रफू करने वाली सुई : यूरोप की लोक-कथा

Darning Needle : European Folktale

एक समय की बात है कि एक रफू करने वाली सुई थी। वह बहुत चिकनी और बहुत बारीक थी इसलिये वह अपने आपको सबसे बढ़िया किस्म की सुई मानती थी।

जैसे ही उँगलियाँ उसे सिलाई की टोकरी से निकालतीं वह बोलती — “मुझे सँभाल कर रखना क्योंकि अगर मैं गिर गयी तो मैं फिर नहीं मिलूँगी। मैं इतनी बारीक हूँ कि दिखायी भी नहीं दूँगी।”

उँगलियाँ कहतीं — “अच्छा, तुम ऐसा सोचती हो?”

“अच्छा अच्छा, मुझे रास्ता तो दो। मेरे पीछे मेरी पोशाक भी आ रही है।” सुई ने घमंड से कहा और बड़ी शान से अपने पीछे लम्बे धागे को खींचती हुई आगे चल दी।

उँगलियों ने उस सुई को रसोइये के स्लिपर की ओर बढ़ाया क्योंकि वे टूट गये थे। सुई ने मुँह बनाते हुए कहा — “मुझ जैसी कोमल सुई से इतना भारी काम? इस चमड़े तो मैं कभी भी नहीं घुस सकती, मैं तो टूट जाऊँगी।”

और जैसे ही उँगलियों ने उसको उस स्लिपर में घुसाया तो वह तो सचमुच ही टूट गयी।

सुई चिल्लायी — “मैंने कहा था न कि मैं बहुत कोमल हूँ मैं टूट जाऊँगी।”

उँगलियों ने सोचा अब तो यह खत्म हो गयी लेकिन रसोइये ने उसके टूटे सिरे पर छोटा सा लाख का टुकड़ा चिपका दिया और उसे अपनी पोशाक में सामने की ओर घुसा लिया।

सुई फिर शान से बोली — “अहा, अब तो मैं बन गयी। मैं जानती हूँ कि मैं हमेशा बड़े कामों के लिये इस्तेमाल की जाती हूँ।” वह रसोइये के सीने पर आराम से बैठी थी।

उसने अपनी पड़ोसन पिन से पूछा — “क्या तुम सोने की बनी हो? बड़ी सुन्दर लग रही हो और क्या तुम्हारा सिर भी अपना है, मगर है छोटा सा, शायद कुछ समय बाद बड़ा हो जाये। मुझे मालूम है कि हर एक के सिर पर लाख का मुकुट नहीं होता।”

और यह कहते कहते वह कुछ और घमंड में भर गयी और फिर उसने अपने आपको तान कर खींच लिया। पर यह क्या? जैसे ही उसने अपने आपको खींचा तो वह तो रसोइये की पोशाक से निकल कर रसोई के सिंक में जा गिरी क्योंकि रसोइया उस समय सिंक साफ कर रहा था।

“शायद मैं सफ़र कर रही हूँ। मुझे अपने ऊपर पूरा भरोसा है कि मैं खोऊँगी नहीं।” पर वह तो पहले ही खो चुकी थी।

सिंक में से होती हुई वह गटर में पहुँच गयी। गटर में पहुँचते ही वह बोली — “मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि मैं इस दुनियाँ के लिये कुछ ज़रा ज़्यादा ही कोमल हूँ।”

मगर वह घवरायी नहीं। बहुत सी चीज़ें उसके ऊपर से तैरती चली जा रहीं थीं, डंडियाँ, तिनके, पुराने अखबारों के टुकड़े।

“अरे ये सब चीज़ें कैसी तैरती हुई चली जा रही हैं। क्या ये जानती हैं कि इनके नीचे क्या है? शायद ये नहीं जानती होंगी कि मैं यहाँ बैठी हूँ। उस तिनके को देखो जो बराबर घूमे जा रहा है, घूमे जा रहा है, घूमे जा रहा है।

दोस्त, तुम अपने आप पर इतने खुश न हो, अभी तुम किसी पत्थर से भी टकरा सकते हो, और वह अखबार के टुकड़े, उन पर लिखे शब्द तो लोग कबके भुला चुके होंगे पर अखबार का यह टुकड़ा तो इस तरह फैला हुआ जा रहा है मानो अभी नयी ताजी खबर ले कर आया हो। मैं तो यहाँ शान्ति और धीरज से बैठी अच्छी।”

एक दिन उस सुई ने अपने पास कुछ चमकता हुआ देखा। उसको विश्वास था कि वह हीरा ही होगा लेकिन असल में वह टूटी हुई शीशी का एक काँच का टुकड़ा था लेकिन वह क्योंकि बहुत ज़ोर से चमक रहा था सो सुई अपने आपको उससे बात करने से न रोक सकी।

उसने उसको अपना परिचय ब्रूच कह कर दिया और बोली — “तुम तो कोई हीरे लगते हो।”

“हाँ, हूँ तो मैं कुछ कुछ उसी जाति का।” सो दोनों के दिल में एक दूसरे के लिये इज़्ज़त बढ़ गयी।

उन्होंने आदमियों के बुरे बरतावों पर बात करनी शुरू की।

पहले सुई बोली — “एक बार मैं एक भली सी स्त्री की सिलाई की टोकरी में रहती थी। यह स्त्री रसोई बनाती थी। उसके दोनों हाथों में पाँच पाँच उँगलियाँ थीं। वही मेरी देखभाल करती थीं। वे कभी मुझे उठातीं, कभी मुझे फिर टोकरी में रख देतीं।”

काँच के टुकड़े ने पूछा — “ये तो बताओ कि वे चमकती भी थीं कि नहीं?”

“नहीं, वे चमकती तो नहीं थीं पर वे पाँच बहिनें थीं और उनका पारिवारिक नाम उँगलियाँ था। वे पास पास सीधी खड़ी रहती थीं। लेकिन उन सबकी लम्बाई एक दूसरे की लम्बाई से अलग थी।

उनमें से एक का नाम अँगूठा था। वह छोटी और मोटी थी। उसकी कमर में एक ही जोड़ था और वह केवल कमर से ही मुड़ सकती थी पर फिर भी उसका दावा था कि उसके बिना आदमी बेकार है और बिना उसके वह कभी सिपाही नहीं बन सकता।

दूसरी उँगली तर्जनी उँगली थी और वह हमेशा ही दूसरों के कामों में टाँग अड़ाती थी और उनकी तरफ इशारा किया करती थी। उसका कहना था कि अगर वह न हो तो कोई लिख ही नहीं सकता था।

बीच की उँगली मध्यमा उँगली थी। वह उन सब उँगलियों में सबसे लम्बी थी और इसका उसे बड़ा घमंड था।

चौथी थी अनामिका। उसकी कमर में एक छल्ला पड़ा रहता था। तुम सोच सकते हो कि वह वह उस छल्ले को पहन कर कितनी शानदार लगती होगी।

पाँचवीं जो सबसे छोटी थी, सुबह से शाम तक कोई काम नहीं करती थी पर फिर भी वह चाहती थी कि उसकी हर समय प्रशंसा की जाये।

मैं तो उससे तंग आ गयी थी इसलिये मैंने उन्हें छोड़ने की ठान ली। मैंने अपने आपको एक सिंक में गिरा लिया और यहाँ आ गयी। और यहाँ देखो न हम दोनों ही चमक रहे हैं।”

इसी समय पानी का एक बहाव आया और वह काँच का टुकड़ा सुई की नजरों से ओझल हो गया। “अरे वह तो चला गया, कोई बात नहीं मैं यहाँ शान्ति से बैठूँगी।” कह कर सुई गहरे विचारों में डूब गयी।

“मैं इतनी सुन्दर हूँ कि मुझे तो सूरज की किरन से पैदा होना चाहिये था। मैंने यह अक्सर देखा है कि मैं कहीं भी हूँ सूरज की किरनें मुझे किसी न किसी तरह ढूँढ ही लेती हैं जबकि मेरी माँ मुझे नहीं खोज सकती।”

एक दिन सड़क से कुछ आदमी गटर में झाँक रहे थे। कभी उन्हें कोई पुरानी कील मिल जाती तो कभी कोई खोया हुआ सिक्का।

एक बोला — “ओह, यह सुई देखो, कितनी गन्दी और पुरानी।”

“मैं गन्दी और पुरानी नहीं सुन्दर और चिकनी हूँ।” सुई ने हालाँकि यह बहुत ज़ोर से कहा था पर किसी ने सुना ही नहीं। उसका लाख का मुकुट कहीं खो गया था और वहाँ अब उसका काला सिरा निकल आया था।

एक लड़का चिल्लाया — “वह देखो, अंडे का एक खोल बहता चला आ रहा है।”

उसने वह सुई ली और उसकी नोक को उस खोल में डाल कर उस खोल को उठा लिया। सुई फुसफुसायी — “ये सफेद दीवारें मेरे काले शरीर को चमकाने के लिये बहुत ठीक हैं। मुझे विश्वास है कि मुझे समुद्री बीमारी नहीं होगी नहीं तो मैं तो टूट ही जाऊँगी।”

मगर न तो उसे कोई समुद्री बीमारी हुई और न वह टूटी।

“यही तो फायदा है लोहे के पेट का। अब मैं ठीक हूँ। वही ज़्यादा कोमल है जो ज़्यादा दिन तक ज़िन्दा रह सकता है।

फड़ाक़ अंडे का खोल चिल्ला कर टूट गया क्योंकि उसके ऊपर से एक भारी गाड़ी गुजर गयी थी।

“उफ़ कितना भारी वजन था इस अंडे के ऊपर। इस वजन से तो मुझे लगता है कि मैं तो बीमार हो जाऊँगी और या फिर टूट जाऊँगी।” लेकिन उतने भारी वजन से भी वह सुई न तो टूटी और न ही वह बीमार पड़ी। वह वहीं लेटी रही।

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