चोटी की पकड़ (उपन्यास) : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

Choti Ki Pakad (Novel) : Suryakant Tripathi Nirala

निवेदन

'चोटी की पकड़' आपके सामने है। स्वदेशी-आंदोलन की कथा है। लंबी है, वैसी ही रोचक। पढ़ने पर आपकी समझ में आ जाएगा। युग की चीज बनायी गई है। जितना हिस्सा इसमें है, कथा का हिसाब उससे समझ में आ जाएगा। इसकी चार पुस्तकें निकालने का विचार है। मुमकिन, दूसरी इससे कुछ बड़ी हो। चरित्र इसमें मुन्ना बांदी का निखरा है। अगले में प्रभाकर का। इस बड़े उपन्यास को पढ़िएगा तो ज्ञान और आनंद वैसे ही बढ़ेंगे।

-निराला

1

सत्रहवीं सदी का पुराना मकान। मकान नहीं, प्रासाद; बल्कि गढ़। दो मील घेरकर चारदीवार। बड़े-बड़े दो प्रासाद। एक पुराना, एक नया। हमारा मतलब पुराने से है। नए में जागीरदार रहते हैं। हैसियत एक अच्छे राजे की। कई ड्योढ़ियाँ। हर ड्योढ़ी पर पहरेदार। कितने ही मंदिर, उद्यान, मैदान, तालाब, प्राचीर, कचहरी। दोनों ओर आम-लगी सीधी तिरछी, चौड़ी-सँकरी सजी सड़कें। पीपल के नीचे चबूतरा, देवता। इक्के-दुक्के आदमी आते और जाते हुए।

भयंकर अट्टालिका। पीछे की तरफ कुछ गिरी हुई। फिर भी विशाल उद्यान की ऊँची प्राचीर से सुरक्षित। भीतर भी रक्षा का अंतराल उठा हुआ। निकासों पर पहरे। पुरखों के सदी-सदी के जरीन वस्त्र, बासन, तंबू, राजगृह के अनेकानेक साधन, माल-असबाब, कागजात और खजाना रहता है। कितने ही कमरों में, दालानों में, बड़ी-बड़ी बैठकों में, आदम-आकार की गची काठ की सैकड़ों पेटियाँ हैं, भीतर से कुफ्ल लगा हुआ। नीचे, सिंह द्वार पर, लोहे के बड़े-बड़े संदूकों में राजकोष है। बंदूक का पहरा। 5-6 बड़े-बड़े आँगन। पीछे, दक्षिण की ओर, एक अहाते में कुल-देवता रघुनाथजी का मंदिर। दूसरी ओर, ऊपर की मंजिल पर, कई अच्छे कमरों के एक अंत:पुर में बूढ़ी मौसी के साथ बुआ रहती हैं। बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ, प्राकार, उद्यान और सरोवर दिखते हैं। सूर्य की किरणों में चमकती हुई हरियाली। प्रात: और संध्या की स्निग्ध वायु। रात में तारों से भरा आकाश। चाँद, चाँदनी, सूनापन।

बुआ विधवा हैं, मौसी भी विधवा। बुआ की उम्र पच्चीस होगी। लंबी सुतारवाली बँधी पुष्ट देह। सुढर गला, भरा उर। कुछ लंबे माँसल चेहरे पर छोटी-छोटी आँखें; पैनी निगाह। छोटी नाक के बीचो-बीच कटा दाग। एक गाल पर कई दाँत बैठे हुए। चढ़ती जवानी में किसी बलात्कारी ने बात न मानने पर यह सूरत बनायी, फिर गांव छोड़कर भग खड़ा हुआ। इज्जत की बात, ज्यादा फैलाव न होने दिया गया।

बुआ की देह जितनी सुंदर है, चेहरा उतना ही भयंकर। वह जागीर दार खानदान की लड़की नहीं, मान्य की मान्य हैं। बुआ के भतीजे का भाग। गरीब थे। जागीरदार को लड़की ब्याहनी थी। लड़का ढूँढा। वह पसंद आए। बुला लिया। बच्चे थे। पढ़ाया-लिखाया। उठना-बैठना, बातचीत, रईसी के अदब और करीने सिखलाए। फिर निबाह के लिए एक अच्छी खासी जमींदारी लड़की के नाम खरीदकर उनके साथ ब्याह कर दिया। ब्याह पर दामाद साहब का लंबा कुनबा आ धमका। बुआ इसी में हैं बहुत निकट की। जब भी बंगाल के प्रतिष्ठित प्रायः सभी ब्राह्मण और कायस्थ पहले के युक्तप्रांत के रहने वाले हैं, पर वे बंगाली हो गए हैं; यह जागीरदार-परिवार आदि से युक्त प्रांतीयता की रक्षा कर रहा है।

आने पर, समधिन-साहिबा यानी राजकुमारी की माँ रानी साहिबा ने बुआ को बुलाया; अपनी सोलह कहारोंवाली गद्दीदार पालकी भेज दी। साथ वर्दी पहने चार सशस्त्र सिपाही। खिड़की के कब्जे पकड़ने के लिए दोनों बगल दो नौकरानियाँ। विधवा बुआ विधवा के श्वेत स्वच्छ वस्त्र से गईं। रानी साहिबा नयी अट्टालिका में रहती थीं। बड़े तख्त पर ऊँची-ऊँची गद्दियाँ बिछी थीं। ऊपर स्वच्छ चादर, कितने ही तकिए लगे हुए। सामने ऊँची चौकी पर पीकदान रखा हुआ। बगल में पानदान। विशाल कक्ष। साफ सुथरा। संगमरमर का फर्श। दीवारों और छत पर अति-सुंदर चित्रकारी। बीच में श्वेत प्रस्तर की मेज पर चीनी फूलदानी में सुगंधित पुष्प। हाथ से खींचे जाने वाले पंखे की रस्सी, दीवार में किए छेद से बाहर निकालकर ह्वील पर चढ़ायी हुई। तीन घंटे दिन और तीन घंटे रात की ड्यूटी पर चार पंखा-बेयरर लगे हुए। पंखा चल रहा है। तख्त की बगल में एक गद्दीदार चौकी रखी हुई है बुआ के बैठने के लिए।

जागीरदार साहब कुलीन हैं। साथ ही राजसी ठाट के धनिक। इनके यहाँ मान्यों की वह मान्यता नहीं रहती जो दूसरी जगह रहती है। यद्यपि इसका मुख्य कारण घमंड है, फिर भी ये अपनी बचत का रास्ता निकाले रहते हैं। इनका कहना है कि राज्य की मुहर रघुनाथजी के नाम है, हम उनके प्रधान कर्मचारी हैं। हमारे सिर पर केवल रघुनाथजी ही रहते हैं; दूसरे अगर इस राज्य की हद में हमारे सिर हुए तो वही जैसे इस राज्य के राजा बन गए; इससे रघुनाथजी का अपमान होता है। इस आधार पर जल्सों में जागीरदार साहब के मान्यों के आसन उनके पीछे ही रखे जाते हैं, हल्के आसनों पर, बगल में भी नहीं।

आने पर बुआ की सेवा के लिए रानी साहिबा ने एक बाँदी भेजी, नाम मुन्ना। रानी साहिबा की प्रायः दस दासियों में एक मुन्ना भी। पाँच छः साल से नौकर। हाल का ब्याह, खातिरदारी कसरत पर और कुछ इस उद्देश्य से भी कि ऐसा दूसरा नहीं कर सकता, इतना सुख कहीं भी नहीं। मुन्ना की उतनी ही उम्र है जितनी बुआ की। उतनी ऊँची नहीं, पर नाटी भी नहीं। चालाकी की पुतली। चपल, शोख। श्याम रंग। बड़ी-बड़ी आँखें। बंगाल के लंबे-लंबे बाल। विधवा, बदचलन, सहृदय। प्रायः हर प्रधान सिपाही की प्रेमिका। भेद लेने में लासानी। कितने ही रहस्यों की जानकार। प्रधान-अप्रधान नायिका, दूती, सखी। रानी साहिबा ने जब-जब रंडी रखने के जवाब में पति को प्रेमी चुनकर झुकाया, तब-तब मुन्ना ने प्रधान दूती का पाठ अदा किया। उसी से रानी साहिबा को खबर मिली, बुआ की नाक कटी है, गाल पर दाँतों के दाग हैं। अनुगामिनी सहचरी बनाने का इतना साधन काफी है। रानी साहिबा ने समधिन को बुलाया।

मुन्ना की जबान बंगला है। असल में इसका नाम है मोना या मनोरमा। बुआ इलाहाबाद की ठेठ देहाती बोलती हैं। मुन्ना ने अपनी सरल सुबोध बंगला में रानी साहिबा से मिलने के करीने कई दफे समझाए, पर बुआ की समझ में कुछ न आया। फिर बुआ की मान्य के मान्य के संबंध में युक्तप्रांत की बँधी धारणा थी, उसमें परिवर्तन हिंदूपन से हाथ धोना था। मुन्ना के सश्रद्ध रानी साहिबा के उच्चारण से बुआ अपने बड़प्पन को दबाकर खामोश रह जाती थीं, सोचती थीं, धर्म के अनुसार रानी साहिबा में और मुन्ना में उनके समक्ष कौन-सा फर्क है? जो काम उनके लिए मुन्ना करती है, वही रानी साहिबा भी पुण्य के संचय के लिए कर सकती हैं। जो कुछ उन्होंने सीखा, वह है बंगाली ढंग से साड़ी पहनना, मशहरी लगाना, तकिए का सहारा लेना, बंगाली भाजियों को पूर्वापर विधि से खाना। यह भी इसलिए कि उनसे कहा गया था कि उनकी बहू अर्थात् राजकुमारी बिना इसके उनसे मिलेंगी नहीं, जब वह आएंगी तब इसी वेश में रहना होगा, उनके जल-पान के लिए ऐसी ही भाजियाँ देनी होंगी, थाली इसी तरह लगाई जाएगी; नहीं तो वह भाग जाएँगी, एक क्षण के लिए नहीं ठहर सकतीं।

दो

मुन्ना के बतलाए हुए ढंग से बुआ ने एक सफेद साड़ी पहनी। विधवा के रजत वेश से पालकी पर बैठीं। वहाँ के सभी कुछ उन्हें प्रभावित कर चुके थे, पालकी एक और हुई। कहारों ने पालकी उठाई और अपनी खास बोली से कोलाहल करते हुए बढ़े। अगल-बगल दो दासियाँ, पीछे मुन्ना। दो सिपाही आगे, दो पीछे। पुरानी अट्टालिका से नयी चार फर्लांग के फासले पर है। पालकी नयी अट्टालिका के अंदर के उद्यान में आई। गुलाबों की क्यारियों के बीच से गुजरती हुई खिड़की के विशाल जीने पर लगा दी गई। सिपाही और कहार हट गए। जिस बाजू लगी, उधर की दासी ने दरवाजा खोला। मुन्ना पानदान लिए हुए सामने आई और उतरने के लिए कहा। बुआ उतरीं।

दूसरी तरफवाली दासी रानी साहिबा को खबर देने के लिए रनवास चली गई थी। रानी साहिबा तख्त की गद्दी पर बैठी थीं। लापरवाही से, ले आने के लिए कहा। उनकी लड़की, राजकुमारी, बुला ली गई थीं। माता की बगल में बुआवाली चौकी से कुछ हटकर, एक सोफा डलवाकर बैठी थीं।

दासी बुआ को लेकर चली, साथ मुन्ना। बुआ पर प्रभाव पड़ने पर भी मन में धर्म की ही विजय थी। उनका भतीजा ब्याहा हुआ है जिसके इन्होंने पैर पूजे हैं। ये उससे और उसकी माँ से बराबरी का दावा नहीं कर सकते, बुआ तो उनके इष्टदेवता से भी बढ़कर हैं।

भाव में तनी हुई बुआ रनवास के भीतर गईं। वह समझे हुए थीं, समधिन मिलेंगी, भेंट देंगी, आदर से ऊँचे आसन पर बैठालेंगी, तब उससे कुछ नीची जगह पर बैठेंगी। जाति की हैं, जाति की बर्ताववाली बातें जानती हैं, इसीलिए मुन्ना की बातें कुछ समझकर भी अनसुनी कर गई थीं; सोचा था, यह बंगालिन हमारे रस्मोरिवाज क्या जानती है? पर भीतर पैर रखते ही उनके होश उड़ गए। रानी साहिबा पत्थर की मूर्ति की तरह मसनद पर बैठी रहीं। एक नजर उन्होंने बुआ को देख लिया, उनके चेहरे का सुना हुआ वर्णन मिलाकर चुपचाप बैठी रहीं। राजकुमारी ने आँख ही नहीं उठाई। एक दफे माता को देखकर सिर झुका लिया। मुन्ना ने भक्ति-भाव से हाथ जोड़कर रानी साहिबा को, फिर राजकुमारी को प्रणाम किया। बड़े सम्मान के स्वर से बुआ को परिचय दिया-महारानीजी, राजकुमारीजी।

बुआ पसीने-पसीने हो गईं। कोई नहीं उठीं, उनकी बहू को भी यह सीख नहीं दी गई। पद की मर्यादा सर हो गई। चुपचाप दो रुपए निकाले और बहू की निछावर करके मुन्ना को देने के लिए हाथ बढ़ाया। मुन्ना घबराकर उन्हें देखने लगी। लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया। यह रानी साहिबा का अपमान था।

रानी साहिबा देखती रहीं। चौकी की तरफ उँगली उठाकर बंगला में बैठने के लिए कहा।

बुआ को यह और बड़ा अपमान जान पड़ा। आसन नीचा था। उनकी नसों में बिजली दौड़ने लगी। वह द्रुत पद से मसनद के सिरहाने की तरफ गईं और तकिए के पास बैठकर रानी साहिबा की आँख से आँख मिलाते हए कहा, "समधिन, हम वहाँ नहीं बैठेंगे। वह जगह तुम्हारी है। अगर बड़प्पन का इतना बड़ा अभिमान था तो गरीब का लड़का क्यों चुना?" रानी साहिबा का पानी उतर गया। अपमान से बोल बंद हो गया। क्षमा उनके शास्त्र में न थी। दाँत पीसकर आधी बंगला आधी हिंदी में कहा, "तुम्हारा नाक पर क्या है, तुम्हारा गाल पर किसका दाग है?"

"यहीं की तरह औरत पर हुए अपमान के दाग हैं। लेकिन हमारा चेहरा तुम्हारे दामाद से मिलता-जुलता भी है? -जैसा हमारा, हमारे भाई का, वैसा ही उसका; वह चेहरा भी ब्याह से पहले तुम लोगों को कैसे पसंद आ गया?"

रानी साहिबा पर जैसे घड़ों पानी पड़ा। राजकुमारी झेंपकर उठकर चल दीं। शोर-गुल होते ही कई दासियां दौड़ीं। रानी साहिबा ने बुआ को उसी वक्त ले जाने की आज्ञा दी।

बुआ दूसरे कमरे में ले जायी गईं। बाँदियों ने अपनी एक चटाई बिछा दी। बुआ ने वहाँ कोई विचार न किया। बैठ गईं। रनवास गर्म हो रहा था। राजकुमारी ने अपने पति से शिकायत की-बुआजी असभ्य हैं। दामाद साहब के मन में यह धारणा जड़ पकड़ चुकी थी। उन्होंने बात को दोहराया। अब रानी साहिबा भी आ गईं और अतिशयोक्ति अलंकार का सहारा लिया।-बुआ रानी साहिबा पर चढ़ बैठी, गद्दी का सरहाना दबाकर उनका अपमान किया, अपशब्द कहे, रानी साहिबा ने उन्हें अपनी पालकी भेजकर बुलाया था, बैठने के लिए चंदन की जड़ाऊ चौकी रखवायी थी, भूत झाड़ने की तरह एक या दो रुपए लेकर राजकुमारी के सिर पर मुट्ठी घुमाने लगी, फिर मुन्ना दासी को देना चाहा, दासी ने नहीं लिया, वह कैसे ले सकती थी, फिर तरह-तरह की बातें सुनायीं जो गालियों से बढ़कर थीं। दामाद साहब ने सलाह दी, अब बिदा कर देना चाहिए। रानी साहिबा इस पर सहमत नहीं हुई। कहा -आदमी बनाकर भेजना अच्छा होगा। फिर कहा, जाएगी भी कहाँ? -तुम्हारी सगी बुआ है, अदब-करीने सीख जाएगी तो विभा (विभावती राजकुमारी) की मदद किया करेगी। रानी साहिबा की सहानुभूति से दामाद साहब ने प्रसन्न होकर सम्मति दी।

एक दूसरे कमरे में रानी साहिबा ने मुन्ना को बुलाया और बुआ के सुधार के लिए आवश्यक शिक्षा दी। मुन्ना ने उनसे बढ़ाकर कहा कि लाख बार समझाने पर भी बुआ ने कहना नहीं माना। मुन्ना रोज बीसियों दफे उन पर रानी साहिबा का बड़प्पन चढ़ाती थी; पर वह सुनी-अनसुनी कर जाती थीं। रानी साहिबा ने अब के उपदेश के साथ अपने सम्मान से काम लेने के लिए कहा, जैसे स्वंय वह रानी साहिबा हो।

इस बार बड़ी पालकी की जगह साधारण चार कहारोंवाली पालकी भायी। सिपाही और दासियाँ नदारद, सिर्फ मुन्ना। बुआ चुपचाप बैठकर चली आईं।

तीन

ब्याह के बाद जागीरदार राजा राजेंद्रप्रताप कलकत्ता गए। आवश्यक काम था। जमींदारों की तरफ से गुप्त बुलावा था। सभा थी।

मध्य कलकत्ता में एक आलीशान कोठी उन्होंने खरीदी थी। ऐशो-इशरत के साधन वहाँ सुलभ थे, राजा-रईस और साहब-सूबों से मिलने का भी सुभीता था, इसलिए साल में आठ महीने यहीं रहते थे। परिवार भी रहता था। राजकुमार इस समय वहीं पढ़ते थे। ये अपनी बहन से बड़े थे, पर अभी ब्याह न हुआ था। यह कोठी और सजी रहती थी।

बंगाल की इस समय की स्थिति उल्लेखनीय है। उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध बंगाल और बंगालियों के उत्थान का स्वर्णयुग है। यह बीसवीं सदी का प्रारंभ ही था। लार्ड कर्जन भारत के बड़े लाट थे। कलकत्ता राजधानी थी। सारे भारत पर बंगालियों की अंग्रेजी का प्रभाव था। संसार-प्रसिद्धि में भी बंगाली देश में आगे थे। राजा राममोहनराय की प्रतिभा का प्रकाश भर चुका था। प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का जमाना बीत चुका था। आचार्य केशवचंद्र सेन विश्वविश्रुत होकर दिवंगत हो चुके थे। श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की अतिमानवीय शक्ति की धाक सारे संसार पर जम चुकी थी। ईश्वरचंद्र विद्यासागर की बंगला, माइकेल मधुसूदनदत्त के पद्य, बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास और गिरीशचंद्र घोष के नाटक जागरण के लिए सूर्य की किरणों का काम कर रहे थे। घर-घर साहित्य, राजनीति की चर्चा थी। बंगाली अपने को प्रबुद्ध समझने लगे थे। अपमान का जवाब भी देने लगे थे। अखबारों की बाढ़ आ गई थी। रवींद्रनाथ के साहित्य का प्रचंड सूर्य मध्य आकाश पर आ रहा था। डी. एल. राय की नाटकीय तेजस्विता फैल चली थी। सारे बंगाल पर गौरव छाया हुआ था। परवर्ती दोनों साहित्यिकों से लोगों के हृदयों में अपार आशाएँ बँध रही थीं। दोनों के पद्य कंठहार हो रहे थे। जातीय सभा कांग्रेस का भी समादर बढ़ गया था। उस में जाति के यथार्थ प्रगति के भी सेवक आ गए थे।

इसी समय लार्ड कर्जन ने बंग-भंग किया। राजनीति के समर्थ आलोचकों ने निश्चय किया कि इसका परिणाम बंगाल के लिए अनर्थकर है। बंगाल के स्थायी बंदोबस्त की जड़ मारने के लिए यह चाल चली गई है। यद्यपि लार्ड कर्जन का मूँछ मुड़ानेवाला फैशन बंगाल में जोरों से चल गया था-मिलनेवाले कर्मचारी और जमींदार लाट साहब को खुश करने के लिए दाढ़ी-मूँछों से सफाचट हो रहे थे, फिर भी बंगभंगवाला धक्का सँभाले न सँभला। वे समझे कि चालाक अंगरेज किसी रोज उन्हें उनके अधिकार से उखाड़कर दम लेंगे। चिरस्थायी स्वत्व के मालिक बड़े-बड़े जमींदार ही नहीं, मध्य वित्त साधारण जन भी थे। इसलिए यह विभाजन की आग छोटे-बड़े सभी के दिलों में एक साथ जल उठी। कवियों ने सहयोगपूर्वक देश-प्रेम के गीत रचने शुरू किए। संवाद-पत्र प्रकाश्य और गुप्त रूप से उत्तेजना फैलाने लगे। जगह-जगह गुप्त बैठकें होने लगीं। कामयाबी के लिए विधेय अविधेय तरीके अख्तियार किए जाने लगे। संघ-बद्ध होकर विद्यार्थी गीत गाते हुए लोगों को उत्साहित करने लगे। अंग्रेजों के किए अपमान के जवाब में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रतिज्ञाएँ हुईं, लोगों ने खरीदना छोड़ा। साथ ही स्वदेशी के प्रचार के कार्य भी परिणत किए जाने लगे। गाँव-गाँव में इसके केंद्र खोले गए। कार्यकर्ता उत्साह से नयी काया में जान फूँकने लगे।

विज्ञान की उस समय भी हिंदुस्तानियों के लिए काफी तरक्की हो चुकी थी, पर मोटरों की इतनी भरमार न थी। हवाई जहाज थे ही नहीं। तब कलकत्ते में बग्घियाँ चलती थीं। बाद को मोटरें हो जाने पर भी रईसों का विश्वास था, बग्घी रईसों के अधिक अनुकूल है, इससे आबरू रहती है। राजा साहब ने कई शानदार बग्घियाँ रखी थीं, कीमती घोड़ों से अस्तबल भरा था। शराब और वेश्या का खर्च उन दिनों चरम सीमा पर था। माँस, मछली, सब्जी और फलों के गर्म और क्रीम और बर्फदार ठंढे इतने प्रकार के भोजन बनते थे कि खाने में अधिकांश का प्रदर्शन मात्र होता था; वे नौकरों के हिस्से में आकर भी बच जाते थे। फूल और सुगंधियों का खर्च अब शतांश भी नहीं रहा। पुरस्कार इतने दिए जाते थे कि एक-एक जगह के दान से नर्तकियों और गवैयों का एक-एक साल का खर्च चल जाता था। आमंत्रित सभी राजे-रईस व्यवहार में हजारों के वारे-न्यारे कर देते थे। अगर स्वार्थ को गहरा धक्का न लगा होता तो ये जमींदार स्वदेशी आंदोलन में कदापि शरीक न हुए होते। इन्होंने साथ भी पीठ बचाकर दिया था। सामने आग में झुक जाने के लिए युवक-समाज था। प्रेरणा देने वाले थे राजनैतिक वकील और बैरिस्टर। आज की दृष्टि से वह भावुकता का ही उद्गार था। सन् सत्तावन के गदर से महात्मा गाँधी के आखिरी राजनीतिक आंदोलन तक, स्वत्व के स्वार्थ में, धार्मिक भावना ने ही जनता का रुख फेरा है। इसको आधुनिक आलोचक उत्कृष्ट राजनीतिक महत्त्व न देगा। स्वदेशी आंदोलन स्थायी स्वत्व के आधार पर चला था। उससे बिना घरबार के, जमींदारों के आश्रय मे रहनेवाले, दलित, अधिकांश किसानों को फ़ायदा न था। उनमें हिंदू भी काफी थे, पर मुसलमानों की संख्या बड़ी थी, जो मुसलमानों के शासनकाल में, देशों के सुधार के लोभ से या ज़मींदार हिंदुओं से बदला चुकाने के अभिप्राय से मुसलमान हो गए थे। बंगाल के अब तक के निर्मित साहित्य में इनका कोई स्थान न था, उलटे मुसलमानी प्रभुत्व से बदला चुकाने की नीयत से लिखे गए बंकिम के साहित्य में इनकी मुखालिफ़त ही हुई थी। शूद्र कही जाने वाली अन्य दलित जातियों का आध्यात्मिक उन्नयन, वैष्णव-धर्म के द्वारा जैसा, श्रीरामकृष्ण और विवेकानंद के द्वारा हुआ था, पर उनकी सामाजिक स्थिति में कोई प्रतिष्ठा न हुई थी, न साहित्य में वे मर्यादित हो सके थे। ब्राह्मण समाज ने काफी उदारता दिखाई थी, आर्य-समाज का भी थोड़ा-बहुत प्रचार हुआ था, पर इनसे व्यापक फलोदय न हो पाया था। ब्राह्मण समाज क्रिश्चन होनेवाले बंगालियों के भारतीय-धर्म-रक्षण का एक साधन, एक सुधार होकर रहा। इसमें सम्मिलित होनेवाले अधिकांश विलायत से लौटे उच्च-शिक्षित थे। मुख्य बात यह कि परिस्थितियों की अनुकूलता के बिना उचित राष्ट्रीय संगठन नहीं हो सकता, न हो सका। हिंसात्मक जो भावना स्वतंत्रता की कुंजी के रूप से प्रचारित हुई, वह संगठनात्मक राष्ट्रीय महत्त्व कम रखती थी। गांधीजी का असहयोग इसी की प्रतिक्रिया है, पर इसकी एकता की अड़ और गहरे पहुँची थी।

अस्तु, इस समय गुप्त सभाओं का जैसा क्रम चला, वैसा और उतना सिराजउद्दौला के समय अंगरेज़ों की मदद के लिए भी नहीं चला। कुछ ही दिनों में राजों, रईसों और वकील-बैरिस्टरों से मिलने पर, राजा राजेंद्र प्रताप की समझ में आ गया कि देश को साथ देना चाहिए। चिरस्थायी स्वत्व की रक्षा ही देश की रक्षा है, इस पर उन्हें ज़रा भी संदेह नहीं रहा। बहुत जगह दावतें हुईं, बहुत बार प्रतिज्ञाएँ की गईं। वकील और बैरिस्टरों के समझाने से दूसरे-दूसरे ज़मींदारों की तरह राजा राजेंद्रप्रताप भी समझे, उन्हें कोई खतरा नहीं। जिस मदद के लिए वह बात दे चुके हैं, पुलिस को उसकी खबर नहीं हो सकती, पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकती।

दूसरों की तरह राजेंद्रप्रताप ने भी दावत दी। कोठी सजी। कलकत्ता के और वहाँ आए हुए बंगाल के ज़मींदार आमंत्रित हुए। निमंत्रण-पत्र में लिखा गया, राजकुमारी के ब्याह की दावत है। अच्छे पाचक बुलाए गए। राजभोग पका। विलायत की कीमती शराबें आईं और कलकत्ता की सुप्रसिद्ध गायिका-वेश्याएँ। विशाल अहाते में जमींदारों की बग्घियों का तांता लग गया। प्रचंड रोशनी हुई। आलीशान बैठक में राजे और जमींदार गद्दियों पर तकियों के सहारे बैठे। शराब ढलने लगी। गायिकाओं के नृत्य और गीत होने लगे। कुछ ही समय में भोजन का बुलावा हुआ। राजसी ठाट के आसन लगे थे। सोने और चाँदी के बरतनों में भोजन लगाकर लाया गया। सबने प्रशंसा करते हुए भोजन पाया। इशारे से बातचीत होती रही। सब-के-सब एकमत थे। भोजन के बाद थोड़ी देर तक गाना सुनकर, सभी श्रेणियों के लोगों को इनाम देकर जमींदार लोग अपनी-अपनी कोठियों को रवाना हुए। गायिकाएँ भी गईं। केवल एक आदमी बैठा रहा। वह कलकत्ते का एक प्रसिद्ध बैरिस्टर है। उस समय कमरे में कोई न था।

उसने राजेंद्रप्रताप से कहा, "हमको जगह चाहिए। आप लोगों के पास जगह की कमी नहीं। वहाँ कार्यकर्ता छिपकर काम करेंगे। आप उनकी निगरानी रख सकते हैं।"

"हाँ।"

"जगह आप लोग देंगे, आदमी हम। आप में जो कलकत्ते के रहनेवाले हैं, वे अपनी कोठियों में जगह नहीं दे सकते। उनसे हम रुपया लेंगे और किराये की कोठियों में काम करेंगे।"

"हाँ।" राजेंद्रप्रताप को विश्वास था कि वे दो-चार को क्या, बीसियों आदमियों को छिपा दे सकते हैं। गढ़ के भीतर पुलिस के आने तक वे आदमी बाहर निकाल दिए जा सकते हैं, माल गहरे तालाब में फेंकवा दिया जा सकता है। पूर्वपुरुषों से जमींदारों की दुस्साहसिकता की जो बातें वह सुन चुके हैं और खुद कर चुके हैं, उनके सामने ये नगण्य हैं।

"सारा देश साथ है।" बैरिस्टर ने कहा, "घबराइएगा नहीं। हमारे आदमी पकड़ जाएँगे तो अपने पर ही कुल जिम्मेवारी लेंगे। आपको पकड़ाएँगे नहीं। कोठी में भी पकड़े जाएँगे तो उनका यही कहना होगा कि वे एकांत देखकर अपनी इच्छा से गए थे।"

राजा राजेंद्रप्रताप को विश्वास का बल मिला। बैरिस्टर कहते गए, "किसी तरह की अनहोनी होती दिखे तो आप उन्हें जल्द सूचित कर दें।"

राजा साहब ने सम्मति दी। बैरिस्टर ने कहा, "जो आदमी वहाँ आपसे मिलेगा, वह आज से चौथे दिन तारकनाथ का आदमी कहकर मिलेगा। उसका नाम प्रभाकर है। उसके साथ तीन आदमी और होंगे। सामान की व्यवस्था की हुई रहेगी; भीतर ले जाने, ले आने और भोजन पान का इंतजाम आप करा दीजिएगा, साथ इस तरह भेद न खुले, बहुत विश्वासी आदमी काम में रहें जिनके जीवन की बागडोर आपके हाथ में हो। समझते हैं?"

"हाँ, हमारा संबंध तो आपको मालूम है।" राजा साहब मुस्कराये। बैरिस्टर साहब ने कुछ देर तक ऐसी ही बातचीत की, फिर बिदा हुए।

चार

राजा राजेंद्रप्रताप के कोचमैन मुसलमान हैं। तीन बग्घियाँ और आठ घोड़े कलकत्ता में हैं, कुछ अधिक राजधानी में। अली एक कोचमैन हैं। इनके पिता लखनऊ में रहते थे, पूर्वज ईरान के रहनेवाले; बाद को शाह वाजिद अली के न रहने पर, मटियाबुर्ज़ चले आए। शाही खानदान के दरजी। कपड़े अच्छे सीते थे। अली आवारगी-पसंद थे, सुई नहीं चला सके, घोड़े की लगाम थामी। हिंदू भी आदमी हैं, यह धर्मानुसार समझ में नहीं आया। हिंदू की आख्या गुलाम से बढ़कर नहीं की ! अँगरेजों से लड़ाई में मुसलमान हारे, इसकी वजह हिंदुओं की बेईमानी है, ऐसे विचार पाले रहे। फिर भी खामोशी से काम करते हुए गुजर करते रहे यानी मालिकों से काम के अलावा दूसरी बात न की। किसी हिंदू को कभी राज नहीं दिया, बल्कि लिया, और बड़ी सफाई से, भलमनसाहत के बहाने। बंगालियों की बढ़ती से अली इस नतीजे पर आए कि बिना अंग्रेजी के चूल न बैठेगी। दूर तक पहुँच न थी, पुलिस के मुसलमान दारोगा को राज देने और उनके इशारे पर काम करने-कराने लगे। उन्हें एके की कुंजी मिली। जमींदारी हिंदुओं की, कारोबार हिंदुओं का, बड़ी-बड़ी नौकरियों पर हिंदू, वकील-बैरिस्टर डाक्टर-प्रोफेसर भी हिंदू। यही हिंदू अंग्रेजों से मिले और मुसलमानों से दगा की। अली की आँख खुल गई। यह मिलने का नतीजा है कि चारों तरफ हिंदू मंडला रहे हैं। सरकार हर एक की है। भूखों मरनेवाले भूखों न मरेंगे अगर सरकार को साथ दिया। सरकार ने बंगाल के दो हिस्से किए हैं, यह मुसलमानों के फ़ायदे के लिए। आए दिन ये जमीनें मुसलमानों की। जमींदारी का यह कानून न रहेगा। नवाबों से सारी मुसलमान रैयत को फायदा नहीं पहुँचा। नक्शा आँख के सामने आया। बादशाहत से वह दब गया था। कुछ यहाँ सुना, कुछ वहाँ, कुछ अपनी तरफ से सोचा। स्वदेशी का आंदोलन चल चुका था। बातें मुसलमान और इतरवर्ग के नेता फैला रहे थे। अंग्रेजी शासन के प्रारंभ से ऐसी तोड़वाली बातों का महत्त्व है।

अली को कामयाबी हुई। लड़का पढ़ रहा था, एंट्रेस में 20 साल की उम्र में फेल हुआ, थानेदारी के लिए चुन लिया गया। उन्होंने देखा था, उनके राज से थानेदार इंस्पेक्टर हो गए थे; वह अपने लड़के को राज देने लगे। पहले मालिक की गरदन नापी। सोचा, असामी बड़ा है, तरक्की लंबी होगी। आंदोलन क हाल मालूम था। राजा साहब जहाँ-जहाँ गए थे, लड़के से कहा। कोठी में जिनकी-जिनकी बग्घी आई थी, बतलाया। मुसलमान कोचमैनों के नाम लिखवाए, भीतरी सूरत से गवाही ले लेने के लिए। फिर कहा, राजा थियेटर-रोडवाली मशहूर तवायफ एजाज के घर जाता है, वह भी कभी-कभी कोठी आती है, कभी अपने वहाँ, बिलासपुर, साथ ले जाता है, वहाँ महीनों ठहरती है।

पुत्र ने गंभीर होकर कहा, सरकार से बगावत की तो मिट जाएगा। खैर, राज भी खुल जाएगा। आप आराम कीजिए।

अली के लड़के का नाम यूसुफ है। पर हैं बदशक्ल। अली भी शक्ल से ईरानी नहीं मालूम होते। मुसलमान तोड़े कसते हैं। अली हिंदुस्तान पर बुखार उतारते हैं-ऐसा मुल्क है कि हुमा भी चुगद की शक्ल में बदल जाता है। फिर फारिस के मशहूर लोगों को अपने खानदान का करार देकर उनके रंग और रूप की तारीफ करते हैं।

यूसुफ ने कसकर डायरी लिखी। फिर मामले में हाथ लगाने की देर तक सोचते रहे। उनके हल्के में न राजा राजेंद्रप्रताप की कोठी आती थी, न एजाज की। वह थाने के बड़े थानेदार भी न थे। उनसे बड़े जो दो-तीन अफसर थे, कुल-के-कुल बंगाली। वह खिचे। कमिश्नर से मिलने की सोची, पर हिम्मत न हुई। कोई राज सरकार के खिलाफ नहीं मालूम हुआ। अभी सुबूत भी नहीं। असामी बड़े-बड़े हैं। बाप नौकर। धेले की बुलबुल हाथ न लगे और टका हुशकाई पड़ जाए, पुलिस की आँख में गिर जाना है।

उन्हें हिम्मत हुई। एजाज मुसलमान हैं। इससे काम निकल सकता है। फिर कच्चे पड़े। उसका राज किसी बड़े मुसलमान के यहाँ रहता होगा। सीधी बातचीत करेंगे तो पकड़ जाएँगे। कुछ देर कशमकश में रहे। फिर रहा नहीं गया। शिकार हाथ से निकल जाएगा। किसी बड़े के कान में बात पड़ी तो अपना बस न रहेगा और नामवरी भी शिकार में हाँकेवालों की रहेगी। बड़ा नाजुक वक्त है, सरकार को सबूत दिलाया जा सका तो रात-भर में महल खड़ा हो जाएगा।

यूसुफ पिता के कमरे में गए। अली की आँख न लगी थी। आवाज पर उठे। यूसुफ बैठे, कहा, "उस रंडी को एक दफा हल्के में ले आना है; झाबरमल डागा या जौहरी को फाँसिये। उसका मुजरा कराएँ।"

अली की निगाह बदली। कहा, "अबे उल्लू के पट्टे, वहीं ढेर हुआ जहाँ दुश्मन। ये बक्काल बात पर आएंगे। ये बड़े आदमी हैं। इनका राज बड़ों में रहता है। यों पर बंध जाते हैं। भेद खुल जाएगा। बात मान, मछुआ बाजार के गुंडों से काम ले। शिकायत लिखवा, देख, कैसी बेपर की उड़ाते हैं। उसका भी कुछ राज लिया या ख़ातून समझ बैठा?" अली ने करवट बदली। यूसुफ चले आए।

पाँच

दूसरे दिन कुछ गुंडों की मदद ली। भले-आदमी बने रहनेवाले दो आदमी फंसे। उन्होंने रपोट लिखवाई। कुछ पढ़े-लिखे थे, पर बायाँ अँगूठा घिस कर गए थे। अँगूठे का निशान लगाया। गुंडों ने कहा, "हुजूर का काम हो गया, अब चड्ढी गठ गई।" बाहर निकलकर कहा, "अब, बेटो, साल-भर इनके सिर चढ़े घूमो। फिर यही बँधे या तुम। तुम न बँधोगे। यह फँसेगा नया थानेदार। अब चलो, शराब पिला दो, और जल्द इस हल्के से कुछ कमा लो।" ग़नी ने रुस्तम से कहा, "दाम दे दे। उस्ताद खरीद लेंगे।" रुस्तम ने पाँच रुपए का नोट उस्ताद कमर को दिया।

कमर को मालूम था, एजाज शरीफ़ है, शहर में उसकी इज्जत है, गाने में लासानी, उसके खाते में दर्ज है- पहला नाम, इनाम भी देती जाती है हर महीने बीस रुपए। सोचा, अच्छे-खासे रईस की हैसियत उसकी, 400) महीने का अंग्रेजी-पढ़ा सिकत्तर रखे है, यह थानेदार चपेट में आएगा। मामला जैसा भी हो, मालूम हो जाएगा। सोचता, लापरवाही से साथियों के साथ बढ़ता हुआ, देशी शराब की दुकान की तरफ मुड़ा और भीतर घुसकर दो आदमियों से दो बोतलें खरीदी, तब सस्ती थीं। वहाँ से बाजार की तरफ चला।

एजाज, देखते-देखते मशहूर हो गई। वह एक बड़े तवायफ़ की बेटी है। शिक्षा क़ायदे से हुई है। उर्दू, बंगला और अंग्रेजी अच्छी जानती है। गाने-बजाने की भी बड़े-बड़े उस्तादों से तालीम मिली है। नए -पुराने दोनों तरह के गाने जानती है। बेजोड़ सुंदरी। गोराई काफी निखरी हुई। उँगलियाँ, हाथ, पैर, गला, नाक, आँखें, भौंहें, सब लंबी-लंबी, जैसे चंपे की कली। पहनावा भी वैसा ही लंबा। प्रांत-प्रांत और देश-देश का पहनावा करने वाली। उम्र 30 साल की होगी। साल-भर से राजा राजेंद्र प्रताप की नौकर है। दो हजार महीना लेती है। साथ बाहर भी जाती है और राजधानी भी। राजधानी में उसके लिए अलग बंगला है। कुछ महीनों से राजा साहब ने दूसरी महफिल का गाना रोक दिया है। कलकत्ते में उसकी अपनी आलीशान कोठी है। चारों ओर लान, बगीचा। फौवारे लगे हुए। गुलाब और ऋतु-पुष्पों के पेड़। पत्थर की परियों की नंगी मूर्तियाँ। गाड़ी बरामदा। नीचे और ऊपर सजी हुई बैठकें। विभिन्न प्रकार के साज। सुंदर-सुंदर तैलचित्र। फाटक पर संतरियों का पहरा। दास और दासियाँ।

गाड़ी-बरामदे की ऊपरवाली छत पर फलों के टब रखे हुए हैं। मेज पर दस्तरखान बिछा हुआ है। गुलाब की सजी फूलदानी रखी हुई है। गिलास में रोजेड बर्फ-मिला रखा है। अभी लाल फेन नहीं मिटा। सूरज डूब चुका है, फिर भी उजाला है। सड़क के आदमी देख पड़ते हैं। मंद-मंद दखिनाव चल रहा है। एक-एक झोंके से कविता आकर गले लगती है। एजाज बैठी हुई गिलास के फूटते हुए फेन के बुलबुले देख रही है। रसीली आँखों से, मालूम नहीं कौन-सा विचार लगा हुआ है। एक कनीज खड़ी हुई आज्ञा की प्रतीक्षा कर रही है।

इसी समय यूसुफ फाटक पर देख पड़े। एजाज ने देखा, फिर आँखें फेर लीं। यूसुफ ने एजाज को नहीं देखा। संतरी के पास कुछ सिकंड के लिए खड़े हुए। मिलना चाहते हैं, कहा। संतरी ने सिर हिलाकर भीतर जाने का इशारा किया। यूसुफ निकल गए। पोटिकों से बरामदे पर गए। कुर्सियाँ रखी थीं। एक बेयरा खड़ा था। आदर से बैठने के लिए कहा। यूसफ बैठे। बेयरा ने कार्ड माँगा। कार्ड यूसुफ के पास नहीं था। उन्होंने कहा, सरकारी काम है।

रंडी सरकारी काम में आ सकती है, कोई बड़ा काम होगा, जो मर्दों का किया हुआ नहीं पूरा हुआ, सोचता हुआ वह सिकत्तर के कमरे में गया। "खबर दी, एक साहब तशरीफ़ ले आए हैं," कार्ड माँगने पर कहा, "सरकारी काम है।"

सेक्रेटरी का खास वक्त यही है, शाम के चार से रात के दस तक। इसी वक्त वह आफिस करते हैं। पत्रों के जवाब लिखते हैं, मिलने वालों से बातचीत करते हैं। अपने कमरे से उठकर बाहर आए। यूसुफ साहब से हाथ मिलाया। पूछा, "जनाब का नाम?"

"हाँ, एक है, मगर इस वक्त तो यही कि हम सरकारी।"

सेक्रेटरी कुछ सिकंड देखते रहे। पूछा, "क्या हुक्म है?"

"हम मालिका-मकान से मिलना चाहते हैं।"

"उस वक्त दूसरा भी कोई होगा?"

"नहीं।"

"यह नहीं हो सकता। आपको अपना कुछ पता देना होगा अगर आप अपना नाम नहीं बतलाना चाहते। फिर किस सरकारी काम से यहाँ आने की जहमत गवारा की, फर्माना होगा और मुझसे। मैं उनसे अर्ज करूँगा, फिर उनका जवाब आपको सुनाऊँगा।"

"यह ऐसा काम नहीं।"

"मान लीजिए, वह नौकर हैं, खातून की हैसियत से रहने की कैद है ।

"आप पहले फर्मा चुके हैं, कोई दूसरे रहेंगे तो मैं उनसे बातचीत कर सकता हूँ। फिर कहा, मैं आपसे कुल बातें कह दूँ, आप जवाब ला देंगे अपना नाम या पता बताने के बाद। यह शायद किसी खास दरजे की खातून के बर्ताव में आता है?

"गुस्ताखी मुआफ फर्माएं। रंडी का मकान समझकर कितने ही लुच्चे आते हैं। हमें पेशबंदी रखनी पड़ती है। सरकारी काम की पाबंदी हमें कुबूल है, लेकिन वह कैसा सरकारी काम है, यह आप उन्हीं से कहेंगे, मैं उनका सेक्रेटरी हूँ, मुझसे नहीं; मेरे सामने भी आपको कहना मंजूर नहीं। ऐसी हालत में भी आपको लुच्चा न समझकर सरकारी काम से आया हुआ अफसर समझूँ। मैंने कहा, वह नौकर हैं, खातून की तरह रहती हैं। इस पर भी आपने एक तुर्रा कस दिया। एक भले आदमी की तरह इतना समझने की तकलीफ भी आपको गवारा नहीं हुई कि जिन्होंने मालिका-मकान को नौकर रखा है, उन्हें उनकी बेपर्दगी पसंद न होगी, दोनों में नौकरी की शर्तें होंगी।"

"मैं समझा। अफसर को गाली आपने दी। अफसर क्या है, यह आपको अच्छी तरह मालूम होगा। अफसर इस तरह नहीं आता, न यों जवाब देता है। वह अपनी जगह पर बुलाएगा और नौकरी की कुल शर्तों को तोड़कर खातून साहिबा को चलकर मिलना होगा। उस वक्त हम कुछ ऐसी तैयारी ला देंगे कि खातून साहिबा उम्र-भर याद रखेंगी। हम कोई हैं और दर्ज होकर आए हैं। लौटकर कुछ लिखेंगे और भेजेंगे। आप सिकत्तर हैं, इसलिए मिल सकते हैं, और हम सरकारी काम से आए हैं, इसलिए नहीं मिल सकते। आपको खौफ है, जैसे हम कोई चाकू लिए हुए हैं और उनकी नाक काट लेंगे।"

यूसुफ की दहाड़ से सेक्रेटरी साहब दबे। कहा, "हमें जैसी हिदायत है, हमने आपसे अर्ज कर दी।"

फिर सँभलकर बोले, "अफ़सर जब बुलाएँगे, तब लिखकर बुलाएँगे या अपने नाम से आदमी भेजकर। मेरी समझ में नहीं आता, अफसर का बुलावा खुफिया तौर से कैसे होगा। फिर, जवाब मुख्तार आम से भी दिया जा सकता है या इन्हीं को हाजिरी बजानी पड़ेगी?"

"आप यह नहीं समझे कि सरकार मुख्तार आम का पेश होना मंजूर कर भी सकती है और नहीं भी। आप जैसी बातें कर रहे हैं, इनसे उलझन बढ़ती है। नतीजा साफ है, आपके हक में कैसा होगा। तैयार रहिए।"

"हम इतना जानते हैं, कई हजार रुपए हम इनकम-टैक्स देते हैं; सरकार की निगाह में इसकी इज्जत है। फिर आपको कुल माजरा समझा दिया गया है। एक प्रोविन्शल मेरे साथ भी है। अच्छी बात, अब मैं आपसे समझूँगा। तैयार रहिए। आप अपना भेद नहीं बताना चाहते, मैं कहता हूँ, बगैर कुछ भेद दिए आप बचकर नहीं निकल सकते।"

थानेदार घबराए। फिर हिम्मत बाँधकर कहा, "हम जब यहाँ आए, समझिए, रत्ती-रत्ती हाल मालम करके। हम अंधे नहीं। सच, आपके मकान का ठाठ आपकी हैसियत बयान कर रहा है। मगर हमारी बात मानिएगा तभी फायदा उठाइएगा, सरकार के यहाँ नेकनामी लिखी जाएगी।"

"जब तक हमें इसका गुमाँ भी न होगा कि आप कौन हैं, हम आपके साथ लगे-लगाए रहेंगे। उधर हमारे पैर तभी उठ सकते हैं जब हमें कुछ राज मिल जाएगा।"

"इस तरह से मिलने एक ही महकमे के आदमी आते हैं। नाम वह कभी नहीं बताएँगे, सिर्फ काम बतला जाएँगे। कर दिया तो नेकनामी, न किया या धोखा दिया तो इसकी सज़ा है। समझिए-हम-पुली...।"

"आप जो काम बतला जाएँगे, उसका हासिल मालूम करने के लिए आप ही आएँगे या कोई दूसरे?"

"हमीं आयँगे; मुमकिन, और आदमी हमारे साथ हों। बाद को, गिरह पड़ गई तो बड़े साहब भी आ सकते हैं।"

सेक्रेट्री उठकर अपने कमरे में गया। दिन, तारीख, मास, साल, समय और पुली के नाम से कही हुई उस आदमी की कुल बातें उसकी शक्ल के वर्णन के साथ लिख लीं। एक सिपाही को बुलाकर कहा, "तुम दो-तीन छिपे तौर से इस आदमी का हाल मालूम करो, पूरा पता ला सके तो इनाम मिलेगा। आदमी बरामदे में बैठा है। कोई छेड़ न करना।"

फिर बाईजी के पास खबर भेजी कि जरूरी काम से मिलना है। एजाज ने बुला भेजा। सिकत्तर साहब गए। उसने मेज़ की बगलवाली कुर्सी पर बैठाला। सिकत्तर बैठकर एक-एक करके कुल बातें संक्षेप में सुना गए।

एजाज कुछ देर तक सोचती रही। फिर पूरे इतमीनान से कहा, "सिकत्तर साहब, एक राज और लीजिए। कहिए, वह बातचीत करने के लिए तैयार हैं अगर उस बातचीत में राजा साहब का नाम नहीं आया। गुलाबबाड़ी में एक मेज़ और दो कुर्सियाँ डलवा दीजिए।"

नौकर से कहकर सिकत्तर यूसुफ के पास आए। कहा, "बाईजी आपसे बातचीत करेंगी, शर्त एक रहेगी, आप राजा साहब के बारे में कोई बात न उठाएँगे।"

"हम किसी शर्त पर बातचीत न करेंगे," यूसुफ ने पुतलियाँ पलटकर कहा।

सिकत्तर फिर एजाज के पास गए। सुनकर एजाज ने कहा, "आप समझे? - उन्हीं की गरदन नापी जाएगी। हमारा और इनका कहना लिख लीजिएगा। हम नीचे चलते हैं। लिखकर सभ्यता से उन्हें भेज दीजिए; गुलशन ले आएगी। आदमियों से कह दीजिएगा, होशियारी रखें।"

एजाज गुलाबबाड़ी में आकर बैठी। सिकत्तर ने लिखकर यूसुफ से आकर कहा, "सरकार की फतह रही। गुलाबबाड़ी में हैं। तशरीफ ले चलिए।" गुलशन की तरफ हाथ उठाकर कहा, "यह ले जाएगी।"

गुलशन यूसुफ को ले चली। गुलाबबाड़ी में एजाज ने नसीम को कीमती साड़ी पहनाकर बैठाला था। बगीचे की शोभा देखते हुए यूसुफ चले। अंधेरा हो आया था। कुछ दूर एक गैस की बत्ती जल रही थी।

छह

यूसुफ फतहयाब थे-उनकी शर्तें कबूल कर ली गईं। गुरूर से कदम उठ रहे थे। गुलशन गुलाबबाड़ी में ले गई। नसीम की तरफ उँगली उठाकर कहा, "आप !"

नसीम उठकर खड़ी हो गई। बड़ी अदा से कहा, "आदाब अर्ज।"

यूसुफ बहुत खुश हुए। जवाब में हाथ उठाया, वह हाथ जैसे सरकार का हो।

नसीम ने पूछा, "हुजूर का मिज़ाज अच्छा?"

"खैरियत है।" थानेदार साहब ने जवाब दिया।

कुर्सी की तरफ उँगली का हल्का इशारा करके नसीम ने कहा, "हुजूर की कुर्सी।"

थानेदार साहब संजीदगी से बैठे। नसीम भी बैठी। बैठते हुए कहा, "हम हुक्म की तामील करने वाले !"

थानेदार साहब बहुत खुश हुए। सोचा, रंग चढ़ गया; बाजी हाथ है। इधर-उधर देखा। गुलशन हट गई थी।

"आप एजाज बाई हैं?" थानेदार ने पूछा।

"हुक्म"

"काफी अरसा हुआ। दूसरा काम है। वक्त ज्यादा नहीं।" नसीम खामोश रही। थानेदार को संदेह नहीं हुआ। वह सुंदरी और खानदानी दिख रही थी। बातचीत साफ।

"आपकी शिकायत है।"

नसीम आँखें फाड़कर देखने लगी।

"दोस्त और दुश्मन सबके होते हैं। सरकार तहकीकात कर रही है। वक्त पर दूध और पानी अलग कर देगी।"

नसीम ने ललित स्वर से कहा, "क्या ही अच्छा हो कि इसके पूरे भेद से हम भी वाकिफ हो जाएँ।"

"यह हमारे हाथ की बात नहीं। खुद हम इसके भेद से वाकिफ नहीं। पर एक सूरत हम ऐसी बताएँगे कि शिकायत भी रफा हो जाएगी और सरकार के मददगार दोस्तों में नाम दर्ज हो जाएगा।"

"मेहरबानी।" नसीम ने विजयी स्वर से कहा।

"मैं मुसलमान हूँ। दूसरी शिरकत मजहबी है।"

नसीम गंभीर हो गई। कुर्सी पर हाथ समेटकर बैठी।

"आजकल जमींदारों और कुछ हिंदुओं ने सरकार के खिलाफ गुटबंदी की है। जिस ज़मींदार से आपके तअल्लुकात हैं, इस पर सरकार को शुन्हा है। इसका भेद मालूम होना चाहिए। इससे सरकार की मदद भी होगी और कौम की खिदमत भी। सरकार की मदद इस तरह कि आपके जरिये दुश्मन का राज सरकार को मिलेगा और कौम की खिदमत इस तरह कि सुदेशी का बवेला जो हिंदुओं ने मचा रखा है, यह जड़ से उखड़ जाएगा। मुसलमान रैयत को फायदे के बदले नुकसान है अगर हिंदुओं को कामियाबी हुई। सरकार ने बंगाल के दो हिस्से इस उसूल से किए हैं कि मुसलमान रयत को तकलीफ़ है; मौरूसी बंदोबस्त वाली 99 हर सदी जमीनों पर हिंदुओं का दखल है; यह आगे चलकर न रहेगा। इससे मुसलमानों की रोटियों का सवाल हल होता है। आपके दोस्ताने के बर्ताव से दुश्मनों की की हुई शिकायत का असर जाता रहेगा, उल्टे फायदा उठाइएगा।"

"आपकी सलाह नेक।" नसीम ने दोस्ती की आवाज में कहा।

"आदाब अर्ज।" थानेदार साहब उठकर खड़े हो गए, "अब मैं चलता हूँ। सीन याद रखिएगा। जो शख्स कहे, उसे अपना आदमी समझिएगा। उसे और कोई राज न दीजिए। सिर्फ कहिए, 'फँस गया' या 'नहीं फँसा।' पूरी बातें मैं ही मालूम करूँगा। मैं तीन और तीन कहूँगा। आप वाकिफ हाल हैं। सहूलियत से काम लेना है। हमारे आप लोगों से गहरे तअल्लुकात रहते हैं।"

"पान-सिगरेट शौक फर्माते हैं?" थानेदार साहब चल पड़े थे, खड़े हो गए। नसीम ने सोने के पानदान से निकालकर पान दिए और डिब्बे से सिगरेट। सामने दियासलाई जलायी। थानेदार साहब ने आँखें भरकर देखा। दियासलाई के गुल होते जैसे दिल में अँधेरा छा गया।

सात

तीसरे दिन राजा साहब की चलने की तैयारी हुई। एजाज को भी चलना था। उससे बातचीत हो चुकी थी। उसने तैयारी कर ली। इस बार नसीम और सिकत्तर को यहीं छोड़ा। नसीम को कुल बातें लिखवा दीं। एक नकल अपने पास रखी। थोड़ा-सा सामान और गुलशन को लेकर जेट्टी के लिए गाड़ी पर बैठी। राजा साहब के साथ कुल सहूलियतें हैं। खुशी-खुशी चल दी। आदमियों से थानेदार साहब को भेद नहीं मालूम हो सका। फाटक के बाहर रास्ते पर भेस बदले हुए पुलिस के सिपाही थे, कुछ और आदमी। थानेदार निकलकर उल्टे रास्ते चले। काफी दूर निकल गए। फिर एक-एक छँटने लगे। थानेदार रेलवे-स्टेशन से डायमंड हारबर की तरफ रवाना हुए।

जेट्टी से राजा साहब का स्टीमर लगा हुआ था। आने-जाने के सुभीते के लिए उन्होंने खरीदा था। अच्छा-खासा स्टीमर, दो-मंजिला। नीचे सामान लद चुका था। सिपाही, खानसामे, बाबू, पाचक और खिदमतगार आ चुके थे। डेक की एक बगल लोहे के चूल्हों पर खाना पक रहा था। जाफरान और गर्म मसाले की खुशबू आ रही थी। ऊपरवाले डेक की सीढ़ी पर सशस्त्र पहरा लग चुका था। केबिन में और जहाज के सामने ऊपरवाले डेक पर ऊँचे गद्दे बिछ गए थे। अभी राजा साहब नहीं आए। एजाज की गाड़ी आई। गुलशन ने उतरकर गाड़ी का दरवाजा खोला और कब्जा पकड़ा; सहारे के लिए बाँह की रेलिंग बन गई। एजाज उतरी। लोगों की आँखें जम गईं। रूप से हृदय भर गया। आज का पहनावा मोरपंखी है। साड़ी का वही रंग, वही बूटे, फ़रमाइश से तैयार की हुई। ज़मीन सुनहरे तारों की। सिर के कुछ बाल मोर की चोटी की तरह उठे हुए; हर डाँड़ी पर हीरे की कनियों के साथ नीलम बँधा हुआ। पैरों में कामदार मोती-जड़ी जूतियाँ। उतरकर एजाज मोर की ही चाल से चली। जेट्टी की एक बगल पुलिस का सिपाही खड़ा था। सलाम किया। जेट्टी और नीचेवाले डेक पर राजा के लोग खड़े थे। देखकर खुश हुए, पर मुँह फेरकर दूसरे को सुनाकर गाली दी। एजाज दूर थी। चलती हुई पास आई। लोगों ने रास्ता निकाल दिया। डेक पर जाने की काठ की सीढ़ी लगा दी। उस डेक से दूसरे तले की सीढ़ी पर वह चढ़ने लगी। सिपाही ने रानी साहिबा को सशस्त्र सलामी दी। हाथ उठाकर, एजाज ऊपर गई। गुलशन ने पूछा, "कहाँ रहिएगा?"

"केबिन में, जब तक राजा नहीं आते।"

"लोग अड़े हैं, कुछ उनका भी खयाल...?" कहते हुए गुलशन ने केबिन का दरवाजा खोला।

"अभी साड़ी और पहनावा देख रहे हैं," कहती हुई एजाज केबिन में चली गई, "जब आदमी को देखेंगे, तब तू ही ठहरेगी। इस पहनावे से तो नहीं घिसटते?" एजाज ने गुलशन की साड़ी का छोर खींचा। गुलशन मुस्करा दी। "अच्छा चलो, केबिन के सामनेवाली कुर्सी पर बैठो जरा देर।"

"मैं कहती हूँ, राजा साहब के आने पर डेक पर महफिल लगेगी।"

"तू राजा साहब बन जा, मैं शीशा और प्याली ले लूँ।"

गुलशन भग गई। दूसरी तरफ से बाहर निकली और कुर्सी पर बैठ गई।

कोच-बाक्स की बग़ल में बैठे सिपाही ने पेटियाँ उठवाकर एजाज के केबिन में लगवा दीं। चलते वक़्त की सलामी दी। एजाज ने गुलशन से बीस रुपए ले लेने के लिए कहा। 5) खुद ले, 5) कोचमैन और साईस को दे, 5) डेक के पहरेदार को, 5) पुलिस के सिपाही को।

सिपाही के चले जाने पर गुलशन को भेजकर राजा साहब के एक खिदमदगार से मालूम किया, राजा साहब और पुलिस के सिपाहियों को क्या इनाम मिला।

जेट्टी पर जहाज के ठहरने का तीन मिनट समय रह गया, राजा साहब की गाड़ी आई। सिपाहियों और नौकरों पर अदबी सन्नाटा छा गया। रफ्तार के बढ़ने पर भी शोरोगुल का नाम न रहा। शान के क़दम उठाते हुए जेट्टी से गुजरकर राजा साहब ने डेक पर चढ़नेवाला पीतल का चिकना डंडा पकड़ा। एक बगल, साथ आए हुए सशस्त्र अर्दली और सीढ़ी के पहरे दार ने खड़े होकर बंदूक की सलामी दी। राजा साहब सीढ़ी से चढ़े। ऊपर के डेक पर, जहाँ सीढ़ी खत्म होती है, एजाज खड़ी थी। उसके पीछे गुलशन। एजाज ने ललित सलाम किया। राजा साहब ने हथेली थाम ली। दोनों साथ-साथ सामने बिस्तर की ओर बढ़े। गद्दे पर पहले एजाज ने पैर रखा। दोनों तकिए लेकर बैठे। राजा साहब अतृप्त आँखों से एजाज का खुलता हुआ रूप और पहनावा देखते रहे। जरा देर के लिए सेक्रेटरी आए। राजा साहब ने पुलिस के लिए कहकर जहाज खोल देने की आज्ञा दी।

जेट्टी से बँधी हुई जहाज़ की मोटी रस्सियाँ और लोहे की साँकलें खोली गईं। जहाज़ घूमा। फिर हुगली नदी से होकर दक्षिण की ओर चला। ऊपर के पीछेवाले हिस्से में सेक्रेटरी, कुछ कर्मचारी और ऊँचे पदवाले के अफसर बैठे। एजाज हुगली में बँधे हुए अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन और अमेरिकन बड़े-बड़े जहाज़ देख रही थी और उनसे होनेवाले विशाल व्यापार पर अंदाजा लगा रही थी। मधुर दखिनाव के तेज झोंके लग रहे थे। दिल को कोई रह-रहकर गुदगुदा रहा था। जहाज़ फोर्ट विलियम किले के पास आया। किनारे लड़ाई के दो जहाज़ बँधे थे। इनकी बनावट दूसरी तरह की थी। रंग पानी से मिलता हुआ। एजाज ने चाव से इन जहाजों को देखा। एक नजर हाईकोर्ट की विशाल इमारत पर डाली। एडेन गार्डेन की याद आई, यहाँ हवाखोरी के लिए वह बहुत आ चुकी है। यह एक शिकारगाह भी है। शाम को शहर के रईस बड़ी संख्या में आते हैं, टहलते हैं और बेण्ड सुनते हैं। जहाज़ तेजी से बढ़ने लगा।

राजा साहब ने घंटी बजायी। एक बेयरा आया।

"लाल पानी," राजा साहब ने बेयरा से कहा।

बेयरा शेम्पेन की बोतल, बर्फ, छोटा टंबलर और पेग ट्रेपर लाकर रख गया। गुलशन एजाज की बग़ल में बैठकर टंबलर में बर्फ और शेम्पेन मिलाने लगी। पाचक ब्राह्राण कटलेट, चाप और कबाब चाँदी की तश्तरियों पर रख गया। कहकर ट्रे पर ढक्कनदार चाँदी के गिलासों में पानी ले आया। रखकर तौलिया लेकर खड़ा रहा। गुलशन ने दो पेग भरे। एक हाथ में रखा, एक बढ़ाकर एजाज को दिया। एजाज ने पेग चूमकर राजा साहब के हाथ में दिया, फिर अपना लिया। गुडलक हुआ। दोनों पीने लगे।

प्रायः एक डजन पेग थे। ये पिया पेग एक ही बैठक में नहीं इस्तेमाल करते। गुलशन तीसरा और चौथा पेग तैयार करने लगी। पेग खत्म करके राजा साहब ने हाथ बढ़ाया। बेयरा ने पकड़ लिया। एजाज ने भी बढ़ाया।

गुलशन ने तीसरा दौर तैयार करके, चाँदी की पेग रखनेवाली रिकाब में लगाकर दोनों के बीच में रख दिया। दोनों, मौसम, गंगा, शिवपुर के बगीचे, हवा आदि का जिक्र करते हुए, साथ-साथ नाश्ता करने लगे।

दूसरा दौर भी समाप्त हुआ; तीसरा भी हुआ। नशे का प्रभाव बढ़ने लगा। दोनों के हाथ धुला दिए गए। गिलोरी और सिगरेट की तश्तरियों को छोड़कर नौकर और कुल चीजें उठा ले गए। फिर केबिन के पास के पर्दे, आड़ के लिए खोलकर, रेलिंग के डंडों के साथ बाँधने लगे। कीमती हारमोनियम लाकर रख दिया। गुलशन को छोड़कर और सब बाहर निकल गए।

"कुछ सुनने की तबियत हो रही है।" राजा साहब ने प्रेम से कहा।

एजाज ने गुलशन की तरफ देखा। गुलशन ने पीकदान बढ़ाया। पान थूककर एजाज ने कहा, "तेज हवा है। आवाज उड़ जाएगी।" कहकर हारमोनियम खोला।

"तुम्हारा गाना है, हारमोनियम हो, पियानो या सितार-इसराज, छाकर रहेगा।" राजा साहब ने सहृदय स्वर से बढ़ावा दिया। एजाज हिली।

पर्दे पर उँगली रखी। कहा, "मयकशी के बाद आवाज पर काबू नहीं रहता।" कहकर स्वर निकाला। राजा साहब तद्गतेनमनसा ध्यानावस्थित हुए।

एजाज की मधुर आवाज निकली। जहाज-भर के लोग, नीचे और ऊपर के, कान लगाए रहे। गाना शुरू हुआ।-

"हर एक बात प' कहते हो तुम कि तू क्या है,

कहो कि यह अंदाजेगुफ्तगू क्या है?

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा,

कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल,

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?"

लोगों पर सच्चा जादू चला। सभी ने दिल दे दिया, वही दिल जो हाथ से छूटकर मजबूती से हाथ पकड़ता है। छोटे-बड़े सभी उसके भक्त हो गए। कोयला-झोंकनेवाले एक झुक्की झोंककर नीचे से डेक पर चढ़ आए। श्रम को हल्का कर लिया। सोचा, वह कौन-सा स्वर है जो दिल पर अपनी पूरी-पूरी छाप लगा देता है? खड़े लोगों में क्षण-भर के लिए विषमता नहीं आई; किसी बड़प्पन के कारण या पैसा होने की वजह गायिका का कंठ इतना मधुर है, यह वे नहीं सोच सके; विरोध का क्षण ही मिट गया। उन पंक्तियों के लेखक महाकवि गालिब समय के सताए हुए और गानेवाली एजाज समय की संस्तुत, फिर भी दोनों में साम्य ! यह किसी अधिकार की बात न होगी। अधिकार से वस्तु, विषय या बात इतनी सुंदर नहीं बनती, ऐसी पूरी नहीं उतरती। यह वह अधिकार है जहाँ अधिकार ढीला है।

विलासी राजा एकटक उस सच्चे रूप और स्वर को देखते-समझते रहे। कुछ देर एजाज ने दम लिया। निगाह उठाई। भरा पेग उठाकर राजा साहब को दिया। खुद एक लौंग दबाई। दो कश खींचकर पीकदान में डाल दी और हारमोनियम संभाला।

एक ठुमरी गाई :-

"जाने दे मोको सुनो सजनवा,

काहे करत तुम नित नित मोसन रार,

नहीं, नहीं मानूँगी तिहार।

छेड़ करत, नहीं मानत देखो री सखि,

मेरी सुनै ना,

बिंदा करत अब नित नित मोसन रार,

नहीं, नहीं मानूँगी तिहार।"

अभी दुपहर नहीं हुई। भैरवी का वक्त पार नहीं हुआ। श्रीश राजा साहब को गंभीर, और चलते हुए जहाज़ के सिवा कोई आवाज न आती हुई देखकर एजाज समझ गई-लोग कान लगाए हुए हैं। वह खुशी से भर गई।

एजाज ने छेड़ा :

"यामिनी न येते जागाले ना केन

बेला होल मरि लाजे।

शरमे जड़ित चरणे केमने

चलिब पथेरि माझे।

आलोक - परशे मरमे मरिया

हेर लो शेफालि पड़िछे झरिया

कोनो मते आछे पराण धरिया

कामिनी शिथिल साजे।

निबिया बांचिल निशार प्रदीप

ऊषार बातास लागि,

नयनेर शशी गगनेर कोने

लुकाय शरण मागि।

पाखी डाकि बले गेल विभावरी,

वधू चले जले लइया गागरी,

आमिओ आकुल कवरी आवरि

केमने याइब काजे।"

रवींद्रनाथ का गीत; कलकत्ता का आधुनिक फैशन एजाज ने सच्चा अदा किया-वही उच्चारण, वही अंग्रेजियत। राजा साहब पर और आधुनिक शिक्षित बंगालियों पर इसी स्कूल का सबसे अधिक प्रभाव है, रवींद्रनाथ के गानों में स्वर का सबसे अधिक मार्जन मिलता है। राजा साहब की आँखों के सामने गंगा के शुभ्र फेन की तरह गीत का अस्तित्व तैरने लगा।

एजाज ने हारमोनियम हटा दिया। एक पेग और उठाकर राजा साहब को दिया, एक खुद लिया।

शराब, बातचीत और गाने के बीच एजाज देखती जाती है, मटियाबुर्ज पार हुआ-शाह वाजिद अली का कारागार, तेल का केंद्र बजबज पार हुआ, उलूबेड़िया पार हुई, कितनी ही मिलें निकल गईं, जिनका अधिकांश मुनाफा विदेशियों के हाथ जाता है। एजाज अंग्रेजी जानती है, संवाद-पत्र पढ़ती है, दूर निष्कर्ष तक आसानी से पहुँच जाती है, संपादक की टिप्पणी पर टिप्पणी लगा सकती है।

गुलशन राजा साहब को सिगरेट और पान देती जाती है। गाना बंद करके एजाज ने सिगरेट के लिए उँगली बढ़ायी। गुलशन ने हीरे की पाइप में सिगरेट लगा दिया। एजाज पीने लगी।

"तुम्हारे नहाने, भोजन और आराम करने का वक्त हुआ।" राजा साहब ने कहा।

"पूजा करने की बात छोड़ दी? " एजाज ने बड़ी-बड़ी आँखें मिलाईं।

"वह दिल में होती रह गई।"

"उसने मिला भी दिया।"

राजा खामोश हो गए। एजाज ने कहा, "तुम उठो। नहाना मत। तवालिया गर्म पानी से निचोड़कर बदन पोंछवा डालो, धोती बदल दो। शराब पर नहाना !"

राजा साहब उठ गए। एजाज बैठी हुई, नदी की शुभ्र शोभा, श्याम तटभूमि देखती रही।

आठ

पुरानी कोठी के सिपाहियों के अफसर जमादार जटाशंकर सिंहद्वार पर रहते हैं। पलटन में हवलदार थे। ब्रह्मा की लड़ाई के समय नाम कटा लिया। जवान अच्छे तगड़े। नौकरी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते यहाँ आए। निशाना अच्छा लगाते हैं। राजा ने रख लिया। खुशामद करने में कमाल हासिल, तरक्की कर गए।

कोठी के सामने पुराना फव्वारा है। अब नहीं चलता। चारों तरफ से पक्का होज। दीवार पर बैठे थे। मुन्ना गुजरी।

दोनों ने एक-दूसरे को देखा। मुन्ना ने छींटा जमाया, "एक घोड़ा फेर रही हूँ।

"वाह रे मेरे सवार ! कौन घोड़ा?"

"एक हिंदुस्तानी घोड़ा है।"

जमादार जटाशंकर झेंपे। गुस्सा आया। पर सँभलकर कहा, "और घोड़ी बंगाली है?"

मुन्ना को भी बुरा लगा। बदलकर कहा, "जब हमसे बातचीत करो, रानी समझकर करो।"

जटाशंकर सकपका गए। क्रोध में आकर कहा, "क्या कहा?"

"कह रही हूँ, तुम्हारी नौकरी नहीं रहेगी। पहले रानीजी की सलामी दो।" तिनककर मुन्ना ने कहा।

जटाशंकर ने रानीजी की सलामी दी। फिर ताव में आए। कहा, "मैं राजा हूँ, राजा की सलामी दे।"।

"तुम गँवार हो," मुन्ना ने कहा, "मैं रानी हूँ, रानी; रानी राजा को सलामी देती हैं? जवाब में चूमती हैं। तुम मुझको चूमो।"

जटाशंकर ने सोचा, "रानी और राजा का खेल कर रही है।" प्रेम बढ़ गया। चूमने के लिए मुँह बढ़ाया कि गाल पर मुन्ना का चाँटा पड़ा। जटा शंकर चौंककर हाथ-भर उछल गया। साथ ही मुन्ना ने कहा, "रानी का तुम्हारे लिए यही जवाब होगा। रही बात राजा को सलामी देने की; तुम्हें मालूम होना चाहिए कि हम सिपाही नहीं; हम प्रणाम करते हैं।" मुन्ना ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया, कहा, "इस तरह; अब तुमसे फिर कहती हूँ, मेरे साथ रानीजी का मान है, उन्होंने दिया है, इसको अंग्रेजी में आनर कहते हैं; राजा ने तुमको मान नहीं दिया, तुम अपनी तरफ से राजा का मान लेते हो। रानी का मान पहले तुमसे लिया जाएगा। हम जब आएँगे, तुम उठकर खड़े हो जाओगे और हाथ जोड़कर रानीजी की जय कहोगे। तभी हम रानीजी का आनर वहाँ चढ़ा सकेंगे।"

"कहाँ?"

"वहीं जहाँ हम काम करते हैं?"

"हम रानीजी से पूछ लें।"

"और किस रानीजी से तुम पूछोगे? रानी का मान है यहाँ, तुमको यह बतलाया जा चुका है, वहाँ तुम जाओगे, दासी से कहोगे, खबर भेजोगे, तुमको जवाब नहीं मिलेगा, बिना मान की रानी जवाब क्या देंगी? तुम इतना नहीं समझते, रानीजी का मान दूसरी के साथ तभी बांधा जाता है जब कोई उनका पानी उतारता है। जहाँ हम काम करते हैं, वहाँ की उस औरत ने रानीजी का मान घटाया है, उसका मान घटाया जाएगा। तुमसे यह भेद बतला दिया गया। अब बताओ, तुम साथ दोगे, या नहीं।"

"रानीजी के मान बढ़ाने में क्यों साथ नहीं देंगे?"

"अच्छा, अब रानीजी का मान हम रानीजी को देते हैं। अब हम हम हैं। अब हमको तुम चाहो तो चूम लो।"।

जटाशंकर फिर चूमने के लिए लपके। पकड़कर चूमने लगे, तो मुन्ना ने उनके होंठों के भीतर जीभ चला दी और कहा, "तुमने हमारा थूक चाटा। हमारी जात कहार की है। अब हम गढ़-भर में कहेंगे। तुम कौन बाँभन हो?"

जटाशंकर सूख गए। सोचा, "यह कुल चकमा उनकी जाति मारने के लिए था। कल से कोई पानी नहीं पिएगा।" बहुत डरे। देवता की याद आई कि उन्होंने न बचाया। सोचा, ब्रह्मा की लड़ाई में काम आ गए होते तो अच्छा होता।

मुन्ना टकटकी बाँधे हुए पं. जटाशंकर मिश्र के बदलते हुए मनोभाव देखती रही। पंडितजी ब्रह्मा की लड़ाई में नहीं मरे, इसलिए डरे। कहा, "तू मुझे अपना गुलाम समझ, जो कहेगी, करूँगा; थूक चाटने को कहे तो चाटूँगा, मगर किसी से कह मत।"

मुन्ना की रग-रग में घणा भर गई। समझ गई, यह आदमी प्रणयी नहीं हो सकता। यह धोखा देगा। इसको उतारकर रखना चाहिए। खुलकर कहा, "तुम जब तक हमारी बात मानोगे, हम किसी से नहीं कहेंगे।"

हाथ जोड़कर जटाशंकर ने कहा, "मंजूर।"

"हमारे यहाँ" मुन्ना ने कहा, "घोड़ा-घोड़ी दोनों को घोड़ा कहते हैं। उसी को हम फेर रहे हैं, यही कहा था। कारण भी समझा दिया।"

प्रसन्न होकर जटाशंकर ने कहा, "हाँ, अब समझ में आ गया।"

"तो उस घोड़ी का अपमान करने के लिए एक घोड़ा चाहिए।"

"हाँ।"

"वह घोड़ा तुम बनोगे या मैं?"

जटाशंकर फिर जगे। आँखें लाल हुई देखकर मुन्ना ने कहा, "गाल पर पड़े तमाचेवाली बात कहूँ या होंठों के अंदर गई जीभवाली?"

जटाशंकर फिर ठंढे हो गए।

मुन्ना ने कहा, "हम इसी तरह घोड़ा फेरते हैं, उसको भी फेरते हैं, तुमको भी। बोलो, घोड़ा बनोगे?"

"बनना ही पड़ेगा।"

"तो तीन रोज़ लगातार उसी तरह हाथ जोड़कर रानीजी की जय कहोगे। तीसरे दिन अंदर के बगीचेवाले तालाब में दिन के दस बजे जब वह नहाने जाएँगी, तब...समझे?"

"अंदर के बगीचे में मर्द के जाने की मुमानियत है।"

"तो, उसको तुम्हारे पास भेज दें?"

जमादार जटाशंकर बहुत हैरान हुए। कहा, "अच्छा, जाएंगे।"

मुन्ना ने कहा, "जमादार, तभी तुमको मालूम होगा। हम तुमको नमस्कार करते हैं, तुम्हारी सेवा करते हैं, पर तुमको खुश नहीं कर पाते, हमारे छूने से तुम्हारी जाति मारी जाती है। तुम हमें चूमोगे, इससे कुछ नहीं होगा, पर हम तुम्हें चूमेंगे, इससे तुम्हारा धर्म जाता रहेगा। कोई चूमना ऐसा भी है जिसमें दोनों के होंठ न मिलें? अच्छा, तुम भी ब्राह्राण हो, यह भी ब्राह्राण है; तुम इसके पास जाओगे तो तुमको मालूम होगा कि तुमसे यह और कितनी बड़ी ब्राह्राण है। उस दिन रानीजी के सामने इसका तेज देखकर दासियाँ हैरान हो गईं।"

जटाशंकर ने कहा, "अच्छा मुन्ना, मेरी स्त्री गुजर गई है। तू मेरी स्त्री, और यही मैं तुझे समझूँगा। जा, तू गढ़-भर में कह दे कि मेरा-तेरा थूक एक हो गया।"

मुन्ना खिल गई। "यह मर्द है, जमादार, तुम मेरे मर्द। मैं कुछ समझकर तुम्हारे पास आई थी। औरत का प्यार जल्द समझ में नहीं आता। मैं भी बेवा हूँ, बेवा ही यहाँ दासी बनकर आ पाती हैं। मैं तुम्हारी दासी, तुम्हें मैं अपना ही रक्खूँगी। जैसा कहा है, वैसा करो; तालाब में जाओ; मैं दूसरा पेच लड़ाऊँगी। तुम्हारा एक अपमान होगा; सह जाओ। इस औरत के लिए भगवान् हैं। यह नेक है।"

नौ

राजा राजेंद्रप्रताप राजधानी में एजाज के साथ रह रहे हैं। उसी रोज आ गए।

गढ़ के बाहर एक बड़े तालाब के बीच में टापू की तरह सुंदर बँगला है। चारों तरफ से लोहे की मोटी-मोटी छड़ें गाड़कर पुल की तरह सुंदर रेलिंगदार रास्ते बनाए गए हैं। तालाब के किनारे-किनारे चारों रास्तों के प्रवेश पर ड्योढ़ियां बनी हुई हैं, वहाँ पहरे लगते हैं। बाहर, दूर तक सुंदर राहें, दूब जमायो हुई, तरह-तरह के सीज़नल और खुशबूदार फूल, क्यारियाँ, कुंज, बगीचे, चमन। कटीले तारों से अहाता घिरा हुआ; तारों पर बेल चढ़ायी हुई। हवा भी सदा-बहार, हर झोंके से सुगंध आती हुई। तालाब का जल स्वच्छ, स्फटिक के चूर्ण की तरह। बँगले का फर्श संगमारवर का, डबल दरवाजे-एक काउ का, एक शीशेदार, रेशमी परदे लगे हुए। बैठक के फर्श पर बहुमूल्य कारपेट बिछा हुआ। कीमती बाजे, पियानो, हारमो नियम फ्लूट, क्लेरिअनेट, वायलिन्, सितार, सुरबहार, मृदंग, तबले, जोड़ी आदि यथास्थान रखे हुए। बेशकीमत कौच, सोफ़े, चीनी फूलदानी में सज्जित फूलों की मेज़ों के किनारे, एक-एक बग़ल लगे हुए। बीच में गद्दी बिछी हुई, गाव लगे हुए। रात में बत्तियों का तेज़ प्रकाश। चाँद और तारों के साथ प्रकाश का बिंब पानी में चमकता, चकाचौंध लगाता हुआ।

चारों तरफ से विशाल बरामदा, हर तरफ की राह से एक ही प्रकार का। हर बरामदे के भीतर बैठक एक ही प्रकार की, सजावट भिन्न-भिन्न। दो एजाज के अधिकार में हैं, दो राजा साहब के। और भी कमरे हैं। एजाज की बैठकें रोज़ नए परदों से सजायी जाती हैं; सूती, रेशमी, मखमली झालरदार; हरे, नीले, जर्द, बसंती, बैंगनी, लाल, गुलाबी, हल्के और गहरे रंग के; कभी सफ़ेद। कोच और सोफ़ों पर भी वैसा ही ग़िलाफ़ बदलता हुआ। फूलदानियों में उसी रंग के फूलों की अधिकता। एजाज के बदन पर उसी रंग के पत्थरों के जेवर। उसी रंग की साड़ी, सलवार-कुर्ता या पाजामा-दुपट्टा।

राजा साहब अपनी बैठक में बैठे हुए हैं। दिलावर सिंह पहले से तैनात किया हुआ था, आया। कहा, "प्रभाकर आ गए।"

जागीरदार साहब ने कहा, "ये सब तुम्हारे तरफदार हैं। इनसे भी काम लिया गया है। पुलिस के जिन लोगों ने तुम लोगों को गिरफ्तार करना चाहा था, बाद को शिनाख्त न हो पाने की वजह-(तुमने दाढ़ी मुड़वा दी थी और रामफल का मुसलमानी नाम रख लिया गया था-रूप भी कैसा बनाया गया।)-थाने से उनका तबादला हो गया था, इन्होंने उन्हें खोजकर निकाला और पूरी खबर ली। अब इन्हें छिपा रखना है। दीवार को भी पता न चले। पुलिस पकड़ना चाहती है। ये पकड़ गए तो बच न पाओगे।"

दिलावर ने नम्रता से कहा, "हुजूर का जैसा हुक्म, किया जाएगा।"

"पुराने गढ़ के पीछे ठहराओ। खुद दो-मंज़िले पर रहो। रसद ले जाया करो, इन्हें पकाया-खिलाया करो; रामफल को साथ रखना। दूसरा काम तुम लोगों से न लिया जाएगा। चोर-दरवाजे की ताली ले जाओ। वे जब बाहर निकलना चाहें, उसी से निकाल दिया करो, रात के बारह से चार के अंदर। जब कहें तब खोलकर भीतर ले आने को पहले से तैयार रहा करो, एक सेकंड की देर न हो। उनका काम न देखना, हम खुद देख लेंगे। खाना अच्छा पकाया करना, मछली-मांस भी। हमारी रसोई में दो-तीन भाजियाँ पकती हुई देख लो।"

"जो हुक्म, हुजूर।"

"ऐसा करो, अगर ये भी तुमको फँसाना चाहें तो न फँसा पायें। अब तो तुम्हारी दाढ़ी बढ़ गई है। रामफल की मूँछें भी बढ़ गई होंगी। यहाँ से चलकर बहल जाओ। रामफल का मियाँवाला रूप तुम बना लो और तुम्हारा ठाकुरवाला वह। नाम भी बदल लो। उसको अपने नाम से पुकारना और उसी को ले जाने के लिए भेजना। हम कभी-कभी तुम लोगों से मिला करेंगे।"

"जो हुक्म।" दिलावर ने प्रणाम किया। राजा साहब की ओर मुँह किए हुए पिछले-कदम हटा। तालाब के पच्छिमवाले रास्ते से बाहर निकलकर गढ़ की तरफ चला, दूसरी ड्योढ़ी से घुसकर रामफल से मिलने के लिए। प्रभाकर के साथी बाज़ार में हैं। वह ड्योढ़ी के आगंतुक-आगार में बैठा है। कभी निकलकर पान खाने के लिए बाहर चला जाता है। पैनी नज़र से इधर-उधर देख लेता है।

राज्य की क्रिया का ढंग सब स्थानों में एक-सा है। सब जगह एक ही प्रकार के नारकीय नाटक, षड्यंत्र, अत्याचार किए जाते हैं। सब जगह रैयत की नाक में दम रहता है। चारे का प्रबँध ही सत्यानाश का कारण बनता है। अत्याचार से बचने की पुकार ही अत्याचार को न्योता भेजती है। जमींदार हो, तअल्लुकेदार; राजा हो या महाराज; कृपा कभी अकारण नहीं करता। जिस कारण से करता है, वह इसकी जड़ मजबूत करने के लिए, मुनाफ़े की निगाह से, दूने से बढ़ी हुई होनी चाहिए। उसका कोप भी साधारण उत्पात या प्रतिकार के जवाब में असाधारण परिणाम तक पहुँचता है। सारे राज्य में उसके खास आदमियों का जाल फैला रहता है। वह और उसके कर्मचारी प्रायः दुश्चरित्र होते हैं, लोभी, निकम्मे, दगाबाज़। फैले हुए आदमी प्रजाजनों की सुंदरी बहू-बेटियों, विरोधी कार्रवाइयों, संघटनों और पुलिस की मदद से ज़मींदार के आदमियों पर किए गए अत्याचारों की खबर देनेवाले होते हैं। निर्दोष युवतियों की इज्जत जाती है, रिश्वत में रुपए लिए जाते हैं, काम में आराम चलता है, बचन देकर रैयत से पीठ फेर ली जाती है, बहाना बना लिया जाता है। पुलिस भी साथ ली जाती है। कभी चढ़ा-ऊपरी की प्रगति में दोनों अपने-अपने हथियारों के प्रयोग करते रहते किसी गाँव में मुसलमानों की संख्या है। त्योहार है। गोकुशी वर्जित है; पर बकरा महँगा पड़ा, गोकुशी की ताल हुई। आदमी से ख़बर मिली। एक रोज़ पहले, रात को पचास आदमो भेज दिए गए। कुछ मुखियों को उन्होंने मार गिराया।

कोई बड़ा मालगुजार है। किसी कारण पटरी न बैठी, लड़ गया। ताका जाने लगा। शाम को उसकी लड़की तालाब के लिए निकली। अँधेरे में पकड़कर खेत में ले जायी गई या दूसरे मददगार के खाली कमरे में कैद कर रखी गई। दूसरे-दूसरे आदमी दाढ़ी लगाकर या मूँछें मुड़वाकर चढ़ा दिए गए-ज्यादातर मुसलमानी चेहरे से। उन्होंने कुकर्म किया। उसके फोटो लिए गए। तीन-चार रोज बाद लड़की घर के पास छोड़ दी गई। एक फोटो आदमी के गाँव में, दूसरी थाने में डाक से भेजवा दी गई। नाम अंटशंट लिख दिए गए-चढ़नेवालों के; लड़की के बाप का सही नाम। गाँव और पुलिस की निग़ाह में दोनों गिर गए। गाँव का भी आदमी पुलिस का, उसके पास दूसरी तस्वीर, पुलिस के पास दूसरी। बाप से पूछा जाने लगा। उस पर घड़ों पानी पड़ा। गाँववालों ने खान-पान छोड़ दिया।

किसी प्रजा ने खिलाफ गवाही दी। उसका घर सीर के नक्शे में आ जाता है। कभी उसके खानदानवाले पास की जमीन बटाई में लिए हुए थे। गुमाश्ते को कुछ रुपए देकर एक हिस्सा दबाकर घर बना लिया था। इस फ़ेल का उलटा नतीजा हुआ। रात-ही-रात सैकड़ों आदमी लगा दिए गए। घर ढहा दिया। लकड़ी, बाँस, पैरा उठा ले गए। गोड़कर घर की जगह गड्ढा बना दिया। नक्शे में वह जगह सीर में है।

किसी ने लगान नहीं दिया। वह गरीब है। विश्वास दिलाकर बुलाया गया कि सरकार से अपना दुख रोए। आने पर अँधेरी कोठरी में ले जाया गया। वहाँ ऐसी मार पड़ी कि उसका दम निकल गया। लाश उठाकर पुराने तालाब के दलदल में गाड़ दी गई। गाँव के गुमाश्ते ने कबूल ही न किया कि वह गढ़ में ले जाया गया था। कुछ लोग ऐसे भी निकले जो पिटते समय उसको बाजार में उलटे कई कोस के फ़ासले पर देखा था।

बच-बचकर पुलिस से भी झपाटे चलते हैं। थानेदार ने इंस्पेक्टर और डी. एस. पी. आदि की मदद से प्रजा-जनों को किसी मामले में खिलाफ खड़ा किया, खूब दाँव-पेंच लड़े, राजा का पाया कमजोर पड़ा, समझौते की बातचीत हुई, रिश्वत की लंबी रकम माँगी गई, एक उचित ठहराव हुआ। काँटा निकाल फेंका गया। पर दिल की लगी खटकती रही। दूसरा मामला उठा। थानेदार फाँस दिए गए। बलात्कार साबित हुआ। एस. पी. और डी. एस. पी. की सिफ़ारिश बदनामी के डर से न पहुँच सकी। तहकीकात का अच्छा नतीजा न निकला। थानेदार को सज़ा हो गई। नौकरी से हाथ धोना पड़ा।

गरमी निकालने के लिए डी. एस. पी. या एस. पी. ने बुलाया। राजा ने मुख्तारआम या मैनेजर को भेज दिया। कमजोरी से कभी बात न दबी, डी. एस. पी. ने पूछा, "राजा नहीं आए?" मुख्तारआम ने कहा, "इजलास में तो मैं ही हुजूर के सामने हाज़िर होता हूँ", या मैनेजर ने कहा, "आप की सेवा के लिए हम लोग तो हैं ही।" उस दफ़े ख़ामोशी रही। दोबारा बदला चुकाया गया। पहले कुछ प्रजाओं की दस्तखतशुदा शिकायतें की गईं। ऊंचे कर्मचारियों को दिखाया गया। कहा गया कि राजा पर सरकार का शासन नहीं, थान में थोड़े लोग रहते हैं, राजा के लोग उनको डरवाए रहते हैं, राजा बदचलन है, रैयत की इज्जत बिगाड़ता है, पुलिस की सच्ची तहकीकात नहीं होने देता, पुलिस को अधिकार के साथ काम करने दिया जाए तो रास्ते पर आ जाए। हुक्म लेकर दरबार का चकमा दिया गया। राजा गए। पर दरबार से शिकायत करनेवाले लोगों की ही शिरक़त रही। राजा को कुर्सी भी न दी गई। लाट साहब से शिरकत करनेवाले डी.एस. पी. भी खड़े रहे। लिखी शिकायतों के आधार पर कुछ भला-बुरा कहा, कुछ नसीहत दी। डी. एस. पी. साहब की तारीफ करते रहे। जिन शिकायतों का आधार लिया गया था, उनमें राजा का हाथ न था, फलत: चेहरे पर सियाही न फिरी, कलेजा न धड़का।

दरबार समाप्त हो जाने पर उन्होंने लाट साहब को लिखा कि दरबार के नाम पर उनके साथ डी. एस. पी. ने ऐसा-ऐसा बर्ताव किया, वहाँ कुछ प्रजाजन थे, वे उन्हें पहचानते नहीं-किनके थे, कौन थे। उनके आदमी घुसने नहीं दिए गए। जो बातें डी. एस. पी. ने कहीं, उनका तात्पर्य वह नहीं समझे। वे ऐसी-ऐसी बातें थीं। पुलिस में नौकर होनेवाले ये साधारण लोग रिश्वत लेकर देश को उजाड़े दे रहे हैं। इसका व्यक्तिगत संबंध ही है। पुलिस के दांत यहाँ तक डूबे हुए हैं कि नियत आमदनीवाली प्रजा झूठे मामले में रिश्वत देकर राजस्व नहीं दे पाती। यह एक-दो की संख्या में नहीं, सैकड़ों की संख्या में, जमींदारों के 25 थानों में प्रतिमास होता है। नतीजा यह हुआ है कि जाल में फँसायी गई प्रजा रिश्वत से पैर छुड़ाकर फिर राजस्व नहीं दे पाती। यह प्रक्रिया उत्तरोत्तर बढ़ रही है। जमींदार को राजस्व न मिलने पर वह क़र्ज़ लेकर सरकार को देगा या न दे पाएगा। इस परिणाम से भी उन्हें गुजरना पड़ा है। सरकार से इसका प्रतिकार होना चाहिए।

जब इस मामले को लेकर राजा राजेंद्रप्रताप कलकत्ता थे, डी.एस.पी. की बुरी हालत कर दी गई। वह हिंदू थे। हिंदू-मुस्लिम-समस्या से शमशेरपुर, में रहा। बातचीत की। मुसलमानों को उनका स्वार्थ समझाया। कहा, वह उनका अपना आदमी है। उन्हें गोकुशी नहीं करने दी जाती, यह उन पर ज्यादती की जाती है। जिले के वकील नूर मुहम्मद साहब का नाम लेकर कहा, काम पड़ने पर वह बगैर मेहनताना लिए हुए लड़ेंगे। फिर कलकत्ते के इमाम साहब का नाम लिया, कहा कि उनका हुक्म है, मुसलमान अपने हक़ से बाज़ न आयें। एटर्नी अब्दुल हक़ का नाम लेकर कहा, वह हाईकोर्ट में मुफ्त लड़ेंगे और हिंदोस्तान-भर में यह आग लगेगी। वे सिर्फ एक दरख्वास्त दे दें कि बकरीद को वे गोकुशी करेंगे, उन्हें इजाजत मिले। सरकार को इजाजत देनी पड़ेगी। अगर हिंदू होने की वजह से डी. एस. पी. मदद न करे तो उसको इसका मजा चखा दो। थोड़ी सी मदद हम भी दूसरे मौजे के भाइयों को भेजकर करेंगे। रात के वक्त बदला चुकाना। पीछे कदम न पड़े।

फिर वह सज्जन कस्बे में आए। वहाँ दाढ़ी-मूँछें मुड़ायीं। फिर डी. एस. पी. साहब से मिले। कहा, अधिकारियों के कर्मचारी हैं। पास के अधिकारी अच्छे जमींदार हैं। खास बात के बहाने एकांत निकालकर कहा, "अधिकारी हूजूर की सेवा करते आ रहे हैं। अबके शमशेरपुर में बड़ा जोश है। बकरीद को गोकुशी होनेवाली है। मुसलमान चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, गोकुशी करेंगे और हुजूर के सामने करेंगे। हिंदुओं के धार्मिक प्राणों को दुःख होता है। माँ, मझले बाबू की बहू, उन्हीं के पास नक्द ज्यादा है, बहुत दुखी हैं। जबसे सुना है, पानी एक घूँट नहीं पिया।" कहकर आँखों में आँसू लाने लगे। मुझे घर बुलाकर कहा, "रामचरण, तुम हुजूर के कचहरी में जाओ; हमलोगों का कौन-सा अपराध है कि ऐसा होनेवाला है? ऐसा तो कभी नहीं हुआ। हुजूर हिंदू हैं। हुजूर के रहते...।"

"सुनो, तुम्हारा क्या नाम है?" साहब दुचित्ते थे, सजग होकर पूछा।

"रामचरण, हुजूर !"

"रामचरण कौन?"

"रामचरण अधिकारी, हुजूर। हमसब एक ही हैं।"

"तुम हमारे आदमी हो?"

"हुजूर, मैं हुजूर के गुलाम का गुलाम।"

"तुम्हारी मालिका को बहुत डर है?"

"हुजूर, अन्न-पानी छोड़ रखा है।"

"तो अबके शमशेरपुर के मुसलमान गोकुशी नहीं कर पाएँगे। पर..."

डी. एस. पी. गरीब घर के हैं। पढ़ने में प्रतिभाशाली थे। आर्थिक कष्टों से छुटपन से लड़ रहे हैं। कान के पास मुँह ले जाकर कहा, "हम देखेंगे, तुम्हारी मालकिन कितना खर्च कर सकती हैं।"

"हुजूर, बहुत।"

डी. एस. पी. ने सोचा, साँप भी मर जाएगा, लाठी भी न टूटेगी। अभी उनको गोकुशी की कोई सूचना न मिली थी। कहा, "अच्छा, परसों मिलना।"

रामचरण ने कहा, "हुजूर, उसी गाँव में मिलूँगा। देखें मुसलमान, हिंदुओं में दम है या नहीं। है ! मालकिन का अन्न-जल छूटा हुआ है। पहले हुजूर के इकबाल से खिलाऊँ-पिलाऊँ।"

"तो कितना?"

"हुजूर कुछ अंदाजा?"

"पाँच - "

रामचरण ने झुककर सलाम किया। "वहीं कैंप में हुजूर के सामने-"

कहकर चला।

"पाँच है-समझे?"

"हुजूर, खिलाना-पिलाना है। पक्का रहा।" कहकर रामचरण सलाम करके भगा।

दो-तीन दिन में डी. एस. पी. समझे, रामचरण की बात सही थी। बकरीद के दिन आ गए। गोकुशी रोकी। जोश बढ़ा। रामचरण से मिलने की आशा से थानेदार और सिपाहियों को घटनास्थल पर बढ़ा दिया। इधर दुर्घटना हो गई। उनकी एक ज्ञानेंद्रिय विकृत कर दी गई।

यह सब राजा के कर्मचारी और सिपाहियों का काम था, पर कुछ पता न चला। पुलिस बहुत लज्जित हुई। बात जिले-भर में फैली। डी. एस. पी. की नौकरी गई।

दस

पहले दिन। मुन्ना ने सिपाही की आँख बचाकर जमादार को आने की सूचना दी और आड़ में जहाँ बातचीत की थी, रास्ता छोड़कर उसी तरफ चली। जमादार ड्योढ़ी में कुर्सी पर बैठे थे। सिपाही खजाने के पास पहरे पर खड़ा था। सुबह का वक्त। सूरज की मीठी किरनें शबनम के फर्श पर जोत का समंदर लहरा रही थीं। नीचे से पत्तियों की हरियाली अपना रंग उभारती हुई। रँगीन फूल झूमते हुए, मुन्ना सूरज की तरफ रुख किए हुए खड़ी रही। जमादार गए, हाथ जोड़कर कहा, 'रानीजी, जय हो !'

मुस्कुराती हुई मुन्ना चल दी। पहले पहरेदार को पार किया, दूसरे को किया, तीसरे को देखकर रुकी। दूसरी मंजिल पर, वहाँ एकांत था। पहरेदार भी खासा पट्ठा, पठान। नाम भी रुस्तम। यह पहरा बुआ के वास के पास लगता था। कुछ आगे पिछवाड़ेवाला जीना, हमेशा थोड़ा प्रकाश। अंदर महल की कितनी ही दालाने, दूसरे-दूसरे महलों से, उस जीने की तरफ गई थीं। मुन्ना रुस्तम के सामने खड़ी हो गई। रुस्तम कुछ देर तक खड़ा हुआ देखता रहा। फिर पूछा, "क्या है?"

"तुम्हारा नाम क्या है?" मुन्ना ने पूछा।

"रुस्तम।"

"मैं रानीजी के पास से आती हूँ, तुम्हें मालूम है?"

"हाँ।"

"तुम तरक्की चाहते हो?"

"मेरी बात मानो, रानीजी का काम करो। कौनसी तरक्की चाहते हो?"

"जमादारी।"

"बाद को मालूम होगा। यह बात किसी से कहना मत। कहो, नहीं कहूँगा।"

"नहीं कहूँगा।"

"यह जमादार कैसा आदमी हैं?"

"अच्छा।"

"अच्छा आदमी है, तो क्या जमादारी करोगे। कहो, बुरा है।"

"हमारा अफ़सर।"

"तुमको जगह अफ़सर की कहाँ से मिलेगी? इसी आदमी की जगह तुमको दी जाएगी। समझकर कहो, चाहिए या नहीं?"

"चाहिए।" आवाज गिर गई।

मुन्ना एक कदम बढ़ी। कहा।"कहो, रानीजी से कुल बातें कही जायँ।"

खुश होकर रुस्तम ने कहा, "रानीजी से कुल बातें कही जायँ।"

"अच्छा, तलवार निकालकर कसम खाओ, कहो, हम रानीजी का साथ देंगे।"

रुस्तम तन गया। तलवार निकालकर क़सम खायी।

मुन्ना ने कहा, "तलवार हमें दे दो।"

इधर-उधर देखकर रुस्तम ने तलवार दे दी।

मुन्ना ने तलवार लेकर सलामी दी। कहा, "यह जमादार के साथ रानी और राजा की सलामी है। अब तुम जमादार से छूट गए। कहो, हाँ।"

"हाँ।"

"यह लो अपनी तलवार।" रुस्तम को तलवार दे दी। कहा, "जैसी जमादार को सलामी मैंने दी वैसी मुझे रानी कहकर तुम दो।"

रुस्तम ने वैसा ही किया। मुन्ना ने कहा, "तुम पास हो गए। याद रहे अब कल काम की बात बतलाऊँगी और परसों काला चोर पकड़ाऊँगी। मुझे रानी समझना। जब जिसको रानी समझने के लिए कहूँ, समझोगे। बाद को देखोगे, तुम्हारी मुराद पूरी हो गई। मतलब गठ गया।"

रुस्तम खुश हो गया। मुन्ना बुआ के कमरे में गई।

बुआ बैठी थीं, मुन्ना सामने खड़ी हुई। कहा, "खड़ी हो जाओ।" बुआ बैठी रहीं।

मुन्ना ने कहा, "खड़ी हो जा।"

बुआ के आँसू आ गए, खड़ी हो गईं। मुन्ना ने कहा, "इधर आओ।"

बुआ चलीं, मुन्ना बरामदे की तरफ बढ़ी। पहुँचकर कहा, "मैं जो पहले थी, अब वह नहीं। अब तुम्हारे लिए पहले मैं रानी हूँ। फिर तुम्हारी काम करनेवाली। पर काम मैं दरअसल रानीजी का करती हूँ। बात तुम्हारी समझ में आई?"

बुआ सहमीं। आँखें फाड़कर मुन्ना को देखने लगीं।

मुन्ना ने कहा, "हाथ जोड़कर हमको नमस्कार करो।"

बुआ की त्योरियाँ चढ़ीं। मुन्ना ने कहा, "नमस्कार करो, नहीं तो सिपाही बुलाऊँगी।"

बुआ ने कहा, "हमारे भतीजे को बुला दो। हम घर चले जाएंगे।"

मुन्ना ने मुस्कराकर कहा, "तुम्हारा भतीजा राजा का दामाद है, अपनी स्त्री से सुन चुका है। समझ गया है, राजा का क्या सम्मान है। गाँठ बाँधो, वह तुमसे नहीं मिल सकता। जाना चाहती हो तो तभी जा पाओगी जब रानी को सम्मान मिल जाएगा। तुमने सिखाने पर भी बात नहीं मानी। दासी का तुमने अपमान कराया, तुमको नहीं मालूम। हाथ जोड़ो, हम रानी हैं।

बुआ फिर भी खामोश रहीं। मुन्ना ने कहा, "यह काम हम तुमसे ले लेंगे ! हाथ जोड़ो, नहीं तो सिपाही बुलाएँगे। वह जबरदस्ती जोड़ाएगा।"

बुआ ने हथेलियाँ जोड़ीं।

मुन्ना ने कहा, "सिर से लगाओ।"

बुआ ने सिर से लगाईं।

मुन्ना ने कहा, "दो दफ़े और।"

बुआ ने दो दफ़े और प्रणाम किया और वहीं गिर गईं।

मुन्ना दासी का काम करने लगी। पानी ले आई, मुँह में छींटे लगाए, फिर पंखा झलती रही। एक अरसे के बाद बुआ होश में आईं। लाज और नफरत से आँखें न मिला सकीं। मुन्ना ने कहा, "तुम्हारी मौसी को समझाया जा चुका है, वे बैठी हैं। तुम इतना समझो कि तुम्हारी निगाह में हम जितने छोटे हैं, रानी की निगाह में तुम और छोटी हो। जब तक राह पर नहीं आतीं, रानी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगी। कहो, रानी जैसा-जैसा कहेंगी, करना मंजूर?"

बेदम होकर बुआ ने कहा, "मंजूर है।"

'तुमको तीन रोज तक इसी तरह प्रणाम करना होगा। अगर इंकार किया तो सख्ती होगी।"

लाचार होकर बुआ ने स्वीकार किया।

मुन्ना ने कहा, "दूसरे दिन तुमको सखी की तरह बागीचा दिखाने ले जाएंगे। तुमने देखा है, पर तुमको बाग़ीचे के पेड़ों के नाम नहीं मालूम। बाद को एक साथ नहाएँगे। तीसरे दिन क्या होगा, यह तुमसे बागीचे में कहेंगे। जब हमारी-तुम्हारी पटरी बैठ जाएगी, तभी तुम्हें मालूम होगा, असलीयत क्या है। तुम्हारी दासी अब चुन्नी है। वह आती होगी।"

ग्यारह

दिलावर रामफल के पास गया। अपने जीवन से उसको बड़ी ग्लानि हुई। बचाव नहीं। नसों से जैसे देह, वह दुनिया के जाल से बँधा हुआ है और सिर्फ दस रुपए महीने के लिए। जान की बाजी लगाए फिर रहा है। कहीं से छुटकारा नहीं। जहाँ तक निगाह जाती है, यही जाल बिछा हुआ है। लुभानेवाली जितनी चीजें हैं, सभी खून से रँगी हुईं।

जितने सिपाही हैं, सबके जोड़े मिलाए हुए। बाहरवाले नहीं पहचान सकते। एक तरह के तीन-चार भी। उन्हीं की तरह यह इमारत, जमींदारी, हीरे-मोती,जवाहरात, चमक-दमक, रूप-रंग- कुल बनावटी। इनकी असली सूरत कुछ और है। यह स्वर्ग दिखता हुआ दृश्य नरक है। ये राजे-महाराजे राक्षस। ये देवी-देवता पत्थर के, काठ के, मिट्टी के।

रामफल बैठा हुआ था। दिलावर ने कहा, "चलो बदलो!"

"कैसे? क्या बात है?" जितना ही विश्वास करके रामफल ने देखा, उतनी ही अविश्वासवाली जहरीली ज्योति आँखों से निकली।

"अब तुम हम, हम तुम। हमारी जैसी दाढ़ी रक्खो। चलो, एक देवता आए हैं, कोई साधु हैं, ले आना है, दामाद की तरह रखना है। खास राजा की बात है, दीवार भी न सुने। वह भी उस काल-कोठरी में कभी-कभी दर्शन देंगे। जल्द चलो।"

"क्या बात है?"

"चल जल्द। बात तो दुनिया भर की जानता है।"

रामफल उठा। दोनों राजा की ओर से रखे गए सिपाहियों के नाई की ओर चले।

नाई फुरसत में था। कहा, "पालागो, रामफल महाराज, राम-राम दिलावर साहब।"

रामफल ने आशीर्वाद दिया। दिलावर ने राम-राम की।

रामफल ने कहा, "दाढ़ी बहुत बढ़ गई है, खुजला रही है, इसके बराबर कर दो, मूँछें भी। किनारे छाँट दो।"।

"वाह महाराज," नाई ने कहा, "हम समझे, आप शौक बुझाते हुए पितरों को भूल गए! लेकिन परमात्मा की कृपा है। बैठ जाइए। धन्य हूँ मैं।"

रामफल बैठे। नाई ने दिलावर की जैसी दाढ़ी-मूँछें बना दीं। फिर दिलावर से पूछा, "आपका, साहब, कौन-सा फ़ैशन होगा? आजकल तो कर्ज़न फ़ैशन की चाल है।"

"वह, काम पूरा होने पर, सराध में जैसे। इसने काम अधूरा छोड़ रखा है। इसकी जैसी थी, वैसी ही बना दो। अभी दाढ़ी के बाल कुछ छोटे हैं, खैर नोकदार बना दो। नाक के नीचेवाले बाल सफाचट कर दो।"

नाई गंभीर हो गया। दिलावर बैठे। रामफल तल्लीन होकर शीशा देखते रहे।

बाल बन जाने पर दोनों तालाब में स्नान करने गए। दिलावर ने लुंगी पहनी। दोनों चले। बाहर के फाटक पर प्रभाकर बैठा हुआ ऊब रहा था। दिलावर ने रामफल को दिखाया, कहा, आप हैं। रास्ते में उसने अच्छी तरह समझा दिया था।

उसकी बात प्रभाकर ने नहीं सुनी। दिलावर के रूप में रामफल को देखकर उसको धुकचा लगा। पर उसको अपने काम से काम था। दिलावर ने कह दिया था कि उसी का नाम बतलाएगा।

रामफल ने प्रभाकर को बाहर बुलाया। कहा, "चलिए, आप लोगों को दूकान में अच्छी तरह भोजन करा दें। रात को ले चलेंगे। अभी रास्ता साफ नहीं है। वहाँ आप लोगों की जगह दुरुस्त की जाएगी। बैठने-लेटने के पलंग-बिस्तर-मशहरी, मेज़-कुर्सी आदि लाने-लगाने पड़ेंगे। तब तक चलिए, बाज़ार की सैर कीजिए।"

"तुम्हारा नाम क्या है?"

"हमारा नाम है दिलावर।"

बाज़ार में राजा की ही व्यवस्था थी। सामान वहीं रखा था। आदमी इधर-उधर टहलते थे। प्रभाकर को देखकर सब इकट्ठे हो गए।

एक दर्जी ने पूछा, "सिपाहीजी, आप कौन हैं?"

दिलावर ने कहा, "उस्ताद हैं, जैसे आप ख़लीफ़ा।"।

"गवैये हैं?" एक दूसरे ने पूछा।

"हाँ, नचनिये भी हैं, आजकल तो तबले का बोलबाला है। वह आ गई है न? बिरादरों की आमदरफ्त हो चली है। रात को ठनकेगा।"

ख़लीफ़ा झेंपे। पर बड़ों का प्रभाव रखते थे, खामोशी से रख लिया।

दिलावर प्रभाकर और उसके साथियों को लेकर एक दुकान में गया। इच्छानुसार भोजन कराया। जिस घर में सामान था, वहाँ विश्राम के लिए ले जाकर पूछा, "बाबू, आपका कौन-कौन-सा सामान है, हमें दिखा दीजिए। हम वक्त पर उठवा ले जाएंगे।"

दूसरे कमरे में सामान बंद था। ताली जिसके पास थी, वह आदमी बाहर था। प्रभाकर जानता था। कहा, "सामान की कोई चिंता नहीं, जब चलेंगे, सामान भी लिवाते चलेंगे।"।

दिलावर-नामधारी को टोह न मिली कि कैसा आदमी है, कैसा सामान है।

बारह

दूसरे दिन। जमादार जटाशंकर कुर्सी पर बैठे तंबाकू मल रहे थे। रुस्तम पहरा बदलने के लिए आया। जमादार को उसने देखा, पर मुँह फेरकर चल दिया, सलामी नहीं दी।,

जमादार ने पुकारा, "रुस्तम।"

रुस्तम का कलेजा धड़का। पर हिम्मत बाँधी और खड़ा हो गया।

"रुस्तम, क्या ग़लती की?" जमादार ने गंभीर होकर पूछा।

रुस्तम का पारा चढ़ गया। गुस्से से कहा, "हम इसका जवाब देंगे इसी कुर्सी पर बैठकर।" यह कहकर रुस्तम चला।

जमादार ने खजाने के सिपाही से कहा, "इसको पकड़ लो।"

तलवार निकालकर खजाने का सिपाही बढ़ा। रुस्तम को जैसे किसी ने बाँध लिया।

जमादार ने कहा, "तुम कितना बड़ा कसूर कर रहे हो, तुम्हारी समझ में आ रहा है? अभी मुआफी है। फिर उधर नहीं, इधर से निकल जाना होगा और हमेशा के लिए।''

रुस्तम के जी में आ रहा था, भगकर मालखाने के पहरे पर चला जाए और दो रोज किसी तरह गुज़ार दे, लेकिन पैर नहीं उठ रहे थे।

जमादार ने कहा, "इधर आओ।"

रुस्तम ने देखा, कदम जमादार की ही तरफ उठ रहा है, दूसरी तरफ नहीं। वह चला।

जमादार अपनी कोठरी में गए। रुस्तम भी पीछे-पीछे।

"जमादार, मुसलमान हूँ, लेकिन पैर पकड़ता हूँ। मैं ऐसा आदमी नहीं था। मुझसे छल किया गया।"

"किसने किया?"

रुस्तम की ज़बान बंद हो गई। होंठों पर उँगली रखकर इशारे से समझाया कि बोल नहीं फूट रहा।

जमादार ने कहा, "अच्छा, लो राजा को और बोलो।"

रुस्तम पर जैसे कूड़ा पड़ा। एक चीख निकली।

जमादार ने कहा, "अच्छा, तुम खजाने के पहरे में रहो, खजाने का पहरा हम मालखाने भेज देंगे।"

"जमादार, खाना-खराब न करो। हमारी तरक्की होनेवाली है।"

"कैसी?"

"हमको जमादारी मिलेगी।"

"अरे बेवकूफ, तेरी नौकरी जाएगी।"

रुस्तम घबराया। जमादार ने कहा, "जब तुम्हारी तरक्की होगी, सिफ़ारिश हम करेंगे, तरक्की राजा देंगे।"

'रानीजी देनेवाली हैं, उनका एक काम करना है।"

"रानीजी किसी राज-काज में दस्तन्दाजी कर सकती हैं? राज्य की मुहर पर उनका नाम भी है?"

रुस्तम को मालूम हुआ, वह नौकरी भी गई। कहा, "जमादार, गरीब आदमी हूँ, पेट से न मारिएगा।"

"कुल बातें बता दो। किसने तुमसे कहा?"

मुन्ना के स्मरणमात्र से रुस्तम के सिर पर माया-जाल छा गया। फिर न बोल सका, जैसे उसकी सत्ता ही गायब हो गई।

जमादार ने पूछा, "कुछ इशारा?"।

"व...रोज...।"

"अच्छा, तुम अपने पहरे पर जाओ, तुमको कुछ नहीं होगा अगर तुम सिपाही रहोगे।"

थोड़ी देर बाद मुन्ना आई। जटाशंकर का जी मरोड़ खाकर रह गया। मुन्ना को उसी किनारे देखकर उठे, गए और हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

"जमादार, कभी मत भूलिए कि मुन्ना छिनी है, यहाँ रानी हैं। बातें जाती हैं। हम भी भला-बुरा करते-कराते हैं। राजा रहेंगे तो रानी भी रहेंगी, नहीं तो रंडी रहेगी। जो रानी का सम्मान रंडी को दिलाता है, वह राजा नहीं, भंड़वा है। तुम्हारी स्त्री रानी में हैं, रंडी में नहीं। वहाँ जाओगे, तो रंडी को राज दोगे। राजा अब राजा नहीं क्योंकि उसकी रानी कहाँ हैं?"

जमादार को अक्षर-अक्षर सत्य जान पड़ा। पर घबराए कि राजा की तौहीन हुई। सोचा, रुस्तम इससे कह आया। कहा, "क्या वह चला गया?"

"वह कौन?" मुन्ना ने डाँटकर पूछा।

जमादार सहम गए। उस पर उनका सम्मान न चढ़ा। मुन्ना समझ गई कि उसका आनर पकड़ा गया। चलने को हुई तो मालूम हुआ, जमादार से जुड़ गई है। कहा, "राजा से पूछ सकते हो कि रंडी को रानी का सम्मान क्यों दिया जाता है? हम कह चुके कि रानी का मान छिना है। वह मान रानी का आदमी छीनेगा तभी रानी रानी है। फिर दूसरा सँवारेगा। जब ऐसा होगा, रानी के तरफदार रानी को मान देते फिरेंगे। अब वह रानी का आदमी है, इसलिए राजा का भी है। तुम्हारा सम्मान रानी के आदमी ने नहीं किया, मैंने किया। तुम कल वचन दे चुके थे, आज पाल न सके। हमने कह दिया था, थोड़ा-सा अपमान सह जाओ; पर तुम नहीं मान सके। तुम मर्द नहीं, इतर हो। तुमने हमारा आदमी बिगाड़ दिया। हम तुमसे पूछते हैं, रानी का अपमान तुम करोगे? तुमने देखा है रानी को? बोलो, नहीं तो ठोंकती हूँ अभी लौटकर। तुमसे कहा कि तुम दर्ज हो गए। रानी की डायरी में तुम लिख गए कि रानी का अपमान किया। आज तुम राजा से कहोगे तो क्या होगा? हम कल लिखा चुके।"

जमादार का थूक सूख गया। कहा, "हमसे खता हुई।"

"यह बताओ, इस रंडी को देखा है या नहीं?"

"देखा है।"

"सलामी दी?"

"हाँ, दी।"

"वह किसकी सलामी है?"

"रानीजी की।

"वह रानी है?"

"नहीं।"

"तुम इस राजा के बच्चे से पूछ सकते हो कि रानी की सलामी इसको क्यों दी जाती है?"

जमादार चुप रहे।

"यही तलवार राजा को मारने के काम में खोल सकते हो?"

"नहीं।"

"लेकिन कोई अगर उस पर चढ़ जाए और राजा कहे-?"

"रानी पर?"

"जिसके पास हम रहते हैं, यहाँ नहीं, वहाँ।"

जमादार का सिर झुक गया।

"इसी को मान कहते हैं। यह मान मर्द ने छीन लिया है। यह सिपाही जो मान देता है, वही मान उस सिपाही को दो और अपनी ड्योढ़ी पर; नहीं तो समझ जाओ कुल बातों के साथ पहले ही पेश किए जाओगे।"

जमादार का सिर न उठा। मुन्ना ने फिर कहा, "बोलो, क्या मंजूर है? "

"डयोढ़ी पर एक दूसरा सिपाही भी रहता है, वह देखेगा।"

"हर सिपाही से तुम्हारी तौहीन करायी जाएगी, जूते लगाए जाएंगे और निकालकर बाहर कर दिए जाओगे।"।

जमादार के आँसू आ गए। कहा, "मंजूर है।"

मुन्ना चली, पीछे-पीछे जमादार। समझ गए कि खिड़की के रास्ते निकलकर रुस्तम इससे कह आया। भेद खुल जाने पर क्या होगा, सोचकर घबराए। चारा न था। चारों तरफ से गसे हुए थे। ड्योढ़ी पर मुन्ना खड़ी हो गई। कहा, "खड़े रहो।"

सिपाही अपने जमादार की बेइज्जती देखकर हुक्म पाने के लिए देखता रह गया। मुन्ना ने सिपाही से पूछा, "यह कौन है?"

सिपाही जैसे बीच से टूट गया। तलवार की मूठ के लिए हाथ बढ़ाया, पर हाथ बँध गया।

मुन्ना ने डाँटकर पूछा, "यह कौन है?"

सिपाही ने कहना चाहा, 'जमादार', पर जीभ ऐंठ गई। मुन्ना ने कहा, "रानीजी की सलामी लाओ।"

जमादार ने हाथ का इशारा किया। सिपाही ने तलवार निकालकर रानीजी की सलामी दी। सिपाही को मालूम हुआ, एक नया जोश उसमें भर गया।

मुन्ना ने कहा, "यह बदमाश है। इसने रानीजी की तौहीन की।"

सिपाही क्रोध से जमादार को देखने लगा।

मुन्ना ने कहा, "सिपाही, कुछ मत बोलो, रानीजी मुआफ़ करना भी जानती हैं। अभी देखो और समझो।"

मुन्ना मालखाने में रुस्तम के पास गई। कहा, "तुम्हारी तौहीन हुई इसलिए आज ही तुम जमादार बनाए जाओगे। अपनी वर्दी उतारो।" सिपाही ने उतार दी। मुन्ना ने वर्दी पहनी। कहा, "चलो।" सिपाही डरा। पर हिम्मत बाँधकर चला। दोनों नीचे ख़ज़ाने के पहरे पर आए। मुन्ना को देखकर सिपाही और जमादार दोनों घबराए जैसे राज्य उलट गया हो। मुन्ना ने तलवार को सलामी दी, कहा, "यह रानीजी की सलामी," फिर जमादार की सलामी दी, कहा "यह जमादार की सलामी।"

फिर ख़जाने के सिपाही से कहा, "अब इसको देखो।" रुस्तम की तरफ उँगली उठाई। रुस्तम काला पड़ गया था, झुका हुआ टूटा जा रहा था जैसे कोई बोझ सँभाला न सँभालता हो।

मुन्ना ने कहा, "यही पाप है रानीजी पर चढ़ाया हुआ। इसी को मारना है।"

फिर कहा, "सिपाही अब यह है, वर्दी वहाँ मिलेगी।"

रुस्तम पूरी शक्ति से लिपटकर खड़ा हो गया।

ख़ज़ाने के सिपाही से मुन्ना ने कहा, "जब तक यह पाप नहीं मारा जाता, यह बात किसी से न कहना। कहने पर अच्छा न होगा।"

रुस्तम को तलवार देकर मुन्ना ने कहा, "यह शक्ति लो और पहरे पर चलो, हम आते हैं। अभी रानीजी का काम बाकी है। रानीजी की निगाह में अब तुम्हीं जमादार हो।"

रुस्तम ने तलवार ले ली और चला गया। मुन्ना ने जमादार को देख कर कहा, 'सिपाही, इधर आओ।"

जमादार ने कहा, "हद हो गई।" खज़ाने के सिपाही की त्योरियाँ चढ़ीं। पर कुछ कहते न बना। मुन्ना ने कहा, "वह सिपाही ही था। उसकी भी तौहीन हुई। तुम भी कुछ कर चुके होगे। रानीजी कुछ नहीं, क्यों?"

"इधर जाओ" कहकर मुन्ना आगे बढ़ी। जमादार पीछे-पीछे चले। दूसरी मंजिल के सदरवाले जीने के पास मुन्ना ने जमादार से कहा, "घंटे भर बाद बगीचे में आओ। छिपे रहना। वह औरत इस मुसलमान के बच्चे से फँसी है। देख लो। साथ गवाह भी लेते आना इसी सिपाही को। खजाने का सदर फाटक बंद कर देना, यहाँ कौन है? लेकिन कुछ कहना मत। तुम नहानेवाली सीढ़ी की दीवार की बग़ल में छिपे रहना और अपने आदमी को उसी तरफ के आम के पेड़ पर चढ़ा देना। तुम पहले आना। उस आदमी को आधे घंटे बाद उतरने को कहना।"

मालखाने में आकर रुस्तम से कहा, "यहाँ तो कोई आता-जाता नहीं। यह जमादार इस औरत से फँसा है। यह नहाने जाएगी। नहाते वक्त मुझे भेज देगी। तभी दोनों अपना काम करेंगे। मैं तुझे भेजूँगी। लेकिन गवाह ले जाना तंबूवाले पहरेदार को। खिड़की के पास उसको छिपा देना। वह कुछ कहे नहीं। फैसला रानीजी करेंगी। वह गवाही देगा। जमादार लौटेगा तो वह देखेगा ही। खिड़की से आवाज दे देना, देख लिया।"

"बिना देखे?"

"अरे गधा बाद को तो देखेगा। निकलेगा कहाँ से? और राह नहीं।

तंबूवाले को समझा देना।"

तेरह

मुन्ना ने आधे घंटे तक विश्राम किया। फिर प्रणाम लेकर बुआ को पीछे लगाकर बाग़ीचे चली। बुआ का दो ही रोज़ की कवायद में इतना बुरा हाल हुआ कि सिर पर जैसे मनों का बोझ लद गया हो; जैसे गंदे पनाले से नहलायी गई हों। रिश्ते का गौरव कहीं गायब हो गया।मौसी का पहले ही अपमान हो चुका था, आज्ञा मिल चुकी थी कि जबान खोलने पर मठा डालकर सिर घुटाकर गधे पर चढ़ाकर निकाल दी जाएगी और साथ-साथ जीवन-चरित जनता को सुनाया जाता रहेगा; वह कैसी थीं; यह मालूम हो चुका है। अगर खामोश रहीं तो समझ में आ जाएगा कि अपमान उनका नहीं, उनके दुश्मन का हुआ है।

बुआ मुन्ना के साथ कोठी से उतरकर बागीचे गईं। धूप प्रखर हो गई है, फिर भी सुहानी है। तरह-तरह की चिड़ियाँ चहक रही हैं। रंग-बिरंगी सुरीली आवाजवाली; भँवरे, सुए, रुकमिनें, बुलबुल, पीली गलारें, कोयलें, पपीहे, कौए। स्वच्छ जलवाले विशाल सरोवर पर राजहंस तैरते हुए। कहीं-कहीं बगले ताक लगाए बैठे हुए। गिलहरियाँ टहनी से टहनी पर उछलती हुई। धीमी-धीमी हवा चल रही है जैसे साक्षात् कविता बह रही हो। सरोवर पर हल्की-हल्की लहरियाँ उठती हुई उस किनारे से इस किनारे आ रही हैं।

चारों ओर विशाल उद्यान 13-14 हाय की ऊँची चारदीवार से घिरा हुआ। सरोवर और चारदीवार के किनारे नारियल के पेड़। बीच में, अलग-अलग, नींबू, नारंगी, संतरे, सुपारी, अनानास, लीची, आम, जामुन, गुलाब जामुन, कटहल, बड़हर, बादाम, हड़बहेड़, आँवले, अनार, शरीफे, कितने फूल हुए, शहतूत, फालसे, अमरूद आदि फलों के पेड़ एक-एक घेरे में लगे हुए। कितने फूले हुए, कितने पकते हुए, कितनों में बौर, कितने ख़ाली। एक तरफ फूलों का बागीचा उजड़ा हुआ क्योंकि अब रनवास यहाँ नहीं। कहीं जंगली पेड़ों के झाड़। बीच-बीच बेला, जुही, गुलाब, गंधराज, नेवाड़ी, चमेली, कुंद आदि उगे हुए जीने का व्यर्थ प्रयत्न करते हुए आज भी फूलों के अर्ध्य दे रहे हैं। पक्की सुथरी राहों पर वर्षा की काई जमी हुई है। कटीले झाड़ उग रहे हैं। एक तरफ चारदीवार में दरवाज़ा है। इस तरफ से भी ताला लगा है, उस तरफ से भी। इस तरफ की ताली जमादार के पास है, उस तरफ की माली के पास।

जिस तरफ जमादार को छिपने के लिए कहा था, उस तरफ मुन्ना नहीं गई। कहा, "आज चलो, इधर का बागीचा देख लो। एक रोज में पूरा देखा न देख जाएगा।"

हवा के मंद-मंद झोंके लग रहे हैं। दुःख के बाद सुख का अनुभव हुआ। मुन्ना ने पूछा, "कैसी हवा है?"

"बहुत अच्छी।"

"दिल इसी तरह खुला रखा करो। कोई दिलदार मिल जाए इस वक्त तो?"

"धत्, ऐसा नहीं कहा जाता।"

"अच्छा, सखी, हम से ग़लती हुई। पर हमारा-तुम्हारा तो हँसी-मज़ाक का ही रिश्ता है?"

"हाँ, है।"

बुआ की आवाज क्षीण होकर निकली।

"अगर हमारा अपमान हो तो क्या वह तुम्हारा भी है?"

बुआ भीतर से जल गईं। उस जलन को दबाकर कहा, "हाँ, है।"

"हमारा इतना अपमान होता है कि हम किसी को सिर पर नहीं रख सकते। बाद को सखी बनाकर, हँसाकर, रिझाकर समझा देते हैं कि हम सखी हैं और ऐसी।"

"हमारे भाग।" बुआ ने नम्रता से कहा।

"देखो, यह नारियल का पेड़ है। सरोवर के चारों ओर पहले इसी की कतार है। फिर उस किनारे से है। दोनों कतारों में नारियल की बीसियों किस्में हैं। कच्चे नारियल को डाब कहते हैं। इसका पानी तुमने पिया है।"

"हमारे यहाँ यह पेड़ नहीं होता।"

मुन्ना आगे बढ़ी। कहा, "यह देखो, ये अनानास के झाड़ हैं।"

"अनानास क्या है?"

"यह लीची है।"

"हाँ, हमारे यहाँ आती है।"

मुन्ना जल्दी कर रही थी। कहा, "यह शरीफा है।"

"यह भी हमारे यहाँ नहीं होता।"

"ये सुपारी के पेड़ हैं। वह देखो, सुपारी फली है।"

बुआ खुश हो गईं। मुन्ना बढ़ती गई।

"यह बादाम का पेड़ है।"

"वही जो ठंढ़ाई में पड़ता है?"

मुन्ना ठंढ़ाई नहीं जानती थी। बढ़ती गई। कहा, "यह गुलाब-जामुन है।

"कौन? जो बाजार में बिकता है?"

"तो क्या आसमान पर बिकता है?"

"वह तो मिठाई है।"

मुन्ना रुकी। गुलाब जामुन कोई मिठाई है, यह उसको नहीं मालूम था। गुस्से में आकर कहा, "हम जैसा-जैसा सिखाते हैं, वैसा सीखो। सही है कि गुलाब जामुन कोई मिठाई हो, पर यह फल है। कुल पेड़ तुम्हें दिखाएँगे, नाम बताएँगे, याद करके सीख लो। तुम्हें जो मिठाइयाँ जल-पान के लिए दी जाती हैं, उनमें कभी गुलाब-जामुन आई?"

"हाँ, रोज़ आती है।"

"तुम्हें कुल किस्मों के नाम मालूम हैं?"

"नहीं।"

"गुलाब जामुन कौन-सी है?"

"काली-काली।"

"उसको यहाँ पान्तोआ कहते हैं।"

"वह हमारे वहाँ की-ऐसी नहीं।"

"यहाँ छेने की मिठाई बनती है। तुम्हारे उधर मैं जा चुकी हूँ। वहाँ की मिठाई इन लोगों को कम पसंद है। यहाँ घर का दूध, घर का छेना है, और होशियार हलवाई नौकर है, यहीं बनाता है, यहीं का घी। तुम कभी त्योरी न चढ़ाया करो। यह इतना बड़ा बाग़ीचा है। इसमें सैकड़ों किस्मों के फल हैं। तुम्हें आम, जामुन, अमरूद, जैसे थोड़े ही फलों की पहचान है। यह रानीजी की सास और पहले की रानियों का बागीचा है। इनका बागीचा और बड़ा है, पेड़ जैसे हीरे और नीलम-जड़े पत्थरों पर खड़े हों, उनके थालों की नयी कारीगरी है। फलों की भी सैकड़ों किस्में हैं। तुम जहाँ गई थीं, वह रानीजी का शयनागार नहीं। वहाँ बेशकीमत हजारों जिन्सें हैं। तुम्हें दस साल में भी कुल नाम न याद होंगे। जो बड़ी अनुचरी हैं, वह जानती हैं। 15 साल से कम की नौकरीवाली दासी का यह पद नहीं होता। वह जमादार की तरह दासियों से काम लेती है। तुम्हें नहीं मालूम कि बड़प्पन यहाँ नामों की जानकारी से है। रानीजी हजारों चीज़ों के नाम जानती हैं। कभी इनके मुँह न लगना। अब नहा लो। धोती घाट से सौ गज के फ़ासले पर उतारकर डाल दो और आधे घंटे तक नहाओ। फिर निकलकर बिना किसी की परवा किए ऊपर चली आओ। तुम्हें तुम्हारा प्यार मिलेगा। तुम्हें इसकी ख्वाहिश है। शरमाओ नहीं। डटी खड़ी रहना। साड़ी बिना लिए चली आना। हमें दूसरा काम है। खबरदार, हुक्म की तामील सीखो। बाद को समझ में आएगा कि रानीजी कितनी अपनी हैं। उनका भी हाल मालूम होगा। सिर चढ़ाचढ़ी तब न होगी जब दोनों एक। उधर जाओ।"

मुन्ना बिजली की तरह मालखाने में गई और रुस्तम से कहा। रुस्तम तंबू के पहरेवाले के साथ तैयार हो गया और जीने से जल्द-जल्द उतरकर अपनी जगह पर, खिड़की के दरवाजे पर गया। उसका साथी एक अँधेरी कोठरी में छिप रहा। रुस्तम अवसर ताक रहा था। खजाने का सिपाही राजाराम आम के पेड़ पर घने पत्तोंवाली डाल के बीच में बैठा देख रहा था।

रुस्तम के जाने के साथ मौसी को बुआ के शयनागार में भेजकर और जब तक बुआ न आयें वहीं रहने के लिए कहकर मुन्ना खजाने की तरफ बढ़ी। पैर की चाप सँभालकर दौड़ी। जीने से उतरकर देखा, फाटक बंद है। कमर से एक ताली निकाली, जिसे संदूक की ताली बताया गया था उसको देखा। गुच्छे की तालियों से उसका बाहरवाला ताला खोला, फिर अपनी ताली से भीतरवाला। खोलकर देखा, नोटों के बंडल थे। कुल-के कुल बाहर निकालकर डाल लिए। नोट नंबरी भी थे और दस-पाँच रुपए वाले भी। जल्द-जल्द संदूक बंद कर दिया। तालियों का गुच्छा खूटी से लटका दिया और अपनी ताली कमर की मुरी में लपेट ली। नोटों के बंडल जीने के तलेवाली अँधेरी कोठरी में डाल दिए । भगी हुई ऊपर गई। बुआ के बरामदे से देखा, वह नहाकर निकल रही थीं। जैसा कहा था, वैसी ही थीं।

रुस्तम तके हुए था। इसी समय निकलकर कुछ कदम बढ़ा और चिल्लाकर कहा, "चोर पकड़ लिया।"

बुआ की लाज दूर हो गई। वह तनकर खड़ी हो गईं।

रुस्तम आवाज लगाकर भगा हुआ कोठरी में घुस गया। मुन्ना दूसरी मंजिल की खिड़की के पास खड़ी होकर चली आने के लिए हथेली का इशारा करने लगी। बुआ चलीं।

राजाराम पेड़ से देख रहा था। मुलुककर जमादार ने भी देखा था। बुआ के जाने के कुछ अरसे के बाद जमादार और राजाराम चले। इनसे पहले मुन्ना ने नीचे उतरकर रुस्तम को आवाज लगाई, अगर वहाँ हो। उसके आने पर कहा, "खजाने में चलकर बैठो और जमादार के आने पर कहो-हमारी जमादारी का हुक्म है, तुम बदमाश हो। हमारी जगह पर जाओ।"

चौदह

जमादार जटाशंकर और राजाराम जब खजाने को लौट रहे थे, तब आँगन से देखा कि फाटक खुला हुआ है और कुर्सी पर रुस्तम बैठा हुआ है। जमादार को बुरा लगा। राजाराम की भी भवें चढ़ गईं। रुस्तम जानकारी की निगाह से देखता हुआ मुस्कराता रहा; जमादार पास आए तो डाँटकर कहा, "तुम बदमाश हो, रानीजी ने तुम्हें बरखास्त किया है। अब हम जमादार हैं। हमको उसी तरह सलाम करो और हमारे पहरे पर रहोगे। इसी वक्त चले जाओ, आँख से ओझल हो जाओ।" रुस्तम कुर्सी पर बैठा हुआ आराम से टांगें हिलाने लगा। मुसलमान की पूरी शान में आकर कहा, "अब तुमको मालूम होगा कि सिपाही पर क्या आफ़त गुजरती है जब वह अफसर और जमादार को सलाम करता है।"

जमादार के मुँह में जैसे ताला पड़ गया। वह हक्के-बक्के हो गए।

"उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे।" राजाराम ने डपटकर कहा। "उठ, नहीं तो ठोंकता हूँ अभी।"

"तू, नीम-बदमाश है, इसका साथी है, वहाँ तू क्यों गया?"

"तुझको पकड़ने। मैं गवाह हूँ।"

"तू गवाह है, बदमाश, नंगी नहा रही थी, तब तू देख रहा था या नहीं? और बहुत कुछ किया है, तुम दोनों ने।"

"हमको सब मालूम है।" नेपथ्य से मुन्ना ने कहा।

"तो फिर अब तुम्हीं फैसला कर दो।" जमादार ने काँपते हुए कहा। मुन्ना चुप हो गई ! रुस्तम ने कुर्सी नहीं छोड़ी।

"बदमाश कहीं का। फैसला कर दो !"

राजाराम कुर्सी के पास आ गया, "उठता है या नहीं?"

तुराब तंबू का पहरेदार था। दोमंज़िले की खिड़की से नीचे को देखते हुए कहा, "खबरदार, राजाराम, मैं भी गवाह हूँ। तुम दोनों बदमाश हो। जमादार-रुस्तम पकड़नेवाले हैं। मैं उनके साथ था।"

"तुम यहाँ से क्यों गए?" राजाराम ने पूछा।

"तुम यहाँ से क्यों गए?" तुराब ने डाँटा।

"हम बदमाश पकड़ने गए।"

"बदमाश पकड़ने नहीं गए, बदमाशी करने गए। उस बगीचे के अंदर मर्द के जाने का हुक्म नहीं, यह सबको मालूम है। तुम गए। जमादार-रुस्तम भीतर नहीं गए।"

इसी समय मुन्ना आ गई। कहा, "रानीजी का फैसला सबको मंजूर होगा।"

सबने समस्वर से कहा, "हाँ, होगा।"

मुन्ना ने कहा, "राजाराम आपस में लड़ो नहीं, अपना काम करो।" फिर जमादार से कहा, "जटाशंकर, इधर आओ।"

जटाशंकर को उसी जगह ले गई जहाँ पहली बातचीत हुई थी। रुस्तम मुस्कराता हुआ बैठा रहा। तुराब ने कहा, "भाई, आपकी किस्मत खुल गई। हमारा ही पहला सलाम है।" रुस्तम ने टाँगें हिलाते हुए कहा, "हमको याद रहेगा।" राजाराम ने जमादार को डिसमिस हुआ जानकर पहरे की वर्दी पहनते और तलवार बाँधते हुए कहा, "लेकिन जमादार का कोई कसूर नहीं।"

"जमादार तो हम हैं," रुस्तम ने स्वर चढ़ाकर कहा, "हमारा कौन-सा क़सूर है?"

अड़गड़े में पहुँचकर मुन्ना ने कहा, "जटाशंकर, क्या तुम अब भी हमको चाहते हो?"

जटाशंकर राँड की तरह रोने लगे।

"एक बात" मुन्ना ने कहा, "तुम मुझे चाहते हो या जमादारी?"

"अरी, बड़ी बेइज्जती हुई; हमारी जमादारी रहने दे।"

"अब तुम समझे, हम समझ जाते हैं, कौन कैसा है। तुम हमारी तरह उतर नहीं सकते, यह तुम्हारा खयाल था; मगर तुम इतना उतर जाओगे कि यहाँ जमना दुश्वार होगा। जब किसी को पकड़ो तब उसी को पकड़े रहो, यह क़ायदा है। तुम समझे थे, मैं तुम्हारी रखेली की तरह रहूँगी; अपनी स्त्री बनाकर तुम मुझको खुश किए रहोगे। मैं जैसी औरत हूँ, मैं तुम्हें रखवाले की ही तरह रख सकती हूँ; मगर राजा ही बनाए रहती। यह न समझना कि मैं गरीब हूँ। मैंने कहा, मैं रानी है। तुम्हारा यह खयाल कि एक औरत को रखेली बनाकर रहनेवाला वैसा ही ब्राह्राण है जसे तुम, बिलकुल गलत है। हमारे दिल में ब्राह्राण का सम्मान है, पर चैतन्यदेव-जस ब्राह्राण का, जो बाद को वैष्णव हो गए, और सबको अपनी तरह का आदर दिया। मैं वैष्णव हूँ। तुम पर मुझे प्यार नहीं होता, दया आती है। तुम इतने बड़े मूर्ख हो कि अपनी तरफ से कुछ समझ नहीं सकते। खजाने का जो जमादार होगा, कुछ दिनों में उसकी जान की आफत आएगी।"

जमादार काँपे। आँखों से तरह-तरह की शंकाएँ, भय, उद्वेग, पाप, अत्याचार, क्षुद्रता, हृदयहीनता आदि निकल पड़ी। राज लेने के लिए मित्र बनने की कोशिश करते हुए कहा, "क्यों?"

"तुम हमारे आदमी हो?"

जमादार की जान चोटी पर आ गई। कहा, "अब जो कुछ भी हो, हम हुजूर के आदमी हैं।"

"अब तुम समझे। अच्छा बताओ, अगर खज़ाने का रुपया चुरा गया हो?"

जटाशंकर को जान पड़ा, वज्र टूटा; धड़ाम से गिर पड़े, "अब सही-सही मरा।-मुझको भगा दो। दया करो, दया करो, देवी, कहीं का नहीं रहा।"

"यही रुपया तुमको देना चाहती हैं, लेकिन तुमको हमारी जाति और हमारी दासता लेनी पड़ेगी।"

"हमको रुपया नहीं चाहिए।" तनकर जटाशंकर ने कहा।

"यही तुम्हारा बड़प्पन है। हम इसी को प्यार करते हैं। मेरे प्यारे, मुझे चूम लो।" मुन्ना ने जीभ लपलपायी।

जटाशंकर को जान पड़ा, काल है। खज़ाने की चोरी की बात सोचते हुए तनकर सिपाहियाने स्वर से कहा, "गलत बात है,; ख़ज़ाने की चोरी नहीं हो सकती।"

"क्यों?"

"अब तू ही बता," कहकर फिर उन्होंने एक कड़ी निगाह गाड़ी।

"यह जो जमादार बना है, इसी ने चुरवाया है, यह रानी का प्यारा।"

"झूठ बात, हम रपोट करेंगे।"

"क्यों रपोट करोगे?"

"यही तू जो कुछ कहती है।"

"तुमको और तुम्हारे पहरेदार को ये दूसरे पहरेदार पकड़े हुए हैं कि तुम लोग बदमाश हो। मैं इनकी गवाही गुजार दूँगी। तुम ठोंके जाओगे, नौकरी से भी हाथ धोओगे।"

"हम कहेंगे, खजाना चुराने का इसने जाल किया है। हमसे पहले ऐसा ऐसा कह चुकी है।"

"खजाना चुरा गया है, तुम्हें इसका क्या पता? अगर न चुरा गया हो?"

जमादार ने करुण दृष्टि से देखा। मुन्ना ने कहा, "अच्छा लाख-दो लाख दे दिए जाएं तो तुम क्या करो?"

"हम खज़ाने में रखा देंगे।"

"कैसे?"

जमादार फिर हक्के-बक्के हुए।

मुन्ना ने कहा, "जमादारी चाहते हो तो चलो, बैठो, लेकिन याद रक्खो, जिस दिन खजानची आएगा, उस दिन तुम्हारा कोई कर्म बाकी नहीं रहेगा। बात मानोगे तो बचे-बचाये चले जाओगे। चोरी और छिनाले का भेद तब तक नहीं खुल सकता जब तक रानी का मान वापस नहीं आ जाता।"

"रुस्तम की वर्दी पहनकर रुस्तम की जगह पहरा दो और रुस्तम को जमादार मानो।" कहकर मुन्ना नए गढ़ की तरफ चली।

जमादार जटाशंकर ख़ज़ाने आए। वहाँ से मालखाने गए। रुस्तम की वर्दी पहनी। बाक़ी रहा थोड़ा समय पहरा देने लगे।

पहरा बदला। दूसरे सिपाही आए। बात फैली कि रुस्तम जमादार हो गया। रानीजी ने बनाया है। जमादार और राजाराम बदमाशी में पकड़े गए हैं।

जटाशंकर मुँह दिखाने लायक न रह गए। कुल सिपाही बराबरी का दावा करने लगे और उन्हीं के दिल से कसूरवार करार देने लगे।

राजाराम भी मुरझाया था। फुर्सत के वक्त एकांत में जमादार से बातचीत करता हुआ राज लेने लगा, "जमादार, बड़ा अपमान हुआ। अब तुम सिपाही हो, रुस्तम जमादार। हुक्म राजा का नहीं। माजरा समझ में नहीं आता।"

जमादार ने पूछा, "तुमको क्या जान पड़ता है?"

"या तो तुम फँसे थे, इस औरत ने झूठमूठ हमको भी फँसाया या बुआ की तौहीन की गई और करनेवाला मुसलमान, इसमें राजा की राय हरगिज़ नहीं मालूम देती। बुआ राजा की मान्य की मान्य हैं।"

"इसके बाद इस मुसलमान का हाल क्या होता है, देखना। राजा एक मुसलमान तवायफ लिए ही पड़े रहते हैं। इनके यहाँ बस इतना ही संबँध है। रानी का हाथ है, ऐसा हमारा विचार है। यह भी संभव है कि खजाने की चोरी रानी ने करायी है। बोलो मत, इसमें बड़ा भारी भेद है। किसी को मालूम नहीं हो सका। रुस्तम का आगे चलकर बुरा हाल होगा। तुमको हम दूसरी जगह बदलने की कोशिश करेंगे।"

बात आग की तरह फैली।

पंद्रह

बाप से यूसुफ को एजाज का राज मिल चुका था। जब एजाज कलकत्ता रहती थी, खोदाबख्श खजानची तनख्वाह के रुपए लेकर कलकत्तेवाली कोठी में ठहरता था और वहीं से तनख्वाह चुकाकर रसीद लेता था; एजाज को डाकखाने के जरिये रुपए नहीं भेजे जाते थे; अली को यह खबर थी। उन्होंने लड़के को भेद बतलाया था।

इधर, राजा का रानी के पास आना-जाना घटा कि दासियों, दूतियों और तरफदारों से पता लगवाना शुरू हुआ। खोदाबख्श इस पते पर आ गए। ऐसे कई और। रानी के तरफदारों की चालें मामूली खजानची खोदाबख्श, लालच और रानी के प्रेम में न काट सके; जाल में कुंजी डाल दी। प्रेम की कहानी बहुत-कुछ पहली-जैसी, इसलिए घटना और दुर्घटना का बयान रोक लिया गया।

इसी समय उनके भाग्य के आकाश पर दूसरा तारा चमका। एजाज के मकान से चलकर यूसुफ राजधानी आए और बाजार में ठहरे। भेस बदले हुए थे। प्रभाकर को देखकर चौंके; दुकान में एक जाकेट सिला रहे थे। शाम के बाद से प्रभाकर का पता न चला।

मैनेजर ने बुलाया है, एक अजनबी आदमी से कहलाकर राह पर मिले और मैनेजर ने भेजा है, कहकर भाव ताड़ने लगे। खजानची की कुंजी हाथ से छूट चुकी थी, कलेजा धड़का। डरकर सँभले।

"हम आपका भला कर सकते हैं।" यूसुफ ने कहा।

खोदाबख्श रानी की मैत्री की ताकत से आगंतुक को देखते रहे।

"आपका राज बिगड़ा है, मान जाइए।" यूसुफ ने कहा।

खोदाबख्श का दिल बैठ गया। मैनेजर उससे बड़ा है; कुछ गड़बड़ मालूम हुई हो, सोचकर दहले। उठा कि कह दें, पर सँभाल लिया।

यूसुफ ने कहा, "आपको अब मैनेजर के पास न जाना होगा, हमीं उनकी मारफत आपसे मिलने आए हैं। उनसे हमारा हाल मालूम करने की हिमाकत न कीजिएगा। हम सरकारी। आप हमसे फायदा उठा सकते हैं? फिर हम भी मुसलमान हैं।"

खजानची को बहुत खुशी न हुई, क्योंकि एक फायदा अभी पूरा-पूरा नहीं उठा पाए थे। फिर भी, यह सोचकर कि आगे क्या आनेवाला है और खुदगर्ज अपनी ओर से फायदे में ला रहा है, बात सुन लेनी चाहिए।

यूसुफ जानते थे, कहकर भी राज निकाला जाता है; अगले सवाल से काम हासिल होगा। कहा, "हमें आपसे राज मिलता रहना चाहिए। हम आपकी निजी उलझनों की मदद करेंगे।"

खोदाबख्श को जी मिला। पूछा, "जनाब का निजी और भी कुछ अगर मालूम किया जा सके?"

"बाद को, जब गठ जाए। आप समझें, हम कोई?"

"माजरा क्या है?"

"वह यह कि एजाज से सरकार की तरफ की सिखायी औरत भेजकर यह मालूम करना है कि क्या हालात हैं; बस। अपनी तरफ से आप भी पता लगायें कि सरकार के खिलाफ क्या कार्रवाई है। मुसलमान और नीची कौमवाले हिंदू मिट्टी में मिल जाएँगे। आप याद रखिए। पहले किसी नीची कौमवाले को फँसाइए।"

खजानची को जँच गई। फड़ककर कहा, "कुछ पता भी आपका...'

"अभी नहीं। अस्सलाम वालेकुम्। खयाल में रखें।"

"वालेकुम्।"

प्रभाकर बैठा था। यूसुफ ने अतिथि-भवन की बैठक में झाँका। कहा, "आपसे मिलने के लिए मैनेजर साहब खड़े हैं।"

प्रभाकर चौंका। देखकर चुपचाप बैठा रहा। कुछ देर ठहरकर यूसुफ भीतर चलकर कुर्सी पर बैठे। कहा, "मैं उनका नौकर नहीं। खड़े हैं, कहा, कह दिया, अब आप समझें।"

प्रभाकर ने रीढ़ सीधी की और बैठा हुआ टुकुर-टुकुर देखता रहा।

दिलावर बाहर पहरेदार के पास बैठा था। यूसुफ को घुसते हुए देखा कि गारद से एक आदमी बुला लाया और लगा दिया। यूसुफ की निगाह चूक गई।

"जनाब का दौलतखाना?" यूसुफ ने पूछा।

"जनाब का शुभ नाम?" प्रभाकर ने पूछा।

"नाचीज हुजूर की खिदमत में।" यूसुफ ने जवाब दिया।

"रहमदिली?" प्रभाकर ने मुस्कराकर कहा।

"रहमदिली-अलअमाँ।" यूसुफ ने दोहराकर दोस्ती जतायी।

प्रभाकर दबा। उभरकर पूछा, "किस अंदाज से हैं?"

"सिर्फ दोस्ती।"

प्रभाकर ने हाथ बढ़ाया।

"यों नहीं।" यूसुफ ने बड़प्पन रखा, "आप कैसे तशरीफ ले आए?"

"यह तो आपको मालूम हो चुका है।"

"कहाँ?"

"यह भी मालूम होगा।"

"कुछ भी नहीं बदला हुआ नजर आया?"

"आपका मतलब?"

"मैंने कहा, कुछ आपसे हल हो।"

"आप तो जवाब नहीं देते।"

प्रभाकर चुप हो गया।

"आप बड़े सयाने। पर खुलकर रहेगा।"

प्रभाकर को ताव आया, पर सँभाल लिया।

इसी समय दिलावर घुसा। यूसुफ के पीछे आदमी लगा रहा।

"चलिए।" दिलावर ने प्रभाकर से कहा।

प्रभाकर चले।

दिलावर ने यूसुफ से पूछा, "जनाब का कहाँ से आना हुआ?"

"मैनेजर साहब के कहने से।" यूसुफ साथ-साथ चले।

दिलावर कुछ न बोला। प्रभाकर और दिलावर मुड़कर एजाज वाले महल की तरफ चले, यूसुफ दूसरी तरफ से अपने डेरे की ओर।

यहाँ थाना है, यह पहले से जानते थे। दिल में कोई धड़कन न थी।

पीछे-लगा आदमी आँख बचाकर चला। यूसुफ ताड़ न पाये, दिल में खटक न थी। आदमी ने यूसुफ की कोठरी का पता लगा लिया।

सोलह

कमरे में सनलाइट जल रही थी। राजा साहब अपनी बैठक में थे। मसनद लगी हुई। गाव-तकिए पड़े हुए। एक तकिए का सहारा लिए हुए प्रतीक्षा कर रहे थे कि बेयरा सिपाही से खबर लेकर गया। कहा, प्रभाकर बाबू आए हुए हैं। राजा साहब ने आदरपूर्वक ले आने के लिए कहा। दिलावर बाहर रास्ते के पहरे पर रह गया, प्रभाकर उसी पुलनुमा राह से सरोवर की कोठी को चले। कोठी में पहुँचकर राजा साहब का कमरा, अंदर जाने के लिए, बेयरा ने प्रभाकर को दिखा दिया। प्रभाकर गए। राजा ने उठकर स्वागत किया और नवयुवक को पास बैठा लिया। स्नेह से कहा, "हम आपसे उम्र में..."

प्रभाकर सिर झुकाये रहे।

"बड़ी जिम्मेवारी है।" राजा साहब ने स्वगत कहा।

प्रभाकर स्थिर भाव से बैठे रहे।

"आपका प्रबँध हो गया है। आप वहाँ चलकर रह सकते हैं।"

प्रभाकर को साहस से प्रसन्नता हुई।

"आप तो हमारे गवैये के रूप में हैं।"

गा लेता हूँ।" प्रभाकर ने सीधे स्वर से कहा।

"कुछ पान?"

"जी नहीं।"

"भोजन तो कीजिएगा?"

"जी हाँ।"

"मांस-मछली?"

"हाँ।"

"आप कुछ सुनिए और कुछ सुनाइए।"

राजा साहब ने एजाज के आने के लिए ख़बर भेजी, साजिंदे भी बुला लाने को कहा। फिर प्रभाकर से ग़प लड़ाने लगे।

समय पर साजिंदे आ गए। एजाज भी तैयार हो गई। साज़ बाहर से मिलाकर लाए गए। प्रभाकर देखते रहे।

प्रभाकर को राजा साहब नाप न सके, कितना गहरा है।

एजाज तैयार होकर आई। राजा साहब को सलाम किया और बग़ल में एक तकिया लेकर बैठ गई। प्रभाकर को देखा, फिर देखा, फिर चुपचाप राजा साहब से पूछा, "आपकी तारीफ़?"

उसी फिसफिसाहट से राजा साहब ने जवाब दिया, "आपके खानदान के। गवैये हैं। देखा जाए, कैसे हैं?"

"तगड़े जान पड़ते हैं।"

"शिक्षित हैं।"

"यहाँ कैसे?" एजाज को शक हुआ।

"गाएँगे, रहेंगे। जब चाहेंगे, चले जाएंगे।"

एजाज को राजा साहब की बात का विश्वास न हुआ, उनके स्वर में ऐसा ही, कटता हुआ आदमी मिला। खामोश हो गई। एक दफे कमर सीधी की, फिर एकटक देखती हुई बैठी रही।

प्रभाकर ने मुद्रा को और अच्छी तरह देखा, दिल में गाँठ ली।

साजिंदे नौकर, रह-रहकर एक नज़र राजा साहब को देख लेते थे।

राजा साहब की कठिन अवस्था हुई। न एजाज को गाने के लिए कह सकते थे-अविश्वास की ऐसी प्रतिक्रिया हुई, न प्रभाकर को, प्रभाकर का गुरुत्व ऐसा गालिब था।

उन्होंने नौकर रखने के भाव को काफी मुलायम करके एजाज को देखा। एजाज ने अनुभव किया कि वह दब गई। बड़ा बुरा लगा। अपने से घृणा हुई। पर दबाकर, सैकड़ों पेंच कसने और सुलझानेवाली मुसकान से प्रभाकर को देखकर कहा, "जनाब ही क्यों न श्रीगणेश करें?"

प्रभाकर समझा। नम्रता से स्वीकार कर लिया। पूछा, "क्या गाऊँ?"

"जो जी में आए, कोई ऊंचे-अंग-वाली।"

तानपूरा स्वर भरने लगा। एजाज के गले से मिलाया हुआ।

राजा साहब ने कहा, "आपके स्वर में नहीं मिला। दिक्कत हो तो अभी ठहर जाइए।"

एजाज कुछ और दबी। प्रभाकर ने कहा, "चल जाएगा। घटा लूँगा।"

"अच्छा, मैं ही बिसमिल्लाह करती हूँ।" एजाज मसनद के बीच में आ गई। दिल को चोट लग चुकी। पूरा-पूरा व्यवसायवाला रुख लेकर बैठी। साजिंदे खुश होकर अनुपम रूप देखने लगे। प्रभाकर ने भी देखा, जैसे पत्थर को देख रहा हो। एजाज की हार्दिक सहानुभूति उस क्षण कलाकार प्रभाकर के लिए हुई। भरकर, राजा साहब से बदली हुई, एजाज ने अलाप ली।

प्रभाकर मुग्ध हो गया। चुपचाप बैठा खयाल सुनता रहा। तानों की तरहें दिल में समा गईं। साजिंदे काम करते हुए प्रभाकर को देख लेते थे। राजा साहब निर्भीक कद्रदाँ की तरह बैठे रहे।

खयाल गाकर एजाज हट गई। इसका मतलब था, अब नहीं गाएगी । राजा साहब समझकर खामोश रहे। साजिंदे उसको कुछ कह नहीं सकते थे। प्रभाकर आगंतुक।

एजाज पहले की तरह राजा साहब की बग़ल में नहीं बैठी। गाने के लिए प्रभाकर का जी उठ नहीं रहा था। फिर भी रस्म पूरी करनी थी। शिक्षित घराने का शिक्षित युवक सुकण्ठ और संगीतज्ञ था। ढर्रा छोड़कर उसने धमार गाया। काफी जमी। राजा साहब उछल पड़े।

एजाज समझ गई, यह पेशेदार गवैया नहीं। इसका राज लेना चाहिए, दिल में बांधा। डटी बैठी रही। कलकत्तेवाली, सरकार के आदमी से हुई, बातचीत याद आई। धीरज हुआ। पर राजा की तरफ से सदा के लिए पेट में पानी पड़ गया।

राजा साहब ने देखा, प्रभाकर की तारीफ़ से एजाज का दिल छोटा नहीं पड़ा। वह और बढ़कर बोले, "अभी आप थके-माँदे आए हैं।"

"अच्छा, कहाँ से?" एजाज ने पूछा।

"क्यों, साहब?" राजा साहब ने प्रभाकर को देखा।

वर्धमान से।" प्रभाकर ने कहा।

"जनाब का नाम?" एजाज ने पूछा।

"प्रभाकर।"

"उस्ताद हैं?"

प्रभाकर ने साधारण नमस्कार किया।

अरे भाई, बोस साहब बैरिस्टर हैं, उनके भाई हैं। आए हैं।"

एजाज और दूर तक गाँठ गई, "कुछ रोज रहेंगे, यानी बहुत कुछ सुनने को मिलेगा। राजा साहब का दरबार है।" खिलखिलाकर हँसी।

आज के बर्ताव से एजाज को इच्छा हुई, दूसरे दिन कलकत्ता रवाना हो जाए और नौकरी छोड़ दे, मगर बड़ा रहस्यमय रूप सामने देखा, जिसको खानदानी पढ़ी-लिखी वेश्या छोड़कर न भगेगी; आखिरी दम तक सुलझायेगी।

सत्रह

राजा साहब ने देखा कि एजाज का मिज़ाज उखड़ा-उखड़ा है, उन्होंने साजिंदों को रुखसत कर दिया। प्रभाकर को भोजन कराना था, इसलिए बैठाले रहे। काट कुछ गहरा चल गया था; यानी एजाज को राजा साहब चाहते थे, पर दिल देकर नहीं; अगर दिल देकर भी कहें तो भेद बतलाते हुए नहीं। सिर्फ कला-प्रेम था या रूप और स्वर का प्रेम जो रुपए से मिलता है। यही हाल एजाज का। उसके पास धन था, रूप और स्वर भी, पर तारीफ न थी, यह दूसरों से मिलती थी, और उन्हीं लोगों से जो रूप, स्वर और यौवन खरीद सकते हैं। षोडशी होकर जिस समूह में वह चक्कर काटती थी, वह कैसा था, आज प्रभाकर को देखकर उसकी समझ में आया। वह बड़प्पन कितना बड़ा छुटपन है, राजा साहब के बर्ताव से परिचित हुआ। प्रभाकर को न देखने पर वह समझ न पाती कि आदमी की असलियत क्या है। आजकल जैसे उस छुटपन वाले बड़प्पन से उसका छुटकारा न था। आज के परिवर्तन के साथ प्रभाकर का प्रकाश उसके दिल में घर करता गया। खेल और मज़ाक़ दिल नहीं। किसी को बनाना और किसी को बिगाड़ना दिलगीरी नहीं, सौदा है। जो कुछ भी अब तक उसने किया वह एक बचत थी। असलियत क्या थी, कहाँ थी, वह नहीं समझ पायी। आज भी नहीं समझी। सिर्फ उसे दिल नहीं माना। टूटी जा रही थी। असलियत असलियत से मिल गई। प्रभाकर की जैसी शालीनता उसने किसी में नहीं देखी। जो बातचीत सुन चुकी है, उससे अगर इस आदमी का तअल्लुक है तो ग़जब है यह आदमी -'स्वदेशी !'

एजाज रहस्य मालूम करने के लिए उतावली हो गई। प्रभाकर ने जो गाना गाया, उसमें प्रदर्शन न था, किसी की परवा नहीं, फिर भी किसी से नफ़रत नहीं। यह अच्छा गाना जानता है, पर अच्छों का प्रभाव नहीं रखता। गाने के संबँध में चढ़ी रहकर भी एजाज चढ़ी न रह सकी। राजा साहब से जो दुराव हुआ था, वह उनके प्रभाकर के लिए हुए प्रेम के कारण था। अब वह एक हार बनकर रह गया। उसको खुशी हुई-'एक कुंजी उसके पास भी है।'

अपमान को भूलकर उसने राजा साहब से कहा, बड़ा रूखा-रूखा लग रहा है- "मत्रकशी?"

"क्या बुरा?"

राजा साहब जो बाज़ी लगा चुके थे, वह प्रभाकर को बाहर का आदमी नहीं समझ सकती थी।

एजाज का इशारा मिलते ही गुलशन शीशा और पैमाना ले आई। उसी तरह ढालकर एजाज को दिया। एजाज ने राजा साहब को। प्रभाकर के लिए लेमनेड आया। एक प्याला पिलाकर दूसरा भरा, तीसरा भरा। राजा साहब खाली करते गए। एजाज भी साथ देती गई। पूरा नशा आ गया। भोजन की थाली आने लगी। तीनों भोजन करने लगे।

"प्रभाकर बाबू से तो गहरे तअल्लुक़ात हैं।"

"हाँ।" राजा साहब ने कहा।

"हमारे कौन-कौन से फायदे आपसे हैं, हमें मालूम हो तो हम भी साथ हो जाएं। बात हम तीनों की है। हमारी मदद काम कर सकती है।"

"इसमें क्या शक।"

प्रभाकर ने मधुर स्वर से पूछा, "आपके जमींदारी है?"

राजा साहब को प्रश्न बहुत अच्छा लगा। वह स्वयं इतना साधारण प्रश्न नहीं कर सकते थे।

एजाज को जवाब देते हुए झेंप हुई। कहा, "अब हमें आप लोगों के सवाल का जवाब देना पड़ता है। पहले हमीं जवाब लेते थे। आते-जाते हमी पहले बोलते थे। हिंदू जवाब देते थे।"

"इसी डर से हमने हुजूर से बातचीत नहीं की कि हुजूर खुद पूछे।" राजा साहब ने चुटकी लेते हुए कहा।

"ऐसी बात का हमें कोई खयाल न था !"

"कुछ तो होगा ही।" राजा साहब डटे रहे।

"वह बहुत अनुकूल नहीं।"

"हमारे?"

"हाँ।"

"आपके?"

"राज देते रहें तो सरकारी तौर से हो सकती है।"

"राज तो आपने हमें दे दिया।"

एजाज प्रभाकर को देखती रही। प्रभाकर ने कहा, "अब हमारा फ़र्ज़ है, हम आपकी सेवा करें। अभी इतना ही कि हम स्वदेशी।"

"इस राज से हमारी सरकार के यहाँ क़द्र बढ़ सकती है।"

राजा साहब की आँखें झप गईं-'इससे दिल का हाल नहीं कहा।'

एजाज प्रभाकर से सुनने के लिए बैठी रही। प्रभाकर ने कहा, "मैं स्वदेशी का सक्रिय हूँ। सूत, चरखा, करघा, कपड़े तथा ग्रामीण वस्तुओं के प्रचलन का बीड़ा उठाया है। काम करता हूँ। राजा साहब की सहानुभूति है।"

- "जमींदार छोटे-मोटे हम भी हैं। आपसे हमारा स्वार्थ है, हम समझते हैं। हमारे यहाँ एक डाट लगा दी गई है। हमसे आपका उपकार हो सकता है। कुछ राज हमें काम करने के लिए दीजिएगा।"

राजा साहब बहुत खुश हुए। कहा, "हमारा एक ही रास्ता है।"

"हम बातें आपसे नहीं कर सकते, आज्ञा है। आपने जो कुछ कहा है, उसका कुछ प्रमाण भी हमें चाहिए। यहाँ हम कपड़े के केंद्र मजबूत करेंगे। व्यवसाय बढ़ाएँगे। आपको अर्थ और अनर्थ के संबंध में काफी जानकारी है।"

"उस तरफ से तो कुछ मिलेगा नहीं।" एजाज ने कहा।

"इस तरफ का भी कुछ न जाना चाहिए। इतना खयाल रखिए, उनके आने के दिन की बातचीत मिल जानी चाहिए।"

"मिलेगी। जमींदार तो हम भी हैं, इतना काफी है। कोई दूसरी मदद?"

"क्या पार्टी को दस्तखत करके नाम दे सकती हैं?"

"यह सोचूँगी, शायद नहीं। पहले की बात होती तो हिम्मत बाँधकर देखती।"

"पुलिस या खुफ़िया का राज यहाँ का है या कलकत्ता का?"

"कलकत्ता का।"

"एक आदमी यहाँ आया है, आपको बता रहा हूँ।" प्रभाकर ने यूसुफ के चेहरे का वर्णन किया।

"ऐसा ही आदमी वह भी था। पहले-ही-पहल आया था।" एजाज ने कहा।

"आपको यह आदमी कहाँ मिला?"

"गेस्ट-हौस में।"

"किसी दूसरे ने भी देखा?"

"हाँ, उसने देखा जो हमारे साथ है।"

एजाज ने बड़ी-बड़ी आँखें निकाली।

राजा साहब ने खिदमतगार को भेजा। कुछ ही अरसे में दिलावर आया। भीतर बुलाकर राजा साहब ने पूछा, "आपके पीछे किसी को देखा?"

"राज मिल गया है। बाजार में ठहरा है। बाहर का आदमी है।"

"जहाँ-जहाँ जाए, आदमी लगा रक्खो, देखे रहे, मालूम कर ले, असली कौन है।"

"जो हुक्म।" कहकर दिलावर बैठक छोड़कर चला।

"हमारे लिए अच्छा होगा, अगर आप कलकत्ता चली जायँ, आप इस तरह हमारी ज्यादा मदद कर सकती हैं। यह आदमी आपके कारण आया है। क्या राजा साहब यह बतलाएँगे कि हमारा राज किसी को उनसे नहीं मिला।"

"नहीं, नहीं मिला। इनसे हम कहते, लेकिन दूसरे की बात है, इसलिए नहीं कहा।"

"हमें इसका दुःख नहीं।" एजाज दृढ़ हुई।

"हमारी किस्मत।"प्रभाकर ने कहा, "यह आदमी आपके लिए (एजाज की ओर उँगली उठाकर) आया है। यहाँ इसका कोई आदमी होगा। मुझसे मैनेजर का नाम लिया, मगर मैनेजर से इसकी जान-पहचान भी न होगी।"

राजा साहब सीधे होकर बैठे। प्रभाकर कहता गया, "जिस तरह भी हो, आप-लोगों में किसी से कोई आदमी मिलेगा। अब होशियारी से चलना है।"

राजा साहब चौंके।

"इसलिए कुछ रोज़ जाने की बात न करें। लेकिन जाना बहुत ज़रूरी है। नसीम यहाँ नहीं। इस मामले की वही मुखिया है।"

"यानी?" प्रभाकर ने पूछा।

"अभी हमारी चड्ढी नहीं गठी। यह राज बाद को। आपका असली नाम प्रभाकर है?"

"मैं प्रभाकर हूँ। और मैं कुछ नहीं जानता।"

'आप कलकत्ते में मुझसे मिलेंगे?"

"प्रभाकर ही आपसे मिलेगा।"

राजा साहब को ताल कटती हुई-सी जान पड़ी। हृदय में कोई रो उठा, मगर बैठे रहे।

प्रभाकर ने बिदा माँगी। देर हो गई थी। उसके साथी अभी छूटे हुए थे। रहने के लिए उन्होंने संभवतः दूसरा कमरा दूसरे मकान में लिया हो। एक तरह से पकड़ा जाना ही समझना चाहिए। प्रभाकर सोचकर बहुत घबराया।

राजा साहब ने पालकी मँगा दी। प्रभाकर बैठे। राजा साहब ने अतिथि भवन में रखने की आज्ञा दी। दूसरे दिन सबेरे जगह पर भेजने के लिए कहा। दिलावर ने सुन लिया। प्रभाकर ने कहा, "मैं पता लेकर ही जाऊँगा। ये मेरी पूरी मदद करें। ऐसी आज्ञा दे दीजिए।"

राजा साहब ने दिलावर को बुलाकर हुक्म दे दिया।

एजाज के मन से संसार का प्रकट सत्य दूर हो गया। कल्पनादर्श में रहने की आकांक्षा हुई। प्रभाकर का ऐसा व्यक्तित्व लगा जैसा कभी न देखा हो। इसके साथ जिंदगी का खेल है, खिलाफ मौत का सामाँ।

अठारह

रुस्तम बहुत खुश थे कि रानी साहिबा ने उन्हें जमादारी दी। जटाशंकर जान बचाने के लिए रुस्तम की जगह पहरा दे रहे थे। राजाराम रहस्य का भेद न पाकर खामोश हो गया। दूसरे पहरेदारों ने सुना और रुस्तम के तरफदार हो गए। जटाशंकर यह उड़ाए हुए थे कि वे शौकिया सिपाही का काम नहीं कर रहे। जल्द रुस्तम पर आफ़त आती है और ऐसी कि संभाली न संभलेगी। तीनों पहरों के सिपाही जो मौके पर नहीं थे, तरह-तरह की दीवार उठाते और ढहाते रहे।

सुबह का वक्त। रुस्तम कुर्सी पर बैठे थे। मुन्ना आई। राजाराम के सामने कहा, "रानीजी की सलामी दो।"

रुस्तम झेंपा। बोला, "रानीजी यहाँ कहाँ हैं?"।

राजाराम तनकर देखने लगा। तंबू के उसी सिपाही को पुकारकर कहा, "देख लो, जमादार का हाल।"

मालखाने से जमादार जटाशंकर भी तद्गतेन मनसा देखने लगे।

मुन्ना ने कहा, "सलामी नहीं देते तो जमादारी से बरखास्त किए जाओगे।"

रुस्तम घबराया। उठकर झेंपकर सलामी दी। देखकर मुन्ना ने कहा, "एक दिन में तुम्हारी चर्बी बढ़ गई। जमादारी के लिए तुमने कहा था, जमादारी तुमको दी गई। लेकिन तनख्वाह तुम्हारी वही रहेगी।"

राजाराम और तंबूवाला सिपाही हँसा। तंबूवाले ने कहा, "जमादार साहब ने इतनी मिहनत से चोर पकड़ा, जमादारी मिली, लेकिन अब तो कुछ और ही बात जान पड़ती है।"

मुन्ना ने कहा, "रानीजी की इच्छा। जमादार जटाशंकर को उन्होंने सिपाही बना दिया, लेकिन तनख्वाह वही रखी। आज हुक्म हुआ है, जमादार को 20) का इनाम मिले, क्योंकि काम बहुत अच्छा किया।"

राजाराम ने अपनी तरफ से समझा और खुश होकर दोमंजिले के मालखानेवाले पहरेदार जमादार जटाशंकर को, जो आँगन की ओर खड़े थे, आवाज लगाकर कहा, "जमादार, कैसा सच्चा फैसला आया है !" तंबू वाला, रुस्तम का तरफदार, कुछ न समझा। आवाज बैठाकर कहा, "बड़े आदमी का फैसला बड़े आदमी जाने।"

"अगर सही मानी में तरक्की चाहते हो तो चलो उठकर।" मुन्ना ने कहा। रुस्तम उठकर चला। जीने पर मुन्ना ने कहा, "अगर खजाने में उसी वक्त चोरी हो गई हो तो छाँट दिए जाओगे या बचोगे?"

रुस्तम उछलकर सहम गया, "ऐं !"

"रानी के हथकंडे हैं, कुछ समझता भी है? जैसा-जैसा कहा जाए, कर।" कहकर मुन्ना ने पाँच रुपए का एक नोट निकालकर दिया। शरमाकर रुस्तम ने ले लिया, कहा, "बस?"

मुन्ना ने कहा, "काम तुम्हारा चार आने का भी नहीं। जब काम पसंद आएगा, नब। यह तुंबा-फेरी किसलिए हो रही है, यह न तुम जानते हो, न हम। यह सिर्फ़ रानीजी को मालूम है। चलो, अभी तुमसे बहुत काम है। अपनी वर्दी पहनो, अब तुम फिर सिपाही के सिपाही।"

जमादार जटाशंकर ने वर्दी उतार दी। रुस्तम ने खीस निपोड़कर पहनते हुए कहा, "जमादार, जो कुछ भी आपने किया, आप समझें; जमादारी में आपसे हमने सलामी ली, इसका ख्याल न करें, मुआफ कर दें।"

जमादार खुश हो गए। कहा, "यह राजा-रानी का खेल है। कभी घोड़े पर चढ़ना पड़ता है, कभी गधे पर।"

मुन्ना ने कहा, "चलो।" कुछ आगे बढ़कर तीस रुपए दिए। कहा, "दस राजाराम को दो और बीस तुम लो। रानीजी ने इनाम दिया है।"

रुपए लेकर जटाशंकर ने कहा, "लेकिन वहाँ ताला टूट गया होगा, तो क्या होगा?"

"देखो, जमादार, तुम्हारे पास बचत है, तुम्हारे पास एक ही कुंजी रहती है। दूसरी कुंजी कहाँ से आई, खजानची से पूछोगे तो नौकरी जाएगी। खजानची भी क्या जाने? वह ख़ज़ाने का ताला तोड़वाएगा? जिनका रुपया है, वे ऐसे निकालें या वैसे; किसी का क्या?"

"यह भी ठीक है।"

"चुपचाप बैठे रहो। अब चढ़ाई होगी।"

"चढ़ाई क्या?"

"रानीजी की विजय।"

"उनकी तो विजय ही है।"

उन्नीस

मुन्ना खजानची खोदाबख्श के यहाँ गई। दूसरी औरत से खजानची का तअल्लुक कराकर, दूसरे मर्द से रिश्वत दिलाकर, 'एक औरत से उसका तअल्लुक हो गया है उसकी बीवी से कहकर लड़ाकर, बिगड़ाकर, राजा साहब के नकली दस्तखत से 'इंप्रेस्ट से रुपया निकलवाकर, गवाह तैयार करके मुन्ना ने खजानची को कहीं का न रखा था। उसको पुरस्कार भी मिलता था। इन कामों में रानी साहिबा का हाथ था। धीरे-धीरे रानी का प्रेम घनीभूत किया गया। दो-एक बार रात को कोठी में बुलाकर खिलाया पिलाया गया। खजानची की कल्पना दूर तक चढ़ गई। रानी का चरित्र जैसा था, उससे उन्हें जल्द सफल होकर राज्य करने में अविश्वास न रहा।

कुंजी देते हुए मुन्ना ने कहा, "रानी साहिबा ने कहा है, अब तुम यहाँ तक आ गए।" कहकर उसने अपनी छाती पर हाथ रखा।

खोदाबख्श खुश होकर बोले, "मेहरबानी !"

मुन्ना ने कहा, "आप आज ही जाइए और हिसाब लगाकर मुझे बताइएगा, मैं राह पर पीपल के नीचे मिलूँगी, कितना रुपया निकाला गया। आपको तो मालूम है, काम दूसरे से कराया जाता है, हिसाब दूसरे से लिया जाता है। जिसने रुपया निकाला वह खा नहीं गया, मालूम हो जाएगा। फिर उसी तरह बिल बनाकर जरूरी लिखकर सही करा लीजिए। रानी साहिबा वह बिल देखकर वापस कर देंगी। एकाउंटटेंट के पास बाद को भेज दीजिए। काम हो जाने पर इनाम मिलेगा।"

कहकर मुन्ना लौटी। खजानची देखते रहे। सोचते रहे। उनसे नोटों-वाले संदूक की कुंजी ली गई थी। अंदाजन दो लाख रुपया था। सोचकर काँपे। दो लाख रुपए का जाल। इंप्रेस्ट से हजार-पाँच सौ रुपए निकाल लेना बड़ी बात नहीं। एकाउंटेंट को शक नहीं होता। दो-दो लाख का बिल ! इतना रुपया तो मालगुजारी के वक्त ही जाता है।

मुन्ना ने यह रुपएवाला जाल अपनी तरफ से किया था। रानी साहिबा को इसकी खबर न थी। बुआ को झुकाने के लिए उन्होंने आज्ञा दी थी कि किसी सिपाही या जमादार से फैमा दी जाए, कुंजी उनके हाथ में रहे; लेकिन मुन्ना ने लंबा हाथ मारा।

खजानची ग्यारह बजे के करीब खज़ाने आए। जटाशंकर बैठे थे। ख़जाने में उस समय राजाराम का पहरा बदल चुका था। रामरतन था। उसने बहुत तरह की बातें सुनी थीं। पर वह आदी था। खड़ा रहा। खजानची ने वही संदूक खोला। संदूक में एक भी नोट न था। संदूक का बीजक निकालकर देखा, दो लाख तेरह हजार के नोट थे।

जटाशंकर तके हुए थे। रामरतन पहरे पर टहल रहा था। क्या हो रहा है, क्या नहीं, इसकी उसको खबर न थी। खजानची ने चुपचाप बीजक निकालकर जेब में किया और संदूक में ताली लगाई, फिर बाहरवाला ताला लगाया। जटाशंकर फाटक की आड़ से साधारण भाव से देख रहे थे। सिपाही चौंका, पर सँभलकर टहलने लगा।

खज़ानची ताला लगाकर चले। पीछे-पीछे जटाशंकर हो लिए। खजानची घबराए हुए थे। जटाशंकर के लिए इतना काफी था। अभी तक कोई पकड़ उन्हें न मिली थी। खजाने से कुछ दूर निकल जाने पर खजानची ने उन्हें देखा, घबराहट को दबाकर पूछा, "क्यों जमादार, क्या बात है?"

जटाशंकर ने जवाब नहीं दिया। ख़ज़ानची की जेब पकड़ ली। "हाथ पैर हिलाए कि उठाकर दे मारा और हड्डी-हड्डी अलग कर दी।" गरजकर कहा।

"यहाँ तुम्हारा क्या है?"

"यहाँ हमारी रोटियाँ हैं और आपकी भी।"

"हम पर हाथ उठाने का नतीजा मालूम होगा?"

"बहुत अच्छी तरह।"

"जबान हिलायी तो..."

"चुप रहिए।"

"हम वही जिन्होंने रानों के नीचे रखा और सदियों। यहाँ कुछ ऐसा ही।"

जटाशंकर फौजी आदमी थे। धोखे-पर-धोखा खा चुके थे। ताव आ गया। चाहा कि उठाकर पटक दें। लेकिन सँभल गए। कहा, "खजानची साहब, हमको यही हुक्म है। आप तो अब वही हैं। सलाम।"

खजानची ने कहा, "रा..."

"हुजूर, निकालनेवाले तो हमी हैं। यह फर्द हमको दे दीजिए।"

"उन्हीं का हुक्म?"

"हुजूर ! लेकिन उससे न कहिएगा, और आगेवाली कार्रवाई पहले हमसे। यहाँ भी तो एक कुंजी रहती है?"

"हाँ, हाँ, ठीक है। यह लो।" खजानची ने बीजक दे दिया। देना नहीं चाहते, हाथ काँपा ! पर काँटा ऐसा ही था। सोचा, "रुपए इसी ने निकाले हैं। दो आदमियों के सामने कहला लेना है।"

जटाशंकर ने बीजक लेकर कहा, "इसकी बात उससे मत कहिएगा, नहीं तो हम पकड़ जाएंगे। उससे यह मालूम कीजिए कि कहाँ रखा है? आपसे कहे देते हैं कि निकालकर हमने दिए।"

"तो वे पहुँच गए।"

"कितने लिखे हैं? बताइए, नहीं तो हमें पकड़वाना पड़ेगा।"

"दो लाख तेरह हजार। जमादार, बहुत नाजुक मामला है। भेद न खुले। तुम्हें भी मिलेगा।"

"आगेवाली लीपापोती भी हमें मालूम होनी चाहिए। रुपया रखा कहाँ है, पूछ लीजिएगा, नहीं तो हम पुछवाएँगे। कल हुजूर इसी वक्त ख़जाने में तशरीफ ले आने की मिहरबानी करें, नहीं तो रा--के पास मामला दायर होगा। खूब ख़याल रहे (बीजक दिखाकर) इसका हाल किसी से कहिएगा तो बचिएगा नहीं। हमीं-आप तक इसका भेद है।"

"यह तै रहा। लेकिन तुम भी इसका जिक्र न करना।"

"हुजूर का मामला, जिक्र किससे किया जाएगा?"

जमादार राजा को संबोधन कर रहे थे, खोदाबख्श अपने को समझते थे। सलाम करके जमादार वापस आए, ख़ज़ानची आगे बढ़े। पीपल के चबतूरे पर मुन्ना बैठी थी। देखकर मुसकराती हुई सामने आई। "कितनी है?" होंठ रंगकर पूछा।

"पाँच लाख।" खजानची ने छूटते ही कहा।

मुन्ना ने अंक मन में दोहराए।

"तो जल्द बिल तैयार हो जाना चाहिए। राजा साहब के दस्तखत बनाकर एकाउंटेंट के पास पहुँचा दिया जाना चाहिए।"

खजानची मन में कुढ़ा। सोचा, इस बेवकूफ़ को कौन समझाये, दो-दो, ढाई-ढाई लाख रुपए, ज्यादा रुपए होने पर छिपा रखने के सिवा, सीधे रास्ते से हज्म नहीं किए जा सकते। वे राजा की निगाह पर आएँगे। बिल जाली बना लिया जा सकता है, पर खर्च का मेमो राजा की नजर से गुज़रेगा। इम्प्रेस्ट का रुपया एक साथ मेमो बनकर निकलता है घर के खर्च के लिए। उससे हज़ार-पाँच सौ साल-छः महीने में निकाल लिया जा सकता है। उसके बिल सही होकर एकाउंटेंट के पास भेजे जाते हैं तो कैश-लेजर कर लिया जाता है, उसका अलग से मेमो में उल्लेख नहीं आता।

खुलकर खज़ानची ने कहा, "अच्छी बात है," फिर पूछा, "रुपए रानी साहिबा के पास पहुँच गए?"

"उसी वक्त," स्वर को मुलायम करके मुन्ना ने कहा, "नहीं तो रखे कहाँ जाएंगे?"

"बिल बनाकर अकोंटेंट के पास भेजने के लिए क्या रानी साहिबा ने हुक्म दिया है?"

"हमसे सवाल करने के क्या मानी? हम जैसा सुनते हैं, वैसा कहते हैं।"

"अच्छा तो उसी तरह बिल भेज देंगे।" खजानची को अँधेरा दिखा। वह रास्ता काटकर चले।

मुन्ना को जान पड़ा, कुछ बिगड़ गया। कुछ अप्रतिभ हुई। मगर फिर चेतन होकर कहा, "आप इतना नहीं समझते जब लोहे के संदूक से नोट गायब हो सकते हैं, तब बाकी कार्रवाई भी हो सकती है।"

"कैसे?"

जैसे आपसे कुंजी ली गई।"

"वैसे ही मेमो पर राजा के दस्तखत करा लिए जाएंगे और पाँच लाख रुपए के एक खर्च पर?"

"जहाँ पाँच लाख की चोरी होती है, वहाँ एक लाख की कम-से-कम रिश्वत होगी, और इस रक़म से काम न हो, ऐसा काम अभी संसार में नहीं रचा गया।"

"यह तो हम समझे, लेकिन मेमो पर राजा के दस्तखत कैसे होंगे?"

"मेमो क्या है?"

"जिस पर बिल के रुपए लिखे जाते हैं।"

"राजा की सही हो जाने पर ये रुपए दर्ज कर दिए जाएंगे।"

खजानची खुश हो गए। कहा, "हाँ, ऐसा हो सकता है लेकिन वहाँ भी लगाव होगा।"

"राज्य रानी का भी है, लगाव सबसे है, जो उनका काम करेंगे, उन पर वे मिहरबान रहेंगी।"

"अच्छी बात है; अब कुल कार्रवाई कर ली जाएगी, लेकिन एकाउंटेंट समझ जाएंगे।"

"कौन समझेगा, कौन नहीं, इसकी चिंता व्यर्थ है।"

"यह भी ठीक। हमें क्या मालूम, कौन-कौन नेक नज़र पर हैं।"

मुन्ना ख़ज़ानची की नुकीली दाढ़ी देखती रही। खजानची ने खुश होकर रास्ता पकड़ा।

बीस

यूसुफ के पीछे तीन आदमी लगाए गए। होटल में यूसुफ ने कलकत्ते के एक मित्र का पता लिखाया था। रात को प्रभाकर अपने मित्रों की तलाश में बाजार में गए। पालकी के अंदर बैठे रहे। पालकी के दरवाजे बंद। दिलावर ने साथियों के साथ यूसुफ का पता ला दिया। बाजार के लोगों पर राजा के लोगों का प्रभाव था। जिस कमरे में सामान था, उसमें प्रभाकर के साथी नहीं मिले। प्रभाकर लौटे। अतिथिशाला के कमरे में आकर पूछा, "बाजार में रहने के कितने होटल हैं?"

दिलावर ने कहा, "सिर्फ तीन।"

और कोई रहने की जगह है?"

"और रंडियों के मकान हैं।"

निश्चय करके प्रभाकर ने पूछा, "क्या नाम इस आदमी ने लिखाया है?"

"शेख नजीर।"

कलकत्ते का पता दिलावर ने लिखा लिया था। प्रभाकर ने कहा, "सावधानी से इस आदमी का पीछा किया जाना जरूरी है। वहाँ तीन आदमी जाएँ। एक पहले ही उस पते पर पहुँचे। साथ वकील और पुलिस का अच्छा आदमी, कम-से-कम इंस्पेक्टर होना चाहिए। हम चिट्ठी देंगे, वकील आदमी ले लेगा। इस पते का आदमी अगर यह नहीं, तो वह मिलेगा। इसके पहुँचने के पहले वहाँ पहुँचना चाहिए। यह भी बाद को वहाँ जाएगा, और यह कहेगा कि वह स्वीकार कर ले कि वह यहाँ आया। तुम समझे?"

"हाँ, लेकिन यह अगर कहकर आया होगा तो सब-का-सब गुड़-गोबर हो जाएगा। बड़ा नीचा देखना होगा। वह इसी का नाम बतलाएगा, या नहीं मिलेगा। यह सरकारी आदमी है, वह भी होगा। इस तरह न बनेगा। अभी आप कच्चे हैं, बाबू। हम होटलवाले से कह आए हैं, कल वह इनसे इनके एक रिश्तेदार का नाम पूछेगा, अपने मन से पूछेगा, जैसे साले का नाम या मामू का या मौसी का। इन्हें जवाब देना होगा, अगर जवाब न दिया तो कहा जाएगा कि ये राजा के सिपुर्द किए जाएंगे। ये गलत नाम बतलाएँगे। इस तरह यहीं गवाही पक्की हो जाएगी। फिर कलकत्ते का हाल हम मालूम कर लेंगे। राजा भी सरकार के हैं। अगर इन्होंने बात न मानी तो इनसे इतने सवाल किए जाएंगे कि होश फाख्ता हो जाएंगे।"।

दिलावर की बातों से प्रभाकर को खुशी हुई। सिर झुका लिया। कहा, "आप लोगों से बहुत सीखना बाकी है।" मन में कहा, "काम उस तरह भी पक्का था, झूठ से कहाँ बचाव है?"

"बाबू, आपकी शराफत के हम क़ायल हो गए। आप हमें अपने आदमी मालूम होते हैं। हमीं आपके साथ रहेंगे। छोटी-सी तनख्वाह में ऐसी गिरह लगानी पड़ती है, नहीं तो लोग बिना शहद लगाए राजा को चाट जाए। अब आप आराम कीजिए।"

प्रभाकर लेटे। रात का तीसरा पहर बीत रहा था।

सबेरे होटलवाले ने यूसुफ से एक रिश्तेदार का नाम पूछा। यूसुफ चौकन्ने हुए। मगर मामला तूल पकड़ जाएगा सोचकर अपने रिश्तेदार का नाम बतलाया। होटलवाले ने यूसुफ के दस्तखत कराए। यूसुफ ने बिगाड़कर दस्तखत कर दिए। फिर कलकत्तेवाले जहाज़ के लिए रवाना हुए। खबर लेकर उनके पीछे तीन आदमी लगे। बहुत से यात्री थे। उन्हें मालूम नहीं हो सका, कौन उनकी गरदन नाप रहा है।

कलकत्ते में उतरने के साथ उन्होंने अपने नाम के साथ जो पता लिखा था, उस पर पहुँचने के लिए एक आदमी तीर की तरह छूटा। पहले दरजे की बग्घी किराए की की और जल्द चलने के लिए कहा। उसके दो साथी, रास्ते पर यूसूफ को तीसरे दरजे की टूटी बग्घी ठहराते हुए देखकर, पूछताछ करने लगे, "कहाँ जाना है-जनाब कहाँ से तशरीफ ले आए?" मतलब जवाब लेना नहीं, रोके रहना था। यूसुफ सस्ते भाव चढ़ना चाहते थे, जल्दबाजी नहीं की। एक बग्घीवाले से तै न हुमा, दूसरे के पास चले।

आगंतुकों ने स्थान का नाम न सुना था। जरा देर करके आए थे। वे दूसरे के पास गए, साथ-साथ यह भी गए।

यूसुफ ने कहा, "तालतला?"

"हाँ, बाबू।" बग्घीवाले ने जवाब दिया।

"क्या लोगे?"

"डेढ़ रुपया।"

"वह क्या है थोड़ी दूर पर। डेढ़ रुपया बहुत है। ठीक-ठीक बतलाओ।"

"अरे साहब, हम भी साथ हो जाएंगे, क्या बुरा है? तै कर लीजिए। आप बड़े आदमी हैं। पीछे बैठिए। हम आगे, पिछोड़े रहेंगे। आधा आप दीजिए, आधा हम।"

बात यूसुफ को जँच गई। पूछा, "आप लोग भी वहीं चलेंगे?"

'जी हाँ," एक ने कहा, "कुछ दूर और चलना है। पैदल चले जाएंगे।" "कहाँ से आ रहे हैं?"

"उलूबड़िया से।"

एक साथी मुसलमान था। यूसुफ मान गए। गाड़ी तै की। सवा रुपए की ठहरी। तीनों बैठे। मुसलमान दोस्त असल में हिंदू था, फ्रेंचकट दाढ़ी रखाए हुए। चुपचाप बैठ रहे। गाड़ी चलती गई।

पहले के गए हुए आदमी ने राज ले लिया। यूसुफ उससे कहकर नहीं गए। बतलाने जा रहे थे। राज लेकर और यह कहकर, "आप फँसाए गए हैं अपने किसी दोस्त से, उन्होंने अपने नाम की जगह आपका नाम लिखाया है और किसी मामले में फँस गए हैं; मगर आप हमारे पूछने का राज उन्हें न दीजिएगा, वे कहाँ गए थे, क्यों गए थे, किससे-किससे मिले थे, आगे का क्या इरादा है, उनसे दोस्त की हैसियत से मालूम करके हमें बतला दीजिएगा, तो बच जाइएगा, कुछ फायदा भी होगा, वे कोई हों, एक आदमी हैं, अपने को पहले बचाएँगे, सरकारी आदमी खास तौर से आपको फँसा देंगे और खुद पर मारकर अलग हो जाएंगे। याद रखिएगा। हम आपसे फिर मिलेंगे।" यह कहकर वह आदमी अलग हो गया। दूर चलकर खड़ा हुआ। बातचीत हो चुकी थी कि यह आदमी अगर उधर जाएगा तो पीछा करनेवाले साथी दो घंटे के अंदर उस जगह पहुँच जाएंगे। यह साथी दो घंटे तक प्रतीक्षा करेगा। यह पढ़ा-लिखा मुसलमान था।

यूसुफ तालतल्ले पहुँचे। गाड़ी रोकी। दोनों साथी आधा दाम देकर उतर पड़े और सलाम-वालेकुम करके चल दिए। तीसरा साथी प्रतीक्षा कर रहा था। तपाक से मिला। पूछा, "वह कहाँ है?"

"साथ आया है।" एक ने कहा।

"राज मिल गया।"

"फँस जाएगा?"

अब इसको कौन छोड़ता है?"

"यहाँ जड़ जमानी पड़ेगी?" एक ने पूछा।

"मानी बात है।" उस मुसलमान साथी ने कहा।

"गुंजाइश है?"

"बहुत।" पहलेवाले ने कहा।

"तुम्हारी किस्मत खुल गई।"

"मुमकिन, गहरी रकम हाथ आए।"

इक्कीस

"भाई नजीर !" यूसुफ ने पुकारा।

नजीर बैठे थे। अभी ही फुर्सत मिली थी। सोच रहे थे। कहनेवाले आदमी की बात पक्की मालूम हो रही थी। घबराए भी थे। गरीब थे। यूसुफ की दोस्ती से फायदा न हुआ था। कटने की ठान ली। आवाज पहचान कर उठे। दिल से नफरत थी, मगर मुस्कराहट से होंठ रँग लिए। थानेदार की निगाह से निगाह भी नीची रखी।

"अस्सलामवालेकुम्।"

"वालेकुम् अस्सलाम।"

"भाई, तुम्हारा नाम एक जगह लिखाया है।"

"किस जगह?"

"तुम पुलिस से राज लेने लगे।"

"क्या हमसे पूछा गया?"

"यह बातचीत तो पहले हो चुकी है।"

'इसका यह मतलब नहीं कि हम खुदा के लिए मुसलमान न रह जाएँ।

"इस दफे के लिए मान जाओ।"

"आप पूरा-पूरा हाल बयान कीजिए, वरना..."

"वरना?"

"हाँ।"

"वरना आप सरकार से बदला चुका लेंगे।"

"नहीं, चुकवा लूँगा।"

"तुम तो बहुत बिगड़े।"

"बात भी कोई बनायी?"

"बात तो बनायी?"

"बातें बनाते हैं।"

"अच्छा तो जो जी में आए कर लो," कहकर थानेदार साहब ने नकली ठहाका लगाया।

"मैं मज़ाक नहीं कर रहा।"

थानेदार साहब गर्म पड़े। कहा, "ऐसा भी होगा कि हम तुम्हारा दिल देख रहे हों और असलियत कुछ हो ही नहीं।"

"मुमकिन।" नज़ीर के स्वर में निवेदन न था।

"अच्छा तो आख़िरी बात। अगर आप नहीं माने तो आज ही आपका चालान करा दूँगा।"

नज़ीर घबराए। कहा, "हमारी बात और हमें मालूम भी न हो, क्या तमाशा है।"

"अच्छा तो आप तैयार रहिए।"

"आप भी तैयार रहिए।"

थानेदार घबराए। अज़ीज़ी से कहा, "पुलिस राज दे देती है तो उसका बल घट जाता है। काम हासिल नहीं होता। आप मान जाइएगा तो वक्त पर मीठा फल खाने को मिलेगा। नहीं माने तो हाथ मलते रह जाइएगा।"

"पर हमें मालूम कर लेना है।"

यूसुफ हार गए। कहा, "हम एक जगह गए थे, जहाँ आपका नाम हमने लिखाया है।" फिर न बताया।

"कहाँ गए थे।"

यूसुफ ने एक दूसरी जगह का नाम बताया। कहा, "सरकारी काम था।"

"आप ऐसा कहते हैं तो हमारी छाती दूनी हो जाती है। फिर?"

"फिर और कुछ नहीं। यह याद रहे कि तुम्हारे मामू के तीन लड़के हैं, यह भी लिखाया है।"

"मेरे तो मामू ही नहीं। खुदा के फ़ज़ल से अब्बा जान के सालियाँ चार थीं, साला एक भी नहीं।"

"आपको हम बचाए हुए हैं, यह आप समझे या नहीं?"

"हाँ, यह तो है।"

"और आप नहीं गए, यह भी साबित है।"

"हां, यह भी।"

"आपको जिल्लत गवारा करनी पड़ी, इसका हमको अफ़सोस है।"

नज़ीर सिर झुकाये खड़े रहे। यूसुफ गाड़ी खड़ी करके आए थे। उधर को चले। विचार में नजीर को सलाम करने की याद न रही।

गाड़ी तै करके यूसुफ बैठे। गाड़ी चली। कुछ दूर पर एक दूसरी गाड़ी किराए पर ली हुई खड़ी थी। कुछ फासले से पीछे लगी वह भी चली।

यूसुफ के चले जाने पर नज़ीर के पास वही पहला आदमी गया। बुला कर पूछा। नज़ीर ने दीन भाव से कहा कि यूसुफ की उनसे तनातनी हो गई है, उन्होंने बतलाया नहीं, जो कुछ कहा-यह-वह करके, वह थानेदार हैं, उनसे जान-पहचान है, दूर के रिश्ते में आते हैं।

आगंतुक ने कहा, "आप हमारे आदमी हैं। इन्होंने आपको फँसा दिया है। हम आपको बचा लेंगे। कुछ रुपए भी देंगे। बाद को काम निकलने पर और मदद करेंगे। अभी आप एक चिट्ठी लिख दीजिए कि आपका यह नाम है, यह वल्दियत, इतने मामू हैं, और इसके इतने लड़के-यह-यह।"

नजीर ने, बात पक्की है, सोचा। गरीब थे। रुपए मिल रहे थे। दावात-कलम लेकर कुल बातें सामने लिख दीं।

आगंतुक ने उन्हें पच्चीस रुपए दिए । नजीर हर तरह से उसके आदमी बन गए। यूसुफ का पूरा-पूरा हाल आगंतुक को मालूम हो गया-वह कहाँ रहते हैं, उनके वालिद क्या करते हैं, आजकल क्या रुख है, किस कार्रवाई में लगे हैं।

आगंतुक वहाँ से राजा की कोठी आया। उसके साथी भी आए। उन्होंने घर का पता और बाप का नाम मालूम कर लिया था। सामने के पानवाले ने बतलाया था, दोनों जगहों की बातें मिल गईं। लोग खुशी-खुशी टहलते रहे। अली को देखा। अली ने पूछताछ शुरू की। लोगों ने कहा, "बर्दवान से आए हैं।"

अली ने पूछा, "बर्दवान में सुदेशो का आंदोलन कैसा है?"

"कौन सुदेशी?" एक ने पूछा।

"यही जो सरकार के खिलाफ बमबाजी हो रही है।"

"आप अखबार तो पढ़ते होंगे?"

"हाँ, हमने कहा..."

दूसरे ने कहा, "बमवाले हैं।"

"कौन?" अली ने कहा, "हमारे साहबजादे थानेदार हैं।"

तीसरे ने कहा, "हमारे मामू के साले के ससुर इंस्पेक्टर हैं।"

बाईस

प्रभाकर को जहाँ रखा है, उसी कोठी का पिछला हिस्सा है। दूसरी तरफ बुआ रहती थीं। प्रभाकर के दोमंजिले की छत, दूसरे छोर तक, बरगद और पीपल की डालों से छायादार है। भीतर, कोठों में, अँधेरा। इतना प्रकाश कि काम कुल हों। खुली तरफ खिड़कीवाला बाग। दूसरे किनारे मर्दों के लिए बड़ा जलाशय, गहरा, मछलियों की खान। किनारे नारियलों की कतार। दूसरी पर, आम, जामुन, कटहल, लीची, नारंगी, शहतूत, फ़ालसा, बादाम, रक्तचंदन आदि के पेड़। कहीं-कहीं गुलचीनी, गंधराज, अशोक, हींग,अनार, गुलाबजामुन, योजनगंधा।

खुली, हवादार खिड़कियों के एक बगल पलँग बिछा है, मशहरी लगी है। एक बड़ी मेज़ लगी है; काठ की; मगर अच्छी, कई कुर्सियाँ चारों ओर से रखी हैं। दो आलमारियाँ हैं जिनमें सामान, कपड़े और किताबें हैं। भीतर, दूसरी खमसार के रूप, बड़ी बैठक है। बत्ती से ही उजाला होता है। वहाँ प्रभाकर साथियों के साथ काम करता है। बैठक की दूसरी दीवार अकेली है, बड़ी खिड़कियाँ लगी हैं, खोल दी जाएं तो गुप्त कार्य दिखें, लेकिन पेड़ों की घनी छाँह है। फिर भी काम चल जाए, दिए जलाने की दिक्कत न रहे, पर, डाल पर चढ़े अजनबी से दिख जाने की शंका, प्रभाकर खिड़कियाँ बंद रखता है। जीने की तरफ के पहरे से, एक दूसरे आँगन के बरामदे से आने-जाने का रास्ता है। प्रभाकर के कमरे के छोर से तालाब को निकलने का एक बाहरी जीना है। पहले नीचे और ऊपर के दरवाजों में ताले पड़े रहते थे; लोहे के पात जड़े बाहरवाले और काठ के भीतरवाले में। यह उसका एकांत रास्ता है। घिर जाने पर पहरेवाले जीने से उतरने का दूसरा रास्ता है, फिर कई तरफ फूटी दालाने, आँगन से आँगन को चलनेवाली है।

वास निर्जन। निकलने और पैठने की राहें प्रभाकर देख चुका। सरोवर के दूसरी ओर मर्दाना बाग़ है, जिसमें तीन हजार पेड़। गढ़ की दीवार के दूसरी तरफ गाँव का रास्ता निर्जन। और भी राहें हैं। इससे वह एक रोज़ बाहर के लिए निकल चुका है। रासपुर, बड़ा गाँव, केंद्र है, चर्खे और करघे का काम होता है, जनता और जुलाहों में प्रचार भी। सभी कमकरों का दिल बढ़ा हुआ। स्वदेशी-प्रचार के गीत गाते हुए। काम करते हुए। प्रभाकर का व्याख्यान हुआ। निरीक्षक-जैसे गए थे। बहुत-से दूसरे केंद्र गए। फिर कलकत्ता चलने का बहाना बनाकर लौटे और रात को अपने प्रासाद-वास पर आए।

बंगाल और सारे देश में आंदोलन की चर्चा है। सैकड़ों की प्रांत में फैले हुए। संगठन और व्याख्यान और काम करते चले। विदेशी का बहिष्कार जोरों पर। जगह-जगह 'युगांतर' की छिपकर बातें। सुरेंद्रनाथ और विपिनचंद्र के व्याख्यानों की तारीफ़। अखबार रंगे हुए। वंदेमातरम् का पहला समस्वर आकाश को चीरता हुआ। गीत; भिन्न कवियों-गायकों के भी संगठन, काम; दिन-रात काम; एक लगन।

प्रभाकर नहाने चला। सरोवर पर पक्के घाट हैं, लंबान की दोनों पंक्तियों के बीचों-बीच दूसरा घाट निकट है। एकांत रहता है। कोठी के पिछले छोर से दूसरी तरफवाला घाट निकट पड़ता है। प्रभाकर उसी में नहाता है। कोठी के सदर फाटक की बग़ल में सरोवर का राजघाट है। उसमें लोग आते-जाते हैं। दोनों घाटों के चारों ओर मौलसिरी के पेड़ लगे हैं और काफी पुराने हो चुके हैं। बड़ी घनी छाया है। वैसी ही ठंडक भी।

प्रभाकर ने डुबकियाँ लगाकर स्नान किया। भीगे अँगोछे से बदन मला। हाथ-पैर रगड़े। कुल्ले किए। कुछ तैरा, कुछ खेला। इधर-उधर के दृश्य देखे, पानी से भीगी पलकों से कैसे दिखते हैं। फिर निकलकर धोती बदली, धोती धोयी और निचोड़कर, गीली धोती और तौलिया लेकर चला।

तेईस

ख़जांची खोदाबख्श, मुन्ना और जटाशंकर के पेट में पानी था। तीनों ने बचत सोची। तीनों के हाथ में पकड़ है।

जटाशंकर से मिलने का वक्त आया। ख़ज़ांची कलकत्ता और राज धानी एक किए हुए हैं।

दुपहर का समय। किरणों की जवानी है। हरियाली का निखार। मुन्ना कोठी की बग़लवाले रास्ते से गुजर रही है। रुपया रखा है, दूर से निगरानी रखती है। कई दफे वह अँधेरी कोठरी देखती है। सदर की तरफवाले घाट की बग़ल से, किनारे-किनारे जो सड़क दूसरे घाट को जाती है, उसी पर टहलती हुई। प्रभाकर को दूसरे किनारे से कोठी की तरफ चलते, फिर कोठी के भीतर चले जाते देखा। पेड़ों की आड़ है और सिंहद्वार से दूर है। अंदर महलवाली दासी के लिए कोठी के दूसरे किनारे तक बढ़ जाना, अंदेशे के वक्त, स्वाभाविक है। उसकी प्रभाकर पर नज़र पड़ी कि तेजी आई। चौकन्नी हुई। अपने में पूछा। किसी को उधर से जाते नहीं देखा। वहाँ जीना है, नहीं मालूम। कभी गई नहीं। कोठी का उधरवाला हिस्सा नहीं दिखा। प्रभाकर को किनारे से भीतर जाते देखा।

खजांची अभी नहीं आया। आएगा, कुछ ठहरकर चलेगी, राह पर मिलेगी। पूछना और काम लेना है। छिपी भी है, देखती भी है। यहाँ से सिंहद्वार और वह रास्ता नहीं देख पड़ता। अनुमान है, वक्त पर लौट पड़ेगी। सजग है-खजांची लौट न जाए।

खजांची बेचैन है। घटना घट चुकी। बीजक जमादार के हाथ पड़ा। परदा फ़ाश हुआ। बँध गए। सरकारी आदमी की शरण ली। काम कर रखने की ठानी। एजाज से बातचीत करानी है। राज लेना है। निचले वर्ग की औरत से मदद चाहिए। मुन्ना आँख के सामने आई। सहारा मिला। आखिरी हिम्मत बाँधी कि इस जाल से छुट जाएँ। सरकार की शिरकत के ख्याल ने पाया जमाया।

जटाशंकर से मिलना आवश्यक है, खजांची यथासमय आए। खजाने की तिजोरियाँ खोलीं, बीजक देखे। जटाशंकर भी खड़े हुए देखते रहे। चपरासी के संदूक बंद करने पर खजांची से जटाशंकर ने पूछा, "ठीक है?"

"ठीक है।" गंभीर अप्रसन्नता से ख़ज़ांची ने कहा। जटाशंकर सिपाही की गवाही तैयार कर रहे हैं। दोस्ती रही लेकिन बीजक छिन गया है। बस नहीं। फँसे हैं। बचकर चले।

जमादार काम ले गए, खजांची से उतरते-उतरते न सहा गया। कहा, "जमादार, क्या यह गवाही अलग से पेश होगी?"

सिपाही समझ गया। पूछा, "कैसी गवाही?" बातें इधर-उधर सुन चुका था। खजाने की बातचीत ने जड़ जमा दी। खजांची के सामने सिपाही ने कहा, "मैं समझ गया।"

तेज पडकर खजांची ने कहा, "नहीं सुना? हमने कहा, ठीक है।"

"बादवाली बातें भी?" सिपाही ने फिर सवाल किया।

जमादार ने कहा, "हम सधे होते तो पूछते क्यों? सवाल मत करो।"

मगर सिपाही का भूत न उतरा, शंका-समाधान न हुआ। छुटकारा भी न था।

खजांची ने निकलते हुए धीरज दिया, सब लोग एक ही राह से गुजरेंगे। जहाँ आपकी गवाही होगी, वहाँ हम भी होंगे।

सिपाही खड़ा रहा। जमादार और खजांची साथ निकले। रास्ते रास्ते निकल गए। सिंहद्वारवाले घाट से कुछ फासले पर एक कुंज में बातचीत करने लगे। मुन्ना ने देखा। छिपकर बातचीत सुनने के लिए, रास्ते के किनारे की मेंहदी की पेड़ों से बचती हुई पास पहुंची। खजांची से मिलने का मुकाम कुछ आगे है। जटाशंकर की नाड़ी छूट रही थी। पूछा, "क्या खबर है?"

खजांची ने कहा, "अभी दो रोज़ मत बोलो।"

"तब तो हमारी नौकरी चली जाएगी।"

"तब और नहीं बचेगी। पहले की बातें भी हमसे बताओ।"

"आप यह बताइए कि आगे की कार्रवाई क्या होगी।" जटाशंकर ने पूछा।

मुन्ना समझ गई, इन दोनों का मेल मिल चुका है। कारण समझ में न आया। जमादार के रपोट करने के विचार से डरी। पर जमी बैठी रही।

"अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, जमादार।" खजांची ने लाचार होकर कहा।

"अब हमारे मान की बात नहीं।"

"जमादार, सिर्फ़ इस कोठे का धान उस कोठे गया है। दबा जाओ।"

"दबा कहाँ से जायँ?"

जमादार रिपोर्ट न कर दे, इस डर से मुन्ना निकली। मिलने की ठानी। मेंहदी के किनारे से सड़क पर आ गई।

एकाएक उसके पहुँचने पर दोनों त्रस्त हुए। उसने कहा, "सिपाही की ओर से मेरी गवाही होगी।"

खजांची सकपका गया। जटाशंकर अपने बीजक की ढाल से तलवार झेल जाने को तैयार था। मुन्ना ने कहा, "मेरा हाल दोनों को मालूम है। हम तीनों का मिलना था। क्योंकि रानीजी हैं। रानी और राजा मिल गए। रुपया हमी लोगों में है, हमी लोगों का है। मिल्लत से चलना है, क्योंकि हमको बचना है। सिपाही को हम समझा लेंगे। क्या कहते हो जमादार?"

जमादार का बीजक-बल घट रहा था। चुपचाप खड़े थे।

मुन्ना ने सोचा, परदाफाश हुआ तो बुरी हालत होगी, रिश्वत दे दी जाएगी तो अभी मामला दबा रहेगा। कहा, "रानीजी जल्द आज-कल में रुपया देनेवाली हैं। आप लोग रानी के तरफदार रहिए। यह काम इसीलिए किया गया है। राजा के कान में बात पड़ जाएगी तो बाँसों पानी चढ़ेगा। मामला बहुत बढ़ेगा। नौकरियाँ जाएंगी। पुलिस के हाथ गया तो सजा की नौबत आएगी। हमी लोग बँधेंगे। रानी और राजा को कुछ नहीं होगा। संगठन रहेगा तो मजे में चलेंगे, क्या कहते हैं?"

"इससे अच्छी और कौन-सी बात है?"।

जटाशंकर ने भी खजांची की बात दुहरायी।

मुन्ना ने कहा, "जमादार, अब तुम चलो, उस सिपाही से मैं बातचीत कर लूँगी। यह बात हम तीनों की रही। रानी साहिबा से तुम मिल नहीं सकते।"

जमादार चलने को न हुए, फिर कुछ कहना चाहा, मुन्ना ने बीच में खुलकर कहा, "अब चलो जल्द, यह मालूम नहीं-ये रानी साहिबा के क्या हैं और होंगे?"

जटाशंकर चले। रास्ते पर सोचा, 'राजा को बीजक लेकर न दिखायें। पहले का हाल कहना होगा; नहीं मालूम, मामला पल्टा खाय। जाने दिया जाए।'

चौबीस

खजांची और मुन्ना पीपल के पास गए। खजांची ने गंभीर होकर कहा, "जब कि हमने काम कर दिया है, एक काम हमारा तुम कर दो या रकम वापस करो। अब बात दो की नहीं रही।"

मुन्ना, "कौन-सा काम है?"

"पहले हम बता दें, तुम्हारा-हमारा फायदा कहाँ है। हमको नहीं मालूम, रुपयों का तुमने क्या किया। यह बता सकते हैं कि जिनकी वजह इतना रुपया निकाल सकती हो, उनसे सरकार बड़ी है, वहाँ से और फायदा उठा सकती हो। अगर हमारी बात पर न आईं, तो मजबूरन् यह राज सरकारी आदमी को देना होगा। नहीं तो बचत नहीं। जिसके पास रुपया है, चोर साबित होगा। सरकार आसानी से पता लगा लेगी, रुपया रानी के पास है या नहीं। अगर न निकला तो तुम्हारा क्या हाल होगा, समझ लो। इस मामले को लेकर सरकार के पास हमारे जाने के यही माने होते हैं कि हमारा कुसूर नहीं, ताली चुरायी गई।'

"यह कौन कहता है कि नहीं चुरायी गई, कहो मैं भी कहूँ, हाँ लेकिन मैंने चुरायी, यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ? कैसे कहोगे, फलाँ ने चुरायी? सुनो, तिजोड़ी के फिर से खुलने का सबूत गुज़र. चुका है। इतने उड़ाके न बनो। तुम नप चुके। मेरी के मानी, रानी की पकड़ है, और तुम्हारी-बचत के लिए सरकार की। क्या रानी अपना सत्यानाश करा लेंगी? तुमसे पहले यहाँ दगेगी। यहीं रहना है। इस आग से सारा खानदान जल जाएगा। फिर, माने रहने पर, वह हासिल हो सकता है। रुपए खैर मिलेंगे ही। काम भी सँवार दिया जा सकता है।"

"यह सही है, पर तुम्हारी भी पैठ होगी, और ऐसी जो हमसे नहीं हो सकती। सरकार की तरफ से उधर की बातें तुम्हीं से ली जाएँगी। तुम्हारे सीधे तअल्लुकात होंगे। सिर्फ यह कि यह काम हमसे सुनकर तुम्हें करना है, फिर हम सरकार के आदमी से तुम्हारा हाल कहेंगे : वहाँ का कोई तुमसे पूछेगा। संबँध हो जाएगा।"

"इस तरह संबँध नहीं होता। वह कौन-सा काम है?" "एजाज से कुछ पूछना है।" "हाँ !"

"हमारा फायदा है। यह तुम्हारी समझ में आ जाए तो गुल खिल जाए। तुमसे तुम्हारे आदमी उठेंगे। तुम्हें यहाँ से कहाँ तक बढ़ना है। जमींदार तुम्हारे-हमारे आदमी नहीं। हम मुसलमान पहले ऐसे थे जैसे अंग्रेज। अब रैयत की रैयत हैं। माली हालत हमारी-तुम्हारी एक है। सरकार बंगाल के दो टुकड़े कर रही है। इससे तुमको और हमको फायदा होगा यहाँ-जमींदार की जड़ हिलेगी, यानी रैयत को फायदा होगा। इस काम में सरकार की मदद करनी है।"

मुन्ना पर असर पड़ा। जिससे जाति-भर का भला हो वह काम सरकार ही कर सकती है। जाति-प्रथा की सतायी मुन्ना का कलेजा डोला। जब्त किए खड़ी रही, चपल अपढ़ औरत। फँसकर कहाँ तक बहती है, देखने की उमंग आई। पूछा, "एजाज से क्या पूछना है?"

"एजाज से आज-कल में मिलकर पूछ लो, क्या हालात हैं? लौटकर जवाब दे जाओ।"

मुन्ना सहमत हुई। खजांची मन में सोचता हुआ बढ़ा कि रुपए रानी को दिए गए या नहीं।

पच्चीस

डाल के सैकड़ों हाथों ने मुन्ना पर फल रखे। चली जा रही थी, पराग झरे, भौंरे गूँजे। तरह-तरह की चिड़ियों की सुरीली चहक सुन पड़ी। दुपहर के सन्नाटे के साथ मौसम की मिठास। फिर प्रभाकर याद आया। दूर से घुसते देखा है। कोठी में रहता है। कौन है? मुन्ना धीरे-धीरे वहीं चली। कोठी की बगल से जानेवाला रास्ता सुनसान रहता है। आदमी इक्के-दुक्के। मुन्ना जीने के पास खड़ी हुई। जहाँ से आए थे वहाँ के लिए अनुमान किया, और घाट की तरफ चली, नज़र उठाकर इस हिस्से की बनावट देखती हुई। बुआ वाले बाग के सामने दोमंजिला है। निकलने का दूसरा जीना है। बाग में जाने का जीना नहीं। उसी राह जाना पड़ता है। नीचेवाली मंज़िल में पुरानी चीजें कुफ्ल में रखी हैं। कोई राह नहीं। एक अँधेरी कोठरी है, एक तरफ का दरवाजा टूटा है। उसको बाग का हिस्सा समझ सकते हैं। तालाब के किनारे की कोठी उसने नहीं देखी; यों बहुत-सा हिस्सा नहीं देखा। बागीचे की तरफ खुले कमरों को देखकर लौटी। उसको जान पड़ा, सुनसान दिखता है। रहने की आहट नहीं मिलती।

रहस्य से मुस्कराकर सिंहद्वार लौटी। जमादार बैठे थे। मुन्ना को सुनाकर कहा, "देखो, रघुनाथजी की क्या इच्छा है।"

"हम अभी आते हैं।" मुन्ना ने कहा, "बस, आज रानीजी का बदला चुका लिया जाए।"

"कैसे?" षड़यंत्रवाले की आवाज से पूछा।

"अभी आती हूँ। उसको चाहते तो नहीं?"

जमादार सन्न हो गए। मुन्ना ने जरा रुककर पूछा, "हम हों या वह?"

"तुमको कौन पाता है? तुम्हारी चल रही है।"

"फिर उसकी तरफ लपकना मत।"

"अच्छा , चली आ।"

मुन्नी घूमी, "सिपाही भगता नहीं, जीत की जगह है, लेता है। हमारी हो, तो अपनी गरदन नपाये देते हैं।" ड्योढ़ी की ओट में खड़े जटाशंकर ने कहा।

प्रेम की आँखों मुन्ना ने देखा।

"हम राह देख रहे थे। बता दो, कितने की चोरी हुई?"

पाँच लाख की"

"गलत है।"

मुन्ना ने जटाशंकर को देखा। जशकर हाथ पकड़कर कागजात के कमरे में ले गए। देर तक बातचीत की। हाल समझकर रुपए बताकर बीजक दे दिया। दोनों के गहरे संबँध हो गए।

छब्बीस

मुन्ना की निगाह नीली हो गई, चाल ढीली। चलकर महलवाले भीतरी तालाब में अच्छी तरह स्नान किया। गीली धोती से निकलकर बुआ के कमरे में गई। एक बज चुका था। चुन्नी फर्श पर चटाई बिछाकर दुपहर की नींद ले रही थी। मुन्ना की थाली चूल्हे पर रखी हुई। भोजन करके चटाई बिछाकर लेटी। आँख लग गई।

जब उठी, चुन्नी काम कर रही थी। बुआ लेटी हुई थीं। बगल की दूसरी कोठरी में मौसी बैठी हुई खाने का मसाला तैयार कर रही थीं।

मुन्ना कुछ नोट ले आई। बरामदे पर गिने। दस और पाँच रुपए के पहचानती थी। ये थोड़े थे। जटाशंकर को एकांत में बुला ले गई और कहा, "आज ही सिपाही इकट्ठे कर लेने हैं, बाज़ार चले जाओ, पुलिस के साफ़ेवाला कपड़ा खरीद लो। सबको सिपाहियों की तरह पेश करना है कि बाहर के पहरेवाले न पहचान पायें। पहले रानी का बदला। राजा से एक जवाब तलब करा लूँ, फिर ख़ज़ांची की खबर लूँ।"

"उससे क्यों तन गईं?"

"कट गया। फिर फाँसा। मैं फँसी। इसका काम करना है। मगर अकेली रही तो इसको अपने रास्ते न ला पाऊँगी। तुम्हारी मदद पार कर सकती है। तुम हमारा हाथ न छोड़ो, तुमसे दिल टूट चुका था। मगर तुमने, डराकर भी बाँध लिया। इस मामले में हम अकेले थे, अब दो-दो हैं। भेद किसी दिन खुलेगा, तब तक बच निकलना है, या पुख्ता सूरत निकाल लेनी है। तुम हमसे मिले, खजांची से भी, हमारा खजांची का यही हाल।

हम एक-दूसरे को फाँसना भी चाहते हैं। खजांची सरकार की मदद लेगा।

"पहले हमको भेद बतला दिया होता?"

"तो न उधर का फँसना होता, न इधर का।"

"अब तो सारा संसार फँस गया।"

"नहीं तो मतलब नहीं गठ रहा था।"

"रुपए रानीजी के पास नहीं, यह टेढ़ा है।"

"टेढ़ा हो, सीधा, बचत न थी अगर तुम बीजक रख लेते।"

"कहो, बचत के लिए दे दिया।"

"नहीं, मर्दानगी के लिए।"

सत्ताईस

मुन्ना बुआ के पास गई। बुलाकर बाग़ ले गई। सूरज नहीं डूबा। पेड़ों पर सुनहली किरणों का राज है। तेज हवा बह रही है। बुआ का शानदार आँचल उड़ रहा है। मुन्ना सिपाही या फौजी हिंदुस्तानी औरत की तरह दोनों खूँट कमर में खोंसे हुए है। अनानास के झाड़ की बगल में मौलसिरी का बड़ा पेड़ है, तने के चारों ओर कमर-भर ऊँचा पक्का गोल चबूतरा बँधा हुआ है। दायीं ओर कुछ दूर तालाब, पीछे और बायीं ओर ऊँची चारदीवार, सामने कोठी; वही जगह जहाँ प्रभाकर रहता है। मुन्ना देर तक बैठी हुई बरामदे पर आँख गड़ाए हुए बुआ को फूल-पत्तियों की बातचीत में बहलाए रही। प्रभाकर के बरामदे पर एक चिड़िया न दिखी। बुआ से उसने कहा, "कैसा समय है?"

"बहुत अच्छा।"

"क्या चाहता है जी?"

"बहुत कुछ।"

"सबसे पहले क्या?"

"हमको लाज लगती है। हमरा जी कुछ नहीं चाहता। जब भाग फूट गया, तब चाह कैसा?"

"यह तो हमारे लिए भी है। लेकिन न जाने क्यों, चाहना पड़ा, भाग को जगाना पड़ा।"

बुआ का ब्राह्राणत्व ज़ोर मारने को था, मगर सँभल गईं। कहा, "जैसा कहा जाता है, वैसा करती ही हूँ।"

"हमको रानीजी की हैसियत से कहना पड़ता है। तुम यह समझ चुकी कि पीछा नहीं छूटता। तुमको ऐसा करना चाहिए कि पीछा छुड़ाकर मर्द भागे।"

"अच्छा नहीं जान पड़ता। परमात्मा के घर जाना है। जी को बेपरदगी पसंद नहीं। लाज बड़ी चीज है। दूसरा जबर्दस्ती खोलता है तो बचाव की जगह रहती है।"

"तुमने दिल दे दिया। यह दिल मर्द को न दो। लेने लगोगी तो मालूम होगा कि वह तुम्हारा नहीं। या तो वह तुम पर है या तुम उस पर। आज तक मर्द को ही तुमने अपने ऊपर पाया होगा। अब उल्टा नजर आएगा। बचत की और जगह मिलेगी। मर्द झुका रहेगा।"

बुआ को बल मिला। पूछा, "क्या मर्द के पीछे लगना होगा?"

"हाँ, और वह इतना बड़ा मर्द है कि यहाँ उससे बड़ा मर्द नहीं।"

"वह कौन है?"

"वह राजा है। वही यह अपमान कराता है। आज तुमको रानी का सम्मान दिया जाएगा। साथ सिपाही रहेंगे। यह न समझना कि तुम रानी नहीं, बुआ हो। कभी यह न जाहिर करना कि किसी मतलब से तुम गई हो। तुम्हारे साथ सब पुलिस के सिपाही रहेंगे। खूब याद रहे, कहना, मैं रानी। तुमको कोई पहचान न पाएगा। मैं साथ रहूँगी, लेकिन दूर। जो सिपाही बहुत पास रहेगा, उसको अपना जिगरी मत समझना।"

"हमको डर लगता है।"

"हम कई आदमी साथ रहेंगे। डर की कोई बात नहीं। कहो, क्या कहोगी।"

"मैं रानी।"

"हाँ।"

संध्या की छाया पड़ने लगी। मुन्ना ने बरामदे की तरफ देखा, कोई नहीं देख पड़ा। बुआ को साथ लेकर लौटी। हवा और सुहानी हो गई। बुआ को पहले शंका थी, मगर हृदय के कपाट जैसे खुल गए; जान पड़ा, संसार में धर्म का रहस्य कुछ नहीं-सब ढोंग है।

बुआ को टहलने के लिए छत पर छोड़कर मुन्ना सिपाही के पास गई और उस तरफ जाने के लिए कहा।

सिपाही ने कहा, "वह देख, बरामदे का दरवाजा बंद है। वहाँ, माल की निगरानी करनेवाला जाता है।"

"वहाँ कोई रहता नहीं?"

"नहीं।"

"तुमको और कुछ मालूम हुआ?"

"हाँ, जमादार ने सबको हाज़िर रहने के लिए कहा है, और यह खबर है कि रानीजी ने इनाम भेजा है, सब सिपाही इस कोठी के आ जाएंगे, तब दिया जाएगा।"

अठाईस

रात आठ का समय होगा। प्रमोदवाले कमरे में राजा साहब बैठे हैं। कुल दरवाजे और झरोखे खुले हैं बड़े-बड़े। सनलाइट का प्रकाश। तेजी से, लेकिन बड़ी सुहानी होकर हवा आती हुई। दूर तक सरोवर और आकाश दिखता हुआ। सरोवर में बत्तियों की जोतवाले कमल बिंबित। कहीं-कहीं हवा से होता लहरों का नाच दिखता हुआ। चारों ओर साहित्य, संगीत, कला और सौंदर्य का जादू। साजिंदे बैठे हैं। कान के बाहर से साज चढ़ा कर बजाने की आँख देख रहे हैं। बेबसी से बचने की उम्मीद भी है। प्याले चल चुके हैं। फ़र्श पर बिछी ऊँची गद्दी पर एजाज और राजा बैठे हैं। एक बगल प्रभाकर है। नीचे कालीन बिछी चद्दर पर साजिंदे।

राजा साहब ने एजाज से पूछा, एजाज ने सम्मति दी। साजिंदों ने अपने-अपने साज पर हाथ रखा। एजाज ने गाया-

"जाहिद, शराबेनाज से जब तक वजू न हो,

काबिल नमाज पढ़ने के मसजिद में तू न हो।

पहलू से दिल जुदा हो तो कुछ गम नहीं मुझे,

ऐ द - दिल जुदा मेरे पहलू से तू न हो।

वह गुमशुदा हूँ मैं कि अगर चाहूँ देखना,

आइना में भी शक्ल मेरी रूबरू न हो।

शाखें उसी की हैं यही जड़ है फ़साद की,

पहलू में दिल न हो तो कोई आरजू न हो।

मसजिद में मैंने शेख को छेड़ा यह कहके आज,

मय लाऊँ मैकदे से जो आबे-वजू न हो।

सारी दमक - चमक तो इन्हीं मोतियों से है,

आँसू न हों तो इश्क में कुछ आबरू न हो।"

फिर गाया-

"बाजी कहूँ बैरन, बिखभरी सवत बाँसुरी

अधर-मधुर ध्वनि नेक सुरन सों

कूक-कूक तड़पाय, सखी री, वाकी

गाँस फाँस जिय हूक। छन आँगन, छन

चढ़त अटा पर, कर मल-मल

पछितात सेज पर,

बैरन सवत सताये चाँद,

रह-रहके तान नयी फूँक।"

ठुमरी का रंग जमा। राजा साहब ने प्रभाकर से गाने का अनुरोध किया। प्रभाकर ने गाया-

"प्रथम मान ओंकार।

देव मान महादेव,

विद्या मान सरस्वती

नदी मान गंगा।

गीत तो संगीत मान,

संगीत के अक्षर मान,

बाद मान मृदंग,

निरतय मान रंभा।

कहें मियाँ तानसेन,

सुनो हो गोपाल लाल,

दिन को इक सूरज मान,

रैन मान चंदा।"

प्रभाकर के गाने के भाव पर तूफ़ान उठा। एजाज की गायिका हिली। स्वदेशी आंदोलन में आज की धनिक और श्रमिक की जैसी समस्या न थी; पर आंदोलन को असफल करने के लिए यह समस्या लगाई गई थी। प्रभाकर विचार करता था तब तक साहित्य द्वारा रूस के जन-आंदोलन की ख़बरें आने लगी थीं। ज़मींदार मुसलमान स्वदेशी के तरफदार थे; इसलिए मुसलमान रैयत बहुत बिगाड़ नहीं खड़ा कर सकी। पुराणों का राज्य समाज में तब और प्रबल था, बादशाहत का लहजा नहीं बिगड़ा था। प्रभाकर सोचता हुआ बैठा रहा। गाने की तरंग उठकर जैसे निकल गई। एजाज उसकी गंभीर मुद्रा से प्रभावित हुई। राजा साहब भी खामोश बैठे रहे। देश प्रेम जुआ था। रौशनी, पश्चिम का बानिज। स्वामी विवेकानंद की वाणी लोगों में वह जीवनी ले आई, खासतौर से युवकों में, जिससे आदर्श के पीछे आदमी जगकर लगता है। प्रभाकर राजनीति में इसी का प्रतीक था। धैर्य से बैठा रहा।

इशारा पाकर साजिंदे चले। प्रभाकर उठने को था कि दिलावर भीतर आया; राजा साहब के कान में कान लगाया। खबर राजनीतिक है। राजा साहब ने प्रभाकर के सामने पेश करने के लिए कहा। दिलावर उछल पड़ा। कलकत्तावाले सुबूत दिखाए- वह कागज, नजीर के नाम से यूसुफ का आकर ठहरना, बातचीत करना, होटल में गलत नाम लिखाना।

एजाज से हुलिया पूछा। आदमियों ने बताया। एजाज खामोश हो गई।

प्रभाकर आग्रह-धैर्य से सुनता रहा। राजा साहब ने धन्यवाद देकर सबको बिदा किया। इनाम की घोषणा की।

राजा राजेंद्रप्रताप ने प्रभाकर से पूछा, 'आपका क्या अंदाज है?"

"चर है, सरकारी।"

"अब हमको एक छन की देर नहीं करनी। कलकत्ता रवाना हो जाना है। बँध गया। हमारे पास भी मसाला है। यह वही आदमी है।" एजाज ने कहा।

"लिखा प्रमाण हमको दीजिए।" प्रभाकर ने कहा।

राजा साहब ने कहा, "नहीं, हमीं रखेंगे, बैरिस्टर साहब से सलाह लेंगे, इस तरह आपका भी हाथ हो गया।"

"तो हमें भी आपके साथ या कुछ पीछे, या दूसरे रास्ते से चलना चाहिए।"

"आप परसों या और दो रोज बाद आइए।"

प्रभाकर शांत भाव से उठा, और कहा, "अच्छा, तो आज्ञा दीजिए।"

राजा साहब ने नमस्कार किया।

उन्तीस

मुन्ना ने देखा, दस बज गए। सिपाहियों को (20-20) रुपए इनाम दिया था। बाजार से कपड़ा आ गया था। टुकड़े काटकर साफे बना लिए। रानी के अपमान का प्रभाव सब पर है। सब चाहते हैं, राजा ऐसा न करें कि उनके रहते एजाज को रखें।

डंडे सबके हाथ में, पुलिसवाले नहीं, मिर्जापुरी। चमरौधे की नोक देखते, सिंहद्वार की बत्ती के इधर-उधर टहल रहे हैं।

रुस्तम को सिखा दिया। चलने और पहुँचने का रास्ता और समय मुक़र्रर कर दिया। पहरे की दो तलवारें निकलवा लीं। रुस्तम को दी। एक बुआ के बाँधकर ले चलने के लिए, एक खुद बाँधे रहने के लिए। एकांत में दो घंटे तक रहना है, कहकर ध्वनि में समझा दिया, और विश्वास बँधा दिया कि बुआ को उसने समझा दिया है।

बुआ उसकी बात पर आ चुकी थीं, एक सत्य, एक न-जाना दबाव, एक तड़प थी जिससे उनके पैर उठे। ढाढ़स बँधा, मुन्ना मिलेगी। कुछ बिगड़ने न पाएगा, अगर वे खुद न बिगाड बैठीं।

बुआ को सबसे पहले मुन्ना ने खिड़की से निकाला। सिपाहियों को यह बात नहीं मालूम। रुस्तम कोठी की खिड़की की दूसरी तरफ खड़ा राह देख रहा था। दोनों कंधों पर पेटी से बँधी म्यान के साथ दो तलवारें लिए था। मुन्ना ने बुआ को रुस्तम के हवाले किया और लौटी। मन में ब्राह्मणों के सत्यानाश का दरवाजा खोला।

बुआ शरमायीं। मुन्ना को देखकर एक दफे जैसे बल खा गईं। सँभलकर निगाह बदली और रुस्तम के साथ चल दीं।

मुन्ना मुस्करायी। जमादार के पास आई। सिपाहियों को मिठाई और पूरी और दस-दस बीड़े पान बाँध लेने के लिए बाजार भेजा। दो घंटे का वक्त निकाला। जमादार को एकांत में लेकर बातचीत करने लगेगी।

तीस

रुस्तम बुआ को लेकर चला। रात के दस के बाद का समय। गढ़ सुनसान। मर्दाना बाग़ से चला। बुआ को शंका हुई। फिर मिट गई।

"देखती हो दो तलवारें हैं?" रुस्तम ने प्रेमी गले से पूछा।

"हाँ," शरमाकर बुआ ने कहा।

"एक तुमको बाँधनी है।"

"हाँ?"

"बाँधना आता है?"

"नहीं।" "हमी बाँधेगे। सुना है?"

"हाँ।"

"इसका मतलब समझ में आया?"

बुआ लजा गईं। सामने आमों के पेड़ थे। रुस्तम बढ़ा। एक की झुकी डाल पर दोनों तलवारें टाँग दीं।

"यहाँ सिर्फ हम हैं और तुम।"

बुआ शरमायीं। रुस्तम का पुरुष पूरी शक्ति पर था। कहा, "उस रोज़ नहाकर तुम जैसी निकलीं, वैसा ही हो जाना है।"

बुआ का हाथ रुका। जी ऊबा।

रुस्तम ने पूछा, "तालाब में और लोग थे, वे क्यों थे?"

"हमको नहीं मालूम।"

आवाज से रुस्तम समझ गया कि जमादार का कहना दुरुस्त; वे फँसाये गए, अपनी तबियत से नहीं गए।

घबराया कि इसका धर्म बिगाड़ा तो बुरा हाल न हो; फिर सोचा मुन्ना का इशारा कुछ ऐसा ही है।

कहा, "हम वे हैं जिनके बहुत-से बीवियाँ होती हैं?"

"यह हमारे यहाँ नहीं?"

"तुमको आज हमारी बीवी बनना होगा।"

"मैं बीवी नहीं बनती।"

"तुमने उससे कुछ कहा, उसकी बात मानी?"

"जबरदस्ती कहलाने से कोई कहना है या मानना।"

"लेकिन हमारे साथ के लिए तुम बात हार चुकी हो।"

"मैं बात नहीं हारी।"

"यह तलवार कैसे बाँधी जाएगी? कमर नापनी पड़ेगी या नहीं? इससे कुछ समझ में नहीं आया? राजे से बातचीत हँसी-खेल है? हम बगल में रहेंगे, इससे तुमको इशारा कर दिया गया, तुम्हारी मंजूरी ले ली गई, इतनी दूर तुम निकलकर आ गईं। यहाँ हम पकड़ जाएंगे, तो कोई क्या कहेगा? ये दोनों इतनी रात को यहाँ क्या करते थे, क्यों आए थे, इनका आपस में क्या रिश्ता है? हम तभी बच सकते हैं हम मियाँ-बीवी-तुम रानी, हम राजा। वहाँ तुमसे क्या कहलाया जाना है?"

बुआ झेंपी, मगर यह झेंप मंजूरी नहीं।

"हम तुम्हारी कमर नापें?"

"हे भगवान् !" बुआ अंतरात्मा से रोयीं।

"कौन हो तुम?".रुस्तम के पास पहुँचकर किसी ने पूछा। भरी आवाज।

रुस्तम डाल की ओर बढ़ा और मूठ पकड़कर तलवार निकाल ली- "सुअर, कौन है तू?" पूछा।

तलवार के निकलते ही पिस्तौल की आवाज हुई, मगर आदमी के निशाने पर नहीं; मर्द का गला गरजा, "भग यहाँ से, या रख तलवार, नहीं तो खाता है गोली।"

रुस्तम भगा। बागीचे में पहले जैसा सन्नाटा छा गया।

प्रभाकर डेरे पर आ रहा था। यही उसका रास्ता था। आते हुए देखा। बुआ से पूछा, "आप कौन हैं?"

घबराहट के मारे बुआ का बोल बंद हो गया, प्रभाकर खड़ा रहा। धैर्य देकर पूछा, "आप कौन हैं?"

"हम बुआ।" लड़की के स्वर से, रक्षा पाने के लिए, बुआ ने कहा।

देर अनुचित है सोचकर प्रभाकर ने कहा, "बचना है तो हमारे साथ आइए।"

"यह तलवार ले लूँ।"

तलवार एक और है, समझकर प्रभाकर चौंका। कुछ समझ में न आया। कहा, "हमारी निगाह में अब तलवार का जमाना नहीं रहा। जिनकी तलवार होगी, वे ले लेंगे। यहाँ इस आदमी के अलावा और कोई था?"

"और कोई नहीं।"

"यह कहाँ से तुमको ले आया?"

"मुन्ना ने इसके साथ कर दिया था और बहुत से काम करने के लिए कहे थे।"

"किसके खिलाफ?"

"राजा के।"

"आदमी किनके?"

"राजा के।"

"तरफदारी किनकी?"

"रानी की।"

"अच्छा।" प्रभाकर मुस्कराया।

"आपको रहना मंजूर है या हमारे साथ चलना?"

"हम एक छन इस नरकपुरी में नहीं रहना चाहते।'

"हमारे साथ आइये।"

प्रभाकर बढ़ा। बुआ पीछे हो लीं। तालाब के किनारे बुआ को खड़ा किया। दो-एक सवाल और पूछे। समझ की निगाह उठाई और अपने जीने की ओर चला।

कोठी पर कमरे में गया। दो साथियों को बुलाया। कहा, "बाहर एक औरत है। ललित, उसको लेकर बेलपुर जाओ। हम दो-तीन दिन में आते हैं। महराजिन बताना। भेद न देना। बाहरवालों से मिलाना मत। काम किए-कराये जाना। इसको भी लगाए रहना। मामला रंग पकड़ रहा है। यहाँ से आजकल में बोरिया-बधना समेटना है। प्रकाश ताली लगाकर चले आएँगे। गढ़ की चारदीवार में बहुत से दरवाजे हैं। हमारे की ताली दूसरे के पास भी है या नहीं, सही-सही नहीं मालूम।"

साथियों को लेकर प्रभाकर नीचे उतरा। चिंता की हल्की रेखा मन पर। बुआ के पास पहुँचकर कहा, "इस आदमी के साथ चली जाओ, यह जैसा कहे करो। कोई हाथ नहीं उठाएगा। बाद को जहाँ कहिएगा पहँचा देगा।" बुआ को जान पड़ा, एक अपना आदमी, जिसको औरत अपना आदमी कह सकती है, बोला। वे सहमत हुईं।

प्रकाश ताली लेकर चला।

इकत्तीस

रूस्तम के जैसे पर लग गए, ऐसा भगा। फैर से दिल धड़का, पैर उठते गए। खेत से भगे सिपाही की तरह सिंहद्वार में घुसा। बात रही, हथियार नहीं डाला। हाँफ रहा था। जैसे दम निकल रहा है। 3-4 सिपाही बाज़ार गए थे, बाकी हैं। मुन्ना भी है।

रुस्तम को देखकर लोग चकराये। मुन्ना की आँख चढ़ गई। पूछा, "क्या है रुस्तम?"

रुस्तम बोल न पाया।

रुस्तम के घबराए हुए हाँफते रहने पर सिपाहियों को उतना आश्चर्य न हुआ जितना तलवार लिए रहने पर।

जटाशंकर का काठ में पैर पड़ा। धीरज उनके स्वभाव में है। बैठे देखते रहे।

रुस्तम ने आधा घंटा लिया। मुँह धोया गया, कुल्ले कराये गए, सिर पर पानी के छींटे मारे गए, पंखा झला गया।

रुस्तम ने कहा, "देव है। आदमी ऐसा नहीं होता। गढ़ के अंदर ऐसा आदमी !"

लोग कुछ नहीं समझे। ऐसे आदमी के बारे में किसी से नहीं सुना, नहीं देखा।

मुन्ना ने कहा, 'हम पूछकर बताते हैं।" रुस्तम को बुलाकर ले चली।

एकांत में पूछा, "क्या हुआ?"

रुस्तम ने कहा, "एक आदमी मिला, मैं भगा, नहीं तो गोली का शिकार हो गया होता।"

मुन्ना को नहाकर लौटी सूरत याद आई। पूछा, "कैसा है?"

रुस्तम ने एक बाबू का हुलिया बतलाया।

"बुआ का क्या हुआ?"

"हमको उसी की कार्रवाई मालूम होती है।"

मुन्ना को विश्वास हो गया।

ठहरकर पूछा, "बुआ क्या उस आदमी के साथ रह गईं?''

"हाँ।" रुस्तम ने कहा।

मुन्ना ने तीन सिपाही लिए। रुस्तम से घटनास्थल ले चलने के लिए कहा।

लोग चले। जहाँ घटना हुई थी वहाँ अँधेरा है। रुस्तम ने डाल देखी।

दो म्यान और एक तलवार लटक रही है। बुआ का निशान नहीं।

मुन्ना तुरंत घूमी। जहाँ प्रभाकर का जीना है, चली। आदमी भी साथ।

तब तक प्रकाश ताली लगाकर लौट चुका था। लोगों ने जीने के दरवाजे सिपाही की हैसियत से आवाजें लगाईं। कोई न बोला।

कोठी घूमकर मालखाने के पहरे से जाना चाहा, दरवाजे बंद मिले। खुलते ही नहीं।

एक दफे पुलिस की याद आई। खजांची बैठा न रहेगा, सोचा। राजा से रानी के बदले की बात गई, बल जाता रहा।

रुपए निकालने गई। पाँच रुपए और दस रुपए के नोटों के बंडल दो-दो करके निकाल सके, इस तरह रखे थे। एक हजार के करीब नोट निकाले और 50)-50) रुपए सिपाहियों को और दिए । बाकी जमादार को।

नोटों वाली तिजोड़ी बाहर गड़वा दी।

बत्तीस

घटना क्या, अनहोनी हो गई। मुन्ना को ख़जांची का डर था। जमादार भी बचत चाहते थे। इसी से उलझते गए। बेधड़क बढ़े। फँसे सिपाहियों ने रानी का पल्ला पकड़ा। निगाह धर्म पर थी। तिजोड़ी के गाड़े जाने पर सिपाहियों की नसें ढीली पड़ी। एक ने डूबते स्वर से कहा, "रानी से राजा का सितारा बुलंद है।" मुन्ना ने कहा, "गई, चलते ठोकर लगी, ईंट दूसरे की रखी है, वह रानी का ही आदमी है, नादानी कर रहा है; न इधर का होगा न उधर का। मुमकिन, बदला चुकाने को रानी ने दूसरा हथियार चलाया हो। धीरज छोड़ने की बात नहीं; कल-परसों तक आज का अँधेरा न रहेगा। अगर कहो कि इसके लिए सज़ा होगी, तो काँटा न लगेगा। सब लोग बाल-बाल बच जाएंगे। रुपए भी मिलेंगे। अभी साँस काफी है।"

सिपाही खुश हो गए। सबको अपनी-अपनी जगह जाने के लिए मुन्ना ने कहा। कहा, "रानी का हाल मालूम हो तो जी में जी आए।" यह कहकर रात-ही-रात नयी कोठी की तरफ चली।

जहाँ दासियाँ सोती हैं, वहीं घुसकर, एक बग़ल लेट रही। नींद नहीं आई। दूसरे को बहलाने से अपना जी नहीं मानता। तरह-तरह की उधेड़-बुन से रात कटी। पौ फटी कि उठकर बुआ के महल के लिए चली। नयी कोठी में शोर था कि सूरज की किरन के साथ जहाज खुल जाएगा। जागीरदार साहब कलकत्ता रवाना हो रहे हैं। मुन्ना ने एक कहार को तैनात किया कि जागीरदार साहब के साथ कौन-कौन जाता है, देख आए, रानी जी का हुक्म है।

कहार मुस्कराया। कहा, "वे तो जाएँगी ही।"

"कौन?"

"कौन हैं जो गाती हैं?"

"और कौन-कौन जाता है; खास तौर से यह देखना, कौन-कौन औरत जाती है; उसके साथ एक ही बाँदी है, और भी कोई यहाँ की बर्बादी जाती है या नहीं। रानी साहिबा इनाम देंगी। समझ गया?"

"रानी साहिबा अभी तक चाहती हैं। मैंने अरई कहारिन को छेड़ दिया, कहा, तेरी शक्ल उससे मिलती है। उसने कह दिया। वह एक पंदरहीं नहीं बोली। अरई के लिए माफी मँगा ली, तब दम लिया। सो भी तब जब अबकी तनख्वाह से गुच्छी-करनफूल बनवा देने का कौल करा लिया।" कहकर मटरू हँसा। अपनापे से पूछा, "मुन्ना तेरी कैसी कटती है?"

"फिर तो नहीं माफी माँगेगा?''

"मैंने कहा जात की है, कहीं बैठ जा, या बैठा ले। राम दोहाई, आँख झप जाती है जब देखता हूँ, तेरे लिए बारोमहीने कातिक है। सिपाही कुत्ते जैसे पीछे लगे रहते हैं। बहंगी में तीन-तीन को लादकर फेंकूँ।"

"अच्छा चला जा। देखें, कितनी जानकारी रखता है। इनाम में एक थान के दाम मिलेंगे; मगर पक्की खबर दे।"

मटरू खुश होकर जहाज़ घाट की ओर चला।

राज का ही जहाज़ है। मटरू जानता है। आदमियों में सबसे दबा, कहार। पहचानकर सबने राह दे दी। उस वक्त तक राजा या एजाज का आना नहीं हुआ था। मटरू सारा जहाज़ घूम आया। फिर एक किनारे खड़ा हुआ।

आधे घंटे के अंदर एजाज की पालकी आई। एजाज किनारे उतरकर काठ की सीढ़ी से जहाज पर गई-इनाम भेजा।

राजा की सवारी आई। शान से चढ़े। लोग चढ़ने लगे। जहाज खुला।

मटरू ने एक-एक को देखा। रह जानेवाले लोगों के साथ लौटा। एक पहर दिन चढ़ चुका था।

लौटकर मुन्ना से एक-एक बात कही। और पुरस्कार के लिए लाचार निगाहों से देखकर मुस्कराया।

मुन्ना समझ गई। संवाद से खुश होकर पीपलवाले चबूतरे के पास दुपहर ढलते बुलाया। मटरू मानकर खुले दिल से दूसरे काम को चला। मुन्ना पुरानी कोठी चली।

तैतीस

प्रभाकर सचेत हो गया। मौका देखकर बचा हुआ मसाला पानी में फेंक दिया और प्रकाश को दिन होने पर पास के केंद्र भेज दिया। दो आदमी और रहे और प्रभाकर। देख-रेख के लिए दिलावर और दो नौकर हैं, जिनके बाहर के मानी छत से हैं। श्री रघुनाथजीवाली छत से, जल भरनेवाले कहारों से, दिलावर पानी चढ़वा लेता है। उसी जीने से दिन रहते-रहते नौकर और पाचक एक दफा बाहर की हवा खा आते हैं।

मुन्ना जमादार से मिली। जमादार के होश फाख्ता थे। राजा को बुआ के गायब होने की खबर नहीं दी गई।

मुन्ना को देखने पर साथी का बल मिला। रास्ता निकालने की सोची। पूछा, "क्या इरादा है?"

मुन्ना ने कहा, "बुआ लापता हैं, यह सबसे खतरनाक है।"

"क्या तअज्जुब, रुस्तम ने उड़ा दिया हो।" जमादार ने कहा।

"हो सकता है, मगर बात झूठ भी हो सकती है। पहले पता लगा लेना चाहिए। एक बात जँचती है। उधर एक आदमी रहता है। वह कोठी में ही रहता है। वह कौन है, उसका हाथ हो सकता है।"

हाँ," जमादार सँभले, "राजा का गुप्त रूप है, यह रामफल से सुना है। उन लोगों की आमदरफ्त दूसरी है। वहाँ पुजारीजी का हाथ है।"

"तुमको यह नहीं मालूम, रहनेवाला काला है या गोरा है?"

जमा.- "या एक है या तीन, नहीं।"

मुन्ना-- "एक दूसरी शाख है?"

जमा.- "हां।"

मुन्ना- "माई के लाल बहुत हैं।"

जमा..- "अब बचना कठिन है।"

मुन्ना- "जहाँ तक हो आँट पर न चढ़ो।"

जमा.- "कैची काटती हो?"

मुन्ना- "हमारे ही साथ सती होना है।"

जमा.- "तभी तो कहा, कैंची काटती है।"

मुन्ना- "बस, अब साथ न छोड़ो। अगर भगें तो साथ।"

जमा.- "रास्ता और क्या है? इतनी बड़ी चोरी के बाद गाँव में क्या मुँह दिखावेंगे और क्या पुलिस के हाथ से बचेंगे?"

मुन्ना-"हमारा प्रेम ही ऐसा है। पति को खा गई।"

जमा.- "हमारा ही कौन कमजोर है?"

मुन्ना-. "इस आदमी का पता लगाना है। जमादार अब ताकत बाहर की आ गई है। खतरा बहुत है। हमारे पास धन है, लेकिन इसको इस रूप में हटाकर हम बहुत दिन खा नहीं पाएँगे। सहारा लेना है। कुछ मददगार बनाने हैं।"

जमा.- "हाँ।"

मुन्ना- "राजा का रवाना होना मतलब से खाली नहीं।"

जमा.- "कुछ लगाया?"

मुन्ना- "ख़ज़ांची की तरफ की कोई कार्रवाई होगी। इसका भी, जिसके लिए मैं कह रही हूँ, कोई हाथ हो सकता है।"

जमा.- "हमारी हैसियत तो इतनी ही है। पहले तो यह कि नंबरी नोट चलाए नहीं चलेंगे। दूसरे, इतना रुपया हज्म करनेवाला हमारा पेट नहीं।"

मुन्ना- "मगर रुपयों के साथ अब जान पर ही खेलना है, यानी जान रहते रुपए न जायँ, और जायँ तो हम दुनिया भी दूर तक देख लें। इतने रुपयों से इतना भेद खुल सकता है। सिर्फ पकड़ में नहीं आना।"

जमा.- "अब हमको बयान बदल देना है।"

मुन्ना- "हाँ, तभी बचाव है।"

जमा.- "संदूक गाड़ दिया गया। ताली फेंक दी गई। बीजक अपने पास ही है। उसमें लिखा है। क्यों री, तू इतनी भी बँगला नहीं पढ़ी कि मालूम हो जाए कि कितने-कितने के नोट हैं?"

मुन्ना- "यह मालूम हो जाएगा। दम कहाँ मिला? मगर खर्च बहुत होगा?

चौंतीस

कहार से बातें मालूम करके, इनाम देकर, मुन्ना पिछली तरफवाले घाट पर चलकर बैठी। मन में खलबली थी। बुआ का पता नहीं चला। जल्द कोई कार्रवाई होगी, दिल कह रहा था। धड़कन त्यों-त्यों बढ़ रही थी। बचाव की सूरत नजर आती थी और कुछ देर बाद मिट जाती थी। मुन्ना ने देखा, किरनों में कई हाथ पानी के नीचे मछलियाँ दिख रही हैं। फिर देखा, पास की डालवाले पत्तों की रेखाएँ गिनी जाती हैं। दूसरी तरफ आँख उठाई, घने बगीचे में छिपते लायक अँधेरा नहीं। सब कुछ खल गया है। अपने भविष्य पर डरी।

इसी समय देखा, जीने का दरवाजा खुला, एक युवक निकला, जीना बंद किया और घाट की तरफ चला। उसकी शांति में घबराहट नहीं बड़ी दृढ़ता है। एक ऐसा संकल्प है जो आप पूरा हो चुका है। जवानी की वह चपलता नहीं जो औरत को डिगा देती है, बल्कि वह जो साथ लेकर ऊपर चढ़ जाती है, और जहाँ तक औरत की ताकत है वहाँ तक चढ़ाकर अपने पैरों खड़ा करके, और चढ़ जाती है। चरित्र के पतन से बचकर और भले कामों की तरफ रुख फेरती है। मुन्ना को जान पड़ा, उसका हृदय खुल गया। वह निर्दोष है। यह युवक उसको इस अवस्था में सदा रख सकता है। दिल की बातें उससे कह देने के लिए उतावली हो गई।

जैसे-जैसे प्रभाकर पास आता गया, मुन्ना के बुरे कृत्य भी जो नीची तह के किए हुए थे-उसके ऊँचा उठने के कारण छूटे हुए भी, काई की तरह सिमटकर पास आते गए। प्रभाकर की चाल के धक्के से निकलते गए। मुन्ना जैसे बदल गई प्रभाकर से मिलने के लिए। जो मुन्ना होगी उसके बुरे संस्कार छूटने लगे।

वह अपने स्वरूप में आई। अभी तक प्रभाकर की नजर नहीं पड़ी। अपने काम की बातें सोच रहा था।

हवा चल रही थी। पेड़ों की पत्तियाँ और डालें हिल रही थीं। चिड़ियाँ उड़ रही थीं। सरोवर पर लहरें उठ रही थीं। उन पर किरनें चमक रही थीं।

प्रभाकर आया। बायीं तरफ एक औरत की छाँह देखी। उसने घाट के फ़र्श पर सिर टेककर प्रणाम किया। प्रभाकर ने विचारशील आँखें उठाकर देखा। पूछा, "कौन हो?"

"मैं मुन्ना हूँ।"

"क्या काम है?"

"मैं रानी साहिबा की दासी हूँ।"

प्रभाकर स्थिर हो गया। सोचा, कोई काम है। पूछा, "फिर?'

"आप कौन हैं, यह मालूम हो जाना चाहिए।"

"यह राजा साहब से मालूम हो जाएगा।"

"वे तो चले गए हैं।"

"फिर लौट सकते हैं, या जहाँ गए हैं, वहाँ से।"

"आपके दिल में रानी साहिबा की जगह है?"

"क्या है?"

"आप जानते हैं, राजा साहब के साथ रानी साहिबा नहीं !"

प्रभाकर दुखी हुए।

मुन्ना को मौका मिला। कहा, "रानी साहिबा आपके लिए कुछ नहीं कर सकतीं अगर आप उनकी सहायता करें?"

प्रभाकर पेंच में पड़े। काट न चला। सहानुभूति आई। दिल कमजोर पड़ा। कहा, "हमारा काम दूसरा है।"

"वह कौन-सा?"

"क्या तुम और रानी साहिबा उसमें हो?"

"हाँ, हम हर तरह आपके साथ होंगे।"

"हमको दोनों की सहानुभूति चाहिए।"

"रानी साहिबा धन और जन से आपकी मदद कर सकती हैं।"

"विश्वास है। रानी साहिबा से हमारी बातचीत हो सकती है?"

"हाँ।"

"मगर आज होनी चाहिए।"

"हाँ, आपसे शाम को यहीं मिलूँगी। आपको मालूम है, रानीजी के लिए दूसरे से बातचीत करना मना है।"

"हाँ।"

"मगर कांटा निकालने के लिए मिलेंगी।"

प्रभाकर कुछ न बोले। एजाज का स्वभाव उन्हें पसंद है। रानी साहिबा कैसी हैं, देखना चाहते हैं। उनका काम केवल मर्दों के हाथ से ज्यादा औरतों के साथ से बढ़ेगा। स्वदेशी का, देशप्रेम का जितना प्रचार होगा, देशवासियों का कल्याण है।

"रानी साहिबा पढ़ी-लिखी हैं?"

"जी हाँ।"

"सुंदरी भी हैं?"

मुन्ना मुस्करायी। कहा, "हाँ, बहुत।"

"राजा साहब को व्यसन होगा। गाती भी हैं?"

"जी हाँ।"

"काँटा निकल जाएगा। राजा साहब जिस रास्ते के पथिक हैं, रानी साहिबा भी उसकी होंगी, तो मेल स्वाभाविक है।"

"वह कौन-सा रास्ता? -क्या हम लोग उस रास्ते आपके पीछे चल सकते हैं?"

"पहले तुम्हीं लोगों का काम है। यों फायदा नहीं कि जमींदारी जमींदार की रहे : मगर यों है कि तुम अपने आदमियों के साथ रहो, अपना फायदा अपने हाथों उठाओ। इसमें दूसरे तुमको बहका सकते हैं, बहकाते होंगे। बाजी हाथ आने पर, हम खुद जीने की सूरत निकाल लेंगे। अच्छा, बताओ, यहाँ कोई औरत रहती थी जो लापता है?"

मुन्ना घबरायी। प्रभाकर आँखें गड़ाए थे। झूठ नहीं निकली, कहा, "जी, हाँ।"

"वह कौन है?"

"वह कुमारीजी की फूफी-सास हैं। आपको मालूम है, वे कहाँ हैं?"

"हम नहीं कह सकते। मगर बचा दे सकते हैं। पुलिस के हाथ बुरा हाल होगा।"

मुन्ना ने पैर पकड़ लिए। कहा, "आप बचा सकते हैं। आपका काम करूँगी।"

प्रभाकर मुस्कराते रहे। कहा, "अच्छा नहाते हैं, शाम को आना। घबराना मत। हमारा काम, तुम्हारा काम है। अब चलो।"

मुन्ना खुश होकर चली। जान पड़ा, भगवान ने बचा लिया।

प्रभाकर नहाने लगे।

पैंतीस

जमादार सूख रहे थे, चोरी खुलेगी, बहाना नहीं बन रहा। घबराए जो कलंक नहीं लगा, लगेगा, जेल होगी; बाप-दादों का नाम डूबेगा। राजा गए; दूसरी आफत रहेगी।

इसी समय मुन्ना मिली। जमादार ने देखा, उसमें स्फूर्ति है। उनकी बाछे खिल गईं, सोचा, बचत निकल आई।

मुन्ना ने अलग बुलाया। वे चले। दोनों घाट की चारदीवार की आड़ में एक मौलसिरी की छाँह में बैठे।

मुन्ना ने कहा, "अब किनारा साफ नज़र आ रहा है।"

"क्या बात है?" जमादार ने पूछा।

"एक महात्मा मिले हैं, उनसे आशा बँध रही है।"

"कहीं धोखा तो नहीं?"

"नहीं, सिर्फ तुम्हारा विचार है कि कहीं नीचा न दिखा दो। नहीं तो, लकड़ी साफ बैठेगी।"

"कैसे?"

"पहले बताओ, तुम हमारे साथ रहोगे या नहीं।"

"हमने तो बीजक तक दे दिया।"

"ठीक है। बात यह, हम दूसरी चाल चलेंगे।"

"क्या?"

"रानी को दूसरी तरह हाथ में करना है। पहला वार खाली गया। वह राह कट गई, अच्छा हुआ। वह सूझ खजांची की थी, अपनी भी। अब लाठी भी न टूटेगी और साँप भी मरेगा।"

"समझ में नहीं आया।"

"जमादार, बहुत गहरी बातें हैं। एकाएक समझ में न आयेंगी। ख़ज़ांची का साथ किसी सरकारी आदमी से है। खजांची की मार्फत एजाज से राज लेना चाहता है और हमारे राजा साहब का। राजा साहब सरकार के खिलाफ फँस जाएंगे; क्योंकि वे रास्ता बतानेवाले हमारे नए गुरुदेव के मददगार हैं और गुरुदेव सरकार के खिलाफ कार्रवाई करनेवालों में हैं। स्वदेशी का जो आंदोलन चला है, गुरुदेव उसमें हैं। सरकार चाहती है, बंगाल के दो टुकड़े कर दे। जमींदार ऐसा नहीं चाहते। उनको डर है कि स्थायी बंदोबस्त फिर न रह जाएगा। इसका देश में आंदोलन है। सरकार के लोगों का कहना है, स्थायी बंदोबस्त न रहने पर इतर जनों को फायदा पहुँचेगा, मुसलमान जनता सरकार के पक्ष में की जा रही है। असली बात इतनी है। हम लोग बहुत काफी बातचीत सुन चुके हैं। सच जो कुछ भी हो, मगर गुरुदेव की बात का असर पड़ता है। उन पर अपने आप विश्वास हो जाता है। बड़े अद्भुत आदमी हैं। इतर जन ही हम लोग हैं। हम लोग भी सहानुभूति और अधिकार चाहते हैं। यह हमको सरकार से तब मिलेगा, जब हम सरकार की जड़ मजबूती से पकड़ेंगे। मगर हमको रहना तुम्हीं लोगों में है।"

"हमारे जो कुछ था, हम दे चुके।"

"हाँ, मगर समाज से डरते हो; हम समाज की बात कहते हैं।"

"भीमसेन ने हिडिंबा से ब्याह किया, महाभारत में है, तो किसने उनको जाति से निकालकर बाहर कर दिया?"

"मगर हिडिंबा के अधिकार वैसे न रहे होंगे जैसे द्रोपदी के।"

"अधिकार वैसे ही थे, भेद यह रह गया था कि एक राक्षस की बेटी रही, दूसरी क्षत्रिय की। क्या बाप भी बदल गए?"

मुन्ना गंभीर हो गई। कहा, "बुआ का पता इनको मालूम है। रुस्तम शायद इन्हीं की बातें करता था।"

जमादार जर्द पड़े। कहा, "कुल भेद खुला? बुआ ने एक-एक गाँठ सुलझायी होगी।"

"संभव। ताल पर चलना है। नहीं, गिरेंगे। बुआ राजा के साथ न थीं। बचाव का मिलकर बचकर रास्ता निकालना है।"

"बुरा हुआ। सरकार के खिलाफ हैं तो जरूर बचकर रहना है। हम भी पकड़ा सकते हैं अगर पकड़ में हैं।"

"हाँ, मगर नहीं। राजा ने रखा है तो मिल जाना चाहिए।"

"हाँ।"

"राजा ख़िलाफ़ न हों तो ख़िलाफ़ गवाही देते अकेले हो जाएंगे, मगर ख़जांची का एक गरोह है, हम उसमें हैं, बचत है।"

"हाँ।"

"ये इसी कोठी में रहते हैं, तुमको मालूम था?"

"नहीं।"

"राजा ने तुमसे छिपाया है। कोई होगा, जिसको देख-रेख सौंपी गई। यहाँ रहना मायने रखता है।"

"हाँ।"

"फिर साथ होते अड़चन नहीं। रानी का उपकार करेंगे। कारण साथ है। राजा को ये मिला दे सकते हैं।"

"हाँ।"

"आदमी सज्जन हैं। रानी से मिलाना है। बातचीत सुननी है। अगर रानी से किसी की मार्फत बातचीत करायी तो मैं हूँगी; खुद की तो सुनूँगी। बहाना है।"

"हाँ।"

"इनका भेद मिलेगा, आगे भी मिलता रहेगा। इनको काम के लिए धन चाहिए। मैं मदद करूँगी। इस तरह इनका बाजू पकड़े रहना है। पूरी जानकारी हासिल होगी। जैसे अँधेरे में हूँ। तुमने लंबी दुनिया देखी है।"

"हमारा देश छ: सौ मील है।"

"तुम जगह देखना चाहो, चलो दिखा दूँ। रानी के पास ले चलते वक्त दूर से देख लेना छिपकर।"

छत्तीस

चार का समय, दिन का पिछला पहर। रानी साहिबा की फूलदानियों में ताजे फूल दोबारा रखे गए। हार आ गए केले के पत्ते में लपेटे हुए। बर्फ क्रीम-फल तश्तरियों में नाश्ते के लिए आ गए। दक्खिनवाले बड़े बरामदे में छप्परखाट पर थीं। दखिनाव तेज़ चल रहा था। इक्की-दुक्की दासी घूम जाती थी। दोपहर के आराम के बाद गद्दी से उठकर काठ के जीने से रानी साहिबा उतरी और चंदन की चौकी पर बैठी, जिस पर बढ़िया कालीन बिछा था। मुन्ना आई। बाहर की आज्ञा-वाहिनी दासी से कह आई थी, कोई न आए।

मुन्ना को देखकर रानी साहिबा ने सहृदयता से पूछा, "क्या खबर है?"

मुन्ना ने प्रणाम करके दूसरे एकांतवाले कमरे में बुलाया, जहाँ प्रायः रानी साहिबा रहती थीं। वे उठकर चलीं। एक मखमल की गद्दीवाली कुर्सी पर बैठीं। मुन्ना को स्टूल लेकर बैठने के लिए कहा। मुन्ना पंखा यहाँ चलाने के लिए बाहर आज्ञा दे आई, फिर स्टूल लेकर बैठी। प्रसन्न है, रानी ने गौर से देखा। दिल में ग़म है, मुन्ना ताड़ रही थी। राजा साहब के लिए जगह है।

सँभलकर कहा, "हजूर के दर्शन हुए। यहाँ एक भले आदमी टिके हैं। राजा साहब टिका गए हैं। पुरानी कोठी में रहते हैं। दूसरों की आँख बचायी जाती है। और भी उनके साथी हों, संभव है। आज पता चला है। बातचीत की है। राजा साहब गए, अब वे भी जाएंगे। सच्चे और अच्छे पढ़े-लिखे आदमी हैं। अभी नौजवान हैं। तेजस्वी हैं। क्यों हैं, क्या हैं, यह हुजूर को और मालूम होगा। मैं समझती हूँ, उनसे काम निकल सकता है।"

"हमारे मनीजर के इतने पढ़े होंगे?"

"हाँ, जान ऐसा ही पड़ता है।"

"मनीजर को बुलाना होगा।"

"हुजूर, मैं मनीजर साहब की मार्फत बातचीत कराने का बीड़ा नहीं लेती। जब राजा साहब के खास हैं, तब मनीजर साहब से बातचीत नहीं भी कर सकते।"

"फिर क्या सलाह है?"

"आपका भला हो सकता है।"

"अच्छा, कब बुलाना ठीक होगा?"

"शाम के वक्त, दीयाबत्ती हो जाने पर।"

"बुला लेना। यहाँ से कलकत्ता जाएंगे?"

"सरकार!"

"एजाजवालों में हैं?"

"नहीं, यही आपको जान लेना है।"

"अच्छी बात है।"

"पालकी बड़ी ले जाने का विचार है।"

"ले जा।"

मुन्ना आज्ञा मिलने पर बाहर निकली। कहारों को बड़ी पालकी ले चलने के लिए कहा, खास रानीजीवाली। कहारों ने तैयारी की। मुन्ना साथ पुरानी कोठी की तरफ चली। कहारों को अचंभा हुआ। मगर चलते हुए सोचते रहे, रानी साहिबा वहाँ कहाँ मरीं। तालाब की बगल पालकी रखाकर मुन्ना ने कहारों को हट जाने के लिए कहा। कहारों ने वैसा ही किया। दिल से उमड़ रहे थे जैसे कोई बात पकड़ी हो, कलंक पकड़ा हो। प्रभाकर तालाब के घाट पर बैठे थे। मुन्ना गई, और पालकी चलने के लिए रखी है, कहा। प्रभाकर संध्या की सुगंध के भीतर से चले। मुन्ना कुछ देर फिर उनकी चाल देखती रही।

सैंतीस

आमों की राह से होते हुए गुलाबजामुन के बाग के भीतर से मुन्ना पालकी ले चली। कई दफे आते-जाते थक चुकी थी। उमंग थी। एक नयी दुनिया पर पैर रखना है। लोगों को देखने और पहचानने की नयी आँख मिल रही है।

खिड़की पर कहारों और पहरेदार को हटाकर दरवाजा खोलकर प्रभाकर को ले गई। पंखे से समझ गई, रानी साहिबा उसी बैठके में हैं। बड़ेवाले में ले गई।

प्रभाकर ने देखा, एजाजवाले बँगले से यह आलीशान और खुशनुमा है। बड़ी बैठक है। छप्परखाट बड़ी, मेजें बड़ी। आईने बड़े, फूलदानियाँ बड़ी। दरवाजे बड़े। झूलें बड़ी। सनलाइट की बत्तियाँ भी बड़ी। अधिक प्रकाश, अधिक स्निग्धता, अधिक ऐश्वर्य, अधिक सजावट। संगमरमर का फर्श, खुला हुआ, हिंदूपन के चिह्न। दीवारों और छतों पर अत्यंत सुंदर चित्रकारी।

प्रभाकर को चाँदी की कुर्सी पर बैठालकर पास एक सोने के डंडेवाली गद्दीदार कुर्सी रख दी। प्रभाकर साधारण दृष्टि में बड़प्पन लिए हुए देखता रहा। मुन्ना रानी साहिबा के कमरे में गई। हाथ जोड़कर खबर दी।

रानी साहिबा ने हार पहना देने के लिए कहा। फिर दूसरी दासी से घंटे भर में भोजन ले आने के लिए कहा।

हार पहनाकर मुन्ना ने कहा, "रानीजी आ रही हैं। जूतियों की मधुर चटक सुन पड़ी। प्रभाकर ने देखा, एक सुश्री सुंदरी आ रही थीं। समझकर कि रानी हैं, उठकर खड़े हो गए। हाथ जोड़े। रानी साहिबा ने म्लान नमस्कार किया। अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गईं। मेहमानदारी के विचार से आँचल गले में डाल लिया था।

प्रभाकर की ऐसी कुर्सी थी कि सनलाइट का प्रकाश मुँह पर पड़ता था। रानी साहिबा मुँह देखकर बहुत खुशी हुई।

हवा के साथ बाहर के बागीचे से फूलों की खुशबू आ रही थी। उनके आने पर उस बैठक में पंखा चलने लगा।

"आपका शुभ नाम?" रानी ने पूछा।

"जी, मुझको प्रभाकर कहते हैं।"

"आप यहाँ हैं, हमको न मालूम था। कितने दिनों से हैं?"

"यह आप राजा साहब से..." प्रभाकर सहज लाज से झेंपे।

"आपका इधर राजा साहब के बँगले जाना नहीं हुआ?"

"जा चुका हूँ।"

"उसको देखा होगा?"

"जी, हाँ।"

रानीजी को एक धक्का लगा। सँभालने लगीं। कहा, "हम मँज गए हैं। उससे भी मिले?"

"जी, हाँ, मिले।"

रानी साहिबा झेंपी। कहा, "बाजार का अच्छा माल है। राजा साहब खरीदेंगे तो अच्छा देखकर।"

प्रभाकर खामोश रहे। जब्त करते रहे। कहा, "आदमी की पहचान मुश्किल है।"

"हाँ।" रानी साहिबा ने कहा, "हमने देखा है, कलकत्ते में, मगर फूटी आँख। तारीफ थी। उससे क्या काम?"

"तरफदार बनाना।"

"आप दमदार हैं। गला बतलाता है। पहले किसी से बातचीत ऐसी ही मिल्लतवाली रहेगी, फिर, दिल में जम गया तो फायदे की सोची।"

शराफ़त-भरे बड़प्पन से प्रभाकर सिर झुकाये रहे। हल्का मजाक किया, "राजा साहब को चाहिए था, पहले आपसे मिलाते।"

"हम खुद मिल लिए। राजा साहब का कुसूर हट गया।"

"जी।"

रानी साहिबा ने पूछा, "आप सिगरेट-पान शौक फ़रमाते हैं?"

"पान खा लूँगा।"

मुन्ना एक बग़ल खड़ी थी। रानी साहिबा ने देखा, वह गिलौरीवाली तश्तरी उठा लायी। प्रभाकर के सामने मेज पर रख दी। प्रभाकर ने पान खाए। मुन्ना हटकर अपनी जगह खड़ी हो गई।

"आप कब तक कलकत्ता रवाना होंगे?" रानी साहिबा ने पूछा।

"दो ही दिन में, अभी समय का निश्चय, नहीं किया। ज़रूरी काम है।"

"कैसा काम आपके सिपुर्द है, क्या आप बतलाएँगे?"

"अभी नहीं। काम आपके फायदे का है।"

"आपकी हम क्या मदद कर सकते हैं?"

"सहयोग।"

"यह तो यों भी है। आप हमारे घर हैं। आपको नहीं मालूम, हम ऐसी हालत में आपके दोस्त रहेंगे या दुश्मन।"

"सही।"

"आपकी हमारी बातचीत पक्की, मगर राजा साहब से हमारा भेद न खुले।"

"हम ऐसा काम नहीं करते। भेद एक ही है हमारा। उससे आपको फ़ायदा होगा। आप अपनी परिचारिका से समझ लें, जो हमको ले आई है। फिर हमारे काम से, जो हर तरह नेकचलनी का है, आप मददगार हों; राजा साहब भी हैं; आपकी और उनकी पटरी इस तरह बैठ जाएगी।"

"मदद की सूरत क्या हो?"

"आपके यहाँ हमारे केंद्र हैं, देशी कारोबार बढ़ाने के; आप महिला होने के कारण उनकी स्वामिनी; गृहलक्ष्मी शब्द का उपयोग आप ही लोगों के लिए होता है; आप उसकी चारुता बढ़ाने, प्रसार करने में सहायता करें। देश में विदेशी व्यापारियों के कारण अपना व्यवसाय नहीं रह गया। हम उन्हीं के दिए कपड़े से अपनी लाज ढकते हैं; उन्हीं के आईने से मुँह देखते हैं; उन्हीं के सेंट, पौडर, लेवेंडर, क्रीम लगाते हैं; उन्हीं के जूते पहनते हैं; उन्हीं की दियासलाई से आग जलाते हैं। ब्राह्राण की आग गईं; क्षत्रिय का वीर्य गया; वैश्य का व्यापार चौपट हुआ। यह सब हमको लेना है। इसी के रास्ते हम हैं। बंगभंग एक उपलक्ष्य है। दूसरे प्रांत अभी बहुत नाग्रत नहीं, तो कांग्रेस में सभी हैं, यह स्वदेशीवाला भाव हमको घर-घर फैलाना है। आप गृहलक्ष्मी तभी हैं। इस समय रानी होकर भी दासी हैं। आपके घर की तलाशी ली जाएगी तो अधिकांश माल विदेशी होगा। आप इसी में हमारी मदद करें। आपकी सहानुभूति भी हमारे लिए बहुत है।"

मुन्ना खुश हो गई। रानी साहिबा दासी हैं, उसको बहुत अच्छा लगा। उसमें रानी का सही स्वत्व आया। वह तन गई।

प्रभाकर कहते गए, "और यहीं से इस उलझन का खात्मा नहीं हो जाता। अर्थशास्त्र की उलझनदार बड़ी-बड़ी बातें हैं, दूसरे मुल्कों से हमारे क्या संबंध रह गए हैं, हम कितने फायदे और कितने घाटे में रहते हैं, बैंक क्या हैं, कारोबार की क्या दशा है, यह सब एक मुद्दत की पढ़ाई के बाद समझ में आता है। राज्य और राजस्व बिगड़ा हुआ है। इस प्रकार कभी हमारा उत्थान नहीं हो सकता। जाति की नसों में राजनीतिक खून दौड़ाकर एक राजनीतिक जातीयता लाने में कितना श्रम चाहिए, इसका अनुमान आप लगा सकती हैं। मैं आपका एक ऐसा ही सेवक हूँ।"

रानी साहिबा को जान पड़ा, उनका पहला अस्तित्व स्वप्न हो गया है। दूसरा जीवन से उबलता हुआ। देखो, वे मुन्ना से छोटी पड़ गई हैं। मगर उनको बुरा नहीं लग रहा। हृदय के बंद-बंद खुल गए हैं। मुन्ना खड़ी मुस्करा रही है।

रानी साहिबा ने कहा, "हम आपसे सहमत हैं। आप जैसा कहेंगे, हम करेंगे।"

प्रभाकर सोचते रहे। कहा, "इसकी मार्फत हम ख़बर भेजेंगे और भेजते रहेंगे।" मुन्ना की तरफ इशारा किया। और कहते गए, "हर एक की अपनी सुविधा होती है। दूसरे की आज्ञा वह अपनी सुविधा को छोड़कर नहीं मान सकता या मान सकती। इसका अनुभव महीने-दो-महीने साथ रहने पर हो जाता है। फिर हमारे बहुत तरह के काम हैं, कौन किस योग्य, इसकी पहचान की जाती है।"

"आप इसकी मार्फत खबर भेज दीजिएगा, और काम बढ़ाते रहिएगा। आज यहीं भोजन कीजिए। काफी वक्त हो गया। आपको अपनी जगह जाना है।" यह कहकर रानी साहिबा उठीं और अपने पहलेवाले कमरे में गईं। प्रभाकर ने उठकर बिदा किया। पाचक थाली एक मेज से लगा गया था।

हाथ-मुँह धुलाकर भोजन से निवृत्त करके मुन्ना प्रभाकर को उसी तरह उनकी कोठी पर भेज गई। उनकी आज्ञा भी मिली।

अड़तीस

प्रभाकर बहुत काम न कर सके। कुछ किया और कुछ बरबाद कर दिया। भेद खुल जाने की शंका से इसी रात रवाना हो जाने की सोची। मुन्ना को कह दिया कि अच्छा हो अगर रानी साहिबा के साथ या अकेली कलकत्ते में राजा साहब की कोठी पर मिले। घनिष्ठता के लिए पास रहना जरूरी है। अगर दल में आने की इच्छा होगी तो कर्मियों के साथ, अनेकानेक गृहकार्य करने के लिए आ सकती है। मुन्ना ने कलकत्ते में मिलने के लिए कहा।

प्रभाकर आज ही रात रहे लोगों को लेकर बेलपुर रवाना हो गए। रहा-सहा व्यवहारवाला सामान कलकत्तेवाली राजा की कोठी में ले जाने के लिए समझा दिया। रात प्रभात होते गुकाम पर पहुँच गए।

पौ फटते पहुँचे। बुआ जग गई थीं। स्नान से निवृत्त हो चुकी थीं, दिन-भर घर से बाहर न निकलती थीं। एक साधारण जमींदार ने जगह दी थी। बाँस के घेरे में मिट्टी लगाकर दीवार बनाकर छा लिया गया था। तीन-चार कोठरियाँ थीं, तीन-चार चारपाइयाँ और चरखे-करघे आदि। बुआ भोजन पकाती थीं। कर्मी वस्त्र-वयन आदि करते थे। काम जितना था, जोश उससे सैकड़ों गुना अधिक। हिंदू और जमींदारी प्रथा से फँसी जनता साथ थी। जितना अभाव था, पूर्ति उससे बहुत कम। चारों ओर पूर्ति का मंत्रोच्चार था। लोगों में भक्ति थी। इससे बुआ का स्वास्थ्य अच्छा रहा। लोगों को एक सहारा मिला। राज लेनेवाले जमींदार को भी यह पता न हुआ कि एक औरत आई है।

किरण फूटी। प्रभाकर हाथ-पैर धोकर बैठे थे। दूसरे साथी भी बैठे थे। दरवाजा बंद था। बुआ प्रभाकर को प्रणाम करने आईं। आंखों में भक्ति और उच्छ्वास, काम की एक रेखा। मुख पर प्राची का पहला प्रकाश। प्रभाकर देखकर खड़ा हो गया। हाथ जोड़कर नमस्कार किया। बुआ ने भी किया। प्रभाकर ने पूछा, "कैसी रहीं?"

बुआ ने इशारे से समझाया, "अच्छी तरह।" अभी वे बँगला बोल नहीं सकतीं। थोड़ी-थोड़ी समझ लेती हैं। यहाँ आने पर उनका मन बिलकुल बदल गया। वहाँ के प्रभाव का दबाव जाता रहा। ललित ने कहा, "थोड़ी सी चाय पिला सकती हैं?"

बुआ चूल्हा जलानेवाली थीं। चलकर जलाया। कर्मी चाय पीते हैं। सामान है। पानी उबालने लगीं। आधे घंटे में बढ़िया चाय बनाकर प्यालों में ले आईं। तश्तरी में सुपाड़ी, लौंग, इलायची, सौंफ, जवाइन, मुखशुद्धि के लिए। लोग मुँह धो चुके थे। चाय पी, लौंग-सुपाड़ी खायी। काम की बातचीत करने लगे, कितना कपड़ा महीने में बनकर कलकत्ता जाता है, कितना काम बढ़ाया जा सकता है, लोगों की सहानुभूति कैसी है, अधिक संख्या में लोग व्यापार के लिए तैयार हैं या नहीं। जवाब मिला, जमींदार आए थे, दरवाजे पर बैठे थे, कहते थे, सरकारी लोग खलमंडल करते हैं; कारोबार चलने नहीं देना चाहते; डरवाते हैं, जड़-समेत उखाड़कर फेंक देंगे; सज़ा कर देंगे; बदमाशी के अड्डे हैं, कहते हैं।

प्रभाकर ने कहा- "मिलों का मुकाबला है, मुश्किल मुकाम है; मिलवाले ज़मींदारों की तरह इस आंदोलन में शरीक नहीं, सरकार को उनकी तरफदारी प्राप्त है; दलाल हैं ये लोग; विघ्न डालेंगे; देहात के बाजारों में इनका माल आता है; ज्यादातर विदेशी माल हैं; दुकानदारों को ये लोग बाँधे हैं; माल खपाते हैं; विदेशी बनियों का भी सरकार पर प्रभाव है; वे ज्यादती करने की प्रेरणा देते होंगे; बड़ी मुश्किलों का सामना है। देश के इन गधों से ईश्वर पार लगाए।"

बुआ सुन रही थीं। प्रभाकर से सहानुभूति थी।

ललित ने पूछा, "मछली पका सकती हैं? आज प्रभाकर बाबू को यहाँ के ज़मींदार के तालाब से पकड़कर खिलायी जाए, हम लोग भी खाएं, हम बता देंगे, या हमीं बनाएँगे।"

बुआ ने कहा, "बाद को बना देंगे। हमारे घर में लोग मछली खाते थे। खास तरह की हो तो बता देना।"।

ललित एक साथी लेकर मछली की तलाश में गया। बुआ ने आलू-परवल के भाजे, डालना, रसेदार, शकरकंद की इमली और शकरवाली तरकारियाँ पकायीं, दाल बनायी, भात बनाया; कुल बंगाली प्रकार जैसा बताया गया था। दुपहर तक भोजन तैयार हो गया। मछली भी आई थी, भोजन एक किनारे रखकर उसको भी बना दिया। आसन बिछाए। गिलासों में पानी रखा। पत्तलें लगाईं। कटोरियों में दाल रखी; मिट्टी के प्यालों में रसेदार तरकारी और मछली। फिर सबको खिलाया। प्रभाकर बुआ के काम से बहुत प्रसन्न हुए। देहात निरापद नहीं, ख़ासतौर से जब यह तैयारी हो रही है।

दूसरे दिन बचकर बुआ को लेकर वे कलकत्ता रवाना हुए। कुछ दूर। चलकर नाव किराये पर की, फिर रेल पकड़ी।

उन्तालीस

यूसुफ छनके। पिता से कुछ हाल कहा। अली स्वदेशी के मामले से, राजों के कलकत्तेवाले कोचमैनों से मिले, उनमें किसी का लड़का थानेदार न हुआ था, अली को इज्जत से बैठाला। सच-झूठ हाल सुनाकर आंदोलन में सरकार की मदद के लिए अली ने उनको उभाड़ा। उन्होंने साथ देने को कहा और अली के गिरोह में आ गए। खिलाफ कार्रवाई में भेद देने का इरादा पक्का कर लिया। कुल काम कर चले।

इसी लगाव से अली ने एजाज के घर एक कोचमैन को भेजा। नोटबुक के अनुसार 'सीन' कहने के लिए कहा और क्या जवाब मिलता है, खामोशी से लौटकर सुनाने के लिए समझाया। गरोह की पहचान के लिए दूसरे-दूसरे राजों के दो कोचमैन भेजे, ताकि हिम्मत बँधी रहे, यों सरकारी आदमी को कोई खतरा नहीं, यह भी कहा। लोग गए आगे-पीछे रहे। एजाज की कोठी देखी। बागीचे देखे। दरबान से बातचीत की। 'सीन' कहा। नसीम को मालूम हुआ। एजाज आ गई थी। समझकर कह दिया, "फँस गया।" लौटकर लोगों ने अली से कहा। अली बहुत खुश हुए। यूसुफ से कहा।

यूसुफ को जान मिली। कुछ अरसा किया, फिर गए। खुशी और कामयाबी का दरिया बह रहा था। तरह-तरह की भवरें उठ रही थीं। दिल में गड़ गया कि एक नाका तोड़ लिया, इसी रास्ते चलेंगे। बग्घी किराये की। दो आदमियों को बैठालकर चले। डोर लगी थी। बढ़िया-बढ़िया स्क्वायर और रास्ते पार करती बग्घी चली, बढ़िया-बढ़िया मकान। एक बढ़िया फाटकदार बँगलानुमा प्रासाद में बग्घी गई। यूसुफ को उतारकर रास्ते पर खड़ी हुई। यूसुफ दरबान से कहकर गेस्टरूम में बैठे। सेक्रेटरी आए। देखकर पहचान गए। यूसुफ ने कहा, "तीन और तीन।"

सेक्रेटरी मुस्कराकर दबे-पांव एजाज के पास गए। एजाज मेज पर थीं, खत-किताबत कर रही थीं। सेक्रेटरी को देखकर मुखातिब हुई। सेक्रेटरी 'तीन और तीन' के साथ आए आदमी का परिचय भी दिया।

एजाज ने कहा, "आप अपने नोटबुक में दर्ज कर लीजिए कुछ मेरा भी हिसाब है। यहाँ के सुबूत जहाँ तक हैं, लिए रहिए। वकील की मार्फत भेजिएगा। कुर्सी डलवा दीजिए।" सेक्रेटरी गए। एजाज ने नसीम को अपने पाजामे-दुपट्टे से भेजा। कामदार जूतियाँ। सिखला दिया। यों नसीम भी भेद लेना जानती थी।

नीचे सेक्रेटरी की बग़लवाले कमरे में कुर्सियाँ डाली गईं। वह आकर बैठी। यूसुफ से चलने के लिए कहा गया। वे गए। नसीम ने उठकर सलाम किया। फूलदानी की बगल से, कुर्सी पर बैठने के लिए हाथ बढ़ाया। यूसुफ ने बैठे देखा यह वही हैं। पूछा "मिजाज अच्छा?"

"जी, हाँ।"

"हमको पूरी जानकारी चाहिए।"

"हम अपना भी हिसाब रखेंगे।"

"इससे सरकार की तरफ से बहुत फायदा न होगा। क्योंकि खैरख्वाही की सिफारिश पहले हमारी ली जाएगी। यह एक तरह की कमजोरी है और इससे सरकार के कान खड़े होते हैं। आपकी तबियत, जैसा आप चाहें, करें।"

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