दाम्पत्य (कहानी) : दंडपाणी जयकांतन

Dampatya (Tamil Story in Hindi) : Dandapani Jayakanthan

दिहाड़ी, कुली मरुदमुत्तु और रंजितम का विवाह उनके ‘भाग्य’ में लिखे ‘अनुसार’ उस दिन गोधूली वेला में सम्पन्न हुआ था। ‘भाग्य में लिखे अनुसार’ का खुलासा यह है कि दो पैसों का गजरा, इकन्नी में मंगलसूत्र की पीली डोर, एक पैसे की हल्दी, इकन्नी में मूँगफली का तेल, दुअन्नी में काँच की चूडियाँ और तीन रुपये की साड़ी—यों पाँच रुपये में कुलियों-रिक्शा चालकों के ‘सड़क-छाप’ मंदिर के ‘गरीब देवता’ गणेश जी की सन्निधि में मरुदमुत्तु ने रंजितम का हाथ पकड़ा।

पाँच रुपये जोड़ने के लिए मरुदमुत्तु को महीने भर जी तोड़ मेहनत करनी पड़ी थी। बोझा उठाकर कमायी मजदूरी में से हर रोज दु्अन्नी या तीन आने बचाता, पैसा हाथ में रहने पर खर्च हो जाता, इसी डर के मारे उसे ‘सायबू’ (साहब) के पास जमा करता। इस तरह महीने भर में मुश्किल से पाँच रुपये जुड़ पाये। मगर रंजितम को इतने समय तक सब्र करना बड़ा दुश्वार लग रहा था।
मरुदमुत्तु शादी की रस्म को गैरजरूरी समझता था, इसीलिए पहले इसके लिए राजी नहीं हुआ था। इतना ही नहीं, उस फुटपाथ-पुरी के वाशिन्दे शादी के बारे में अमूमन यही राय रखते थे—पारंपरिक प्रथा के कारणों से नहीं, बल्कि जीवन शैली की मजबूरी की वजह से।

लेकिन देहात के परिवेश में पत्नी रंजितम की ऐसे संबंध के लिए स्वीकृति नहीं थी। उसने अपने मँगेतर मरुदमुत्तु के सामने यह दलील रखी--‘‘गाजे बाजे न हों तो कोई बात नहीं, मगर नई साड़ी और मंगलसूत्र तो अवश्य होना चाहिए। पंडित बुला न सको तो जाने दो, भगवान की मूर्ती के सामने खड़े होकर शपथ लेना जरूरी है। अगर इतनी भी रस्म अदा न हो तो वह शादी कैसी ? बिना रस्म की शादी और रखैल करने में फ़र्क ही क्या है, बोलो न ?
मरुदमुत्तु को भी उसकी दलील जायज लगी, इसीलिए उसने शादी को मंजूरी दे दी। अपने मँगेतर के मान जाने पर रंजितम फूली न समायी। आखिर बेचारी कब तक बेसहारा और अनाथ रह सकती थी।

जब वह इस शहर में आयी थी, बेसहारा नहीं थी, उसका बाप यहाँ रेहड़ी खींचकर पेट पालता था। रंजितम तिण्डिवनम के पास मुण्डियमपाक्कम गाँव में अपनी माँ के साथ खेतीहर मजदूर के रूप में काम करती थी। माँ के मर जाने की खबर सुनकर बाप पूरे एक हफ्ते के बाद गाँव आया। लौटते हुए वह रंजितम को अपने साथ यहाँ ले आया।
शहर में बाप बेटी के रहने और गुजारा करने के लिए आवास और साज सामान की कोई कमी थी ? वाह! सड़क का लंबा फुटपाथ, फटी पुरानी चटाइयाँ, मिट्टी के बरतन-भाँडे ! रेहड़ी के चलने के साथ उनका जीवन सरक रहा था। एक दिन उस तरह सरक नहीं पाया, रुक गया।

रेहड़ी खींचने वाला एक दिन नहीं सरका तो क्या शहर का चलना बंद हो जायगा ? रोज की चहल-पहल के साथ शहर बदस्तूर चलता रहा—फुटपाथ पर पड़ी गरीब कुली की लाश मुड़कर देखने के लिए क्षणभर रुके बिना आगे बढ़ता रहा।
उस चौड़ी सड़क पर जहाँ नगर की सभ्यता सीना ताने झूम रही थी—चार जनों के कंधे पर सवार होकर बुड्ढा अपनी अंतिम यात्रा पर निकल गया। बाप के बिछोह को बरदाश्त करने की शक्ति न होने से रंजितम छाती पीट-पीटकर रो रही थी। रोते-रोते सड़क पर लुढ़क रही थी।
‘‘हाय मैं बेसहारा हो गई हूँ...अनाथ हो गयी हूँ’’। यों दहाड़ मार कर रो रही रंजितम के कानों में अमृत घोलता एक स्वर सुनाई दिया--‘‘रो मत, रंजितम ! मैं हूँ ना ! चौंककर रंजितम ने मुड़कर देखा। पीछे खड़ा था मरुदमुत्तु—उसके रिश्ते का ‘मच्चान’ (मँगेतर)।
उसे देख कर वह फिर दहाड़ पड़ी, मरुदमुत्तु ने उसे दिलासा दिया।

कुछ ही दिन हुए कि उसने बाप की याद में रोना बंद कर दिया। उसकी जरूरत ही खत्म कर दी मरुदमुत्तु की एक बात ने। ऐसी क्या बात कह दी उसने, संजीवनी मंत्र जैसी बात ? उसने कहा था--‘‘चिंता न कर रंजितम ! मैं तुझसे शादी करूँगा, रो मत।’’ बिलखती रंजितम ने आँख उठाकर उसकी ओर देखा। उसके नयन प्रफुल्लित होकर चमक उठे। मरुदमुत्तु ने अपने संकल्प को दुहराया--‘‘तेरी कसम रंजितम, तुझे मैं अपनी पत्नी बनाउँगा।’’ और मुस्कराया। रंजितम के होंठ हर्षातिरेक से फड़क उठे। लज्जा से उसका सिर झुक गया।
उस दिन के बाद रंजितम ने अपने ‘मच्चान’ (मँगेतर) को रोज खाना पकाकर परोसने लगी। आस-पास की चूल्हेवालियाँ (फटुपाथ पर रहने वाले परिवारों को एक दूसरे से अलग करने वाली चीज दीवार नहीं, चूल्हा होता है; इसलिए ‘पड़ोसन’ शब्द यहाँ नहीं चल सकता) धीमी आवाज में एक दूसरे से कहने लगीं कि ये दोनों शादी करने वाले हैं।
मरुदमुत्तु चेन्नै की कोतवाल मंडी में बोझ ढोने वाला मजदूर था। रोज की कमायी अठन्नी दस आने में से दो तीन आने बचाने के बाद बाकी रंजितम के हाथ में रख देता था। दिन भर की मेहनत मशक्कत; शाम के समय रंजितम के साथ थोड़ी देर हँसी-मजाक; फिर रात को लेटता तो सो नहीं पाता, उसी की याद में करवटें बदलता रहता; दाम्पत्य सुख को पहले से ही पा लेने की तड़प। लेकिन अपने उसूल की पक्की रंजितम टस से मस नहीं होती थी, क्योंकि उसे शहर आये ज्यादा दिन नहीं हुए थे। अभी तक उसके अंदर वही देहातीपन बरकरार था।

उसने दृढ़ता से कह दिया ‘‘भगवान की मूर्ति के सामने शपथ लेने के बाद ही..’’
आखिर किसी तरह पैसा जमा ही हो गया।
भात बेचने वाली एक बुढिया ने मरुदमुत्तु और रंजितम को आशीष दी--‘खुशी रहो। पूतों फलो..’’
जिगरी दोस्तों में एक ने मजाक-मजाक में पूछा, ‘‘बोलो यार शादी की दावत कब दोगे ?’’
‘‘फुटपाथ के कुछ बच्चों ने इनाम माँगा। उसने भी हँसते हुए उन्हें दो-दो पैसे दे दिये।’’
लोन स्क्वायर पार्क के तारों वाली बाड़ के पास कबूतरखाने जितने ‘विशाल’ मंदिर में विराजे गणेश जी की ‘महासन्निधि’ में मरुदमुत्तु ने जो दीया जलाया उसकी ज्योति प्रचंड रूप धरकर प्रज्वलित होने लगी—विवाह मण्डप के हवन कुण्ड की लपटों की भाँति। क्यों न हो, उसने पूरी इकन्नी का मूँगफली का तेल जो डाल रखा था।
पार्क के सामने गिरजाघर की दीवार के पास रेहड़ी, रिक्शा, कूड़ादान आदि के साथ नित्य संबंध जोड़ कर जल रहे चूल्हे में मछली की तरी खौल रही थी। चरख चढ़ने के कारण सरसराती साड़ी की तहों को पैरों के बीच समेटे, झुककर कलछी चला रही थी रंजितम।

उसके हाथों में खनकती चूड़ियाँ, गले से लटकते मंगलसूत्र की पीली डोर, हल्दी के सुनहले रंग से चमकते गाल और माथे पर लगाये कुंकुम तिलक की चमकियाँ धू-धू कर जल रही लपटों की अरुणिम आभा में जगमगा उठीं।
रंजितम चूल्हे को—सुलगकर जल रही ज्वाला को—देखती खड़ी थी। उसकी आँखों में लपटों की ललाई झलक रही थी। कुल मिलाकर उसके मुख-मण्डल पर एक अपूर्व एवं अवर्णनीय तेज..एक नशा, खास तरह की एक खुमारी थी। उसके अपूर्व सौंदर्य का पान करते हुए पास में उकड़ूँ बैठे मरुदमुत्तु के मन में न जाने क्या पक रहा था, उसके होठों पर मुस्कान का नर्तन था। अपने अधर को दाँतों से भींचते हुए तिरछी निगाह से उसने लंबी साँस भरी।
‘‘ऐ छोरी..जरा अंगार इधर बढ़ा दे !’’ हाथ में बीड़ी लेते हुए मरुदमुत्तु ने कहा।

‘‘देखो तो, कैसे पुकार रहे हैं ये, अजी मैं छोरी दिखती हूँ ?’’ बुदबुदाते हुए रंजितम ने चूल्हे में से एक जलती लकड़ी उठाकर उसकी ओर बढ़ा दी। जलती लकड़ी लेते हुए मरुदमुत्तु ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसकी काँच की चूड़ियों के साथ खेलते हुए मीठी आवाज में बोला--‘‘शादी-शादी की रट लगाते और शादी का नाम लेते-लेते अभी तक टाल रही थी न, अब क्या कहोगी बताओ तो..!’’ कहते हुए उसने उसे पास खींचकर कान में कुछ फुसफुसाया। सुनते ही काँच की चूड़ियों की खनक और हँसी की खिलखिलाहट के बीच में उसकी पकड़ से अपने को छुड़ाते हुए जरा तुनकती आवाज में मचली, ‘‘छोड़ो न..मच्चान ! चूल्हे से तरी उतारना है।’’ और आँचल में मुँह छिपाए अंदर ही अंदर हँस पड़ी। पता नहीं, इतना शर्माने के लिए उसने क्या पूछा होगा।
‘‘उहुँ..जवाब दो न..।’’

‘‘अब मुझसे काहे पूछना है ?..’’ कहकर रंजितम पलट कर चूल्हे पर ध्यान देने लगी। उसकी पीठ पर कुछ सुरसुरी-सी हुई। समूची देह में सिहरन..
भात मछली की तरी और सालन बनाकर अपने मर्द को दावत खिलाने के बाद खुद भी भोजन करने बैठी—सारा कुछ खुली सड़क पर ! ‘‘रंजी, मैं पार्क में उस कोने वाली बेंच पर लेटा हूँ।’’ धीमी आवाज में रहस्य की यह बात कहकर मरुदमुत्तु चला गया।
भात और तरी जायके दार बनी थी, लेकिन न जाने क्यों रंजितम खा नहीं पा रही थी।
समय दस बजे के ऊपर हो गया था। पार्क की कोने वाली बेंच पर मरुदमुत्तु करवट लेता हुआ लेट रहा था। बेंच के नीचे फटी चटाई और पुरानी चादर पड़ी थी। उसकी उँगलियों के बीच बीड़ी सुलग रही थी। अभी भी गली में चहलपहल थमी नहीं थी।

रंजितम झिझक-झिझकर धीरे-धीरे चलते हुए पार्क के अंदर दाखिल हुई। उसके पास सिरहाने पर—चुपके से आ खड़ी हुई। अपने समीप में उसकी मौजूदगी जानते हुए भी अनजान बनकर मरुदमुत्तु आँखें बंद किये लेटा था। यही नहीं, बल्कि हल्की आवाज में खर्राटे भरने लगा ताकि वह सोच ले कि बेचारा सो गया है। लेकिन उसके हाथ में सुलग रही बीड़ी ने कलई खोल दी। रंजितम को हँसी आ गयी। हँसी को रोकते हुए वह चुपचाप खड़ी रही। उसे गरदन की नसों के अंदर एक गुदगुदी सी उठकर सारी देह में व्यापित महसूस हुई। वहाँ छाये मौन ने मरुदमुत्तु के अंदर भी हँसी के बीज बो दिये। चुप रहने की सारी कोशिशें नाकाम हुईं तो उसके चेहरे पर हँसी की लकीरें धमा-चौकड़ी भरने लगीं और एकाएक हँसी का फव्वारा फूट गया। दोनों एक दूसरे को देखते हुए अकारण ही या कारण सहित हँसने लगे, हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये। हँसी का ताँता किसी तरह थम गया तो रंजितम बेंच के एक कोने पर लज्जा से सहमी सिकुड़ी बैठ गयी।
‘‘रंजी पान-सुपारी लायी है ? देना..’

रंजितम ने बीड़ा बनाकर उसकी हथेली पर रख दिया। मरुदमुत्तु ने मजे से बीड़ा चबाते हुए उसके पास सटकर बैठ गया।
दूध की चादर बिछी-सी चाँदनी..
चाँदनी की ऐसी रोशनी उस प्रेमी युगल को हितकर नहीं बल्कि बाधक लग रही थी।
बेंच पर बैठी रंजितम के चेहरे पर विशाल बरगद की शाखा-प्रशाखाओं से छनकर आ रही चाँदनी आभा बिखेर रही थी, जिसमें उसकी आँखों की पुतलियाँ चमक रहीं थीं। ताम्बूल-रंजित अधरों की दमक से मरुदमुत्तु के होठों में सुरसुरी पैदा हुई। वह अपने होंठ भींचते हुए रंजितम को देखता रहा, उसकी छाती में मंगलसूत्र की पीली डोर काले मनकों के संग बलखाती पड़ी थी। खिसक रहे आँचल के बीच में झिलमिल झाँकता देह-लावण्य, आबनूस के तराशे शिल्प जैसे उरोज..मरुदमुत्तु उन्मत्त हुआ जा रहा था।
‘‘रंजी…’’

उसने गहरी साँस भरी।
क्षण-क्षण स्फीत हो रहे स्तन-भार ने मरुदमुत्तु के संयम के बाँध को तोड़ दिया और उसने अपनी प्रिया को अंक में भर लिया।
‘‘छोड़ो भी..’’ उसके आलिंगन पाश से अपने को बलपूर्वक छुड़ाने के बाद रंजितम आँचल सहेजते हुए अलग बैठ गयी।
मरुदमुत्तु ने भी तभी गौर किया कि सामने वाला मुस्लिम रेस्तराँ अभी भी बंद नहीं हुआ है।
सफेद धोतीधारी किसी राहगीर ने उस जोड़े को देखकर अपने साथी को सुनाते हुए यह टिप्पणी कसी--‘‘धत्तेरे की.. आज कल यह पार्क बड़ा नैस्टी हो गया है।’’ यह सुनकर मरुदमुत्तु लज्जा से गड़ गया। रंजितम दयनीय ढंग से आँखें फाड़ कर देखती रह गयी।
‘‘काश, अपने गाँव में ही शादी कर लेते..’’ रंजितम से आगे बोला नहीं गया; उसका गला रुँध गया।
मरुदमुत्तु ने लंबी साँस छोड़ी, कहने लगा—
"हुँ...गाँव में कौन-सा सुख रखा है? पेट के लिए चावल के माँड तक के लाले पड़ गये तभी तो शहर आये हैं।"

"भले ही माँड भी न मिले, कम से कम अपनी झोंपड़ी तो होती।...भूखे पेट सोना पड़े तब भी इज्जत के साथ लेटे रहते। धत्...सड़क पर शादी रचाओ, सड़क पर बच्चे जनो और सड़क पर ही मर जाओ...यह भी कोई ज़िन्दगी है?" रंजितम झल्लाकर बोली। उसके स्वर में रंज और नफरत थी, अकुलाहट और आक्रोश था।
मरुदमुत्तु मौन रहा। थोड़ी देर बाद लम्बी साँस लेते हुए उसने कहा-

"क्या किया जाए रंजी?...सब अपना-अपना भाग्य। ललाट पर जो लिखा है वही होगा...देश में, समाज में जाने कितने लोग रोज शादी कर लेते हैं। क्या बँगला, क्या गाड़ी?...यह सब नहीं तो कम से कम एक छोटा-सा घर, मुलायम-सा एक गद्दा...किस्मत में लिखा न हो तो बता, कहाँ से मिलेगा? हमारे भाग्य में यही बदा है।" रंजो-गम से बड़बड़ाया।

रंजितम ने दिलासा दिया, "भला यह भी कोई बात है कि जिसके लिए इतनी फिक्र की जाए?...जब तक तुम मेरे साथ हो मुझे कोई कमी नहीं। जिनके पास कार और बँगला है उनकी कहानी जग-जाहिर है। मियाँबीबी का मामला कोर्ट-कचहरी तक पहुँचकर अखबार में छपता है। क्या वे लोग हमारी तरह एक दूसरे से इतना प्यार करते होंगे?..."
होटल के रेडियो से विरहिणी का गान-
आ जा मेरे परदेसी...।
सड़क पर चहलकदमी रुक-सी गयी। होटल में भी लोगों का आना-जाना बन्द हो गया।
घड़ी में टन...टन बारह बज गये।

फुटपाथ-पुरी के बाशिन्दे नींद के आगोश में थे। हल्का-सा कुहरा उनके बदन पर चादर ओढ़े हुए था। ठिठुरती ठण्ड में कन्थे-चिथड़ों पर सिकुड़े-सिमटे दरिद्रनारायण। नन्हे बच्चे माँ की छाती की गरमास में दुबक गये। बीमार कुत्ते और बूढ़े गाय-बैल अधनींदी अवस्था में उन लोगों की रखवाली किये सिरहाने पर बैठे थे।

पार्क में निपट खामोशी छा गयी। मरुदमुत्तु बेंच से उठकर झाड़ी की झुरमुट में बिछी चटाई पर करवट बदल रही रंजितम के पास जाकर बैठा।
"रंजी...सो गयी?"
"ना..."
"तुम्हें ठण्ड लग रही है?"
दोनों ने उसकी लाल रंग की नयी साड़ी को ओढ़ लिया। ओढ़ी हुई साड़ी हौले-हौले हिलने लगी।"
"मच्...चान" रंजितम की पीड़ा और घुटन भरी कराह।
अचानक उधर गली से कोई तीक्ष्ण प्रकाश-धारा उन पर फैल गयी।
"हाय रे..." रंजितम सकपकायी।
"कुछ नहीं, गाड़ी है...निकल जाएगी..."
रंजितम ने उसके कन्धे पर मुंह छिपा लिया।"

गाड़ी निकल जाने के बाद दीन-दुनिया को भूलकर सानन्द लेटे उस जोड़े के पास अगणित पैरों की आहट, हँसने-बोलने की आवाज..."
मिनर्वा सिनेमा हाल में दूसरा शो खत्म हो गया था। लोगों की भीड़ उस गली से निकल रही थी।
मरुदमुत्तु उठा और चुपचाप बेंच पर जाकर लेट गया।
रंजितम को तो रुलाई आ गयी।
मरुदमुत्तु को बेहद गुस्सा आया। लेकिन किस पर गुस्सा करे?

भीड़ के एक हिस्से ने सामने वाले मुस्लिम रेस्तराँ में धावा बोल दिया। काफी देर बाद भी शोरगुल थमा नहीं।
घड़ी में एक का घण्टा बजा।

अब तक मुस्लिम रेस्तराँ ग्राहकों से खाली हो गया था। पार्क के पास एक रिक्शेवाला खड़ा था। उसके पास मलमल का कुर्ता पहने एक आदमी था।
"आओ मालिक...बढ़िया माल है। कालेज स्टूडेण्ट लड़की...मेरी कसम... ब्राह्मन लड़की..."
"रेट?"
"हाँ सर...गाड़ी में बैठो जी...चलते चलते बाकी बातें हो जाएंगी।"
मलमल के कुर्तेवाले को बिठाकर रिक्शा ब्राडवे से अलग होनेवाली एक छोटी गली में तेजी से मुड़कर लुप्त हो गया।
"धत्...यह भी पेट पालने का कोई तरीका है?...मेहनत से गाड़ी खींचनेवाले इस गधे की अक्ल काहे को बेईमानी पर उतरी है?" खखारकर थूका मरुदमुत्तु ने।
"क्यों मच्चान...गाली क्यों दे रहे हो?"
"दुनिया की ऐसी रीत देखने पर गाली न दूं तो क्या करूँ? अभी तुम सोई नहीं हो?...हुँ...कैसे आएगी नींद?" मरुदमुत्तु मानों अपने आप बोलता गया।
चाँद बदलियों में छिप गया।

पूर्णिमा की वह उजली रात अब कालिमा में डूब गयी। मुस्लिम रेस्तराँ का पट भी बन्द हो गया था। चारों ओर निपट विजनता...सन्नाटा।

पार्क के अन्दर ऊँचे-ऊँचे बरगदों की डालों पर कौओं का कोलाहल। शायद उन्हें भ्रम-सा हो गया होगा कि पौ फट गयी...कुछेक कौए काँवकाँव कर उठे। फीके अँधेरे के चंगुल में गूंगे से बने कुछ सितारे झिलमिलाये। एक कुत्ता उठ गया और अपनी देह को लम्बा तानकर अंगड़ाई लेने के बाद थकान दूर हो जाने की खुशी में लपककर कहीं भाग गया। घड़ी ने दो बजाये।"

"रंजी..."
"..."
"रंजी..."
बेंच अब खाली थी। झाड़ी में कोई पत्ता या अँधेरा हिलने लगा।

टक्...टक्...टक्..
पहले तो उस आवाज की दोनों ने कोई परवाह नहीं की।
टक्..टक्...टक्..की आवाज पास आने तक दोनों निश्चल निस्पन्द पड़े रहे।
"ऐ, कौन है री? उठ यहाँ से!"

पुलिसवाले की उस कड़कती आवाज ने मरुदमुत्तु को अपनी प्रिया से बलात्-पाशविक ढंग से-मानवीय संवेदना से मानवीय सभ्यता की कब्र की ओर-अलग किया; वह उठकर आया, शरीर थर-थर काँप रहा था, होठ फड़फड़ा रहे थे। रंजितम ने उठकर झाड़ी के पीछे अपनी साड़ी लपेट ली। .
"अरी बाहर आ!" पुलिसवाला ईर्ष्या से गुर्राया।
"डर लग रहा है मच्चान!..." वह देहाती युवती दयनीय ढंग से पति से गुहार करने लगी। उसकी आँखों में आँसू छलक आये थे। बेचारी अपमान से गड़ी जा रही थी।
"डरने की कोई बात नहीं, आ जा रंजी!" उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए, पार्क की लोहे की बाड़ को लाँघकर मरुदमुत्तु बाहर आ गया। बिजली के खम्भे के पास पुलिसवाला खड़ा था।
"तू कौन है रे?" सिगरेट का धुआँ उसके मुँह पर फूंकते हुए पुलिसवाले ने पूछा।
"मैं...मैं...झाबेवाला कुली...मालिक!"
"अरी, इधर रोशनी में क्यों नहीं आती?" पुलिसवाले ने उसे बुलाया। थर-थर काँपती हुई रंजितम रोशनी में आकर खड़ी हो गयी। माथे का तिलक पुछ गया था, गुंथे हुए बाल बिखर गये थे, जूड़े पर लगा गजरा छितर गया था।
"क्यों री, तुझे यही जगह मिली? बता, नाम क्या है तेरा...?" जेब में से छोटी-सी नोटबुक और पेंसिल निकालते हुए सिपाही ने पूछा। बिचारी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। घबरायी आवाज में बोली, "रंजितम...मालिक!"
"हुजूर...हुजूर..." मरुदमुत्तु कुछ कहने लगा।

"अरे तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है। स्टेशन पर आकर रिपोर्ट दे दो कि इसने ही मुझे बुलाया था। तुम्हें छोड़ देंगे।" पुलिसवाले ने कहा।
रंजितम को मामला समझ में आ गया।
"हम पति-पत्नी हैं मालिक..." रंजितम सकपकायी, पुलिसवाला हँस पड़ा। उसने उसकी बात पर बिलकुल विश्वास नहीं किया।
"सच्ची में हुजूर...ये गणेशजी गवाह हैं। हम पति-पत्नी हैं मालिक! यह देखिए." कहते हुए रंजितम ने अपना मंगलसूत्र बाहर खींचकर दिखाया।

कानून की बाड़ के अन्दर खड़े पुलिसवाले ने आँख उठाकर भी उस पीली डोर को देखने की परवाह नहीं की।
उसके कानून ने उसे यही सिखाया था कि बेटे, अँधेरे को चीरकर अपराध का पर्दाफाश करो; उसने यह नहीं सिखाया था कि मन को चीरकर संवेदनाओं का पता लगाओ।

उसने जिसे ढूँढ निकाला उसका नाम है कसूर...अपराध। कसूरवार को जिसके तहत कैद किया जाना है उसका नाम है कानून। और कानून की वारिस है पुलिस! वह न तो सदाचार का प्रतिनिधि है, न ही सचाई का मसीहा।"
"हुँ...चल...चल, वो सारी बातें थाने में कर लेंगे।" उसने उसको धकेला।
"मालिक...मालिक!..." प्रेम की वह अपराधिनी-रंजितम गिड़गिड़ायी। बेचारी ने पति के मुँह को आकुल होकर ताका। वह सिर झुकाकर पुलिसवाले के साथ चल रहा था। रंजितम भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी।

रात की उस विजनता में जब सारा शहर नींद के आगोश में पड़ा था, नगर की मुख्य वीथी पर कानून के हृदय-स्पन्दन का प्रतिनिधि बनकर पुलिस के बूट टक्-टक् आवाज़ कर रहे थे। रंजितम का हृदय धक्...धक् कर रहा था मानो कोई उसके दिल को रौंद रहा हो।
नादान-सी किसी चीज़ को निर्ममता से कुचलते हुए आगे चल रहा था कानून का पदचाप।

वही पदचाप-टक् ...टक् ...टक्...टक् ...