुछ न्यूड तस्वीरें थीं। मेरी जानकारी के बिना खींची गयी नंगी और अधनंगी तस्वीरें। मुझे पता ही नहीं चल पाया कि उसने ये तस्वीरें कब खींची थीं। छी मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि मेरा अपना पति इतना नीच और घटिया इन्सान हो सकता है कि मेरी दलाली तक करने चला गया। मैं ज़ोर ज़ोर से रोने लगी थी।
हम हनीमून में भी और यहां संबंध ठीक हो जाने के बाद हम ऐसे ही बिना कपड़े पहने सो जाते थे। नये शादीशुदा पति पत्नी में ये सब चलता ही रहता है। इसमें कुछ भी अजीब नहीं होता। अपनी ये तस्वीरें देखते हुए मुझे यही लगा था कि उसने ये तस्वीरें मेरे सो जाने के बाद या नहाते समय चुपके से ले ली होंगी। सच, कितना घिनौना हो जाता है कई बार मरद कि अपनी ही ब्याहता की नंगी तस्वीरें बाहर बेचने के लिए दिखाता फिरे।
मेरी किस्मत अच्छी थी कि वह उस भले फोटोग्राफर के पास ही गया था जिसने न केवल मेरा मान रखा बल्कि ईमानदारी से पूरा का पूरा कवर भी लौटा दिया है। मैंने रोते-रोते सारे के सारे फोटो फाड़ कर उनकी चिंदियां बना दी थीं।
तभी मैंने घड़ी देखी थी। पांच बजने वाले थे। हरीश अभी ऑफिस में ही होगा। मैं तुरंत लपकी थी। मेरी किस्मत बहुत अच्छी थी कि हरीश फोन पर मिल गया था। वह बस, निकलने ही वाला था। मैंने रुंधी आवाज में उससे कहा था - यहां सब कुछ खत्म हो चुका है। मुझे घर छोड़ना है। अभी और इसी वक्त। मुझे तुरंत मिलो।
उसने तब मुझे दिलासा दी थी - मैं ज़रा भी न घबराऊं। सिर्फ यह बता दूं कि मेरे घर के सबसे निकट कौन सा ट्यूब स्टेशन पड़ता है। मुझे इतना ही पता था कि हम जब भी कहीं जाते थे से ही ट्रेन पकड़ते थे। मैंने होंस्लो वेस्ट स्टेशन का ही नाम बता दिया था। हरीश ने मुझे एक मिनट होल्ड करने के लिए कहा था। शायद अपने किसी साथी से पूछ रहा था कि उसे मुझ तक पहुंचने में कितनी देर लगेगी। हरीश ने तब मुझे एक बार फिर आश्वस्त किया था कि मैं होंस्लो वेस्ट स्टेशन पहुंच कर साउथ ग्रीनफोर्ड स्टेशन का टिकट ले लूं और प्लेटफार्म नम्बर एक पर एंट्री पांइट पर ही उसका इंतज़ार करूं। उसे वहां तक पहुंचने में पचास मिनट लगेंगे। वह किसी भी हालत में छः बजे तक पहुंच ही जायेगा। ओके।
मैं लपक कर बलविन्दर के अपार्टमेंट में पहुंची थी। संयोग से वह अभी तक नहीं आया था। कितना शातिर आदमी है यह !! मैंने सोचा था, मुझे अंधी खाई में धकेलने के बाद मुझसे आंखें मिलाने की हिम्मत भी नहीं हैं उसमें। मैंने अपने बैग उठाये थे। दरवाजा बंद किया था और एक टैक्सी ले कर स्टेशन पहुंच गयी थी। कितनी अभागी थी मैं कि हफ्ते भर में ही मेरा घर मुझसे छूट रहा था। मैंने ऐसे घर का सपना तो नहीं देखा था। रास्ते में मैंने बलविन्दर के घर की चाबी टैक्सी में से बाहर फैंक दी थी। होता रहे परेशान और खाजता रहे मुझे।
स्टेशन पहुंच कर भी मेरी धुकधुकी बंद नहीं हो रही थी। कहीं बलविन्दर ने मुझे देख लिया तो गजब हो जायेगा। घर तो खैर मैं तब भी छोड़ती लेकिन मैं अब उस आदमी की शक्ल भी नहीं देखना चाहती थी और न ही उसे यह हवा लगने देना चाहती थी कि मैं कहां जा रही हूं। एक अच्छी बात यह हुई थी कि उसने न तो हरीश से मिलते वक्त और न ही बाद में ही उसके बारे में ज्यादा पूछताछ की थी।
हरीश वक्त पर आ गया था। उसके साथ उसका वही कलीग था जिसने उसे पेइंग गेस्ट वाली जगह दिलवायी थी। हरीश ने मेरे बैग उठाये थे और हम बिना एक भी शब्द बोले ट्रेन में बैठ गये थे।
और इस तरह मेरा घर मुझसे छूट गया था। मेरी शादी के सिर्फ सात महीने और ग्यारह दिन बाद। इस अरसे में से भी मैंने सिर्फ सैंतीस दिन अपने पति के साथ गुज़ारे थे। इन सैंतीस दिनों में से भी तीन दिन तो हमने आपस में ढंग से बात भी नहीं की थी। सिर्फ चौंतीस दिन की सैक्सफुल और सक्सैसफुल लाइफ थी मेरी और मैं एक अनजान देश की अनजान राजधानी में पहुंचने के एक हफ्ते में ही सड़क पर आ गयी थी।
इतना कहते ही मालविका मेरे गले से लिपट कर फूट फूट कर रोने लगी है। उसका यह रोना इतना अचानक और ज़ोर का है कि मैं हक्का बक्का रह गया हूं। मुझे पहले तो समझ में ही नहीं आया कि अपनी कहानी सुनाते-सुनाते अचानक उसे क्या हो गया है। अभी तो भली चंगी अपनी दास्तान सुना रही थी।
मैं उसे अपने सीने से भींच लेता हूं और उसे चुप कराता हूं - रोओ नहीं निक्की। तुम तो इतनी बहादुर लड़की हो और अपने को इतने शानदार तरीके से संभाले हुए हो। ज़रा सोचो, तुम्हें अगर उसी दलाल के घर रहना पड़ता तो..तो तुम्हारी ज़िंदगी ने क्या रुख लिया होता ..। कई बार आदमी के लिए गलत घर में रहने से बेघर होना ही बेहतर होता है। चीयर अप मेरी बच्ची..। यह कर मैं उसका आसुंओं से तर चेहरा चुम्बनों से भर देता हूं।
वह अभी भी रोये जा रही है। मैं उसके बालों में उंगलियां फिराता हूं। गाल थपथपाता हूं।
अचानक वह अपना सिर ऊपर उठाती है और रोते-रोते पूछती है - तुम्हीं बताओ दीप, मेरी गलती क्या थी? मैं कहां गलत थी जो मुझे इतनी बड़ी सज़ा दी गयी। चौबीस-पचीस साल की उम्र में, जब मेरे हाथों की मेंहदी भी ढंग से सूखी नहीं थी, शादी के सात महीने बाद ही न मैं शादीश्जादा रही न कुंवारी, न घर रहा मेरा और न परिवार। मेरी प्यारी मम्मी और देश भी मुझसे छूट गये। मुझे ही इतना खराब पति क्यों मिला कि मैं ज़िंदगी भर के लिए अकेली हो गयी..। मैं इतने बड़े जहान में बिलकुल अकेली हूं दीप.... बहुत अकेली हूं ... इतनी बड़ी दुनिया में मेरा अपना कोई भी नहीं है दीप.. ..। मैं तुम्हें बता नहीं सकती, अकेले होने का क्या मतलब होता है। वह ज़ार ज़ार रोये जा रही है।
मैं उसे चुप कराने की कोशिश करता हूं - रोओ नहीं निक्की, मैं हूं न तुम्हारे पास.. इतने पास कि तुम मेरी सांसें भी महसूस कर सकती हो। तुम तो जानती ही हो, हमारी हथेली कितनी भी बड़ी हो, देने वाला उतना ही देता है जितना उसे देना होता है। अब चाहे लंदन हो या तुम्हारा गुरदासपुर, तुम्हें इस आग से गुज़र कर कुंदन बनना ही था।
- दीप मुझे छोड़ कर तो नहीं जाओगे? वह गुनगुने उजाले में मेरी तरफ देखती है।
- नहीं जाऊंगा बस, देखो मैं भी तो तुम्हारी तरह इतना अके ला हूं। मुझे भी तो कोई चाहिये जो .. जो मेरा अकेलापन बांट सके। हम दोनों एक दूसरे का अकेलापन बांटेंगे और एक सुखी संसार बनायेंगे।
- प्रामिस ?
- हां गॉड प्रामिस। मैं उसके होठों पर एक मोहर लगा कर उसकी तसल्ली कर देता हूं - अब चुप हो जाओ, देखो हम कितने घंटों से इस तरह लेटे हुए हैं। बहुत रात हो गयी है। अब सोयें क्या ?
वह अचानक उठ बैठी है - क्या मतलब? कितने बजे हैं?
- अरे ये तो सुबह के साढ़े आठ बज रहे हैं। इसका मतलब हम दोनों पिछले कई घंटों से इसी तरह लेटे हुए आपके साथ आपके बचपन की गलियों में घूम रहे थे।
- ओह गौड, मैं इतनी देर तक बोलती रही और तुमने मुझे टोका भी नहीं .. आखिर उसका मूड संभला है।
- टीचरजी ने बोलने से मना जो कर रखा था।
- बातें मत बनाओ ज्यादा। कॉफी पीओगे?
- न बाबा, मुझे तो नींद आ रही है।
- मैं अपने लिये बना रही हूं। पीनी हो तो बोल देना। और वह कॉफी बनाने चली गयी है। सुरमई अंंधेरे उजाले में सामने रखे शोकेस के शीशे में रसोई में से उसका अक्स दिखायी दे रहा है।
कॉफी पीते हुए पूछता हूं मालविका से - कभी दोबारा मुलाकात हुई बलविन्दर से?
- नो क्वेश्चंस प्लीज़।
- लेकिन ये अधूरी कहानी सुना कर तरसाने की क्या तुक है। बेशक कहानी का वर्तमान मेरे सामने है, और मेरे सामने खुली किताब की तरह है लेकिन बीच में जो पन्ने गायब हैं, उन पर क्या लिखा था, यह भी तो पता चले। मैं उसके नरम बाल सहलाते हुए आग्रह करता हूं ।
- मैंने कहा था ना कि अब और कोई सवाल नहीं पूछोगे।
- अच्छा एक काम करते हैं। तुम पूरी कहानी एक ही पैराग्राफ में, नट शैल में बता दो। फिर गॉड प्रॉमिस, हम ज़िंदगी भर इस बारे में बात नहीं करेंगे। अगर ये बीच की खोई हुई कड़ियां नहीं मिलेंगी तो मैं हमेशा बेचैन होता रहूंगा।
- ओ. के.। मैं सिर्फ दस वाक्यों में कहानी पूरी कर दूंगी। टोकना नहीं।
- ठीक है। बताओ।
- तो सुनो। बलविन्दर और उसके कई साथी जाली पासपोर्ट और वीज़ा ले कर यहां रह रहे थे। वे लोग पता नहीं कितने देशों की अवैध तरीके से यात्रा करेन के बाद वे इंगलैंड पहुंचते थे। शादी के एक महीने तक भी वह इसी चक्कर में वह वहां रुका था कि एंजेंट की तरफ से ग्रीन सिग्नल नहीं मिल रहा था। कुछ साल पहले सबको यहां से वापिस भेज दिया गया था। उसे मेरे बारे में आखिर पता चल ही गया था। उसने दो-एक मैसेज भिजवाये, दोस्तों को भिजवाया, समझौता कर लेने के लिए, लेकिन खुद आ कर मिलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था। जब वे लोग पकड़े गये तो उसने फिर संदेश भिजवाया था कि मैं उसे किसी तरह छ़ुड़वा लूं लेकिन मैं साफ मुकर गयी थी कि इस आदमी से मेरा कोई परिचय भी है।
शुरू शुरू में बहुत मुश्किलें सामने आयीं। रहने, खाने, इज्ज़त से जीने और अपने आपको संभाले रहने में लेकिन हिम्मत नहीं हारी। पहले तो मैं हरीश वाली जगह ही पेइंग गेस्ट बन कर रहती रही, फिर कई जगहें बदलीं। पापी पेट भरने के लिए कई उलटे सीधे काम किये। स्कूलों में पढ़ाया, दफ्तरों, फैक्टरियों, दुकानों में काम किया, बेरोजगार भी रही, भूखी भी सोयी। एक दिन अचानक एक इंडियन स्कूल में योगा टीचर की वेकेंसी निकली तो एप्लाई किया। चुन ली गयी। इस तरह योगा टीचर बनी। धीरे धीरे आत्म विश्वास बढ़ा। धीरे धीरे क्लांइट्स बढ़े तो कम्पनियें वगैरह में जा कर क्लासेस लेनी शुरू कीं। अलग से भी योगा क्लासेस चलानी शुरू कीं। घर खरीदा, हैल्थ सेंटर खोला, बड़े बड़े ग्राहक मिलने शुरू हुए तो स्कूल की नौकरी छोड़ी। कई ग्रुप मिले तो हैल्थ सेंटर में स्टाफ रखा। काम बढ़ाया। रेट्स बढ़ाये और अपने तरीके से घर बनाया, सजाया और ठाठ से रहने लगी। ज़िंदगी में कई दोस्त मिले लेकिन किसी ने भी दूर तक साथ नहीं दिया। अकेली चली थी, अकेली रहूंगी और ... अचानक उसकी आवाज़ भर्रा गयी है।
- और क्या? मैं हौले से पूछता हूं ।
- इस परदेस में कभी अपने अपार्टमेंट में अकेली मर जाऊंगी और किसी को पता भी नहीं चलेगा।
- ऐसा नहीं कहते। अब मैं हूं न तुम्हारे पास।
- यह तो वक्त ही बतायेगा। कह कर मालविका ने करवट बदल ली है।
मैं समझ पा रहा हूं, अब वह बात करने के मूड में नहीं है। मैं उसके बालों में उंगलियां फिराते हुए उसे सुला देता हूं।
ज़िंदगी फिर से उसी ढर्रे पर चलने लगी है। बेशक मालविका के साथ गुज़ारे उन बेहतरीन और हसीन पलों ने मेरी वीरान ज़िंदगी को कुछ ही वक्त के लिए सही, खुशियों के सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था, लेकिन फिर भी हम दोनों तब से नहीं मिले हैं। हम दोनों को ही पता है, वे पल दोबारा नहीं जीये जा सकते। उन मधुर पलों की याद के सहारे ही बाकी ज़िंदगी काटी जा सकती है। हमने फोन पर कई बार बात की है, लेकिन उस मुलाकात का ज़िक्र भी नहीं किया है।
सिरदर्द से लगभग मुक्ति मिल चुकी है और मैं फिर से स्टोर्स में पूरा ध्यान देने लगा हूं। मालविका ने प्रेम का जो अनूठा उपहार दिया है मुझे, उसकी स्मञित मात्र से मेरे दिन बहुत ही अच्छी तरह से गुज़र जाते है। कहीं एक जाने या रहने या उन खूबसूरत पलों को दोहराने की बात न उसने की है और न मैंने ही इसका ज़िक्र छेड़ा है।
गौरी के साथ संबंधों में जो उदासीनता एक बार आ कर पसर गयी है, उसे धो पोंछ कर बुहारना इतना आसान नहीं है। इस बात को भी अब कितना अरसा बीत चुका है जब उसके पापा ने मुझसे कहा था कि वे पैसों के बारे में गौरी को बता देंगे और मेरे साथ बेहतर तरीके से पेश आने के लिए उसे समझा भी देंगे लेकिन दोनों ही बातें नहीं हो पायी हैं। मैं अभी भी अक्सर ठन ठन गोपाल ही रहता हूं। हम दोनों ही अब बहुत कम बात करते हैं। सिर्फ काम की बातें। जब उसे ही मेरी परवाह नहीं है तो मैं ही अपना दिमाग क्यों खराब करता रहूं। सिर्फ भरपूर सैक्स की चाह ही उसे मुझसे जोड़े हुए है। मालविका ने जब से मेरी परेशानियों के कारणों के बारे में मुझे बताया है, मैंने अपने मन पर किसी भी तरह का बोझ रखना कम कर दिया है, जब चीजें मेरे बस में नहीं हैं तो मैं ही क्यों कुढ़ता रहूं। जब से संगीत और डायरी का साथ शुरुहुआ है, ये ही मेरे दोस्त बन गये हैं। मालविका के साथ गुज़ारे उस खूबसूरत दिन की यादें तो हैं ही मेरे साथ।
इस महीने मुझे यहां पांच साल पूरे हो जायेंगे। इस पूरे समय का लेखा-जोखा देखता हूं कि क्या खोया और क्या पाया। बेशक देश छूटा, बंबई की आज़ाद ज़िंदगी छूटी, प्रायवेसी छूटी, अलका और देवेद्र जी का साथ छूटा और अच्छे रुतबे वाली नौकरी छूटी, गुड्डी वाला हादसा हुआ, लेकिन बदले में बहुत कुछ देखने सीखने को मिला ही है। बेशक शुरुशुरू के सालों में गलतफहमियों में जीता रहा, कुढ़ता रहा और अपनी सेहत खराब करता रहा। लेकिन अब सब कुछ निथर कर शांत हो गया है। मैं अब इन सारी चीजों को लेकर अपना दिमाग खराब नहीं करता।
गौरी ने अपने पापा का संदेश दिया है - आपको यहां पांच साल पूरे होने को हैं और आपकी ब्रिटिश सिटीजनशिप के लिए एप्लाई किया जाना है। किसी दिन किसी के साथ जा कर ये सारी फार्मेलिटीज पूरी कर लें।
पूछा है मैंने गोरी से - क्या क्या मांगते हैं वो, तो उसने बताया है - वो तो मुझे पता नहीं, आप कार्पोरेट ऑफिस में से किसी से पूछ लें या किसी को साथ ले जायें। शिशिर के साथ ही क्यों नहीं चले जाते। उसको तो पता ही होगा। आपका पासपोर्ट और दूसरे पेपर्स वगैरह मैं लॉकर से निकलवा रखूंगी।
और इस तरह पांच साल बाद मेरे सारे सर्टिफिकेट्स, पासपोर्ट और दूसरे कागज़ात मेरे हाथ में वापिस आये हैं। अगर ये कागज पहले ही मेरे पास ही होते तो आज मेरी ज़िंदगी कुछ और ही होती।
शिशिर ने रास्ते में पूछा है - तो जनाब, हम इस समय कहां जा रहे हैं ?
- तय तो यही हुआ था कि ब्रिटिश सिटिजनशिप के लिए जो भी फार्मेलिटिज हैं, उन्हें पूरा करने के लिए आप मुझे ले कर जायेंगे।
- ये आपके हाथ में क्या है? पता नहीं शिशिर आज इस तरह से बात क्यों कर रहा है।
- मेरे सर्टिफिकेट्स और पासपोर्ट वगैरह हैं। इनकी तो जरूरत पड़ेगी ना!!
- अच्छा, एक बात बताओ, ये कागज़ात और कहां कहां काम आ सकते हैं ?
- कई जगह काम आ सकते हैं। शिशिर तुम ये पहेलियां क्यों बुझा रहे हो। साफ साफ बताओ, क्या कहना चाह रहे हो।
- मैं अपने प्रिय मित्र को सिर्फ ये बताना चाह रहा हूं कि जब जा ही रहे हैं तो इमीग्रेशन ऑफिस के बजाये किसी भी ऐसी एअरलांइस के दफ्तर की तरफ जा सकते हैं जिसके हवाई जहाज आपको आपके भारत की तरफ ले जाते हों। बोलो, क्या कहते हो? सारे पेपर्स आपके हाथ में हैं ही सही।
वह अचानक गम्भीर हो गया है - देखो दीप, मैं तुम्हें पिछले पांच साल से घुटते और अपने आपको मारते देख रहा हूं। तुम उस मिट्टी के नहीं बने हो जिससे मेरे जैसे घर जवांई बने होते हैं। अपने आपको और मत मारो दीप, ये पहला और आखिरी मौका है तुम्हारे पास, वापिस लौट जाने के लिए। तुम पांच साल तक कोशिश करते रहे यहां के हिसाब से खुद को ढालने के लिए लेकिन अफसोस, न हांडा परिवार तुम्हें समझ पाया और न तुम हांडा परिवार को समझ कर अपने लिए कोई बेहतर रास्ता बना पाये। और नुकसान में तुम ही रहे। अभी तुम्हारी उम्र है। न तो कोई जिम्मेवारी है तुम्हारे पीछे और न ही तुम्हारे पास यहां साधन ही हैं उसे पूरा करने के लिए। आज पांच साल तक इतनी मेहनत करने के बाद भी तुम्हारे पास पचास पाउंड भी नहीं होंगे। सोच लो, तुम्हारे सामने पहली आज़ादी तुम्हें पुकार रही है। उसने कार रोक दी है - बोलो, कार किस तरफ मोड़ूं?
- लेकिन ये धोखा नहीं होगा? गौरी के साथ और ..
- हां बोलो, बोलो किसक साथ ..
- मेरा मतलब .. इस तरह से चोरी छुपे..
- देखो दीप, तुम्हारे साथ क्या कम धोखे हुए है जो तुम गौरी या हांडा एम्पायरके साथ धोखे की बात कर रहे हो। इन्हीं लोगों के धोखों के कारण ही तुम पिछले पांच साल से ये दोयम दर्जें की ज़िंदगी जी रहे हो। न चैन है तुम्हारी ज़िंदगी में और न कोई कहने को अपना ही है। और तुम इन्हीं झूठे लोगों को धोखा देने से डर रहे हो। जाओ, अपने घर लौट जाओ। न यह देश तुम्हारा है न घर। वहीं तुम्हारी मुक्ति है।
- तुम सही कह रहे हो शिशिर, ये पांच साल मैंने एक ऐसा घर बनाने की तलाश में गंवा दिये हैं जो मेरा था ही नहीं। मैं अब तक किसी और का घर ही संवारता रहा। वहां मेरी हैसियत क्या थी, मुझे आज तक नहीं पता, यहां से लौट जाऊं तो कम से कम मेरी आज़ादी तो वापिस मिल जायेगी। मुझे भी लग रहा है, जो कुछ करना है, अभी किया जा सकता है। सिटीजनशिप के नाटक से पहले ही मैं वापिस लौट सकता हूं। लेकिन मेरे पास तो किराये की बात दूर, एयरपोर्ट तक जाने के लिए कैब के पैसे भी नहीं होंगे।
- देखा, मैंने कहा था न कि हांडा परिवार ने तुम्हें पांच साल तक एक बंधुआ मजदूर बना कर ही तो रख छोड़ा था। किराये की चिंता मत करो। तुम हां या ना करो, बाकी मुझ पर छोड़ दो।
- नहीं शिशिर, तुमने पहले ही मेरे लिए इतना किया, तुमने गुड्डी के लिए पचास हज़ार रुपये भेजे और मुझे बताया तक नहीं, मैं ज़रा नाराज़गी से कहता हूं।
- तो तुम्हें पता चल ही गया था। अब जब गुड्डी ही नहीं रही तो उन पैसों का जिक्र मत करो। यार, अगर मैं तुम्हें इस नरक से निकाल पाया तो वही मेरा ईनाम होगा। दरअसल अगर तुमने भी मेरी तरह खाना कमाना और ऐश करना शुरुकर दिया होता तो मैं तुम्हें कभी भी यहां से इस तरह चोरी छुपे जाने के लिए न कहता। मैं भी तुम्हारी तरह इस घर का दामाद ही हूं। सारी चीजें समझता हूं। इसी घर की वज़ह से मेरा यहां का और वहां इंडिया का घर चल रहे हैं। लेकिन तुम जैसे शरीफ और बहुत इंटैलिजेंट आदमी को इस तरह घुटते हुए और नहीं देख सकता। तुम्हारे लिए चीजें यहां कभी भी नहीं बदलेंगी। और तुम दोबारा विद्रोह करोगे नहीं। मौका भी नहीं मिलेगा। तुम्हें पता है कि तुम अगर उनसे कहो कि तुम एक बार घर जाना चाहते हो तो वे तुम्हें इज़ाजत भी नहीं देंगे।
- ठीक है, मैं वापिस लौटूंगा।
- गुड, तो हम फिलहाल वापिस चलते हैं। गौरी को बता देना, डाम्यूमेंट्स सबमिट कर दिये हैं। काम हो जायेगा। इस बीच तुम एक बार फिर सोच लो, कब जाना है। मैं एक दो दिन में तुम्हारे लिए ओपन टिकट ले लूंगा। बाकी इंतज़ाम भी कर लेंगे इस बीच। लेकिन एक बात तय हो चुकी कि तुम यहां की सिटीजनशिप के लिए एप्लाई नहीं कर रहे हो। चाहो तो इस बीच अपने पुराने ऑफिस को अपने पुराने जॉब पर वापिस लौटने के बारे में पूछ सकते हो। हालांकि उम्मीद कम है लेकिन चांस लिया जा सकता है। किस पते पर वहां से जवाब मंगाना है, वो मैं बता दूंगा।
- लेकिन अगर तुम पर कोई बात आयी तो ? मैंने शंका जताई है।
- वो तुम मुझ पर छोड़ दो। वह हँसा है - मैं हांडा परिवार का खाता पीता दामाद हूं, उनका चौकीदार नहीं जो यह देखता फिरे कि उनका कौन सा घर जवाईं खूंटा तुड़ा कर भाग रहा है और कौन नहीं। समझे। तुम जाओ तो सही। बाकी मुझ पर छोड़ दो।
और हम आधे रास्ते से ही लौट आये हैं।
मैं तय कर चुका हूं कि वापिस लौट ही जाऊं। बेशक खाली हाथ ही क्यों न लौटना पड़े। अब सवाल यही बचता है कि मैं मालविका से किया गया वायदा पूरा करते हुए उसे भी साथ ले कर जाऊं या अकेले भागूं? हालांकि इस बारे में हमारी दोबारा कभी बात नहीं हुई है।
संयोग ही नहीं बना।
मालविका से इस बारे में बात करने का यही मतलब होगा कि तब उसे भी ले जाना होगा। मालविका जैसी शरीफ और संघर्षों से तपी खूबसूरत और देखी-भाली लड़की पा कर मुझे ज़िंदगी में भला और किस चीज की चाह बाकी रह जायेगी। लेकिन फिर सोचता हूं, बहुत हो चुके घर बसाने के सपने। फिलहाल मुझे अपनी ज़िंदगी में कोई भी नहीं चाहिये। अकेले ही जीना है मुझे। मालविका भी नहीं। कोई भी नहीं।
मैं इन सारी मानसिक उथल पुथल में ही उलझा हुआ हूं कि मालविका का फोन आया है -
- बहुत दिनों से तुमने याद भी नहीं किया।
- ऐसी कोई बात नहीं है मालविका, बस यूं ही उलझा रहा। तुम कैसी हो? तुम्हारी आवाज़ बहुत डूबी हुई सी लग रही है। सब ठीक तो है ना..।
- लेकिन ऐसी भी क्या बेरुखी कि अपनों को ही याद न करो।
- बिलीव मी, मैं सचमुच बात करना और मिलना चाह रहा था। बोलो, कब मिलना है?
- रहने दो दीप, जो चाहते तो आ भी तो सकते थे। कम से कम मुझसे मिलने के लिए तो तुम्हें अपाइंटमेंट की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिये।
- मानता हूं मुझसे चूक हुई है। चलो, ऐसा करते हैं , कल लंच एक साथ लेते हैं।
- ठीक है, तो कल मिलते हैं। कह कर उसने फोन रख दिया है।
लेकिन इस बार मैं जिस मालविका से मिला हूं वह बिलकुल ही दूसरी मालविका है। थकी हुई, कुछ हद तक टूटी और बिखरी हुई। मैं उसे देखते ही रह गया हूं। ये क्या हाल बना लिया है मालविका ने अपना। लगता है महीनो बाद सीधे बिस्तर से ही उठ कर आ रही है। ख्दा पर गुस्सा भी आ रहा है कि इतने दिनों तक उसकी खोज खबर भी नहीं ले पाया।
- ये क्या हाल बना रखा है। तुम्हारी सूरत को क्या हो गया है? मैं घबरा कर पूछता हूं।
- मैंने उस दिन कहा था न कि किसी दिन मैं अकेली अपने अपार्टमेंट में मर जाऊंगी और किसी को खबर तक नहीं मिलेगी। वह बड़ी मुश्किल से कह पाती है।
- लेकिन तुम्हें ये हो क्या गया है? मैं उसकी बांह पकड़ते हुए कहता हूं। उसका हाथ बुरी तरह थरथरा रहा है।
- अब क्या करोगे जान कर। इतने दिनों तक मैं ही तुम्हारी राह देखती रही कि कभी तो इस अभागिन ..
- ऐसा मत कहो डीयर, मैंने उसके मुंह पर हाथ रख कर उसे रोक दिया है - तुम्हीं ने तो मुझे यहां नयी ज़िदंगी दी थी और जीवन के नये अर्थ समझाये थे। मैं भला..
- इसीलिए मौत के मुंह तक जा पहुंची इस बदनसीब को कोई पूछने तक नहीं आया। मैं ही जानती हूं कि मैंने ये बीमारी के दिन अकेले कैसे गुज़ारे हैं।
- मुझे सचमुच नहीं पता था कि तुम बीमार हो वरना..
- मैं बहुत थक गयी हूं। वह मेरी बांह पकड़ कर कहती है - मुझे कहीं ले चलो दीप। यहां सब कुछ समेट कर वापिस लौटना चाहती हूं। बाकी ज़िंदगी अपने ही देश में किसी पहाड़ पर गुजारना चाहती हूं। चलोगे?
मेरे पास हां या ना कहने की गुंजाइश नहीं है। मालविका ही तो है जिसने मुझे इतने दिनों से मजबूती से थामा हुआ है वरना मैं तो कब का टूट बिखर जाता।
मैं उसे आश्वस्त करता हूं - ज़रूर चलेंगे। कभी बैठ कर योजना बनाते हैं।
फिलहाल तो मैंने उससे थोड़ा समय मांग ही लिया है। देखूंगा, क्या किया जा सकता है। मालविका भी अगर मेरे साथ जाती है तो उसे अपना सारा ताम-झाम समेटने में समय तो लगेगा ही, उसके साथ जाने में मेरा जाना तब गुप्त भी नहीं रह पायेगा। मेरा तो जो होगा सो होगा, उसने इतने बरसों में जो इमेज बनायी है.. वो भी टूटेगी। सारी बातें सोचनी हैं। तब शिशिर को भी विश्वास में लेना पड़ेगा। उसके सामने मालविका से अपने रिश्ते को भी कुबूल करना पड़ेगा। मेरी भी बनी बनायी इमेज टूटेगी। बेशक वह इन सब कामों के लिए प्रेरित करता रहा है।
शिशिर ने पूरी गोपनीयता से योजना बनायी है। देहरादून न जाने की भी उसी ने सलाह दी है। ओपन टिकट आ गया है। पेमेंट शिशिर ने ही किया है। शिशिर ही ने मेरे लिए थोड़ी बहुत शॉपिंग की है। मैं वैसे भी गौरी के निकलने के बाद ही निकलता हूं। शाम तक उसे भी पता नहीं चलेगा। घर से खाली हाथ ही जाना है। मेरा यहां है ही क्या जो लेकर जाऊं।
मैं मालविका के बारे में आखिर तक कुछ भी तय नहीं कर पाया हूं। खराब भी लग रहा कि कम से कम मालविका को तो अंधेरे में न रखूं लेकिन फिर सोचता हूं, मालविका को साथ ले जाने का मतलब .. मेरे जाने का एक नया ही मतलब निकाला जायेगा और.. सब कुछ फिर से .. एक बार फिर.. सब कुछ..!
वापिस लौट रहा हूं। तो यह घर भी छूट गया। एक बार फिर बेघर- बार हो गया हूं।
देखें, इस बार की वापसी में मेरे हिस्से में क्या लिखा है .. .. ..।
इति