दहशत (कहानी) : भगवान अटलानी
Dahshat (Hindi Story) : Bhagwan Atlani
वातावरण में डर था। कोरोना से अधिक वायरस से संक्रमित हो जाने का आतंक सता रहा था। न टीका, न दवा, अँधेरा ही अँधेरा था। दुनिया का हर कोना भ्रमित था। हरएक बड़ा–छोटा, प्रभुत्व सम्पन्न–ग़रीब, विकसित–अविकसित, उन्नत–पिछड़ा देश हो या व्यक्ति, निरुपाय महसूस कर रहा था। तीसमार खां माने जाने वाले से लेकर मुखापेक्षी महाद्वीप, सब अज्ञात त्रास में डूबे थे। अस्पताल, उपकरण, विशेषज्ञ चिकित्सक, सुविधायुक्त प्रणालियाँ, शरीर का ज़र्रा-ज़र्रा खंगालने में सक्षम जाँचें और बीमे मुँह चिढ़ाने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर पा रहे थे। बार-बार साबुन से हाथ धोना, सेनेटाइज़र, मास्क, दो गज़ की दूरी, कर्फ़्यू और लॉकडाउन के सिवाय कोई हथियार नज़र नहीं आ रहा था। हवाओं में शोर था कि समाचार पत्र के पन्नों पर अदृश्य कोरोना वायरस पंख पसारे बैठा है, कि खाँसी और छींक कोरोना के वाहन बने हुए हैं, कि ज़ुकाम या गले में ख़राश कोरोना के आगमन की दस्तक हैं।
रात के साढ़े आठ बजे थे। मोबाइल की घंटी बजी। स्क्रीन पर दिशा का नाम चमक रहा था। दिशा? उसका फोन कैसे आया है? कोई अनहोनी तो नहीं हो गई? आशंकित धड़कनों में डूबते उतराते फोन उठाया, "हैलो!"
"लॉकडाउन हो गया है। आप आये नहीं अब तक?"
"रात को बारह बजे से है न लॉकडाउन? दुकान समेटकर डेढ़-दो घण्टे में आता हूँ।"
"जल्दी आओ न?" दिशा की आवाज़ भयाक्रान्त थी।
"बच्चे आ गये?"
"हाँ, दोनों को फोन करके मैंने बुला लिया है। आप आइये, मुझे डर लग रहा है।"
"डरो मत, बच्चे हैं न तुम्हारे पास? दुकान न जाने कितने दिन बन्द रखनी पड़ेगी। हिसाब-किताब, माल-असबाब, सहेज-सँवार, अलमारियों के ताले-चाबी चाक-चौबस्त करके जितनी जल्दी मुमकिन होगा, आ जाऊँगा। तुम चिन्ता मत करो।"
"देखना . . ." घबड़ाहट से सने अनकहे शब्द मोबाइल में समा नहीं रहे थे।
"आता हूँ, जल्दी आता हूँ।"
हमेशा असहमति, अवज्ञा, तिरस्कार और तुनकमिज़ाजी से लबरेज़ स्वर चिन्तातुरता में कैसे बदल गया? लॉकडाउन ज़रूर अब हुआ है मगर क्या कोरोना वायरस की दहशत लॉकडाउन की घोषणा भर से इतनी बढ़ गई थी दिशा के भीतर? उसका स्वर मोबाइल पर शायद ही कभी सुनने को मिलता था। आमने-सामने होने वाली हर बात बारूद की गंध में लिपटी होती थी। वही दिशा भयभीत हिरणी की तरह मानों विलाप की भाषा बोल रही थी। किसी ने बढ़ा-चढ़ाकर कुछ कह तो नहीं दिया? पास-पड़ौस में किसी की कोरोना के कारण अचानक मौत तो नहीं हो गई? दिशा की मनोवृत्ति में आये परिवर्तन का कारण ठीक तरह से समझ में नहीं आया उसे।
घर पहुँचते-पहुँचते साढ़े ग्यारह बज गये। इस बीच दिशा का दो बार फोन आ गया। हर बार आजिज़ी का जीवन्त रूप था उसका लहज़ा। कोई दूसरा दिन होता तो दिशा की मनःस्थिति से विचलित होकर आगा-पीछा सोचे बिना वह घर लौट जाता। मगर लॉकडाउन की घोषणा के कारण इस बार सब कुछ सामान्य नहीं था। पूरा ध्यान दिशा की ओर, शरीर दुकान पर और मन प्रश्नों के मकड़जाल में उलझा था।
हमेशा घंटी बजने के बाद दरवाज़ा खुलने में कम से कम तीन-चार मिनट लगते थे। इस बार लगा, दिशा दरवाजे़ से चिपककर खड़ी आहट का इन्तज़ार कर रही थी। बच्चे अन्दर कमरे में थे। उसके साथ या आसपास होते तब भी शायद यही करती। बेसाख़्ता लिपट गई उससे और रोने लगी। एक हाथ में दुकान से साथ लाया थैला सँभालते हुए, दूसरे हाथ से वह दिशा की पीठ को सहलाता रहा। इसी अवस्था में अन्दर आकर दिशा को अपने साथ सोफ़े पर बैठाकर उसने बेटे को बुलाकर पानी लाने का इशारा किया। हाथ में पकड़ा थैला उसने सोफ़े पर अपने पास रखा। बेटा फ़ुर्ती से गिलास भर लाया तो एक हाथ से पीठ सहलाते हुए ही दूसरे हाथ से उसने दिशा के मुँह से पानी भरा गिलास लगाया। कुछ बच्चों की उपस्थिति के कारण और कुछ उसके लौट आने के अहसास से सँभली दिशा ने गिलास अपने हाथ में लेकर पानी पीया। होंठों पर हल्की मुस्कान के साथ आँखों में विस्मय और प्यार भरकर वह दिशा को निहारता रहा।
दिशा ने उसकी तरफ़ देखा और अपनी अधीरता को याद कर के चुपचाप उठ खड़ी हुई। हाथ आगे बढ़ाकर उसने दिशा को फिर से अपने पास बैठाया, "क्या बात है? बहुत डर लग रहा है?"
"हाँ . . . नहीं . . ." वह एकाएक उठकर तेज़ी से चली गई।
सड़कों पर सन्नाटा पसरा था। पक्षियों की चहचहाट और वातावरण में रची बसी साँय-साँय से निकटता, जीवन का अनिवार्य अंग बन गई थी। आना-जाना, मिलना-जुलना पूरी तरह बन्द था। दूध, सब्ज़ी और ज़रूरी सामान की ख़रीददारी के अलावा घर का दरवाज़ा लाँघना भी वर्जित था। दूरदर्शन पर 'रामायण' और 'महाभारत' की पुनर्प्रसारित हो रही शृंखला थी। बाहर की मानसिक और शारीरिक हलचल सिकुड़कर परिवार के इर्द-गिर्द घूम रही थी। ताली, थाली, टॉर्च, दीपक, मोबाइल की तेज़ रोशनी जैसे आह्वानों ने ज़रूर सरसता के रंग भरे थे, अन्यथा ख़ामोशी और उदासी के साथ जीवन जीने की विवशता सर्व स्वीकार्य हो गई थी।
दुकान के गल्ले में रखी पूरी नक़द राशि वह अपने साथ ले आया था। सुरक्षा और भविष्य की आर्थिक आवश्यकताओं के मद्देनज़र यह क़दम ज़रूरी लगा था उसे। वैसे ए.टी.एम. कार्ड था। बैंक अकाउन्ट में रुपये इतने थे कि तंगी झेलने की संभावना नहीं थी। लेकिन ए.टी.एम. या बैंक तक जाना दूभर था। सड़कों पर पुलिस थी। पुलिस के सवालों से जूझते-उलझते, बैंक में जमा अपनी राशि तक हाथ को पहुँचाना सरल नहीं था। ग़नीमत थी कि थैले में लाई गल्ले की रक़म अच्छा ख़ासा सहारा बनी हुई थी अन्यथा मुश्किलें सिर से ऊपर चली जातीं।
बन्द ट्रेनों, बन्द बसों, बन्द आवागमन के अन्य साधनों, एक से दूसरे स्थान पर पलायन करते मज़दूरों के समाचार, भूख और बदहाली की डराने वाली घटनाएँ, फ़िज़ाओं में थीं। वह सपरिवार घर में सुरक्षित था। पत्नी, बच्चे साथ थे, ज़रूरतें पूरी हो सकें, रोज़मर्रा का काम चल जाये, इतना नक़द रुपया पास था। दौर का यह सबसे बड़ा वरदान उसे मिला हुआ था। भोजन के पैकेटों और राशन की राह नहीं तकनी पड़ती थी।
अख़बार न आ रहा था और न उसके पन्नों से चिपकी कोरोना की उपस्थिति की झूठी-सच्ची अफ़वाह के कारण उसमें रुचि थी मगर घर में उपलब्ध दूरदर्शन पर सूचनाओं का अम्बार था। आकाशवाणी से नियमित समाचारों के स्थान पर, कोरोना से जुड़ी जानकारियाँ दी जा रहीं थीं। बढ़ता संक्रमण, बढ़ती मौतें, वेंटीलेटरों और पी.पी. किटों की कमी के फोन और व्हाट्सएप पर उड़ते, पंख पसारते वास्तविक, काल्पनिक क़िस्से वायरल हो रहे थे।
लॉकडाउन की घोषणा के बाद उसके मन में कोरोना से भी बड़ा डर दिशा के व्यवहार के सन्दर्भ में था। लॉकडाउन का मुक़ाबला करने में वह सक्षम था। घर में रहना पड़ेगा। वायरस पर किसी का वश नहीं चल पा रहा था, मगर कहीं आ-जा कर घर के माहौल से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं था। दिशा की तुनक मिज़ाजी लॉकडाउन के दौर में कैसे जीने देगी, यह प्रश्न सामने खड़े यक्ष को मौजूदा हालात से अधिक भयावह बनाकर प्रस्तुत कर रहा था उसके ज़हन में। लॉकडाउन की घोषणा के बाद बार-बार आये दिशा के फोन उसके असमंजस को गहरा कर गये थे। घर आने के बाद दिखाई दी दिशा की मानसिकता ने आशंकाओं को ऐसी धुँध के हवाले कर दिया था जिसके उस पार देखना संभव नहीं था।
घर में क़ैद थे। बस चार चेहरे थे, जिन्हें देखना था घूम फिर कर। लगा था, दिशा के व्यवहार के कारण एक-एक पल गुज़ारना दूभर हो जायेगा किन्तु हुआ नहीं ऐसा। सबको बैठाकर समवेत् स्वरों में हनुमान चालीसा और सुन्दर कांड के पाठ। 'रामायण' और 'महाभारत' के दूरदर्शन पर आने वाले कार्यक्रमों में सहभागिता। साथ बैठकर किया गया दोपहर और रात का भोजन। शाम को किसी स्वादिष्ट मिठाई या इडली साँभर या डोसा या पिज़्ज़ा या केक की स्नेहपूर्ण प्रस्तुति। चिन्ता पूर्वक पलक नोक की ख़ुर्दबीन लगाकर की गई साज़-सज्जा। आत्मीयता का प्रतिपल सुनाई देता आलाप। दिशा का दिनचर्या संयोजन विस्मय का कारण होते हुए भी, समय का सच था।
दिशा में आये बदलाव का कारण कुछ भी रहा हो मगर घर के बाक़ी तीनों सदस्य पिघला-पिघला अनुभव कर रहे थे। घर के काम का पूरा बोझ ख़ुशी से उठाते हुए हम लोगों की प्रसन्नता के लिये वह जो कुछ कर रही थी, उसका असर पाँव पसार रहा था। दिशा ने न संकेत दिया और न ज़बान से कुछ बोली या शिकायत की, फिर भी तीनों उसकी ज़िम्मेदारियों में हाथ बँटाने की कोशिश करने लगे। झाड़ू, पोंछा, बर्तन, कपड़े, फ़र्नीचर की साफ़-सफ़ाई, कपड़ों की धुलाई और इस्त्री, बिस्तर समेटने, चादरे बदलने, तकियों पर गिलाफ़ चढ़ाने के साथ नाश्ता, दोपहर और रात का भोजन तैयार करने, मनभावन व्यंजन और मिठाईयाँ बनाने वाली दिशा अकेली क्यों पिसती रहे?
घर बैठे हैं तो हम लोग भी क्यों न कुछ करें? एक-दूसरे से चर्चा किये बिना उन तीनों ने घर के कामों में हाथ बँटाना शुरू कर दिया था। ना-ना के बावजूद दिशा को मिल रही ख़ुशी, चमक भरी मुस्कान बनकर उसके चेहरे पर नाचने लगती थी। उऋण होने का अहसास संतोष से भर देता था उन तीनों को।
बस, घरेलू ज़रूरतें पूरी करने के लिये बाहर निकलने का प्रसंग आते ही दिशा बेचैन होने लगती थी। हर बार हिदायतों को दोहराने के साथ जाने से पहले मास्क और लौटने के बाद साबुन से हाथ धोने की प्रक्रिया सुनिश्चित करती। दूध लाने में दस मिनट लगें या सब्ज़ी लाने में आधा घंटा और सौदा सुलफ़ लाने में एक घंटा, उसके फोन आते रहते। सावधानी बरती जा रही है, या नहीं, पूछती रहती। उसका हर प्रश्न चिन्ता के समुद्र की झलक होता। पति या बच्चे सुरक्षित रहें, कोरोना की चपेट में न आयें, समझ में आ सकती थी, दिशा की अतिरिक्त सजगता यदि यह पहले वाली दिशा नहीं होती, जिसे अब तक वह देखता रहा था।
एक-आध बार झिड़ककर, एक से अधिक बार प्यार से, नाराज़़गी ज़ाहिर की, "मैं दुकान चलाता हूँ। दुनियादारी, बुरा-भला समझता हूँ अपना। पीछे क्यों पड़ी रहती हो हर वक़्त?"
वह ख़ामोश रहती। न स्पष्टीकरण देती, न अपराध-बोध ज़ाहिर करती और न भविष्य में ऐसा कुछ न करने का आश्वासन देती। इस प्रतिक्रिया को सुनकर दिशा न मुस्कराती और न असहज दिखती। उल्टा उसके व्यवहार में रोक-टोक का अंश बढ़ जाता। फोन कॉल अधिक हो जाते। पहली और अब वाली दिशा में अन्तर केवल इतना था कि झल्लाहट, चिड़चिड़ापन, तुनक का नामोनिशान भी नज़र नहीं आता था उसके व्यवहार में। सचेत, सजग, सावधान रहने की दृष्टि से तिलमात्र भी समझौता नहीं, सम्पूर्ण मुखरता मगर वाणी व भंगिमा में उद्वेलन से परहेज़।
रात का भोजन हो चुका था। बच्चे अपने कमरे में जा चुके थे। दिशा अभी रसोईघर में थी। बिस्तर पर अधलेटा होकर अपने नगर के ताज़ा समाचार जानने के मक़सद से वह स्थानीय टीवी चैनल देख रहा था। कोरोना से युद्धरत चिकित्सकों पर एक विशेष कार्यक्रम दिखाया जा रहा था कि नगर में कितने और कौन-कौन से डॉक्टर कोरोना के शिकार होकर ज़िन्दगी गँवा चुके थे अब तक?
कार्यक्रम निहारते हुए अचानक उसने स्क्रीन पर एक परिचित चेहरा देखा। बताया जा रहा था कि लॉकडाउन की घोषणा होने के दिन डॉ. लाल की साँसें उखड़ गईं थीं। वह चौंका, अरे यह तो दिशा के भाई का क़रीबी दोस्त था! वह ज़ोर से चीख़ा, "दिशा!"
गीले हाथ लिये दिशा दौड़ती हुई आई। कुछ कहे इससे पहले ही वह चिल्लाया, "डॉ. लाल तुम्हारे भाई के दोस्त थे न? मौत हो गई उनकी? तुमने बताया भी नहीं?"
दिशा ने कोई जवाब नहीं दिया। धम्म से पलंग पर बैठ गई। भरपूर कोशिश के बावजूद वह अपनी रुलाई रोक नहीं पा रही थी। बिस्तर से उठकर, उसने दिशा का सिर अपने सीने से लगा लिया।
लॉकडाउन लगने के बाद दुकान पर बार-बार आने वाले दिशा के फोन, उसकी घबड़ाहट, लॉकडाउन के दौरान उसके परिवर्तित व्यवहार का कारण, पर्त-दर-पर्त उसके सामने खुल रहा था। कोरोना के चलते भाई जैसे भाई के दोस्त की मौत से उपजी असुरक्षा ने कवच बनकर सुरक्षित करने की कोशिश की थी उन सबको। कोरोना ने किया होगा बहुत कुछ तहस-नहस, उसकी ज़िन्दगी को तो ख़ुश्बू से भर दिया है इस वायरस ने।
वह प्रार्थना कर रहा था, कोरोना की विदाई के बाद भी दहशत जनित संरक्षण भाव क़ायम रहे दिशा में।