चित्रप्रिया (उपन्यास का एक अंश) : अखिलन

Chitrapriya (Tamil Novel in Hindi) : P. V. Akilan

खण्ड-1

उस दिन शाम के समाचार पत्र में यह समाचार छपा था कि अगले दिन प्रातः परीक्षा परिणाम घोषित कर दिया जाएगा।
हाथ में समाचार पत्र और खाने का डिब्बा लिए हुए मिस्त्री चिदम्बरम सबसे पहले बस से उतरे। उनके पीछे-पीछे माणिक्कम चल रहा था। वह बस एग्मूर से मयिलापुर के मन्दिर के तालाब तक आती थी। उनका घर मयिलापुर में ही था।
नीचे उतरकर वे तालाब के किनारे खड़े हो गए। उन्होंने माणिक्कम को पैसे देते हुए कहा, ‘‘जाकर दूसरा समाचारपत्र खरीद ला। देखें, उसमें भी यह खबर छपी है कि नहीं।’’ माणिक्कम मन ही मन हंस दिया। उसने पास की एक छोटी सी दुकान से दूसरा समाचारपत्र खरीदकर उनके हाथ में थमा दिया। चश्मा पहनकर चिदम्बरम समाचारपत्र में छपी हुई खबरों पर नज़र मारने लगे। एक कोने में छपी दो पंक्तियों को उस खबर को पढ़कर उन्होंने चैन की साँस ली। पर उनका सन्देह अब भी दूर नहीं हुआ था।

‘‘कल सुबह अवश्य ही परिणाम घोषित कर दिया जाएगा न ?’’
‘‘हां पिताजी।’’
‘‘क्या तू अण्णामलै का रोल नम्बर जानता है।
माणिक्कम ने उत्तर दिया, ‘‘घर पर एक जगह लिख रखा है।’’
मिस्त्री चिदम्बरम अण्णामलै का रोल नम्बर दुहराकर हंस पड़े। वह नम्बर उन्हें न जाने कब से याद आया था।
चिदम्बरम ने चिन्तित स्वर में पूछा, वह इस बार पास हो जाएगा न ?’’
माणिक्कम ने उन्हें आश्वसान देते हुए कहा, ‘‘हां, पास हो जाएगा। इस बार उसने बहुत मेहनत की है।’’ वह मन ही मन डर रहा था कि किसी और तरह से उत्तर देने पर वे नाराज होकर उसे मन्दिर के तालाब में धकेल देंगे।
‘‘यदि वह पास हो गया तो कल रात तुझे और तेरी मां को अपने घर भोजन खिलाऊंगा...दावत दूंगा।’’
मिस्त्री चिदम्बरम बड़ी तेजी से अपने घर की ओर चल दिए। तेईस साल के माणिक्कम को उस साठ साल के जवान के साथ चलना काफी कठिन लग रहा था। माणिक्कम भी उनके साथ चल रहा है शायद वे भूल गए थे, इसी से तेज़ी से कदम बढ़ाते जा रहे थे।

साठ साल की आयु में भी मिस्त्री जी का शरीर काफी गठा हुआ था। उनकी आन्तरिक शक्ति शरीर पर झलक रही थी। आंखों पर लगा चश्मा और रुई की तरह सफेद बाल ही उनके बुढ़ापे का संकेत दे रहे थे। उनका चेहरा तनिक लम्बा, कद ऊंचा और रंग गेहुंआ था। वे बिना कालर वाली आधी बांह की कमीज पहने हुए थे। कमर पर धोती, कंधे पर तौलिया और पैरों में पुरानी-सी चप्पल थी।
माणिक्कम भी हट्टा-कट्टा था। ऊंचाई में वह मिस्त्री जी के कन्धों तक भी नहीं पहुंचता था। उनका चेहरा चौकोर, माथा चौड़ा और दुष्ट पैनी थी। वह बेर के रंग की कमीज, पैण्ट और जूते पहने हुए था। उसके हाथ पर लटकते थैले में खाने का एक डिब्बा था।
माणिक्कम चिदम्बरम के मकान के ऊपर वाले हिस्से में रहता था। उनकी सहायता से ही उसने मकान बनाने का काम सीखकर एल.सी.ई. की डिग्री ली थी। उन्होंने अपने मालिक से कहकर उसे एक नौकरी भी दिला दी थी। वे दोनों एक बहुत बड़ी ‘इंजीनियरिंग कान्ट्रैक्टर कम्पनी’ में नौकरी करते थे। उनकी कम्पनी वालों का हमेशा किसी न किसी जगह काम चलता रहता था। चिदम्बरम वहां मिस्त्री थे। माणिक्कम उनके ऊपर सुपरवाइजर लगा हुआ था। कम्पनी के बाहर और घर में माणिक्कम उनसे बड़ी नम्रता से पेश आता था।

मन्दिर के तालाब और कपालीश्वर मन्दिर को पार वे पूर्व की तरफ वाली एक छोटी-सी गली के भीतर गए। इसके बाद दोनों अपने मकान का बाहरी दरवाजा खोलकर अन्दर चले गए। वह दरवाजा पश्चिम की ओर खुलता था। भीतर सीमेंट का बना एक छोटा-सा रास्ता था जिसके दोनों ओर फूलों के पौधे लगे हुए थे। घर के दरवाजे खुले हुए थे। दरवाजे के पास की भीतर की ओर जाने वाली सीढ़ियों के सहारे माणिक्कम ऊपर चढ़ गया। घर के भीतर जाते हुए मिस्त्री ने पूछा, ‘‘अण्णामलै घर में है ?’’ भीतर जाकर उन्होंने कमीज़ उतारकर, झाड़कर खूंटी पर टांग दी।
घर के भीतर बिजली बल्ब जल रहे थे। मिस्त्री जी की आवाज सुनकर उनकी पत्नी मीनाक्षी अम्माल रसोईघर से बाहर निकली और बोली, ‘‘उसके आने का समय हो गया है, बस आता ही होगा।

उनकी आयु पचास वर्ष के लगभग थी, शरीर दुबला-पतला था। चेहरे पर हल्दी का पीलापन और माथे पर कुंकुम की बिन्दी बहुत शोभा दे रही थी। उनका रंग चन्दन का-सा था। चेहरे पर छलकती हुई पसीने की बूंदें उनके चेहरे की शोभा बढ़ रही थीं। उन्हें देखकर लगता था कि युवावस्था में इतनी सुन्दर रही होंगी जैसी प्रायः चित्रों में अंकित युवतियां हुआ करती हैं।
घर में नल लगा हुआ था, फिर भी चिदम्बरम अपनी आदत के अनुसार पिछवाड़े गए और उन्होंने कुएं से पानी खींचकर मुंह-हाथ, पैर आदि धोए। तौलिए से मुंह पोंछते हुए चिदम्बरम जैसे ही पीछे मुड़े, उन्होने देखा कि मीनाक्षी ने भगवान नटराज की तस्वीर के पास दीया जलाकर रख दिया है। भगवान की मूर्ति या तस्वीर आदि के सामने सिर झुकाने की आदत उनमें न थी। वे सोचते थे कि मीनाक्षी ही उनके बदले भगवान की पूजा कर ले तो काफी है। उस दिन जाने क्यों उनके मन में भगवान की तस्वीर के सामने सिर झुकाने की इच्छा जागी। दीये के पास रखी कटोरी में से विभूति लेकर उन्होंने अपने माथे पर लगा ली और भगवान को साष्टांग प्रणाम किया। पर उनका मन भगवान नटराज की तस्वीर या दीये पर नहीं टिका। तस्वीर और दीये के पास पड़े उनके बगीचे के फूल महक रहे थे। वह महक उनकी नाक तक नहीं पहुंची। उनकी आँखें जैसे उन रंग-बिरंगे फूलों को नहीं देख पा रही थीं।

उन्होंने मन ही मन भगवान से प्रार्थना की, ‘‘अण्णामलै पिछली बार की तरह फेल न हो। वह इस बार अवश्य पास हो जाए।’’ और इसके साथ ही उनकी पूजा समाप्त हो गई।
मीनाक्षी अम्माल ने आवाज लगाई, ‘‘खाना खाने आ जाइए।’’
मैं ऊपर जा रहा हूं। अण्णामलै आए तो मुझे बुला लेना।’’ यह कहकर वे सीढ़ियों पर चढ़ते हुए माणिक्कम को पुकारने लगे। चलते-चलते उन्होंने समाचारपत्र में छपी वह खबर अपनी पत्नी को बता दी।
माणिक्कम जानता था कि उस दिन वे उसका पीछा नहीं छोड़ेंगे। उसने उठकर अपनी कुर्सी उनकी ओर खिसका दी और स्वयं पास पड़े लोहे के सन्दूक पर बैठ गया। ऊपर वाला दूसरा कमरा ही उनका रसोईघर था। वहां उसकी मां कुछ काम कर रही थी। दो कमरों वाले उस मकान में उनके लिए सुख-सुविधा की कोई कमी न थी। कमी क्यों होती ? वह मकान तो मिस्त्री जी ने स्वयं अपने लिए बनवाया था।

चिदम्बरम ने बात शुरू की, ‘‘मैं अण्णामलै को इंजीनियर बनाना चाहता हूं। इंजीनियरिंग कालिज में दाखिला मिलना मुश्किल है, परन्तु अपने मालिक की सिफारिश से शायद जगह मिल जाएगी।’’
‘‘आपका कहना ठीक है,’’ माणिक्कम ने उत्तर दिया। वे अपने लड़के को उससे ऊंची शिक्षा देने जा रहे हैं यह सोचकर उनका मन उदास हो गया, पर मन की भावना को उसने बाहर प्रकट नहीं होने दिया।
‘‘मैंने अनपढ़ बेवकूफ की तरह दिन काटे, किन्तु तुम लोग ऐसा नहीं कर सकते। आज का ज़माना पढ़े-लिखे बेवकूफों का जमाना है।’’
उनकी इस बात पर माणिक्कम जोर से हंस पड़ा।
मिस्त्री ने पूछा, ‘‘तुम क्यों हंस रहे हो ? क्या पढ़े-लिखे सभी लोग हमारे मालिक की जगह ले सकेंगे ? उनके पास किताबी ज्ञान है, व्यावसायिक ज्ञान है और सांसारिक अनुभव भी है। वे जिस चीज तो छूते हैं, वही सोना बन जाती है। यदि हमें फट्टी पकड़ना नहीं आता और हम बड़ी-बड़ी डिग्रियां ले लें तो इससे कोई फायदा नहीं। मैं चाहता हूं कि अण्णामलै और तुम दोनों उनकी तरह ऊपर उठो। शहर में यदि तुम्हारे पास अपना मकान, कार और दिखावे की दूसरी चीजें नहीं होंगी तो कोई तुम्हारी टके बराबर भी इज्जत नहीं करेगा।’’

उस समय माणिक्कम की नज़र में उनकी कीमत लाख गुना बढ़ गई थी।
कई वर्ष पहले वे कंधे पर खाली अंगोछा लटकाए, हाथ में फट्टी, करणी आदि लिए हुए चेट्टिनाडु से चलकर मद्रास के एग्मूर स्टेशन पर आ पहुंचे थे। किसी समय चेट्टिनाडु में महलों की तरह विशाल भवन ही बनाए जाते थे। अब वहां बने-बनाए मकानों को तोड़कर जमीन बेचे जाने का जमाना आ गया था।य़ मद्रास आकर कई बार उन्हें भूखे रहना पड़ा। कई बार नौकरी की तलाश में वे दूसरे राज और मजदूरों के साथ सड़कों पर भटकते रहे और नौकरी न मिलने पर मन मसोसकर रह गए। ईंट बनाई जाने वाली भट्टी के लिए पत्थर कूटने का काम लेने के लिए भी लोगों में होड़ थी। राज का काम न मिलने पर वे आधे वेतन पर मजदूरों के समान ईंट ढोने का काम करने में भी नहीं हिचके। उस समय जिन लोगों की मजदूरी करने में हिचकी हुई थी, वे लोग आज झोपड़ियों में रह रहे थे, जबकि चिदम्बरम ने मयिलापुर में अपना पक्का मकान बनवा लिया था। तंजावूर के पास एक एकड़ उपजाऊ जमीन भी खरीद ली थी।

माणिक्कम ! नौकरी ने मेरा पीछा नहीं किया, मुझे ही उसकी खोज में मुझे भटकना पड़ा था। नौकरी मिलने के बाद भी जितनी मजूरी मिलती थी, उससे कई गुना अधिक काम मैंने किया। यदि मैं काम से जी चुराकर साथियों के साथ मिलकर गुलछर्रे उड़ाकर, बिना मेहनत के लिए मजूरी पाने इच्छा करता तो शायद आज इस तरह अपने मकान में बैठकर तुझसे बात नहीं कर रहा होता। बाहर जाकर कॉफी शराब पीना, सिनेमा देखना मुझे अच्छा नहीं लगता था। मालिक ने मुझे अच्छी तरह समझ लिया। मैंने स्वयं अनपढ़ मूर्ख होते हुए भी तुम लोगों को अच्ची शिक्षा दी है।’’
माणिक्कम उन्हें पिताजी कहकर ही सम्बोधित करता था। वह बोल उठा, ‘‘पिताजी, ऐसा मत कहिए। आप अनपढ़ होते हुए भी ज्ञानी हैं, बुद्धिमान हैं। हम भी आपकी तरह हो जाएं तो काफी हैं।’’
उन्होंने भीतर ही भीतर गर्व का अनुभव किया।
‘‘जीवन में तुम लोग उन्नति करो, इतना काफी नहीं है। तुम्हें हमारे मालिक की तरह उन्नति करनी चाहिए।’’
‘‘अच्छा, पिताजी !’’
तभी नीचे से मीनाक्षी अम्माल ने आवाज दी, ‘‘अण्णामलै आ गया है। क्या आप खाना खाने आ रहे हैं ?’’
चिदम्बरम शीघ्र ही नीचे उतर आए।

अण्णामलै अपने कमरे में बैठा हुआ पिता द्वारा लाए गए अखबारों को पलट रहा था। तभी उसे सहसा परीक्षा-परिणाम की याद हो आई। दो साल की पढ़ाई पूरी करने के बाद गत वर्ष उसने इण्टर की परीक्षा दी थी।
तमिल और अंग्रेजी में उसने प्रथम श्रेणी के अंक पाए थे, परन्तु गणित ने उसका साथ नहीं दिया। गणित में तेज होने पर ही उसे इंजीनियरिंग कालिज में दाखिला मिल सकता था। पिता ने उसे जबरदस्ती गणित का पण्डित बनाना चाहते थे। स्वयं अनपढ़ होते हुए भी मिस्त्री जी ने लोगों से बातचीत करके बहुत-सी बातें जान ली थीं।
मिस्त्री जी ने पूछा, ‘‘कहा गया था। ?’’
‘‘लाइब्रेरी....वहीं से ज़रा समुद्र-तट की ओर चला गया था।’’
‘‘अच्छा....आ, खाना खा लें।’’

अण्णामलै की शक्ल अपनी मां मीनाक्षी अम्माल से मिलती जुड़ती थी। वह उनका एकमात्र लड़का था और विवाह के वर्षों बाद पैदा हुआ था। उनका डील-डौल आयु के अनुरूप था। घुंघराले बाल, घनी भौंहें, लम्बी नाक, स्वप्नों में खोई रहने वाली आँखें। लम्बी बांहों की कमीज़ धोती में वह कुछ अधिक लम्बा रास्ता दिखाई दे रहा था।
दोनों खाना खाने बैठे। खाना खाते हुए मिस्त्री जी ने अपने बेटे से वही बातें कहीं, जो कि वे पहले माणिक्कम से कह चुके थे। उन्हें अत्यधिक उत्तेजित देखकर अण्णामलै को तनिक घबराहट हुई। भोजन समाप्त कर चिदम्बरम अण्णामलै के पीछे-पीछे उस कमरे में पहुंच गए। उसके पलंग पर बैठकर वे उसे इस तरह उपदेश देने लगे , मानो वह बहुत बड़ा इंजीनियर या ठेकेदार बन गया हो।

‘‘देखो, आज माणिक्कम मुझसे ऊंची पदवी पर है। मैं चाहता हूं कि तुम मुझसे भी ऊंची पदवी पाओ।’’
अण्णामलै नहीं समझ पाया कि यह सब उनके अपार वात्सल्य, उच्च आकांक्षा और अशिक्षा का परिणाम है। परन्तु वह अपने पिता का बहुत आदर सम्मान करता था। दस वर्ष बाद उसे जो बातें कहनी चाहिए थीं, उन्हें पिताजी उससे आज कह रहे थे। यह उसे अच्छा नहीं लग रहा था। क्या अच्छा नहीं होता कि वे दस घंटे बाद, परीक्षा-परीणाम जानने के बाद उससे ये बातें कहते ?

परन्तु वे उसे छोड़ने को तैयार न थे। ‘‘हमारे चेट्टिनाडु में आज जिधर देखो, उधर टूटी-फूटी दीवारें और मलबे का ढेर दिखाई देता हैं, किन्तु इस शहर की टूटी-फूटी दीवारें और मलबे का ढेर बड़ी-बड़ी इमारतों में बदलता जा रहा है। जब मैं इस शहर में आया था, तब यहां सवारी के रूप में आदमियों द्वारा खींची जाने वाली रिक्शा और ट्राम के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। आज पैदल चलने वालों के लिए सड़क पर या प्लेटफार्म पर बिल्कुल जगह नहीं रही है। सड़क पार करते हुए लगता है कि वौ गाड़ियां आकर तुमसे आकर टकरा जाएंगी। यदि शहर में अमीरों की संख्या अधिक हो जाए तो यह हम जैसे व्यवसायियों के लिए सौभाग्य की बात है। आज ही हमारे माणिक की यह दशा है कि वे ठेकेदार का नया काम अपने हाथ में न ले सकने के कारण परेशान हैं।’’

पिता के चंगुल में फंसे अण्णामलै की दशा बड़ी शोचनीय थी। उनका उत्साह निरन्तर बढ़ता हुआ सीमा को तोड़ने लगा। "अण्णामलै ! तेरे जमाने में तेरी सहायता करने के लिए मजदूर या राज नहीं होंगे। आज सब पढ़ने लगे हैं । वे सब अब झुककर काम नहीं कर सकेंगे, और न ही करेंगे। आज जबकि जनपढ़ लोग दूसरों को बहकाने लगे हैं तो पढ़े-लिखे लोगों का क्या कहना! चुपचाप मशीनें खरीद ले । वे आलस नहीं करेंगी। समय बर्बाद कर तुझसे वेतन नहीं मांगेंगी, अपने अभावों को लेकर तुझसे शिकायत नहीं करेंगी।"

"अच्छा पिताजी," कहकर अण्णामलै ने वहां से चुपचाप निकल जाने की सोची। कुछ देर और बातें कहने के बाद वे बोले, “लगता है कि तुझे नींद आ रही है। अच्छा, तो तू सो जा। आज रात मुझे नींद नहीं आएगी।" कहकर मिस्त्री जी उठ खड़े हुए। उठकर यदि वे सीधे बाहर चले जाते तो शायद अण्णामलै को नींद आ जाती।

परन्तु"शायद वे उसे भी सोने देना नहीं चाहते थे। इसीसे चलतेचलते उन्होंने एक बात कही।

"देखो, बेटा !' मशीन को मत भूल जाना। जमाना बदल गया है। आज हाथ से मेहनत करके पेट भरना बहुत बुरा माना जाता है। तृ भी लोहे की मशीन चलाना सीख ले।"

उसे झकझोरकर वे सोने के लिए चल दिए। अण्णामलै ने झट सपना दायां हाथ ऊपर उठाकर उसे ध्यान से देखा । न तो वह लोहे का बना हाथ था और न ही लोहे की मशीन चलानेवाला। पतली-लम्बी उंगलियों वाला कोमल हाथ था। दोष उसका नहीं, हां, विधाता का हो सकता है। अनजाने ही उसका हाथ कोमल पत्तियों की तरह कांपने लगा। आंखों में आंसू की दो बूंदें छलक उठीं। हाथों से किया जानेवाला व्यवसाय क्या हेय और तुच्छ है !

आंखों में छलक आई आंसू की बूंदों के बीच से उसने अपने हाथ पर कुछ दृश्यों को उभरते देखा। सहसा अनेक कमल के फूल खिल उठे, मोर पंख फैलाकर नाचने लगे, हिरन भयभीत दृष्टि से देखने लगे, कोयल कूकने लगी। इन सबके ओझल होते ही उसे लगा कि सबने मिलकर एक युवती का रूप धारण कर लिया है और सहसा एक सुन्दर युवती उसके सामने आ खड़ी हुई। शायद कहीं किसी भीड़ में क्षण-भर के लिए उसने उसे देखा था और वह बिजली के समान तेजी से अदृश्य हो गई थी अथवा बह युवती उसके लिए सर्वथा अपरिचित थी। सहसा आंसू की वे बूंदें उसकी हथेली पर गिरकर बिखर गईं और उसकी वह चित्रप्रिया आंखों से ओझल हो गई।

बत्ती बुझाकर अण्णामलै लेट गया। गत वर्ष कालिज की परीक्षा में फेल होना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था। उसने पिता से पहले ही कह दिया था कि वह गणित को छोड़कर कोई भी विषय लेने को तैयार है। उन्होंने उसकी बात नहीं मानी। आज गणित ही उसके साथ आंखमिचौनी खेल रहा था। उसने गणित को लेकर फिर से माथापच्ची की। अब विजय उसकी होगी या गणित की, इसका निर्णय अगले दिन प्रातःकाल होने जा रहा था।

प्रातः पांच बजे के लगभग पिछवाड़े आम के पेड़ पर बैठी कोयल की कुक ने उसे जगा दिया। शहर के बहुत-से लोग कोयल की कूक, चिड़ियों की चहचहाहट, दाक्षिणात्य पवन के स्पर्श और फूलों द्वारा बिखेरी गई सुगन्ध से परिचित नहीं थे। हां, उस शहर के आकाश में भी चन्द्रमा और असंख्य तारे खिलते हैं। न जाने कैसे अण्णामलै ने इन सभी बातों को जान लिया था।

अमराइयों में कोयल की कूक वह विशेष महीनों में, विशेष समय पर ही सुन सकता था। हरसिंगार के फूलों की सुगन्ध को भी वह तभी पा सकता था। बहुत बार कोशिश कर उसने केवल एक बार चोरी-छिपे उस कोयल को देखा था। चित्त को परवश कर देनेवाले उस अनुभव को वह भुलाए नहीं भूल सकता था।

चिदम्बरम ने जोर से अण्णामलै को पुकारकर उसे जगाया और उसके कमरे की बत्ती जलाई। बत्ती के प्रकाश में अण्णामलै की आंखें चुंधिया गईं और वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। एक रुपये का नोट उसकी ओर बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, "जिन-जिन अखबारों में परीक्षा परिणाम छपा है, उन सबकी एक-एक प्रति खरीद ला।" उनकी आंखें बता रही थीं कि वे रात-भर नहीं सोए।

अण्णामलै हड़बड़ाकर उठा और रुपया लेकर गली में पहुंच गया। मद्रास शहर की हलचल गली में ही शुरू हो चुकी थी। नौकरी के लिए दूर जानेवाले, गाय दुहनेवाले ग्वाले, बिना दांत साफ किए कॉफी पीने के लिए होटल जानेवाले इस तरह के लोगों ने शहरी जीवन की मशीन को परिचालित कर दिया था। उस दिन परीक्षा-परिणाम जानने को उत्सुक अण्णामलै जैसे छात्र भी उन लोगों में जा मिले थे।

कटे हुए कटहल के फल पर जैसे असंख्य मक्खियां भिनभिनाती हैं, ठीक उसी प्रकार समाचारपत्र बेचनेवालों की दुकानों पर छात्रों की अपार भीड़ थी। अण्णामलै ने जैसे-तैसे वहां से प्रकाशित चार समाचारपत्र खरीदे और भीड़ में से बाहर निकल आया। घबराते हुए वह दूर तालाब के किनारे वाले लैम्प-पोस्ट के पास पहुंचा। वहां भी कुछ लोग जमा थे। उनसे तनिक हटकर अण्णामलै ने समाचारपत्र खोला और ध्यान से परीक्षा-परिणाम देखने लगा। उससे पहले वाला रोल नम्बर उसमें छपा हुआ था। उसके बाद वाला रोल नम्बर भी उसमें था-उसके रोल नम्बर का क्या हुआ?.."उसके रोल नम्बर का क्या हुआ?

उसने दूसरा समाचारपत्र खोला। उसमें भी यही सब कुछ छपा हुआ था। बाकी दोनों समाचारपत्रों को उसने नहीं खोला। उन्हें मोड़कर, हाथों में दबाकर वह तालाब की मुंडेर के पास पहुंचा और नीचे गिरने से बचने के लिए ही मानो उसने उस मुंडेर को पकड़ लिया। वह सूनी आंखों से तालाब के बीचो-बीच स्थित मण्डप को देख रहा था। उसकी जड़ हुई आंखों को मन्दिर के विशाल तालाब में तैरता हुआ टेढ़ा चांद सीताफल की फांक के समान दिखाई दिया। वह शायद अमावस्या के पूर्व दिखलाई देनेवाला चांद था जो कि प्रातःकाल के समय आकाश में चढ़ता जा रहा था।

मन्दिर का तालाब, उसके बीचो बीच स्थित मण्डप, मन्दिर का गोपुरम् और टेढ़ा चांद सभी मिलकर उसे चिढ़ा रहे थे। इससे पूर्व उसने कई बार वहां आकर उस दृश्य को देखा था और रोमांच का अनुभव किया था। 'कभी उसने यह कल्पना भी की थी कि मन्दिर के किनारे कुछ पेड़ और नन्दनवन होता तो क्या ही अच्छा होता, परन्तु आज वह अपार क्रोध की आग में जल रहा था।

जब वह नादान बालक ही था, तब उस मन्दिर में कुछ विभिन्न घटनाएं घटी थीं। ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा कि उन घटनाओं से प्रभावित होने के कारण ही उसका मन इस तरह परिवर्तित हो गया था। उसके हृदय में गणित के प्रति अरुचि किसने उत्पन्न की? उस मन्दिर ने या मन्दिर के तालाब में तैराने के लिए नाव बनाने के लिए वहां आए हुए शिल्पियों के समूह ने?

उसे कपालीश्वर और कर्पहाम्बिक पर भी क्रोध आया। यह मन्दिर उन्हींका तो है ! मन्दिर का गोपुरम्, गोपुरम् पर बनी मूर्तियां, मूर्तियों पर लगे तरह-तरह के रंग, पोत, उसकी शिल्पकला और सजावट सभी उन्हीके लिए ही तो है !

धीरे-धीरे सुबह होने लगी। आकाश का अन्धकार मानो थोड़ा-थोड़ा करके मन्दिर के तालाब में धुलने लगा। सीताफल की फांक-सा दिखलाई देनेवाला चांद अब पीतल की परत-सा हो गया था। अण्णामलै ने मुड़कर गली की ओर देखा । मिस्त्री चिदम्बरम पागलों के समान बड़ी तेजी से उसकी ओर आ रहे थे।

अण्णामलै की ओर तेजी से बढ़ते हुए मिस्त्री चिदम्बरम को देखने से यही लगता था कि वे आत्मचेतना खो बैठे हैं । अण्णामलै को घर लौटने में देर हो गई थी, इसीसे उन्हें सन्देह हो गया। सड़क पर चलते हुए जब उन्होंने किसी छात्र से समाचारपत्र लेकर देखा तो उनका सन्देह पक्का हो गया । वह इस बार भी परीक्षा में पास नहीं हुआ था।

मिस्त्री जी के लोहे के बने हाथ अण्णामलै के कन्धे पर आ पड़े। उनके हाथ आग में तपे लोहे के समान उसे झुलसाने लगे। वे कुछ नहीं बोले । उसे लेकर चुपचाप घर आ गए और उसे उसके कमरे में धकेल दिया। कुछ क्षण बाद सहसा पागलों के समान वे अपने-आपको पीटने लगे। अपने-आपको अन्धाधुन्ध पीटते हुए वे चिल्लाने लगे, "हाय, मैं लुट गया ! हाय, मैं लुट गया !" मीनाक्षी अम्माल उन्हें ऐसा करने से नहीं रोक पाई। इस शोर-गुल को सुनकर माणिक्कम दौड़ता हुआ ऊपर से नीचे आया। उसने उनके हाथों को कसकर पकड़ लिया और दीन होकर कहने लगा, "पिताजी, पिताजी ऐसा मत कीजिए।" क्षण-भर में ही उसे सारी बात मालूम हो गई।

"पिताजी ! क्या आपका ऐसा करना उचित है ?"

चिदम्बरम गरजे, “यह प्रश्न तुझे उससे पूछना चाहिए। जब मैं पहलेपहल इस शहर में आया था तो एक जुन भोजन जुटाने के लिए मैं गलीगली घूमा हूं। बदलने के लिए मेरे पास दूसरे कपड़े नहीं थे । चिथड़ों को धोने से फट जाने का डर था। मैं प्लेटफार्म पर सिनेमा के पोस्टर बिछाकर सोया हूँ...।

न जाने क्यों मिस्त्री जो को उस समय अपने जीवन के कटु अनुभवों की याद हो आई। उन्होंने निर्धनतारूपी भूत को अपने जीवन से दूर भगा दिया था, फिर भी वह जैसे उनके मन के किसी कोने में दुबका बैठा था। वे चाहते थे कि उनका लड़का उस भूत के चंगुल से पूरी तरह मुक्त हो जाए। शायद इसीसे उन्हें उस समय इतना गुस्सा आ रहा था।

भोजन, वस्त्र और मकान ! मिस्त्री जी ने जिन तीन चीजों की चर्चा की थी, उन्हींके बारे में अण्णामलै सोच रहा था। पिता की दशा देख उसका दिल पिघल उठा । परन्तु वह किसी भी तरह उनके दुःख को दूर नहीं कर सका।

माणिक्कम ने धीरे-धीरे उन्हें शान्त किया। वह चुपचाप खड़ा उनकी गालियों को सुनता रहा। किसी तरह उसने उनका ध्यान उस दिन के काम की ओर आकर्षित किया। वे दोनों जिस भवन का निर्माण करने जा रहे थे, उस दिन उसकी आधारशिला रखी जानी थी। उसने उन्हें याद दिलाया कि शायद इस अवसर पर कम्पनी के मालिक भी आएंगे।

मिस्त्री जी बोले, "हां, तब तो जाना ही पड़ेगा। आज मैंने तुझे दावत पर बुलाया था न? सो तुझे दावत नहीं दूंगा। सुन, मैं ठण्डा पानी तक नहीं पियूँगा। मुझे भूखे रहने की आदत है।"

चिदम्बरम कमीज बदलने के लिए अन्दर गए। माणिक्कम धीरे-धीरे अण्णामलै के पास आया। यदि अण्णामलै परीक्षा में पास हो गया होता तो शायद माणिक्कम खुश न होता, परन्तु इस समय वह निश्चय ही दुखी हो रहा था।

"चित्र खीचने के अपने पागलपन को छोड़ दे। उसी हाथ से गणित के सवाल कर । मैं किसी तरह पिताजी को समझा-बुझा लूंगा ताकि तू अगले साल फिर से पढ़ सके ।"

इतने में चिदम्बरम वहां आ पहुंचे, अतः माणिक्कम जल्दी-जल्दी ऊपर गया और खाने का डिब्बा लेकर लौट आया। मीनाक्षी अम्माल ने जो टिफिन-कैरियर लाकर वहां रखा था, उसकी ओर उन्होंने आंख उठाकर भी नहीं देखा । उनके बदले माणिक्कम उसे उठाने के लिए आगे बढ़ा। मिस्त्री जी ने उसे ऐसा करने से रोका और उसे लेकर तेजी से घर से निकल गए।

समय बीतता जा रहा था। मीनाक्षी अम्माल ने कई बार अण्णामलै को खाना खाने के लिए बुलाया, परन्तु वह नहीं आया। उसके सम्मुख आंसू बहाने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था। कुछ देर बाद अण्णामलै उठा । नहा-धोकर, कपड़े बदलकर वह बाहर चल दिया। उसके हाथ में एक कापी थी।

मीनाक्षी अम्माल ने उससे कहा, "खाना खाकर जा।" "पिताजी जब खाएंगे, तब खा लूंगा।"

अण्णामलै चल दिया। वह ज्यादा दूर नहीं गया। उसके पैर अनायास कपालीश्वर मन्दिर की ओर बढ़ गए । मन्दिर के पास वाली फूलों की दुकानों को देखकर वह हमेशा बहुत खुश होता था, पर आज खुश नहीं हुआ। उसे थोड़ी शान्ति अवश्य मिली। रंग-बिरंगे खुशबूदार फूलों की तरह-तरह की मालाएं वहां लटकी हुई थीं। केले के पत्तों पर फूलों के गोले, गुलदस्ते और फूल बिखरे हुए दिखलाई पड़े। फूलों की खुशबू के साथ जवापि, कस्तूरी, कपूर, अगरबत्ती की खुशबू भी वहां फैली हुई थी।

इस समय उसे पिता की कही हुई बात याद हो आई-भोजन, वस्त्र और मकान ! उन दुकानों में इनमें से कोई भी चीज नहीं मिल सकती थी। वह जान गया कि भोजन और वस्त्र को छोड़कर अन्य चीजों को खरीदनेवाले भी समाज में हैं। उसने देखा था कि गांवों में मन्दिर के पास नन्दनवन होते हैं । शहर के मन्दिरों के पास नन्दनवन नहीं थे। परन्तु यह बड़ी अच्छी बात थी कि यहां फूलों की दुकानों की कोई कमी नहीं थी।

मन्दिर खुला हुआ था। वह अन्दर गया और बाहरी मण्डप के एक खम्भे के सहारे बैठ गया। उस समय वहां भीड़ नहीं थी। उसे वांछित एकांत मिल गया। उसे कुछ वर्ष पहले की कुछ घटनाएं याद आ गई, जिनमें उसके बचपन के मजेदार अनुभव छिपे थे।

उन दिनों मन्दिर का जीर्णोद्धार किया जा रहा था। एक ओर लघु आकार के मन्दिर को जल में तैराने के लिए लकड़ी की सुन्दर नौका तैयार की जा रही थी, दूसरी ओर मन्दिर के वाहनों पर सोना-चांदी का मुलम्मा चढ़ाया जा रहा था, उनपर मणि आदि जड़े जा रहे थे। गोपुरम् पर स्थित मूर्तियां अनेक रंगों से रंगी जाने के कारण चमक उठीं। तंजावर, मदुरै आदि शहरों के अनेक कुशल कलाकार मयिलापुर में जमा हो गए थे। किसी तरह अण्णामलै भी उनमें जा मिला।

कुछ लोग हाथ की उंगलियों के नाखून के बराबर छोटी-सी छेनी को घुमाकर लकड़ी से सुन्दर कलाकृतियां बनाने में लगे हुए थे। कुछ शिल्पी नौका पर लगाने के लिए नर्तकियों की मूर्तियां बना रहे थे। अण्णामलै को लगा कि उनकी उंगलियां नाच रही हैं । छेनियों की चोट से मधुर संगीत की सृष्टि हो रही है। - तंजावूर के इन शिल्पियों की वेशभूषा अण्णामलै को बड़ी विचित्र लगी। उनके सिर पर बड़े-बड़े जूड़े बने हुए थे। सफेद कपड़ों से एक झोंपड़ी-सी बनाकर उसमें बैठकर वे काम किया करते थे। वे किसीको भी अपनी झोंपड़ी में नहीं आने देते थे । अण्णामलै किसी तरह उनके स्नेह का पात्र बन गया और उनके गुट में शामिल हो गया। वे लोग रुई की सहायता से स्फटिक जैसे सफेद कागजों में से सोने-चांदी का वर्क लेकर मोम लगे वाहनों पर उन्हें लगा रहे थे। उसके लगाते ही लकड़ी से बना हंस पक्षी एकाएक जैसे जादुई प्रभाव से सुनहली आभा पा लेता था। रंग-बिरंगे पत्थर जड़कर वे उसे सजा देते थे।

मन्दिर के भीतर चारों ओर तरह-तरह की कलाकृतियों का निर्माण हो रहा था। उस मन्दिर में पत्थर की मूर्तियां आदि बहुत कम थीं, परन्तु लकड़ी, प्लास्टर, सोने-चांदी की पत्तियों की सहायता से अपूर्व कलाकृतियां निर्मित की जा रही थीं। उस अबोध आयु में ही अण्णामलै के हाथ कुछ करने को मचलने लगे। उनका सहायक बन जाने पर उसकी प्रसन्नता की कोई सीमा न रही।

काम पूरा हो गया। शिल्पियों के लौटने का समय आ गया। तंजावूर के जुड़े वाले राजनायक शिल्पी ने उसकी बहुत तारीफ की। उन्होंने उसे शीशे पर चिपकी हुई जरी से बनाई गई माखनचोर कृष्ण की एक तस्वीर भेंट की। उन्होंने वह तस्वीर उसीके लिए बनाई थी। ___ "बेटा ! तू इस कला को बहुत अच्छी तरह सीख लेगा, परन्तु तू इसे मत अपनाना।"

अण्णामलै की समझ में कुछ नहीं आया। वह प्रश्नभरी निगाहों से उनकी ओर देखने लगा।

"इस कला को अपनाकर तू अपना जीवन नहीं चला सकेगा। हमें यह कला उत्तराधिकार के रूप में मिली है। चक्रवर्तियों ने, राजा-महाराजाओं ने इसका पोषण किया। अब जमाना बदल गया है। अमीर लोग भी आज सिर्फ खाने-पीने की चिन्ता करते हैं। मेरे लड़के ने फोटो खींचना सीख लिया है। एक बटन दबाने से किसीका भी चित्र खींचा जा सकता है। बेटा, तू इस कला के मोह में मत पड़, नहीं तो तेरा जीवन बर्बाद हो जाएगा।"

उस समय अण्णामलै की समझ में कुछ भी नहीं आया। माखनचोर कृष्ण की चांदी की बनी उस तस्वीर की सुन्दरता को ही वह समझ सका था।

इस आयु में उसने पिछली बातों को समझने की कोशिश की । इस समय उसके सामने मण्डप के खम्भे के सहारे बैठने की नौबत क्यों आ पड़ी? कालिज में प्रवेश पाने के बाद ही उसकी सुप्त कला-चेतना जाग उठी और पूरे वेग के साथ प्रकट होने के लिए छटपटाने लगी। उसने गणित सीखने में पूरापूरा ध्यान लगाया, परन्तु न जाने क्यों, उसके हृदय में गणित के विरोध में तीव्र प्रतिक्रिया हुई।

उसे लगा कि वह जड़े वाला शिल्पी उससे कह रहा है, 'बेटा, इस कला से मोह मत कर, नहीं तो तेरा जीवन बर्बाद हो जाएगा।'

अण्णामलै अपने-आप से कहने लगा, 'मैं कला के मोह में कहां पड़ा हूं? वही तो मुझे अपनी ओर खींचे जा रही है।

समय बीतता जा रहा था। उसे भूख लगने लगी। चुपचाप बैठे रहना उसे अच्छा नहीं लगा। वह मन्दिर की पिछली ओर वाले तालाब के किनारेकिनारे चलकर बाहर आ गया। दिन चढ़ता जा रहा था। हाथ में पैसे थे, परन्तु कुछ खाने की इच्छा नहीं थी। वह कुछ आगे बढ़ा और तालाब के किनारे खड़ी एक बस पर चढ़ गया। बस अडैयार की ओर चल पड़ी।

जब बस अडैयार के पुल को पार करके आगे बढ़ गई, तब अण्णामलै ने मुड़कर पुल की दाहिनी ओर देखा । नदी का पानी चाहे कैसा ही हो, उसके दोनों किनारों पर हरियाली ही हरियाली दिखलाई पड़ती थी। उधर से गुजरते हुए अण्णामलै उस हरियाली को देखना नहीं भूलता था। दूर एक भवन दिखाई दिया। ऐसा लगा कि वह झाड़ियों के बीच अपने-आप उग आया हो। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि मकान-मालिक ने बहुत सोचसमझकर अच्छी जगह चुनकर ही अपना मकान बनवाया है।

बस अडैयार पहुंची। बस से उतरकर उसने नल पर मुंह-हाथ धोया और पानी पिया। भूख से पैदा हुई थकान कुछ कम होती हुई-सी लगी। उसने चारों ओर नज़र धुमाई। वहां कई नये मकान दिखलाई पड़े। अब वह जान गया कि उसके पिता उसे भवन-निर्माण के कार्य में क्यों लगाना चाहते हैं । जहां पहले पेड़-पौधे, बगीचे, बावड़ी और फुलवाड़ी थी, वहां आज ईंटें, सीमेंट और लोहे की छड़ियां दिखलाई दे रही थीं।

वह कभी-कभी माणिक्कम के साथ या अपने किसी मित्र के साथ अडैयार स्थित एलियट्स समुद्री तट पर चला जाया करता था। समुद्र-तट पर पहुंचने के लिए वह पूर्व की ओर वाली एक गली में मुड़ गया । गली के मोड़ पर उसने एक दृश्य देखा। वह क्षण-भर जड़-सा खड़ा रहा । कम्पाउण्ड की दीवार के पास किसी पेड़ की छाया में एक भिखारिन बैठी थी। 'दानियों के शहर मद्रास में भिखारियों के बिना उसका एक भी दिन नहीं बीतता था। यह भिखारिन अन्य भिखारियों से भिन्न थी। इसीसे उसने उसका ध्यान आकर्षित किया।

चीथड़ों में लिपटी, स्वस्थ शरीर वाली वह ग्रामीण युवती बड़ी लापरवाही से बैठी अपने बच्चे को दूध पिला रही थी। उसका रंग काला था, परन्तु वह शिल्पियों द्वारा तराशकर बनाई गई पत्थर की मूर्ति के समान दिखलाई पड़ी। शहर में इस तरह की सुडौल युवतियों को उसने नहीं देखा था। उसके पास कपड़े की एक पोटली और टीन का बना एक बर्तन भी था। उसके प्रति उसके हृदय में दया की भावना उमड़ पड़ी। वह नहीं जान पाया कि वह ग्रामीण समाज के अत्याचार का शिकार बनकर शहर आई थी अथवा अपना जीवन नष्ट करने के लिए वहां आ पहुंची थी। उसने भूख से पीड़ित अण्णामलै की करुणा से भरी आंखों को देखा और 'भगवन' कहकर अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा दिया । अण्णामलै ने बटुआ खोला, चार आने निकालकर उसे दिए और बिना पीछे मुड़े तेजी से आगे बढ़ गया। चकित-सी वह उस ओर देखती रही, जिस ओर वह गया था। उस शहर में इस तरह के एक पागल व्यक्ति को उसने इससे पहले नहीं देखा था। उसने सिर्फ ऐसे लोगों को ही देखा था, जो कि दो पैसे देने के लिए, कुछ सोचने का अभिनय करते हुए पन्द्रह मिनट तक आंखों से व्यभिचार किया करते थे।

एलियट्स समुद्री तट शहर से कुछ दूर था। वहां उसे एक गोलाकार मण्डप और घास-फूस की बनी कुछ झोंपड़ियां दिखलाई दीं। कुछ लोगों ने बताया कि वहां घास-फूस की झोंपड़ियां इसलिए बनाई गई हैं ताकि समुद्रस्नान करनेवाले लोग वहां आकर कपड़े बदल सकें। अण्णामलै नहीं जानता था कि तरह-तरह की रहस्यात्मक केलि-क्रीड़ाओं के लिए होटल के कमरों के समान उन झोंपड़ियों का भी उपयोग किया जाता है। जब लोगों की भीड़ नहीं होती थी, उस समय कारों में वहां आनेवालों का वह निजी मामला था।

चार बज रहे थे। पांच बजे के बाद ही लोग वहां समय काटने के लिए आया करते थे। अण्णामलै एक मण्डप में पहुंचा और अपनी कापी खोलकर बैट गया। वह पेंसिल से चित्र बनाने लगा। ऐसा करते हुए उसकी भूख और थकान दोनों मिट गई। परीक्षा में फेल होने की बात और पिता के गुस्से को भी वह भूल गया।

सामने समुद्र की हरी-नीली आभा वाली लहरें धीरे-धीरे गाढे नीले रंग की होती जा रही थीं। सूरज बादलों की ओट में था, इसलिए धूप ज्यादा तेज़ नहीं लग रही थी। समुद्री हवा के चलने से अण्णामलै के होंठों पर नमक की एक परत-सी जम गई थी। धीरे-धीरे लोग वहां आने लगे। अब तक अण्णामलै के पास कोई नहीं आया था, अतः उसका ध्यान भंग नहीं हुआ।

दूर से आते हुए दो व्यक्तियों की निगाहें उसीपर टिकी हुई थीं। उसका कारण यह था कि लोग हवा खाने या गपशप करने ही समुद्र-तट पर आते थे। पत्रिका पढने भी लोग आते थे, परन्तु वहां बैठकर कोई चित्र नहीं बनाता था।

समुद्र-तट पर आए हुए व्यक्तियों में एक वयोवृद्ध सज्जन थे और दूसरी एक युबा लड़की । वे दोनो अक्सर वहां आते थे। लड़की से बातचीत करते हुए वयोवृद्ध सज्जन अचानक चुप हो गए और एक जगह खड़े होकर उस मण्डप की ओर ध्यान से देखने लगे। लड़की भी उस ओर देखने लगी।

वयोवृद्ध सज्जन ने 'अडैयारु जिप्पा' कहा जानेवाला सफेद रंग का लम्बी बांहों का कुर्ता पहना हुआ था। उन्होंने पीले रंग की एक शाल बंगाली ढंग से ओढ़ रखी थी। शाल का एक किनारा छाती पर आड़े होकर कंधे के पिछली ओर लटक रहा था। उन्होंने तमिलनाडु बालों के समान धोती बांधी हुई थी। उनका डीलडौल अच्छा था। सिर का अगला भाग गंजा था। उन्होंने अपने चौड़े चेहरे पर सोडे की बोतलों के तले के समान मोटे शीशे का बना चश्मा लगाया हुआ था।

उनके साथ जो लड़की वहां आई थी, वह इतनी सुन्दर नहीं थी कि देखनेवाले मोहित हो उठे। उसके पास देखनेवालों की दृष्टि को अपनी ओर आकृष्ट करने या उसे बांध लेने योग्य कुछ भी नहीं था। आयु में वह अण्णामलै से एक या दो साल छोटी रही होगी। उसकी आंखों से मोहक प्रकाश-सा फूटता हुआ दिखलाई पड़ा। उसकी चाल और गति में एक स्वाभाविक सौंदर्य था। सिर से लेकर पैर तक, उसके भीतर और बाहर सरलता का एक प्रवाह दिखलाई पड़ा। वह बड़ी लापरवाही से चल रही थी। उसके बाल घने और लम्बे थे। उसकी वेणी कमर के नीचे नर्तन कर रही थी। उसका चेहरा कुछ लम्बापन लिए गोल था। भौहें लम्बी और होंठ लाल कोंपल के समान थे। वह दुबली-पतली थी।

वयोवृद्ध सज्जन धीरे से बोले, "शायद वह चित्र बना रहा है।"

"हां पिताजी ! चित्र बनाते हुए जैसे आप तन्मय हो जाते हैं, उसी प्रकार यह भी तन्मय होकर चित्र बना रहा है।"

दोनों उसके पास पहुंचे। उसका मुंह दूसरी ओर था, अतः उसे पता नहीं लगा कि वे दोनों उसके इतने करीब आ गए हैं। उसके सिर पर लगे चमेली के फूलों की सुगंध धीरे-धीरे उसकी नासिका में प्रविष्ट हुई। उसने सिर उठाकर देखा। पहली बार उसे सिर्फ युवती की आंखें दिखलाई दीं। दूसरी बार उसे वयोवृद्ध सज्जन का चेहरा दिखलाई पड़ा। उसे लगा कि उसने उन दोनों को इससे पहले कहीं देखा है । शायद उसी समुद्री तट पर दूर से देखा था।

वयोवृद्ध सज्जन बोले, "माफ कीजिए, हमने आपके काम में विघ्न डाला।"

"ऐसी कोई बात नहीं । मैं तो यूं ही समय काटने के लिए आड़ी-तिरछी लकीरें खींच रहा था।"

"क्या हम उसे देख सकते हैं ?"

पास में एक लड़की खड़ी थी, अतः अपने उस चित्र को उनके हाथ में देते हुए वह संकोच कर रहा था; परन्तु वह उनकी इच्छा को टाल भी न सका । उसे चित्र बनाना नहीं आता, वह अपने बनाए चित्र उनके हाथ में कैसे दे दे, यही सोचकर वह सकुचा रहा था।

"मैंने यूं ही कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें खींची हैं। मैं इस चित्र को बनाकर फाड़कर फेंक देना चाहता था।" ऐसा कहते हुए, शर्म से सिर झुकाए हुए उसने अपनी कापी उनके हाथ में थमा दी।

वयोवृद्ध सज्जन ने उसके चित्र को ध्यान से देखा। इसके बाद वे उस मण्डप में पालथी मारकर बैठ गए। उन्होंने इशारे से लड़की को भी बैठने के लिए कहा। क्षण भर चित्र को ध्यान से देखकर उन्होंने उसे लड़की की ओर बढ़ा दिया । अण्णामलै ने देखा कि उसकी चमकीली आंखों में से प्रकाश की किरणें फूट रही हैं । उसका शरीर रोमांचित हो उठा। उसने मन-ही-मन सोचा-'शायद मेरा चित्र काफी अच्छा है।'

वयोवृद्ध सज्जन ने पूछा, "क्या आपने सड़क पर बैठी उस भिखारिन को देखा था ?"

"क्या आपने भी उसे देखा है ?"

"हां, देखा है । वह मेरे घर के सामने बैठी हुई थी। चेहरा, शरीर के सभी अंग ठीक हैं, परन्तु वह इतनी दुबली-पतली, हड्डियों के ढांचे के समान कहां है ? वह तो काफी हृष्टपुष्ट है।"

अण्णामलै को उत्तर देने में कुछ संकोच हुआ। “कहिए !"

"मुझे लगा कि शीघ्र ही उसकी यह दशा हो जाएगी। यह शहर उसे भूखे मार डालेगा।"

एकाएक वयोवृद्ध सज्जन और उस लड़की ने एक-दूसरे की तरफ देखा। ऐसा लगा कि वे दोनों उस भिखारिन के बारे में कोई रहस्यभरी बात जानते हैं।

उसके उस चित्र में...

वह भिखारिन हड्डियों का ढांचा-सी लग रही थी। उसके चेहरे पर अपार व्यथा थी। वह अपने बच्चे को दूध पिलाने की कोशिश कर रही थी। उसके पिचके हुए स्तनों से दूध न निकलने के कारण बच्चा हाथ-पैर मारता हुआ जोर-जोर से रो रहा था । अण्णामलै की कल्पना में मां की आंखों से टपकती आंसू की बूंदें बच्चे के चेहरे पर गिर रही थीं। चित्र में पीछे की ओर कुछ दूरी पर ऊंची-ऊंची इमारतें दिखलाई गई थीं। दूसरी ओर ऊंची इमारतों के सामने मन्दिर का एक गोपुरम् जैसे लज्जित-सा सिर झुकाए खड़ा था। उसने चित्र का शीर्षक रखा, 'दानियों के शहर मद्रास में'।

उन्होंने हंसते हुए पूछा, "क्या आप इस चित्र का अर्थ समझा सकते हैं ?"

जवाब देने की हिम्मत न होने के कारण वह परेशान और खिन्न हो उठा। उसे लमा कि वह किसी धर्मसंकट में पड़ गया है । वह चुपचाप खड़ा सिर खुजलाने लगा । उन्होंने उसे उत्तर देने के लिए प्रेरित किया।

वह बोला, "ऊंचे-ऊंचे वे मकान हमारी निरन्तर बढ़ती अर्थलिप्सा का प्रतीक हैं। उनके सामने खड़ा मन्दिर का यह गोपुरम् धर्मभावना के ह्रास की ओर संकेत कर रहा है। यह भिखारिन हमारी व्यावहारिक नैतिक मान्यताओं का प्रतीक है।"

लड़की ने अत्यन्त चकित होकर उसे ध्यान से देखा। वयोवृद्ध सज्जन ने मन-ही-मन सोचा, 'इस लड़के ने छोटी आयु में ही काफी सोच-समझकर चित्र बनाना सीख लिया है। उनके मूल्यांकन के अनुसार चित्र में कुछ कमियां थीं, तथापि वे उसके माध्यम से उसकी कल्पनाशीलता और हस्तचातुरी के विषय में जान गए।

वयोवृद्ध सज्जन बोले, "उस भिखारिन का रूप कला-चेतना से युक्त व्यक्तियों को आकर्षित करनेवाला है, फिर भी मनोविकारों से ग्रस्त व्यक्तियों को मतवाला बना देनेवाला है । यह सच है कि यह शहर उसके लिए सुरक्षित स्थान नहीं है।"

उनकी बात सुनकर वह लड़की लज्जित होकर वहां से थोड़ा हट गई और फिर अण्णामलै की तरफ देखते हुए कहने लगी, "हम अभी-अभी उसे गांव लौट जाने के लिए रेल का किराया देकर आ रहे हैं । उसने प्रण किया है कि वह आज ही गांव लौट जाएगी।"

सहसा अण्णामलै भावविह्वल हो उठा। उसने उस वयोवृद्ध सज्जन को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा, “मद्रास में आज भी दानी लोग हैं, यह जानकर मैं खुश हैं।"

तभी कहीं दूर से किसीकी आवाज़ सुनाई दी, "अण्णामलै ! क्या तू यहां पर है ? " तीनों ने एकसाथ मुड़कर देखा।

समुद्र-तट पर अण्णामलै को पाकर माणिक्कम बहुत प्रसन्न हुआ। वह बड़े उत्साह के साथ उसे पुकारते हुए वहां आ पहुंचा। उसका उत्साह तनिक बढ़ चला था। कारण, अण्णामलै के समीप एक युवती खड़ी थी। यद्यपि उस लड़की के पास एक वयोवृद्ध सज्जन भी खड़े थे, परन्तु माणिक्कम को सबसे पहले वह लड़की ही दिखाई दी थी। कुछ देर बाद ही उसे मालूम हुआ कि अण्णामलै भी वहीं पर है।

"यह मेरा मित्र माणिक्कम है।" कहकर अण्णामलै ने उससे उन लोगों का परिचय कराया।

वयोवृद्ध सज्जन के यह कहने पर कि, 'आपने हमें अपना नाम नहीं बताया।' उसने अपना नाम बता दिया। उन्होंने बताया कि उनका नाम कदिरेशन और उनकी बेटी का नाम आनन्दी है।

माणिक्कम उन सब बातों को सहन नहीं कर पाया। वह अण्णामलै से कहने लगा, “मैं तुझे कहां-कहां ढूंढ़ता रहा ? पिताजी को डर था कि गुस्से में आकर तू तालाब या समुद्र में कूद पड़ा होगा। पिताजी मां से झगड़ रहे थे कि उन्होंने तुझे घर से बाहर क्यों जाने दिया। मैं यही कहकर घर से चला आया हूं कि किसी न किसी तरह तुझे साथ लेकर ही लौटूंगा।"

आनन्दी सहानुभूति से अण्णामलै की ओर देखने लगी। उसकी आंखें जैसे प्रश्न कर रही थीं—'इन्हें तालाब या समुद्र में कूदने की क्या जरूरत आ पड़ी?' माणिक्कम की बातें सुनकर अण्णामलै को अपार दुःख हुआ। उसने लज्जा और क्षोभ के कारण सिर झुका लिया। वयोवृद्ध कदिरेशन के मन मे उसके बारे में अधिक जानने की इच्छा जागृत हुई। "आइए, यहां रेत पर बैठकर बातें करेंगे।" कहकर वे आनन्दी के साथ जाकर रेत पर बैठ गए।

अण्णामलै बड़े संकोच के साथ तनिक हटकर बैठ गया। उसे आनन्दी न तो अत्यधिक संकोची स्वभाव की लगी और न ही आधुनिक सभ्यता के रग में पूरी तरह रंगी हुई। उसके हर काम में संयम, कोमलता और सुन्दरता दिखलाई पड़ी। उसने वायल की साड़ी पहनी हुई थी। साड़ी का पल्ला हवा से उड़ न जाए, यह सोचकर उसने पल्ला पीठ पर डालकर उसका एक छोर आगे कर लिया था। उसके इस काम में भी एक गम्भीरता दिखाई दे रही थी। - माणिक्कम ने बड़े उत्साह के साथ ये सारी बातें उन्हें बताई। अण्णामलै के पिता का उस दिन काम करने में मन नहीं लगा, इसीसे वे आधे समय के बाद ही माणिक्कम को साथ लेकर घर लौट आए थे। शिलान्यास-समारोह दोपहर से पहले ही पूरा हो गया था। घर में अण्णामलै को न पाकर उसके पिता चिन्तित हो उठे थे। उन्हें डर था कि गणित में फेल होने से बहुत दुखी होकर अण्णामलै पागलों का-सा कोई काम न कर बैठे।

बातों ही बातों में माणिक्कम ने अपनी शिक्षा, व्यवसाय आदि के बारे में भी सब कुछ बता दिया । उसने कहा कि अण्णामलै उन मूखों में से है, जो दो बार परीक्षा में फेल हो चुका है। यदि उसे इस तरह पढ़ने का मौका मिला होता तो वह अब तक बी. ई. की परीक्षा पासकर इंजीनियर बन गया होता। माणिक्कम इस योग्य हो चुका था कि किसी युवती के समीप होने के महत्त्व को अच्छी तरह समझ सके । वह आयु में अण्णामलै से बड़ा जो था। माणिक्कम की बातों से, उसकी चाल-ढाल और वेशभूषा से वयोवृद्ध कदिरेशन ने यही अनुमान लगाया कि वह अण्णामलै से अधिक चतुर है। उनके मन में यही विचार जागा कि वह इस शहर में रहते हुए, संघर्ष कर जिस किसी तरह ऊपर उठ जाएगा। माणिक्कम ने कुछ ही क्षणों में उनके मन में इस तरह का विचार जगा दिया था।

माणिक्कम बारम्बार अण्णामलै की असफलता की चर्चा कर रहा था। यह सब अण्णामलै को अच्छा नहीं लगा। कुछ क्षण पूर्व चित्र बनाते हुए तथा उन लोगों से भेंट होने पर ही वह अपना दुःख भुला पाया था। इस समय वह दुखी होकर यही सोच रहा था कि क्या ही अच्छा होता कि उसकी उन लोगों से भेंट न होती और माणिक्कम वहां न आता।

वह बेचैन हो उठा । वह माणिक्कम से कहने लगा, “पिताजी हम दोनों को ढूंढ़ते होंगे । आओ, हम घर चलें।" किन्तु माणिक्कम तो वहां आने के अपने उद्देश्य को ही भूल चुका था।

न जाने कैसे आनन्दी जान गई कि अण्णामलै की भावनाओं को ठेस पहुंची है। वह अण्णामलै से कहने लगी, "आपके सुन्दर चित्र को देखकर मैंने यही सोचा था कि आप चित्रकला महाविद्यालय के छात्र हैं।" उसके उन शब्दों ने, वाणी की कोमलता और स्नेहपूर्ण दृष्टि ने क्षण-भर में ही अण्णामलै की वेदना को दूर भगा दिया। उसकी आंखों में कृतज्ञता झलकने लगी।

आनन्दी कहने लगी, "परिश्रम करने के बाद भी यदि आप गणित की परीक्षा में पास नहीं हुए तो इसमें लज्जा की कोई बात नहीं । अपने समय में पिताजी भी विज्ञान की परीक्षा में फेल हो गए थे, परन्तु आज इनके बनाए चित्र संसार के कई देशों के संग्रहालयों में हैं। कई वर्षों तक चित्रकला महाविद्यालय में नौकरी करने के बाद हाल ही में इन्होंने अवकाश ग्रहण किया है।"

अण्णामलै ने चकित होकर पूछा, "ओह ! तो प्रसिद्ध चित्रकार कदिरेशन आप ही हैं ?" और वह उनसे उनके उन चित्रों के बारे में बातचीत करने लगा, जिससे वह अत्यधिक प्रभावित हुआ था। वयोवृद्ध सज्जन को वास्तव में ही तनिक गर्व की अनुभूति हुई। माणिक्कम को लगा कि उन वयोवृद्ध सज्जन की नजर में अण्णामलै का पलड़ा अब अधिक भारी हो गया है।

कुछ देर सोचने-विचारने के बाद वयोवृद्ध सज्जन ने अण्णामलै से पूछा, 'क्या आप चित्रकला महाविद्यालय में भरती होना चाहते हैं ?"

अण्णामलै के आनन्द की सीमा न रही।

बीच में ही माणिक्कम बोल उठा, "गुड़ियों के कालिज में ! यह बात यदि इसके पिताजी के कानों में पड़ जाए, तो वे इसकी जान निकाल देंगे।"

अण्णामलै ने प्रसन्न होकर उत्तर दिया, "आपकी बात सुनकर ही मेरी जान में जान आई है।"

कदिरेशन ने अण्णामलै की कापी पर अपने घर का पता लिखा और कहने लगे कि, 'यदि आपके पिताजी मान जाएं तो मुझसे आकर मिल लीजिए। मैं आपके प्रवेश का प्रबन्ध कर दूंगा।' वे माणिक्कम की बेचैनी को भी भली प्रकार समझ रहे थे। उसे सान्त्वना देते हुए वे कहने लगे, "आप कभी इस तरफ आएं तो मुझसे मिल सकते हैं । मेरा घर रास्ते में ही पड़ता है।"

अण्णामलै लौटने के लिए तैयार हुआ। उसने वयोवृद्ध सज्जन को धन्यवाद देकर, हाथ जोड़कर प्रणाम किया। आनन्दी को आंखों से धन्यवाद दिया और सिर झुकाकर खड़ा हो गया। लड़कियों से बातचीत करते हुए वह सकुचाता था। परन्तु वह यह सोचकर प्रसन्न हो रहा था कि आनन्दी ने ही उसे आज अपार आनन्द दिया है। उसकी दृष्टि पड़ते ही पराजय और पश्चाताप की भावनाएं और चिन्ताएं जलकर राख हो गईं। वह अपनी मनःस्थिति को भली प्रकार नहीं समझ पाया। उसके हृदय में आनन्द का सागर हिलोरे लेने लगा।

माणिक्कम ने दोनों से चलने की अनुमति मांगी। उसका हृदय भी पूर्णतः परवश हो गया था। आनन्दी की ओर गौर से देखकर हंसते हुए वह घर लौट चला।

रास्ते में कदिरेशन का मकान दिखलाई पड़ा। जिस जगह वह ग्रामीण भिखारिन पहले बैठी हुई थी उसके सामने ही उनका मकान था। मकान का जंग लगा बाहरी द्वार बंद था। खुली जमीन के चारों ओर कोई पक्की मेड़ नहीं थी। लोहे का द्वार लगाने के लिए इंट-गारे की सहायता से दो खम्बे बनाए गए थे। दोनों तरफ टंगी हई बांस की चिकों पर लताएं फैली हुई थीं। फूलों और पत्तों से लदी हुई वे लताएं ही दीवार का काम दे रही थीं। मकान के चारों ओर काफी खुली जमीन थी जिसमें अनेक लताएं, पेड़-पौधे उगे हुए थे। उनके बीचो-बीच एक पुराना, छोटा-सा दुमंजिला मकान दिखलाई दे रहा था। छत पर एक कमरा था जिसकी छत घास-फूस से बनी हुई थी। छत की मुंडेर के एक ओर पीपल का एक छोटा-सा पेड़ उगा हुआ था। अण्णामलै बड़े कौतूहल से उसे देख रहा था।

माणिक्कम बोला, "यह इनका अपना मकान है।" गेट के पास वाले चबूतरे पर लगे पत्थर पर खुदे हुए उनके नाम को पढ़ते हुए माणिक्कम बोला, "अरे ! यह जमीन दस 'ग्राउण्ड' से कम नहीं होगी। यह जमीन सोना है, सोना।"

उस मकान और बगीचे को देखकर अण्णामलै बहुत चकित हआ। उसकी समझ में नहीं आया कि माणिक्कम को उसमें सोना कहां दिखाई दिया।

"यह जमीन ही अब सोना है। उस जमाने में इन्होंने यह जमीन पांच सौ या हजार रुपये में खरीदी होगी। आज यह जमीन सोने की तरह हो गई है। पांच साल और बीतने पर यह हीरे की तरह हो जाएगी।"

उसकी बात सुनकर अण्णामलै मन-ही-मन हंसा। पिता के साथ रहकर शायद उसने भी मिट्टी को सोना बनाना ही अपना उद्देश्य बना लिया था !

अण्णामलै की इच्छा नहीं हुई कि वह उस जगह को छोड़कर कहीं और जाए। उसे लगा कि उस जमीन के भीतर से उमड़ती हुई एक विचित्र-सी शान्ति की भावना उसे घेरती जा रही है। उसे ऊंचे-ऊंचे नारियल, सुपारी, नीमादि के पेड़ों और तरह-तरह के फूलों वाले पौधों से युक्त वह जमीन सुन्दर फुलवाड़ी के समान दिखलाई पड़ी। पौधों को देखकर ऐसा नहीं लगा कि उन्हें जान-बूझकर किसी आकार में काटा गया है। वहां शायद फूलों को तोड़नेवाला भी कोई नहीं था। धीरे-धीरे चमेली की सुगन्ध वातावरण में फैलने लगी। सहसा अण्णामलै को आनन्दी की याद हो आई । चमेली की सुगन्ध ने ही तो उसे पहले-पहल आनन्दी के अपने पास आने की सूचना दी थी।

अण्णामलै मन-ही-मन अपने को कोसने लगा कि अनेक बार उस ओर से गजरते हए उसने उस सौन्दर्य को क्यों नहीं देखा। वह कहने लगा, "यहां खड़े हुए ऐसा लग रहा है न कि हम तंजावूर जिले में या केरल प्रदेश में खड़े हैं ?" छट्टियों में नगर भ्रमण की उसे आदत थी।

माणिक्कम बोला, "इन पेड़ों को काट दिया जाए तो इस जमीन पर बहुत बड़ा होटल बनाया जा सकता है।"

अण्णामलै को बहुत गुस्सा आया । वह बोला, "आओ घर चलें।" और उसे लेकर वहां से चल पड़ा।

लड़के न हों तो लोगों को चिन्ता होती है कि हाय ! हमारे यहां लड़का नहीं है। वंश कैसे चलेगा? यदि लड़के हों तो उन्हें लेकर मन में सैकड़ों इच्छाएं और साथ ही सैकड़ों चिन्ताएं जागती हैं। इच्छाएं ही चिन्ता पैदा करती हैं, इसे भली प्रकार जानते हुए भी मनुष्य क्या इच्छाएं किए बिना रह पाते हैं ?

इच्छाओं के पूरी न होने से चिन्तित मिस्त्री चिदम्बरम राह में पलकें बिछाए अण्णामलै की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे कुछ दूरी पर माणिक्कम के साथ लौटते हुए देख उनकी जान में जान आई। तनिक सचेत होते ही उनके मन में एक भय जागा। उन्होंने गुस्से में आकर ऐसा काम कर डाला था कि अब अण्णामलै को देख उन्हें डर लगने लगा।

उनमें अण्णामलै का सामना करने की हिम्मत न हुई। पुरुष होने के कारण अपने मन में व्याप्त भय की भावना को वे कैसे प्रकट कर सकते थे ?

उन्होंने मीनाक्षी अम्माल को उन दोनों के घर लौटने की खबर दी। वे बोले, "मैं बहुत गुस्से में हूं। इस दशा में तेरा लड़का सामने पड़ जाए तो न जाने क्या हो जाएगा। तू अकेले माणिक्कम को मेरे पास भेज दे।" ऐसा कहकर वे अपने कमरे में चले गए। अण्णामलै को समझाने-बुझाने का काम परोक्ष रूप से मीनाक्षी अम्माल के सिर पर आ पड़ा।

मीनाक्षी अम्माल ने उनके कहे अनुसार अकेले माणिक्कम को उनके पास भेज दिया । अण्णामलै से बातचीत करते हुए वह सकुचा रही थी। उसका एक खास कारण था।

अण्णामलै ने अपने कमरे में जाकर बत्ती जलाई। वहां के दृश्य को देखकर उसकी आंखें जड़-सी रह गई। मानो उसे बिच्छ ने डंक मार दिया हो। उसने चीखना-चिल्लाना चाहा, परन्तु मुंह से कोई आवाज नहीं निकली। सारा कमरा अस्तव्यस्त पड़ा था। ऐसा लगा मानो वहां भीषण आंधी चली हो, कागज़ का भूखा कोई शैतान इधर-उधर घूमा हो।

किसीने उसके बनाए हुए चित्रों को छोटे-छोटे टुकड़ों में फाड़कर कमरे के कोने-कोने में बिखेर दिया था। उसकी कापियां अस्तव्यस्त दशा में फटी पड़ी थीं। दापियों की जिल्दें टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरी पड़ी थीं। अण्णामलै ने धीरे से झुककर कड़े की छानबीन शुरू की। उसे अपने कमरे में युद्धक्षेत्र से भी भयंकर दृश्य दिखलाई दिया। कहीं सिर रहित धड़, कहीं कटे हुए हाथपैर, कहीं हवा में उड़ते हुए शव दिखलाई दिए।

उसे लगा कि वह बाल बिखेरकर सड़क पर भागना शुरू कर दे और भागते-भागते तालाब या समुद्र में जा गिरे। परीक्षा में फेल होने पर उसके मन में इस तरह का कोई विचार नहीं आया था। इसके बाद वह वहां खड़ा न रह सका । वह जान गया कि वह सब किसकी करतूत है। उसने सोचा कि पिताजी ने जो कुछ किया उसे उसकी मां ने चुपचाप खड़े होकर अवश्य देखा होगा।

बाहर जाने के लिए जैसे ही वह मुड़ा उसने दरवाजे पर मीनाक्षी अम्माल को आंसू बहाते खड़े देखा । मां के माथे और गालों पर जख्म दिखाई दिए जैसे कि किसीने उन्हें नाखूनों से नोचा हो । वह सारी बात समझ गया। उसकी मां ने चुपचाप खड़े होकर यह सब कुछ नहीं देखा था। बेटे के लिए उसने संघर्ष किया है । युद्ध में भाग लेने के कारण ही उसके चेहरे पर नाखूनों के वे निशान दिखाई दे रहे थे।

मीनाक्षी अम्माल ने धीरे से उसके पास आकर उसका हाथ पकड़ा। इसके बाद कुछ सहने की ताकत उसमें न रही। मां की छाती पर सिर गड़ाकर वह फूट-फूटकर रोने लगा। उस समय दोनों मिलकर रो रहे थे। मीनाक्षी अम्माल कमरे में पड़े उसके पलंग पर बैठ गई। वह उसपर औंधे लेटकर सिसकने लगा। वह अपनी मां से अधिक प्यार करता था। मां को लेकर उसके मन में कुछ विचार उत्पन्न हुए। उन विचारों में डूबे रहने से उसे तनिक शान्ति मिली।

बचपन में मां ने उसे केवल दूध पिलाकर पाला भर नहीं था, बल्कि उन्होंने उसके माध्यम से अपनी मरती हुई इच्छाओं और टूटते स्वप्नों को जिलाने और संवारने का प्रयास भी किया था। उसे छोटी-छोटी कहानियां सुनाई, गीत सुनाए, तरह-तरह के खेल सिखाए । अपने ग्राम-जीवन के सुखों की चर्चा कर वे अत्यधिक प्रसन्न हुई। वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं, परन्तु फिर भी वे गीत, कहानियां आदि जानती थीं। वे जमीन या स्लेट पर उसके लिए बिल्ली, कौवा, चिड़िया, कमल के फूल आदि का चित्र बनाती थीं और अण्णामलै चकित होकर अपनी मां को देखता रह जाता था।

बचपन की बात छोड़ो, कुछ बड़े होने के बाद भी वह मार्ग शीर्ष के शुरू होते ही बहुत खुश होता था। मां उसे सुबह-सुबह जगाकर नहलाती थीं। बगीचे से फूल तोड़कर लाने और भगवान की तस्वीर को सजाने का काम उसके जिम्मे था। गांवों में लड़के मुंह-अंधेरे उठकर, नहा-धोकर भजन गाते हए मन्दिरों में जाया करते थे। शहरवालों के लिए वह दृश्य दुर्लभ था। इसीसे वह चाहती थीं उसका बेटा फूलों से भगवान की पूजा करे।

मुंह अंधेरे ही मीनाक्षी अम्माल को घर से बाहर निकलकर काफी काम करना पड़ता था। वह बाहरी बरामदा झाड़-पोंछकर बड़ी-सी अल्पना बना कर उसे सजाती थीं। महीने के तीसों दिन तरह-तरह की अल्पनाएं बनाती थीं। अल्पना को चारों ओर से गेरू से सजाती थीं। बीच की बिन्दियों पर गोबर के छोटे-छोटे गोले रखकर उनपर सीताफल के फूल गाढ़ देती थीं। अण्णामलै जब घर से बाहर निकलता था उसे बरामदे में फूलों का बना एक जंगल दिखाई देता था। उसे लगता था कि बरामदा सजाने के लिए ही मां ने बाग में सीताफल की बेल लगाई है। परन्तु उस बेल में फल भी खूब लगते थे।

एक बार उसने मां से पूछा था, "जब आस-पड़ोस वालों के बरामदे सूने पड़े रहते हैं तो तू अपना बरामदा इस तरह क्यों सजाती है ?"

"वे लोग कई पीढ़ियों से इस शहर में रह रहे हैं । यह सब करना उन्हें जंगलीपन लगता है। मैं गंवार है। गांव की मिट्टी अब भी मेरे शरीर पर लगी हुई है। इसीसे मैं यह सब कुछ करती हूं।"

"मां मुझे भी यह सब अच्छा लगता है।" "मेरे लिए यही काफी है बेटा।"

जब वह पहली बार बगीचे में सीताफल का फूल तोड़ने गया था तब मां ने उसे नर और मादा फूल का भेद समझा दिया था। ताकि वह गलती से मादा फूल को न तोड़ ले । नर फूल के नीचे सिर्फ डण्डी थी, मादा फूल के नीचे छोटा-सा फल लगा हुआ था। उसे कहा गया था कि वह अल्पना के लिए सिर्फ नर फूल ही तोड़कर लाए।

बड़े होकर स्कूल जाने पर उसने प्रकृति के विषय में बहुत कुछ सीखा। प्रकृति के कई रहस्य उसकी समझ में आने लगे। उसके मन में एक सन्देह जागा। नर फूल को तोड़कर यदि अल्पना के बीच रख दिया जाए तो मादा फूल में फल कैसे लगेगा? एक दिन उसने देखा कि अल्पना पर लगे फूलों पर छोटी-छोटी शहद की मक्खियां भिनभिना रही हैं। अण्णामलै खुशी से उछलने लगा, "मां ! मैं समझ गया।"

मां चकित होकर बेटे की तरफ देखने लगी।

"मां हमने नर फूलों को तोड़कर अल्पना पर रख दिया है। शहद की ये मक्खियां नर फूलों के मकरन्द को मादा फूलों तक पहुंचा रही हैं । मां ! यह कितनी विचित्र बात है न ?"

मीनाक्षी अम्माल का चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसके आश्चर्य की कोई सीमा न रही। उसने सोचा बेटे की नज़र उतारने के लिए वह उस दिन शाम को ही कुछ न कुछ करेगी। उसकी नज़र कितनी तेज़ है। उसकी आंखों ने मच्छर से भी छोटे आकार की उन शहद की मक्खियों को देख लिया था। तभी अचानक उन्हें उसके पिता की याद हो आई।

"तू शहर का लड़का है फिर भी आंखें खोलकर सब कुछ देख लेता है। तेरे पिता ग्रामीण होते हुए भी पूरी तरह शहरी हो गए हैं । आंखें मूंद कर तेजी से घर से बाहर निकल जाते हैं । यदि मैं कह दं कि 'अल्पना पर पैर न रखिएगा' तो नाराज़ हो जाते हैं । उस समय मेरी बातें उनके कानों तक नहीं पहुंचतीं । अपनी चप्पलों से फूलों को रौंद डालते हैं और मुझे डांटते हैं कि मेरे फूलों के कारण उनकी चप्पलें खराब हो गई हैं।"

अण्णामलै ने सोचा कि भगवान द्वारा दी गई आंखों और कानों को बन्द करके तेजी से चलते चले जाना ही शायद शहरवालों की आदत है। वह कहने लगा, "पिताजी निपट गंवार हैं, उन्हें शिष्टाचार ही नहीं आता।"

मीनाक्षी अम्माल ने झट अपने गीले हाथों से उसका मुंह ढक दिया। उसके अलावा और कोई व्यक्ति मिस्त्री चिदम्बरम की निन्दा करे यह उन्हें सह्य नहीं था। यदि बाहर का कोई व्यक्ति उनकी निन्दा करता था तो वे उससे बातचीत करना बन्द कर देती थीं।

"तेरे पिता के समान स्वाभिमानी पुरुष का मिलना बहुत कठिन है।

(अधूरी रचना)