दक्षिणी ध्रुव की यात्रा-एक (यात्रा वृत्तांत) : महावीर प्रसाद द्विवेदी

Dakshini Dhruv Ki Yatra-1 (Hindi Travelogue) : Mahavir Prasad Dwivedi

पिछले सौ वर्षों में यूरोप और अमेरिका के सैंकड़ों साहसी मनुष्यों ने उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव की यात्राएँ की हैं। उनमें से कितने ही लोग इन दुर्गम और भयंकर स्थानों में बहुत दूर तक गए हैं। वहाँ के अद्भुत दृश्यों का हाल भी उन्होंने लिखा है। कुछ दिन हुए लेफ़्टिनेंट शैकलटन अपने साथियों समेत दक्षिणी ध्रुव की दूसरी यात्रा करने गए थे। आप वहाँ से लौट आए हैं। आपकी पहली यात्रा के संबंध मे उन्होंने जो कुछ अभी हाल ही में प्रकाशित किया है, उसका भी आशय नीचे दिया जाता है।

शैकलटन साहब अपने साथियों समेत 29 अक्टूबर 1907 को दक्षिणी ध्रुव की यात्रा के लिए न्यूजीलैंड से रवाना हुए थे। वे अपने साथ कुत्तों की जगह मंचूरिया के टट्टू और मोटर ले गए थे। बालू खा जाने के कारण यद्यपि कुछ टट्टू मर गए और कुछ मार डाले गए, तथापि कुत्तों की अपेक्षा वे अधिक लाभदायक सिद्ध हुए। शैकलटन साहब कोई चौदह महीने तक इधर-उधर घूमते और तरह-तरह की चीज़ें खोजते रहे। अंत मे वे एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ से ठेठ दक्षिणी ध्रुव 111 मील था। ध्रुव के इतने निकट अब तक कोई न पहुँचा था। आप ही पहले मनुष्य हैं जो वहाँ तक पहुँचे। आपके पहले 1902 में जो मनुष्य दक्षिणी ध्रुव की ओर सबसे अधिक दूर तक गया था, वह कप्तान स्कॉट था। परंतु वह जिम स्थान तक पहुँचा था, जो ठेठ दक्षिणी ध्रुव से 461 मील की दूरी पर थी। इससे आप समझ सकते हैं कि शैकलटन साहब कप्तान स्कॉट से कोई 350 मील आगे तक पहुँच गए। वहाँ पहुँच कर आपने अँग्रेज़ो का जातीय झंडा (union jack) फहराया। यह चिरस्मणीय घटना 9 जनवरी 1909 ई. की है। आगे ऐसा दुर्गम मार्ग था कि और दूर बढ़ना आपने असंभव समझा। इसलिए वहाँ से आप लौट पड़े और न्यूज़ीलैंड होते हुए इंगलैंड को रवाना हुए।

शैकलटन साहब ने अपना एक दूसरा दल दक्षिणात्य चुंबक ध्रुव ( Sauth Magnetic pole) की खोज के लिए दूसरी तरफ़ भेजा था। कहते हैं कि वह स्थान साहस का काम था। निम पर भी इस दल को कामयाबी हुई। इस दल के लोग 16 जनवरी 1909 को उस चुंबकीय ध्रुव के पास पहुँच गए और वहाँ अपने देश का दिग्वजयी झंडा गाड़ दिया। इस स्थान पर भी इन लोगों के पहले कोई मनुष्य न पहुँचा था।

शैकलटन साहब और उनके साथियों ने दक्षिणी ध्रुव की इस चढ़ाई में कौन-कौन सी बातें जानीं—अथवा यों कहिए कि कौन से अद्भुत और साहसिक काम किए तथा किन-किन बातों की खोज की—इसका विवरण इस प्रकार है :

(1) ये लोग ऐसे स्थान पर पहुँच गए जहाँ से दक्षिणी ध्रुव केवल 111 मील की दूरी पर था।

(2) दाक्षिणात्य चुंबक ध्रुव तक भी पहुँचे।

(3) आठ पर्वत श्रेणियों को खोज निकाला।

(4) कोई एक सौ पर्वतों की पैमाइश की।

(5) एरीयस नाम के ज्वालामुखी पर्वत पर चढ़े। यह पर्वत 13,120 फुट ऊँचा है।

(6) विकटोरियालैंड नामक टापू के पश्चिमी ओर के ऊँचे-ऊँचे पर्वतों का ज्ञान प्राप्त किया।

(7) कोयले की खानों के निशान पाए।

(8) दक्षिणी ध्रुव के चारों ओर का वायुमंडल शांत हैं, इस कल्पित मत की असारता प्रत्यक्ष अनुभव की।

5 मार्च 1908 को शैकलटन साहब ने एरीबम पहाड़ पर चढना प्रारंभ किया। साथ में सात आदमी और थे। सब लोग अपना-अपना असबाब अपनी पीठ पर लादे हुए थे। 7 मार्च की रात को वे लोग 9500 फुट की ऊँचाई पर पहुँचे। वहाँ पर इतनी सख़्त सर्दी पड़ रही थी कि थर्मामीटर का पारा शून्य से पचास डिग्री नीचे पहुँच गया था। इसी समय एक बड़ा भयंकर तूफ़ान आया, वह कोई तीस घंटे तक बराबर बना रहा। इसलिए दूसरे दिन वे लोग वहीं रहे। 9 मार्च को उन्होंने फिर चढ़ना प्रारंभ किया। 11,000 फुट की ऊँचाई पर पहुँचने के बाद उन्हें इस ज्वालामुखी पर्वत का एक दहाना देख पड़ा जिसमें से आग की लपटें सदा निकला करती हैं। पर ख़ूबी यह कि उसमें ध्रुवों का नामोनिशान तक न था। जब वे लोग चोटी पर पहुँचे तब उन्होंने देखा कि वहाँ पूर्वोक्त दहाने की अपेक्षा एक बहुत बड़ा दहाना मौजूद है। उसका घेरा आध मील से अधिक होगा। गहराई अस्सी फुट के क़रीब मालूम होती थी। वह भाप और गंधक की गैस को इतनी तेज़ी से उगल रहा था कि उसकी लपटें बीस हज़ार फुट की ऊँचाई तक जाती थी। इस स्थान के कई फ़ोटो लिए गए और बहुत से भूगर्भ विद्या-संबंधी पदार्थ इकट्ठे किए गए। इसके बाद वे लोग वहाँ से लौट पड़े और दूसरे दिन, 11 मार्च को अपने नियत स्थान पर पहुँचे। कोई तीन महीने तक इस पहाड़ के चारों ओर शंति रही। एकाएक 14 जून 1908 की रात को वह फट पड़ा। पर्वत के चारों ओर की भूमि अग्निमय हो गई। यह घटना शुक्ल पक्ष की है। चाँदनी रात में बर्फ़ीले पहाड़ पर धधकती हुई अग्नि का कलोल करना, भयानक होने पर भी कैसा सुंदर दृश्य था, इसको वही समझ सकते हैं जिन्होंनें उसे देखा है। शैकलटन साहब के साथियों ने इस मनोमुग्धकारी दृश्य के कई फ़ोटोग्राफ़ लिए।

शैकलटन साहब के साथ कोई आठ दस विज्ञान-वेत्ता भी गए थे। उनमें से हर मनुष्य विज्ञान की एक न एक शाखा का पंडित है। उन लोगों ने अपना-अपना काम बड़ी ख़ूबी से पूरा किया। किसी ने ज्योतिष्क तारकाओं की जांच की; किसी ने वायुमंडल की परीक्षा की; किसी ने जल की, किसी ने जल-जंतुओं की, किसी ने वनस्पतियों की। फ़ोटोग्राफ़र ने फ़ोटो लिए। पैमाइश करने वालों ने पैमाइश की और संग्रह करने वालों ने नाना प्रकार की वस्तुओं का संग्रह किया। इन साहसी विज्ञानवेत्ताओं ने वहाँ ऐसी कितनी ही चीज़ों का पता लगाया जिनकी सहायता से जड़ और जीव-विज्ञान की बहुत कुछ उन्नति हो सकती है।

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