दक्षिण एक्सप्रेस (स्पेनिश कहानी) : एमिलिया पार्डो बाजान

Dakshin Express (Spanish Story in Hindi) : Emilia Pardo Bazan

बागों की तरह जोते गए समतल खेतों के आर-पार, जहाँ चमकीली गरम धूप से चमकती लाल छतोंवाले सफेद मकान यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े थे, प्रथम श्रेणी की रेलगाड़ियाँ चलती थीं—चलती थीं पेरिस की ओर। देहाती लोग, मंडी के माली जो बागों की उपज से भरी अपनी खच्चर गाड़ियों को हाँकते थे, तेजी से गुजरती रेलगाड़ी को ईर्ष्या और असाधारण भाव से देखते थे, जैसे उन चीजों का दर्शन हमें उत्तेजित करता है जो हमारे सामान्य जीवन में अप्राप्य है।

साफ शीशे की ऊँची खिड़कियों में से, एक क्षण के लिए, भोजनालय में मेजों और उसके इर्द-गिर्द बैठे लोगों, जो रुचिपूवर्क खाते-पीते थे—का दृश्य देखा जा सकता था। रेल की गति के कारण देखनेवाले की दृष्टि में—अच्छे ढंग के बेयरों की उपस्थिति, खाने-पीने का सामान्य कार्य, एक कुलीन और साहसिक परिदृश्य, यह सब चलचित्र की भाँति, अत्यंत रुचि के क्षणों में, अपने पीछे चौड़े धुएँ का पुछल्ला छोड़ते हुए गायब हो जाता था।

जब हमने सरहद पार की तो मैं सैलून के डिब्बे के एक कोने में दुबककर बैठ गया और अपने थैले और पीले कवरवाले अपने उपन्यास को मेज पर छोड़ दिया जो फर्श से लगा हुआ था। फिर अपने साथियों को भूरी महीन जाली के परदे से उत्सुक हैरानी से देखने लगा, जैसे कोई अनजाने परंतु लाभदायक देश को देखता है। वे दक्षिण अमेरिका के थे और उनके साथ उनके काले रंग के बच्चे—नवीनतम अंगे्रजी ढंग के कपड़े पहने हुए थे। अकेली यात्रा कर रही महिलाएँ सुगंध लगे बढ़िया कपड़े पहने थीं और बड़ी आयु की औरतों ने इस ढंग से कपड़े पहने थे जो संपन्नता के प्रतीक थे; अपनी शुचिता के प्रति अत्यधिक सतर्क अंग्रेज महिलाएँ जो सीधी बैठी थीं और किसी पूर्ण अकथनीय तरीके से अपने आपको कोयले की धूल के आक्रमण से बचाती थीं; हमेशा अपने नरम गुलाबी गाल साफ करती थीं और उनके बाल काटे गए सोने की तरह निर्दोष चिकने थे। वे अंतत: आपस में लिपटे हुए युवा जोड़े थे जिनको इस बात की रत्ती भर भी परवाह नहीं थी कि लोग उन्हें ताक रहे हैं इस भाव से कि हनीमून के तौर-तरीकों का उनके लिए ‘अन्यथा’ से अधिक महत्त्व न था।

उन जोड़ों में से एक मेरे इतना निकट बैठा था कि उनकी बातचीत ने मेरे पढ़ने में विघ्न डाला; इसलिए मैंने डे निलविस्की का उपन्यास बंद करके अपनी बगल में हो रहे जीवन नाटक के पृष्ठों की ओर मुड़ने को प्राथमिकता दी, बिना इस शंका के कि इसमें ग्रामीण जीवन के संक्षिप्त वर्णन की बजाय मुझे इस नाटक में अंधकारमय तत्त्व देखने को मिलेंगे। यह ग्रामीण वर्णन संक्षिप्त था जो पहले प्रकट हुआ और इसने प्रसन्नता के अनुरूप हठ और निरर्थकता के प्रति, जो प्रसन्न प्रेमियों में प्राय: पाए जाते हैं, मेरा ध्यान आकर्षित किया।

मेरा हनीमून जोड़ा—मैंने ऐसा ही समझा—भोजनयान में नाश्ता करना नहीं चाहता था और न ही मैं क्योंकि हिलती रेलगाड़ी ने मुझे थका दिया था। इसमें शंका नहीं कि एकांत ढूँढ़ने के उनके और मेरे कारणों में भिन्नता थी; वे केवल एक-दूसरे के साथ के लिए अकेला रहना चाहते थे। इसका पता मुझे तब चला जब मैंने इनकी खुशी की चिल्लाहट सुनी। जब लगभग हर-एक व्यक्ति डिब्बे से जा चुका था तो अधीरता के ऐसे भाव देखने को मिले जो उस औरत की प्रकृति के प्रदर्शन के बराबर कहा जा सकता था, जब उसने देखा कि मैंने अपना स्थान नहीं छोड़ा था। चूँकि वे मुझे मेरे स्थान से हटा नहीं सके। अत: उन्हें अवश्यंभावी समझौता करना पड़ा और भूलना पड़ा कि मैं वहाँ उपस्थित हूँ। उन्होंने चौकोर पिटारी नीचे उतारी और मिलकर खाने की तैयारी करने लगे।

वह युवा, गोरी, लंबी और पतली थी, इतनी शानदार पतली कि लगता था कि उसके कोई कोण न हों और जो पेरिस की औरतों की विशेषता है। उसने भूरे कपड़े की यात्रा-पोशाक पहन रखी थी और भूरे कपड़े की उसकी टोपी के किनारों पर सफेद कबूतर के पंख इस प्रकार काँप रहे थे कि अब उड़े, तब उड़े। वह अपने साथी से जुड़कर बैठी थी। उसने एक नैपकिन उसके घुटनों पर बिछाया। वह भी युवा, भूरे रंग का और पतला था, परंतु उस समय अपनी पत्नी की देखरेख में प्रसन्न और इकट्ठे अपने छोटे सैर-सपाटे के पूर्वाभास में आकर्षित प्रतीत होता था। उसने पिटारी में से बंडल-के-बंडल निकाले। पैटे डी फोए मांस की सैंडविच, पोर्क हैम के गुलाबी और सफेद टुकड़े, मुरगे के छोटे चौकोर टुकड़े, छोटी भरवीं रोटियाँ, गाढ़े मसाले में लिपटे घोंघे। प्रत्येक बंडल खुलने पर उसके पति की ओर से प्रसन्नतापूर्ण हैरानी की चीखों से और पत्नी की गर्वित प्रसन्नता से, उसका स्वागत किया गया।

“तुम किसी चीज के बारे में क्यों सोचती हो? क्या कोई चिंता है? यह वास्तव में दावत है।” वह सारा समय भेदों से खेलती रही।

“थोड़ी प्रतीक्षा करो, तुमने अभी तक सबकुछ नहीं देखा।”

उसने छोटी पिटारी से ब्रांडी की छोटी बोतल, सोडावाटर का साईफन, चाँदी के कुछ प्याले और बोतल खोलने का पेच निकाले। किसी चीज की कमी नहीं थी। वे परस्पर अपने घुटने जोड़कर बैठे ताकि एक ही नैपकिन घुटनों को ढक ले और ऐसा निस्संदेह यह महसूस करने के लिए किया कि अपने हनीमून के पहले खाने पर वे अकेले थे, जिसके लिए उन्होंने जल्दी की। जल्दी में—मैंने कहा, लेकिन इसमें जल्दी की कोई बात नहीं थी। उन्होंने प्रत्येक सफेद कागज के छोटे बंडल को धीरे-धीरे खोला। अपनी अंगुलियों के सिरों को कोमलता से छूकर कानाफूसी की; प्रत्येक इच्छुक था कि हर दूसरा दावत का भरपूर आनंद उठाए।

“थोड़ा और लो! क्या तुम्हें हैम अच्छा लगता है? अब मैं तुम्हें थोड़ी शराब देना चाहती हूँ।”

सारा समय हर छोटी बात पर कोमल निगाहें और प्रसन्न हँसी—चीनी, मिट्टी की छोटी प्लेटों की खड़खड़ाहट, रेल के तेजी से चलने के कारण चाँदी के प्यालों से शराब का छलकना।

मैं उन्हें छिपकर देखे बिना नहीं रह सका। वे दोनों बच्चों की तरह खेल रहे थे, परंतु किसी चीज ने मेरा ध्यान जगा दिया जो दुलहन के व्यवहार में मुझे विचित्र लगी। पति का किनारा छोड़ने के लिए उसने दो-तीन बार बहाने बनाए और साथवाले डिब्बे के संचार-द्वार को पार करने का प्रयत्न किया जिसपर उसने जल्दी से निगाह डाली थी। हमारे साथवाले डिब्बे में केवल एक आदमी था जो कोने में दुबका बैठा था; उसने चौखाने के कपड़े की टोपी से अपना चेहरा ढका हुआ था, मानो सो रहा हो या सोने का बहाना कर रहा हो। उसके चेहरे का केवल निचला भाग नजर आ रहा था—अच्छी तरह का, पुष्ट युवा, मुँह और ठोड़ी, ऊपरवाले लाल होंठ को आंशिक रूप से ढकती हुई छोटी सुंदर मूँछें। हर बार जब दुलहन दरवाजे से गुजरती, जिसके सामने वह बैठा था; अजनबी, जैसे मुझे उसको पुकारना चाहिए क्योंकि इससे अच्छा नाम मेरे पास नहीं था; टोपी को थोड़ा हिलाता और उसकी टोपी से आधी ढकी हुई आँखों से गंदी प्रभा निकलती प्रतीत होती थी। क्या वास्तव में यही मामला था या मेरा विचार मात्र था? क्या मैं स्वप्न देख रहा था? क्या रेलगाड़ी के झटकों से मेरी दृष्टि मुझे धोखा दे रही थी? मैं कसम खाकर कह सकता हूँ कि जो मैंने देखा वह सत्य था।

परंतु यदि वह सत्य था तो इस छोटी दावत के ग्रामीण छिछोरेपन का क्या अर्थ था? और अब जबकि मिष्ठान्न निकाला जा रहा था, प्यार और अधिक रुचिकर हो गया। मैं अपने परदे के पीछे से उसको देखता रहा—कोने में दुबके हुए अकेले यात्री को और युवा जोड़े को अंगूरों के मंद-मंद चमके गुच्छे पर जिसको दुलहन हवा में झुला रही थी, खिसियाते देखा। जब वह अंगूर तोड़ते तो उनकी अंगुलियाँ परस्पर छूतीं, जब वे खरगोश की तरह उनको कुतरकर व्यर्थ की बकवास करते और प्यार के टूटे-फूटे शब्दों का प्रयोग करते, जैसाकि संसार भर में हनीमून मनानेवाले करते हैं, तो उनके होंठ छूते। जब सब पीले अंगूर समाप्त हो गए तो उन्होंने विचित्र पिटारी में से गत्ते का डिब्बा निकाला, इसका ढकना उठाया गया तो बर्फ में लिपटी अखरोटों की पंक्तियाँ निकलीं जैसे मध्यकालीन सिपाही मंद प्रभावाले कवच पहने हुए हों। लघु नाटक चलता रहा—अखरोटों को कुतरते रहे जब तक उनके होंठ नहीं मिले—खिसियाने और झगड़े का बहाना करते कि दूसरा सबसे बड़ा और अति उत्तम अखरोट कौन उठाता है। मुझे स्वीकार करना होगा कि जब मैंने उनको पहले देखा था तो वे आपस में चुपचाप बैठे थे और मैंने अनुमान नहीं लगाया था कि वह हनीमून जोड़ा था; मैंने सोचा था कि भाई-बहन होंगे, परंतु अब कोई संदेह नहीं रहा था—वे इस तरह से हनीमून जोड़े की तरह व्यवहार करते थे। अपनी नई संगति के नशे में, एक-दूसरे से लिपटे हुए और किसी की भी परवाह न करते हुए। भाई और बहन का प्यार नहीं था बल्कि वास्तविक साहसी प्रेम-जोड़ी थी और मैंने सोचा कि उनके बचपने से मेरा मन बहल रहा था। मैंने दिल से उनको आशीर्वाद दिया!

वह पिटारी में से एक और छोटा बंडल लेने के लिए उठी—निस्संदेह दावत को संपूर्ण करने के लिए, खयाल था उसमें मिठाई या फल होंगे। एकाएक उसने चारों ओर देखा और निराशा की चुभती हुई चीख मारी—“मेरा बटुआ! रूसी चमड़े का मेरा बटुआ! ओह, कहाँ है वह? कहाँ रख दिया मैंने उसको?”

“क्या मैं जाकर देखूँ?” उसने चिंता से पूछा।

“यदि तुम देखो तो मुझे खुशी होगी। प्यारे, मेरा खयाल है कि मैंने जरूर सोनेवाले डिब्बे में छोड़ा है।”

वह बटुए की तलाश में चला गया और मैं जन्मजात भय से काँप गया कि क्या होने वाला है क्योंकि जब दुलहन पिटारी से स्वादिष्ट चीजें निकाल रही थी तो उसने चाँदी लगे यंत्रवाला रूसी चमड़ेवाला अपना बटुआ सीट के नीचे ध्यानपूर्वक छिपा दिया था, परंतु पूर्व इसके कि मुझे याद आता और उसका पति उस बरामदे को पार करता, जो दो डिब्बों को जुदा करता था, वह साथवाले डिब्बे की तरफ इस प्रकार शीघ्रता से दौड़ी जैसे कोई पक्षी अपने घोंसले के लिए जल्दी से जाता है, ताकि वह टोपीवाले यात्री को अपनी उड़ान के आधे रास्ते में मिल सके। मैं उठा जैसे मुझे संकेत हुआ हो और उसके बाजू को थपथपाने के लिए दौड़ा। कोई शब्द नहीं कहा गया, किसी प्रकार की आवाज नहीं की गई। वे चुपके से एक-दूसरे के साथ उन्मत्त आलिंगन में चिपक गए और बुत की तरह एक हो गए जिसको चाकू अथवा कुल्हाड़ी ही तोड़ सकती थी—एक प्रगाढ़ आलिंगन।

यह विचित्र और भयंकर आलिंगन कितनी देर रहा? संभवत: एक सेकेंड, संभवत: पाँच मिनट या इससे अधिक। अपनी आँखें उनपर गड़ाकर बैठा रहा; मुझे विश्वास नहीं हुआ कि मैंने क्या देखा। वह हिले-डुले नहीं, साँस लेते भी प्रतीत नहीं हो रहे थे; उन्हें किसी एक या दूसरी चीज से कोई सरोकार नहीं रहा जबकि इसके विपरीत मैं आंतरिक भय से काँप रहा था। मेरा दिल धड़कने लगा; साँस लेना कठिन हो गया, माथे पर पसीना छा गया और उसकी बूँदों ने मुझे अंधा कर दिया। मैंने महसूस किया कि मुझे कुछ करना चाहिए, कुछ भी करना चाहिए परंतु फिर दु:स्वप्न के शिकार की तरह अपनी सीट पर जमा रहा। मैंने असह्य‍ होकर केवल उस आदमी के लौटने की प्रतीक्षा की जिसको इस विचित्र नाटक में हस्तक्षेप करने का अधिकार था—विश्वासघात का शिकार युवा पति जो व्यर्थ में रूसी चमड़े के बटुए की तलाश में व्यस्त था—जिसके चाँदी के यंत्र उस सीट के नीचे से मंद प्रभा बिखेर रहे थे, जहाँ मैं ध्यानपूर्वक कपट से बैठा था।

अंतत: जब वे जुदा हो गए, मेरी साँस वापस लौटी। वह मेरे डिब्बे में अपने स्थान पर लौट आई, ज्यों ही वह मेरे पास से गुजरी उसका सिर झुक गया। जब वह सामने अपने स्थान पर बैठी तो उसने मेरी ओर इस तरह देखा कि उसके चेहरे पर संताप और प्रार्थना दोनों एक उद्दंड याचना में मिल गए हों। अजनबी अपने कोने में लौट आया था और अपनी टोपी का आश्रय लेकर स्पष्ट रूप से पहली तरह ऊँघता हुआ दुबककर बैठ गया था और मैं जबकि अभी तक यह सोच रहा था कि मैं भी सो रहा था अथवा स्वप्न देख रहा था कि युवा पति लौट आया। उसने हर जगह गुम हुए रूसी चमड़े के बटुए को ढूँढ़ा था—उसने समस्त रेल अधिकारियों को जगा दिया था, परंतु बटुए का कहीं नामोनिशान न था। दुलहन ने वह सबकुछ सुना जो उसने कहा; फिर प्रसन्नता से हँसी और उसने जो कष्ट उठाया था उसके लिए उसका चुंबन लिया; वह अपना बटुआ हाथ में थामे थी।

“मैंने जो कष्ट तुम्हें दिया है, उसके लिए मुझे क्षमा करो, मेरे प्यारे! मैं एक मूर्ख जीव हूँ। यह मुझे यहीं मिल गया है जहाँ पिटारी उठाते समय मुझसे सीट के नीचे गिर गया था।” वह उससे जरा भी नाराज या क्रुद्ध नहीं हुआ। वह पुन: पहले की तरह मिलकर बैठ गए और छोटी चौकोर पिटारी से सफेद कागज में लिपटा अंतिम बंडल निकाला। पश्चिमी धूप से पके गुलाबी आड़ुओं ने हनीमून के भोज को संपूर्ण कर दिया। उन दोनों ने पहले की तरह मिलकर कुतरा।

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बाकी सारे रास्ते कुछ नहीं हुआ—बिल्कुल कुछ नहीं! दोनों मिलकर बैठे, कानाफूसी की, एक-दूसरे को थपथपाया, समाचार-पत्र पढ़ा और जो पढ़ा उसके बारे में चर्चा की; गाल से गाल मिले, सोए, एक-दूसरे का हाथ थामा, उसका सिर इसके कंधों पर। सायंकाल भोजनयान में मिलकर खाना खाने के लिए चल दिए।

जब एक बड़े स्टेशन के प्लेटफार्म पर गाड़ी रुकी और तमाम यात्रियों ने अपना रास्ता लिया, मैंने उसको घोड़ागाड़ी में बाँह में बाँह डाले अंतिम बार देखा; पीछे-पीछे खाली छोटी पिटारी और रूसी चमड़े का बटुआ उठाए कुली जा रहा था। मैं पुन: विस्मित हुआ कि कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा था!

(अनुवाद: भद्रसैन पुरी)

साभार : स्पेन की श्रेष्ठ कहानियां, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली

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