दक्षिण भारत में हमारी हिन्दी प्रचार यात्रा (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
दक्षिण भारत हिन्दी-प्रचार-सभा की कृपा से हमें अबकी वहाँ के हिन्दी के उपासकों से मिलने और उनके प्रचार की सफलता को अपनी आँखों से देखने का अवसर मिला। सभा ने इस वर्ष हमें पदवी-दान के अवसर पर दीक्षांत भाषण करने का नेवता दिया और हम 27 दिसंबर को बम्बई से चलकर 28 की शाम को मद्रास जा पहुँचे। हमारे साथ हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर कार्यालय के मालिक श्री नाथूराम जी प्रेमी और बम्बई हिन्दी-प्रचार-सभा के प्रमुख कार्यकर्ता। श्री आर॰ संकरन् थे। तीसरे दरजे का सफर था, मगर रास्ते में कोई खास तकलीफ नहीं हुई। प्रेमी जी अपने साथ मगदल के लड्डू और पूरियाँ रख लाये थे। बीमारी के बाद से खाने-पीने के विषय में वे बहुत सतर्क रहते हैं, रास्ते में हमने खूब लड्डू खाए। पूरियाँ इधर बहुत कम स्टेशनों पर मिलती हैं। एक-दो स्टेशनों पर मिलती भी हैं, तो बहुत खराब। एक स्टेशन पर हमने पहली बार इदली खाई। यह चावल और उड़द की दाल के मैदे से बनती है। दानों मैदों को समान मात्रा में मिलाकर गूँध लेते हैं, और इस गूंधे हुए आटे को रात भर यों ही पड़ा रहने देते हैं। इससे उसमें कुछ खट्टापन आ जाता है। दूसरे दिन इसके मोटे-मोटे टिक्कड़ बनाकर भाप कर पकाते हैं। इस प्रांत में इदली खाने का बहुत रिवाज है। होटलों में देखिए तो हर एक आदमी इदली और दाल और चटनी खाता हुआ नजर आएगा। मिठाई से यहाँ किसी को प्रेम नहीं है। हाँ, अब उत्तर भारत में संसर्ग से मिठाई का कुछ प्रचार हो चला है।
मद्रास पहुँचकर हम रामनाथ जी गोयनका के मेहमान हुए। सौभाग्य से श्री काका कालेलकर जी भी वहाँ ठहरे हुए थे। उनके दर्शनों का आनंद मिला। आप सेवा की मूर्ति हैं। हिन्दी-प्रचार में आप तो जो निर्माणात्मक कार्य कर रहे हैं, वह बहुत ही आशाजनक है। जब तक किसी बात की उपयोगिता न दिखाई दे, हमारा प्रेम उसके प्रति स्थायी नहीं हो सकता। हिन्दी-ज्ञान को कैसे उपयोगी बनाया जाए-यही प्रश्न आपके सामने है। बड़े-बड़े व्यापार तो अंग्रेजों के हाथ में हैं। वहाँ हिन्दी की दाल नहीं गल सकती। मगर छोटे-छोटे व्यापारों में, जो भारतीयों के हाथों में है, हिन्दी का व्यवहार करने से कुछ सुविधा हो सकती है। इसी हेतु से आप परिस्थितियों का अध्ययन कर रहे हैं। हमारी शुभेच्छाएँ आपके साथ हैं। गोयनका जी उन लक्ष्मी पुत्रों में हैं, जो धन कमाना ही नहीं जानते, उसका सदुपयोग करना भी जानते हैं। आपकी जात से कितनी ही सार्वजनिक संस्थाओं को सहायता मिलती रहती है, और हिन्दी-प्रचार के तो आप एक स्तंभ हैं। अभिमान तो आपको छू भी नहीं गया। आप बड़े ही हंसमुख, निष्कपट, उद्योगी युवक हैं और सभी के कोषाध्यक्ष हैं! आपके घर में हम लोग पाँच दिन रहे, बिल्कुल इस तरह, जैसे अपने ही घर में हों।
पदवी-दान का जलसा गोखले हॉल में हुआ था। मेरा ख्याल था कि बहुत बड़ा जमघट होगा, लेकिन मालूम हुआ कि छुट्टियों के कारण बहुत से हिन्दी-प्रेमी बाहर चले गए हैं। यहाँ के रेलवे विभाग ने सस्ते टिकट जारी करके और भी कितने लोगों को मद्रास से बाहर पहुँचा दिया था, मगर तमाशाइयों की तादाद चाहे कम हो, वहाँ जितने लोग थे, प्राय: सभी हिन्दी- प्रचार से संबंध रखते थे और हिन्दी प्रचारकों के इस मिशनरी दल को देखकर मन में आशा और गर्व की गुदगुदी होने लगती थी। कुछ लोग तो कई-कई सौ मील तय करके आये थे और उसमे देवियों की भी खासी तादाद थी। इस आंदोलन की बुनियाद केवल सांस्कृतिक नहीं, उससे कहीं अधिक राजनैतिक है, जो संपूर्ण देश को एक राष्ट्रभाषा के सूत्र में बंधा देखना चाहता है। इसलिए, इसे प्रांत के प्रतिष्ठित नेताओं का सहयोग भी प्राप्त है और त्याग-भावना से भरे कार्यकर्ताओं का भी। श्री राजगोपालाचार्य, जिस सभा के डाइरेक्टर और श्री के. नागेश्वर राव जिसके वाइस-प्रेसीडेंट हों और केवल नाम के लिए नहीं, बल्कि उसके हरेक काम में दिलचस्पी रखते हों, उस सभा का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है, तो क्या आश्चर्य है। 1930 में प्राथमिक , माध्यम और राष्ट्रभाषा तीनों परीक्षाओं में बैठने वालों की तादाद एक हजार सात सौ थी, 1933 में नौ हजार साठ हो गई, मगर 1934 में यह संख्या घटकर चार हजार छः सौ इकतालीस हो गई। इससे शंका होती है, कहीं हिन्दी का शौक घट तो नहीं रहा है। अगर ऐसा है, तो यह खेद की बात होगी। हमारा कर्त्तव्य है कि इस अवनति के कारणों को खोजें और उन्हें दूर करने की चेष्टा करें।
मद्रास में देखने के लायक केवल दो चीजें हैं। एक तो समुद्र का तट जो सात मील तक चला गया है, दूसरा अधार जो थियोसोफिकल सोसाइटी का कें द्र है। इतना रमणीक जल-तट भारतवर्ष में है और कही नहीं। मीलों तक समुद्र के किनारे ठंडी-ठंडी हवा का आनंद उठाते चले जाइये। अधार मद्रास से आठ मील पर समुद्र के किनारे एक कालोनी के रूप में है। उसका क्षेत्रफल दो मील से कम न होगा। बहुत ही साफ-सुथरी, फूल-पत्तों से सजी हुई जगह है। पुस्तकालय है, प्रकाशन-विभाग है, मंदिर है, भोजनालय है, कर्मचारियों और अन्य थियोसोफिस्ट सज्जनों के निवास स्थान हैं। बीच में एक विशाल वट-वृक्ष है, जो अपनी बूढ़ी गोद में लगभग दो हजार दर्शकों को शरण दे सकता है। कहते हैं स्व. मिसेज एनीबेसेन्ट कभी-कभी वृक्ष के नीचे बैठकर धर्म के पिपासुओं को अपना उपदेशामृत पिलाया करती थीं। यह तपोभूमि दर्शनीय है। इन दिनों इस संस्था का वार्षिकोत्सव हो रहा है। दूर देशों से प्रतिनिधि आये हुए हैं।
मुझे दो बैठकों में प्रांत के प्रमुख प्रचारकों से बातचीत करने का सुअवसर मिला, तीन सज्जन तो उत्तर भारत के हैं, जिन्होंने दक्षिण ही को अपना घर बना लिया है। सभी महानुभावों के दिलों में हिन्दी-प्रचार की लगन मालूम होती थी। सभी में उत्साह दीख पड़ा। सभी इसी काम को पेशा समझ कर नहीं, दिलचस्पी के साथ कर रहे हैं। उन्हें साहित्य से भी प्रेम है और साहित्यिक-विषय की चर्चा सुनने के लिए बड़े उत्सुक पाये गये। महाशय देवदत्त जी विद्यार्थी ने जो केरल प्रांत के संचालक है और बिहार प्रांत के निवासी हैं, गद्य-काव्य के दो संग्रह भी प्रकाशित कराए हैं, औ` एक ड्रामा भी लिख रहे हैं। इन संग्रहों को पढ़ने से विदित होता है कि आपकी अनुभूतियाँ कितनी कोमल और आपकी भावनाएँ कितनी मार्मिक हैं। उसके साथ ही भाषा पर भी आपका पूरा अधिकार है।
एक रात को हमें प्रचारकों का अभिनय-कौशल देखने का अवसर मिला। साल हुए कुछ लोगों ने एक नाटक परिषद बना ली थी और प्रचार के लिए साल में दो एक नाटक खेल लिया करते थे। मतभेद के कारण इस वर्ष परिषद ने कोई नाटक नहीं खेला। मेरा उन सज्जनों से अनुरोध है कि वे अपने महान् उद्देश्य को ध्यान में रखकर वैयक्तिक मतभेदों को भूल जाएँ और प्रचार के इस अंग को शिथिल न होने दें। मैंने दुर्गा दास नाटक के जो दो-तीन दृश्य देखे और उनसे इस नतीजे पर पहुँचा कि थोड़े से संयम के साथ यहाँ के अभिनेता बहुत सफल हो सकते है। एक सीन में चाणक्य का पार्ट दिखाया गया था। मुझे वह पार्ट बहुत पसंद आया। चाणक्य के शब्दों में दर्द था, चोट थी, और विद्रोह था-वह विद्रोह जो ईश्वर की सत्ता से भी इनकार करता है, जिसे संसार छल, कपट, अन्याय और अत्याचार का रंगस्थल सा नजर आता है।
मद्रास में दो अजायबघर हैं। एक पशु-पक्षियों का और दूसरा जल जीवों का। जू तो बहुत साधारण है, पर मछली भवन बड़ा ही सुंदर है। मछलियों का ऐसा विभिन्न, विचित्र और अद्भुत संग्रह भारतवर्ष में दूसरा नहीं है। शीशे के पानी से भरे केसों में रंग-बिरंगी मछलियों की क्रीड़ा, बड़ा ही मनोहर दृश्य है।
सभा ने दो मकान किराये पर ले रखे हैं। एक में तो उसका दफ्तर, पुस्तकालय, परीक्षा-विभाग आदि हैं, दूसरे में प्रेस है। दोनों का किराया तीन सौ पचास रुपये देना पड़ता है। मंत्री जी ऐसे मकान की तलाश में हैं, जहाँ दोनों ही काम हों सकें । ऐसा मकान मिल जाए, तो शायद किराये में कुछ किफायत हो और काम ज्यादा व्यवस्थित रूप से चलने लगे। ऐसी उपयोगी संस्था के पास अपना भवन न हो और उसे साढ़े तीन हजार रुपये सालाना किराये के रूप में देना पड़े, यह हिन्दी-प्रेमियों के लिए गर्व की बात नहीं। इसका कारण यही मालूम होता है, कि अभी तक हमने हिन्दी-प्रचार का महत्त्व नहीं समझ पाया। इसकी जिम्मेदारी दक्षिण से कहीं ज्यादा उत्तर भारत पर है ।
हिन्दी या हिन्दुस्तानी दक्षिण भारत के लिए विदेशी भाषा के समान है। अध्यापक भी प्राय: दक्षिण के लोग हैं। छात्रों को पुस्तकें पढ़ने के सिवा हिन्दी को व्यवहार में लाने के लिए शायद बहुत कम मौके मिलते होंगे। इसका परिणाम यह हो सकता हे कि उनका भाषा ज्ञान केवल किताबी ज्ञान होकर रह जाए। इसके कुछ उदाहरण भी मिले। हमें ऐसे कितने ही सज्जन मिले, जो किताबें तो समझ लेते हैं, लेकिन हिन्दी बोल नहीं सकते, और न हिन्दी भाषण आसानी से समझ पाते हैं। अगर अध्यापकगण क्लासों में छात्रों से हिन्दुस्तानी ही में बोलें और इसका ख्याल रखें कि छात्र भी आपस में कम-से कम क्लास में हिन्दुस्तानी का व्यवहार करें, तो उन्हें शुद्ध बोलने का अभ्यास हो जाएगा और वह हास्यजनक भूले न करेंगे जिनकी एक विनोदी-प्रचारक महोदय से कुछ मिसालें देकर हमें खूब हँसाया था, दूसरा निवेदन जो मैं प्रचारक महोदयों से करूँगा, वह यह है कि वे हिन्दी का पत्रों पत्रिकाओं का अध्ययन करते रहें, जिससे उनका भाषा ज्ञान बढ़ता जाए। जिन्हें साहित्य रचना का कुछ शौक है इन्हें कभी-कभी पत्रों में कुछ लिखते रहना चाहिए। दक्षिण के साहित्य में ऐसी कितनी ही चीजें होंगी, जिन्हें हिन्दी में लाकर वे उत्तर और दक्षिण की सांस्कृतिक एकता को दृढ़ करेंगे।
मद्रास से हमने पाँचवें दिन मैसूर को प्रस्थान किया। यहाँ से लोटी लाइन जाती । गाड़ी में बड़ी ठेलम ठेल थी, लेकिन किसी तरह बैठ गए। मैसूर के मुख्य प्रचारक श्री हिरण्यमय जी हमारे पथ प्रदर्शक थे। बंगलौर के श्री जम्बूनाथ जी भी उसी डब्बे में थे। मेरे सामने केरल प्रांत के एक सज्जन बैठे थे। उनसे साहित्य और हिन्दी प्रचार के विषय में बड़ी देर तक बातें होती रही। हिन्दी प्रचार से उन्हें प्रेम तो था, पर उन्हें यह भय भी था कि कहीं यह आंदोलन आगे चलकर हवा में न उड़ जाए। इस तरह का संदेह कभी-कभी मन में होना स्वाभाविक ही है। हमारे आंदोलन इतने जोश से शुरू किये जाते हैं, और थोड़े ही दिनों में लोग उनकी ओर इतने उदासीन हो जाते हैं, कि हम किसी आंदोलन को सजीव देखकर भी आशंकाओं से निवृत्त नहीं हो सकते। मैंने उस सज्जन को विश्वास दिलाया कि हिन्दी प्रचार अब केवल दो एक उत्साही व्यक्तियों का खेल नहीं रहा, वह एक संस्था है, जिसने जनता के दिलों में अपना स्थान प्राप्त कर लिया है, और आशा है कि दिन दिन इसकी उन्नति होगी। हम सुबह को मैसूर पहुँचे। हिन्दी प्रेमियों ने हमारा स्वागत किया और हम कृष्ण-भवन में ठहरे। यहाँ हमें हर तरह का आराम था और होटल के स्वामी श्रीशिवप्रसाद जो ने जिस उदारता से हमारा स्वागत क्रिया, उसकी कहाँ तक तारीफ करें। इनकी उम्र अभी अट्ठाइस-तीस साल से ज्यादा नहीं है, और इनका बाल जीवन भी बड़ा ही संकटमय था , यहाँ तक कि केवल बारह साल की उम्र में इन्हें घर से भागना पड़ा और वह बंगलोर आकर एक होटल में नौकर हो गए। वहाँ उन्होंने जो अनुभव प्राप्त किया, उससे उन्होंने दो-एक मित्रों के सहयोग से यह होटल खोलने का उत्साह किया। और अब आप अपने पुरुषार्थ के फलस्वरूप स्वतंत्र हैं। आपको साहित्य और धर्म से विशेष रुचि है, पर आपके विचार बड़े उदार हैं, धार्मिक संकीर्णता का कहीं नाम भी नहीं। मानसिक और व्यापारिक उन्नति के साथ अपने दैहिक उन्नति का भी ध्यान रखा है। आप नियमित रूप से सूर्य नमस्कार और व्यायाम करते हैं। आम वैश्यों की भांति आप केवल धन संग्रह करके ही संतुष्ट नहीं हुए। बल संग्रह भी किया है। आप बलिष्ठ और स्वस्थ युवक हैं। और किसी दुर्व्यसन को अपने पास नहीं फटकने देते। बुरी से-बुरी दशाओं में पुरुषार्थी आदमी क्या कुछ कर सकता है। यह उपदेश हमारे युवक शिवप्रसाद जी के जीवन से ले सकते हैं। मुझे यह देखकर बड़ा हर्ष हुआ कि आपने धन को अपना स्वामी नहीं बनने दिया, स्वयं उसके स्वामी हैं। आपके जीवन का उद्देश्य परोपकार है। आपका इरादा है, कि अपने जन्म-स्थान बुलंदशहर में एक अच्छी व्यायामशाला कायम करें और युवकों को अपनी देह और स्वास्थ्य को बलवान करने का अवसर दें। कितना पवित्र उद्देश्य है।
कृष्ण-भवन से मिला हुआ ही एक दूसरा होटल है – आनन्द भवन। इसके, स्वामी बद्रीप्रसाद जी हैं। मैसूर में उत्तर भारतीयों का यह पहला ही होटल है! और बड़े सुव्यवस्थित रूप से चल रहा है। बद्रीप्रसाद जी बड़े प्रसन्न-चित्त, सेवा-तत्पर, साहित्य रसिक व्यक्ति हैं और हिन्दी-साहित्य की प्रगति से खूब परिचित हैं। आप भी बुलंदशहर के निवासी हैं और सपरिवार यहीं रहते हैं। हमें मैसूर मुख्य दर्शनीय स्थानों की सैर कराने का जिम्मा आपने लिया था, और इसके लिए हम आपके आभारी हैं।
मैसूर में यों तो देखने की बहुत-सी चीजें हैं, लेकिन हमारे पास समय न था इसलिए हमें उन्हीं स्थानों को देखकर संतुष्ट होना पड़ा, जो मैसूर से मिले हुए और जिन्हें हम कम-से-कम समय में देख सकते हैं। मैसूर बड़ा ही साफ सुथरा सुन्दर उद्यानों से सजा हुआ, रमणीक स्थान है। जिधर जाइये उधर पार्क, यहाँ तक कि रेलवे लाइन के किनारे भी फूलों की लाइन नजर आती हैं। सड़कें चौड़ी हैं, गर्द गुबार से पाक , चौरस्ते पर बेलों और पौधों से सजे हुए स्क्वायुर बने हैं। बिजली शक्ति की तो यहाँ इतनी इफरात है, कि देहातों में भी बिजली की रोशनी है। और है भी बेहद सस्ती। देहातों में तो केवल दो आना यूनिट है। दूसरे शहरों में केवल म्युनिसिपैलिटी के अन्दर रोशनी होती है। उसके बाहर अंधेरा। यहाँ हरेक पक्की सड़क पर बिजली की रोशनी है, और चामुंडा पहाड़ी से नगर को देखिये, तो मालूम होता है, बिजली प्रकाश का जाल बिछा हुआ है। यह पहाड़ी शहर से मिली हुई है और अक्सर शाम सबेरे शहर के लोग उस पर हवा खाने जाते हैं। कोई एक हजार फीट ऊँची होगी। चढ़ाई के लिए मोटर चलने लायक सड़क बनी हुई है। जिस पर बिजली की रोशनी है। चोटी पर चामुंडादेवी का मन्दिर है। उससे जरा और ऊँचाई पर महाराज के निवास के लिए एक सुन्दर बंगला बना हुआ है। चामुंडा देवी मैसूर राजा की कुल-देवी है और महाराज अक्सर यहाँ पूजन के लिए आते हैं।
मैसूर नगर से दस-बारह मील पर मैसूर की पुरानी राजधानी सेरिंगापट्टम है। वहाँ तक पक्की सड़क चली गयी है। सेरिंगापट्टम पहले बहुत गुलज़ार बस्ती थी लेकिन अब लोग इसे छोड़-छोड़कर दूसरी जगहों में आबाद होते जाते हैं। पुराना किला तो हो गया। चारदीवारी कहीं-कहीं बाकी है। यहाँ की सबसे दर्शनीय वस्तु सुलतान हैदरअली और टीपू की मजार है। एक रमणीक उद्यान के मध्य में मजार की शानदार इमारत है, जो काले पत्थर की है। अन्दर बड़ी खबसूरत पच्चीकारी है और दरवाजे पर हाथी दांत का काम है, जो मैसूर की खास कला है। किले के बाहर सुलतान टीपू का महल है, जिसका नाम दरिया दौलत बाग है। टीपू सुलतान गर्मियों में यहाँ आकर विश्राम किया करते थे। इसी की बाहरी दीवारों पर उस जमाने की प्राय: सभी ऐतिहासिक और राजनैतिक घटनाओं के चित्र बन हुए हैं, जो बहुत कुछ उन चित्रों से मिलते हैं, जो आज भी शहर के चित्रकार दीवारों पर बनाया करते हैं. लेकिन अंदर नक्काशी बहुत ही बारीक है। जिस स्थान पर सुलतान अपनी प्रजा को दर्शन दिया करते थे, वह दरबार किसी तरह भी दिल्ली के दरबार आम से कम विशाल नहीं है।
सेरिंगापट्टम से हम कृष्णराज सागर देखने आये। यह एक बहुत बड़ा सागर है । जो कावेरी नदी को बांध से रोककर बनाया गया है। बांध कोई दो मील लंबा और जमीन से कोई एक सौ पचास फीट ऊँचा होगा। चौड़ा इतना है, कि उस पर मोटरें बड़ी आसानी से आ जा सकती हैं। इस बांध को बनने में मैसूर सरकार का करीब दो करोड़ से ऊपर खर्च हो गया है। इस सागर से नहर निकाली गयी है, जो लगभग पचास मील तक की भूमि की सिंचाई करती है। इसका फल यह हुआ है, कि अब यहाँ धान और ऊख की पैदावार कसरत से होने लगी है। ऊख की खपत के लिए सरकार ने एक शक्कर मिल भी बनवाया है। इसी पानी से बिजली भी निकाली जाती है। इस निर्माण में रियासत के लगभग पाँच करोड़ खर्च हो गये हैं। भारत में इससे बड़ा दूसरा बांध नहीं हैं। बांध के नीचे एक रमणीक स्थान है , जिसे वृंदावन कहते हैं। यहाँ फौवारों की विचित्र लीला देखने में आती है। एक नाली से दरिया का पानी लाकर एक ढालू नहर में बड़े वेग से प्रवाहित किया गया है। दोनों तरफ फौवारों की छटा है, जिनके पास रंग बिरंगे शीशों में बिजली का प्रकाश किया जाता है। उछलते हुए पानी पर जब इस रंगीन प्रकाश का प्रतिबिंब पड़ता है, तो ऐसा मालूम होता है कि फौवारों से रंगीन पानी निकल रहा है। दर से देखने पर इंद्रधनुष का -सा दृश्य आँखों को मुग्ध कर देता है।
मैसूर का राजभवन भी देखने लायक है, मगर यह कोई उल्लेखनीय बात नहीं। राजभवन तो उन रियासतों में भी आँखों को मुग्ध कर देते हैं, जहाँ प्रजा नरक के कष्ट भोग रही है। हमारे राजाओं में निन्यानवे फीसदी तो वही हैं, जो अपनी रियासत की आमदनी का बड़ा भाग अपने ही भोग विलास पर उड़ा देते हैं। उनकी प्रजा मानों है ही इसलिए कि कमा-कमाकर राजा साहब को उड़ाने के लिए दे और मुँह से बोले नहीं वर्ना उसकी जबान काट ली जायेगी। मैसूर तो सम्पन्न राज्य है और उसके राजभवन को रियासत की शान के अनुसार होना ही चाहिए। एक-एक हाल की सजावट देखते रहिए। दरबार हाल तो इस ठाट का है कि शायद ही किसी राज्य में हो। यहाँ दशहरे के उत्सव पर महाराजा साहब सिंहासन पर विराजते हैं और दरबारी और कर्मचारी अपने रुतबे के अनुसार कुर्सियों पर बैठते हैं। इत्र पान से उनका स्वागत किया जाता है, मगर इस इंद्रपुरी का इंद्र अतुल विभूति का स्वामी होते हुए भी, त्याग का उपासक है। अन्य रियासतों की भाँति यहाँ का दरबार इंद्र का अखाड़ा नहीं, कि संन्यासी का आश्रम है। महाराज को राज्य से बाईस लाख रुपये सालाना मिलते हैं, पर यह उनके भोग-विलास में न खर्च कर प्रजा-हित के कामों में ही खर्च किये जाते हैं। यही कारण है, कि यहाँ की प्रजा अपने राजा को पूजती है और उस पर गर्व करती है। महाराज संगीत और व्यायाम के प्रेमी हैं और साहित्य से भी आपकी रुचि है।
मैसूर का चिड़ियाघर देखकर बंबई और मद्रास के चिड़ियाघर वैसे ही लगते हैं जैसे महल के सामने झोंपड़ा। जितने विचित्र पशु-पक्षी और जल-जीव यहाँ हैं शायद कलकत्ते के चिड़ियाघर के सिवा और कहीं नहीं हैं। पशुओं के लिए नैसर्गिक दशाओं की व्यवस्था ऐसी शायद ही कहीं हो। हमने जितने जीव देखे, सभी हृष्ट-पुष्ट, साफ सुथरे और प्रसन्न दिखायी दिये थे।
मैसूर में सरकार की ओर से रेशम का कारखाना भी खुला हुआ है, चंदन का तेल का भी। चंदन पर इस रियासत की मनोपोली या इजारा है। उसका व्यापार सरकार के हाथों में है। कला-कौशल का विभाग भी है, जहाँ लकड़ी, बेंत, हाथी-दांत, धान कुम्हारी आदि की शिक्षा दी जाती है। वहाँ की बनी हुई चीजों का प्रदर्शन होता है और बिक्री भी होती है, पर चीजों की कीमत बहुत ज्यादा है। यहाँ सबसे अचरज बात जो हमें मालूम हुई वह यह है कि रियासत के कर्मचारियों का या पुलिस का यहाँ बिल्कुल आतंक नहीं है और रिश्वत की चर्चा यहाँ बहुत ही कम है। राज्य की सुव्यवस्था का इससे बढ़कर हमारे विचार में दूसरा प्रमाण नहीं हो सकता।
मैसूर में हिन्दी-प्रचार के कार्यकर्ताओं और संचालकों में मैंने शुद्ध एकात्मक भाव देखा। सभी में हिन्दी के प्रति मिशनरी उत्साह और अनुराग है। पं. हिरण्यमय जी चुपचाप काम करने वाले व्यक्ति हैं, जो शायद स्वप्न में भी प्रचार ही का स्वप्न देखते हों। टी. कृष्ण मूर्ति और श्री के. श्रीनिवास मूर्ति, दोनों ही सज्जन यहाँ की प्रचार-सभा के मंत्री हैं और केवल पदाधिकारी मंत्री नहीं, बल्कि सभा में जीवन का मंत्र डालने वाले मंत्री। दोनों ही शिक्षा विभाग में अध्यापक हैं, लेकिन हिन्दी-प्रचार को अपना व्यसन बना चुके हैं। एक तीसरे उत्साही यवक मि. जे. पी. वर्मा हैं। यह इंटर यूनीवर्सिटी बोर्ड में हैं और यहाँ शायद साल-भर ही उनका रहना होगा, लेकिन हिन्दी प्रचार में इस जोर से सहयोग दे रहे हैं, जो संक्रामक है। अपने उत्साह के सामने बाधाओं को कुछ समझते ही नहीं। इन्हें यहाँ उत्तर भारत के रहने वालों को संगठित करने के लिए एक हिन्दुस्तानी हितैषी मंडल खोलने की धुन है। कोई सुने या न सुने, आप अपना कथन किये जाते हैं। आखिर मेरे हाथों उस मंडल को स्थापित करा के ही छोड़ा, बुनियाद की रस्म तो मैंने कर दी, उस पर इमारत खड़ी करना मैसूर के उन सज्जनों का काम है, जो व्यापार में धन कमाना ही नहीं चाहते, अपने भाइयों की सेवा में उसका एक अंश अर्पण करना भी चाहते हैं। और जिम्मेदारी भी सबसे ज्यादा उन्हीं लोगों पर आती है, जो संसार की प्रगति को देखते और समझते हैं।
मैसूर में इंदिरा बहन से मिलकर चित्त प्रसन्न हुआ है। इस देवी से मैं काशी, प्रयाग और दिल्ली में मिल चुका था। प्रयाग-महिला-विद्यापीठ में दो साल तक इन्होंने हिन्दी का विशेष ज्ञान प्राप्त किया है और आजकल यहाँ प्रचार कर रही हैं। आप प्रचार-सभा के मंत्री श्री क्योंजी की सहधर्मिणी हैं। हिन्दी-प्रेम इन्हें प्रयाग खींच ले गया। पति ने भी सहर्ष अनुमति दी। अपनी छोटी-सी बच्ची को घर पर छोड़कर वह प्रयाग चली गयीं। जिस आंदोलन में ऐसे साधक हों, वह क्यों न सफल हो। एक दूसरी देवी श्रीमती लक्ष्मी अम्मा हैं। इस वृद्धावस्था में इन्होंने विशारद पास किया और अब उर्दू पढ़ रही हैं। उनका उत्साह अदम्य है और युवकों को भी लज्जित करता है। जहाँ-जहाँ मैं गया वह मेरे स्वागत के लिए मौजूद थीं। हम उनकी कुटिया में उस श्रद्धा से गये जैसे मंदिर में जाते हैं और वहाँ हमने दस-पाँच मिनट तक इस तरह गुजारे, मानों अपनी बहुत दिनों की बिछुड़ी हुई बहन से मिल रहे हों और बहन उतने ही समय में अपने स्नेह और मेहमानदारी के सारे अरमान पूरे कर लेना चाहती हो। प्रो. सूस्त्री के दर्शनों का सौभाग्य भी हमें मिला। आप मैसूर-विश्वविद्यालय में फारसी के अध्यापक हैं और उर्दू के अच्छे जानकार हैं। आपको हिन्दुस्तानी से प्रेम है और संस्कृत के तो आप पंडित हैं। आप इन दिनों भगवद् गीता का फारसी में अनुवाद कर रह हैं। हिन्दू-मुसलिम समस्या पर आपने जो सोने के-से विचार प्रकट किये, काश वह हमारे लीडरों में भी होते तो भारत आज स्वर्ग हो जाता। आप साधुओं का-सा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। सांप्रदायिक मनोवृत्ति से आपको घृणा है। आपके चरणों में बैठकर हमने जो आत्मिक शांति लाभ की, वह दिव्य दर्शन से होती है। हिन्दी में एक और उपासक प्रो. नांजुन डैया के सत्संग का भी सुअवसर हमें मिला। आप मैसूर-विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के अध्यापक हैं और इन दिनों अस्वस्थ हैं आपने जिस उदारता से हमारा स्वागत किया, वह हमारे जीवन की बड़ी मधुर अनुभूति है। आप इन दिनों उर्दू का अध्ययन कर रहे हैं और हमारी कई उर्दू रचनाएँ आपकी नजरों से गुजर चुकी हैं। आपका विशुद्ध साहित्य-प्रेम और साहित्य के एक तुच्छ सेवक के पति आपका उमड़ता हुआ सम्मान देखकर हम कृतार्थ हो गये। आपसे हमें यही शिकायत है कि आपने हाथी दांत की नक्काशी से सजा हुआ एक सिगरेट बक्स भेंट करके हमें यह पाठ पढ़ाया कि सिगरेट पीना भी कोई सद्व्यसन है और तब में सिगरेट के प्रति हमारा अनुराग बढ़ गया है, क्योंकि बक्स को हम खाली नहीं देख सकते – दावात में स्याही नहीं तो वह कुल्हिया है – और जब सिगरेटों से भरा हुआ डब्बा सामने हो, तो लोभ को रोकना जरा कारे दरिद।
यों हमें तो यहाँ दो जलसों में हिन्दी के विषय में अपने विचार प्रकट करने का अवसर मिला, लेकिन विशेष आनंद का अवसर वह था, जब हम विश्वविद्यालय भवन में हिन्दी के सैनिकों से मिले। पचास मित्रों से कम न थे और यह सभी युवक हैं , जो खुद विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हैं। पर हिन्दी से इतना प्रेम रखते हैं कि कुछ-न-कुछ समय निकालकर हिन्दी-प्रचार की भेंट करते हैं। यह राष्ट्रभाषा के उत्साही सैनिक हैं और उसके प्रचार का संपूर्ण श्रेय इनको है। कई मित्रों ने हिन्दी में अपनी रची हुई चीजें पढ़ी और हम लोगों में घंटे भर तक काफी के साथ साहित्यिक समस्या पर खूब गपशप हुई।
मैसूर की राजभाषा कन्नड़ी है और बोलने वालों की संख्या डेढ करोड़ के लगभग है, मगर यह संख्या, मद्रास, बंबई, हैदराबाद रियासत और मैसूर में फैली हुई है और इससे इस भाषा के विकास में बाधा पड़ रही है। कन्नड़ी का प्राचीन साहित्य ऊँचे दरजे का है और नये साहित्य में भी अच्छी उन्नति हो रही है। बंगलोर में कन्नड़ी साहित्य-परिषद का अपना भवन है, पुस्तकालय हे और उसके द्वारा कन्नड़ी-साहित्य के अच्छे ग्रंथ प्रकाशित हो रहे हैं। मैसूर में मुझे कई कन्नड़ी-साहित्य-सेवियों की सेवा में हाजिर होने का अवसर मिला। कई अन्य प्रांतीय भाषाओं की तरह कन्नड़ी को भी यह शंका होने लगी है कि हिन्दी-प्रचार के उद्देश्य के विषय में कुछ भ्रम अभी तक बाकी है। हिन्दुस्तानी प्रचार का उद्देश्य यह हर्गिज नहीं है कि वह प्रांतीय भाषाओं का स्थान छीन ले। वह तो अंग्रेजी भाषा का वह स्थान लेना चाहती है, जो उसने भारतवर्ष में प्राप्त कर लिया है। राष्ट्रभाषा और प्रांतीय भाषाओं में कुछ वही संबंध रहेगा, जो प्रांतीय कौंसिलों और भारतीय एसेम्बली में है। एसेम्बली प्रांतीय कौंसिलों के किसी काम में बाधा नहीं डालती। हाँ, कुछ ऐसे विषय हैं, जिनका संबंध पूर्ण भारत से है और एसेम्बली उन्हीं के विषय में व्यवस्था करती है। जो लेखक या पत्रकार अपनी पुस्तक या पत्र का सारे भारतवर्ष में प्रचार चाहेगा, उसके लिए अंग्रेजी माध्यम की जगह हिन्दी माध्यम का साधन उपस्थित कर देना ही हमारा ध्येय है। आखिर कोई ऐसा दिन तो आयेगा ही, चाहे वह दूर भविष्य में ही क्यों न आये कि भारत अपनी संस्कृति और अपने साहित्य के साथ अन्य राष्ट्रों के पहलू में बैठे। अगर हम भारत को एक देश न मानकर महाद्वीप मान लें, जिसमे बहुत से देश हैं, तब भी तो हमें एक प्रधान भाषा की जरूरत पड़ेगी ही,जिसमे अंतर्देशीय व्यवहार किया जा सके । हाँ, अगर इन देशों में कोई संबंध ही न रहे, तो दूसरी बात है। तब तो एक प्रांत भी अपनी पृथक सत्ता न कायम रख सकेगा। हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तानी का प्रचार साहित्य-सेवियों के लिए यश और कीर्ति का एक महान् क्षेत्र खोल देता है और प्रांतीय भाषाओं को उससे बदगुमान होने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। अभी तक हमने जो कुछ किया है, वह प्रांतीय दृष्टि से ही किया है। हम पारिभाषिक शब्दों का कोष बनाते हैं। तो अलग-अलग साधारण कोष बनाते हैं, तो भी अलग-अलग। अगर हमारे पास कोई अंतरप्रांतीय या राष्ट्र-भाषा- परिषद ऐसी होती , जहाँ प्रतिवर्ष प्रत्येक भाषा के महारथी एकत्र होकर, दो- चार दिन या दो – चार हफ्ते बैठकर राष्ट्रभाषा संबंधी समस्याओं पर विचार किया करते, तो शायद दस-बीस साल में हमारी एक संपन्न राष्ट्रभाषा बन जाती। पृथक्-पृथक् काम करने से समय और शक्ति का अपव्यय हो रहा है। दर्शन, विज्ञान, शास्त्र के हजारों ही शब्द हैं, जो सभी प्रांतीय भाषाओं में एक हो सकते थे। अलग-अलग माथापच्ची करने की जरूरत ही न पड़ती। पाँच दिन मैसूर की मेहमानी खाकर हमने बंगलोर को प्रस्थान किया। मैसूर से बंगलोर कोई चार घंटे का सफर है। बीच का प्राकृतिक दृश्य बड़ा ही रमणीक है। कहीं हरे-भरे खेत हैं, कहीं आम, नारियल और सुपारी के बाग और कहीं हरियाली से ढकी हुई ऊँची-ऊँची पहाडियाँ। आकाश में कुछ बादल थे और उस मंद प्रकाश में वह पर्वत शोभा स्वप्निल हो गयी थी। बीच-बीच घाटियों की गोद में विश्राम करते हुए ग्राम नजर आ जाते थे, जिनकी कलई से पुती हुई दीवारें गाँव वालों की सफाई और सुरुचि का पता दे रही थीं। यहाँ की मिट्टी लाल है । जिससे खेतों की छटा और भी सुहावनी हो जाती है। खेतों में जो किसान काम करते नजर आते थे, उनका पहिरावा कुरता और जांघिया था। धोती के मुकाबले में जांघिया किफायत की चीज है। वहाँ धान के खेत भी बहुत मिले, जिनमे नहर से सिंचाई हो रही थी। अब यहाँ गन्ना भी पैदा होने लगा है और राज्य की ओर एक शक्कर की मिल भी है।
शाम को हम बंगलोर पहुँच गये। स्टेशन पर हिन्दी-प्रचार-सभा के अध्यक्ष श्री निट्टूर. श्रीनिवास राव, श्री जम्बुनाथन जी आदि सज्जन मौजूद थे। हम अध्यक्ष जी के मेहमान हुए।
बंगलोर समुद्र की सतह से तीन हजार फीट की ऊँचाई पर है और मैसूर से कुछ ठंडा है। बंगलोर शहर के दो भाग हैं। शहर जो मैसूर राज्य के अधीन है और छावनी पर अंग्रेजी सरकार का राज्य है। आबादी तीन लाख के ऊपर है। शहर में तो कोई खास बात नहीं, प्रयाग या लखनऊ जैसा ही है, लेकिन छावनी की सड़कों की सफाई और बंगलों की सजावट देखकर चित्त प्रसन्न हो गया। बंगलोर में और प्राय: दक्षिण में दो आंगन के घर होते हैं। घर में हैसियत के अनुसार दो-तीन-चार कोठरियाँ होती हैं। मकान के सामने एक छोटा-सा बाग और चारदीवारी भी बनायी जाती है। हर एक घर बंगले जैसा मालूम होता है।
पहले दिन प्रातःकाल हम लाल बाग की सैर करने गये। इसका रक्बा एक सौ एकड़ है। बाग की बनावट और सफाई और सुंदरता साफ-सुथरी रविशें, फूलों की क्यारियाँ, शीश मंडप मन को मुग्ध कर लेती है। खास बात यह है कि यह पार्क-सुलतान हैदरअली की सुरुचि और वनस्पति-प्रेम की यादगार हैं। यहाँ पौधों और बीजों की बिक्री होती है और विचित्र प्रकार की वनस्पतियों को विदेशी से माँगकर उपजाया जाता है। बंगलोर की सबसे दर्शनीय वस्तु यही पार्क है।
बंगलोर से तीन मील पर विज्ञान का वह प्रसिद्ध विद्यालय है, जिसे श्री जमशेद जी नौशेरवाँ जी टाटा ने स्थापित किया था। बंगलोर आकर इस विज्ञान-मंदिर के दर्शन न करना दुर्भाग्य की बात होती है। रविवार के दिन हम कोई तीन बजे वहाँ पहुँचे। विद्यालय बन्द थे, पर डॉ. सर सी. वी. रमन ने बड़ी खुशी से हमारा स्वागत किया और हमें विद्यालय के रासायनिक विभाग, पुस्तकालय और लेबोरेटरी की सैर करायी। मैं दो-चार वैज्ञानिकों से पहले भी मिल चुका हूँ। यह बड़ा समन्वय बड़ा ही आकर्षक, गूढ, शुष्क और अपनी धुन में मस्त होता है। प्रकृति की अनंत रहस्यमयी रचनाओं में संदेह विचरते रहने के कारण कदाचित् मनुष्य उसके लिए मामूली पशु-मात्र रह जाता है, लेकिन वैज्ञानिकों के इस प्रिंस को देखकर मैं चकित हो गया। ऐसा प्रसन्नचित्त व्यक्ति, जिसका पोर-पोर बालकों के सरल उछाह से उबला पड़ता हो, मैंने दूसरा नहीं देखा। वह विज्ञान के आशिक हैं। और वह इश्क उनकी आँखों में, उनके कपोलों पर, एक-एक अंग में रमा हुआ है। वह इस तरह से दौड़-दौड़कर एक-एक चीज हमें दिखा रहे थे, मानो कोई बालक अपने किसी सखा को अपने खिलौने और कनकौवे और नये कपड़े दिखाने के लिए अधीर हो रहा हो और चाहता हो कि एक ही सांस में सारी विभूतियाँ दिखा दूँ,जिसमे कुछ बाकी न रह जाए। मैं अगर कहूँ कि इसी इंस्टीट्यूट में उनके प्राण बसते हैं, तो गलत न होगा। इसकी एक-एक रविश, एक-एक फूल, एक-एक पौधे, यहाँ तक कि उसके मनोरम प्राकृतिक दृश्य पर भी उन्हें गर्व है, मानों वह प्राकृतिक छटा भी उनकी अपनी रचना हो। इस विद्यालय से देश को अब तक क्या लाभ पहुँचा है, यह तो कोई वैज्ञानिक ही जानता होगा, हम तो सर रमन के व्यक्तित्व की छाप हृदय पर लेकर आये। विद्युत-विभाग और अन्य विभाग बन्द थे, वह हम न देख सके । सर रमन ने हमें एक मजे का तमाशा दिखाया, जो हमारे लिए तो खेल था, पर बुद्धिमानों के लिए तात्विक छान-बीन की चीज है। तबले के चर्मभाग पर चुटकी भर बालू बिखेर दो और तबले पर एक थाप मारो। बालू कभी सीधी रेखा का रूप धारण कर लेती है, कभी वृत्त का। तबले की अलग-अलग ध्वनि भिन्न-भिन्न आकार में प्रकट होती है। सर रमन जिस जिंदादिली और जोश से तबले पर बालू बिखेरते और थाप लगाते थे, वह देखकर कौन ऐसा मुर्दादिल होगा, जो गद्गद न हो उठता।
चार बजे हम डॉक्टर साहब से विदा हुए और यह सोचते हुए निकले कि काश बड़े लोग अपने बड़प्पन को अपनी कब्र न बनाकर ज्योति बना सकते, तो उससे कितना प्रकाश फैलता।
उसी दिन हमने चीनी के बर्तनों का कारखाना देखा, जो इंस्टीट्यूट से मिला हुआ है। क्रिया बिल्कुल कुम्हारों की-सी है। एक खास तरह की मिट्टी यहाँ निकलती है, जिसमे दो-एक चीजें मिला देने से लुग्दी तैयार हो जाती है। लुग्दी को भिन्न भिन्न सांचों में डालकर बाहर निकालते हैं, फिर सुखाते हैं, रंगते हैं, और भट्टी में पकाते हैं। शो-रूम में यहाँ के बने हुए खिलौनों और मूर्तियों और फूलवानों आदि का अच्छा संग्रह है, जिससे मालूम होता है कि इस काम में यहाँ कितनी उन्नति हुई है। नल, खपरे, मार्बल, तार की चिड़ियाँ सब कुछ यहाँ तैयार होती हैं। मैसूर राज्य-में बिजली का व्यवहार बड़ी कसरत से होता है, उसके लिए चीनी का जितना सामान दरकार होता है, वह इसी कारखाने में तैयार होता है।
बंगलोर में भी मैसूर की भांति हिन्दी का अच्छा प्रचार हो रहा है। यहाँ के नेशनल हाईस्कूल में तो हिन्दी लाजिमी कर दी गयी है। कुछ उद्योग-धंधे भी सिखाये जाते हैं। यहाँ एक जलसा हुआ, जिसके सभापति प्रो. ए. आर. वाडिया थे। प्रो. वाडिया मैसूर हिन्दी-प्रचार-सभा के प्रेसिडेंट हैं। मैसूर में उनके दर्शन न हो सके थे। वह सौभाग्य यहाँ मिला। आपको हिन्दी और उर्दू से विशेष रुचि है मगर बोलते हैं अंग्रेजी में और बहुत अच्छा बोलते हैं। स्कूल हेडमास्टर श्री सम्पतराव गिरि, एम. ए. भी हिन्दी के उपासक हैं और आपने तुलसीकृत रामायण का कन्नड़ी गद्य में अनुवाद किया है। इस स्कूल के साथ एक व्यायामशाला भी है, जिसे गत वर्ष महात्मा जी ने खोला था। बंगलोर में महिलाओं की कई संचालित संस्थाएँ हैं और प्राय: उन सभी में हिन्दी पढ़ायी जाती है। सिलाई, बुनाई, कताई, बेंत का काम, संगीत, कसीदे काढ़ना प्राय: सभी संस्थाओं में जारी है। अध्यापन और संचालन-कार्य देवियों ही के हाथों में है। कहीं-कहीं लड़कियों के लिए व्यायामशालाएँ भी हैं। स्त्रियों की यह जागृति राष्ट्र के आशाप्रद भविष्यत् की सूचक है। यहाँ का कोमल जलवायु संगीत के लिए बहुत अनुकूल जान पड़ता है। सभी महिला-समाजों में संगीत का प्रचार है। वीणा यहाँ का प्यारा बाजा है। काश, ये देवियां महीने में दो दिन आस-पास के देहातों को भेंट कर दिया करें, तो गाँव वाली स्त्रियों को भी उनकी जागृति का कुछ प्रकाश मिले। यों तो सभी संस्थाएं तरक्की कर रही हैं, पर मल्लेश्वरम् महिला-समाज की उन्नति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ 1930 में हिन्दी क्लास खोला गया। पहले साल केवल चार देवियां परीक्षा में बैठीं और गतवर्ष यह संख्या बढ़कर पैंतालिस तक पहुँच गई। इसी संस्था की दो देवियां प्रयाग महिला विद्यापीठ में पढ़ रही हैं। अब तक तीन सौ देवियाँ इस समाज से हिन्दी का कामचलाऊ ज्ञान प्राप्त कर चुकी हैं। यहाँ एक वाग्वर्धिनी सभा भी है, जिसमे देवियाँ सामाजिक विषयों पर मुबाहसे करती हैं। इतना ही नहीं, यहाँ से ‘समाज भारती’ नाम का एक हिन्दी त्रैमासिक परचा भी निकलता है, जिसमे देवियाँ भिन्न-भिन्न विषयों पर लेख लिखती हैं। समय-समय पर यहाँ विद्वानों और राष्ट्र नेताओं के भाषण भी होते हैं। एक बार महात्मा जी भी यहाँ अपना अमृत उपदेश कर चुके हैं। इस कीर्ति पर कौन-सी संस्था गर्व न करेगी। कन्नड़ी भाषा और साहित्य-परिषद भी बंगलोर में ही है। हमने बड़ी श्रद्धा से इस साहित्य-मंदिर की परिक्रमा की। अच्छा खासा परिषद का अपना भवन है, जिसमे एक हॉल है, एक पुस्तकालय, वाचनालय और दफ्तर। कन्नड़ी भाषा के कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ-परिषद द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। आजकल परिषद में मैसूर राज्य के प्रोत्साहन से एक बृहद् कन्नड़ी-अंग्रेजी कोष बन रहा है। जिसके एडिटर और कोष-मंडल के अध्यक्ष एक वयोवृद्ध सज्जन प्रो. वेंकट नारायणप्पा हैं। आप जिस उत्साह और तन्मयता से यह कार्यसंपादन कर रहे हैं, वह जवानों को लज्जित करता है। आप पहले मैसूर विश्वविद्यालय में कैमिस्ट्री के अध्यापक थे। अब पेंशन पाते हैं। कन्नड़ी साहित्य बहुत पुराना है और इसका काव्य साहित्य तो बड़े ऊँचे दरजे का है। नया साहित्य भी बड़े वेग से बढ़ रहा है। परिषद के कुशल उपसभापति श्री गुंडप्पा जी के दर्शनों का सौभाग्य भी हमें हुआ। आप साहित्य के एक यशस्वी लेखक और कवि हैं और प्राचीन साहित्य के गहरे विद्वान। कन्नड़ी साहित्य कितना धनी है, इसका अनुमान इसी से किया जा पकता है कि उन्नीसवीं सदी के अंत तक इसमें लगभग बारह सौ कवि हो गए थे, जिनमे पच्चीस महिलाएँ थीं और पच्चीस राजे-रईस। एक विद्वान ने तीन जिल्दों में उनके जीवन-चरित्र लिखकर कन्नड़ी साहित्य के इतिहास की अच्छी सामग्री जुटा दी है। अगर कन्नड़ी साहित्य की कुछ चीजें हिन्दी-साहित्य में आ सकें, तो आदान-प्रदान से दोनों ही भाषाओं को लाभ हो। कुमार व्यास की अमर कृति ‘भारत` शायद कन्नड़ी साहित्य का सबसे उत्तम ग्रंथ है। कन्नड़ी विद्वानों का कहना है कि ऐसे कवि भारतवर्ष में दो-चार ही हुए हैं। अब इस प्रांत में हिन्दी का प्रचार हो रहा है, तो शायद भविष्यत् में कोई कन्नड़ी विद्वान अपने साहित्य-रत्नों को हिन्दी में भेंट करें। ‘हंस’ में गुजराती, मराठी, उर्दू, अंग्रेजी पत्रों के संग्रहणीय और विचारपूर्ण लेखों पर टिप्पणियाँ दी जाती हैं, अगर कोई हिन्दी जानने वाले कन्नड़ी विद्वान कन्नड़ी के सामयिक साहित्य पर टिप्पणियां लिखकर ‘हंस’ में भेजने की कृपा करें, तो ‘हंस’ उपकार मानकर उसे सहर्ष स्वीकार करेगा, बल्कि अपना गौरव समझेगा।
बंगलोर में मि. के. बी. ऐयर का व्यायाम मंदिर भी देखने की चीज है। मालूम नहीं ऐयर महोदय ने इसका नाम हर्क्यूलीस व्यायाम मंदिर क्यों रखा है। हमारे हनुमान जी तो हर्क्यूलीस से कुछ कम न थे। हर्क्यूलीस ने अगर पहाड़ के दो टुकड़े कर दिए थे, तो हनुमान जी सूर्य को साफ निगल गए थे और धौलागिरि पर्वत को एक हाथ पर उठाकर कोई ढाई हजार मील दौड़ते चले आये थे। इस मंदिर में युवकों को हर एक तरह का व्यायाम सिखाया जाता है। ऐयर स्वयं बड़े ही सुगठित शरीर के स्वामी हैं, और आपके कई शिष्य अच्छे-खासे पहलवान हैं। आपने सूर्य नमस्कार के आधार पर अपनी एक व्यायाम-विधि निकाली है और इस विषय का बहुत साहित्य भी प्रकाशित कर चुके हैं, हम उनसे मिल तो न सके, क्योंकि उस दिन वह कहीं बाहर गये हुए थे। लेकिन उनके सचित्र बुकलेट जो हमने पढ़े, उससे मालूम हुआ कि आपने नवीन और प्राचीन विधियों का मिश्रण करके एक वैज्ञानिक अभ्यास- क्रम निकाला है, जिससे थोड़े समय में ही आश्चर्यजनक फल प्राप्त हो सकता है। और यह पहलवान अपनी बाल्यावस्था में बहुत ही दुबला -पतला था। ऐसे मंदिरों की प्रत्येक नगर में जरूरत है और हमारा ख्याल है कि जनता उनका बड़े हर्ष से स्वागत करेगी।
मैसूर राज्य में हिन्दी अभी तक अख्तियारी मजमून है। हिन्दी प्रेमियों की ओर से यह आंदोलन हो रहा है कि हिन्दी को लाजिमी बना दिया जाए। अगर यह उद्योग सफल हो जाए, तो हिन्दी-प्रचार दुगुनी गति से बढ़ने लगे। इसी विषय पर कुछ विचार विनिमय करने के लिए मैं मैसूर राज्य के दीवान सर मिर्जा इस्माइल की खिदमत में हाजिर हुआ। दीवान साहब बड़े ही विद्या- प्रेमी और उदार व्यक्ति हैं। हमारी बातचीत हिन्दुस्तानी में हुई। उर्दू साहित्य का उन्हें अच्छा परिचय है, और बेतकल्लुफ उर्दू बोलते हैं। हिन्दुस्तानी में एक राष्ट्रभाषा की जरूरत को वह भी स्वीकार करते हैं ओर इस आंदोलन से उन्हें सहानुभूति है, लेकिन एक सांस्कृतिक विषय में वह सरकारी तौर पर कोई कार्यवाई करने के पक्ष में नहीं हैं। जब तक यह माँग इतनी बलवान नहीं हो जाती कि कार्यकारिणी समिति इसे बहुमत से स्वीकार कर ले, तब तक राज्य इसमें दखल देना मुनासिब नहीं समझता। सब-कुछ राष्ट्रभाषा के प्रेमियों और प्रचारकों के धैर्य, उत्साह और सेवा पर मुनस्सर है। जब तक हम हिन्दुस्तानी को सर्वसम्मति से राष्ट्रभाषा स्वीकार न करा लें, तब तक राज्य उसे कैसे स्वीकार करेगा। दीवान साहब हमारे साथ बड़े मेहरबानी से पेश आये। गोरे अधिकारियों ने हमें यह सिखाया है कि अधिकार और सज्जनता में मेल नहीं होता। दीवान साहब इसके अपवाद हैं। आपसे मिलकर फिर-फिर मिलने की इच्छा होती है।
हमने चौथे दिन बंगलोर से पूना को प्रस्थान किया। श्रीनिवासराव जी ने हमारा जो सत्कार किया, उसके लिए हम उनके एहसानमंद हैं। आप हैं तो एक हड्डी के व्यक्ति, मगर आपके पोर-पोर में सजीवता भरी हुई है। आप वकील हैं, प्रकाशक हैं, लेखक हैं और हिन्दी-प्रचार के स्तंभ हैं। आपने कन्नड़ी भाषा में Book of Knowledge के ढंग की एक माला मासिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित करना आरंभ किया है और शायद उसके चार नंबर निकल चुके हैं। इसमें अनेक ब्लाक हैं , और साहित्य, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, कला-कौशल, जीव-शास्त्र, वनस्पति आदि अनेक विषयों पर बालकोपयोगी निबंध हैं। और चेष्टा की गई है कि उसकी भाषा सरल, सजीव और रोचक रहे। हिन्दी में अभी तक ऐसी कोई माला नहीं निकली है। श्रीनिवासराव इसका एक हिन्दी एडिशन निकालने का प्रबंध कर रहे हैं। ब्लाक उनके पास हैं ही, केवल निबंधों का सरल हिन्दी में अनुवाद करना है। हमें आशा है कि हिन्दी में इस माला का आदर होगा। बच्चों के लिए हिन्दी में किस्से-कहानियाँ तो बहुत निकली हैं, लेकिन ज्ञान बढ़ाने वाली पुस्तकों का अभाव है। इस संग्रह से यह कमी पूरी हो जाएगी।
[‘हंस’, फरवरी 1935]