देहाती ठग, शहरी ठग और ठगों का सरदार : हिंदी लोक-कथा
Dehati Thag, Shehri Thag Aur Thagon Ka Sardar: Folktale in Hindi
किसी अँधेरी रात में एक देहाती ठग और एक शहरी ठग रास्ते में टकरा गए। देहाती ठग के सर पर चूनापत्थर की बोरी थी और शहरी ठग के सर पर राख़ की। देहाती ठग ने पूछा, “तुम्हारी बोरी में क्या है?” शहरी ठग ने कहा, “कपूर और तुम्हारी बोरी में?” देहाती ठग ने कहा, “ओह यह! इसमें कौड़ियाँ हैं। चाहिए तो बोलो! “शहरी ठग ने जवाब दिया, “ठीक है, ले लूँगा, अगर तुम बदले में यह कपूर लेने को तैयार होओ!” वह राज़ी हो गया। उन्होंने बोरियाँ बदल लीं।
देहाती ठग ख़ुशी-ख़ुशी घर गया और पत्नी से बोला, “देख, आज मैंने कैसा हाथ मारा! बेकार चूनापत्थर के बदले क़ीमती कपूर की बोरी का सौदा कर लिया।” उधर शहरी ठग ने अपनी पत्नी से कहा, “दुनिया में कुछ लोग वाक़ई होशियार होते हैं। मैं भी उनमें से एक हूँ। एक मूर्ख को राख़ की बोरी देकर कौड़ियों की बोरी हथिया ली। बेचारा बोरी खोलेगा तो सदमे से मर जाएगा। आँखों में राख़ गिरेगी सो नफ़े में! मरने दो साले को! ऐसे उल्लू जी कर भी क्या निहाल करेंगे!”
दोनों घरों में बच्चे उत्सुकतावश बोरियों को घेरकर खड़े हो गए। एक में चूनापत्थर और दूसरी में राख़ देखकर बच्चे दंग रह गए। यह देखकर उनके माँ-बाप ने अपने बाल नोच लिए। ठगों के मुँह उतर गए। दोनों घरों में पत्नियाँ उन पर बरस पड़ीं, “अक़्ल के दुश्मन से होता-जाता कुछ है नहीं, पर डींग ज़रूर हाँकेंगे! लानत है तुम पर! ठग ठगे गए यह क्या कम था! तिस पर इन बोलों से मानो जले पर नमक पड़ा।
कुछ दिन बाद दोनों ठग हाट में फिर टकरा गए। आँखें चार होते ही वे ठटा कर हँस पड़े। वे दोस्त बन गए। उन्होंने आज के बाद मिलकर काम करने का निश्चय किया। दोस्ती पक्की करने के लिए उन्होंने एक-दूसरे को अपने हाथ से भगवान का प्रसाद खिलाया। शहरी ठग ने मुस्कुराते हुए कहा, “हमारे जैसे ठग हाथ मिला लें तो कोई माई का लाल उनके सामने टिक नहीं सकता। हाट-बाज़ार, गाँव-शहर, घाट-मंदिर जहाँ भी हम जाएँगे हमारी तूती बोलेगी।” दूसरे ठग ने कहा, “हीरे-मोती, सोना-चाँदी तो कोई भी चुरा सकता है। हम तो ब्राह्मण के माथे का चंदन और औरत की आँख का काजल चुरा लें और पता न चलने दें!”
एक बुढ़िया को उन्होंने अपना पहला शिकार बनाने का निश्चय किया। बुढ़िया अमीर थी, पर बुढ़ापे से उसकी कमर दोहरी हो गई थी। वह लाठी के सहारे थोड़ा-बहुत चल-फिर लेती थी। बुढ़िया से मिलने से पहले उन्होंने गाँव वालों से उसके बारे में काफ़ी बातें मालूम कर ली। फिर वे बुढ़िया के घर गए और उसके चरण छूते हुए कहा, “बुआजी, ब्याह के बाद आप तो पीहर वालों को भूल ही गईं। पर हम आप को नहीं भूले। मेरे बेटे का ब्याह है। आपको चलना ही होगा। आप घर में सबसे बड़ी हैं। चलिए और सारे काम की देखभाल कीजिए। जल्दी से तैयार हो जाइए और हमारे साथ चलिए!”
यह सच था कि बुढ़िया बरसों से पीहर नहीं गई थी। पीहर था भी तो बहुत दूर। यहाँ का काम किसके भरोसे छोड़ती? अपने बचपन और तरुणाई को याद करके उसकी आँखें भर आईं। इतने अरसे बाद भतीजों को देखकर उसके दिल की कली-कली खिल गई। बेचारे कितनी दूर से आए हैं! थक गए होंगे। उसने उन्हें सोने की कटोरी में तेल दिया और अपने बेटे से कहा कि उन्हें तालाब पर ले जाए।
ठगों ने तेल से अपने शरीर की मालिश की, तालाब पर नहाए और कटोरी को सरकंडों में छुपा दिया। एक ठग ने ज़ोर से गुहार लगाई कि कव्वा कटोरी को झपटकर ले गया। घर पर बुढ़िया का परोसा खाते हुए उन्होंने कहा, “कव्वे बहुत धूर्त होते हैं। ऐसी-ऐसी हरकतें करते हैं कि बस! कटोरी किनारे पर रखकर हम तालाब में घुस गए। हम कव्वे के पीछे भागे, पर वह तेज़ी से उड़ता हुआ आँखों से ओझल हो गया। हम सर पीटकर रह गए।” बुढ़िया के बेटे ने उनकी करतूत देखी थी, पर वह कुछ नहीं बोला। ठगों ने समझा वह बिलकुल गोबरगणेश है।
कटोरी के खो जाने का बुढ़िया को बहुत दुख हुआ। उसे पछतावा हुआ कि उसने उन्हें चाँदी, तांबे या पीतल की कटोरी क्यों नहीं दी। सोने के घाटे को उसने बुरा सगुन समझा। उसने निश्चय किया कि वह विवाह में नहीं जाएगी। अपने बदले उसने बेटे को हो आने को कहा। ठगों के साथ वह घोड़े पर रवाना हुआ।
रास्ते में ठगों ने उससे कहा, “भाई, हमें बहुत भूख लगी है। तुमने बहुत-से गहने पहन रखे हैं। अगर तुम कोई छोटा-सा गहना ही गिरवी रख दो तो हम बहुत बढ़िया खाना खा सकते हैं।” बुढ़िया के बेटे ने कहा, “क़ीमती चीज़ गिरवी क्यों रखें! आदमी लाचारी में ऐसा करता है। यहाँ पर मेरी अच्छी साख है। आप जैसा कहेंगे वैसा खाना खिलाऊँगा। बस, जो मैं कहूँ करते जाएँ। जब मैं किसी से बात करूँ तो आप वही कहें जो मैं कहता हूँ। जब कोई आप से पूछे, ‘एक या दोनों?’ तो आप हमेशा कहें, ‘दोनों’। ठीक है?”
ठग राज़ी हो गए। एक से दो हमेशा ही भले, चाहे वह कुछ भी हो। बुढ़िया का बेटा किसी गाँव में एक साहूकार के पास गया और उससे अकेले में कहा, “मैं आपके लिए दो मजूर लाया हूँ। वे आपके जीवन भर के दास होंगे। वे तगड़े हैं और खेतीबाड़ी का सारा काम जानते हैं। मुझे अच्छी-सी रक़म दे दीजिए, फिर वे आपके।” उन्हें देखकर सेठ संतुष्ट हो गया और उनसे पूछा, “एक या दोनों?” ठगों ने कहा, “दोनों।” सेठ ने कहा, “मुझे मंज़ूर है।”
बुढ़िया का बेटा रूपए लेकर चलता बना। ठगों ने सोचा, वह खाने का बंदोबस्त करने गया है। वे सोच भी नहीं सकते थे कि बुढ़िया का बेटा उन्हें बेच गया और वे सेठ के दास हो गए हैं। उन्हें बग़ीचे में काम करने के लिए ले जाया गया। उन्होंने बहुत हाथ-पैर पटके, पर सेठ ने उनकी एक न सुनी और कोड़े से धमकाया। अब कहीं ठगों को अहसास हुआ कि बुढ़िया का गावदी-सा दिखता बेटा उनसे बड़ा ठग निकला। उन्होंने सेठ के पाँव पकड़ लिए, “सेठजी, हमने जीवन में कभी काम नहीं किया। हमने तो कभी पानी का लोटा तक नहीं भरा। हम ऐसे-वैसे घर के नहीं हैं। हमसे वैसा ही बरताव किया जाना चाहिए। उस छोरे ने हमें खाने का न्यौता दिया। हमें क्या मालूम था कि वह हमें बेच जाएगा!”
सेठ यों पसीजने वाला नहीं था। बोला, “मुझे इससे कोई वास्ता नहीं। मैंने तुम्हारे एवज़ में बड़ी रक़म चुकाई है। भावुकता से धंधा नहीं होता।”
ठग गिड़गिड़ाए, “उसने आपको भी धोखा दिया और हमें भी। आप किसी को हमारे साथ भेज दीजिए। हम उसे ढूँढ़ लेंगे और आपकी रक़म लौटा देंगे।”
सेठ को कुछ-कुछ भरोसा हो गया कि वे निर्दोष हैं। बदमाश को खोजने के लिए उसने एक नौकर को उनके साथ कर दिया।
इस बीच बुढ़िया का बेटा तेज़ी से घोड़ा भगाता हुआ अगले गाँव पहुँचा। वहाँ वह एक हलवाई की दुकान पर रुका और दोनों हाथों से मिठाइयाँ भकोसने लगा। दुकान पर बैठा लड़का यह देखकर भौंचक रह गया। बोला, “अगर तुम्हें ये इतनी ही अच्छी लगती है तो पहले दाम चुका दो और फिर जी भरकर खाओ।” बुढ़िया के बेटे ने कहा, “कैसी बात करते हो, मेरा नाम चींटा है। जाकर अपने बापू से कहो कि चींटा मिठाई खा रहा है और पैसा नहीं दे रहा। वे समझ जाएँगे। मैं उनका दोस्त हूँ।”
लड़का भागा-भागा गया और बापू को इस अजीब ‘चींटे’ के बारे में बताया। हलवाई उस पर बरस पड़ा, “मूर्खों के सरदार, चींटा कितनी मिठाई खाएगा! उल्लू दुकान सूनी छोड़कर आ गया! जा, वापस दुकान पर जा!”
इस बीच ठग ने मिठाइयों से थैला भरा और घोड़े पर बैठकर चंपत हो गया। रास्ते में उसने एक बुढ़िया और उसकी सुंदर बेटी को देखा। ठग लड़की की सुंदरता पर मर मिटा। वह लड़की के क़रीब गया, उसे उठाकर घोड़े पर बिठाया और घोड़े को ऐंड़ लगाई। यह सब इतना अचानक हुआ कि बुढ़िया को यह समझने में थोड़ी देर लगी कि क्या हुआ। बुढ़िया चिल्लाने को ही थी कि ठग घोड़े पर से ज़ोर से बोला, “अपनी बेटी की फ़िक्र मत करो! मेरा नाम जमाई है।”
बुढ़िया छाती-माथा कूटते हुए विलाप करने लगी। देखते-देखते वहाँ लोगों की भीड़ लग गई। बुढ़िया ने उन्हें बार-बार बताया, “हाय मेरी बेटी! मेरी बेटी को जमाई उठाकर ले गया। अब मैं क्या करूँ?” लोग हँसे, “क्या तुम्हारी बेटी को जमाई ज़बरदस्ती ले गया? इसमें रोने-धोने की क्या बात है! वह अब बड़ी हो गई है। उसे क्या जीवन भर घर में बिठाकर रखोगी? तुम्हारा जमाई आख़िर कब तक धीरज रखता! उसने ठीक ही किया।”
लड़की को लेकर ठग जंगल में गया और सुस्ताने के लिए रुका। लड़की को भी वह अच्छा लगा। इस घटना ने उसे रोमांचित कर दिया। वे घोड़े से उतरे ही थे कि उनकी नज़र सफ़ेद चींटियाँ खाते भालू पर पड़ी। अनचाहे मेहमानों को देखकर भालू उनकी तरफ़ झपटा और ठग पर टूट पड़ा। दोनों गुत्थमगुत्था हो गए। ठग ने फुर्ती और होशियारी से भालू को गर्दन से दबोचा और उसकी थूथनी को ज़मीन पर रगड़ने लगा। पर हथियार के बिना यह उसे मार नहीं सकता था और न ही वह उसे छोड़ सकता था। उसकी जेब से रुपए गिरकर चारों ओर बिखरने लगे। वह भालू से काफ़ी देर तक जूझता रहा और बुरी तरह थक गया। उसे लगा कि वह अब और भालू को पकड़े नहीं रह सकेगा कि तभी एक सौदागर उधर आया। जंगल में ज़मीन पर रुपए बिखरे देखकर वह फटाफट उन्हें बीनने लगा। बीनते-बीनते वह उस स्थान पर आया जहाँ एक आदमी भालू की थूथनी को ज़मीन पर रगड़ रहा था। उसे कुतूहल हुआ। पूछा, “यह तुम क्या कर रहे हो? ज़मीन पर इतना रुपया कैसे बिखरा पड़ा है?”
युवक ने कहा, “यह मामूली भालू नहीं है। जब मैं मिट्टी में इसकी नाक रगड़ता हूँ तो यह पीछे से रुपया हगता है। इसे कुश्ती बहुत पसंद है। मैंने इसे पालतू बना लिया है। बेचारा मेमने की तरह सीधा है।”
सौदागर ने कहा, “इसे मुझे बेच दो!”
ठग बोला, “अच्छी क़ीमत दोगे तो बेच दूँगा। मैं इसके लाख रुपए से कम नही लूँगा। यह रोज़ दस रुपए हगता है।”
सौदागर ने सोचा, “यह तो रुपयों का झरना है। मैंने बहुत धंधे किए, पर सब इसके सामने फीके हैं। यह भालू मुझे मिल जाए तो मज़ा आ जाए! फिर मुझे कोई काम नहीं करना पड़ेगा। मेरे पास रुपए ही रुपए होंगे। तिस पर कमाने की कोई चिंता नहीं।” सो उसने उसे लाख रुपए गिन दिए। उसने जो रुपए बटोरे थे, वे भी ठग ने उससे ले लिए। ठग ने भालू सौदागर को पकड़ाया और कहा कि वह इसकी थूथनी ज़मीन पर रगड़े!
भालू से छुटकारा मिलते ही ठग घोड़े पर बैठा और लड़की को लेकर वह जा, वह जा। आगे उसे एक धोबी मिला जो धूप में कपड़े सुखा रहा था। ठग धोबी को दिखा-दिखाकर थैले में से मिठाई निकालकर खाने लगा। उसे मिठाई खाते देखकर धोबी के मुँह में पानी आ गया। ठग ने उसे भी थोड़ी मिठाई खाने को दी। धोबी को वह बहुत स्वादिष्ट लगी। ठग ने कहा, “अच्छी है न? मुझे भी यह बहुत अच्छी लगती है। यह कोई मामूली मिठाई नहीं है। उस पहाड़ पर झील के किनारे एक ख़ास पेड़ है। यह मिठाई उस पेड़ पर लगती है। जाओ और जितनी चाहो तोड़ लो। जी भर कर मिठाई खाओ और झील का मीठा पानी पीओ। अगर तुम काफ़ी मिठाई तोड़ सको तो उसे बेचकर पैसा भी बना सकते हो। यह वास्तव में बहुत स्वादिष्ट है।”
धोबी को उसकी बात जँची। वह तुरंत उस पहाड़ की ओर चल पड़ा। वह वापस नहीं आता तब तक उसने ठग से उसके कपड़ों का ध्यान रखने को कहा। कपड़े बहुत क़ीमती थे—शुद्ध रेशम और साटन के। धोबी के जाते ही ठग ने कपड़ों की गठरी बाँधी और घोड़े पर रखकर अगले गाँव जा पहुँचा। वहाँ उसने उन रंग-रंगीले कपड़ों को एक पेड़ की डालियों पर बाँधा और ज़ोर-ज़ोर से प्रार्थना करने लगा, “ओ जादुई पेड़, ओ भगवान के करघे, मेरे लिए रेशम और साटन खिलाओ!”
उधर से गुज़रते एक व्यापारी ने उसके बोल सुने। उसे अचंभा हुआ, “पेड़ पर रेशम और साटन कैसे लग सकते हैं, जैसे वे कोई फूल हों? यह कमाल का पेड़ है, सचमुच कमाल का! ऐसा स्वर्ग में होता होगा, लेकिन धरती पर रेशम से लदा पेड़ किसी ने नहीं देखा।” वह ठग के पास आया और पूछा, “तुम क्या कर रहे हो?”
ठग ने कहा, “यह अनोखा पेड़ है। इस पर फूलों की बजाए रेशम और साटन लगते हैं। इसकी डाल पर बैठकर इतना भर कहना होता है, ‘खिलाओ, ओ जादुई पेड़, मेरे लिए रेशम और साटन खिलाओ!’ और यह रेशम और साटन के सिले-सिलाए वस्त्रों से लद जाता है। और कपड़े इतने बढ़िया कि राजाओं और रानियों के पास भी क्या होंगे! देखो, मेरी घरवाली को देखो! वह कोई कपड़ा दुबारा नहीं पहनती। वह नित नए कपड़े पहनती है और कल पहने कपड़े बासी फूल की तरह फेंक देती है। कितनी भाग्यशाली है वह!”
व्यापारी के कपड़ों का धंधा था। वह सोचने लगा, “वाह! इससे तो मुझे मिलों से कपड़ा ख़रीदने और दर्ज़ियों से सिलवाने के सारे झंझट से मुक्ति मिल जाएगी। पेड़ की बहुत कम देखभाल करनी पड़ती है। इससे मैं ढेरों रुपया कमा सकूँगा। तिस पर मज़दूरों का भी कोई लफड़ा नहीं। ये कपड़े कितने बढ़िया सिले हुए हैं!”
उसने ठग से सौदा पटाया और काफ़ी धन देकर जादुई पेड़ का मालिक बन गया। ठग लड़की को लेकर वहाँ से चल पड़ा। लड़की उसके साथ इतनी ख़ुश थी जितनी ख़ुश वह जीवन में कभी नहीं हुई थी।
उत्कंठा से भरा सेठ पेड़ पर चढ़ा और ठग का सिखाया मंत्र जपते हुए उससे वस्त्र देने की प्रार्थना करने लगा। जाने कितनी बार उसने वह मंत्र दोहराया, वह वही ढाक के तीन पात! मंत्र जपते-जपते उसका गला बैठ गया। दिन भर मंत्र जपने क बाद उसे अहसास हुआ कि वह साधारण पेड़ है और उसे उल्लू बनाया गया है।
पहले वाले दोनों ठग़ अब भी उस छोकरे ठग को ढूँढ़ रहे थे जिसने उन्हें मात दी थी। उसे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वे उस हलवाई की दुकान पर पहुँचे जहाँ से वह थैला भर कर मिठाई ले गया था। हलवाई भी उनके साथ हो लिया। आगे उन्हें वह बुढ़िया मिली जिसकी बेटी को वह भगा ले गया था। चारों आगे बढ़े। वहाँ से चले तो उन्हें वह सौदागर मिला जो अब भी भालू से जूझ रहा था। वह पस्त होने ही वाला था कि ठगों ने लाठियों से भालू को मार गिराया। उन्होंने धोबी को दम-दिलासा दिया जो तय नहीं कर पा रहा था कि बिना कपड़ों के वह शहर भर के ग्राहकों का कैसे सामना करेगा।
आख़िर उन्होंने छोकरे ठग को उसके घर पर जा पकड़ा और उसे सख्त-सुस्त सुनाने लगे। छोकरे ठग ने कहा, “मैं ठग नहीं हूँ। न मैं चोर हूँ। मैं आप लोगों की एक-एक चीज़ वापस कर दूँगा। जो मिठाई मैं खा गया, उसके दाम दे दूँगा। यह खेल मैंने सिर्फ़ मज़े के लिए किया था। मैं तो यह दिखाना चाहता था कि कैसे लोगों को अपनी नाक के आगे नहीं दिखता, ख़ासकर तब जब वे लालच में अंधे हो जाते हैं।”
उसकी भलमनसाहत और शिष्टता से वे बहुत प्रभावित हुए। उसने अपने नौकरों को उनके लिए बढ़िया से बढ़िया खाना बनाने और मुलायम बिस्तर लगाने का आदेश दिया। सबने डटकर भोजन किया और तानकर सो गए। उन्हें भरोसा था कि उनका माल उन्हें वापस मिल जाएगा।
इसी बीच छोकरा ठग गाँव के चौकीदार के पास गया और उसे घूस देकर अपने साथ मिला लिया। चौकीदार ने गली-गली में डोंडी पीटकर घोषणा की कि जिस किसी के घर में अंजान अतिथि ठहरा हुआ हो उसे गृहस्वामी कल सुबह दरबार में हाज़िर करे। हो सकता है वह भेदिया हो। जो इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा उस राजद्रोही को तुरंत फाँसी पर चढ़ा दिया जाएगा।
मुनादी सुनकर दोनों ठग, हलवाई, बुढ़िया, सौदागर, व्यापारी और धोबी सिहर गए और जान बचाकर भाग खड़े हुए। दूर तक भागने के बाद वे ज़रा दम लेने को रुके। एक ठग ने दूसरे ठग से कहा, “मैं देहाती ठग हूँ, तुम शहरी ठग हो, पर यह छोकरा ठगों का सरदार है। हम उसके पासंग भी नहीं हैं। हम लोगों की आँखों में धूल झोंकते हैं, पर यह हमारा भी बाप निकला। माल भी हमारा गया और हम ही भाग आए!”
ठगों का सरदार सुंदर लड़की के साथ सुख से रहता है। मैं एक दिन उससे मिला तो उसने कहा, “कोरी ठगी में क्या रखा है! मज़ा तो तब है जब ठगी बुद्धिमानी के साथ की जाए।”
बस, यहीं मेरी यह कहानी ख़त्म होती है।
(साभार : भारत की लोक कथाएँ, संपादक : ए. के. रामानुजन)