दरार (कहानी) : दंडपाणी जयकांतन
Daraar (Tamil Story in Hindi) : Dandapani Jayakanthan
पायल की झनन...झन
चूड़ियों की खनन...खन...
अन्दरवाले लम्बे प्रांगण में दायीं ओर आठ साल के पोते मुत्तु और बायीं ओर चार साल की पोती विजी के बीच में लेट रहे कैलासम पिल्लै ने गरदन उठाकर देखा।
बहू सरसा हाथ में दूध का प्याला लिये शयन-कक्ष की ओर जा रही थी। अपने ऊपर फिसल रही निगाह से सचेत हो सरसा ने अपनी गरदन झुका ली।
बुढ़उ अभी भी छबीले रसिया हैं!
कैलासम पिल्लै की निगाह उसके पीछे-पीछे दौड़ी। सरसा अपने कमरे के अन्दर दाखिल हुई। दरवाजा क्री...च की आवाज के साथ बन्द हो गया। पिल्लै की आवाज बन्द दरवाजे पर ही अटककर रह गयी।
दरवाजे के पट पर बीचोंबीच चित्रलिखित-सी एक नवयौवना का रूप अंकित हुआ। मधुर मधुमय षोडशी!
करीने से सँवारे बालों में माँग का टीका, बल खाती वेणियों में सीसफूल, माथे पर आभा बिखेरती मोतियों की लड़, विम्बाधरों के ऊपर झूलती नथनी, कुहनी तक उतरती चोली की बाँहें, सरसराती जरीदार साड़ी-ऐसी वेशभूषा में लज्जा से सिहरती खड़ी थी वह युवती। उसके गदराये हुए सौन्दर्य में नवयौवन की तरलता के साथ हिरनी जैसी कातरता समायी हुई थी। श्यामल भ्रू-लता के नीचे जगमगाते काले कजरारे नयन...और उन विशाल नयनों में थिरकती भयातुरता...
हाँ, यह तस्वीर थी उनकी पत्नी धर्माम्बाल की...जब वह नवयौवना थी।
वह...वह छवि दरवाजे के पट से निकलकर उनकी ओर आने लगी। ऐसा लग रहा था कि लज्जा, भय, संकोच, तड़प, काम-वासना, चपलता, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम-ये सारे भाव एक सुन्दर रमणी में साकार होकर उनकी तरफ बढ़ रहे हैं। कैलासम लपककर उसे अपने अंक में भर लेना चाहेंगे।
रसोई का काम निपटाकर प्रांगण में आयी धर्माम्बाल ने पोते-पोती के पास अपनी चटाई बिछायी।
पैरों की आहट सुनकर स्वप्नलोक से उतरे पिल्लै ने पत्नी की ओर देखा।
दादी ने ऊटपटाँग सो रहे पोते को सही ढंग से लिटाया।
"बच्चा है क्या, पूरा शैतान है! दिन-भर हो-हल्ला करते हुए धमाचौकड़ी भरता है, रात में कटे पेड़ की तरह बेसुध सोता है। अरे रे...ऐसा भी कोई ऊधम? ...कैसा उछलकूद?..." झल्लाये स्वर में आत्मालाप करते हुए उसने पोते की पीठ सहलायी।
आखिर अपने इकलौते बेटे कण्णन का सीमन्त पुत्र है न!
"आठ साल का हो गया...उम्र के हिसाब से कितना छोटा दिखता है! ठीक से खाना-वाना खाए तब न..." धर्माम्बाल ने गहरी साँस लेते हुए चिन्ता व्यक्त की।
छुटकी विजया चार साल की है-दादी की लाड़ली। चटाई से लुढ़ककर फर्श पर पड़ी थी। दादी ने उसे भी खींचकर चटाई पर लिटाया।
"हुँ...दादी" लड़की बुदबुदायी।
"कुछ नहीं...गुड़िया! फर्श पर लेटी थी न!...म्...सो जा!" धर्माम्बाल ने उसकी पीठ थपथपायी।
कैलासम अपनी हरी-भरी जवानी की स्मृतियों में खोये हुए-से चुपचाप उठ बैठे थे।
"आप अभी तक क्यों बैठे हैं...क्या आपको भी लोरी गाकर सुलाना होगा?...दूध पीकर सो जाना था। दूध कब का रखा है...एकदम ठण्डा हो गया होगा..." उलाहना देती धर्माम्बाल ने पति के बेतरतीब पड़े बिस्तर को ठीक किया।
"जरा अपने हाथ से वह प्याला पकडा दो न!"
दूध का प्याला लेते हुए उन्होंने उसका हाथ थाम लिया।
"यह बता...कहती हो कि लेटकर सो जाओ...बता मेरी किस चहेती ने मुझे पान कूटकर खिलाया...?" उसका हाथ थामे धीरे से हँसकर पूछा।
"हँसी-ठट्ठा तो देखो! कहावत है न!-जिस घर में बच्चा न हो, बूढ़ा उछल-कूद करता है।..छोड़िए न मेरा हाथ।"
"क्या कहा? बूढ़ा कौन है ?...मैं...?" कैलासम पत्नी के गाल पर थपकी देते हुए हँसे।
"ना...ना।...आप तो अभी सत्रह पार कर अठारह में पहुँचे हैं।..बताइए कोई लड़की ढूँढ़ी जाए?"
"किसलिए। अरी तुम तो हो न!" कैलासम ने उसका आँचल पकड़कर खींचा।
"अरे, यह क्या कर रहे हैं?"
फिर से हँसी का फव्वारा। बढऊ आज सचमुच नटखटपन पर उतर आये हैं।
दूध पीते ही बदन पसीने में तर-ब-तर हो गया। गमछे से बदन पोंछते हुए बोले-"उफ़!...कैसी उमस है!..बाप रे!...चटाई जरा आँगन में बिछा दे। मैं पानदान लेकर आता हूँ।" कहते हुए उठ गये।
"धर्माम्बाल ने चटाई लपेटी और बत्ती बुझा दी। आँगन में उस जगह चटाई बिछा दी जहाँ रुपहली चाँदनी छनकर आ रही थी।
"वाह...मैया री?...कैसी ठण्डी हवा है यहाँ!" चटाई पर बैठकर धर्माम्बाल ने अपने पैर पसार लिये।
उसने आँचल से कोहनी और भुजबल्ली पर रिसते पसीने को पोंछा। चोली का बटन खोल, पीठ पर से उसे सरकाया और हाथ के पंखे को उलटाकर उसके हत्थे से पीठ खुजलाने लगी।
कैलासम पिल्लै पत्नी के पास बैठकर, दग्ध-धवल चाँदनी से मण्डित जाज्वल्यमान नभोमण्डल को शून्य दृष्टि से देखने लगे।
गगनांचल पर उमड़कर तिरते बादल जब चाँद के समीप आते तो आभामण्डित दिखते और चाँद से हट जाते तो कालिमा में गहराये जाते। बादलों की छिन-छिन बदलती यह रंग-छटा और क्रीड़ा नयनाभिराम लग रही थी।
इस चाँदनी की आभा में...हाँ यही तो है वह चाँद...समय चाहे जितना बीतता चला जाए, चाँद वही होता है न। इस चाँदनी में दादी की गोद में बैठकर कहानियाँ सुनते हुए दूध-भात खाने की उम्र से लेकर, बाद में अपनी प्राणप्रिय पत्नी की गोद में सिर रखकर मीठे सपनों में तिरते हुए ताम्बूल ग्रहण करने तक की सारी घटनाएँ...
वे घटनाएँ उनके मानस-पटल पर एक-एक करके उभरती। चाँदी की आभा में जैसे बदलियाँ उजली हो उठती हैं, स्मृति में घुलकर जाज्वल्यमान हो उठतीं। फिर स्मृति से हटने पर आभाहीन हो काली बदली बनकर सरकती जाती।
कहाँ बदलियाँ और कहाँ हैं चाँद? कहाँ है वे स्मृतियाँ और कहाँ हैं अपनी मौजूदा हालात?
क्या यादें तभी आती हैं जब हम सोचने बैठे? जब हम चिन्तन नहीं करते होते, कहाँ रहती हैं ये यादें?...कैसे उठती हैं ये मन में?...स्मृति क्या है?...हम जो सोचते हैं वह सब सचमुच घटित हुआ था? जो घटित न हुआ हो, क्या हम उसे लेकर सोचते नहीं? तो इसका मतलब यह हुआ, हम जो बात सोचते हैं वही पूरी तरह से सच होगी। क्या हम मिथ्या आशाओं, निरर्थक कल्पनाओं और अनर्गल सपनों के बारे में निरन्तर सोचते रहें तो क्या वे चिन्तन के स्तर पर सच नहीं होंगे?
"छ र् र् र्...छ र् र् र्...."
रात की नीरवता में धर्माम्बाल सरौते से सुपारी काट रही थी, उसी की ध्वनि थी।
कैलासम अपनी पत्नी को देख-देख स्वयं को भी देख रहे थे।
धर्माम्बाल ने, हथेली में धरे पान पर, सूखकर जम रहे चूने को खुरच डाला, फिर वह लोहे की खरल में उस सुपारी के साथ डालकर कूटने लगी।
कैलासम की जीभ मसूढ़ों पर उन जगहों को टटोलने लगी जहाँ पहले दाँत हुआ करते थे।
-हुँ...मेरे दाँत तो हमेशा से जरा कमज़ोर ही हैं...। उन्होंने अपने बदन को एक बार फिर सहलाकर देखा। बाँह मोड़कर भुजबल को तोला। हाथ झटककर उँगलियों को चटकाया। रोमराजि से भरे सीने में और भुजाओं में चमड़ी जरूर कुछ ढीली हो गयी है, फिर भी मांसपेशियों में अब भी कसाव है।
कैलासम सच में गठे हुए बदन के धनी थे...एक समय था जब उनके शरीर में आसुरी ताकत थी, अब कम हो गयी तब भी मानुषिक बल तो था ही।
अभी पिछले साल उनकी षष्ठी-पूर्ति सम्पन्न हुई थी।
धर्माम्बाल की उम्र होगी पचास और साठ के बीच में।
बाँस की तरह पतली सुगठित देह। छरहरी होने पर भी शरीर में ताकत थी। इतनी ताकत न होती तो क्या वह चालीस-पैंतालीस वर्ष उन्हें झेल पाती?
बूढ़े कैलासम के हाथ ने पत्नी के कन्धों का स्पर्श किया।
"यह क्या...इस उम्र में भी मचल रहे हैं? पान खाकर लेट जाइए...!" कहते हुए धर्माम्बाल ने कुटी पान-सुपारी का गोला उनके हाथ में दे दिया और शेष बचा अंश अपनी दाढ़ में रखकर चबाने लगी।
वैसे धर्माम्बाल के दाँत साबुत हैं। फिर भी पति के साथ साझे में कुटे ताम्बूल का आनन्द ही अलग होता है। पिछले छह साल से यही ढर्रा चल रहा है।
इस दम्पती के बीच में आज तक लेश-मात्र भी मतभेद या मनमुटाव नहीं हुआ है। झगड़े-टण्टे के लिए वहाँ निमित्त सामने आए तब न? आज तक उन्होंने अपनी पत्नी को 'चल, दूर हट' तक नहीं कहा। यह बात अलग है, अगर वे ऐसा कहते भी तो क्या धर्माम्बाल उसे बरदाश्त कर पाती? सच तो यह है कि ऐसा कहते हुए खुद उनकी जीभ ऐंठ न जाती।
हँसी-खुशी के माहौल में अब तक का दाम्पत्य जीवन बीत गया।
मगर कैसे कह सकते हैं, पूरा ही दाम्पत्य जीवन उन्होंने हँसी-खेल में बिता दिया? यही सत्य है कि अब तक का जीवन इसी तरह बीत चला
है।
चाँदनी में कालिमा छा गयी। हर कहीं निपट मौन। दालान में लेटे मुत्तु ने नींद में कुछ बड़बड़ाते हुए करवट बदली। कमरे के अन्दर से चूड़ियों की खनखनाहट, पलंग की चरमराहट और नारी की फुसफुसाहट...
कहीं किसी पंछी के पंख फड़फड़ाने की आवाज...कोई चमगादड़ आँगन के ऊपर दिख रहे सीमित आकाश को आर-पार काटते हुए विशाल आकाश की ओर उड गया।
आँगन का एक हिस्सा अँधेरे में डूबा था।
चाँद सामने के खपरैल की छत के नीचे उतर गया।
जहाँ वे लेटे थे, वहाँ साये का अँधेरा चाँदनी के लिए पर्दा बना हुआ था...
धर्माम्बाल सहसा भीतर ही भीतर खिलखिला उठी-मुखर हुए बिना हुलस गयी, मानों उसकी जवानी लौट आयी हो।
बूढ़े कैलासम के चौड़े सीने पर उसने अपना चेहरा छिपा लिया...सोने के कंगन वाले उसके दोनों हाथ बूढ़े की पीठ पर चमक उठे।
चाँदनी हो या अँधेरा, दिन हो या रात, यौवन हो या बुढ़ापा-सुख जो है इन सबसे परे होता है!
हाँ, वह आनन्द तो मन की अवस्था है। यदि रहे तो वह हर समय में, हर दशा में, हर व्यक्ति के लिए अनुकूल ही होगा। धर्माम्बाल और कैलासम अक्षय सुख के धनी हैं। उम्र से क्या फर्क पड़ता है।
ठक् ...ठक् ...
कैलासम ने चटाई चाँदनी में खींच ली थी। लोहे की खरल में पान कूट रहे थे।
धर्माम्बाल पास में लेटी है...नींद, नहीं, खुमारी!
"आप अभी सोये नहीं हैं?"
"हुँ...पान खाना है?"
"उ...म्...खम्भे के पास लोटे में पानी रखा है। जरा ला देंगे? उफ् , गजब की प्यास लगी है।" धर्माम्बाल थूक निगलती हुई बोली।
"मुझे भी पानी पीना है!" कहते हुए कैलासम उठे, लोटे से पानी पिया और उसे लेकर आ गये।
जब वे आ रहे थे, चाँदनी में उनके हृष्ट-पुष्ट शरीर को देखकर धर्माम्बाल का मन यौवन-अवस्था में लौटकर उस सौन्दर्य पर लट्टू हो गया।
वे उसके पास आकर बैठ गये।
छककर पानी पीने के बाद धर्माम्बाल, गहरी साँस लेते हुए सम्पूर्ण रूप से उन पर झुक गयी और उनके बलिष्ठ हाथों को सहलाती रही। उसे अचानक हँसी आ गयी...खिलखिला उठी।
"क्यों, हँस क्यों रही हो?"
"कुछ नहीं, अगर कोई बुड्ढे-बुढ़िया की इस रास-लीला को देख ले तो हँस ना पड़ेगा! यही सोचकर मैं हँसी।" कैलासम ने वर्जना की मुद्रा में उसके सिर पर हलकी-सी थपकी दी, "बता, कौन है बुड्ढा?"
वे जोर से हँसे, वह भी हँसी में शामिल हो गयी।
धर्माम्बाल उठ बैठी। उसने दुबारा पान खाया। उसकी निगाहें झुकी ही थीं।
सुहागरात में भी शायद इतनी लज्जा उसके शरीर में व्यापी नहीं होगी जितनी आज दिख रही थी।
बूढ़े कैलासम ने उसके मुँह को सहलाया। उसने निगाहें ऊँची करके उन्हें देखा। वे उसकी आँखों में आँख डालकर मुस्कराये।
"धत्...आप भी बड़े वो हैं।" लज्जा-मिश्रित स्वर में उन्हें उलाहना दिया। अनुभूत आनन्द से उसका अंग-अंग हुलस रहा था। हँसी फूट निकली।
कैलासम भी उपलब्धि की भावना से फूले नहीं समा रहे थे।
उन्हें लगा कि हास्य-विनोद की बातों से जरा उसका मन बहलाएँ।
हथेली पर तम्बाकू को मसलते हुए मन ही मन हँसते हए बोले :
"यह तो कुछ भी नहीं। एक ज़माने में मैंने जो विलास-लीलाएँ की, वह सब तुम्हें थोड़े ही मालूम है..." कहते हुए उन्होंने गरदन उठायी और तम्बाकू मुँह में रख ली।
"क्यों? खेलने के लिए आप विलायत गये थे?"
"धर्मू, तुम्हें नहीं पता। तुम तो सदा ही नादान बच्ची रही हो। उन दिनों मैंने तुम्हें बताया नहीं। अब बता दूं तो कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।"
वे उठकर नाली की ओर गये और तम्बाकू की पीक निकालकर वापस आये।
"हमारे पासवाली गली में गोमती थी न, याद है?..."
पैरों में पायल की झंकार के साथ, काले नाग की तरह वेणी बल खाती हुई हवा में डोलती, नयन और अधर मर्मभरी कहानियाँ सुनाते, 'मुझे इनके साथ अपने झगडे निपटाना है'...जैसे भाव को नाट्य-मुद्रा में प्रकट करती-नृत्यरत सुनहली पुतली-सी गोमती की छवि धर्माम्बाल की स्मृति में उभर आयी...क्षण भर के लिए विभ्रम में डालने के बाद वह छवि स्थिर खड़ी रही...
"याद आ गयी न!...उन दिनों उससे टक्कर लेनेवाली कौन थी?...कुछ भी कहो इन देवदासियों को मानना पड़ेगा। पुरुष को रतिसुख देने में क्या घर की औरतें इनका मकाबला कर सकती हैं?"
"हुँ..." धर्माम्बाल की आँखें नये अर्थबोध का कौतुक लेकर बूढ़े के चेहरे पर टिकी रहीं।
मन?
ओह, यह बात है? तभी तो उस ज़माने में उसका नृत्य कहीं भी हो भाग-भाग कर पहुँचते थे लाला!...पुराने दिनों की कई घटनाओं को जोड़कर खोज-बीन कर रहा था उसका मन।
बुढऊ शरारती अदा में मस्त होकर अपनी लीलाओं का बखान करते जा रहे थे-
"तुम्हें याद होगा, एक बार नीलगिरि में मेरा तबादला हो गया था। कण्णन तब गर्भ में था, सातवाँ महीना...याद है?"
"हुँ..." धर्माम्बाल की आँखें शून्य को घूरते हुए फिर रही थीं। उसके अन्दर से एक आवाज़ उठी, "यह सच है! हाँ यह सच है!"
"क्या तुम सोचती हो कि मैं नीलगिरि अकेले गया था? अरी पगली...वही गोमती मेरे साथ गयी थी...अहा, तराशी हुई मूर्ति के समान उसकी देह...हुँ...पता है, आखिर में उसने मुझसे क्या कहा?" बूढ़े कैलासम मन-ही-मन हँसे।
"गोमती ने कहा था, अब तक कितने ही मदों से मेरा पाला पड़ा है, लेकिन असली मर्द कोई है तो आप ही हैं..." कैलासम फिर हँसे।
कैसी हँसी है यह...झूठी हँसी या सच्ची हँसी...
धर्माम्बाल की छाती आक्रोश से, ठगे जाने के...प्रवंचना दिए जाने के आक्रोश से दहक उठी।
"क्या यह सच है?..."
"और क्या?...क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ?...जाने दो, अब क्या रखा है इन सब बातों में...कभी की घटी बातें?..."
'दैया रे, कैसा इनसान है तू भी! सच हो या झूठ, कम-से-कम उसके सन्तोष के लिए ही कह देते कि यह सब झूठ है।'
माना कि धर्माम्बाल बूढ़ी है। फिर भी वह है तो स्त्री ही।
'धोखेबाज, छलिया!' उसका हृदय तड़प उठा। पता नहीं क्यों मन ने मान लिया कि यह सच है, झूठ नहीं है। मन में संशय का लेश तक नहीं उठा कि यह झूठ भी हो सकता है। हाँ, दाम्पत्य का रहस्य यही है।
धर्माम्बाल झट से उठी, डगमगाते कदमों से चलकर अँधेरे कोने में गिर पड़ी।
"अरी...धर्मू...नाराज हो गयी...तू भी पगली है, निपट पगली..."
मजाक में हँसते हुए कैलासम ने चटाई पर अंगोछा बिछाया और लेट गये।
'तो क्या यह मजाक था? ऐसा भी कोई मजाक होता है ?...बूढ़े की जीभ पर शनि देवता आकर बैठे थे।'
बारह बज गये। कैलासम सो गये। धर्माम्बाल की आँखों में नींद नहीं।
दूसरे दिन...
दूसरे दिन की क्या बात है, दूसरे दिन से जीवन-भर...
धर्माम्बाल ने अपने हाथ से उन्हें काफ़ी नहीं दी, दन्त-मंजन करने या स्नान के लिए गर्म पानी नहीं दिया। उनका खाना नहीं परोसती, पानसुपारी कूटकर नहीं देती।
बूढ़े बिचारे अनाथ शिशु की तरह एकान्त में कलपने लगे।
जहाँ तक धर्माम्बाल का सवाल था, उसके जीवन में मानो कैलासम पिल्लै नामक किसी व्यक्ति का कोई अस्तित्व तक नहीं था, वह इस तरह बरताव करने लगी कि ऐसे किसी व्यक्ति से कभी उसका वास्ता ही नहीं पड़ा। उनसे क्यों, किसी से वह एक शब्द भी नहीं बोलती।
बेटे और बहू ने कुरेद-कुरेद कर पूछा भी। धर्माम्बाल मौन साधे रही।
बूढ़ा?-वह मुँह खोलकर क्या कहते?
वे भी मौन साधे रहे।
उस रात को विजया ने पूछा :
"दादी!...क्या तुमने दादाजी से कुट्टी कर रखी है?"
तब भी उसने अपना मुँह नहीं खोला।
"क्यों दादा जी, दादी आपसे बोल नहीं रही है, क्यों? क्या आपने दादी को पीटा है?" मुत्तु ने बार-बार तंग किया।
बूढ़े से रहा नहीं गया।
"क्यों धर्मू...मैंने सिर्फ मजाक किया था तुमसे। जो भी बोला था सब झूठ था। क्या तुम मुझे जानती नहीं? क्या तुम्हारा यही खयाल है कि मैं मन से तुम्हारे साथ छल करूँगा? इतने साल तक साथ जीने पर भी तुमने मुझे नहीं पहचाना! धर्मू...ओ धर्मू सुनो तो!"
यह भी कोई जीना हुआ?...हाय मेरा जीवन तबाह हो गया। साथ जीने के भ्रम में बरबाद हो गयी...
यह भी उसने मुँह खोलकर नहीं कहा। बच्चे सो गये थे।
कैलासम ने अपनी पान-सुपारी आप ही कूट ली।
"धर्मू...मुझ पर भरोसा क्यों नहीं करती?" कहते हुए उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा।
चोट खाये जानवर की तरह अपना शरीर खींचकर वह दूर हट गयी। उसका शरीर थर-थर काँप उठा।
"धत्..." आवाज़ में घिन भर कर बोली, "अब की छुएँगे तो शोर मचा दूँगी, मेरी कसम...जग हँसाई हो जाएगी, हाँ।"
उसकी साँसें जोर-जोर से चलने लगीं-सारा बदन पसीने से तरब-तर हो गया। जीवन में पहली बार उसने यों तिरस्कार के स्वर में बात की थी।
कैलासम को काटो तो खून नहीं। उनके मन में बवण्डर चलने लगा। उठकर टहलने लगे।
'मुझ पर...मुझ पर शक करती है यह!' सोचते हुए छाती से कोई गोला-सा उठकर गले में रुंध गया। आँखें भर आयीं।
'मुई, उसे सद्गति नहीं मिलेगी।' मन ने उसे कोसा।
बेसहारे अनाथ की तरह बाहर के बरामदे में खाली फर्श पर लेट गये।
जब से धर्माम्बाल का हाथ पकड़ा था, आज पहली बार उनकी आँखों से अश्रुधार अविरल रूप से बह निकली। अन्दर से एक कराह'अभागा...कितना अभागा हूँ मैं!'
दुर्भाग्य अपने अन्तिम खेल के लिए तैयार हो गया।
रात के आठ बजे होंगे। घर के द्वार पर डाक्टर की कार खड़ी है।
दालान से सटे कमरे में धर्माम्बाल बिस्तर पर पड़ी है। उसके चारों ओर पोता-पोती और बहू-बेटा खड़े हैं-डॉक्टर सुई लगा रहे हैं।
बाहर वाले बरामदे में खड़े कैलामस पिल्लै धड़कते दिल से खिड़की से अन्दर झाँक रहे हैं।
भीतर जाने की अनुमति नहीं है।
डाक्टर बाहर आ रहे हैं। कण्णन उनकी पेटी लिए पीछे पीछे आ रहा है।
"डॉक्टर, बच जाएगी मेरी धर्मू?" कैलासम पिल्ले का स्वर डाक्टर का रास्ता रोक रहा है।
डाक्टर ने कोई जवाब नहीं दिया। सिर झुकाकर कैलासम पिल्लै के शोक को कुचलते हुए चल निकले।
बूढ़े कैलासम अनियन्त्रित आवेश के साथ अन्दर भाग रहे हैं।
"धर्मू...धर्मू...मुझे छोड़कर चली न जाना...धर्मू!"
चारपाई पर चित्त लेटी धर्माम्बाल के शरीर में, अंगों में कोई चलन नहीं, कोई स्पन्दन नहीं।
प्राण हैं?...
माथे पर एक मक्खी आ बैठती है। भौंहों का कोर जरा सा हिल रहा है...आँखें खुलकर पुतलियाँ चारों ओर घूम रही हैं।
सजल नयनों से कण्णन प्याले से माँ के मुँह में दूध डालता है।
'कौन...कण्णन?...रिश्ता दूध से ही होता है रे...यह रिश्ता भी अब खत्म होनेवाला है!...'
अब सरसा दूध पिला रही है...
'बेटी, दोनों बच्चों को अकेले कैसे संभालेगी?'
पोता मुत्तु...'दादी...दादी' पुकारते हुए दूध डालता है।...
आँखों में ऐसी एक चमक, मानो मुत्तु को अंक में भर लेना चाहती हो।
घटना की गम्भीरता समझने में असमर्थ, घबराई विजी की नन्ही उँगलियाँ जब दादी के ओठों पर दूध डालने लगीं...
क्या इस दूध में ऐसी मिठास है?...चेहरे पर एक अनोखी आभा। दूध गले के नीचे 'गट गट' उतर जाता है।
अं
गोछे में मुंह छिपाये खड़े रहे कैलासम सहमे हुए-से सामने आते हैं।
'क्या अब भी मुझे माफ नहीं करेगी?' वही अकुलाहट!
दूध का प्याला लेते समय हाथ थरथर काँप रहे हैं।
"धर्मू...ध...क्या मुझे नहीं देखोगी?..."
"कौन है?"...उसकी फटी-फटी आँखें चारों ओर घूमती हैं।
अदम्य शोक के साथ, फड़कते अधरों पर आँसुओं के संग जरासी मुस्कान भरते हुए कैलासम दूध का प्याला उसके होठों से लगाते हैं।
धर्माम्बाल दाँत भींचकर मुँह बन्द कर लेती है। मिर्गी के दौरे की तरह उसका चेहरा एक तरफ़ को खिंच जाता है। देखते-देखते मुँह कन्धे की ओर लटक जाता है।
मुँह के कोर से दूध नीचे गिर जाता है!
"हाय...माँ जी!..." सरसा की चीख फूट पड़ती है।
"माँ...दादी...हुँ..." कहते हुए मुत्तु माँ से लिपटकर रोता है। विजी कुछ समझे बगैर आँखें फाड़-फाड़कर देखती है...कण्णन सिर झुकाकर आँसू बहा रहा है।
बूढ़े कैलासम के तेवर देखने लायक हैं...वे तनकर खड़े होते हैं, चेहरा तना हुआ, आँखों में अश्रु का प्रलय, क्रोध का बड़वानल...
माना कि कैलासम बूढ़े हैं, मगर वे पुरुष ही तो हैं!
"मैं अपने हाथों से इसे मुखाग्नि नहीं दूंगा।"
दूध के गिलास को फेंककर कमरे से बाहर निकल जाते हैं...
"आँगन में छिटकी चाँदनी में, दूध का प्याला ठन्न...ठन, ठनन...ठन की आवाज़ के साथ लुढ़क गया है।
उस दिन, उस आखिरी रात में, जहाँ वे दोनों लेटे थे, छितरे हुए दूध पर चाँद की किरणें आभा बिखेरकर हँस पड़ी।
हाँ; वही चाँदनी थी।