चोरी की शिक्षा : आदिवासी लोक-कथा

Chori Ki Shiksha : Adivasi Lok-Katha

एक भीलनी थी जिसका एक ही पुत्र था। पुत्र का नाम था सानक। सानक की माँ घर-घर जाकर तरह-तरह के काम करती थी। उससे जो पैसे मिलते उसी से माता-पुत्र का पेट पलता। सानक की माँ थी तो मेहनती किंतु उसमें एक सबसे बड़ा अवगुण था कि वह जिस घर में जाती वहाँ से कोई न कोई वस्तु चुरा लाती।

धीरे-धीरे सानक में भी चोरी करने का अवगुण आ गया। वह जब कोई वस्तु कहीं से चुरा कर लाता और अपनी माँ को दिखाता तो वह उसे डाँटने के बदले उसे दुलार करती। इस प्रकार वह अपने बेटे को चोरी करने के लिए प्रोत्साहित करती।

जब सानक युवा हो गया तो उसे और बड़ी चोरी करने की इच्छा हुई। उसने नगर सेठ के घर चोरी करने की योजना बनाई। राज के समय वह नगर सेठ के घर घुस गया। उसने कीमती सामान एक कपड़े में बाँधे और भागने ही वाला था कि चौकीदार ने उसे देख लिया। सानक ने घबरा कर वहीं रखी सुराही चौकीदार की ओर फेंकी। सुराही चौकीदार के सिर पर लगी और वह वहीं ढेर हो गया। इस हो-हल्ले में घर के सब लोग जाग गए और सानक पकड़ा गया।

उसे न्यायाधीश के पास ले जाया गया। न्यायाधीश ने उसे चौकीदार की हत्या के आरोप में मृतयुदंड की सजा सुनाई। फाँसी दिए जाने से पूर्व सानक से उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई।

‘मैं अपनी माँ से मिलना चाहता हूँ।’ सानक ने अपनी अंतिम इच्छा बताई।

सानक की माँ को बुलाया गया। माँ का रो-रो कर बुरा हाल था। माँ ने सानक को फाँसी के फंदे के पास खड़े देखा तो वह ज़ोर-ज़ोर रोने लगी। इस पर सानक ने उसे समझाते हुए कहा,’ माँ, रोती क्यों हो? तुम्हीं ने तो मुझे चोरी की शिक्षा दी थी। जिस दिन मैं पहली वस्तु चुराकर लाया था उस दिन तुमने मुझे डाँटने के बजाए मेरी पीठ थपथपाई थी और उसी दिन मेरा यह परिणाम लिख दिया था। तुम्हें रोने के बदले ख़ुश होना चाहिए कि तुमने मुझे जिस रास्ते पर चलाया मैं उस रास्ते की मंज़िल तक पहुँच गया।’

माँ यह सुनकर अपने किए पर पछताने लगी। उसे अपनी ग़लती का अहसास हो गया। उसने न्यायाधीश से कहा कि असली दोषी तो वह है जिसने अपने बेटे को चोरी की शिक्षा दी अतः उसे फाँसी की सज़ा दी जानी चाहिए। न्यायाधीश ने देखा तो वह समझ गया कि माता-पुत्र की आँखें खुल चुकी हैं। अतः उसने सानक को एक और अवसर देने का निर्णय किया और सानक की मृत्युदंड की सज़ा को बदलते हुए यह सज़ा दी कि वह जीवन भर चौकीदार के परिवार का लालन-पालन करेगा।

सानक की बातों से अन्य माताओं ने भी सबक लिया कि अपने बच्चों को ग़लत काम के लिए प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए।

(साभार : भारत के आदिवासी क्षेत्रों की लोककथाएं, संपादक : शरद सिंह)

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