चोरी (कहानी) : सआदत हसन मंटो
Chori (Hindi Story) : Saadat Hasan Manto
स्कूल के तीन चार लड़के अलाव के गिर्द हलक़ा बना कर बैठ गए। और उस बूढ़े आदमी से जो टाट पर बैठा अपने इस्तिख़वानी हाथ तापने की ख़ातिर अलाव की तरफ़ बढ़ाए था कहने लगे “बाबा जी कोई कहानी सनाईए?”
मर्द-ए-मुअम्मर ने जो ग़ालिबन किसी गहरी सोच में ग़र्क़ था। अपना भारी सर उठाया जो गर्दन की लागरी की वजह से नीचे को झुका हुआ था। “कहानी!........ मैं ख़ुद एक कहानी हूँ मगर.... इस के बाद के अल्फ़ाज़ उस ने अपने पोपले मुँह ही में बड़बड़ाए........ शायद वो इस जुमले को लड़कों के सामने अदा करना नहीं चाहता था जिन की समझ इस काबिल न थी कि वो फ़ल्सफ़ियाना निकात हल करसकें।
लकड़ी के टुकड़े एक शोर के साथ जल जल कर आतिशीं शिकम को पुर कर रहे थे। शोलों की उन्नाबी रोशनी लड़कों के मासूम चेहरों पर एक अजीब अंदाज़ में रक़्स कर रही थी। नन्ही नन्ही चिनगारियां सपैद राख की निक़ाब उलट उलट कर हैरत में सर बुलंद शोलों का मुँह तक रही थीं।
बूढ़े आदमी ने अलाव की रोशनी में से लड़कों की तरफ़ निगाहें उठा कर कहा। “कहानी........ हररोज़ कहानी!........ कल सुनाऊंगा।”
लड़कों के तिमतिमाते हुए चेहरों पर अफ़्सुर्दगी छागई। नाउम्मीदी के आलम में वो एक दूसरे का मुँह तकने लगे। गोया वो आँखों ही आँखों में कह रहे थे। “आज रात कहानी सुने बग़ैर सोना होगा।” यकायक उन में से एक लड़का जो दूसरों की बनिसबत बहुत होशियार और ज़हीन मालूम होता था अलाव के क़रीब सरक कर बुलंद आवाज़ में बोला। “मगर कल आप ने वाअदा किया था और वाअदा ख़िलाफ़ी करना दरुस्त नहीं........ क्या आप को कल वाले हामिद का अंजाम याद नहीं है जो हमेशा अपना कहा भूल जाया करता था।”
“दरुस्त!........ मैं भूल गया था।” बूढ़े आदमी ने ये कह कर अपना सर झुका लिया। जैसे वो अपनी भूल पर नादिम है। थोड़ी देर के बाद वो इस दिलेर लड़के की जुर्रत का ख़याल करके मुस्कुराया। “मेरे बच्चे! मुझ से ग़लती होगई। मुझे माफ़ कर दो.... मगर मैं कौन सी कहानी सुनाओं? ठहरो। मुझे याद कर लेने दो।” ये कहते हुए वो सर झुका कर गहरी सोच में ग़र्क़ होगया।
उसे जिन और परीयों की लायानी दास्तानों से सख़्त नफ़रत थी। वो बच्चों को ऐसी कहानियां सुनाया करता था। जो उन के दिल-ओ-दिमाग़ की इस्लाह कर सकें। उसे बहुत से फ़ुज़ूल क़िस्से याद थे जो उस ने बचपन में सुने थे। या किताबों में पढ़े थे। मगर उस वक़्त वो अपने बरबत पीरी के बोसीदा तार छेड़ रहा था कि शायद इन में कोई ख़ाबीदा राग जाग उठे।
लड़के बाबा जी को ख़ामोश देख कर आपस में आहिस्ता आहिस्ता बातें करने लगे। ग़ालिबन उस लड़के की बाबत जिसे किताब चुराने पर बेद की सज़ा मिली थी। बातों बातों में उन में से किसी ने बुलंद आवाज़ में कहा। “मास्टर जी के लड़के ने भी तो मेरी किताब चुराली थी। मगर उसे सज़ा ज़रा न मिली।”
“किताब चुरा ली थी।” इन चार लफ़्ज़ों ने जो बुलंद आवाज़ में अदा किए गए थे। बूढ़े की ख़ुफ़ता याद में एक वाक़िया को जगह दिया। उस ने अपना सपैद सर उठाया और अपनी आँखों के सामने भूली बिसरी दास्तान को अनगड़ाईआं लेते पाया। एक लम्हा के लिए उस की आँखों में चमक पैदा हुई। मगर वहीं ग़र्क़ हो गई........ इज़्तिराब की हालत में उस ने अपने नहीफ़ जिस्म को जुंबिश दे कर अलाव के क़रीब किया। उस के चेहरे के तग़य्युर-ओ-तबद्दुल से साफ़ तौर पर अयाँ था। कि वो किसी वाक़िया को दुबारा याद करके बहुत तकलीफ़ महसूस कर रहा है।
अलाव की रोशनी बदस्तूर लड़कों के चेहरों पर नाच रही थी। दफ़अतन बूढ़े ने आख़िरी इरादा करते हुए कहा: “बच्चो! आज में अपनी कहानी सुनाऊंगा।”
लड़के फ़ौरन अपनी बातें छोड़कर हमातन गोश होगए। अलाव की चटख़्ती हुई लकड़ियां एक शोर के साथ अपनी अपनी जगह पर उभर कर ख़ामोश होगईं........ एक लम्हा के लिए फ़िज़ा पर मुकम्मल सुकूत तारी रहा........
“बाबा जी अपनी कहानी सुनाईंगे? ” एक लड़के ने ख़ुश हो कर कहा। बाक़ी सरक कर आग के क़रीब ख़ामोशी से बैठ गए।
“हाँ, अपनी कहानी।” ये कह कर बूढ़े आदमी ने अपनी झुकी हुई घनी भों में से कोठड़ी के बाहर तारीकी में देखना शुरू किया। थोड़ी देर के बाद वो लड़कों से फिर मुख़ातब हुआ। “मैं आज तुम्हें अपनी पहली चोरी की दास्तान सुनाऊंगा।”
लड़के हैरत से एक दूसरे का मुँह तकने लगे। उन्हें इस बात का वहम-ओ-गुमान भी न था। कि बाबा जी किसी ज़माना में चोरी भी करते रहे हैं........ बाबा जी जो हरवक़्त उन्हें बुरे कामों से बचने के लिए नसीहत किया करते हैं।
लड़का जो इन में दिलेर था। अपनी हैरत न छुपा सका। “पर क्या आप ने वाक़ई चोरी की?”
“वाक़ई!”
“आप उस वक़्त किस जमात में पढ़ा करते थे?”
“नौवीं में।”
ये सुन कर लड़के की हैरत और भी बढ़ गई। उसे अपने भाई का ख़याल आया जो नौवीं जमात में तालीम पारहा था वो इस से उम्र में दोगुना बड़ा था। उस की तालीम इस से कहीं ज़्यादा थी। वो अंग्रेज़ी की कई किताबें पढ़ चुका था। और इसे हरवक़्त नसीहतें किया करता था। ये क्यों कर मुम्किन था कि इस उम्र का और अच्छा पढ़ा लिखा लड़का चोरी करे?........ उस की अक़ल इस मुअम्मा को हल न कर सकी। चुनांचे उस ने फिर सवाल किया। “आप ने चोरी क्यों की?”
इस मुश्किल सवाल ने बूढे को थोड़ी देर के लिए घबरा दिया........ आख़िर वो इस का क्या जवाब दे सकता था कि फ़ुलां काम उस ने क्यों किया? बज़ाहिर इस का जवाब यही हो सकता था। इस लिए कि उस वक़्त इस के दिमाग़ में यही ख़याल आया।
उस ने दिल में यही जवाब सोचा। मगर उस ने मुतमइन न हो कर ये बेहतर ख़याल किया कि तमाम दास्तान मिन-ओ-अन बयान करदे।
“इस का जवाब मेरी कहानी है। जो मैं अब तुम्हें सुनाने वाला हूँ।”
“सुनाईए?”
लड़के उस बूढ़े आदमी की चोरी का हाल सुनने के लिए अपनी अपनी जगह पर जम कर बैठ गए। जो अलाव के सामने अपने सपैद बालों में उंगलीयों से कंघी कर रहा था। और जैसे वो एक बहुत बड़ा आदमी ख़याल करते थे।
बुढ्ढा कुछ अर्से तक अपने बालों में उंगलियां फेरता रहा। फिर उस भूले हुए वाक़िया के तमाम मुंतशिर टुकड़े फ़राहम करके बोला:।
“हर शख़्स ख़्वाह वो बड़ा हो या छोटा। अपनी ज़िंदगी में कोई न कोई ऐसी हरकत ज़रूर करता है जिस पर वो तमाम उम्र नादिम रहता है। मेरी ज़िंदगी में सब से बुरा फ़ेअल एक किताब की चोरी है........ ”
ये कह कर वो रुक गया। उस की आँखें जो हमेशा चमकती रहती थीं। धुंदली पड़ गईं। उस के चेहरे की तबदीली से साफ़ ज़ाहिर था कि वो इस वाक़िया को बयान करते हुए ज़बरदस्त ज़हनी तकलीफ़ का सामना कर रहा है। चंद लम्हात के तवक्कुफ़ के बाद वो फिर बोला:।
“सब से मकरूह फ़ेअल किताब की चोरी है। ये मैंने एक कुतुबफ़रोश की दुकान से चुराई। ये उस ज़माना का ज़िक्र है। जब में नौवीं जमात में तालीम पाता था। क़ुदरती तौर पर जैसा कि अब तुम्हें कहानी सुनने का शौक़ है मुझे अफ़साने और नॉवेल पढ़ने का शौक़ था........ दोस्तों से मांग कर या ख़ुद ख़रीद कर मैं हर हफ़्ते एक न एक किताब ज़रूर पढ़ा करता था। वो किताबें उमूमन इश्क़-ओ-मोहब्बत की बेमानी दास्तानें या फ़ुज़ूल जासूसी क़िस्से हुआ करते थे। ये किताबें मैं हमेशा छुपछुप कर पढ़ा करता था। वालिदैन को इस बात का इल्म न था। अगर उन्हें मालूम होता तो वो मुझे ऐसा हर्गिज़ हर्गिज़ न करने देते। इस लिए कि इस क़िस्म की किताबें स्कूल के लड़के के लिए बहुत नुक़्सानदेह होती हैं। मैं उन के मोहलिक नुक़्सान से ग़ाफ़िल था। चुनांचे मुझे इस का नतीजा भुगतना पड़ा। मैंने चोरी की और पकड़ा गया........
एक लड़के ने हैरतज़दा हो कर कहा। “आप पकड़े गए?”
“हाँ पकड़ा गया........ चूँकि मेरे वालिदैन इस वाक़िया से बिलकुल बेख़बर थे। ये आदत पकते पकते मेरी तबीयत बन गई। घर से जितने पैसे मिलते हैं उन्हें जोड़ जोड़ कर बाज़ार से अफ़सानों की किताबें ख़रीदने में सर्फ़ करदेता। स्कूल की पढ़ाई से रफ़्ता रफ़्ता मुझे नफ़रत होने लगी। हरवक़्त मेरे दिल में यही ख़याल समाया रहता कि फ़ुलां किताब जो फ़ुलां नॉवेल नवेस ने लिखी है ज़रूर पढ़नी चाहिए। या फ़ुलां कुतुबफ़रोश के पास नई नॉवेलों का जो ज़ख़ीरा मौजूद है। एक नज़र ज़रूर देखना चाहिए। शौक़ की ये इंतिहा दूसरे माअनों में दीवानगी है। इस हालत में इंसान को मालूम नहीं होता। कि वो क्या करने वाला है। या क्या कर रहा है। उस वक़्त वो बे-अक़ल बच्चे के मानिंद होता है जो अपनी तबीयत ख़ुश करने या शौक़ पूरा करने के लिए जलती हुई आग में भी हाथ डाल देता है। उसे ये पता नहीं होता कि चमकने वाली शैय जिसे वो पकड़ रहा है इस का हाथ जला देगी। ठीक यही हालत मेरी थी। फ़र्क़ इतना है कि बच्चा शुऊर से महरूम होता है। इस लिए वो बग़ैर समझे बूझे बुरी से बुरी हरकत कर बैठता है मगर मैंने अक़ल का मालिक होते हूए चोरी ऐसे मकरूह जुर्म का इर्तिकाब किया........ ये आँखों की मौजूदगी में मेरे अंधे होने की दलील है। मैं हर्गिज़ ऐसा काम न करता। अगर मेरी आदत मुझे मजबूर न करती।
हर इंसान के दिमाग़ में शैतान मौजूद होता है। जो वक़तन फ़वक़तन उसे बुरे कामों पर मजबूर करता है। ये शैतान मुझ पर उस वक़्त ग़ालिब आया जबकि सोचने के लिए मेरे पास बहुत कम वक़्त था....ख़ैर
लड़के ख़ामोशी से बूढ़े के हिलते हुए लबों की तरफ़ निगाहें गाड़े उन की दास्तान सुन रहे थे। दास्तान का तसलसुल उस वक़्त टूटता देख कर जब कि असल मक़सद बयान किया जाने वाला था। वो बड़ी बेक़रारी से बक़ाया तफ़सील का इंतिज़ार करने लगे।
“मसऊद बेटा! ये सामने वाला दरवाज़ा तो बंद करदेना........ सर्द हवा आरही है।” बूढ़े ने अपना कम्बल घुटनों पर डाल लिया।
मसऊद, “अच्छा बाबा जी।” कह कर उठा और कोठड़ी का दरवाज़ा बंद करने के बाद अपनी जगह पर बैठ गया।
“हाँ तो एक दिन जबकि वालिद घर से बाहर थे।” बूढ़े ने अपनी दास्तान का बक़ाया हिस्सा शुरू किया। “मुझे भी कोई ख़ास काम न था। और वो किताब जो मैं उन दिनों पढ़ रहा था ख़त्म होने के क़रीब थी। इस लिए मेरे जी में आई कि चलो उस कुतुबफ़रोश तक हो आएं। जिस के पास बहुत सी जासूसी नॉवेलें पड़ी थीं।
मेरी जेब में उस वक़्त इतने पैसे मौजूद थे। जो एक मामूली नॉवेल के दाम अदा करने के लिए काफ़ी हों। चुनांचे में घर से सीधा उस कुतुबफ़रोश की दुकान पर गया........यूं तो उस दुकान पर हरवक़्त बहुत सी अच्छी अच्छी नॉवेलें मौजूद रहती थीं। मगर उस दिन खासतौर पर बिलकुल नई किताबों का एक ढेर बाहर तख़्ते पर रखा था। इन किताबों के रंग बिरंग सर-ए-वर्क़ देख कर मेरी तबीयत में एक हैजान सा बरपा होगया। दिल में इस ख़्वाहिश ने गुदगुदी की कि वो तमाम मेरी हो जाएं।
मैं दुकानदार से इजाज़त लेकर इन किताबों को एक नज़र देखने में मशग़ूल होगया। हर किताब के शोख़ रंग सर-ए-वर्क़ पर इस क़िस्म की कोई न कोई इबारत लिखी हूई थी।
“नामुमकिन है कि इस का मुताला आप पर सनसनी तारी न करदे।”
“मुसव्विर इसरार का लासानी शाहकार।”
“तमसील! हैजान!! रोमान!!!........ सब यकजा।”
इस क़िस्म की इबारतें शौक़ बढ़ाने के लिए काफ़ी थीं। मगर मैंने कोई ख़ास तवज्जो न दी। इस लिए कि मेरी नज़रों से अक्सर ऐसे अल्फ़ाज़ गुज़र चुके थे। मैं थोड़ा अर्सा किताबों को उलट पलट कर देखता रहा। उस वक़्त मेरे दिल में चोरी करने का ख़याल मुतल्लिक़न न था। बल्कि मैंने ख़रीदने के लिए एक कम क़ीमत की नावल चिन्ह कर अलग भी रख ली थी। थोड़ी देर के बाद दिल में ये इरादा करके में दूसरे हफ़्ते इन नॉवेलों को दुबारा देखने आऊँगा........ मैंने अपनी चुनी हुई किताब उठाई........ किताब का उठाना था कि मेरी निगाहें एक मुजल्लद नॉवेल पर गड़ गईं। सर-ए-वर्क़ के कोने पर मेरे महबूब नावेलिस्ट का नाम सुर्ख़ लफ़्ज़ों में छपा था। इस के ज़रा ऊपर किताब का नाम था।
“मुंतक़िम शुवाएं........ किस तरह एक दीवाने डाक्टर ने लंदन को तबाह करने का इरादा किया।”
ये सुतूर पढ़ते ही मेरे इश्तियाक़ में तुग़यानी सी आगई........ किताब का मुसन्निफ़ वही था। जिस ने इस से पेशतर मुझ पर रातों की नींद हराम कर रखी थी। नॉवेल को देखते ही मेरे दिमाग़ में ख़यालात का एक गिरोह दाख़िल होगया।
“मुंतक़िम शुवाएं........ दीवाने डाक्टर की ईजाद........ कैसा दिलचस्प अफ़साना होगा!”
“लंदन तबाह करने का इरादा........ ये किस तरह हो सकता है?”
“इस मुसन्निफ़ ने फ़ुलां फ़ुलां किताबें कितनी सनसनीखेज़ लिखी हैं!”
“ये किताब ज़रूर उन सब से बेहतर होगी!”
मैं ख़ामोश इश्तियाक़ के साथ इस किताब की तरफ़ देख रहा था और ये ख़यालात यके बाद दीगरे मेरे कानों में शोर बरपा कररहे थे। मैंने इस किताब को उठाया और खोल कर देखा तो पहले वर्क़ पर ये इबारत नज़र आई। “मुसन्निफ़ इस किताब को अपनी बेहतरीन तसनीफ़ क़रार देता है।”
इन अल्फ़ाज़ ने मेरे इश्तियाक़ में आग पर ईंधन का काम दिया। इका ईकी मेरे दिमाग़ के ख़ुदा मालूम किस गोशे से एक ख़याल कूद पड़ा........ वो ये कि मैं इस किताब को अपने कोट में छुपा कर ले जाऊं। मेरी आँखें बेइख़्तियार कुतुबफ़रोश की तरफ़ मुड़ें। जो काग़ज़ पर कुछ लिखने में मशग़ूल था। दूकान की दूसरी तरफ़ दो नौजवान खड़े मेरी तरह किताबें देख रहे थे........ मैं सर से पैर तक लरज़ गया।”
ये कहते हुए बूढ़े का नहीफ़ जिस्म इस वाक़िया की याद से काँपा.... थोड़ी देर तक ख़ामोश रह कर उस ने फिर अपनी दास्तान शुरू करदी। एक लहज़ा के लिए मेरे दिमाग़ में ये ख़याल पैदा हुआ कि चोरी करना बहुत बुरा काम है मगर ज़मीर की आवाज़ सर-ए-वर्क़ पर बनी हुई लाँबी लाँबी शुवाओं में ग़र्क़ होगई। मेरा दिमाग़ मुंतक़िम शुवाएं मुंतक़िम शुवाएं की गर्दान कर रहा था। मैंने इधर उधर झांका और झट से वो किताब कोट के अंदर बग़ल में दबा ली मगर में काँपने लगा।
इस हालत पर क़ाबू पा कर मैं कुतुबफ़रोश के क़रीब गया। और इस किताब के दाम अदा करदिए। जो मैंने पहले ख़रीदी थी। क़ीमत लेते वक़्त और रुपय में से बाक़ी पैसे वापिस करने में उस ने ग़ैरमामूली ताख़ीर से काम लिया। मेरी तरफ़ उस ने घूर कर भी देखा। जिस से मेरी तबीयत सख़्त परेशान होगई। जी में भी आई कि सब कुछ छोड़ छाड़ कर वहां से भाग निकलूं।
मैंने इस दौरान में कई बार उस जगह पर जो किताब की वजह से उभरी हुई थी निगाह डाली........ और शायद इसे छिपाने की बेसूद कोशिश भी की। मेरी इन अजीब-ओ-ग़रीब हरकतों को देख कर उसे शक ज़रूर हुआ। इस लिए कि वो बार बार कुछ कहने की कोशिश करके फिर ख़ामोश हो जाता था।
मैंने बाक़ी पैसे जल्दी से लिए और वहां से चल दिया। दो सौ क़दम के फ़ासले पर मैंने किसी की आवाज़ सुनी। मुड़ कर देखा तो कुतुबफ़रोश नंगे पांव चला आरहा था और मुझे ठहरने के लिए कह रहा था ........ मैंने अंधा धुंद भागना शुरू कर दिया।
मुझे मालूम न था मैं किधर भाग रहा हूँ। मेरा रुख़ अपने घर की जानिब न था। मैं शुरू ही से उस तरफ़ भाग रहा था जिधर बाज़ार का इख़्तिताम था। इस ग़लती का मुझे उस वक़्त एहसास हुआ जब दो तीन आदमियों ने मुझे पकड़ लिया।
बूढ़ा इतना कह कर इज़्तिराब की हालत में अपनी ख़ुश्क ज़बान लबों पर फेरने लगा। कुछ तवक्कुफ़ के बाद वो एक लड़के से मुख़ातब हुआ।
“मसऊद! पानी का एक घूँट पिलवाना।”
मसऊद ख़ामोशी से उठा। और कोठड़ी के एक कोने में पड़े हुए घड़े से गिलास में पानी उंडेल कर ले आया। बूढ़े ने गिलास लेते ही मुँह से लगा लिया और एक घूँट में सारा पानी पी गया। और ख़ाली गिलास ज़मीन पर रखते हुए कहा। “हाँ में क्या बयान कर रहा था?”
एक लड़के ने जवाब दिया। “आप भागे जा रहे थे।”
मेरे पीछे कुतुबफ़रोश चोर चोर की आवाज़ बुलंद करता चला आरहा था जब मैंने दो तीन आदमियों को अपना तआक़ुब करते देखा तो मेरे होश ठिकाने ना रहे। जेल की आहनी सलाखें, पुलिस और अदालत की तस्वीरें एक एक करके मेरी आँखों के सामने आगईं। बेइज़्ज़ती के ख़याल से मेरी पेशानी अर्क़ आलूद होगई। मैं लड़खड़ाया और गिर पड़ा। उठना चाहा तो टांगों ने जवाब दे दिया। उस वक़्त मेरे दिमाग़ की अजीब हालत थी। एक तुंद धुआँ सा मेरे सीने में करवटें ले रहा था। आँखें फरत-ए-ख़ौफ़ से उबल रही थीं। और कानों में एक ज़बरदस्त शोर बरपा था। जैसे बहुत से लोग आहनी चादरें हथौड़ों से कूट रहे हैं। में अभी उठ कर भागने की कोशिश ही कररहा था कि कुतुबफ़रोश और उसके साथियों ने मुझे पकड़ लिया। उस वक़्त मेरी क्या हालत थी। इस का बयान करना बहुत दुशवार है। सैंकड़ों ख़यालात पत्थरों की तरह मेरे दिमाग़ से टकरा टकरा कर मुख़्तलिफ़ आवाज़ें पैदा कर रहे थे। जब उन्हों ने मुझे पकड़ा तो ऐसा मालूम हुआ कि आहनी पंजा ने मेरे दिल को मसल डाला है........ मैं बिलकुल ख़ामोश था। वो मुझे दुकान की तरफ़ कशां कशां ले गए।
जेल ख़ाने की कोठड़ी और अदालत का मुँह देखना यक़ीन था। इस ख़याल पर मेरे ज़मीर ने लानत मलामत शुरू करदी। चूँकि अब जो होना था हो चुका था। और मेरे पास अपने ज़मीर को जवाब देने के लिए कोई अल्फ़ाज़ मौजूद ना थे। इस लिए मेरी गर्म आँखों में आँसू उतर आए और मैंने बेइख़्तियार रोना शुरू कर दिया।”
ये कहते हुए बूढ़े की धुंदली आँखें नमनाक होगईं।
कुतुबफ़रोश ने मुझे पुलिस के हवाले न किया। अपनी किताब ले ली और नसीहत करने के बाद छोड़ दिया। बूढ़े ने अपने आँसू खुरदरे कम्बल से ख़ुश्क किए........ ख़ुदा उस को जज़ाए ख़ैर दे। मैं अदालत के दरवाज़े से तो बच गया। मगर इस वाक़िया की वालिद और स्कूल के लड़कों को ख़बर होगई। वालिद मुझ पर सख़्त ख़फ़ा हूए लेकिन उन्हों ने भी अख़ीर में मुझे माफ़ कर दिया।
दो तीन रोज़ मुझे इस नदामत के बाइस बुख़ार आता रहा इस के बाद जब मैंने देखा मेरा दिल किसी करवट आराम नहीं लेता और मुझ में इतनी क़ुव्वत नहीं कि मैं लोगों के सामने अपनी निगाहें उठा सकूं। तो मैं शहर छोड़ कर वहां से हमेशा के लिए रुपोश होगया। उस वक़्त से लेकर अब तक मैंने मुख़्तलिफ़ शहरों की ख़ाक छानी है। हज़ारों मसाइब बर्दाश्त किए हैं। सिर्फ़ उस किताब की चोरी की वजह से जो मुझे ता दम-ए-मर्ग नादिम-ओ-शर्मसार रखेगी।
इस आवारागर्दी के दौरान में, मैंने और भी बहुत सी चोरियां कीं। डाके डाले और हमेशा पकड़ा गया। मगर उन पर नादिम नहीं हूँ........ मुझे फ़ख़्र है।”
बूढ़े की धुंदली आँखों में फिर पहली सी चमक नुमूदार होगई। और उस ने अलाव के शोलों को टिकटिकी बांध कर देखना शुरू कर दिया। “हाँ मुझे फ़ख़्र है।” ये लफ़्ज़ उस ने थोड़े तवक्कुफ़ के बाद दुबारा कहे।
अलाव में आग का एक शोला बुलंद हुआ........ और एक लम्हा फ़िज़ा में थरथरा कर वहीं सौ गया। बूढ़े ने शोले की जुर्रत देखी और मुस्कुरा दिया। फिर लड़कों से मुख़ातब होकर कहने लगा। कहानी ख़त्म होगई अब तुम जाओ। तुम्हारे माँ बाप इंतिज़ार करते होंगे।
मसऊद ने सवाल किया। मगर आप को अपनी दूसरी चोरियों पर क्यों फ़ख़्रर है?”
“फ़ख़्रर क्यों है?........ ” बूढ़ा मुस्कुरा दिया। “इस लिए कि वो चोरियां नहीं थीं........ अपनी मसरूक़ा चीज़ों को दुबारा हासिल करना चोरी नहीं होती मेरे अज़ीज़! बड़े हो कर तुम्हें अच्छी तरह मालूम हो जाएगा।”
“मैं समझा नहीं।”
“हर वह चीज़ जो तुम से चुरा ली गई है, तुम्हें हक़ हासिल है कि उसे हर मुम्किन तरीक़ा से अपने क़ब्ज़ा में ले आओ। पर याद रहे तुम्हारी कोशिश कामयाब होनी चाहिए। वर्ना ऐसा करते हुए पकड़े जाना और अज़ीयतें उठाना अबस है।”
लड़के उठे और बाबा जी को शब बख़ैर कहते हुए कोठड़ी के दरवाज़ा से बाहर चले गए। बूढ़े की निगाहें उन को तारीकी में गुम होते देखती रहीं। थोड़ी देर इसी तरह देखने के बाद वो उठा और कोठड़ी का दरवाज़ा बंद करते हुए बोला:।
“काश कि ये बड़े हो कर अपनी खोई हुई चीज़ वापस ले सकें।” बूढ़े को ख़ुदा मालूम इन लड़कों से क्या उम्मीद थी?
(1941)