दया और होनी : पंजाबी लोक-कथा
Daya Aur Honi : Punjabi Lok-Katha
एक देश में एक राजा राज्य करता था। उसका वज़ीर बड़ा ही ज्ञानवान् और सूझवान् व्यक्ति था। वज़ीर का पुत्र और राजकुमार दोनों आपस में बड़े ही अच्छे मित्र थे। पंरतु वज़ीर का पुत्र बहुत ही दूरदर्शी और समझदार था। दोनों प्रातःकाल भ्रमण के लिए इकट्ठे ही जाया करते और इकट्ठे ही खाते-पीते थे। राजकुमार कुछ लापरवाह स्वभाव का युवक था। वह अपना कोई भी कार्य कभी भी समय पर नहीं किया करता था।
एक दिन वज़ीर के लड़के ने अपने मित्र राजकुमार को कहा, परन्तु राजकुमार उसका सुझाव अस्वीकार करते हुए बोला, "मित्र ! मैं आज तो तुम्हारे साथ बिल्कुल नहीं जा सकता, इसलिए आज तुम भ्रमण करने के लिए अकेले ही चले जाओ।" मायूस होकर वज़ीर का लड़का अकेले ही उस दिन भ्रमण करने के लिए चल पड़ा। जब वह बहुत दूर निकल गया तो उसके मार्ग में एक नदी आ गई। अब तक चलते-चलते वह बहुत थक चुका था, इसलिए वह रुक कर वहीं एक शिला पर बैठ गया और उसने अपनी टाँगें उस नदी में लटका दीं।
अचानक ही उसका ध्यान पास खड़े एक वृक्ष पर गया। वहाँ 'दया' और 'होनी' नाम वाले दो पक्षी बैठे हुए थे, जोकि आपस में बातें कर रहे थे। एक पक्षी दूसरे से कह रहा था, “होनी भाई ! आज की कोई नई ख़बर तो सुनाओ।" यह सुनकर होनी उससे यों कहने लगा, “मैं तुम्हें बिल्कुल अभी घटित होने वाली घटना सुनाऊँ अथवा बीत चुकी कोई घटना सुनाऊँ ?"
यह सुनकर उसके मित्र दया ने उससे कहा, "आप तो मुझे वह घटना सुनाओ, जो आगे होने वाली है।
यह शर्त सुनकर दूसरा 'होनी' नामक पक्षी उससे कहने लगा, “देखो, आगे जब इस शहर के राजकुमार ने अपने विवाह के समय घोड़ी पर चढ़ना होगा, तो मैं जाकर उसके प्राण ले लूँगा।” 'दया' ने उससे जिज्ञासावश पूछा, “भला वह कैसे? इस पर होनी ने कहा कि, “मैं एक शेर बन कर उस घोड़ी पर बहुत ज़ोर से आक्रमण कर दूंगा और इस तरह से उसके प्राणों का ही हरण कर लूँगा।”
यह दुखद बात सुनकर 'दया' ने पूछा, “यदि मैं भी उसी समय अपनी शक्ति दिखाऊँ, तो ?" होनी ने कहा कि, "यदि वह राजकुमार वहाँ मेरे आक्रमण से किसी तरह से बच भी गया, तो मैं आगे चल कर उस पर पीपल का एक भारी पेड़ गिरा दूंगा।" यह सुनकर उसका संगी पक्षी दया उससे फिर कहने लगा कि, “यदि मैं किसी व्यक्ति के भीतर आ गया तो वह फिर से बच जाएगा।" इस पर होनी ने कहा, "हे दया ! यदि तुमने उसे वहाँ से भी बचा लिया तो जब राजकुमार और उसकी धर्मपत्नी सो रहे होंगे, तो मैं वहाँ जाकर एक भयानक कोबरा साँप बन कर उन दोनों को ही डस लूँगा।"
यह सुनकर तो अब दया पूरी तरह से मौन ही हो गया। कुछ क्षण बाद सोचकर उससे फिर कहने लगा कि “यदि मैंने उन्हें वहाँ से भी बचा लिया तो?" यह सुनकर 'होनी' उससे बोला कि “मैं वहाँ पर एक बड़ा ही सख़्त पहरा लगा दूँगा। राजकुमार के कमरे में कोई और प्रवेश ही नहीं कर सकेगा। हाँ, यदि कोई प्रवेश करने का तनिक-सा भी प्रयत्न करेगा, या करना चाहेगा, तो वहीं-का-वहीं मारा जाएगा। मैं तुम्हें पहले से यह बात बता दूं कि राजकुमार और राजकुमारी दोनों को ही इस बात का पता नहीं चलेगा।
अब दया ने फिर से पहले की तरह एक लम्बी चुप्पी साध ली और एक गहरी और गम्भीर सोच में डूब गया। दया और होनी की ये सारी बातें वज़ीर के लड़के ने सुन लीं। वज़ीर का पुत्र बहुत ही दूरदर्शी और समझदार था। वह सोचने लगा कि, “मेरा एक ही अच्छा और सच्चा मित्र है। भगवान् न करे यदि वह विवाह वाले दिन ही अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गया, तो सारे राज्य में शोक फैल जाएगा।” यही सोचकर उसने यह पक्का निश्चय किया कि चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाए, परन्तु मैं अपने मित्र की जान ज़रूर बचाऊँगा। इस प्रकार उसने निश्चय किया कि वह हर हालत में अपने मित्र के प्राणों की रक्षा करेगा।
जब राजकुमार की बारात शादी के लिए चली, तो वज़ीर का लड़का भी अपना घोड़ा लेकर उसके साथ ही चल पड़ा। उसका घोड़ा भी राजकुमार के घोड़े के साथ ही था। दोनों हँसते हुए बातें करते हुए जा रहे थे कि अचानक ही आगे एक बहुत बड़ा गड्डा आ गया। जब राजकुमार का घोड़ा आगे होने लगा तो वज़ीर के पुत्र ने अपने घोड़े को आगे ले जाकर सीधा उस गड्डे में गिरा लिया। वहाँ वास्तव में पहले से ही एक शेर छिपा हुआ बैठा था। शेर ने ज़ोर से एक दहाड़ मारी और उस पर बड़े ज़ोर से आक्रमण कर दिया, परन्तु वज़ीर का पुत्र तो पहले से ही तैयार था। उसने अपनी तलवार निकाल ली और झट से उस शेर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए।
यह दृश्य देखकर वह राजकुमार वज़ीर के उस पुत्र पर बहुत ही क्रोधित हो गया। उसने उससे यों कहा, “तुमने आज बहुत बड़ी गलती की है। आज तुमने मेरे शिकार को मार डाला है। यह सुनकर वज़ीर के पुत्र ने कहा, "मित्र ! कोई बात नहीं, शिकार को मैंने मारा अथवा आपने, एक ही बात है। हम दोनों मित्रों में भला अन्तर ही क्या है ?" ऐसा कह कर उसने शिकार मारने वाली वह बात हँसी में उड़ा दी। इसके बाद राजकुमार की बारात धूमधाम से पहले की तरह आगे चल पड़ी।
जब वह बारात आगे पीपल के एक बड़े-से पेड़ के पास पहुँची, तो वज़ीर के पुत्र ने अपना घोड़ा राजकुमार के घोड़े से आगे कर लिया। इसके साथ ही उसने राजकुमार के घोड़े की लगाम अपने हाथों में ही सँभाल ली और वहाँ से उसे आगे ले गया। उस पीपल के वृक्ष के आगे से निकलते ही उसका घोड़ा धरती पर औंधे-मुँह गिर पड़ा। राजकुमार तो पहले से ही उसके प्रति क्रोध में था, अब उसे और अधिक क्रोध आ गया। राजकुमार सोचने लगा कि इसने फिर से मेरी बेइज्जती कर दी है। उसने यह तो नहीं देखा कि पीपल का वृक्ष गिर गया है। यदि वह वहाँ से गुज़रता, तो उसके नीचे दब कर मर ही जाता। फिर भी राजकुमार विवाह का शुभ अवसर देखकर अन्दर-ही-अन्दर अपने क्रोध को पी गया।
जब विवाह की सभी रस्में जैसे-तैसे पूरी हो गईं, तब राजकुमार और उसकी नई नवेली वधू को महल में एक बहुत ही सुन्दर कमरे में सोने के लिए भेजा गया। वज़ीर का पुत्र बाहर बारात के लोगों के साथ ही सो गया, परन्तु उसे नींद नहीं आ रही थी। इसका कारण यह था कि उसे पक्षी 'होनी' की बात अभी भी याद आ रही थी कि वह साँप बन कर राजकुमार की जूती में घुस कर सुबह होते ही राजकुमार को डस लेगा।
अभी वह राजकुमार के कमरे में जाने के बारे में सोच ही रहा था कि उसने बहुत सारे सैनिकों को राजकुमार के कमरे के इर्द-गिर्द घूमते देखा। पूछने पर उसे यह पता चला कि जहाँ राजकुमार और राजकुमारी दोनों आराम से गहरी निद्रा में सो रहे हैं, वहाँ पर चौकीदारों का एक कड़ा पहरा लगा दिया गया है। वज़ीर का पुत्र यह सोचने लगा कि, “अब अपने प्यारे मित्र राजकुमार को मरने से भला कैसे बचाया जाए?" बहुत देर सोचने के बाद उसने एक योजना बनाई।
रात को जब सभी गहरी निद्रा में सो गये, तो वज़ीर के पुत्र ने किसी प्रकार से पीछे जाकर महल के ऊपर कमन्द (एक लम्बी रस्सी) फेंकी, जो राजकुमार के कमरे के साथ आगे एक बुर्ज पर जाकर अटक गई। उस रस्सी के सहारे हाथ में तलवार लेकर उस बुर्ज पर चढ़ गया। वहाँ पहुँच कर वह धीरे-धीरे अपने मित्र राजकुमार के कमरे में घुस गया। वहाँ उसने देखा कि राजकुमार की तिल्ले वाली जूती उसके पलंग के पास पड़ी है। उसने शीघ्रता से तलवार निकाल कर जूती को बीच में से काट दिया। जूती के कटने से उसी में घुस कर बैठा हुआ साँप भी मर गया और चारों ओर रक्त-ही-रक्त बिखर कर रह गया।
तलवार चलने का शोर सुनकर सहसा राजकुमार की नींद टूट गई। ज्यों ही राजकुमार ने नींद से उठ कर वज़ीर के पुत्र को अपने हाथ में एक तलवार पकड़े हुए देखा, त्यों ही उसे देखते ही क्रोध से वह आग-बबूला हो उठा। उसने पलंग पर वैसे ही बैठे-बैठे अपने लिए चौकसी पर रखे गए कुछ सिपाहियों को बुलाया। फिर उन्हें तत्काल यह आदेश दिया कि, “मेरे इस मित्र को इसी समय मौत के घाट उतार दिया जाए।" वज़ीर के पुत्र ने राजकुमार की बहुत मिन्नतें कीं, परन्तु उसने उसे यह रहस्य नहीं बताया कि उसने साँप को क्यों मारा है। राजकुमार को दिन की पिछली घटित कुछ घटनाओं के प्रति भी रोष था। उसने सोचा कि, “यह मित्र ही किसी कारण से आज मुझे मार देना चाहता था।
सिपाही वज़ीर के पुत्र को आदेश के अनुसार मारने के लिए अपने साथ लेकर एक घने जंगल में चले गए। वहाँ सिपाहियों को उसकी भोली-भाली सूरत देखकर उस पर तरस आ गया। इसके साथ ही राज्य के प्रति उसकी ईमानदारी का स्मरण कर उन्होंने उसकी केवल एक अंगुली काट कर ही उसे जीवित छोड़ दिया। सुबह होते ही सिपाहियों ने उसकी वह कटी हुई अँगुली ही राजकुमार के आगे प्रस्तुत कर दी और उससे हाथ जोड़कर कहा, “महाराज ! अभी हम लोगों ने उसकी यह एक अँगुली ही काटी थी कि वहाँ मधुमक्खियों ने बड़ा भयानक आक्रमण कर दिया। इससे वज़ीर का वह पुत्र वहाँ पर उस मौके का लाभ उठा कर न जाने कहाँ भाग गया। यही कारण है कि हम लोग उसे चाह कर भी नहीं मार सके हैं।" यह सुनकर राजकुमार को बहुत क्रोध आ गया कि मुझे मारने वाला इस तरह से अवसर का लाभ उठा कर कहीं भाग गया है, परन्तु फिर भी वह उस समय अपने क्रोध को अन्दर-ही-अन्दर पी गया।
जब राजकुमार पलंग से उठा, तो जूती पहनते समय उसने देखा कि जूती तो कटी हुई है और उसके पास ही मृत अवस्था में एक साँप पड़ा हुआ है। इस बात का अभी तक किसी को कोई पता नहीं था। यह देखकर वह बहुत हैरान हो गया। उसने सिपाहियों से पूछा, “मुझे यह बताओ कि इसे किसने मारा है ?" सभी सिपाहियों ने कहा, "यह बात तो हमें ज्ञात नहीं है।" तभी राजकुमार ने मन-ही-मन सोचा, “यह सांप अवश्य ही वज़ीर के पुत्र अर्थात् मेरे मित्र के हाथों से ही मरा है। वह अवश्य मेरी जान बचाने के लिए आया था, परन्तु यह सांप आया कहाँ से है ?
अब उसे धीरे-धीरे पिछली घटनाएँ भी याद आने लगीं कि वज़ीर के बेटे ने पहले शेर से और फिर पीपल के गिरने से भी मेरे प्राणों की रक्षा की है। यह तीसरी बार उसने मेरी जान बचाई है, परन्तु अब व्यर्थ ही पछतावा करने से क्या हो सकता था? उसका मित्र तो अपनी जान बचा कर कहीं भाग कर चला गया है। उधर वज़ीर का वह बेटा बहुत वर्षों तक जंगलों में भटकता रहा और बहुत वर्षों बाद अपने शहर में वापस आया और एक वणिक के घर में उसका नौकर होकर वहीं पर रहने लगा।
इधर राजा और वज़ीर दोनों बूढ़े हो गए। राजा ने वज़ीर से सलाह-मशवरा किया कि अब यह सारा राज्य राजकुमार को ही सौंप दिया जाए। उस समय शत्रु राजाओं द्वारा उन्हें जान से मार देने की धमकियाँ भी दी जा रही थीं। इसी समय राजकुमार ने सोचा कि यदि इस समय मेरा मित्र मेरे साथ होता, तो बहुत ही अच्छा होता। सोचते-सोचते उसको एक उपाय सूझा कि यदि सभी घरों में बकरी का एक बच्चा दे दिया जाए और प्रजा से यह कहा जाए कि यह बच्चा दो सप्ताह बीतने के बाद वापस ले लिया जाएगा, परन्तु इस बात का ध्यान रखा जाए कि इसका वज़न न तो अब से कम होना चाहिए और न ही अधिक। जिसका लेला बिल्कुल सही निकला, उसे वज़ीर के पद पर नियुक्त कर दिया जाएगा।
अब प्रजा के सभी लोग सोचने लगे कि क्या किया जाए, परन्तु किसी भी व्यक्ति को कोई भी अच्छा उपाय न सूझा। उधर वज़ीर का पुत्र वणिक के यहाँ नौकरी कर रहा था। उसने अपने स्वामी वणिक से कहा कि, “आप चिंता न करे। मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा।
वज़ीर के पुत्र ने बकरी के बच्चे को लिया और साथ ही एक शेर को ले जाकर थोड़े-से फासले पर उसके साथ बाँध दिया। जब भी शेर दहाड़ता था तो बकरी का बच्चा डर जाता था। उसे खाने के लिए वज़ीर-पुत्र से खाना तो मिलता था, परन्तु शेर के भय से वह खाना उसे हज़म नहीं हो पाता था। जिस कारण उसका वज़न न तो कम हुआ और न ही अधिक। यों ही करते-करते दो सप्ताह व्यतीत हो गए। राजा ने वज़ीर पद चाहने वाले सभी लोगों को अपने पास बुलाया, परन्तु उनके द्वारा दो सप्ताह तक रखा गया, बकरी का कोई भी बच्चा पहले के से भार वाला न था। केवल वणिक को दिए गए बकरी के बच्चे का भार पहले जितना ही निकला था।
राजकुमार ने सोचा कि अवश्य ही यह कोई दूरदर्शी और समझदार व्यक्ति है। उसने वणिक को बुलाया और पूछा कि, "तुमने इस बकरी को उसी भार अवस्था में भला कैसे रखा है तो उसने हाथ जोड़कर कहा, "महाराज ! इसके विषय में ठीक से तो मेरे नौकर को ही पता है। मैंने तो यह बच्चा दो सप्ताह पहले उसके हवालेकर दिया था।"
राजकुमार ने वणिक के नौकर को बुलाया। जब नौकर दरबार में हाज़िर हुआ तो वहाँ वज़ीर और राजकुमार दोनों ही बैठे हुए थे। राजकुमार ने वज़ीर के पुत्र को आते ही पहचान लिया। जब वह उसे अपने गले लगाने लगा, तब उसकी आँखों में मारे खुशी के आँसू आ गए । वज़ीर के खोये हुए बेटे के फिर से मिल जाने और राजकुमार के अपने पुराने मित्र को इस तरह से पा लेने की दोहरी खुशी में सारे राज्य में दीपमाला कर बड़ा भारी उत्सव मनाया गया।
इस प्रकार सुख-चैन से राज्य करते हुए कुछ समय के पश्चात् ही वज़ीर के पुत्र की बुद्धिमत्ता और समझदारी के चर्चे सारे देश में फैल गए। वज़ीर के दूरदर्शी पुत्र के ज्ञान और समझ के बल पर उन्होंने शत्रु राजाओं पर भी विजय प्राप्त कर ली। अब राजकुमार और वज़ीर दोनों के ही परिवार विशेष रूप से बहुत आनन्द से रहने लगे। राजकुमार सभी कार्य अपने मित्र की सलाह से करने लगा।
अब तक राजकुमार को पता चल चुका था कि कोई सच्चा मित्र ही प्रत्येक समय, कार्य अथवा स्थिति में अपने प्राणों की परवाह किए बिना अपने मित्र के साथ वफादारी कर सकता है फिर होनी' किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकती, जब तक समाज में ‘दया' जिन्दा हो। इसलिये सियाने कहते हैं 'होनी' से हमेशा ‘दया बड़ी होती है।
साभार : डॉ. सुखविन्दर कौर बाठ