डरपोक : केरल की लोक-कथा

Darpok : Lok-Katha (Kerala)

लगभग दो सौ वर्ष पुरानी बात है। केरल में तालंगोडू गांव में पार्वतम्मा नाम की एक महिला रहती थी। उसके पति का नाम रामकुट्टी था । रामकुट्टी राज दरबार में एक कर्मचारी था, जहां वह इतना व्यस्त रहता कि यह कह पाना भी कठिन होता कि वह कब घर लौटेगा।

पार्वतम्मा अपना ज़्यादा समय भगवान सुबह्मण्य की पूजा में बिताती थी। वह सदा उसी की भक्ति में लीन रहती और उससे याचना करते हुए कहती, "स्वामी । तुम कब मुझे दर्शन दोगे? तुम कब मेरे हाथ से प्रसाद स्वीकार करने मेरे घर आओगे?"

एक दिन जब पार्वतम्मा हमेशा की तरह भगवान् के सामने याचना कर रही थी तो पुजारी भगवान् की मूर्ति के पीछे छिप गया और वहां से बला, "हे भक्तिन । मैं तुम्हारी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूं। आज सूर्यास्त के समय में तम्हारी यह याचना पूरी करूंगा।"

मंदिर में भगवान की आवाज सुनकर पार्वतम्मा खुश हो उठी । वह तुरंत अपने घर क ओर चल दी और भगवान को भोग लगाने के लिए तरह-तरह के पकवान तैयार किये। वह फिर प्रतीक्षा करने लगी।

शाम हो रही थी। इतने में उसे एक भिक्षक की आवाज़ सुनाई दी । वह पार्वतम्मा के घर के सामने खड़ा ज़ोर से "जय सुबह्मण्य" कह रहा था। उसे देखकर पार्वतम्मा को लगा कि शायद सुबह्मण्य स्वामी इसी रूप में आये हैं । वह उससे बोली, "पधारिए, पधारिए, स्वामी । यह मेरा अहोभाग्य कि आप मेरा आतिथ्य स्वीकार करने के लिए पधारे ।

यह सुनकर भिक्षुक बोला, "मैं एक साधारण भिक्षुक हूं, मैं भिक्षा लेने आया हूं।"

लेकिन पार्वतम्मा ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि वह उसे घर के भीतर ले गयी । भिक्षुक को एक आसन पर बैठाया और उसके सामने पत्तल बिछाकर उस पत्तल पर थोड़ा-थोड़ा कर पकवान रखने लगी। भिक्षुक बड़े मज़े से उन पकवानों को खा रहा था ।

जब वह खा रहा था तो पार्वतम्मा ने भक्ति-भाव से ओतप्रोत होकर उसके गुणों का बखान करते हुए भजन गाने शुरू कर दिये। सूर्यास्त हो चुका था। इसलिए पार्वतम्मा ने जल्दी से दीप भी जला दिये ।

तभी बाहर दरवाजे पर खट-खट हुई । पार्वतम्मा दरवाज़े की ओर दौड़ी और देखा कि पुजारी बड़ी सज-धज कर खड़ा है और साक्षात् भगवान सुबह्मण्य दिख रहा है।

पार्वतम्मा को अब अपनी गलती का एहसास हुआ । खैर, उसने तुरंत भीतर आकर उस भिक्षक को घर की टांड पर छिपा दिया। टांड में पूरी तरह अंधेरा था।

अब पार्वतम्मा ने पुजारी को भीतर बुलाया और उसे भोजन करवाने लगी। वह उसकी सेवा में पूरी तरह से लीन थी।

इतने में बाहर घोड़े की टापों की आवाज़ सुनाई दी। देखा तो पार्वतम्मा का पति ही घोड़े से उतर रहा था।

अब उसे कुछ परेशानी-सी हुई। उसने जल्दी से पुजारी जो भगवान का वेश बनाये हुए था, को नमस्कार किया और उससे बोली, "स्वामी, मेरे पति को भगवान् में बिलकुल विश्वास नहीं। वह गुस्सैल भी बहुत है। जब तक वह सहज नहीं होते, तब तक आप कृपया टांड पर छिपे रहें।" और यह कहकर उसने पुजारी को भी टांड पर चढ़ा दिया ।

पुजारी को मजबूरी में उस टांड पर ही छिपना पड़ा। अंधेरा था, वह दुबककर एक कोने में लेट गया।

भिक्षुक तो वहां पहले से था ही। उसका पेट भी भरा हुआ था। उसे नींद आ गयी नींद में उसे यह भी पता न चला कि वहां पुजारी भी लेटा है।

पार्वतम्मा का पति जब भोजन करने लगा तो ढेर सारे पकवान देखकर उसे अचंभा हुआ। उसने पत्नी से पूछा," यह सब क्या है? खीर , मिठाइयां इतना खाना !!!

पति के प्रशन का पार्वतम्मा ने इस प्रकार उत्तर दियाः "रात को मुझे सपना आया था कि आप आज आने वाले हैं। इसीलिए मैंने यह सब तैयारी की।"

पत्नी के उत्तर से पति खुश हुआ । अब वह खाना खा चुका था।वह आराम करने लगा तो उसे भी.नींद आने लगी।

आधी रात हुई तो भिक्षुक को बुरी तरह से प्यास लगी। वह जोर-ज़ोर से "पानी-पानी" कहने लगा।

पार्वतम्मा के पति की नींद खुल गयी। उसने पूछा, "यह आवाज़ कैसी है?"

पार्वतम्मा ने तुरंत उत्तर दिया, "हम पितरों को शांत नहीं करते न । इसीलिए वे इस तरह से चिल्ला रहे हैं।

पत्नी की बात पर पति ने विश्वास करते हुए अपने हाथ जोड़कर जोर से कहा, "हे मेरे बड़े-बुजर्गों, आइंदा आप जो भी कर्म कहेंगे, मैं उन्हें विधिवत पूरा करवाऊंगा। इस बार आप हमें क्षमा करें।"

पर भिक्षुक तो प्यास से बेहाल हो रहा था। वह और जोर से चीखा, "हाय, मैं प्यास से मरा जा रहा हूं।"

पार्वतम्मा ने टांड की ओर मुंह करके कहा, "हे भगवान् । पूर्व की दिशा में एक नारियल पड़ा है। वहीं एक पत्थर भी है। आप नारियल फोड़कर अपनी प्यास बुझा लीजिए।"

भिक्षुक ने पार्वतम्मा का संकेत समझ लिया। वहां पूर्व दिशा में वाकई एक नारियल पड़ा था। अंधेरे में उसे पुजारी का गंजा सर गोल पत्थर के समान लगा।

उसने उसी पर नारियल दे मारा।नारियल फूट तो गया, लेकिन साथ ही पुजारी का सर भी फट गया।

"बाप रे।" पुजारी भी अब जोर-जोर से चीखने लगा। फिर दर्द से छटपटाते हुए अंधेरे में ही उसका हाथ भिक्षुक के हाथ पर जा पड़ा। दोनों अब आपस में भिड़ गये, और गुत्थम-गुत्था होने लगे। टांड पर अब काफी हलचल मच गयी।

टांड पर हलचल की यह ध्वनि पार्वतम्मा के पति रामकुट्टी के कानों में भी पड़ी। वह डर गया। उसे लगा कि ज़रूर वहां प्रेतात्माएं हैं।

पार्वतम्मा ने इस स्थिति को भी संभालने की कोशिश की और अपनी आवाज में डर लाकर बोली, "उफ़, पितरों ने अब यह उग्र रूप धारण कर लिया है। मैं इनसे रोज प्रार्थना करती थी कि ये आपके लौटने तक शांत रहें । लगता है अब इन्हें पता चल गया है कि आप आ गये हैं।"

इतने में लड़ते-लड़ते भिक्षुक और पुजारी टांड से नीचे आ गिरे। बड़े जोर की आवाज हुई। रामकुट्टी डर गया । उसे लगा कि उसके पितर उससे रुष्ट हैं। वह डर के कारण अपने होशो-हवास खो बैठा। वह गिरता-पड़ता जल्दी से अपने घर से बाहर की ओर दौड़ा और एकदम घोड़े पर सवार होकर उस पर चाबुक बरसाने लगा। लेकिन ताज्जुब कि वे चाबुक स्वयं उसकी अपनी ही पीठ पर पड़ रहे थे।

अब रामकुट्टी और भी घबरा गया । उसे विश्वास हो गया कि उसके पितर उसका पीछा कर रहे हैं। वह बड़े ज़ोर-ज़ोर से याचना करने लगा, "मुझे छोड़ दीजिए ।मेरे कर्तव्य-पालन में आइंदा कभी कोताही नहीं होगी। मैं आपको वचन देता हूं।"

इसी बीच पार्वतम्मा को मौका मिल गया। उसने तुरंत भिक्षुक और पुजारी को घर से बाहर धकेल दिया । पर हां, उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि जिस भगवान् की उसने इतनी आराधना की, उसी भगवान् ने उसे इतना विचित्र अनुभव क्यों दिया।

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