चोर का मन उतावला : हिमाचल प्रदेश की लोक-कथा
Chor Ka Man Utawala : Lok-Katha (Himachal Pradesh)
नाई ने आज अपना उस्तरा चर्म के चुकड़े पर कुछ अधिक ही तेज किया था। उसके मन में सैंकड़ो विचार दौड़ रहे थे। उसके पास अपनी दाढ़ी करवाने बैठे राजा साहब की नजर सामने दीवार पर कविता पंक्तियों पर पड़ गई। अचानक राजा ने वो कुछ अधिक ऊंचे स्वर में पढ़ ली।
घिसती रही घिसाती रही घिस-घिस लगाती।
पानी जो बात तुमने करनी है, वह ली है मैंने जानी।
नाई राजा की दाढ़ी में पानी लगा रहा था। कविता सुन कर उसने सोचा कि उसकी उंगलियां उस्तरा तेज करती रही। पलट-पलट कर तेजधार करती रही। दाढ़ी को घिसते पानी उंगलियों से लगा रहा है। अब तो राजा को पता चल गया है कि उसके मन में क्या है। राजा ने अचानक फिर कहा- “ओ नाई, दाढ़ी ठीक करना।”
“नहीं-नहीं महाराज मैंने कुछ नहीं किया है। मेरे मन में कुछ नहीं है। मैं तो सीधा-सादा नाई हूं जी।” नाई ने राजा के कथन पर और भी सन्देह किया था।
राजा का माथा ठनका। नाई की उंगलियां पानी लगाते-लगाते कुछ कांप भी रही थी। अवश्य कुछ बात है। राजा ने थोड़ा रौब से कहा-
“ओ भले मानुष, सच-सच कह वर्ना याद रखना।” नाई की बोलती बन्द हो गई। उसने राजा के पांव में बार-बार हाथ लगाया और डर से कांपते-कांपते बोला-देवता जी आपको प्रणाम, मुझे तो बजीर और रानी ने तैयार किया था।”
राजा ने सोचा कि दाल में तो कुछ बहुत बड़ा काला है। उसने और राजे बाली अकड़ से कहा- “तुझे क्षमा है पर सारा सच कहना वर्ना याद रखना तेरे साथ तेरा सारा परिवार कोल्हू में पील दिया जाएगा।”
“महाराज, बजीर और रानी ने षड्यंत्र किया था कि राजा को मारकर बजीर राजा और आपकी रानी बजीर की रानी बन जानी थी। दाढ़ी करने के दौरान मेरे उस्तरे ने सीधे गला काट देना था। किंतु महाराज, मैं निर्दोष हुँ। बस मेरी बुद्धि नष्ट हो गई थी।” हाथ जोड़कर कर कंपकंपाते नाई बोला।
“अच्छा! चींट्टियों को भी पंख लग गए?” राजा को झटका तो बहुत बडा लगा था। पर उसने अपना आपा नहीं खोया। उसने नाई को पनः कठोर स्वर में कहा- “अच्छा, अब ये बता तूं बजीर रानी की बातों में क्यों आया और अकस्मात कांप भी गया जबकि आज तूने उस्तरा भी बहुत तेज धार किया था।”
“राजा जी क्षमा, हीरे-जवाहरात, सोना-चांदी के लालच में आकर उनके षड्यंत्र में मैं भी आ गया। पर मैंने तो कभी चींटी नहीं मारी है आदमी को कैसे मारता। मुझे डर लगा था तभी तो उंगलियां कांप रही थी। नाई और कौवा तो सबसे चालाक होते हैं। किन्तु चोर का मन उतावला।
राजा ने एक बार फिर मन में दिवार पर लिखी कविता पढ़ी। उसने सोचा कि इन सीधे-साधे शब्दों ने उसकी जान बचा ली है। राजा ने ताली बजाई। दो सिपाही और सेना पति हाजिर हुए। राजा ने आदेश दिया- “बजीर और रानी को बेड़ी और हथकड़ी लगा कर दोपहर दरवार में उपस्थित करो। गांव के कवि कोलू को भी दोपहर में ही आदर के साथ आमन्त्रित करो।”
सेनापति और सिपाही आदेश पाकर चले गए। राजा ने नाई को कहा”जा तुझे माफ किया। तूं आज ही अपने परिवार, सामान-बामान लेकर इस राज्य को छोड़ कर चला जा। याद रख, आज के बाद मुझे नजर मत आना।
नाई ने डरते कांपते अपना सामान उठाया और हाथ जोड़कर वहां से भाग गया। जीते-जीते ही सब कुछ है मरने पर राख की ढेरी।
दोपहर राजा ने बजीर और रानी की करतूत राज दरवार में सबके सम्मुख रखी और उन दोनों को फांसी का आदेश दिया। कवि कोलू को राजा ने अपना बजीर बना दिया।
राजा ने कोलू के कान में धीरे से कहा- कवि कोलू भाई, तुम्हारी कविता ने आज मेरी जान बचा ली।
कवि कोलू हैरान सा देखता रह गया था।
(साभार : कृष्ण चंद्र महादेविया)