Deepak Ki Lau Apni-Oar (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

दीपक की लौ अपनी ओर : रामधारी सिंह 'दिनकर'

अँधेरे में सभी लोग भटक रहे हैं। किसी को भी नहीं सूझता कि गलती किसकी है।

माँझी कहता है–पतवार ठीक हैय गलती लग्गीवाले ने की होगी। और लग्गीवाला कहता है–मैं भी ठीक हूँ और नाव भी ठीक है। सारी फसाद इस नदी ने बरपा की है, जिसकी छाती पर हम लोग घूम रहे हैं।

पट्टाभि कहते हैं–कांग्रेस की हालत गड़बड़ है। कृपलानी जी ने उसे गड़बड़ मानकर अलग सेवाश्रम बसाना शुरू किया है। कांग्रेसवालों ने कहा–सरकारी अफसर बड़े मूजी हैं। वे समय के अनुसार बदलने में देर लगाते हैं। वे अगर ठीक होते, तो सारा काम यों हो जाता।

इस पर सरदार पटेल नाराज हो गए। उन्होंने कहा कि अगर सिविल सर्विसवालों पर तुम हाथ उठाओगे, तो मैं उनको साथ लेकर सरकार से बाहर हो जाऊँगा। कहूँगा, ‘देखो, यह देश बदल गया है। अब हम और तुम यहाँ नहीं टिक सकते। इसलिए, चलो, कहीं दूर–दराज का रास्ता नापें।’

हिन्दू कहते हैं–सारा कसूर मुसलमानों का है। वे इस देश को अपना देश क्यों नहीं समझते?

और मुसलमान कहते हैं–बँटवारे के बाद से हिन्दुओं का मिजाज वही नहीं रह गया है, जो पहले था। अब तो वे आँखों से ही मारे डालते हैं।

सारा देश कहता है कि हमें एक राष्ट्र चाहिए, एक भाषा और एक सरकार चाहिए। मगर जब एक राष्ट्र बनाने का प्रस्ताव आता है, तब जाट कहते हैं, हमें जाटिस्तान दोय सिख कहते हैं, हमें सिक्खिस्तान दो और मराठे कहते हैं, हमें महाराष्ट्र की वैयक्तिकता का विकास चाहिए और बंगाल कहता है, पहले यह बताओ कि गोखले की इस उक्ति में तुम्हारा आज भी विश्वास है या नहीं कि ‘जिस बात को बंगाली आज सोचते हैं, उसे सारा भारतवर्ष कल सोचेगा?’

और जब एक भाषा बनाने की बात आती है, तब बंगाल कहता है–हिन्दी ‘मेडुओं’ की बोली हैय महाराष्ट्र कहता है कि मराठी हिन्दी से बुरी किस बात में है और मुसलमान मन–ही–मन पछाड़ खाकर रह जाते हैं कि हाय री किस्मत! अब उर्दू के लिए लड़ना भी असम्भव हो गया!

और सब मिलकर यह कहते हैं कि खैर, अगर इसी भाषा को राजगद्दी देनी है, तो इसकी एक टाँग सखुए की और दूसरी सागवान की होनी चाहिए और हो सके तो इसकी एक आँख भी निकालकर उसकी जगह पर शीशे की आँख लगा दो।

सबकी शिखाएँ जब अंग्रेजों के हाथ में थीं, तब कोई नहीं बोलता था। तब सिर्फ वे ही लोग बोलते थे, जिनमें कुछ दम था। मगर अंग्रेजों के हटते ही सबकी शिखाएँ हवा में फरफरा रही हैं और सबके पेट से कोई–न–कोई बात उमड़कर जुबान पर आ रही है। ईश्वर न करे कि अभागे एक–दूसरे से लड़ने भी लगें।

गांधी जी सब समझते थे। उन्होंने कहा, ‘क्यों नाहक दूसरों के ऐब ढूँढ़ते चलते हो? माना कि सभी पापी हैं, सभी अन्धे हैं, सभी गुनहगार हैं, लेकिन तुम दूसरों को क्या उपदेश दे रहे हो? जरा अपने भीतर तो झाँककर देखो कि वहाँ सुधार की कोई गुंजाइश है या नहीं? अगर है, तो फिर तुम्हारे सामने काफी जरूरी काम मौजूद हैं। सबसे पहले इसी पर ध्यान दो। सबसे पहले अपना सुधार करो। और जब तक तुम खुद मैले हो, तब तक तुम्हें दूसरों को उपदेश देने का क्या अधिकार है? और तब तक दूसरे लोगों पर तुम्हारी बातों का असर भी क्या होगा?’

दीपक बड़े उद्योग से मिलता है और उसमें जो रोशनी चमक उठती है, उसके पीछे भी पुण्य का बहुत बड़ा संचय रहता है।

ऐसे कीमती दीपक को लेकर तुम आकाश में क्या ढूँढ़ते हो मनुष्य? ऐसी अलभ्य ज्योति को तुम दरवाजे के बाहर क्या सोचकर धर आती हो मेरी बहनो?

जिस अन्धकार को जलाकर छिन्न–भिन्न कर देने के लिए तुम मशालें लेकर बाहर कूद रहे हो, उसका असली उत्स तो तुम्हारे भीतर छिपा पड़ा है। भीतर भी अन्धकार है। भीतर भी कीड़े–मकोड़े उड़ रहे हैं।

और भीतर भी तूफान है, जिससे इस दीपक को बचाए रहना है।

और भीतर भी एक देवता है, जिसके मन्दिर में बहुत दिनों से कोई आरती नहीं सँजोयी गई है!

आज दीवाली के दिन तो उस मन्दिर में झाड़ू–बुहारू लगा दो कि देवता ठीक से दिखलाई पड़ें।

और दीपक की इस लौ को आज की रात बाहर मत रखो, बल्कि उसे भीतर की ओर मोड़ दो।

जो भी सुगन्ध हो, उसकी धारा को प्राणों में बहाओ।

जो भी चन्दन हो, उसका लेप अन्तर्वासी देवता को अर्पित करो।

जो भी फूल हैं, उनका हार अपने हृदय को चढ़ाओ।

यह आत्मपूजा सर्वात्मा की अर्चना है। यह भीतर की सफाई ही संसार की असली सफाई है।

भीतर एक दीप जलाओ और सोचो कि समस्या क्या है, उसका निदान कैसे मिलेगा और गांधी जी क्या कहते थे।

अगर गांधी जी की बात हमने मानी होती, तो भारतवर्ष के तैंतीस करोड़ लोगों के दिलों में रोशनी की तैंतीस करोड़ लकीरें हुई होतीं, जिन पर पाँव धरकर भारत की आत्मा ज्योति से अठखेलियाँ करती।

मगर, गांधी जी की बातों की अवज्ञा करके हमने अपने बाहर ही नहीं, भीतर भी अन्धकार फैला रखा है।

अन्दर–बाहर सर्वत्र ही अन्धकार! अन्दर और बाहर सर्वत्र ही चिल्लाहट! इतनी बड़ी चिल्लाहट कि हम अपने छोटे श्रवणों से उसे सुनने में भी असमर्थ हैं।

हर आदमी अपनी जिम्मेवारी दूसरों पर फेंक रहा है। हर आदमी अपने को निर्दोष और दूसरों को दोषी बता रहा है। हर आदमी अपने गले के फन्दे को किसी–न–किसी तरह दूसरों के गले में डाल देने की फिक्र में है!

नाव डगमगा रही है। बड़ा कोलाहल है। बड़ी हलचल है। और सब–के–सब डूब रहे हैं।

कौन है, जो हर आदमी के दिल में एक चिराग जला दे और उससे कहे कि पहले अपनी मलिनता और अपने अन्धकार को दूर करो? दीवाली की रात पूछती है कि कौन है।

[दीवाली, 1951]

('अर्धनारीश्वर' पुस्तक से)

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