Chitralekha : (Hindi Novel) Bhagwati Charan Verma

चित्रलेखा (उपन्यास) : भगवतीचरण वर्मा

चित्रलेखा न केवल भगवतीचरण वर्मा को एक उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठा दिलाने वाला पहला उपन्यास है बल्कि हिन्दी के उन विरले उपन्यासों में भी गणनीय है, जिनकी लोकप्रियता बराबर काल की सीमा को लाँघती रही है।
चित्रलेखा की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है-पाप क्या है?  उसका निवास कहाँ है ? -इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य, श्वेतांक और विशालदेव, क्रमश: सामंत बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में जाते हैं। और उनके निष्कर्षों पर महाप्रभु रत्नांबर की टिप्पणी है, ‘‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।

उपक्रमणिका

श्वेतांक ने पूछा-‘और पाप?’

महाप्रभु रत्नांबर मानो एक गहरी निद्रा से चौंक उठे। उन्होंने श्वेतांक की ओर ऐक बार बड़े ध्यान से देखा-‘पाप? बड़ा कठिन प्रश्न है वतस! पर साथ ही बड़ा स्वाभाविक! तुम पूछते हो पाप क्या है’ इसके बाद रत्नांबर ने कुछ देर तक कोलाहल से भरे पाटलिपुत्र की ओर, जिसके गगन चुंबन करने का दम भरनेवाले ऊँचे ऊँचे प्रासाद अरूणिमा के धुंधले प्रकाश में अब भी दिखलाई दे रहे थे, देखा- ‘हाँ , पाप की परिभाषा करने की मैने भी कई बार चेष्टा की है,पर सदा असफल रहा हूँ। पाप क्या है, और उसका निवास कहां है,यह एक बड़ी कठिन समस्या है, जिसको आज तक नहीं सुलझा सका हूँ। अविकल परिश्रम करने के बाद , अनुभव के सागर में उतराने के बाद भी जिस सम्स्या को नहीं हल कर सका हूँ, उसे किस प्रकार तुमको समझा दूं?’

रत्नांबर ने रूककर फिर कहा -‘पर श्वेतांक, यदि तुम पाप को जानना ही चाहते हो , तो तुम्हें संसार में ढ़ूँढना पड़ेगा। इसके लिये यदि तैयार हो , तो संभव है, पाप का पता लगा सको। ’

श्वेतांक ने रत्नांबर के सामने मस्तक नमाकर कहा-‘मैं प्रस्तुत हूँ।’

‘और कदाचित् तुम भी पाप को ढूँढना चाहोगे?’ रत्नांबर ने बिशालदेव की ओर देखा।

थ्विशालदेव ने भी रत्नांबर के सामने मस्तक नमाते हुए कहा-‘महाप्रभु का अनुमान उचित है।’

रत्नांबर का मुख प्रसन्नता से चमक उठा ‘इसके पहले कि मैं तुम लोगो को संसार में भटककर अनुभव प्राप्त करने को छोड़ दूं , तुम्हें परिस्थितियों से भिज्ञ करा देना आवश्यक होगा। इस नगर के दो महानुभावों से मैं यथेष्ट परिचित हूं, और इस कार्य को पूरा करने के लिये तुम लोगों को इन दोनो की सहायता की आवश्यकता होगी। एक योगी है और दूसरा भोगी-योगी का नाम है कुमारगिरि , और भोगी का नाम है बीजगुप्त। तुम दोनो के जीवन को इनके जीवन स्त्रोत के साथ साथ ही बहना पडे़गा।’

दोनो शिष्यों ने एक साथ उत्तर दिया-‘स्वीकार है!’

‘विशालदेव! तुम ब्राह्मण हो और तुम्हारी ध्यान तथा आराधना पर अनुरक्ति है-; इसलिये तुम्हें कुमारगिरि का शिष्य बनना उचित होगा। और श्वेतांक! तुम क्षत्रिय हो , तुम्हें संसार में अनुरक्ति है इसलिये तुम्हें बीजगुप्त का सेवक होना पड़ेगा।’

दोनो शिष्यों ने एक साथ उत्तर दिया -‘स्वीकार है!’

‘तुम दोनो के मार्ग निर्धारित हो चुके । अब रहा मैं । तुम लोग मेरी चिंता न करो। जीवन में अनुभव की भी उतनी ही आवश्यकता होती है, जितनी उपासना की। तुम अनुभव प्राप्त करो और मैं तपस्या करूंगा। आज से एक वर्ष बाद तुम दोनो मुझसे यहीं पर मिलोगे। और उस समय फिर से हम अपने निर्धारित कार्यक्रम पर चल सकेंगे।

पर एक बात याद रखना। जो बात अध्ययन से नहीं जानी जा सकती है, उसको अनुभव से जानने का प्रयत्न करने के लिए ही मैं तुम दोनो को संसार में भेज रहा हूँ। पर इस अनुभव में तुम स्वयं भी न बह जाओ, इसका ध्यान रखना पड़ेगा। संसार की लहरों की वास्तविक गति में तुम दोनों बहोगें। उस समय यह ध्यान रखना पड़ेगा कि कहीं डूब न जाओ।’

श्वेतांक ने विशालदेव की ओर देखा और विशालदेव ने श्वेतांक की ओर।

रत्नांबर ने कुछ देर तक मौन रहकर फिर कहना आरंभ किया-‘जिन परिस्थितियों में तुम जा रहे हो, उसका पहले से ही परिचय करा दूँ।’

कुमारगिरि योगी है, उसका दावा है कि उसने संसार की समस्त वासनाओं पर विजय पा ली है। संसार से उसको विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है; उसमें विरक्ति है, और अपने मतानुसार उसने सुख को भी जान लिया है। कुमारगिरि युवा है; पर यौवन और विराग में मिलकर उसमें एक अलौकिक शक्ति उत्पन्न कर दी है। संसार उसका साधन है और स्वर्ग उसका लक्ष्य। विशालदेव! वही कुमारगिरि तुम्हारा गुरू होगा।

‘और श्वेतांक! बीजगुप्त भोगी है; उसके हृदय में यौवन की उमंग है और आँखों में मादकता की लाली। उसकी विशाल अट्टालिकाओं में भोग विलास नाचा करते हैं ; रत्नजटित मदिरा में ही उसके जीवन का सारा सुख है। वैभव और उल्लास की तरंगो में वह केलि करता है, ऐश्वर्य की उसके पास कमी नहीं है। उसमें सौदर्य है, और उसके हृदय में संसार की समस्त वासनाओं का निवास। उसके द्वार पर मातंग झूमा करते हैं; उसके भवन में सौंदर्य के मद से मतवाली नर्तकियों का नृत्य हुआ करता है। ईश्वर पर उसे विश्वास नहीं,शायद उसने कभी ईश्वर के विषय में सोचा तक नहीं है। और स्वर्ग तथा नर्क की उसे कोई चिंता नहीं है।आमोद और प्रमोद ही उसके जीवन का साधन है तथा लक्ष्य भी है। उसी बीजगुप्त का तुम्हें सेवक बनना पडे़गा। श्वेतांक! स्वीकार है? ’

‘महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य है।’ श्वेतांक एक बार कल्पना से परे ऐश्वर्य की थाह लेना चाहता था।

‘और विशालदेव , तुम्हें स्वीकार है?’

‘महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य है।’ विशालदेव एक बार यौवन और विराग के मिश्रण से उत्पन्न शक्ति का महत्व जानना चाहता था।

‘तो फिर ऐसा ही हो।’ इतना कहकर रत्नांबर उठ खड़े हुए।

दूसरे दिन कुटी खाली पड़ी थी। गुरू साधना के शुष्क क्षेत्र में और शिष्य अथाह संसार में निकल पड़े थे।

पहला परिच्छेद

छलकते हुए मदिरा के पात्र को चित्रलेखा के मुख से लगाते हुए बीजगुप्त ने कहा-‘‘चित्रलेखा ! जानती हो जीवन का सुख क्या है ?’’
चित्रलेखा की अधखुली आंखों में मतवालापन था और उसके अरुण कपोलों में उल्लास था। यौवन की उमंग में सौंदर्य किलोलें कर रहा था, आलिंगन के पाश में वासना हंस रही थी। चित्रलेखा ने मदिरा का एक घूंट पिया-इसके बाद वह मुस्कराई। एक क्षण के लिए उसके अधरों ने बीजगुप्त के अधरों से मौन भाषा में कुछ बात कही, फिर धीरे से उसने उत्तर दिया-‘‘मस्ती !’’
उस समय प्राय: आधी रात बीत चुकी थी। बीजगुप्त का भवन सहस्रों दीप-शिखाओं से आलोकित हो रहा था, द्वार पर शहनाई में विहाग बज रहा था। केलि-भवन में नगर की सर्वसुंदरी नर्तकी के साथ सामंत बीजगुप्त यौवन की उमंग में निमग्न था और बाहर गहरे अंधकार में सारा विश्व।
बीजगुप्त हंस पड़ा।–‘‘सोच रहा हूं चित्रलेखा, यौवन का अंत क्या होगा ?’’

चित्रलेखा भी हंस पड़ी, पर हंसी क्षणिक थी, अचानक वह मीठी और उल्लास से भरी हंसी वेदना-गंभीरता में परिणत हो गई। उसने भी शायद कभी इसी प्रश्न का उत्तर पाने की चेष्टा की थी, पर प्रश्न इतना भयानक था कि वह उस पर अधिक देर तक सोच न सकी थी। उसका सिर घूमने लगा था और इसके बाद मदिरा के पात्र में उस समय के लिए उसने उस सुखद विचार को डुबो दिया था। आज एकाएक फिर उसी प्रश्न को सुनकर वह चौंक उठी-‘‘जीवित मृत्यु !’’
‘‘जीवित मृत्यु ! नहीं, यह असंभव है। यौवन का अंत है एक अज्ञात अंधकार, और उस अज्ञात अंधकार के गर्त में क्या छिपा है, वह न तो मैं जानता हूं, और न उसके जानने की कोई इच्छा ही है। भूत और भविष्य, ये दोनों ही कल्पना की चीजें है, जिनसे हमको कोई प्रयोजन नहीं, वर्तमान हमारे सामने है, और वह...’’ बीजगुप्त रुक गया, शायद वह आगे के शब्दों को ढूंढ़ने लगा था।

‘‘और वह उल्लास-विलास है, संसार का सारा सुख है, यौवन का सार है।’’ चित्रलेखा ने हंसते हुए वाक्य पूरा कर दिया।
बीजगुप्त ने चित्रलेखा को आलिंगन-पाश में लेकर कहा-‘‘तुम मेरी मादकता हो।’’
चित्रलेखा ने उत्तर दिया-‘‘और तुम मेरे उन्माद हो।’’

चित्रलेखा वेश्या न थी, वह केवल नर्तकी पाटलिपुत्र की असाधारण सुंदर नर्तकी का वेश्यावृत्ति स्वीकार न करना, यह बात स्वयं ही असाधारण थी; पर उसके कारण थे, और उन कारणों का उसके गत जीवन से गहरा संबंध था।

चित्रलेखा ब्राह्मण विधवा थी। वह विधवा उस समय हुई थी, जिस समय उसकी अवस्था अठारह वर्ष की थी। विधवा हो जाने के बाद संयम उसका नियम हो गया था, पर बात वैसी ही अधिक दिनों तक न रह सकी। एक दिन उसके जीवन में कृष्णादित्य ने प्रवेश किया। कृष्णादित्य क्षत्रिय और शूद्रा का वर्णशंकर पुत्र था। कृष्णादित्य एक सुंदर नवयुवक था, और उसकी सुंदरता में एक विशेष प्रकार का आकर्षण था। कृष्णादित्य ने विधवा चित्रलेखा की तपस्या भंग कर दी।
सुंदरी चित्रलेखा का दबा हुआ यौवन विकसित हो गया, विराग का तेज उल्लास की चमक से दब गया। चित्रलेखा के जीवन का स्रोत बदल गया। कृष्णादित्य ने चित्रलेखा से शपथ ली-‘‘जब तक हम दोनों जीवित रहेंगे, हम दोनों साथ रहेंगे, कोई भी हम दोनों को अलग न कर सकेगा।’’ चित्रलेखा ने कृष्णादित्य की शपथ पर विश्वास कर लिया था। इसके बाद जो होना चाहिए था, वही हुआ।

चित्रलेखा गर्भवती हो गई। गुप्त प्रेम संसार पर प्रकट हो गया। कृष्णादित्य के पिता ने कृष्णादित्य को निकाल दिया और चित्रलेखा के पिता ने चित्रलेखा को। संपन्न पिता का पुत्र कृष्णादित्य गर्भवती सुंदरी चित्रलेखा को लेकर भिखारी की भांति जनरव में निकल पड़ा। त्याज्य नवयुवक को समाज की भर्त्सना और अपमान असह्य हो गए, इस अपमान जनक जीवन की अपेक्षा मृत्यु उसे अधिक प्रिय लगी। रह गई चित्रलेखा, उसे एक नर्तकी ने अपने यहां आश्रय दिया।
चित्रलेखा को एक पुत्र हुआ; पर उत्पन्न होने के साथ ही वह संसार को छोड़ गया। चित्रलेखा का कंठ कोमल था और शरीर सुंदर। जिस नर्तकी ने उसे आश्रय दिया था, उसने उसे नृत्य तथा संगीत-कला की शिक्षा दी। इसके बाद चित्रलेखा भी नर्तकी हो गई। रहा भोग-विलास, चित्रलेखा ने एक बार फिर वैधव्य के संयम को पालने का प्रयत्न किया। कृष्णादित्य और कृष्णादित्य का पुत्र दोनों ही चित्रलेखा के जीवन में आकर निकल गए; पर दोनों ही अपनी-अपनी स्मृति उसके हृदय-पटल पर छोड़ गए।
पाटलिपुत्र का जनसमुदाय चित्रलेखा के पैरों पर लोटा करता था; पर चित्रलेखा ने संयम के तेज से जनित क्रांति को बनाए रखा। बड़े-बड़े शक्तिशाली सरदार और लक्षाधीश नवयुवक उसके प्रणय के प्यासे थे; पर उसको कोई भी न पा सका। जनसमुदाय के सामने वह असाधारण सुंदरी आती थी और विद्युत की भांति चमककर वह उनके सामने से लोप हो जाती थी। जिसने उसे एक बार देखा, उसके हृदय में उसे एक बार फिर देखने की अमिट साध उत्पन्न हो गई।

एक दिन बीजगुप्त चित्रलेखा का नृत्य देखने गया। नाचने-नाचते चित्रलेखा की दृष्टि बीजगुप्त पर पड़ी-एकाएक उसका मुख श्वेत हो गया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो कृष्णादित्य स्वर्ग से उतरकर उसका नृत्य देखने आया है। वह रुक गई और एकटक अपने को तथा अपने सामने बैठे हुए जनसमुदाय को भूलकर बीजगुप्त की ओर देखने लगी। बीजगुप्त युवा था, उसकी अवस्था प्राय: पच्चीस वर्ष की थी। चित्रलेखा के सौंदर्य के वंशीभूत होकर वह भी एकटक उसकी ओर देख रहा था। लोगों के मुख से निकल पड़ा-‘‘अरे यह तो बीजगुप्त है।’’
चित्रलेखा ने भी यह सुना, अपनी भूल पर उसे परिताप हुआ; पर उससे अधिक क्रोध। बीजगुप्त की ओर से आँखें फेरकर वह नृत्य करने लगी। नृत्य समाप्त होने के बाद बीजगुप्त चित्रलेखा के सामने गया, उसने कहा-‘‘क्या कभी आपके स्थान पर आपके दर्शन कर सकने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँगा।’’

चित्रलेखा ने बीजगुप्त की ओर देखा, और हंस पड़ी-‘‘नहीं, मैं व्यक्ति से नहीं मिलती। मैं केवल समुदाय के सामने आती हूं, व्यक्ति का मेरे जीवन से कोई संबंध नहीं।’’
बीजगुप्त की आशा का तुषार-पात हुआ, उसका प्रफुल्ल मुख मुरझा गया। फिर भी उसने साहस किया-‘‘व्यक्ति से ही समुदाय बनता है, समुदाय की प्यास उसके प्रत्येक व्यक्ति की प्यास है, फिर यह भेद क्यों ?’’
‘‘भेद जानना चाहोगे तो सुनो। जिसे सब समुदाय का उल्लास कहते हैं, वह समुदाय के व्यक्तियों के रुदन का संग्रह है। निर्बल व्यक्तियों की आहें संगठित होकर समुदाय द्वारा जनित क्रांति का रूप धारण कर सकती है। और साथ ही जहां समुदाय से हानि की कोई संभावना नहीं होती, वहां व्यक्ति का ममत्व-भाव भयोत्पादक केंद्र बन जाता है।’’
बीजगुप्त प्रेम करने गया था, दर्शन पर तर्क करने के लिए नहीं। उसने कहा-‘‘तो फिर यह समझ लूं कि मेरे लिए आपका द्वार बंद है ?’’

बीजगुप्त के मुख पर निराशा की हल्की-सी मुस्कराहट दौड़ गई-‘‘व्यक्तित्व जीवन में प्रधान है और व्यक्ति से ही समुदाय बनता है। जब व्यक्ति वर्जित है, तो उस व्यक्ति को समुदाय का भाग बनना अपना ही अपमान करना है।’’-इतना कहकर तीर की भांति वह वहां से चला गया।
बीजगुप्त चला गया; पर चित्रलेखा के हृदय में वह एक प्रकार की हलचल पैदा कर गया।
दिन-पर-दिन बीतते गये; पर चित्रलेखा ने बीजगुप्त को फिर न देखा। कृत्रिम उपेक्षा धीरे-धीरे दूर होती गई और चित्रलेखा के हृदय में बीजगुप्त की स्मृति प्रबल हो उठी। नित्य ही नृत्य-भवन में बैठे हुए दर्शकों में उसकी आंखें बीजगुप्त को ढूँढ़ती थीं; पर अंत में उन्हें निराश होना पड़ता था।
लाख दबाने की चेष्टा करने पर भी अभिलाषा प्रबल ही होती गई। एक दिन चित्रलेखा ने अपनी दासी से पूछा-‘‘इस नगर में बीजगुप्त नाम का कोई व्यक्ति रहता है ?’’

दासी ने उत्तर दिया-‘‘बीजगुप्त को कौन नहीं जानता ? वह इस नगर का सबसे सुंदर तथा प्रभावशाली युवक-सामंत है।’’
चित्रलेखा ने दासी को एक पत्र दिया और उसे बीजगुप्त को दे देने को कहा।
दासी ने बीजगुप्त को वह पत्र दे दिया। उसमें लिखा था-‘‘चित्रलेखा बहुत सोच-विचार के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि केवल एक व्यक्ति उसके जीवन में आ सकता है। और वह व्यक्ति बीजगुप्त है।’’ पत्र पढ़ते ही बीजगुप्त के सारे शरीर में सुख का हल्का-सा कंपन दौड़ गया। उसी दिन से इन दो प्राणियों का साथ हुआ था; पर फिर चित्रलेखा वेश्या न थी।
बीजगुप्त ने हंसकर कहा-‘मादकता और उन्माद-इन दोनों का सदा साथ रहा है और रहेगा। चित्रलेखा, हम दोनों कितने सुखी हैं। उस समय चित्रलेखा भी हंस रही थी।
इसी समय शहनाई का बजना बंद हो गया, प्रहरी ने उच्च स्वर में कहा-‘‘श्रीमान् ! द्वार पर अतिथि है क्या आज्ञा है ?’’
बीजगुप्त ने आलिंगन-पाश ढीला कर दिया, चित्रलेखा उससे कुछ दूर हटकर बैठ गई। बीजगुप्त ने परिचारिका से कहा-‘‘अतिथियों को यहीं आने दो।’’-इतना कहकर उसने मदिरा का पात्र खाली कर दिया।

अर्धरात्रि के समय कौन-से अतिथि आ सकते हैं, बीजगुप्त इस विष, पर सोच रहा था; उसी समय श्वेतांक के साथ रत्नांबर ने बीजगुप्त के कोलि-गृह में प्रवेश किया। रत्नांबर को देखकर बीजगुप्त ने उठकर अभिवादन किया और चित्रलेखा ने अपना मस्तक नीचा कर लिया।
केलि-गृह को एक बार अच्छी तरह से देखने के बाद रत्नांबर की आंखें चित्रलेखा पर रुक गईं। थोड़ी देर तक रुककर रत्नांबर ने कहा-‘‘नगर की सर्वसुंदरी और पवित्र नर्तकी अर्धरात्रि के समय बीजगुप्त के केलि-गृह में ! आश्चर्य होता है-‘इतना कहकर रत्नांबर आसन पर बैठ गया। श्वेतांक खड़ा ही रहा।

बीजगुप्त ने रत्नांबर से पूछा-‘‘महाप्रभु ने किस कारण दास पर कृपा करने का इस समय कष्ट उठाया ?’’
रत्नांबर हंस पड़े-‘‘बीजगुप्त ! तुमसे सब बातें स्पष्ट रूप से कहूंगा। आज मेरे इस शिष्य ने मुझसे प्रश्न किया कि पाप क्या है ? मैं इसका उत्तर देने में असमर्थ हूं। तुम मेरी सहायता कर सकते हो। तुम मेरे शिष्य रहे हो, मैंने कभी तुमसे कोई गुरु-दक्षिणा नहीं ली। पाप का पता लगाने के लिए ब्रह्मचारी की कुटी उपयुक्त स्थान नहीं है; संसार के भोग-विलास में ही पाप का पता लग सकेगा। तुम्हारा भवन और तुम्हारा समाज-इन चीजों से श्वेतांक को भिज्ञ कराना आवश्यक है इसलिए मैं इसको तुम्हारे सेवक-रूप में उपस्थित कर रहा हूं। मैं चाहता हूं कि तुम इसे सेवक-रूप में स्वीकार करो, पर एक बात याद रखना-यह तुम्हारा गुरु-भाई भी हो सकता है।’’

‘‘महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य है। -बीजगुप्त ने अपना मस्तक नमा दिया।
‘‘अच्छा ! मैं जाता हूं-मेरा एक काम पूरा हो गया। और श्वेतांक, यह याद रखना कि बीजगुप्त तुम्हारे प्रभु हैं और तुम इनके सेवक। इस वैभव को भोगो और फिर पाप का पता लगाने का प्रयत्न करो। अच्छा और बुरा-यह तुम्हारे सामने आयेगा; पर इस कसौटी पर ध्यान रखना कि अच्छी वस्तु वही है जो तुम्हारे वास्ते अच्छी होने के साथ ही दूसरों के वास्ते भी अच्छी हो। और बीजगुप्त ! तुमसे केवल यही कहना है कि श्वेतांक के दोषों को क्षमा करना। यह अभी अबोध है, संसार में यह अभी पदार्पण ही कर रहा है।–इतना कहकर रत्नांबर केलि-भवन से चले गए।

रत्नांबर के जाने के बाद बीजगुप्त ने श्वेतांक को बड़े गौर से देखा-‘‘तुम्हारा नाम श्वेतांक है और तुम आज से मेरे सेवक हुए।’’ इतना कहने के बाद बीजगुप्त के मुख पर हल्की-सी मुस्कराहट दौड़ गई। चित्रलेखा की ओर संकेत करके बीजगुप्त ने कहा-‘‘जानते हो श्वेतांक, यह कौन है ?’’
श्वेतांक की आंखें रात्रि के समय प्रकाश से जगमगाते हुए सुसज्जित केलि-भवन में चित्रलेखा के मादक सौंदर्य को देखकर चकाचौंध हो गई। उसने कहा-"नहीं।"

“अच्छा तो सुनो ! इनका नाम चित्रलेखा है, और यह पाटलिपुत्र की सर्वसुन्दरी नर्तकी होते हुए भी मेरी पत्नी के बराबर हैं। इसीलिए यह तुम्हारी स्वामिनी भी हुईं।"-इतना कहकर बीजगुप्त हँस पड़ा। "तुम आश्चर्य में आ गए होगे; पर आश्चर्य करने की कोई बात नहीं। यहाँ रहकर तुम परिस्थितियों को अपना सकोगे। अच्छा, यह मदिरा का पात्र अपनी स्वामिनी को दो।"-इतना कहकर बीजगुप्त ने सुगन्धित मदिरा से भरा हुआ स्वर्ण-पात्र श्वेतांक के हाथ में दे दिया।

श्वेतांक ने मदिरा का पात्र चित्रलेखा की ओर बढ़ा दिया। मदिरा का पात्र लेते हुए श्वेतांक का हाथ चित्रलेखा के हाथ से स्पर्श कर गया। इस स्पर्श से श्वेतांक का सारा गात काँप-सा गया। चित्रलेखा ने श्वेतांक की ओर देखा-“नवयुवक, तुम्हें इस अनोखे संसार में प्रथम बार आने के उपलक्ष्य में बधाई है !"-इतना कहकर उसने मदिरा का पात्र खाली कर दिया।

उसी समय प्रहरी ने उच्च स्वर में कहा-“शयन का समय हो गया।"

बीजगुप्त ने चित्रलेखा से पूछा-“यहाँ रहोगी, या अपने भवन को जाओगी ?" चित्रलेखा उठ खड़ी हुई। द्वार की ओर बढ़ते हुए उसने कहा-"अपने भवन को ही इस समय जाना उचित होगा; पर शायद अकेली न जा सकूँगी।"-उस समय उसके पैर लड़खड़ा रहे थे।

परिचारिका ने केलि-गृह में प्रवेश किया। बीजगुप्त भी उठ खड़ा हुआ-"हाँ, इस समय अकेले जाना वास्तव में असम्भव होगा।"

कुछ देर तक सोचकर बीजगुप्त ने श्वेतांक से कहा-"द्वार पर रथ खड़ा है। उसमें बिठाकर तुम अपनी स्वामिनी को उनके भवन तक पहुँचा दो। उस समय तक तुम्हारे शयन-गृह का प्रबन्ध हो जाएगा।"

श्वेतांक चित्रलेखा के साथ चला गया। बीजगुप्त ने परिचारिका को श्वेतांक के शयन-गृह का प्रबन्ध कर देने की आज्ञा देकर निद्रा देवी की शरण ली।

दूसरा परिच्छेद

कुमारगिरि योगी था !

योगी ? हाँ, क्योंकि उसने संसार छोड़ दिया था। क्यों ? एक दूसरा कल्पना का संसार प्राप्त करने के लिए, इस आशा पर कि वह संसार सुख से पूर्ण होगा। जनरव से उसे अरुचि थी कल्पना का मंडल उसके विचरने का क्षेत्र था। संसार में उसे शान्ति न थी, इसीलिए शान्ति को पाने के लिए उसे निर्जन की शरण लेनी पड़ी थी। संयम और नियम-इन पर उसे विश्वास था, इच्छाएँ उसके वशीभूत थीं।

योगी कुमारगिरि में शक्तियाँ भी थीं; पर वह उन शक्तियों का संचय के करने में ही विश्वास करता था, प्रयोग करने में नहीं। एकान्त में उसका मन स्थिर रहता था, और एकाग्रचित्त होकर वह अभ्यास भी कर सकता था। उसने अपना शरीर तपा दिया था; पर उसको कष्ट न हुआ था। शरीर तपा था; पर उसकी जलन को एक अलौकिक सुख की कल्पना शीतल कर देती थी। उसने वासनाओं को दबा दिया था, क्योंकि वासनाओं के कारण ही मनुष्य पाप करता है।

योगी कुमारगिरि सुखी था। विचार-सागर में वह डूबा रहता था। उसके सामने इच्छाओं का संसार न था और इच्छाओं के न पूर्ण होने से जनित परिताप न था। उसके जीवन की अकर्मण्यता पर ज्ञान और विचार का आवरण था। सुख कल्पना है-तृप्ति है। प्यास न होने के कारण तृप्ति का कोई वास्तविक महत्त्व न भी हो; पर ऐसी स्थिति में हृद, पर कोई भार नहीं रहता, कसक की, टीस की अनभिज्ञता प्रधान होती है। दुख से शून्य तथा हलके-से हृदय को कल्पना के संसार में ले जाना सरल होता है। योगी कुमारगिरि विस्मृति के अंक में निवास करता था। आत्म-विस्मृति और कल्पना की सजीवता का भ्रम-इन दोनों में अजब मस्ती है। एक काल्पनिक चाह थी, एक काल्पनिक तृप्ति भी वहीं पर थी, दो कल्पनाओं से उत्पन्न सुख में वह मग्न था।

और इसीलिए कुमारगिरि योगी था !

मधुपाल कुमारगिरि का शिष्य था। मधुपाल कुमारगिरि की शक्तियों से परिचित था, और साथ-साथ चकित भी।

मधुपाल ने पूछा-“देव, संयम का लक्ष्य क्या है ?"

कुमारगिरि सम्हलकर बैठ गए-“शान्ति ! और शान्तिजनित आनन्द !"

"बाह्य दृष्टि से परिवर्तन और आन्तरिक दृष्टि से शून्य। शून्य और परिवर्तन-इनके विचित्र संयोग पर तुम्हें शायद आश्चर्य होगा ये दोनों एक किस प्रकार से हो सकते हैं, यह प्रश्न स्वाभाविक होगा। पर वही स्थिति, जहाँ मनुष्, परिवर्तन और शून्य के भेदभाव से ऊपर उठ जाता है, ज्ञान की अन्तिम सीढ़ी है। संसार क्या है ? शून्य है। और परिवर्तन उस शून्य की चाल है। परिवर्तन कल्पना है, और कल्पना ही स्वयं शून्य है। समझे ?"

मधुपाल इस उत्तर से सन्तुष्ट न हो सका-"देव, आपने कहा कि संसार शून्य है। यह मेरी समझ में नहीं आया। जो वस्तु दृष्टि के सामने है वह शून्य किस प्रकार हो सकती है ?"

कुमारगिरि हँस पड़े-“यहीं तो योग की आवश्यकता होती है। योगी जिस समय आँखें बन्द करता है उस समय एक अखंड शून्य रहता है, और कुछ नहीं। उसी शून्य में सुख-दुख, अनुराग-विराग, दिन-रात, ब्रह्म और माया सब-के-सब लोप हो जाते हैं। उसी प्रकाशवान शून्य में वह विचरता है और वहीं वह निमग्न हो जाता है। जहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई है, वहीं वह इस काल्पनिक जीवन के कुछ क्षणों के लिए मिल जाता है। और उसी ब्रह्म से युक्त शून्य में सदा के लिए मिल जाने को मुक्ति कहते हैं। इस तरह योगी इसी शरीर के साथ मुक्ति का अनुभव करता है।"

अपने गुरु के प्रति मधुपाल की श्रद्धा उमड़ पड़ी। गद्गद होकर उसने गुरु के चरणों में अपना मस्तक नमा दिया। उसे अपने गुरु के अखंड ज्ञान पर गर्व था, और गुरु के अच्युत होने पर विश्वास। इसी समय रत्नाम्बर ने विशालदेव के साथ कुमारगिरि की कुटी में प्रवेश किया।

रत्नाम्बर को सम्मुख देखकर कुमारगिरि आसन से उठ खड़े हुए। दोनों एक-दूसरे से गले मिले। इसके बाद रत्नाम्बर को आसन देकर कुमारगिरि ने पूछा-“आचार्य ने किसलिए यह कष्ट उठाया ?"

निश्चल भाव से रत्नाम्बर ने उत्तर दिया-“अखंड तेज से विभूषित योगी कुमारगिरि से अपने शिष्य को दीक्षित कराने के लिए ही मैं उपस्थित हुआ हूँ।"

कुमारगिरि ने कहा-“आचार्य, इस तुच्छ सेवक को एक बहुत बड़ा स्थान दे रहे हैं और मैं उसके लिए सर्वथा अयोग्य हूँ।"

“नहीं, योगी कुमारगिरि, यह तुम्हारी उदारता है। तुम वास्तव में श्रेष्ठ हो। तुम संसार से बहुत ऊँचे उठ चुके हो और मैं अभी तक संसार में ही हूँ। जहाँ केवल तर्क किसी समस्या को सुलझाने में पर्याप्त नहीं होता, वहाँ अनुभव की तथा कल्पना की आवश्यकता होती है। तुममें ज्ञान है, और कल्पना है, मुझमें केवल अनुभव है। इसीलिए तुम्हारे पास आया हूँ। तुम्हारे साथ रहकर मनुष्य जीवन की जटिल-से-जटिल समस्याओं को सफलतापूर्वक हल करने में समर्थ हो सकेगा। इसीलिए मैं विशालदेव को तुम्हारा शिष्य बनाना चाहता हूँ। योगी कुमारगिरि, तुम मेरा अनुरोध न टालोगे, और मेरी यह प्रार्थना स्वीकार करोगे।"

कुमारगिरि ने विशालदेव की ओर देखा-"वत्स ! जीवन की किस समस्या को सुलझाने के लिए तुम्हें मेरे पास आना पड़ रहा है ?"

विशालदेव ने कुमारगिरि को अभिवादन करके शान्त भाव से उत्तर दिया-“देव ! मैं जानना चाहता हूँ कि पाप क्या है ?"

कुमारगिरि हँस पड़े। उनकी हँसी में माधुर्य था। उन्होंने कहा-"तुम जानना चाहते हो कि पाप क्या है ! पर पाप क्या है, यह अधिकतर अनुभव से ही जाना जा सकता है, और मेरे साथ रहकर तुम्हें पाप का अनुभव न हो सकेगा। मेरा क्षेत्र है संयम और नियम और संयम और नियम से पाप दूर रहता है। फिर भी आचार्य का अनुरोध है कि मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाऊँ। शिष्य बनाने के पहले तुम और आचार्, पर यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि मैं तुम्हें पुण्य का रूप दिखला दूँगा, और पुण्य को जानकर तुम पाप का पता लगा सकोगे ?"

कुमारगिरि की बातें सुनकर रत्नाम्बर मन-ही-मन मुस्कराए। उन्होंने कहा-“योगी कुमारगिरि ! जो तुमने कहा वह उचित कहा। किसी भी समझदार व्यक्ति को इसमें आपत्ति न होगी।"

"तो फिर आचार्य का अनुरोध स्वीकार है।"

रत्नाम्बर उठ खड़े हुए-“अच्छा योगी कुमारगिरि, तो अब मैं तुम्हारी आज्ञा चाहता हूँ। तुम्हें शायद आश्चर्य होगा; पर मैं स्वयं ही नहीं जानता हूँ कि पाप क्या है। वर्षों के अध्ययन और अनुभव के बाद भी पूर्ण ज्ञान की थाह नहीं ले सका हूँ। अपने शिष्यों को मैंने योग्य व्यक्तियों के हाथ सौंप दिया है, अब मैं कुछ थोड़ी-सी तपस्या भी करूँगा। देखूगा कि जिस बात को मैं अध्ययन तथा अनुभव से नहीं जान सका, क्या मैं उसे आराधना और साधना से जान सकता हूँ।"

इतना कहकर रत्नाम्बर वहाँ से चले गए।

रत्नाम्बर के चले जाने के बाद कुमारगिरि ने संकेत से विशालदेव को बिठलाया।

"वत्स ! तुम मेरे शिष्य हुए। इस समय मैं तुमसे कुछ प्रश्नों का उत्तर चाहूँगा। जानते हो वासना क्या है ?"

विशालदेव ने उत्तर दिया-“देव ! वासना इच्छाओं का दूसरा नाम है।"

"ठीक ! पर यह भी जानते हो कि मनुष्य के जीवन में वासना का क्या स्थान है ?"-कुमारगिरि ने पूछा-"शायद नहीं ! और वह तुम्हें मैं आज बताऊँगा। वासना पाप है, जीवन को कलुषित बनाने का एकमात्र साधन है। वासनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करता है, और उनमें डूबकर मनुष्य अपने को अपने रचयिता ब्रह्म को भूल जाता है। इसीलिए वासना त्याज्य है। यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं को छोड़ सके, तो वह बहुत ऊपर उठ सकता है। ईश्वर के तीन गुण हैं-सत, चित् और आनन्द ! तीनों ही गुण वासना से रहित विशुद्ध मन को मिल सकते हैं, पर वासना के होते हुए ममत्व प्रधान रहता है, और ममत्व के भ्रान्तिकारक आवरण के रहते हुए इनमें से किसी एक का पाना असम्भव है। विशालदेव ! मेरा शिष्य होकर तुम्हें जो पहला काम करना पड़ेगा, वह यह होगा कि तुम वासना को त्यागकर अपने मन को शुद्ध करो। यह एक तपस्या है; पर इस तपस्या में दुख नहीं है। इच्छाओं को दबाना उचित नहीं, इच्छाओं को तुम उत्पन्न ही न होने दो। यदि एक बार इच्छा उत्पन्न हो गई, तो फिर वह प्रबल रूप धारण कर लेगी। इसीलिए तुम्हारा कर्तव्य होगा, इच्छाओं को सदा के लिए मार डालना। बोलो, इतना कर सकोगे ?"

विशालदेव ने उत्तर दिया-“देव ! इतना करने का प्रयत्न करूँगा। कर सकूँगा या नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। आपका बतलाया हुआ मार्ग सरल है, पर उसमें कुछ आपत्ति अवश्य है। वासनाओं का हनन क्या जीवन के सिद्धान्तों के प्रतिकूल नहीं है ? मनुष्य उत्पन्न होता है, क्यों ? कर्म करने के लिए। उस समय कर्म करने के साधनों को नष्ट कर देना क्या विधि के विधान के प्रतिकूल नहीं है ? देव, जिस समय आप इस सम्बन्ध में मेरा भ्रम निवारण कर देंगे, उस समय मैं आपके निर्धारित मार्ग पर चलूँगा।"

कुमारगिरि सम्भवतः विशालदेव से इस उत्तर को पाने के लिए तैयार बैठे थे। उन्होंने कहा-“तुमने उचित ही कहा है विशालदेव, क्योंकि तुम पर एक गुरु का प्रभाव है। उस प्रभाव को दूर करके मुझे तुम पर अपना प्रभाव जमाना पड़ेगा। मैं तुम्हारा भ्रम निवारण कर दूंगा, पर आज नहीं। भ्रम में पड़े हुए गुरु के शिष्यों में भ्रमों का होना स्वाभाविक ही है; पर, देखता हूँ विशालदेव ! आचार्य रत्नाम्बर के विचार किसी अंश तक नास्तिकता की ओर झुके हुए हैं। मैं आस्तिक हूँ। इसके पहले कि तुम मुझसे कुछ सीख सको, तुम्हें दो बातों को मानना पड़ेगा। प्रथा यह कि ब्रह्म है और दूसरा यह है कि कर्तव्य जीवन का प्रधान अंग है।"

विशालदेव ने उत्तर दिया-“देव ! मैं इन दो बातों को मानता हूँ।"

कुमारगिरि उठ खड़े हुए-“तो फिर निश्चिन्त हो गया। मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा और तुम्हें मुक्ति का मार्ग दिखलाकर पाप से परिचित करा दूंगा।"

तीसरा परिच्छेद

श्वेतांक ब्रह्मचारी था। उसका क्षेत्र था अनुभव-रहित अध्ययन और उसका ध्येय था ज्ञान। उसकी अवस्था उस समय प्रायः पच्चीस वर्ष की थी, और उतने काल में उसने दर्शनों तथा स्मृतियों का अध्ययन कर लिया था। उसने व्याकरण पढ़ा था और साहित्य पढ़ा था। काव्य में प्रेम के सजीव वर्णनों को उसने ध्यान से पढ़ा था, उसको समझने की चेष्टा भी की थी; पर समझ न सका था। स्त्री को वह न जानता था, यौवन की मादकता का उसे परिचय न था।

बीजगुप्त के भवन में ब्रह्मचारी श्वेतांक और नर्तकी चित्रलेखा का साथ हुआ। बीजगुप्त ने जिस समय श्वेतांक से चित्रलेखा का परिचय कराया था उसने केवल हँसी की थी; पर जब उसने परिस्थितियों पर विचार किया, उसे कौतूहल हुआ। ब्रह्मचारी और नर्तकी। बीजगुप्त इस संयोग पर हँस पड़ा।

पर बीजगुप्त की हँसी श्वेतांक के जीवन में एक हलचल थी। प्रायः नित्य ही रात के समय श्वेतांक को चित्रलेखा के साथ, उसके भवन तक पहुँचाने जाना पड़ता था। उस समय चित्रलेखा मद से उतावली रहती थी। चित्रलेखा की आँखों की मस्ती श्वेतांक के हृदय में एक प्रकार का कम्पन उत्पन्न कर देती थी। स्त्री और मदिरा-तेल से भरे दीपक की प्रज्वलित ज्योति थी, जिसके चारों ओर श्वेतांक एक पतिंगे की भाँति चक्कर काट रहा था। श्वेतांक जिस समय चित्रलेखा की ओर देखता था, एक विचित्र प्रकार के सुख का अनुभव करता था और वह सुख क्या था ? अज्ञात चाह का कम्पन। जिस समय चित्रलेखा की अधखुली मस्त आँखें श्वेतांक की आँखों से मिल जाती थीं, उस समय श्वेतांक पागल की भाँति झूमने लगता था।

बीजगुप्त के भवन में श्वेतांक की गणना बीजगुप्त के छोटे भाई की तरह होती थी। बीजगुप्त के सेवक श्वेतांक को अपनी ही कोटि का न मानते थे, वे बीजगुप्त की भाँति श्वेतांक को अपना स्वामी समझते थे। भोग-विलास के समस्त साधन श्वेतांक के सामने उपस्थित थे। नगर के प्रभावशाली व्यक्तियों से उसका परिचय हो गया था। एक गहरे अन्धकार से निकलकर श्वेतांक एक आलोकमय संसार में आ पड़ा था, इसीलिए अपनी स्थिति पर वह स्वयं ही विश्वास न कर सका, पर धीरे-धीरे वह परिस्थितियों के अनुकूल होने लगा। उसे अनुभव हुआ कि वह संसार में ही है, पाप और पुण्य के बीच में है, वासनाओं का उसके चारों ओर जमघट है। उसको यह विदित हो गया कि वह संसार की लहरों में बह रहा है।

उस दिन बीजगुप्त कारणवश बाहर चला गया था। काम इतना आवश्यक और अचानक आ पड़ा था कि बीजगुप्त सन्ध्या के समय न लौट सका। निर्धारित सम, पर चित्रलेखा का रथ बीजगुप्त के द्वार पर रुका। श्वेतांक ने चित्रलेखा का स्वामी से रिक्त गृह में स्वागत किया। दोनों बीजगुप्त की बैठक में गए। बीजगुप्त को न देखकर चित्रलेखा ने पूछा-"तुम्हारे स्वामी कहाँ हैं ?"

'तुम्हारे स्वामी कहाँ हैं ?'–ब्रह्मचारी ने नर्तकी के मुख से यह प्रश्न सुना और उसे बुरा भी लगा। यह वाक्य तीर की भाँति पैना था, और यदि यही वाक्य किसी दूसरी साधारण स्त्री के मुख से निकला होता, तो श्वेतांक शायद उसका कटु उत्तर देता, या इस पर बुरा तक मानता। श्वेतांक को प्रथम बार अपनी स्थिति तथा अपनी लघुता का आभास हुआ, और साथ ही उसे परिताप भी हुआ; पर अपने मनोभावों को दबाकर उसने उत्तर दिया-"देवी, कार्यवश वे कहीं बाहर गए हैं !"

चित्रलेखा ने पूछा-“कब तक उनके आने की सम्भावना है ?"

“आते ही होंगे !"

“श्वेतांक ! मुझे प्यास लगी है।"

श्वेतांक उठ खड़ा हुआ। उसे अपनी स्थिति का ज्ञान हो चुका था, और उसी के साथ उसको बीजगुप्त के वे शब्द भी याद हो आए थे-"चित्रलेखा तुम्हारी स्वामिनी है।" अपने हाथ से वह स्वयं ही स्वर्ण-पात्र में शीतल जल ले गया।

चित्रलेखा ने पानी देखा और मुस्कराई-"श्वेतांक ! तुम निरे बालक हो !"

श्वेतांक चित्रलेखा के इस व्यंग को न समझ सका-"देवी, कौन-सी भूल हुई है ?"

इस बार चित्रलेखा जोर से हँस पड़ी-"श्वेतांक ! तुम अब भी नहीं समझ सके। पिपासा तृप्त होने की चीज नहीं। आग को पानी की आवश्यकता नहीं होती, उसे घृत की आवश्यकता होती है, जिससे वह और भड़के। जीवन एक अविकल पिपासा है। उसे तृप्त करना जीवन का अन्त कर देना है। मुझे जल की आवश्यकता नहीं, मुझे मदिरा चाहिए।"

श्वेतांक इस उत्तर से चकित हो गया। बात कितनी भयानक थी; पर कितनी तर्कपूर्ण थी। श्वेतांक भी हँस पड़ा-"शायद मुझे पाटलिपुत्र की सर्वसुन्दरी स्त्री का शिष्य होना पड़ेगा देवि !"-इतना कहकर उसने चित्रलेखा के सामने मदिरा का प्याला बढ़ाया।

एक घूँट पीकर चित्रलेखा ने मदिरा का प्याला श्वेतांक के सामने रख दिया। उस समय वह तकिए के सहारे बैठी हुई थी। उसके सिर का वस्त्र खिसक गया था और उसके सिर के बाल अन्धकार की भाँति काले थे। उन बालों से गुंथी हुई मोतियों की माला प्रकाश की भाँति चमक रही थी। कितना सुन्दर था उसका वेश-श्वेतांक ने कभी ऐसी अनुपम सुन्दरी की कल्पना तक न की थी। चित्रलेखा का यौवन उन्माद का प्रतिबिम्ब था। उसके अरुण कपालों पर लाली थी। उसके अधर मन्द मुस्कान से भीगे हुए थे। उसकी आँख हँस रही थीं।

श्वेतांक मौन-भाव से चित्रलेखा के सौन्दर्य को निरख रहा था। चित्रलेखा ने पूछा-"देखती हूँ श्वेतांक, तुम मदिरा नहीं पीते। मैंने तुम्हारे सामने मदिरा का पात्र बढ़ा दिया है; पर तुम्हारे हाथ इसे मुँह तक ले जाने का साहस नहीं कर सकते। मैं तुमसे एक प्रश्न पूछूगी, उसका ठीक-ठीक उत्तर देना होगा।"

श्वेतांक ने अपना सिर झुका दिया।

"तुम ब्रह्मचारी रहे हो, और तुम्हारे गुरु ने तुमसे मदिरा पीने का निषेध किया होगा ! इसका कारण मैं जानना चाहती हूँ।"

श्वेतांक ने धीरे से उत्तर दिया-"देवि ! संयम जीवन का एक आवश्यक अंग है, और मदिरा और संयम में विरोध है !"

“और संयम का लक्ष्य क्या है ?"

“सुख और शान्ति।"

चित्रलेखा ने मदिरा के पात्र को अपने अधरों से लगाते हुए पूछा-“और जीवन का लक्ष्य ?"

चित्रलेखा की आँखें मादकता से कुछ-कुछ लाल होने लगी थीं, श्वेतांक ने चित्रलेखा के स्वर में एक प्रकार के संगीत का अनुभव किया, उसके वार्तालाप में कविता का। उसने उत्तर दिया-"जीवन का लक्ष्य ? सुख और शान्ति !"

“यहीं पर तुम भूलते हो नवयुवक !"-चित्रलेखा सम्हलकर बैठ गई“सुख तृप्ति और शान्ति अकर्मण्यता, पर जीवन अविकल कर्म है, न बुझनेवाली पिपासा है। जीवन हलचल है, परिवर्तन है; और हलचल तथा परिवर्तन में सुख और शान्ति का कोई स्थान नहीं।"-इतना कहकर उसने मदिरा का पात्र श्वेतांक के होंठों पर लगा दिया।

श्वेतांक ने एक बार मदिरा के पात्र को हटा देने को सोचा; पर चित्रलेखा की हँसती हुई आँखों में विचित्र जादू था। वह न तो चित्रलेखा को रोक सका और न अपने ही को। मदिरा उसके गले के नीचे उतर गई।

इसी समय बीजगुप्त ने पीछे से हँसते हुए कहा-"ब्रह्मचारी ! आज तुम्हें नर्तकी ने दीक्षा दी है, इसके उपलक्ष्य में मैं चित्रलेखा को बधाई देता हूँ।"

श्वेतांक मोह-निद्रा से एकाएक चौंक उठा। बीजगुप्त की हँसी ने उसकी भूल का आभास करा दिया। उसने चित्रलेखा की ओर देखा और फिर बीजगुप्त की ओर। इसके बाद उसने मस्तक नीचा कर लिया। बीजगुप्त हँसता हुआ वस्त्र बदलने चला गया। बीजगुप्त के जाने के बाद श्वेतांक ने चित्रलेखा से कहा-“देवि ! आज तुमने मेरी साधना चूर-चूर कर दी। तुमने यह क्यों किया ? तुमने मेरे हृदय में एक ज्वाला प्रज्वलित कर दी है। किसलिए ? देवि, मेरे जीवन में तुम बवंडर बनकर एकाएक क्यों आ पड़ीं?"-इतना कहते-कहते श्वेतांक ने चित्रलेखा का हाथ जोर से पकड़ लिया।

चित्रलेखा ने हँसते हुए उत्तर दिया-"श्वेतांक, तुम भूल करते हो। जिसे तुम साधना कहते हो, वह आत्मा का हनन है। मैंने तुम्हें केवल इतना दिखलाया है कि मादकता जीवन का प्रधान अंग है। रही तुम्हारे हृदय में ज्वाला उत्पन्न करने की बात, मैंने तो तुम्हें केवल जीवन का वास्तविक महत्त्व दिखलाया है।"-चित्रलेखा एकाएक गम्भीर हो गई। उसने श्वेतांक का हाथ झटक दिया-"श्वेतांक, यह याद रखना कि तुम्हारे जीवन में मेरा आना असम्भव है। सब कुछ होते हुए भी मैं अपनी मनोवृत्ति जानती हूँ। मैं संसार में केवल एक मनुष्य से प्रेम करती हूँ और वह बीजगुप्त है। कभी इस बात की कल्पना तक न करना कि मैं तुम्हारे जीवन में आ सकती हूँ। अब तुम जा सकते हो।"

श्वेतांक का मुख पीला पड़ गया। वह एक नर्तकी से हारा-ज्ञान में, कर्तव्य में और व्यक्तित्व में। उसने कहा-"जो आज्ञा देवि !" और इतना कहकर अपमानित तथा विजित ब्रह्मचारी द्वार की ओर बढ़ा !

चित्रलेखा ने कुछ सोचा और कुछ समझा। द्वार के बाहर गए श्वेतांक को उसने पुकारा-“श्वेतांक, ठहरो, तुमसे कुछ और कहना है, यहाँ लौट आओ !"

श्वेतांक रुक गया। वह लौटा नहीं, घूमकर उसने उत्तर दिया"देवि ! क्या अभी और भर्त्सना करना शेष है ? क्या अपनी आत्मा की निर्बलता का इतना पुरस्कार यथेष्ट नहीं है ? देवि, तुम मेरी स्वामिनी हो और साथ-साथ मेरे जीवन की... ! नहीं, क्षमा करना ! तुम केवल मेरी सामिनी हो, इसलिए तुम्हारी आज्ञा मुझको शिरोधार्य है। क्या कहना है देवि ?"-उस समय श्वेतांक की आँखों में जल भर आया था।

चित्रलेखा के हृदय में श्वेतांक-बालक श्वेतांक-की इन बातों से आघात पहुँचा। उसने कहा-"श्वेतांक ! मैंने भूल की थी। मैंने तुमसे कटु बर्ताव किया, इसके लिए तुमसे क्षमा चाहती हूँ। श्वेतांक ! मेरा तुम पर अनुराग है, तुम मेरे भाई के समान हो, और तुम्हारे दुख से मुझे दुख होता है। मैंने अनजाने में शायद तुम्हारा अपमान भी किया है, इसके लिए मैं तुमसे क्षमा माँगती हूँ।"

चित्रलेखा की क्षमा-प्रार्थना से श्वेतांक का दुख और क्षोभ दूर हो गया। उसके हदय की यन्त्रणा हिम की भाँति पिघल गई। उसने चित्रलेखा में एक देवी की मूर्ति देखी-एक प्रकार का आलोक देखा। उसकी दृष्टि में अब चित्रलेखा नर्तकी न रह गई, उसे ऐसा अनुभव हुआ कि मानो उसका चित्रलेखा से पारलौकिक सम्बन्ध है। उसने कहा-“देवि ! क्षमा-याचना की कोई आवश्यकता नहीं। भूल मेरी थी, और इस भूल का मुझे दंड मिलना चाहिए था; पर देवि ! तुमने मुझे दंड देने की जगह मुझ पर कृपा की है। तुमने मुझे डूबने से बचाकर मुझ पर कितना अनुग्रह किया है, यह मैं नहीं कह सकता। तुम मुझे क्षमा करना देवि !"-इतना कहकर श्वेतांक भवन के बाहर चला गया, और चित्रलेखा मूर्ति की भाँति निश्चल खड़ी रह गई। अनजान में एक अबोध बालक को उसने अपने यौवन की मादकता का शिकार बनाया था, इस पर उसे दुख था।

श्वेतांक सीधे बीजगुप्त के पास पहुँचा। पहुँचते ही वह बीजगुप्त के चरणों पर गिर पड़ा। उसने केवल इतना ही कहा-“स्वामी, मुझे दंड दें।"

बीजगुप्त श्वेतांक के व्यवहार से चौंक उठा। उसने श्वेतांक को उठाकर पूछा-“श्वेतांक, क्यों ? क्या बात है ?"

श्वेतांक ने भर्राए हुए स्वर में उत्तर दिया-“स्वामी, मैंने आपके साथ विश्वासघात करने का अपराध किया है। मैंने उस स्त्री से प्रेम करने का अपराध किया है, जो आपसे प्रेम करती है और जिससे आप प्रेम करते हैं, और साथ ही जो मेरी स्वामिनी है।"

बीजगुप्त सब कुछ समझ गया। वह मन-ही-मन मुस्कराया"श्वेतांक, तुमने यह कैसे जाना कि वह स्त्री भी मुझसे प्रेम करती है ?"

"उसने मुझसे स्वयं ही यह कहा है।"-श्वेतांक के ऊपर मदिरा का प्रभाव हो गया था। उसने अपने शरीर में एक प्रकार की स्फूर्ति का अनुभव किया-'आज मैंने उसके हाथ से मदिरा पीकर अपने संयम को तोड़ दिया, और यह इसलिए कि जिस स्त्री से मैं प्रेम करता हूँ, उसके हाथ की मदिरा को मैं अस्वीकार न कर सका।"

कृत्रिम गम्भीरता धारण करते हुए बीजगुप्त ने कहा-“श्वेतांक ! यदि वह स्त्री तुमसे यह न कहती कि वह मुझसे प्रेम करती है, और यदि वह तुम्हें आत्मसमर्पण करने पर प्रस्तुत हो जाती, तो तुम क्या करते ?"

कुछ देर तक सोचकर श्वेतांक ने कहा-"शायद मैं स्वामी से क्षमा प्रार्थना भी न करता और स्वामी के साथ विश्वासघात करके एक गुरु अपराध कर देता।"

बीजगुप्त ने श्वेतांक की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा-“श्वेतांक, मुझसे क्षमा-प्रार्थना करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुमने जो कुछ किया, उसके विपरीत तुम्हारी परिस्थिति में दूसरा मनुष्य नहीं कर सकता। तुमने जो कुछ किया, वह उचित किया और जो कुछ करते, वह भी उचित करते। उसमें तुम्हारा बिलकुल दोष न होता, दोष होता केवल परिस्थितियों का; पर मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुमने अपराध किया; पर तुमने जिसके प्रति अपराध किया था, उससे अपना अपराध कहकर अपने अपराध को धो दिया। तुम मुझसे सत्य बोले, और यही तुम्हारे लिए उचित भी था। रही मेरे साथ विश्वासघात करने की बात, वह श्वेतांक, तुम भूलते हो। तुमने अभी संसार में प्रवेश किया है, तुम संसार के अनुभवों से रहित हो। न जाने कितनी बार तुम्हें अनुभव की परीक्षा की कसौटी पर चढ़ना पड़ेगा, उस समय तुम्हें कर्तव्याकर्तव्य का विचार रखना पड़ेगा। इच्छाएँ प्रबल रूप धारण करके तुम्हें सताएँगी और तुम्हें उनका दमन करना पड़ेगा। यहीं पर तुम्हारी आत्म-शक्ति की परीक्षा होगी। विजय और पराजय का क्षेत्र संसार है, निर्जन नहीं है।"

श्वेतांक रो रहा था, उसने उत्तर दिया-“स्वामी, यह सब करूँगा; पर इस अपराध का दंड मिलना चाहिए।"

बीजगुप्त ने श्वेतांक के सिर पर हाथ रखकर कहा-"रोते क्यों हो ? इस अपराध का दंड चाहते हो ? पर अपराध तुमने किया ही नहीं, फिर दंड कैसा ? अपराध कर्म में होता है, विचार में नहीं। विचार कर्म का साधन-मात्र है। फिर भी यदि दंड चाहते हो, तो मैं तुम्हें सबसे कठिन दंड दूँगा। वह दंड यह होगा कि तुम्हें नित्य की भाँति भविष्य में चित्रलेखा को उसके भवन तक पहुँचाना पड़ेगा।"

चौथा परिच्छेद

विशालदेव ने कुमारगिरि में एक महान आत्मा देखी। कुमारगिरि के ज्ञान और तेज के सामने वह झुक गया। कुमारगिरि के तर्क अकाट्य थे, विशालदेव के सब भ्रमों को वह क्षण में निवारण कर देता था। कुमारगिरि ने विशालदेव को योग का अभ्यास कराना आरम्भ कर दिया। कुमारगिरि को योग्य शिष्य मिला और विशालदेव को योग्य गुरु।

उस दिन कुमारगिरि विशालदेव को उपासना का महत्त्व बतला रहे थे। उस समय सूर्यास्त हो चुका था, निर्जन में कुमारगिरि की कुटी का दीपक टिमटिमा रहा था। अचानक द्वार पर पद-ध्वनि सुनाई दी और साथ ही किसी ने कहा-“भूले हुए पथिक रात्रि-भर के लिए आश्रय चाहते हैं।"

कुमारगिरि ने उत्तर दिया-“उनका स्वागत है। मेरी कुटी प्रत्येक भूले हुए प्राणी के लिए खुली है।"-अपने उत्तर पर कुमारगिरि स्वयं हँस पड़े।

उसी समय एक स्त्री के साथ एक पुरुष ने कुटी में प्रवेश किया।

स्त्री को देखकर योगी कुमारगिरि चौंक उठे। उन्होंने पुरुष से कहा-“अतिथि ! तुमने मुझे पहले ही क्यों नहीं बताया कि तुम्हारे साथ एक स्त्री भी है। तुम्हें यह ज्ञान होना चाहिए कि यह उस योगी की कुटी है, जो संसार छोड़ चुका है।"

पुरुष ने उत्तर दिया-"भगवन, मुझे यह तो ज्ञात है कि यह एक योगी की कुटी है; पर यह नहीं सोचा था कि एक इन्द्रियजित योगी को केवल रात्रि-भर के लिए एक स्त्री को और उस स्त्री को जो एक पुरुष के साथ है, आश्रय देने में संकोच होगा।"

इस उत्तर से कुमारगिरि निस्तेज हो गए। उस समय तक स्त्री आसन पर बैठ गई थी और दीपक के मन्द प्रकाश के सामने उसका मुख हो गया था। कुमारगिरि ने कहा-“अतिथि ! मैंने इस कुटी में स्त्री को आश्रय देने में संकोच किया था, वह केवल इसलिए कि स्त्री अन्धकार है, मोह है, माया है, और वासना है। ज्ञान के आलोकमय संसार में स्त्री का कोई स्थान नहीं। पर फिर भी तुम दोनों मेरे अतिथि हो; इसलिए तुम दोनों का अतिथि-सत्कार करना मेरा कर्तव्य है।"

स्त्री अभी तक इस वार्तालाप को आश्चर्य तथा कौतूहल के साथ सुन रही थी। उसने कुमारगिरि के वाक्य समाप्त होने पर उनके सामने अपना मस्तक नमाकर कहा-"प्रकाश पर लुब्ध पतंग को अन्धकार का प्रणाम है।"

वाक्य तीर की भाँति पैना तथा घातक था। स्वर संगीत की भाँति कोमल । सौन्दर्य में कवित्व था, वासना की मस्ती में अहंकार ! कुमारगिरि इस असाधारण स्त्री का असाधारण अभिवादन सुनकर चौंक-से उठे, उन्होंने उस स्त्री की ओर ध्यान से देखा। स्त्री को देखकर वे चकित हो गए, अपने जीवन में उन्होंने इतनी सुन्दर स्त्री न देखी थी। स्त्री के उस वाक्य का उत्तर देना उन्होंने उचित न समझा, पुरुष से उन्होंने कहा"अपने अतिथियों का परिचय पाने का मुझको अधिकार प्राप्त है।"

पुरुष ने उत्तर दिया-"भगवन् ! इस दास का नाम बीजगुप्त है और वह पाटलिपुत्र का एक सामन्त है, और यह स्त्री पाटलिपुत्र की सर्वसुन्दरी नर्तकी चित्रलेखा है।"

"बीजगुप्त और चित्रलेखा !" इस बार कुमारगिरि चित्रलेखा की ओर मुड़े।-"नर्तकी चित्रलेखा, तुम्हारे कवित्व की कर्कशता पर उन्माद का आवरण है, तुम्हारे विष को तुम्हारा सौन्दर्य छिपाए हुए है। तुम मेरी अतिथि हो और तुमने मेरी अभ्यर्थना की है। आशीर्वाद देना मेरा धर्म है, भगवान् तुम्हें सुमति प्रदान करें।"

चित्रलेखा हँस पड़ी। उसके मधुर हास्य में मन को लुब्ध कर देनेवाला पराग था-"योगी ! सुमति के अर्थ में भेद होता है, अनुराग का सुख विराग का दुख है। प्रत्येक व्यक्ति अपने सिद्धान्तों को निर्धारित करता है तथा उन पर विश्वास भी करता है। प्रत्येक मनुष्य अपने को ठीक मार्ग पर समझता है और उसके मतानुसार दूसरे सिद्धान्त पर विश्वास करनेवाला व्यक्ति गलत मार्ग पर है।"

अनुराग की दासी नर्तकी ने विराग के स्वामी योगी का सामना किया। क्रान्ति और शान्ति का मुकाबला था, जीवन और मुक्ति में होड़ थी। कुमारगिरि ने अविचलित भाव से उत्तर दिया-"पर सत्य एक है, वास्तविकता का ज्ञान ! मार्ग वही ठीक है, जिससे शान्ति तथा सुख मिल सके।" कुमारगिरि का स्वर गम्भीर था, तपस्या का तेज नवयुवक योगी के सुन्दर वेश को आलोकित कर रहा था। कुमारगिरि की बड़ी-बड़ी आँखों में शान्ति की ज्योति थी।

योगी की आँखें नर्तकी की आँखों से एक क्षण के लिए मिल गईं। वासना तपस्या के सामने काँप उठी। चित्रलेखा ने अनुभव किया कि जिस योगी के सामने वह बैठी हुई है, वह बहुत उच्च कोटि का है। फिर भी उसने साहस के साथ कहा-“शान्ति और सुख ! शान्ति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है; और रहा सुख, उसकी परिभाषा एक नहीं।"

योगी कुमारगिरि नर्तकी चित्रलेखा के मुख से दर्शन के विकृत सिद्धान्तों को तर्कयुक्त सुनकर स्तब्ध रह गए। जिस स्त्री से वे बातें कर रहे थे, वह सुन्दरी होने के साथ-साथ विदुषी भी थी। उस स्त्री में विचार-शक्ति थी और प्रतिभा भी थी। प्रतिभा का मुकाबला प्रतिभा ही कर सकती है, और ज्ञान के क्षेत्र में प्रतिभा तथा मौलिकता का सर्वोच्च स्थान है। कुमारगिरि कुछ देर तक मौन रहे इसके बाद उन्होंने धीरे से दृढ़ता के साथ कहा-“ठीक कहती हो, शान्ति अकर्मण्यता का दूसरा नाम है, और अकर्मण्यता ही मुक्ति है। जिसे सारा विश्व अकर्मण्यता कहता है, वह वास्तव में अकर्मण्यता नहीं है; क्योंकि उस स्थिति में मस्तिष्क कार्य किया करता है। अकर्मण्यता के अर्थ होते हैं-जिस शून्य से उत्पन्न हुए हैं, उसी में लय हो जाना। और वही शून्य जीवन का निर्धारित लक्ष्य है। और अभी तुमने सुख की परिभाषा की बात कही थी, उसे भी मैं ठीक मानता हूँ ! पर सुख एक ही है, उसमें भेद नहीं होता। वह सुख क्या है, जब मनुष्य यही जान गया, तब वह साधारण परिस्थिति से कहीं ऊपर उठ जाता है।"-चित्रलेखा ने कुमारगिरि की बातों में सार देखा। उसे ऐसा प्रतीत होने लगा कि वह नवयुवक योगी की ओर स्वयं ही बिना अपनी इच्छा के आकर्षित होती जाती है। उसने एक बार फिर साहस किया-"शून्य ! योगी, तुम्हारे उस शून्, पर विश्वास ही कौन करता है ? जो कुछ सामने है, यही सत्य है और नित्य है। शून्य कल्पना की वस्तु है। शून्य की महत्ता की दुहाई देनेवाले योगी ! क्या तुम अपने और मेरे ममत्व में भेद देखते हो ? यदि हाँ, तो तुम शून्, पर विश्वास नहीं करते, और यदि नहीं, तो तुम्हारा ज्ञान और अन्धकार, सख और दख, स्त्री और पुरुष, तथा पाप और पुण्य का भेदभाव मिथ्या है। मनुष्य को जन्म देते हुए ईश्वर ने उसका कार्यक्षेत्र निर्धारित कर दिया। उसने मनुष्य को इसलिए जन्म दिया है कि वह संसार में आकर कर्म करे, कायर की भाँति संसार की बाधाओं से मुख न मोड़ ले। और सुख ! सुख तृप्ति का दूसरा नाम है। तृप्ति वहीं सम्भव है, जहाँ इच्छा होगी, वासना होगी।"

योगी गम्भीर था, और नर्तकी मुस्करा रही थी। बीजगुप्त अपनी शिष्या, अथवा अपनी जीवन-संगिनी चित्रलेखा के मुख से अपने सिद्धान्तों को तर्कपूर्वक सुनकर मन-ही-मन चित्रलेखा पर मुग्ध था, और विशालदेव नर्तकी के ज्ञान से चकित। दोनों कुमारगिरि के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे।

कुमारगिरि कुछ देर तक मौन-भाव से बैठे रहे, फिर उन्होंने गम्भीरतापूर्वक कहा-"ईश्वर ! ईश्वर और मनुष्य में कोई भेद नहीं। भेद केवल बाह्य है-सांसारिक है। माया और ब्रह्म के संयोग को ही ममत्व कहते हैं, और माया वास्तव में ब्रह्म का अंश होते हुए भी बाह्य दृष्टि से उससे पृथक् है। ब्रह्म जब तक माया में लिप्त रहता है, तब तक वह संसार के जाल में फँसा रहता है, माया को छोड़ देने के बाद वह स्वयं हो जाता है। तुम और मैं वास्तव में यहाँ कोई भेद नहीं है, क्योंकि तुम भी ब्रह्म का अंश हो और मैं भी। पर, भेद केवल इतना है कि तुम माया-मिश्रित ब्रह्म हो और मैं माया को छोड़ चुका हूँ। इसलिए मैं माया को जीवन से पृथक् रखना चाहता हूँ कि कहीं पीछे न चले जाना पड़े। और सुख कहते हैं कि तृप्ति को, यहाँ भी तुम भूलती हो। यदि तृप्ति ही सन्तोष का एकमात्र साधन हो सके, तो वह सुख अवश्य है, पर कर्म-जाल में फँसे रहने पर तृप्ति के साथ सन्तोष नहीं होता। ब्रह्म, माया के संयोग से स्वयं को भूल जाता है और कर्म-जाल में भटकने लगता है, पर जिस समय वह माया को छोड़ देता है और अपने को जान लेता है, वह तृप्त हो जाता है और साथ ही उसे सन्तोष हो जाता है। दुखमय संसार को छोड़ देने ही को सुख कहते हैं।" कुमारगिरि थोड़ी देर तक रुके। फिर चित्रलेखा को उत्तर देने का अवसर दिए बिना ही उन्होंने कहा-"और याद रखना ! तर्क का अन्त नहीं होता, सत्य अनुभव की वस्तु है। अनुभव और विश्वास, बिना इसके मनुष्य का ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है।" इतना कहकर कुमारगिरि उठ खड़े हुए-"रात्रि अधिक बीत रही है, विश्राम करना उचित होगा।"

चित्रलेखा को कुमारगिरि के इस उत्तर से सन्तोष न हुआ, कुमारगिरि भी यही अनुभव कर रहा था; पर साथ-साथ कुमारगिरि के व्यक्तित्व ने चित्रलेखा को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। योगी ने नर्तकी में ज्ञान देखा, और नर्तकी ने योगी में सौन्दर्य। एक विचित्र बात थी। दोनों एक-दूसरे से सन्तुष्ट न थे, पर प्रभावित अवश्य थे। दोनों ने एक-दूसरे में आकर्षण देखा, योगी ने ज्ञान का, और नर्तकी ने सौन्दर्य का; पर बीजगुप्त ने क्या देखा, यह वह स्वयं ही न समझ सका। कुमारगिरि और चित्रलेखा की बातचीत से उसके हृदय में एक प्रकार की अशान्ति उत्पन्न हो गई। अशान्ति सिद्धान्तों के सम्बन्ध में न थी। फिर किस प्रकार की अशान्ति थी, इसे वह जानने की लाख चेष्टा करता हुआ भी न जान सका। उसके हृदय ने चित्रलेखा के हृदय में कुमारगिरि के प्रति आकर्षण की छाया का एक क्षीण आभास पा लिया था; पर वह इस पर विश्वास न कर सका।

कुमारगिरि ने कहा-“मेरा शिष्य विशालदेव आज रात को मेरी कुटी में विश्राम करेगा, उसकी कुटी खाली है, अतिथि वहाँ जा सकते हैं।"

बीजगुप्त उठ खड़ा हुआ, साथ ही चित्रलेखा। चलते हुए चित्रलेखा ने कहा-“योगी ! तपस्या जीवन की भूल है, यह मैं तुम्हें बताए देती हूँ। तपस्या की वास्तविकता है आत्मा का हनन। अच्छा, श्रीचरणों को नर्तकी चित्रलेखा का प्रणाम।"-इतना कहकर वह हँसते हुए बीजगुप्त के साथ कुटी से बाहर चली गई।

चित्रलेखा के जाने के बाद कुमारगिरि हँस पड़े-“ठीक कहती हो ! तपस्या कहते हैं आत्मा के हनन को, और आत्मा ब्रह्म और माया के संयोग को कहते हैं। जिस समय आत्मा मर जाती है, माया का विकार लोप हो जाता है और सत्, चित्, आनन्द ब्रह्म रह जाता है, पर नर्तकी, तुममें यदि अनुभव होता, यदि तुम्हारी परिस्थिति दूसरी होती तो शायद तुम भी इस रहस्य को समझ सकतीं। तुममें ज्ञान है; पर उस ज्ञान का कोई पथ-प्रदर्शक नहीं है। मुझे तुम पर दुख है।"

विशालदेव बीजगुप्त और चित्रलेखा को अपनी कुटी में पहुँचाकर गुरु की कुटी में लौट गया। शयन से पहले बीजगुप्त ने कहा-"चित्रलेखा !" चित्रलेखा ने उत्तर दिया--"प्रियतम !"

बीजगुप्त ने एक ठंडा श्वास लेकर कहा-“हृद, पर एक प्रकार का भार-सा मालूम होता है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानो हम दोनों के जीवन पर दुख के बादल मँडरा रहे हैं। चित्रलेखा ! कुमारगिरि योगी है और सम्भवतः उसमें आकर्षण-शक्ति भी है।"

चित्रलेखा का मुख एक क्षण के लिए पीला पड़ गया; पर उसने सम्हलकर उत्तर दिया-“प्रियतम ! कुमारगिरि योगी है और मूर्ख है। उसकी आत्मा मर चुकी है।"

चित्रलेखा ने बीजगुप्त को और अपने को धोखा देने का प्रयत्न किया। उसने फिर कहा-“कुमारगिरि निर्जन का निवासी है और हम दोनों कर्मक्षेत्र के अभिनेता हैं। कुमारगिरि ने वासनाओं का हनन कर दिया है और हम दोनों वासनाओं पर विश्वास करते हैं। कुमारगिरि के जीवन का लक्ष्य है कल्पना का शून्य और हम दोनों के जीवन का लक्ष्य है मस्ती का पागलपन ! प्रियतम ! संसार में कोई भी व्यक्ति हम दोनों के बीच में नहीं आ सकता।"

बीजगुप्त का मुख प्रसन्नता से चमक उठा-“भगवान् ऐसा ही करें !"

चित्रलेखा ने बीजगुप्त को धोखा दे दिया; पर वह अपने को धोखा न दे सकी, उसने मन-ही-मन कहा-‘पर कुमारगिरि सुन्दर अवश्य है।'

पाँचवाँ परिच्छेद

महायज्ञ के अभिमन्त्रित धूम्र से सुवासित राज-प्रासाद के विशाल प्रांगण में सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के अतिथि आसीन थे। रत्नजटित स्वर्ण के राज-सिंहासन पर महाराज विराजमान थे और उनका मुख पूर्व की ओर था। उनके दक्षिण ओर क्रम से यथायोग्य विशाल साम्राज्य के आमन्त्रित सामन्तगण बैठे थे और वाम पार्श्व में राज्य के प्रधान कर्मचारी। सामने कर्मकांडी ब्राह्मणों तथा तपस्वियों का जमघट था।

यह सभा, प्रथा के अनुसार, महायज्ञ के बाद दर्शन पर तर्क करने के लिए एकत्र हुई थी। महाराज चन्द्रगुप्त ने हँसकर अपने प्रधानमन्त्री चाणक्य की ओर देखा-"नीति-कुशल मन्त्रिवर! आपका नीतिशास्त्र अनेक स्थानों पर धार्मिक सिद्धान्तों की अवहेलना करता है। इस विरोध का क्या कारण है? क्या आप यह बतलाने की कृपा करेंगे कि नीतिशास्त्र धर्म के अन्तर्गत है अथवा नहीं?"

चाणक्य ने उठकर अपने सामने आसीन विदवन्मंडली को मस्तक नमाया और फिर सम्राट को अभिवादन करके वे बैठ गए। बैठकर उन्होंने उत्तर दिया-"महाराज का कथन सर्वथा उचित है। मेरे नीतिशास्त्र में कहीं-कहीं निर्धारित धर्म की रूढ़ियों के विरोधी सिद्धान्त मिलते हैं, यह स्पष्ट है और यह मैं मानता हूँ, पर उसके साथ ही मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि धर्म समाज द्वारा निर्मित है। धर्म के नीतिशास्त्र को जन्म नहीं दिया है, वरन इसके विपरीत नीतिशास्त्र ने धर्म को जन्म दिया है। समाज को जीवित रखने के लिए समाज दवारा निर्धारित नियमों को ही नीतिशास्त्र कहते हैं, और इस नीतिशास्त्र का आधार तर्क है। धर्म का आधार विश्वास है और विश्वास के बन्धन से प्रत्येक मनुष्य को बाँधकर उससे अपने नियमों का पालन कराना ही समाज के लिए हितकर है। इसीलिए ऐसी भी परिस्थितियाँ आ सकती हैं, जब धर्म के विरुद्ध चलना समाज के लिए कल्याणकारक हो जाता है और धीरे-धीरे धर्म का रूप बदल जाता है।"

चाणक्य के वाक्य समाप्त होते ही विद्वन्मंडली में घोर निस्तब्धता छा गई। महाराज चन्द्रगुप्त ने गर्व से अपने मन्त्री की ओर देखा और फिर अपने सामने उपस्थित विदवन्मंडली की ओर। मन्त्री ने बहुत बड़ी बात कह डाली थी और उनकी बात में यथेष्ट सार था, फिर बात भी नई थी, निर्धारित सिदधान्तों के प्रतिकूल। इस बात का उत्तर कौन देगा, लोग इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

विद्वन्मंडली में बैठे हुए एक नवयुवक योगी ने शान्त भाव से उत्तर दिया-“राजन्! ईश्वर मनुष्य का जन्मदाता है और मनुष्य समाज का जन्मदाता है। धर्म ईश्वर का सांसारिक रूप है, वह मनुष्य को ईश्वर से मिलाने का साधन है। धर्म की अवहेलना, ईश्वर की अवहेलना है, सत्य से दूर हटना है। सत्य एक है, धर्म उसी सत्य का दूसरा नाम है! यदि नीतिशास्त्र धर्म के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है तो वह नीतिशास्त्र नहीं, वरन् अनीतिशास्त्र है। उचित और अनुचित-न्याय और अन्याय-इन सबकी कसौटी धर्म है, धर्म के अन्तर्गत सारा विश्व है!"

वयोवृद्ध मन्त्री चाणक्य ने अपने सामने बैठे हुए नवयुवक योगी कुमारगिरि को इस प्रकार देखा, जिस प्रकार एक दानव अपने सामने खड़े हुए बौने की ओर देखता है। वे मन-ही-मन हँसे-“धर्म की गुरुता को स्वीकार करके उसकी दुहाई देनेवाले योगी, जानते हो धर्म को किसने जन्म दिया है?"

“ईश्वर ने, मनुष्य की अन्तरात्मा दवारा!"

"और ईश्वर को?"

लोग चाणक्य के इस प्रश्न से चकित हो गए। 'ईश्वर को किसने जन्म दिया?' कितना भयानक प्रश्न था। जनसमुदाय में एक हल्का-सा कोलाहल विकसित हो उठा। कुमारगिरि ने उसी प्रकार शान्त भाव से उत्तर दिया-"ईश्वर अनादि है!"

"ठीक कहते हो योगी, ईश्वर अनादि है। यह बात नई नहीं है, प्रत्येक मनुष्य कहता है कि ईश्वर अनादि है, पर क्या तुम ईश्वर को जानते हो? क्या यहाँ बैठा हुआ कोई भी व्यक्ति ईश्वर को जानता है?" चाणक्य का स्वर गम्भीर था और उनके नेत्रों में ज्योति थी। बिना किसी के उत्तर की प्रतीक्षा किए ही चाणक्य ने और कहा-“हाँ, ईश्वर अनादि है, पर उस ईश्वर को, मैं दावे के साथ कहता हूँ, कोई नहीं जानता-वह कल्पना से परे है। वह सत्य है, पर इतना प्रकाशवान कि मनुष्य के नेत्र उसके आगे नहीं खुले रह सकते। उस सत्य को जानने का प्रयत्न करो, उस ईश्वर को पाने के लिए घोर तपस्या करो, पर सब व्यर्थ है-निष्फल है। यदि तुम ईश्वर को ही जान सको, यदि तुम्हारी कल्पना में ही वह अखंड और नि:सीम अनन्त का रचयिता आ सके, तो फिर वह ईश्वर कैसा? पर योगी, हमारा और तुम्हारा ईश्वर, जिसकी हम पूजा करते हैं, उस ईश्वर से भिन्न है। हमारा और तुम्हारा ईश्वर कल्पनाजनित ईश्वर है। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ही समाज ने उस ईश्वर को जन्म दिया है।"

चाणक्य ने रुककर अपने चारों ओर देखा, गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। योगी कुमारगिरि के नेत्र बन्द थे, मानो वह किसी गहरे विचार में मग्न था। चाणक्य आसन से उठ खडे हुए, खडे होकर उन्होंने सभामंडल में अपने चारों ओर देखा। उनकी उस दृष्टि में गर्व था और अपने ऊपर विश्वास। उनकी आँखें सभा-मंडल में बैठे हुए अखंड विद्वानों को चुनौती दे रही थीं कि उनमें से कोई भी व्यक्ति उनका लोहा ले। थोड़ी देर तक उत्तर की प्रतीक्षा करने के बाद चाणक्य ने फिर कहा-"अभी बात अधूरी है! हाँ, मैंने यह कहा था कि हमारा और तुम्हारा ईश्वर, जिसकी हम पूजा करते हैं, कल्पनाजनित चीज है और समाज द्वारा निर्मित है। उसके, भिन्न-भिन्न रूप हैं। अब आती है अन्तरात्मा की बात, यहाँ भी निर्धारित मत अधिक अंश में भ्रमात्मक है। अन्तरात्मा ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है, वरन समाज दवारा निर्मित है। यदि वास्तव में वह ईश्वर प्रदत्त होती, तो भिन्न-भिन्न समाज के व्यक्तियों की अन्तरात्माएँ भिन्न-भिन्न न होतीं। ईश्वर एक है, यदि वास्तव में उसने धर्म के नियम बनाए हैं, तो प्रत्येक व्यक्ति पर एक ही नियम लाग होता है। पर बात ऐसी नहीं है। एक समाज के व्यक्ति की अन्तरात्मा प्राय: दुसरे समाज के व्यक्ति की अन्तरात्मा के अनुसार नहीं होती। मनुष्य की अन्तरात्मा केवल उसी बात को अनुचि समझती है, जिसको समाज अनुचित समझता है। इसलिए यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अन्तरात्मा समाज दवारा निर्मित है। मनुष्य के हृदय में समाज के नियमों के प्रति अन्धविश्वास और पूर्ण श्रद्धा को ही अन्तरात्मा कहते हैं। समाज से पृथक् उसका कोई अस्तित्व नहीं है!"

चाणक्य आसन पर बैठ गए। विदवानों में बहुतों ने चाणक्य के अकाट्य तर्कों से प्रभावित होकर उनके आगे मस्तक नमा दिया।

कुमारगिरि ने चाणक्य के ये वाक्य सुने या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। वह अपने विचारों में उस समय भी तल्लीन था। उसके नेत्र बन्द थे और उसके शांत मुख पर एक अलौकिक तेज था, पर विजय उस समय चाणक्य की ही रही। कुमारगिरि लोगों के मतानुसार चाणक्य के अकाटय तर्कों का कोई उत्तर न दे सके। चन्द्रगुप्त मुस्करा रहे थे। थोड़ी देर तक और प्रतीक्षा करने के बाद उसने अपने सहचर की ओर संकेत किया। उसने उसी समय उठकर कहा-“वाद-विवाद का अन्त हो गया, अब नृत्य आरम्भ होगा।"-निस्तब्धता भंग हो गई। उपस्थित सामन्तों ने हर्ष-ध्वनि की।

श्रृंगार-गृह से उसी समय चित्रलेखा ने सभा-मंडल में प्रवेश किया। आभूषणों की झंकार में एक प्रकार का विचित्र संगीत था। धर्म का नीरस तथा शुष्क वायुमंडल राग से भरे सौन्दर्य की मस्ती से विकंपित हो के धुंधलेपन को चीरते हुए मानो प्रात:कालीन सूर्य के अरुण प्रकाश ने प्रवेश किया। हेमन्त के शीतल तथा शुष्क वायु में मधुमास के हल्के ताप और मतवाले सौरभ का समावेश हुआ। सारा वातावरण ही बदल गया।

प्रांगण के बीचोबीच खड़ी होकर चित्रलेखा ने सबसे प्रथम सम्राट चन्द्रगुप्त को अभिवादन किया। उस समय उसके सौन्दर्य में अभूतपूर्व आकर्षण था। उसका मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति था और उसकी लहराती हुई वेणी नाग की भाँति थी, जो विष से त्रस्त होकर चन्द्रमा से उसका अमृत छीनने को उससे लिपट गया हो। उसकी वेणी में गुथे हुए मुक्ता-जाल इस प्रकार शोभित हो रहे थे, मानो चन्द्रमा को संकट में देखकर तारकावलि पंक्ति में बँधकर काले नाग से भिड़ गई थी। उसके शरीर पर महीन रेशम का दुपट्टा पड़ा हुआ था, जिसका होना अथवा न होना दोनों ही बराबर थे। उसके नीचे उसकी महीन जरी से कढ़ी हुई रेशम की चोली थी, जिससे उसके सुडौल उरोजों की आभा फूट निकलती थी। स्वर्ण-तारों का लहँगा वह पहने हुए थी, जो रात्रि के उज्ज्व ल प्रकाश में चकाचौंध उत्पन्न कर रहा था। रत्नजटित आभूषणों से वह लदी थी। उस समय वह साक्षात् लक्ष्मी-रूप में थी। महाराज को अभिवादन करने के बाद चित्रलेखा ने उपस्थित सामन्तों की ओर अपनी हँसती हुई दृष्टि डाली, सामन्तों का उल्लास सभा-मंडल में प्रतिध्वनित हो उठा। प्रत्येक उपस्थित सामन्त को उसकी दृष्टि कृतज्ञ करने के बाद बीजगुप्त पर रुक गई। इस बार उसकी आँखों की मुस्कराहट उसके मुख पर भी दौड़ गई। बीजगुप्त मुस्कराया, चित्रलेखा के मौन अभिवादन का मौन उत्तर मिल गया। चित्रलेखा ने अब विद्वन्मंडली के सामने अपना मस्तक नमाया। जिस समय वह अपनी दृष्टि उस ओर से हटा रही थी, उसने कुमारगिरि को देखा और उसकी दृष्टि उस नवयुवक योगी पर रुक गई। थोड़ी देर तक उसकी दृष्टि कुमारगिरि पर इस प्रतीक्षा में रुकी रही कि वह उसकी ओर देखे, पर ध्यानावस्थित योगी उस समय किसी दूसरे संसार में था। निराश होकर चित्रलेखा ने उधर से आँखें हटा लीं।

सारंगी ने मृदंग के गम्भीर ताल के साथ कल्याण के स्वर भरेय वह हल्का-सा हर्ष से पूरित जनरव, जो चित्रलेखा के प्रवेश के साथ ही आरम्भ हुआ था, एक क्षण में शान्त हो गया। चित्रलेखा के सुन्दर कमल-से कोमल पैरों ने घुघरुओं के साथ सम पर ताल दिया और नृत्य आरम्भ हो गया। चित्रलेखा जिस स्थल पर जाती थी, विद्युत् की भाँति चमक उठती थी। मृदंग का ताल मानो मेघों का गम्भीर गर्जन था। चारों ओर गहरा सन्नाटा छाया हुआ था। प्रत्येक व्यक्ति मंत्रमुग्ध-सा कला के सर्वोच्च प्रदर्शन को निरख रहा था।

एकाएक कुमारगिरि ने अपने नेत्र खोले। उनके नेत्रों से उस समय एक प्रकार की दैवी ज्योति देदीप्यमान हो रही थी। वे उठ खड़े हुए, उठकर उन्होंने गम्भीरतापूर्वक कहा-“मन्त्री चाणक्य! मैं ईश्वर को जानता हूँ, और तुम्हें तथा सारी सभा को सन्तुष्ट करने के लिए इसी स्थल पर ईश्वर को दिखला भी सकता हूँ।"

सभा का सन्नाटा भंग हो गया। कुछ लोगों ने कुमारगिरि के ये वाक्य सुने और कुछ ने नहीं, न सुननेवालों में अधिकतर नवयुवक सामन्तगण थे, जो नृत्य देखने में व्यस्त थे। उन्होंने चिल्लाकर कहा-“उस योगी को बिठला दो!" चित्रलेखा ने भी योगी के वाक्य नहीं सुने। वह उस समय नृत्य में व्यस्त थी। उसके पैरों में अजीब जादू था, कला का अभूतपूर्व कौशल था। महाराज चन्द्रगुप्त ने चाणक्य की ओर एक अर्थपूर्ण दृष्टि डाली, और चाणक्य ने सम्राट की ओर। योगी कुमारगिरि एक बहुत बड़ी बात करने पर तत्पर थे, चाणक्य ने उठकर कहा-“सामन्तगण तथा विद्वानो! योगी कुमारगिरि का दावा है कि वे ईश्वर को जानते हैं और इसी स्थल पर, इसी समय सब लोगों को ईश्वर का दर्शन भी करा सकते हैं । महाराज सहमत हैं, अत: थोड़ी देर के लिए नृत्य को स्थगित करा देना ही उचित है।"

इस बार सामन्तों ने यह सुना और साथ ही चित्रलेखा ने। चित्रलेखा ने रुककर क्रोध भरे नेत्रों से चाणक्य की ओर देखा और उससे दुगुने क्रोध के साथ कुमारगिरि की ओर। इसके बाद वह चुपके से एक कोने में जाकर बैठ गई। चाणक्य ने उठकर कहा-“योगी कुमारगिरि, हम सब ईश्वर को देखने के लिए प्रस्तुत हैं।"

कुमारगिरि ने अपना आसन छोड़ दिया। उनके उठने के साथ सभामंडल में घोर निस्तब्धता छा गई। उठकर वे सभा-मंडल के बीचोबीच खड़े हो गए। कुछ देर के लिए उन्होंने अपने नेत्र बन्द कर लिए, इसके बाद उन्होंने कहा-“उपस्थित पंडितो और सामन्तो, मेरी ओर देखो!"

लोगों ने देखा कि योगी कुमारगिरि जहाँ खडे थे, उसी के पास यज्ञवेदी से एक अग्नि-शिखा निकली और वह शिखा छत की ओर बढ़ने लगी। उस अग्नि-शिखा का प्रकाश ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालीन सूर्य के प्रकाश से कहीं अधिक तीव्र था। छत पर पहुंचकर वह उसको भेद गई और आकाश की ओर बढ़ी। धीरे-धीरे वह पतली-सी अग्नि-शिखा आकार में बढ़ने लगी और उसका प्रकाश इतना तीव्र हो गया कि लोगों के नेत्र उस प्रकाश को न सहन कर सकने के कारण बन्द होने लगे, पर आश्चर्य की बात यह थी कि उस अग्नि-शिखा में ताप न था, केवल प्रकाश था। कुमारगिरि ने कहा-“यह सत्य है।"

चाणक्य चिल्ला उठे-“योगी, तुम झूठ बोलते हो। वहाँ तो कुछ नहीं है।"

इस बार लोगों ने चाणक्य की ओर आश्चर्य से देखा। योगी कुमारगिरि ने कहा-"क्या वयोवृदध मन्त्री सत्य के प्रकाश को नहीं देख सकते?"

चाणक्य ने फिर कहा-“कैसा प्रकाश? वहाँ तो कुछ नहीं है?"

कुमारगिरि ने चाणक्य को कोई उत्तर न दिया। उन्होंने फिर कहा-"और देखो!"

इस बार वह अग्नि-शिखा धुंधली होने लगी और अग्नि-पुंज में परिणत हो गई। उस अग्नि-पुंज में लोगों ने अनेक प्राणी देखे, जो उसी में एक ओर से निकलते और दूसरी ओर से लोप हो जाते थे। उसी अग्निपुंज में लोगों ने विशाल नगर बनते और नष्ट होते देखे। उन्होंने उसमें पृथ्वी, जल, वायु तथा आकाश देखे। धीरे-धीरे वह सब लोप हो गया और वही अग्नि-पुंज रह गया।

योगी कुमारगिरि ने कहा-“और यह ईश्वर है!"

चाणक्य इस बार पागल की भाँति चिल्ला उठे-“मुझे कुछ नहीं दिखलाई देता! योगी, मैं फिर कहता हूँ कि तुम झूठ बोलते हो।”

कुमारगिरि ने आँखें बन्द कर लीं-सब कुछ लोप हो गया। आँखें खोलकर उन्होंने हँसते हुए कहा-“मन्त्री! मैं यह कहूँगा कि तुम झूठ बोलते हो। और मेरे इस कथन की साक्षी सारी सभा है। यहाँ पर उपस्थित सज्जन तुम्हें इसका उत्तर देंगे।"

लोग चिल्ला उठे-“मन्त्री झूठ बोलते हैं, क्योंकि हमने सत्य और ईश्वर दोनों को देखा है।"

मर्माहत चाणक्य ने इस बार चन्द्रगुप्त की ओर देखा। सम्राट ने भी कहा-“मन्त्री! कुमारगिरि झूठ नहीं बोलते। हमने सत्य और ईश्वर को देखा है।"

"मेरी आँखों ने आज प्रथम बार मुझको धोखा दिया है। नवयुवक योगी! मैं हारा और तुम जीते।"-इतना कहकर चाणक्य बैठ गए।

योगी कुमारगिरि ने चलने को पैर उठाए ही थे कि उन्हें नर्तकी चित्रलेखा के शब्द सुनाई दिए-“योगी! ठहरो! मेरे भ्रम का निवारण अभी नहीं हुआ।"

लोगों की आँखें चित्रलेखा की ओर घूम पड़ी। जनसमुदाय का कौतूहल बढ़ गया। योगी कुमारगिरि को रुक जाना पड़ा। आगे बढ़कर चित्रलेखा ने कहा-“योगी, तुमने जो कुछ दिखलाया था, वह मैंने नहीं देखा। मन्त्री चाणक्य को सब लोग झूठा ठहरा सकते हैं, पर मैं नहीं। मैं तुमसे सत्य और ईश्वर की दुहाई देकर पूछती हूँ कि क्या वास्तव में तुमने भी सत्य और ईश्वर के उस स्वरूप को देखा है, जिसको तुमने सारी सभा को दिखलाया है?"

नर्तकी की आँखें योगी की आँखों से मिल गईं। योगी की आँखों में विश्वास का तेज था और तपस्या का बल, और नर्तकी की आँखों में उल्लास की चमक और अविश्वास की आभा थी। कुमारगिरि के मुख से अचानक ही निकल पड़ा-“नहीं!"

लोग चौंक उठे। मन्त्री चाणक्य आह्लाद से विह्वल होकर उठ खड़े हुए। पर चित्रलेखा ने उस ओर ध्यान नहीं दिया-“योगी! क्या यह ठीक है कि तुमने अपनी आत्मशक्ति से सारे जनमंडल को प्रभावित करके अपनी कल्पना द्वारा निर्मित सत्य तथा ईश्वर का रूप दिखलाया है? झूठ मत बोलना, मैं सत्य और ईश्वर की दुहाई देकर तुमसे यह प्रश्न पूछ रही हूँ-और यह भी याद रखना है, तुम योगी हो!"

कुमारगिरि ने कुछ सोचकर उत्तर दिया-“ठीक कहती हो!"

यह प्रश्नोत्तर सुनकर लोग स्तब्ध रह गए। चित्रलेखा ने फिर पूछा-“एक और प्रश्न है। क्या यह भी ठीक है कि जिन लोगों की आत्मशक्ति इतनी प्रबल है कि वे तुम्हारी आत्मशक्ति से प्रभावित नहीं हो सके, उन लोगों को तुम अपनी कल्पनाजनित चीजें नहीं दिखला सके?"

सभा में विचित्र हलचल मच गई। योगी कुमारगिरि को अपनी स्थिति का आभास हो गया। कुछ देर तक सोचकर उन्होंने उसी तरह शान्त भाव से उत्तर दिया-“जो ईश्वर पर विश्वास करता है, उसी में आत्मशक्ति है, नास्तिक में आत्मशक्ति नहीं होती-यदि मनुष्य में कल्पना विदयमान है, तो वह कल्पना अवश्य प्रभावित होगी, पर जहाँ कल्पना मर चुकी है, नास्तिकता का काला आवरण जहाँ कल्पना का दम घोंट चुका है, वहाँ मनुष्य के लिए ईश्वर को जान सकना असम्भव हो जाता है। जिन लोगों ने इस समय सत्य और ईश्वर को नहीं देखा है, उनकी कल्पनाएँ मर चुकी हैं-वे नास्तिक हैं और नास्तिक में आत्मशक्ति का होना असम्भव है।"

चाणक्य ने सम्राट की ओर देखा, और सम्राट ने चाणक्य को कुछ संकेत किया। उसके बाद चाणक्य ने बढ़कर विजय का मुकुट चित्रलेखा के मस्तक पर रख दिया-“नर्तकी चित्रलेखा! आज की विजय तुम्हारी रही, तुमने सत्य के उस रूप को, जिसको आत्मशक्ति के दुरुपयोग द्वारा भ्रम के आवरण में छिपाने का प्रयत्न योगी कुमारगिरि ने किया था, हम लोगों को दिखला दिया।"-फिर उन्होंने कुमारगिरि से कहा-“और योगी, तुमने अनुचित किया। तुम्हें इसका दंड मिलना चाहिए, परंतु तुम्हें दंड देने का अधिकार चित्रलेखा को होगा।"

कुमारगिरि के नेत्र क्रोध से लाल हो गए-"इस सभा में कोई भी व्यक्ति मुझे पराजित नहीं कर सकता और न मुझको दंड देने का कोई व्यक्ति साहस ही कर सकता है।"-इतना कहकर योगी कुमारगिरि तनकर खड़े हो गए।

योगी का रौद्र वेश देखकर सारी सभा काँप उठी, पर चित्रलेखा हँस पड़ी। मुस्कुराते हुए वह योगी की ओर बढ़ी-सभा-मंडल में एक हल्कासा कौतूहल उठ पड़ा। बढ़ते समय चित्रलेखा ने सारंगीवालों को कुछ संकेत किया। कुमारगिरि के पास पहुँचकर वह रुकी-“योगी! तुम्हें दंड देने का अधिकार मुझको सौंपा गया है और मैं तुमको दंड देने पर तुली हुई हूँ। मेरा दंड देने का साहस देखो।"-इतना कहकर उसने सोने का विजय-मुकुट कुमारगिरि के मस्तक पर रख दिया।

उसी समय सारंगी में ईमन की गत बजी और चित्रलेखा बिजली की भाँति सम पर चमक उठी। नृत्य आरम्भ हो गया। लोगों ने हर्ष-ध्वनि की।

कुमारगिरि अवाक खड़ा रह गया। चित्रलेखा के दूर चले जाने पर, उसे होश आया, उस समय सारी सभा हर्ष-ध्वनि कर रही थी।-“दंड और पराजय! इन पर विचार करना होगा।"-योगी कुमारगिरि कह उठा। और तेजी के साथ वह सभा-मंडल के बाहर चला गया।

छठा परिच्छेद

अपमानित और पराजित योगी को नया अनुभव हुआ। उस अनुभव की तीव्रता से वह निस्तेज हो गया। उसने कभी कल्पना तक न की थी कि वह पराजित हो सकता है, और फिर पराजित होना एक स्त्री से! और यह स्त्री भी कौन? एक साधारण-सी नर्तकी! कुमारगिरि के हृदय में एक हलचल उत्पन्न हो गई। उसने परिस्थितियों का विश्लेषण किया। विजयी होकर भी वह पराजित हो गया। उसने विजय पाई थी, महाराज चन्द्रगुप्त के विशाल साम्राज्य के चने-चुने विद्वानों पर। वह पराजित हुआ था अन्धकार से। और अन्धकार से पराजित होना तो स्वाभाविक ही है। स्त्री से तो बड़े-बड़े साधक पराजित हुए हैं, पर वे सब स्त्री के क्षेत्र में पराजित हुए थे, ज्ञान में नहीं! कुमारगिरि की परिस्थिति विचित्र थी।

विजय और पराजय! दोनों स्वाभाविक हैं, पर यह पराजय भी विचित्र थी। स्त्री ने अपने ज्ञान से कुमारगिरि को शायद पराजित नहीं किया था, उसने कुमारगिरि को पराजित किया था अपनी उदारता से। सोने का विजय-मुकुट कुमारगिरि के मस्तक को अब भी सुशोभित कर रहा था, कुमारगिरि को उस मुकुट की याद हो आई। कुमारगिरि को क्रोध हुआ, उसने मुकुट अपने सिर से उतारकर पृथ्वी पर पटक दिया। इसके बाद उसने फिर सोचना आरम्भ किया-“पराजय!" यह शब्द उसके क्षेत्र में न था। विजय के लिए उसने सांसारिक सुखों को तिलांजलि दे दी थी, विजय के लिए ही उसने गहरी तपस्या की थी, फिर भला पराजय क्यों? कुमारगिरि उठ खड़ा हुआ-"नहीं, पराजय असम्भव है! मैं पराजित हो ही नहीं सकता। क्या मेरी साधना का अन्त पराजय होगा? कभी नहीं, कभी नहीं!"

कुमारगिरि की आँखें धूल में पड़े हुए स्वर्ण-मुकुट पर पड़ीं। कुछ देर तक अविचलित भाव से उसने मुकुट की ओर देखा, उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो मुकुट कह रहा था-"योगी! तुम पराजित नहीं हुए। तुम विजयी हो।" योगी के शरीर में एक प्रकार का कम्पन-सा दौड़ गया। कुमारगिरि धीरे-धीरे उस मुकुट की ओर बढ़ा, उसके पास पहुँचकर वह रुक गया-"विजययुक्त पराजय! कितनी विचित्र समस्या है! क्या मुझको इस विजय-उपहार पर कोई अधिकार है! सारी सभा की दृष्टि से मैं उस स्त्री से पराजित हुआ हूँ, यह मुकुट उस स्त्री को पहना दिया गया था। यह मुकुट जूठन है!" कुमारगिरि ने अपना मुख फेर लिया। उसने वहाँ से चले जाने का प्रयत्न किया, पर उसके पैर न उठे। मुकुट वहाँ पड़ा हुआ था, चाँदनी का उज्ज्वल तथा श्वेत प्रकाश उसकी शोभा को सहस्र गुना बढ़ा रहा था। कुमारगिरि ने मुकुट की ओर फिर देखा-"पर मुझको यह मुकुट कैसे मिला? जिसको सारी सभा विजयी समझती है, यदि वही अपने को मुझसे पराजित समझे, तो फिर विजय किसकी? मेरी। नर्तकी! तुमने मुझसे पराजय स्वीकार की-यह क्यों?"

“इसलिए कि मैं तुमसे पराजित हुई!"

योगी चौंक उठा। सामने चित्रलेखा खड़ी थी, उसके मुख पर मधुर मुस्कान किलोल कर रही थी, उसकी आँखें हँस रही थीं-"विचित्र बात है योगी कि पराजित प्रफुल्लित है और विजयी व्यग्र है!"

कुमारगिरि ने कुछ कहा नहीं, वह मुकुट की ओर देख रहा था।

“यह क्या? विजय-मुकुट धूल में पड़ा है। योगी, क्या तुम्हें अपनी विजय स्वीकार नहीं है?"-चित्रलेखा की मुस्कराहट लोप हो गई थी।

बड़ा कठिन प्रश्न था। आत्माभिमानी योगी के लिए अपनी पराजय स्वीकार करना असम्भव था। फिर भी उसने कोई उत्तर नहीं दिया।

चित्रलेखा ने मुकुट उठा लिया।-“उद्धत योगी! तुम्हें पराजित करना मेरे लिए असम्भव है, इतना विश्वास रखो।"-उसने मुकुट कुमारगिरि के मस्तक पर रख दिया। जिस मकट को वह फेंक चूका था उसको फिर से पहनते मारगिरि हिचका नहीं, उसने इसका विरोध तक न किया। इस समय कुमारगिरि ने नेत्र बन्द कर लिए थे, वह कुछ सोच रहा था।

“योगी! क्या सोच रहे हो?"

इस बार कुमारगिरि ने अपने नेत्र खोले-"नर्तकी चित्रलेखा! तुम समझती हो कि तुमने मुझे पराजित किया है, इसलिए तुम बार-बार मेरा अपमान कर रही हो, पर तुम्हारी यह चेष्टा तथा धारणा व्यर्थ है। योगी संसार छोड़ चुका है, मानापमान से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रह गया। फिर तुम यह सब व्यर्थ कर रही हो!"

चित्रलेखा ने शान्त भाव से उत्तर दिया-"योगी! तुम्हारी यह धारणा अनुचित है! मैं फिर कहती हूँ कि तुम्हें पराजित करने की न तो मुझमें क्षमता है और न शक्ति है!"

कुमारगिरि ने चित्रलेखा पर अपनी आँखें गड़ा दीं। कुछ क्षणों के लिए उसने अपने सामने खड़ी हुई विचित्र स्त्री-चित्रलेखा को अनिमेष दृगों से देखा, उसका पीला मुख एकाएक लाल हो गया। उसका निश्चल तथा स्थिर शरीर एकाएक सिहर उठा। उसने चित्रलेखा का कोमल हाथ जोर से पकड़कर कहा-“नर्तकी! सच कहना कि फिर तुम यहाँ छाया की भाँति क्यों चली आई हो? इस प्रकार यहाँ भी मुझको लज्जित करने में तुम्हारा क्या ध्येय है?"

आवेश में कुमारगिरि का सारा शरीर काँप रहा था। चित्रलेखा बिल्कुल मिली खड़ी थी, उसके नेत्र कुमारगिरि के नेत्रों से मिले हुए थे, चित्रलेखा के अलसाए-से नेत्रों में न जाने कहाँ की मदिरा थी। मुस्कराते हुए उसने उत्तर दिया-“मैं आई हूँ, अपने ऊपर विजय पानेवाले से दीक्षित होने के लिए।"

सौरभ से भरा मधुमास था, कम्पन से भरा मलय था, चाँदनी हँस रही थी, तारकावलि मस्करा रही थी। निर्जन प्रदेश में और रात्रि के गहरे सन्नाटे में योगी कुमारगिरि के सामने नर्तकी चित्रलेखा खड़ी थी।

कुमारगिरि का आवेश लोप हो गया। वह सहमकर कुछ पीछे हट गया, दबी हुई जबान से उसने कहा-“सुन्दरी! मुझसे दीक्षित होने के अर्थ पर भी कभी तुमने विचार किया है?"

चित्रलेखा हँस पड़ी। उसकी हँसी का माधुर्य विचित्र था, उसमें सजीव सौन्दर्य से भरा संगीत था-"हाँ, एक बार नहीं, अनेक बार!"

कुमारगिरि ने असाधारण सुन्दरी चित्रलेखा से अपनी आँखें हटा लीं।-“नहीं! तुम मेरा प्रयोजन नहीं समझीं। मेरी दीक्षा के अर्थ हैं संसार के समस्त भोग-विलास तथा वासनाओं को सदा के लिए तिलांजलि दे देना। जिस अकर्मण्यता से तुम घृणा करती हो, उसी अकर्मण्यता को अपनाना, जिस शुष्क साधना की तुम हँसी उड़ाती हो, उसी शुष्क साधना में अपने कोमल शरीर को तपाना।"

चित्रलेखा मौन थी। वह यह सोच रही थी कि वह क्या उत्तर दे। नर्तकी होते हुए भी, दर्शन के विकृत सिद्धान्तों की दासी होते हुए भी चित्रलेखा को झूठ बोलने का अभ्यास न था। उसकी आत्मा का उत्तर था-'नहीं', उसके हृदय की प्रेरणा थी 'हाँ'; हृदय ने विजय पाई, उसने चित्रलेखा को जीवन का सबसे बड़ा झूठ बोलने को बाध्य किया-“योगी! इस सबके लिए तैयार होकर आई हूँ।"

"इसके लिए तैयार होकर आई हो?"-कुमारगिरि निष्प्रभ हो गया-“सुन्दरी, तुम भूल कर रही हो। जो कुछ तुम करने के लिए प्रस्तुत हो, वह बड़ा कठिन काम है। प्रत्येक व्यक्ति यह नहीं कर सकता। जानती हो, ममत्व का विस्मरण बड़ा दुःसाध्य कार्य है। तुम इसे न कर सकोगी!'

चित्रलेखा गम्भीर हो गई-“ठीक कहते हो योगी, यह कठिन अवश्य है, पर असम्भव नहीं है।"

योगी कुमारगिरि ने एक बार सिर से पैर तक चित्रलेखा को देखा। चित्रलेखा के वस्त्र शरीर पर वही थे, जो वह नृत्य के समय पहने हुए थी, वही सौन्दर्य और वही मादकता। चित्रलेखा की आँखों में आकर्षण था और उल्लास था। कुमारगिरि ने मन-ही-मन कहा-“यह स्त्री असाधारण सुन्दरी है!"-आज तक कुमारगिरि ने सौन्दर्य की ओर ध्यान न दिया था, प्रेम और वासना का क्षेत्र उसके लिए न था। उस सौन्दर्य से योगी के हृदय में एक हल्का-सा कम्पन हुआ। प्रथम बार योगी ने इस कम्पन से युक्त सांसारिक सुख का अनुभव किया। वह सुख कितना विचित्र था! उसने कहा-“सुन्दरी चित्रलेखा! तुम्हें दीक्षा देना कहाँ तक उचित है, इस पर विचार करना होगा। मैं अभी कुछ नहीं कह सकता।"

“अभी तुम कुछ नहीं कह सकते योगी!"-चित्रलेखा ने कुमारगिरि के शब्द दुहराए-"क्यों! क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं, या तुम्हें अपने पर ही विश्वास नहीं है? योगी, यह याद रखना, मुझे दीक्षा देने या न देने का अर्थ तुम्हारे लिए चाहे कुछ भी हो, पर मेरे लिए यह जीवन-मृत्यु की समस्या है, और इस दृष्टि से तुम्हारा बड़ा उत्तरदायित्व है। यदि किसी के पास जल है और वह व्यक्ति पिपासाकलित अतिथि को जल देने से इनकार कर उसे प्यास से तड़प-तड़पकर मरते देखता है, तो यह समझ रखना, वह बहुत बड़े पाप का भागी होता है। उसकी आत्मा को सुख मिलना असम्भव है।”

इस उत्तर से कुमारगिरि सहम उठे-“सुन्दरी! तुमसे सारी बातें स्पष्ट रूप से कह दूँ। तुम्हें दीक्षा देने में मुझे इसलिए संकोच होता है कि तुममें दर्शन के विकृत सिद्धान्तों ने जड़ जमा रखी है। उन सिद्धान्तों के साथ तर्क है और उन सिदधान्तों पर विश्वास करनेवाले व्यक्ति में प्रभाव! मैं डरता हूँ कि कहीं उन सिद्धान्तों को तुमसे निकालने की जगह मैं ही न उनमें फँस जाऊँ-नहीं, यह नहीं।” कुमारगिरि रुक गया। अपनी मानसिक दुर्बलता को उसने पहली बार अनुभव किया था, और अनजाने में प्रकट भी कर दिया था। दुर्भाग्यवश उसने इस दुर्बलता को प्रकट किया एक नर्तकी के सामने। कुमारगिरि को अपने ऊपर क्रोध हुआ। उसका शान्त मुख उद्विग्नता से लाल हो गया-“सुन्दरी, मैंने जो कुछ कहा, उससे कोई प्रयोजन नहीं। अब तुमसे मेरी केवल इतनी प्रर्थना है कि तुम यहाँ से चली जाओ। मुझे समय दो कि मैं परिस्थितियों पर विचार करूँ।"

“बहुत अच्छा योगी! यदि तुम्हें मेरी उपस्थिति से कुछ दुख होता है, तो मेरा यहाँ से चला जाना ही उचित होगा। तुम समझते हो कि जो स्त्री तुम्हारे सामने खड़ी है वह अन्धकार है, माया है। तुम्हें मेरे विकृत सिद्धान्तों से भय होता है, पर यह तुम्हारी धारणा निर्मूल है। जिस समय मैं तुमसे दीक्षा लेने चली थी, उसी समय मैंने अपने विश्वासों को, भावनाओं को तथा संस्कारों को तिलांजलि दे दी थी। और रही स्त्री के अन्धकार तथा माया होने की बात, योगी, वहाँ भी तुम भूलते हो। स्त्री शक्ति है! वह सृष्टि है, यदि उसे संचालित करनेवाला व्यक्ति योग्य है, वह विनाश है, यदि उसे संचालित करनेवाला व्यक्ति अयोग्य है। इसलिए जो मनुष्य स्त्री से भय खाता है, वह या तो अयोग्य है, या कायर है। अयोग्य और कायर दोनों ही व्यक्ति अपूर्ण हैं।"

चित्रलेखा वहाँ से चल दी। कुछ दूर जाकर वह रुकी, कुमारगिरि की दृष्टि शून्य में गड़ी हुई थी। चित्रलेखा ने कहा-“हाँ, एक बात कहना मैं भूल गई थी, वह यह कि मैं तुम्हारे यहाँ कल फिर आऊँगी। तुम्हें विचार करने का यथेष्ट समय दे रही हूँ। यदि मुझे दीक्षा देना उचित समझना, तो कल बतला देगा। अच्छा, श्रीचरणों को दासी का प्रणाम!"

कुमारगिरि ने चित्रलेखा को जाते देखा-वह एकाएक चौंक उठा। चित्रलेखा के स्वर का संगीत उसके कानों में गूंज रहा था, उसके सौन्दर्य की आभा उसकी आँखों के आगे नाच रही थी। वह उस अतृप्त शराबी की भाँति चित्रलेखा को देख रहा था, जिसको संज्ञाहीन हो जाने का भय हो और जिसके सामने सुगन्धित मदिरा बह-बहकर धूल में मिली जा रही हो। कुमारगिरि के लिए अपने को रोकना असम्भव हो गया, उसने चित्रलेखा को पुकारा-“सुन्दरी, ठहरो!"

कुमारगिरि की आँखें झुक गईं। उसकी आत्मा ने हृदय की उच्छंखलता का विरोध तो अवश्य किया, पर हृदय ने यह कहकर-'मुझे इस स्त्री की बातों का उत्तर देकर अपनी स्थिति को स्पष्ट कर देना आवश्यक है!'-आत्मा की भर्त्सना को टाल दिया। चित्रलेखा लौट आई, उसके मुख पर मुस्कान थी और हृदय में कम्पन था।

“योगी! तुमने शायद अपनी भूल समझ ली। बोलो, क्या कहते हो?"

कुमारगिरि ने कोई उत्तर न दिया। वह उस चाँदनी में चित्रलेखा के सौन्दर्य को निरख रहा था। उसने चित्रलेखा का श्रृंगार देखा, और श्रृंगार भार से पुलकित सौन्दर्य देखा, उसने मदिरा देखी और मादकता देखी। उसने इच्छा का अनुभव किया, और इच्छा की मनोहरता का भी अनुभव किया। एकाएक उसके हृदय में यह प्रश्न उठा-“स्त्री क्या है, और सौन्दर्य क्या है? भगवान ने इन चीजों की रचना क्यों की है?"-प्रश्न अनुचित था, वर्षों की चिर-संचित विचारधारा ने कहा-'क्या मैं अपने मार्ग से विचलित हो रहा हूँ?'-भरपूर प्रयत्न करके उसने एकदम ही इस विचारावलि को दबा दिया।

"सुन्दरी, किस भूल की ओर तुमने संकेत किया था? अपनी जान में मैंने कोई भूल ही नहीं की।"

प्रतिवाद करना उचित न था-“देव! क्षमा करना। जिसको मैं गुरु बनाने अ भल नहीं कर सकता। मैं अपने शब्दों पर क्षमा चाहती हूँ।"

“हाँ, अभी तुमने पूछा था कि मैं तुमसे क्या कहना चाहता हूँ, और शायद तुम यह भी पूछो कि मैंने तुमको क्यों बुलाया था। मैं स्वयं ही नहीं जानता कि मैंने यह सब क्यों किया, निश्चय ही मैंने इस बार एक बड़ी भूल की थी। फिर भी जब मैंने तुमको बुला ही लिया है, तो एक बात कह दूँ, वह यह है-मैं तुमको दीक्षा देने में असमर्थ हूँ, असमर्थ ही नहीं हूँ, वरन् यह काम मेरे लिए असम्भव है। तुम्हें दीक्षा देने का अर्थ होगा, शायद तुमसे स्वयं ही दीक्षित होना। और उसके लिए मैं तैयार नहीं।"कुमारगिरि की आँखें अस्ताचल पर जाते हुए चन्द्रमा पर पड़ी थीं।

चित्रलेखा गम्भीर थी। उसके मुख पर निराशा का पीलापन था, उसके नेत्रों में करुणा की छाया थी। धीरे से उसने कहा-“देव! तुमने जो भूल की, उसका तुमसे अधिक दुख मुझको है। क्या करूँ? तुम्हारी असमर्थता का मेरे जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, यह मैं अभी ठीक तरह से नहीं कह सकती, पर इतना निश्चय है कि तुमने मेरे जीवन को बहुत अधिक प्रभावित कर दिया है। अभी तक आशा थी, मैं जा रही थी भविष्य के आधार पर, यह सोचते हुए कि शायद तुम मुझे दीक्षा दे दो, पर अब वह आशा भी लोप हो गई। तुम्हारे मतानुसार मेरा जीवन अन्धकारमय है, मैं तुम्हारे प्रकाश को देखना चाहती हूँ, ‘चाह' पूरी नहीं हो सकती, पर इसके लिए मैं तुम्हें दोष न दूँगी, मैं दोष दूँगी अपने भाग्य को!"इतना कहकर चित्रलेखा योगी कुमारगिरि के और निकट चली गई।

योगी निस्तब्ध खड़ा था। चित्रलेखा ने उसके हाथ पकड़ लिए। योगी ने एक विचित्र कम्पन का अनुभव किया, पर इस कम्पन में सुख था, उल्लास था।-“हाँ! मेरा और तुम्हारा साथ शायद असम्भव ही है। मैं स्त्री हूँ और तुम पुरुष, मैं नर्तकी हूँ और तुम योगी। मेरा क्षेत्र है वासना और तुम्हारा क्षेत्र है साधना। दोनों में प्रतिद्वन्दविता है। तुम मेरे जीवन में बवंडर की भाँति आकर निकले जाते हो, ठीक ही है। प्रयत्न करूँगी कि भविष्य में मैं तुमसे न मिल सकूँ, पर इसके पहले कि हम दोनों पृथक हों, योगी, मैं तुम्हारे पैरों की धूल अपने मस्तक पर चढ़ाना चाहती हूँ।"चित्रलेखा कुमारगिरि के पैरों पर गिर पड़ी।

कुमारगिरि का हृदय धड़क रहा था। चित्रलेखा को पैरों पर गिरा हुआ देखकर वह बँक-सा उठा। उसने चित्रलेखा को उठा लिया। ऐसा करने में योगी के हाथ चित्रलेखा के उरोजों से स्पर्श कर गए। चित्रलेखा आनन्द से पुलकित हो उठी। योगी के लिए इस स्पर्श का कोई महत्त्व न था, साधारण रूप से अनजाने उससे ऐसा हो गया था, विचारधारा दूसरी ओर केन्द्रीभूत होने के कारण उसने इस पर ध्यान न दिया था, पर चित्रलेखा इसका कुछ दूसरा ही अर्थ समझी।

“तुम मेरे चरण क्यों छू रही हो सुन्दरी?"

चित्रलेखा कुमारगिरि से मिली हुई खड़ी थी। उसने अपना मुख कुमारगिरि के मुख के पास ले जाकर कहा-“तुम मेरे आराध्य देव हो।"

कुमारगिरि की आँखें चित्रलेखा की आँखों से मिल गईं। चित्रलेखा की आँखों की मादकता का प्रभाव कुमारगिरि की आँखों पर भी पड़ रहा था। चित्रलेखा ने अपना मुख थोड़ा-सा और बढ़ाया। कुमारगिरि ने अपना मुख हटाया नहीं, उसका भी श्वास गरम हो गया था। उसका सारा शरीर काँपने लगा था।

इसी समय कुमारगिरि को सुनाई पड़ा-“गुरुदेव!”

कुमारगिरि चौंक उठा। वह इस प्रकार से चित्रलेखा के पास से हट गया जिस प्रकार वह मनुष्य बैंककर हटता है, जो सर्पिणी के पास तक उसे बिना देखे हुए पहुँच जाता है और उसी समय जब सर्पिणी उसे डसना चाहती है, कोई हुआ व्यक्ति उसे सचेत कर देता है। सामने विशालदेव खड़ा था। विशालदेव को देखकर कुमारगिरि लज्जा से मानो धूल में गड़ गया। वह आज पराजित हुआ था नर्तकी से, अपने शिष्य के ही सामने।

और चित्रलेखा को विशालदेव पर क्रोध हुआ। विशालदेव को इस अवसर पर आने का अधिकार न था। वह उस सर्पिणी की भाँति फफकार कर विशालदेव की ओर मुड़ी, जो संयोग के समय मनुष्य के सामने आते ही उस मनुष्, पर टूट पड़ती हो।-“युवा! तुम कौन हो और यहाँ इस समय क्यों आए?"-चित्रलेखा का स्वर तीव्र हो गया था।

"मैं गुरुदेव का शिष्य हूँ और इतनी अधिक रात्रि बीतने पर भी गुरुदेव के न लौटने के कारण मैं उन्हें ढूँढ़ने चला आया था।"

चित्रलेखा ने धीरे से कहा-“हाय रे भाग्य!"-इसके बाद उसने कुमारगिरि से कहा-“अच्छा, अब जाती हूँ गुरुदेव, पर इतना ध्यान में रखना कि मैं तुमसे दीक्षा लेना चाहती हूँ और तुमको मुझे दीक्षा देनी ही होगी।"-चित्रलेखा के मदल गम्भीर स्वर में आज्ञा देनेवाली स्वामिनी का गुरुत्व था-“मैं जनरव से निकलकर एकान्त में आना चाहती हूँ, माया को छोड़कर मैं ब्रह्म में लिप्त होना चाहती हूँ। तुम्हें समय दे रही हूँ गुरुदेव, कि इस प्रश्न पर विचार करो। तुम मनुष्य से ऊपर हो, मुझसे डरने का कोई कारण नहीं, तुमने वासनाओं पर विजय पा ली है नाथ, इसी से मैं तुमसे प्रार्थना करती हूँ। अच्छा, श्रीचरणों को दासी का प्रणाम!"-इतना कहकर चित्रलेखा वहाँ से चली गई।

कुमारगिरि ने विशालदेव का हाथ जोर से पकड़कर कहा-“तुम मूर्ख हो!"-उस समय चन्द्रमा अस्ताचल के नीचे उतर रहा था।

सातवाँ परिच्छेद

"श्वेतांक!"

“स्वामी!"

“बतला सकते हो, तुमने आज क्या देखा!"

“हाँ! आज योगी कुमारगिरि को स्वामिनी ने पराजित किया है। मुझे कितना हर्ष है।"

“तुम्हें हर्ष है!"-बीजगुप्त हँस पड़ा, पर उसकी हँसी रूखी थी-“तुम्हें हर्ष है कि चित्रलेखा ने कुमारगिरि को पराजित किया, पर श्वेतांक, मुझे दुख है। तुम शायद मेरी बात पर आश्चर्य करोगे, पर बात ठीक है। तुम हँस सकते हो, मैं भी शायद हँस सकता हूँ, पर मेरी आत्मा रोती है!"

श्वेतांक ने आश्चर्य से पूछा-“मैं स्वामी का तात्पर्य नहीं समझ सका।"

“नहीं समझ सके? और तुम समझ भी किस प्रकार सकते हो। तुमने अभी संसार नहीं देखा है, तुम अनुभव से रिक्त हो। जिसे तुम चित्रलेखा की विजय समझे हो, वह उसकी बहुत बड़ी पराजय है। चित्रलेखा और कुमारगिरि! कोई भी विजयी नहीं है, दोनों ही पराजित हुए हैं। परिस्थिति का चक्र तेजी के साथ घूम रहा है, उसी के फेरे में ये दोनों प्राणी फँस गए हैं।”

श्वेतांक बीजगुप्त की बात अब भी नहीं समझ सका। उस समय तक रथ बीजगुप्त के द्वार तक पहुँच चुका था। दोनों रथ से उतर पड़े। बीजगुप्त ने श्वेतांक का हाथ पकड़कर कहा-"अब तुमसे कुछ बातें करने की इच्छा है। चलो, मेरे साथ तुम्हें कुछ देर तक बैठना पड़ेगा।" ।

श्वेतांक वास्तव में बीजगुप्त की बात नहीं समझ सका था। स्वामी और सेवक-दोनों अध्ययन-भवन में गए। श्वेतांक को बैठने का आदेश देते हुए बीजगुप्त ने बैठकर कहा-“श्वेतांक! जानते हो कि कुमारगिरि की पराजय क्यों हुई?"

"नहीं!"

“इसका रहस्य मुझसे सुनो। तुम चित्रलेखा को उतना नहीं जानते, जितना मैं जानता हूँ। चित्रलेखा का व्यक्तित्व बहुत ऊँचा है और प्रभावशाली भी है। कुमारगिरि विद्वान है और योगी है, वासनाओं से उसका वैर है। और चित्रलेखा विदुषी होते हुए भी साधना की विरोधी है। कुमारगिरि और चित्रलेखा दोनों ही अहंभाव से भरे हुए ममत्व के दास हैं और दोनों ही ममत्व की तुष्टि पर विश्वास करते हैं, पर दोनों के साधन भिन्न हैं और विपरीत हैं। एक ने साधना की शरण ली है, दूसरे ने आत्म-विश्वास की। पर आज जो कुछ हुआ, उससे दोनों ही व्यक्ति अपने-अपने साधन से विरत हो गए। निकट भविष्य में ही अपनीअपनी शक्ति खो बैठेंगे।"

बीजगुप्त की बातों ने श्वेतांक के लिए पहेली का रूप धारण कर लिया था। उसने कहा-“स्वामिन! मैं आपकी विचारधारा की थाह नहीं पा सका।"

बीजगुप्त का स्वर धीमा पड़ गया-"इन बातों को अधिक स्पष्ट करने की न तो मुझमें क्षमता है और न मैं इसको उचित ही समझता हूँ। हाँ, यदि तुम यह जानना ही चाहते हो, तो मेरे बताए हुए मार्ग पर चलो।"

श्वेतांक ने कहा-“स्वामी की आज्ञा भर की देर है।"

बीजगुप्त ने कहा-“आज तुम चित्रलेखा को बधाई देने जाओ और उसके मुखांकित भावों का अध्ययन करो।"

श्वेतांक उसी समय चित्रलेखा के भवन पर पहुँचा। चित्रलेखा के भवन में प्रकाश हो रहा था, बधाई देने के लिए आए हुए सामन्त-युवकों की भीड़ दवार को घेरे खड़ी थी। चित्रलेखा की दासियाँ उनका स्वागत तथा आतिथ्य-सत्कार कर रही थीं, पर चित्रलेखा न थी। श्वेतांक ने एक दासी से पूछा-“स्वामिनी कहाँ हैं?"-उसने श्वेतांक को भवन के अन्दर ले जाकर एक सुसज्जित कमरे में बिठलाया-"स्वामिनी अभी नहीं लौटीं-आती ही होंगी।"-श्वेतांक प्रतीक्षा करने लगा।

प्रतीक्षा में खड़े हुए निराश सामन्तों की भीड़ छंटने लगी। एक के बाद एक करके सब सामन्त चले गए, घंटों बीत गए, पर फिर भी चित्रलेखा न आई। श्वेतांक को आश्चर्य हुआ। इस समय चित्रलेखा कहाँ गई होगी? उसने फिर दासी से पूछा-"स्वामिनी के कब तक लौटने की सम्भावना है?" उसने उत्तर दिया-“मैं कह नहीं सकती।"

श्वेतांक भी प्रतीक्षा में व्यग्र हो गया था। प्राय: आधी रात बीतने पर आ गई थी, पर चित्रलेखा का पता न था। श्वेतांक के मन में कई बार घर लौटने की इच्छा हुई पर उसके कौतूहल ने उसे ऐसा करने से रोका। उसी समय अर्धरात्रि-सूचक घंटा बजा। श्वेतांक उठ खड़ा हुआ। दासी से उसने कहा-"स्वामिनी जब आएँ, तो कह देना कि मैं बधाई देने आया था।"इतना कहकर वह भवन से बाहर निकला। उसी समय चित्रलेखा का रथ उसे आता हुआ दिखाई पड़ा। श्वेतांक रुक गया।

श्वेतांक ने रथ से चित्रलेखा को उतारा। चित्रलेखा श्वेतांक को देखकर मुस्कराई-“कहो श्वेतांक! इतनी रात्रि तक तुमने जागने का कष्ट क्यों उठाया?"

'स्वामिनी को बधाई देने के लिए!"-श्वेतांक हँस पड़ा।

चित्रलेखा का हाथ पकड़कर श्वेतांक उसे उसके श्रंगार-गह में ले गया। चित्रलेखा ने कहा-“श्वेतांक! तम मेरे अतिथि-भवन में बैठकर प्रतीक्षा करो, मैं अभी आती हूँ।"

वस्त्र बदलकर चित्रलेखा अतिथि-गृह में आई। उस समय वह केवल एक श्वेत धोती पहने हुए थी-“हाँ, श्वेतांक! तुम मुझे बधाई देने आए हो! क्यों? किस बात पर?"

“स्वामिनी की विजय, पर!"

“मेरी विजय, पर!"-चित्रलेखा का मुख जो कुछ क्षण पहले उल्लास से चमक रहा था, बिल्कुल पीला पड़ गया था। यौवन की उमंग में छिपी हुई यह विषाद की झलक श्वेतांक ने प्रथम बार देखी थी-वह इसका अर्थ नहीं समझ सका। सुन्दर मुख का प्रत्येक भाव-परिवर्तन सुन्दर होता है, विषाद का पीलापन लिये हुए वह वेश भी श्वेतांक को बड़ा मोहक लगा, और विशेषत: इसलिए कि उसके पीले मुख पर सहस्रों दीपशिखाओं का प्रकाश पड़ रहा था-“मेरी विजय, पर! श्वेतांक, मैं बधाई की पात्री नहीं हूँ, वह मेरी विजय नहीं थी, वह मेरी एक बहुत बड़ी पराजय थी।"

चित्रलेखा ने भी वही बात कही, जो बीजगुप्त ने कही थी। और दोनों ने यह बात गम्भीरतापूर्वक कही थी। श्वेतांक को आश्चर्य हुआ।

चित्रलेखा ने श्वेतांक के मुखांकित भाव पढ़ लिये-“तुम्हें मेरी बातों पर आश्चर्य होता होगा, पर आश्चर्य न करने का कोई कारण नहीं है। जानते हो, मैं अभी कहाँ गई थी?"

“यह प्रश्न मैं भी पूछना चाहता था! पर साहस नहीं पड़ा।"

“तो सुनो। मैं अभी आ रही हूँ कुमारगिरि की कुटी से। कुमारगिरि को अपमानित और लांछित करने का न मुझे कोई कारण था और न मुझको कोई अधिकार ही था। मेरा क्षेत्र दूसरा है, विद्वानों के क्षेत्र में पदार्पण करना मेरे लिए अनुचित था। मैंने जो कुछ किया, वह बुरा किया। इस समय मैं उससे क्षमा-प्रार्थना करने गई थी।"

श्वेतांक अवसन्न रह गया। चित्रलेखा का यह कैसा भाव-परिवर्तन था, यह वह समझ न सका। उसने पूछा-“पर जो ठीक है उसको बतला देना प्रत्येक मनुष्य को उचित है। और जो मनुष्य धोखा देकर मनुष्य को भ्रम में डाल रहा हो, उस मनुष्य की वास्तविकता पर प्रकाश डालना कर्तव्य है। देवि! तुमने जो कुछ किया, वह ठीक किया।"

"इसी बात का तो मुझे दुख है। मैंने जो कुछ किया, उसे सारा संसार ठीक समझता है, पर मैं ठीक नहीं समझती। कुमारगिरि योगी है, और उसमें शक्ति है, उसका सत्य और ईश्वर ये दोनों ही उसकी कल्पनाजनित थे, पर साथ ही मनुष्य में इतनी उत्कृष्ट कल्पना का होना भी असम्भव है। इस कल्पना का स्रोत कहाँ है? यही प्रश्न है। कुमारगिरि में सृजन की शक्ति है, मैंने जो कुछ किया वह विनाश का काम था। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता किसी भी बात को काटने में नहीं होती, उसे सिदध करने में होती है, बिगाड़ने में नहीं होती, बनाने में होती है।"

“पर यदि मनुष्य ऐसी इमारत बनाता है, जो उसमें रहनेवाले व्यक्तियों को हानिकारक है, तो उसे नष्ट कर देना क्या उचित नहीं है?"

चित्रलेखा हँस पड़ी-“तर्क से कोई लाभ नहीं, मैं इतना अनुभव कर रही हूँ कि मैंने बुरा किया, पर जो कुछ कर दिया, वह कर दिया, उसका परिणाम भुगतना ही पड़ेगा।"

“परिणाम!"-श्वेतांक के लिए एकदम दूसरी समस्या थी-“कैसा परिणाम देवि?"

“यह तुम्हें निकट भविष्य में मालूम हो जाएगा।"-चित्रलेखा ने दासी को पुकारा।

“अभी मैंने भोजन नहीं किया है। और श्वेतांक सम्भवत: तुमने भी भोजन नहीं किया है।"

चित्रलेखा ने दासी को दो थालों में भोजन लाने की आज्ञा दी।

दासी चली गई। चित्रलेखा ने मदिरा की सुराही निकाली। स्वयं पीकर उसने श्वेतांक को भी मदिरा दी। श्वेतांक उस समय तक मदिरा पीने का अभ्यस्त हो गया था। उसने भी पात्र खाली कर दिया। चित्रलेखा ने श्वेतांक से कहना प्रारम्भ किया-“श्वेतांक, मेरा तुम पर स्नेह है, और उस व्यक्ति से कोई बात न छिपानी चाहिए, जिससे स्नेह हो।"

श्वेतांक चित्रलेखा के इस कथन पर न्यौछावर हो गया। श्वेतांक वास्तव में चित्रलेखा को स्वामिनी की भाँति मानता था, यद्यपि चित्रलेखा का उसके साथ बर्ताव सदा ममतापूर्ण-सा था। उसने कहा-"देवि! मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं किसी अंश में सहानुभूति में कम नहीं हूँ।"

चित्रलेखा ने श्वेतांक का हाथ पकड़कर कहा-“श्वेतांक! तुम मेरा भेद किसी पर प्रकट न करोगे?"

“मैं शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ।"

"और मेरी सहायता करोगे?"

“मैं शपथ खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ।"

चित्रलेखा ने श्वेतांक का हाथ छोड़ दिया-“सुनो! मेरी आज की विजय वास्तव में मेरी विजय न थी, वरन् मेरी पराजय थी। कुमारगिरि ने मेरे जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है।"

श्वेतांक को उस भयानक सत्य का आभास हुआ, जिसकी ओर बीजगुप्त ने संकेत किया था। अपने अविश्वास को दूर करने के लिए उसने पूछा-“किस प्रकार?"

"किस प्रकार? इतना भी नहीं समझ सके हो? सुनो, मैं कुमारगिरि से प्रेम करने लग गई हूँ। मुझे ऐसा अनुभव होता है मानो मेरा और कुमारगिरि का युग-युगान्तर का सम्बन्ध है। आज उस सभा में उस योगी ने समस्त भारतवर्ष के अखंड विद्वानों पर विजय पाई, प्रत्येक व्यक्ति उससे प्रभावित था, पर मैं नहीं। और यह क्यों? यह केवल इसलिए कि कुमारगिरि को मैं जानती हूँ और मुझको कुमारगिरि। हम दोनों जन्म-जन्मान्तरों में बराबर साथ रहे हैं।"

श्वेतांक पुनर्जन्म पर विश्वास करता था-उसने चित्रलेखा की बातों का विरोध न किया-“हाँ, समझा!"

“जिस दिन से मैंने कुमारगिरि को देखा है, उस दिन से मैं उसकी ओर आकर्षित हो रही है। उसकी आत्मा की थाह वही ले सकता है, जिसने उसकी आत्मा को अच्छी तरह से समझ लिया हो। मैं उसको अच्छी तरह से जानती हैं और साथ ही उसकी आत्मा को। श्वेतांक! कुमारगिरि मेरे जीवन का प्रधान अभिनेता है!"

“समझ गया हूँ देवि! पर मैं किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ?"

दासी भोजन के दो थाल परसकर ले आई। चित्रलेखा ने श्वेतांक को भोजन करने का आदेश देकर भोजन करना आरम्भ कर दिया।

भोजन करने के पश्चात् चित्रलेखा ने कहा-“हाँ, त्मने पूछा था कि तुम किस प्रकार मेरी सहायता कर सकते हो! तुम मेरी सहायता केवल इस प्रकार कर सकते हो कि तुम बीजगुप्त पर मेरा भेद प्रकट न करो। बीजगुप्त को मुझ पर अविश्वास होगा, पर तुम्हारा यह काम होगा कि तुम बीजगुप्त के अविश्वास को दूर कर दो!”

श्वेतांक कुछ सोचने लगा। चित्रलेखा ने उससे जो कुछ कहा था, उसको करना श्वेतांक के लिए कठिन था। बीजगुप्त उसका स्वामी थाबीजगुप्त को धोखा देना स्वामी के साथ विश्वासघात करना था, पर साथ ही चित्रलेखा भी उसकी स्वामिनी थी-और साथ-साथ...।

चित्रलेखा ने श्वेतांक के मुखांकित भाव पढ़ लिये। उसने मदिरा का पात्र फिर भरकर श्वेतांक के होंठों से लगा दिया। उस समय चित्रलेखा मुस्करा रही थी। श्वेतांक ने पात्र खाली कर दिया। उसी प्रकार मस्कराते हुए चित्रलेखा ने पूछा-“बोलो! क्या तुम मेरी यह प्रार्थना स्वीकार करोगे?"

श्वेतांक मौन ही रहा-हाँ और नहीं, उसके मुख से कुछ भी न निकला।

चित्रलेखा की मुस्कराहट लोप गई-क्रोध की हल्की-सी लाल रेखा उसके पराग-से रंजित कपोलों पर दौड़ गई, उसके कोमल हाथ आवेश में थिरक उठे। उसने श्वेतांक का हाथ पकड़ लिया-“श्वेतांक! मैं तुम्हें आज्ञा देती हैं कि जो कुछ मैंने कहा है, तुम्हें करना पड़ेगा।"

श्वेतांक चित्रलेखा के इस क्रोध के सामने झुक गया। उसने धीरे से कहा-“जो आज्ञा! स्वीकार है!"

“तुम्हें शपथ लेनी पड़ेगी!"-चित्रलेखा कुछ रुकी-"नहीं, तुम्हें शपथ लेने की कोई आवश्यकता नहीं। तुमने अपना वचन मुझको दिया है और अपने वचनों की पवित्रता पर तुम्हें ध्यान रहेगा, इतना मुझे विश्वास है!"-इतना कहकर चित्रलेखा ने श्वेतांक के होंठों से मदिरा का तीसरा प्याला लगा दिया।

श्वेतांक के नेत्र बन्द थे। उसने अपूर्व सुख का अनुभव किया। मदिरा पीकर उसने कहा-“देवि! मैंने सदा तुम्हारी पूजा की है। मेरे जीवन का तुम्हारे जीवन से गहरा सम्बन्ध है। तुम मेरी स्वामिनी हो और मैं तुम्हारा दास हूँ। तुम्हारा प्रत्येक वाक्य मेरे लिए वेद-वाक्य है, इतना विश्वास रखना। और अपने वचनों की पवित्रता के विषय में मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि मैं नीच नहीं हूँ।"

श्वेतांक उठ खड़ा हुआ। चित्रलेखा ने कहा-"क्या आज मुझे श्वेतांक को पहुंचाने का प्रबन्ध करना पड़ेगा?"

“नहीं!"-श्वेतांक के नशे में कम्पन न था, आत्म-विस्मृति न थी-“अभी होश में हूँ और होश में ही रहूँगा।” इतना कहकर श्वेतांक वहाँ से चल दिया।

जिस समय श्वेतांक भवन में लौटा, उसने बीजगुप्त के अध्ययनभवन में प्रकाश देखा। परिचारिका ने उससे कहा-“स्वामी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।"

श्वेतांक ने अध्ययन-गृह में प्रवेश किया। बीजगुप्त उस समय बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। आज तक श्वेतांक ने बीजगुप्त को चिन्तित न देखा था। बीजगुप्त के सामने मदिरा का रिक्त पात्र था और चिन्ता का अथाह सागर था। कल्पना के उद्यान में भय के तप्त वायु का झोंका था, सुख के साम्राज्य में दुख की क्रान्ति थी। श्वेतांक को देखकर बीजगुप्त मानो निद्रा में चौंक उठा-“तुम आ गए। पर बहुत देर लग गई।"

श्वेतांक बैठ गया। सुराही से ऊँडेलकर उसने शीतल जल से पात्र भरकर एक घूँट में खाली कर दिया।

कुछ देर तक उत्तर की प्रतीक्षा करने के बाद बीजगुप्त ने फिर कहा-“श्वेतांक, तुम मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दे रहे हो, क्या कारण है?"

"हाँ स्वामी, स्वामिनी की प्रतीक्षा में मुझे इतनी देर लग गई।"

"चित्रलेखा की प्रतीक्षा में?"-बीजगुप्त सँभलकर बैठ गया-"क्या कहा, जिस समय तुम चित्रलेखा के भवन पर पहुँचे, उस समय वह वहाँ नहीं थी?"

श्वेतांक झिझका। उसे अपनी प्रतिज्ञा और शपथ का स्मरण हो आया-"स्वामी का अनुमान ठीक है, चित्रलेखा अपने भवन में न थी।"

बीजगुप्त ने श्वेतांक के वाक्यों में हिचकिचाहट देखी, उसने फिर पूछा-"तुम्हें शायद उसने यह बताया होगा कि वह कहाँ गई थी?"

श्वेतांक के हृदय में तर्क-वितर्क उठ खड़े हुए, पर निर्ण, पर पहुंचने के लिए उसके पास यथेष्ट समय न था। उसने बिना किसी हिचकिचाहट के उत्तर दिया-"स्वामिनी ने तो कुछ नहीं कहा, पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे मन्त्री चाणक्य के यहाँ आमन्त्रित थीं।"

बीजगुप्त के हृदय से एक भार-सा हट गया। उसके हृदय में न जाने कैसे यह धारणा उत्पन्न हो गई थी कि चित्रलेखा सम्भवत: कुमारगिरि के यहाँ गई थी। श्वेतांक के इस उत्तर से उसका भय दूर हो गया। उसने श्वेतांक से फिर पूछा-“हाँ, अब बताओ, तुमने चित्रलेखा को बधाई दी थी?"

“हाँ!"-श्वेतांक ने धीरे से कहा-“पर चित्रलेखा ने मुझसे यह कहा कि वह बधाई की पात्र नहीं है। अपनी विजय, पर उसे गर्व न था, उसे उस पर सुख भी न था, मुझे इस पर आश्चर्य हुआ। चित्रलेखा को अपनी विजय, पर दुख था।"

बीजगुप्त मुस्कराया, पर उसकी उस मुस्कराहट में करुणा का अथाह सागर छिपा हुआ था-“मैंने तुमसे क्या कहा था? चित्रलेखा का अपनी विजय स्वीकार न करना ही इस बात का दयोतक है कि चित्रलेखा की पराजय हुई।"

“स्वामी के अर्थ को कुछ-कुछ समझ सका हूँ।"

“कुछ-कुछ समझने के कोई अर्थ नहीं होते। यदि तुम समझ सकते हो तो पूर्णतया, नहीं तो बिल्कुल ही नहीं।"-बीजगुप्त उठ खड़ा हुआ-“श्वेतांक, यह याद रखना कि मनुष्य स्वतन्त्र विचारवाला प्राणी होते हुए भी परिस्थितियों का दास है। और यह परिस्थिति-चक्र क्या है, पूर्वजन्म के कर्मों के फल का विधान है। मनुष्य की विजय वहीं सम्भव है, जहाँ वह परिस्थितियों के चक्र में पड़कर उसी के साथ चक्कर न खाए, वरन अपने कर्तव्याकर्तव्य का विचार रखते हुए उस पर विजय पावे। चित्रलेखा परिस्थितियों के चक्र में पड़ गई है, कुमारगिरि का उसके जीवन में आना उसके लिए घातक है और उसका कुमारगिरि के जीवन में आना कुमारगिरि के लिए घातक है। दुर्भाग्यवश दोनों ही एक-दूसरे के जीवन में बिना जाने हुए अपनी-अपनी साधनाओं को भ्रष्ट करने के लिए आ गए हैं-भगवान ही उनकी सहायता कर सकता है!"

आठवाँ परिच्छेद

महासागर के शान्त वक्षस्थल पर भयानक झंझावात उठने के पहले एक घोर निस्तब्धता छा जाती है। उस समय वायुमंडल उत्तेजित हो उठता है और सारा वातावरण भावी क्रान्ति की आशंका से शून्य-सा हो जाता है।

और उसके बाद? वायु के प्रचंड झोंके-लहरों का तांडव-नर्तन तथा विप्लव-गायन।

आकाश के वक्ष पर ज्वालामुखी के फटने के पहले एक घोर दबी हुई अशान्ति फैल जाती है, उसका नीला रंग धूमिल हो जाता है और विनाश के भय से सारा आकाश-मंडल वायु से रिक्त हो जाता है।

और उसके बाद? अग्नि के शोले-और विनाश।

चित्रलेखा का रथ बीजगुप्त के द्वार पर रुका-उस समय सन्ध्या हो गई थी। दिन की भयानक गरमी के बाद पाटलिपुत्र की सड़कों पर सामन्तों के रथ उमड़ पड़े थे, फूलों के हार लिए हुए मालिन युवतियाँ सामन्तों को हार पहना रही थीं-सुवासित तथा शीतल शर्बत के पात्र धनी युवक तथा युवतियों के होंठों का चुम्बन कर रहे थे। चारों ओर उल्लास और विलास था।

राजमार्ग उस समय मानो उत्सव का केन्द्र हो रहा था। जौहरियों की दुकानों पर युवतियाँ रंगरेलियाँ कर रही थीं, और तम्बोलियों की दुकानों पर युवक। बीजगुप्त भी उसी जनरव का एक भाग था।

श्वेतांक उस समय बाहर जाने की तैयारी कर रहा था। उसका रथ बाहर खड़ा था, परिचारिका उसको वस्त्र बहना रही थी। प्रहरी ने आकर सूचना दी-“प्रभु! स्वामिनी का रथ द्वार पर प्रभु की प्रतीक्षा कर रहा है।"

श्वेतांक चौंक उठा। उस समय बीजगुप्त की अनुपस्थिति उसे बुरी लगी, उसने पाप किया था और सम्भवत: उसे और अधिक पाप करना होगा, जिसके लिए वह तैयार न था। फिर भी श्वेतांक ने उत्तर दिया-“कह दो कि शीघ्र ही आ रहा हूँ।"

श्वेतांक बाहर निकला। उस समय वह बहुत सुन्दर लग रहा था। श्वेतांक चित्रलेखा के पास गया-"क्या आज्ञा है देवि?"

चित्रलेखा ने स्वाभाविक हँसी के साथ उत्तर दिया-“बीजगुप्त से मिलना था, पर शायद वह घर पर नहीं हैं।"

श्वेतांक ने भी हँसते हुए उत्तर दिया-“स्वामिनी का अनुमान ठीक है।"

"फिर यह सोचा कि तुम्हीं से मिल लूँ।"

"देवि ने इस दास का बड़ा अनुग्रह किया, देवि की सेवा में मैं सदा प्रस्तुत हूँ।”

"इसकी कोई आवश्यकता नहीं। आज चित्त उचाट था और यह इच्छा हुई कि जनरव में ही अपने चित्त को कुछ शान्त करूँ। घूमने का लक्ष्य लेकर निकली थी, यदि बीजगुप्त नहीं मिले, तो कोई चिन्ता नहीं, तुम तो हो।"

"बहुत अच्छा!"-इतना कहकर श्वेतांक अपने रथ की ओर बढ़ा। पर चित्रलेखा ने श्वेतांक का हाथ पकड़ लिया-“नहीं, तुम्हें मेरे साथ इसी रथ पर चलना होगा।"

मन्त्र-मुग्ध की भाँति श्वेतांक चित्रलेखा के रथ पर बैठ गया, रथ राजमार्ग की ओर चल पड़ा। चित्रलेखा बैठी हुई थी, घोड़ों की बाग श्वेतांक के हाथ में थी। राजमार्ग पर पहुंचते ही घोड़ों की बाग चित्रलेखा ने अपने हाथों में ले ली। अश्व थिरक उठे। गर्व से मस्तक उठाकर वे राजमार्ग में घुसे-उन्हें शायद यह विदित हो गया था कि उनकी बागडोर उस स्त्री के हाथ में है, जो पाटलिपुत्र के बड़े-से-बड़े सामन्तों को केवल संकेत पर नचा सकती है। चित्रलेखा के रथ को देखकर बड़े-बड़े सामन्तों के रथ रुक जाते थे, लोग उसे अभिवादन करते थे और साथ ही उसकी प्रशंसा। श्वेतांक को उसके साथ बैठे हुए देखकर कुछ लोगों ने व्यंग्य-वाक्य भी कहे, पर चित्रलेखा उस समय केवल हँस दी, उसने उन वाक्यों पर कोई ध्यान नहीं दिया।

उस समय चित्रलेखा फूलों के हार से लदी हुई थी। प्रत्येक सामन्त उसकी ओर एक हार फेंक देता था, चित्रलेखा उसे पहनकर उसको कृतार्थ कर देती थी। रथारूढ़ा चित्रलेखा उस समय साक्षात् शिवा की प्रतिमा थी-लोग उसका सम्मान करते थे, उसके सामने झुक जाते थे और उसकी पूजा करते थे। राजपथ का विशाल जनरव मानो चित्रलेखा का स्वागत कर रहा था।

दूसरी ओर से एक रथ आकर चित्रलेखा के रथ के पास रुका। चित्रलेखा उस समय एक नवयुवक से बातें कर रही थी। रथ खड़ा हुआ था। दूसरे रथ के रुकने के साथ ही चित्रलेखा का ध्यान भंग हुआ-पार्श्व में बीजगुप्त हँस रहा था।

"आज राजमार्ग पर चित्रलेखा को देखकर आश्चर्य होता है।"

“और आज बीजगुप्त को उसके घर में न पाकर आश्चर्य हुआ!"

उत्तर और प्रत्युत्तर-दोनों में गूढ रहस्य छिपा था, जिसे दोनों ने समझ लिया। श्वेतांक रथ से उतर पड़ा, बीजगुप्त ने कहा-"चित्रलेखा बीजगुप्त के यहाँ निमन्त्रित है-सम्भवत: निमन्त्रण अस्वीकार न होगा।"

चित्रलेखा ने उत्तर दिया-"चित्रलेखा को बीजगुप्त का निमन्त्रण सहर्ष स्वीकार है।"

उस समय सन्ध्या बीत रही थी-राजमार्ग पर प्रकाश होने लगा था। बीजगुप्त अपने रथ से उतरकर चित्रलेखा के रथ पर बैठ गया-घोड़ों की रास उसने अपने हाथ में ले ली। श्वेतांक ने बीजगुप्त का रथ सम्हाला।

दोनों रथ बीजगुप्त के भवन की ओर मोड़ दिए गए। बीजगुप्त ने कहा-“मुझे दुख है कि जिस समय तुम मेरे भवन में गईं, उस समय मैं अनुपस्थित था।”

“दुख होने की कोई बात नहीं।"-चित्रलेखा मुस्कराई-“दोष मेरा ही था, क्योंकि मैं ऐसे सम, पर पहुंची थी, जब मैं कभी भी तुम्हारे यहाँ नहीं जाती थी, इसलिए तुम्हारा भवन में न होना अस्वाभाविक नहीं था।"

चित्रलेखा मौन बैठी थी और बीजगुप्त भी मौन था। कुछ देर तक दोनों में कोई बात नहीं हुई, इसके बाद बीजगुप्त ने आरम्भ किया-"चित्रलेखा! कई दिनों से चित्त उदविग्न रहा है। क्यों? यह मैं स्वयं ही नहीं जानता। एक बात पूछंगा-कई दिनों से तुम मेरे यहाँ नहीं आई, इसका क्या कारण है?”

चित्रलेखा ने अपना मुख उठाया-"कारण पछते हो! नहीं आ सकी, क्योंकि आने की इच्छा न थी।"

बीजगुप्त को इस उत्तर की आशा न थी। उसका अनुमान था कि चित्रलेखा कोई कारण बताएगी, पर इतनी स्पष्ट तथा वास्तविक बात सुनकर उसे आश्चर्य हुआ और कुछ क्रोध हुआ। क्रोध अपने ऊपर तो हुआ ही, पर चित्रलेखा पर भी हुआ-“आने की इच्छा न थी! इसका कारण जानने का मैं अधिकारी हूँ ।"

चित्रलेखा ने बीजगुप्त के मुख की ओर देखा, उस पर दृढ़ता थी और गम्भीरता थी, क्रोध की छाप थी और स्वामित्व की गुरुता थी। चित्रलेखा का मुख लाल हो गया, फिर भी अपने भावों को दबाते हुए कहा-“अधिकारी हो! इतना नहीं जानती थी। मनुष्, पर मनुष्य का क्या अधिकार है, यह मैं नहीं समझ सकी। फिर भी तुम कारण जानना चाहते हो तो सुनो-इन दिनों किसी अंश तक मेरा चित्त उदविग्न रहा है और उस उदविग्नता में मैं अपने को और अपनों को भूल-सी गई थी।"

इस समय रथ बीजगुप्त के भवन के दवार पर रुक गया। श्वेतांक ने अपने रथ से उतरकर बीजगुप्त और चित्रलेखा को उतारा। तीनों बीजगुप्त के केलि-भवन में गए। इसके बाद श्वेतांक वहाँ से चलने लगा। श्वेतांक को जाते हुए देखकर बीजगुप्त ने कहा-“श्वेतांक! ठहरो, तुम्हारे जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।"

चित्रलेखा ने बीजगुप्त से कहा-“नहीं, श्वेतांक की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं।"

“साथ ही श्वेतांक की उपस्थिति से कोई हानि भी नहीं है।"बीजगुप्त हँस पड़ा-“वरन् इसमें श्वेतांक का लाभ ही है। इस अनुभवहीन व्यक्ति को सम्भवत: कुछ अनुभव भी प्राप्त हो।"-श्वेतांक रुक गया, बीजगुप्त ने उसे मदिरा देने का संकेत किया।

इस काम में श्वेतांक अभ्यस्त हो गया था। मदिरा का पात्र उसने बीजगुप्त को दिया, चित्रलेखा को दिया और स्वयं भी लिया। फिर थोड़ी दूर हटकर श्वेतांक बैठ गया।

बीजगुप्त ने आरम्भ किया-“हाँ! अभी तमने कहा था कि तुम किसी उदविग्नता में स्वयं को और अपनों को भूल गई थीं, इस विस्मृति को उत्पन्न करनेवाली उद्विग्नता भी विचित्र होगी।"

चित्रलेखा हँसी-“तो क्या मैं यह समझू कि बीजगुप्त मुझे अपनी मन:प्रवृत्ति का विश्लेषण करने को बाध्य कर रहे हैं?"

“नहीं, बाध्य नहीं कर रहा हूँ, वरन् प्रार्थना कर रहा हूँ कि मुझको यह ज्ञात हो जाए।"

“यदि बीजगुप्त यह प्रार्थना कर रहे हैं, तो उनको यह विदित हो कि उदविग्नता असाधारण है और उस उदविग्नता का कारण भी असाधारण है! पर साथ ही चित्रलेखा उस उदविग्नता पर अधिक कहने में असमर्थ है।"

बीजगुप्त ने श्वेतांक की ओर देखा। श्वेतांक मौन भाव से उस बातचीत को सुन रहा था। “चित्रलेखा असमर्थ है!"-बीजगुप्त ने धीरे से कहा-“आज हम दोनों के परिचय के बाद पहला अवसर उपस्थित हुआ है, जब चित्रलेखा बीजगुप्त से अपनी बातें छिपा रही है। चित्रलेखा का हृदय बदल गया है, इसका बीजगुप्त को कुछ क्षीण आभास हो रहा है।"

मदिरा की गरमी वहाँ बैठे हुए व्यक्तियों पर अपना प्रभाव जमाने लगी थी। दूसरा प्याला अपने होंठों से लगाते हुए चित्रलेखा ने कहा-"इस परिवर्तनशील संसार में किसी भी चीज का बदल जाना अस्वाभाविक नहीं है।"

बीजगुप्त स्तब्ध-सा रह गया। इस उत्तर के लिए वह तैयार न था। "क्या कहा, इस परिवर्तनशील संसार में किसी भी चीज का बदल जाना अस्वाभाविक नहीं है? तो फिर समझ लूँ कि चित्रलेखा का प्रेम बदल सकता है।"

चित्रलेखा ने जो बात कह दी थी, उसके लिए वह स्वयं भी पछता रही थी। बिना सोचे-समझे, परिणाम पर बिना ध्यान दिए हुए, आवेश में आकर उसने यह बात कह दी थी, उसने यह सोचा तक न था कि उस बात पर इतना महत्त्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है। उसने साहस किया-"नहीं, बीजगुप्त का अनुमान मिथ्या है। चित्रलेखा का प्रेम सागर की भाँति गम्भीर है, उसका बदलना असम्भव सा है, पर साथ ही मैं यह मानती हूँ और उसको ठीक भी समझती हैं कि प्रेम परिवर्तनशील है। प्रकृति का नियम परिवर्तन है, प्रेम उसी प्रकृति का एक भाव है। प्रकृति का नियम प्रेम पर भी लागू हो सकता है।"

कटु होते हुए भी चित्रलेखा ने जो कुछ कहा, वह किसी अंश तक सत्य था-इसका बीजगुप्त ने अनुभव किया। बात सत्य थी, कहने का अवसर उपयुक्त था, और बात का प्रसंग भी समयोचित था। बीजगुप्त ने अनुभव किया कि चित्रलेखा उससे दूर हटती जा रही है और वह चित्रलेखा से। एक अज्ञात शक्ति अथवा प्रेरणा इन दो प्राणियों के बीच में आ गई है।

“चित्रलेखा! तुम भूलती हो। प्रेम का सम्बन्ध आत्मा से है, प्रकृति से नहीं। जिस वस्तु का प्रकृति से सम्बन्ध है, वह वासना है, क्योंकि वासना का सम्बन्ध बाह्य से है। वासना का लक्ष्य यह शरीर है, जिस पर प्रकृति ने कृपा करके उसको सुन्दर बनाया है। प्रेम आत्मा से होता है, शरीर से नहीं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है, आत्मा का नहीं। आत्मा का सम्बन्ध अमर है।"

चित्रलेखा हँस पड़ी-“आत्मा का सम्बन्ध अमर है! बड़ी विचित्र बात कह रहे हो बीजगुप्त! जो जन्म लेता है वह मरता है, यदि कोई अमर है तो अजन्मा भी है। जहाँ सृष्टि है, वहाँ प्रलय भी रहेगा। आत्मा अजन्मा है इसलिए अमर है, पर प्रेम अजन्मा नहीं है। किसी व्यक्ति से प्रेम होता है, तो उस स्थान पर प्रेम जन्म लेता है। सम्बन्ध होना ही उस सम्बन्ध का जन्म लेना है। वह सम्बन्ध अनन्त नहीं है, कभी-न-कभी उस सम्बन्ध का अन्त होगा ही। प्रेम और वासना में भेद है, केवल इतना कि वासना पागलपन है, जो क्षणिक है और इसीलिए वासना पागलपन के साथ ही दूर हो जाती है, और प्रेम गम्भीर है। उसका अस्तित्व शीघ्र नहीं मिटता। आत्मा का सम्बन्ध अनादि नहीं है, बीजगुप्त।"

बीजगुप्त ने देखा कि चित्रलेखा की तर्कना-शक्ति बहुत बढ़ गई है। बीजगुप्त का यह वार भी खाली गया-बीजगुप्त तड़प उठा-“जो कुछ तुम कहती हो वह ठीक हो सकता है! मैं उसका विरोध नहीं करता। यह तो अपना विश्वास है, पर इतना यहाँ पर कह देना अनुचित न होगा कि उन्माद और ज्ञान में जो भेद है, वही वासना और प्रेम में है। उन्माद अस्थायी होता है और ज्ञान स्थायी। कुछ क्षणों के लिए ज्ञान लोप हो सकता है, पर वह मिटता नहीं। जब पागलपन का प्रहार होता है, ज्ञान लोप होता हुआ विदित होता है, पर उन्माद बीत जाने के बाद ही ज्ञान स्पष्ट हो जाता है। यदि ज्ञान अमर नहीं है, तो प्रेम भी अमर नहीं है, पर मेरे मत में ज्ञान अमर है-ईश्वर का एक अंश है और साथ ही प्रेम भी।"

चित्रलेखा उस समय लेटी हुई थी, उसकी आँखें अधखुली थीं। उसके सुन्दर मुख पर उन्माद अठखेलियाँ कर रहा था। वह उठ बैठी, उसने कहा-“बीजगुप्त! ठीक कहते हो, मैं भ्रम में थी, भ्रम के आवरण में मैं अपने को भूल गई थी-क्षमा करना!" इतना कहकर उसने अपने हाथ बीजगुप्त के गले में डाल दिए।

श्वेतांक ने यह देखा-वह उठ खड़ा हुआ। बीजगुप्त ने कहा-“श्वेतांक! तुम जा सकते हो। रथ अभी मत खुलवाना, आज मेरा निमन्त्रण है और तुम्हारा भी।"

नवाँ परिच्छेद

आर्यश्रेष्ठ मृत्युंजय जन्म से क्षत्रिय होते हुए भी कर्म से ब्राह्मण थे। पाटलिपुत्र के इस वयोवृद्ध सामन्त के भवन में उल्लास-विलास के स्थान में त्याग और विराग का आधिपत्य था। लोग उनकी उपमा विदेह से देते थे, और वे इस उपमा के योग्य भी थे। सारा नगर मृत्युंजय के नाम से परिचित था-बहुत थोड़े-से चुने हुए व्यक्ति उनके व्यक्तित्व के थे। मृत्युंजय का क्षेत्र क्रीड़ा और कोलाहल से भरा हुआ जनरव न था, उनका क्षेत्र था, उपासना और ध्यान-निरन्तर एकान्त।

इस एकान्तवासी क्षत्रिय के पास धन था और वैभव था। नगर के प्रमुख सामन्तों में उसकी गणना थी और राज्य सभा में उसका आसन ऊँचा। उसका नाम सुनकर लोग आदर से मस्तक नमा देते थे और उसके सम्मुख होते ही लोगों में उसके प्रति भक्ति-भाव उमड़ पड़ता था। आर्यश्रेष्ठ मृत्युंजय की साधना विशाल थी, उनमें आत्मिक बल था और आध्यात्मिक ज्योति।

मृत्युंजय के पुत्र न था, केवल एक कन्या थी। कन्या का नाम था यशोधरा। एकमात्र सन्तान होने के कारण मृत्युंजय का यशोधरा पर स्नेह था। उस समय यशोधरा की अवस्था प्राय: अठारह वर्ष की थी। यशोधरा के यौवन के विकास का काल था, और मत्युंजय के जीवन के निर्वाण का। अगाध सम्पत्ति की स्वामिनी यशोधरा से विवाह करने के लिए प्रत्येक युवक का तत्काल तत्पर हो जाना तो स्वाभाविक था ही, पर साथ ही यशोधरा सुन्दरी थी, और सुन्दरी भी उच्च कोटि की। उसके शान्त मुख-मंडल पर भोलापन अपना आधिपत्य जमाए हुए था, उसकी हँसी की सुरीली झंकार में यौवन से पराजित बचपन ने शरण ली थी। हरिणी की-सी बड़ी-बड़ी सुन्दर आँखों में संकोच था और उसके रसयुक्त अरुण कपोलों में लज्जा थी। यशोधरा का यौवन सुधा और उल्लास का मिश्रण था, उसमें गर्व की उच्छंखलता न थी, उसमें लज्जा की शान्ति थी।

वृद्ध मृत्युंजय यशोधरा के लिए वर खोज रहे थे। एकाएक उनकी दृष्टि बीजगुप्त पर पड़ी। बीजगुप्त का विवाह न हुआ था, और बीजगुप्त उच्च कुल का नवयुवक था। मृत्युंजय के हितैषियों ने-और उन हितैषियों में वे व्यक्ति भी थे जिनके हृदयों में यशोधरा का पुत्र-वधू बनाने की लालसा प्रबल थी-मृत्युंजय से एक ही नहीं अनेक बार बीजगुप्त और चित्रलेखा के सम्बन्ध का वर्णन किया, पर अनभवी और वृद्ध मृत्युंजय ने सदा यही उत्तर दिया-“यह बीजगुप्त के उन्माद का काल है, भविष्य बहुत लम्बा-चौड़ा है और बीजगुप्त यथेष्ट शिक्षित। वह इस समय अनुभव-सागर में तिर रहा है।"

बीजगुप्त उस दिन मृत्युंजय के घर पर आमन्त्रित था। यशोधरा की वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में मृत्युंजय के यहाँ एक विशाल उत्सव था। बीजगुप्त ने यशोधरा को एक-आध बार जब वह निरी बालिका थी, देखा था। मृत्युंजय से उसका विशेष परिचय भी न था। उस दिन मृत्युंजय के यहाँ से निमन्त्रण पाकर उसे आश्चर्य हुआ और उससे भी अधिक आश्चर्य उस समय हुआ, जब उसने यह पढ़ा कि वह चित्रलेखा के साथ आमन्त्रित है।

बीजगुप्त ने चित्रलेखा से कहा-“चित्रलेखा! एक विचित्र बात हुई है! तुम वयोवृद्ध मृत्युंजय को जानती होगी।"

“हाँ।”

"और सम्भवत: उनकी कन्या यशोधरा को!"

कुछ सोचकर चित्रलेखा ने कहा-"हाँ, उसे भी एक-आध बार देखा है।"

“यशोधरा की वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में आज मृत्युंजय के यहाँ उत्सव में आमन्त्रित हूँ। मेरा मृत्युंजय से अधिक परिचय नहीं है, इसलिए इस निमन्त्रण को पाकर मुझे आश्चर्य हुआ है, पर इससे भी अधिक आश्चर्य मुझको इस बात पर हुआ है कि मेरे साथ-साथ तुम भी आमन्त्रित हो और तुम्हें मेरे द्वारा निमन्त्रण मिला है।"

"इसका अर्थ यह है कि मेरा जाना अनुचित है।"

"नहीं चित्रलेखा! तुम्हें निमन्त्रण मिला है मेरे दवारा और मेरे साथ चलने को। यह उचित भी है, क्योंकि समाज तुम्हारे और मेरे सम्बन्ध को पवित्र मानता है।"

चित्रलेखा ने कुछ देर तक चुप रहने के बाद कहा-“बीजगुप्त ! मैं उच्च कुलों के उत्सवों में केवल नर्तकी की स्थिति में ही जाने की अभ्यस्त हूँ, बहुत सम्भव है कि कुलीन स्त्रियाँ मेरा अपमान करें। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई, तो क्या करना होगा, यह मैं नहीं जानती।”

बीजगुप्त हँस पड़ा—“मेरे साथ रहते हुए तुम्हारा अपमान करने का साहस किसी को न पड़ेगा, यह विश्वास रखो।”—इतना कहकर बीजगुप्त बीजगुप्त ने श्वेतांक को बुलाया।

श्वेतांक के साथ दोनों बाहर निकले। बीजगुप्त के रथ पर चित्रलेखा और बीजगुप्त आरूढ़ हुए, श्वेतांक ने घोड़ों की लगाम ली।

निर्धारित समय पर आमन्त्रित अतिथि मृत्युंजय के द्वार पर पहुँचे। प्रहरी ने उच्च स्वर से कहा-“महासामन्त बीजगुप्त का रथ द्वार पर है !" यशोधरा के साथ मृत्युंजय द्वार पर आया। मृत्युंजय ने बीजगुप्त का स्वागत किया और यशोधरा ने चित्रलेखा का-शवेतांक पीछे-पीछे चला।

द्वार पार कर सब लोग नृत्य-भवन में पहुँचे। पाटलिपुत्र के प्रायः सभी प्रभावशाली व्यक्ति उपस्थित थे। सबों ने बीजगुप्त तथा चित्रलेखा के आने पर हर्षध्वनि की। चित्रलेखा यशोधरा के साथ स्त्रियों के समुदाय में चली गई, बीजगुप्त मृत्युंजय के साथ रहा।

यशोधरा को देखकर चित्रलेखा चकित हो गई। उसे आज तक अपनी सुन्दरता पर गर्व था और आत्मविश्वास था; पर यशोधरा ने एक क्षण में उसका गर्व दूर कर दिया; आत्मविश्वास डिगा दिया। यशोधरा ने आदरपूर्वक चित्रलेखा को आसन दिया और स्वयं उसके पास बैठ गई। यशोधरा को चित्रलेखा के पास बैठा देखकर और चित्रलेखा का विशेष आदर करते देखकर अन्य महिलाओं को बुरा लगा।

अपने बाल्यकाल में यशोधरा ने चित्रलेखा का नत्य देखा था। उस समय वह चित्रलेखा के नृत्य से प्रभावित भी हुई थी। आज उसे उसके पिता का आदेश था कि वह चित्रलेखा के साथ रहे; यह काम यशोधरा को रुचिकर था।

चित्रलेखा के चारों ओर युवतियाँ एकत्र हो गई थीं-कुछ हँस रही थीं और कुछ व्यंग्य-वचन कह रही थीं; पर चित्रलेखा ने इसका बुरा न माना। अपनी स्थिति वह बहुत अच्छी तरह से समझती थी। पास ही खड़ी हई एक बहुत बड़े सामन्त की स्त्री ने कहा-“आज नर्तकी चित्रलेखा को हमारी समता करके हमारे समाज में आने के उपलक्षय में बधाई है।"

बात जितनी कटु थी, उत्तर उससे अधिक कटु था"अपने सौन्दर्य के बल से, अपना स्वागत कराने के लिए, अभिमानिनी स्त्रियों को बाध्य करनेवाली को बधाई की कोई आवश्यकता नहीं।”

एक ने दूसरी की ओर देखा और दूसरी ने तीसरी की ओर। बात जिस तीव्रता से कही गई थी, उसका प्रभाव एकत्रित पुरुष-समुदाय पर भी पड़ा। बीजगुप्त उस ओर घूम पड़ा। उसे भय था कि चित्रलेखा का, बहुत सम्भव है, अपमान हो; इस उत्तरप्रत्युत्तर से उसका भय और बढ़ गया—“क्या बात है ?"

चित्रलेखा का क्रोध से लाल मुख एकदम शान्त हो गया—“कुछ नहीं, आपस में हँसी हो रही थी!” उस समय चित्रलेखा हँस रही थी।

यशोधरा चित्रलेखा के इस भाव-परिवर्तन पर मुग्ध हो गई। बीजगुप्त के जाने के बाद उसने चित्रलेखा से कहा-“बहन, तुम लोक-व्यवहार में बहुत कुशल हो!”

“तभी तो इतनी प्रभावशालिनी हूँ !” चित्रलेखा हँस पड़ी। आँखें उधर उठ गई।

चित्रलेखा की हास्य-ध्वनि झंकृत हो उठी। नवयुवक-समुदाय की बीजगुप्त से उसी समय उन नवयुवकों ने गाने का प्रस्ताव किया।

वीणा लेकर बीजगुप्त ने बागीश्वरी की अलाप भरी-चारों ओर निस्तब्धता छा गई। स्त्री और पुरुष दोनों मन्त्रमुग्ध-से बीजगुप्त के गाने को सुन रहे थे। बीजगुप्त ने गाना समाप्त कर दिया। इसके बाद मृत्युंजय ने स्वयं वीणा लेकर यशोधरा की ओर संकेत किया। यशोधरा ने भी बागीश्वरी गाना आरम्भ किया। यशोधरा का गाना समाप्त होने पर लोगों ने अनुभव किया कि बीजगुप्त के गाने के आगे यशोधरा का गाना फीका था। चित्रलेखा ने लोगों के ये भाव पढ़ लिए, उसने कहा-“यशोधरा से एक प्रार्थना मैं भी करूंगी-यदि उसकी इच्छा हो, तो इस समय वह कल्याण में कोई गाना गावे।”

लोगों की दृष्टि चित्रलेखा की ओर घूम गई। मृत्युंजय ने चित्रलेखा की ओर देखा। वे चित्रलेखा के कथन के महत्व को न समझ सके। फिर प्रार्थना एक आमन्त्रित अतिथि द्वारा की गई थी। मृत्युंजय ने वीणा में कल्याण के स्वर भरे और यशोधरा ने गाना आरम्भ किया। इस बार यशोधरा ने सबको मुग्ध कर दिया। लोग उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगे। गाना समाप्त हो गया और चित्रलेखा ने यशोधरा को बधाई दी-“बहन यशोधरा, मैं तुम्हारे सुन्दर गायन के उपलक्षय में बधाई देती हूँ।”

मृत्युंजय चित्रलेखा की प्रार्थना का महत्व अब समझे—“और चित्रलेखा, मैं तुमको यशोधरा की ओर से धन्यवाद देता हूँ।”

इस वार्तालाप को बीजगुप्त सुन रहा था, हँसते हुए उसने कहा-“क्या अब मैं चित्रलेखा से अपना नृत्य दिखाने की प्रार्थना कर सकता हूँ?”

चित्रलेखा ने हँसते हुए उत्तर दिया- "बीजगुप्त की प्रार्थना मेरे लिए आज्ञा के समान है !”

मृत्युंजय ने वीणा ली और बीजगुप्त ने मृदंग। चित्रलेखा ने नृत्य आरम्भ कर दिया। सब लोग चित्रलेखा की प्रशंसा कर रहे थे। और चित्रलेखा अपना कौशल दिखा रही थी। इसी समय प्रहरी ने पुकारा—“योगी कुमारगिरि अपने शिष्य के साथ द्वार पर पधारे हैं।”

मृत्युंजय ने वीणा रख दी, वे कुमारगिरि का स्वागत करने बाहर गए। मृत्युंजय के वीणा रखने के साथ ही चित्रलेखा का नृत्य बन्द हो गया। विशालदेव भी था। कुमारगिरि के सामने सब लोग खड़े हो गए। उसी समय चित्रलेखा ने बीजगुप्त से कहा-“मैं अब जाऊँगी, मेरा काफी अपमान हो चुका है ?"

“यह कैसे ?”

“मेरी दृष्टि में कला का सर्वोच्च स्थान है। जो मनुष्य कला का अपमान करता है, वह मनुष्य नहीं है, पशु है। मृत्युंजय को कुमारगिरि का स्वागत करने के लिए नृत्य को बन्द कर देना मेरा अपमान नहीं है तो क्या है ?"

बीजगुप्त मुस्कराया—“जैसी तुम्हारी इच्छा।"

इस समय तक कुमारगिरि आसन पर बैठ गए थे। चित्रलेखा ने आगे बढ़कर योगी कुमारगिरि का अभिवादन किया, फिर उसने मृत्युंजय से कहा-“मैं जाने की आज्ञा चाहती हूँ।”

मृत्युंजय के उत्तर देने के पहले ही कुमारगिरि ने उत्तर दिया—“यह क्यों ? क्या मेरी उपस्थिति तुम्हें अरुचिकर है नर्तकी? और यह स्वाभाविक भी है।”—कुमारगिरि का शिशु-सा कोमल तथा मधुर हास्य संगीत की भाँति गूंज उठा।

चित्रलेखा ने कुछ सोचकर कहा—“नहीं योगी, तुम्हारी उपस्थिति संसार में किसी को अरुचिकर नहीं हो सकती, इतना विश्वास रखो। मेरे यहाँ से जाने का दूसरा कारण है।”

“पर तुमने जाने का अवसर उचित नहीं चुना।”

"तो फिर मैं न जाऊँगी।”

मृत्युंजय ने वीणा फिर उठाई; पर चित्रलेखा ने नृत्य आरम्भ करने से इनकार कर दिया। इस बार यशोधरा ने आगे बढ़कर चित्रलेखा से कहा-“बहन, तुम्हारी बात मैंने नहीं टाली थी, इस बार मेरा अनुरोध है कि तुम नृत्य करो, और मेरा अनुरोध तुम न टालोगी, इसका मुझे विश्वास है।”

चित्रलेखा ने यशोधरा का अनुरोध वास्तव में न टाला, उसने नृत्य यशोधरा की तुलना आरम्भ कर दिया।योगी कुमारगिरि ने यशोधरा की ओर देखा-और थोड़ी देर तक वे एकटक यशोधरा की ओर देखते रहे। योगी ने चित्रलेखा और यशोधरा की तुलना आरम्भ कर दी। दोनों ही उच्च कोटि की सुन्दरियाँ थीं, पर एक में मादकता परधान थी और दूसरी में शान्ति ! चित्रलेखा की मादकता भयानक थी-उसका नृत्य उसकी सजीवता की प्रतिमूर्ति; पर साथ ही यशोधरा मृत्यु की शान्ति अथाह सिन्धु की भाँति थी, जिसमें पड़कर मनुष्य अपने को भूल जाता है। चित्रलेखा जीवन की हलचल थी; यशोधरा विजय पा रही है।”

नृत्य समाप्त हुआ। मृत्युंजय ने दासी से पूछा-“भोजन में कितना विलम्ब है ?"

"भोजन तैयार है, केवल आज्ञा की देर है।"

आमन्त्रित अतिथि भोजन-गृह में जाकर बैठ गए। दासियों ने भोजन परसना आरम्भ किया। बीजगुप्त के पास यशोधरा बैठी-चित्रलेखा यशोधरा के पास थी और उसी के पास शवेतांक ।

भोजन आरम्भ हुआ और पास बैठे हुए अतिथियों में वार्तालाप। यशोधरा पहले कभी बीजगुप्त से न बोली थी। बीजगुप्त ने कहा-“देवि ! आज पहली बार हमारा पूरा परिचय हुआ है, और इस परिचय पर में अपने को बधाई देता हूँ।”

अपने जीवन मैं आज पहली बार यशोधरा की हरिणी की-सी बड़ी-बड़ी आँखें, एक दूसरे मनुष्य की आँखों के सामने न उठ सकीं। यशोधरा का हृदय धड़क रहा था, धीरे से उसने उत्तर दिया-"मेरा परिचय कोई महत्त्व की बात नहीं है।”

बातचीत सुनकर चित्रलेखा हँस पड़ी "भगवान करे, यह परिचय घनिष्ठता में परिणत हो, और घनिष्ठता जीवन के पवित्र बन्धन में।”

यशोधरा ने कृतज्ञता-भरे नेत्रों से चित्रलेखा की ओर देखा, बीजगुप्त ने कौतूहल से। पर श्वेतांक एकटक यशोधरा की ओर देख रहा था। एकाएक यशोधरा की आँखें श्वेतांक से मिल गई। इस समय तक यशोधरा ने श्वेतांक को न देखा था। अपने भवन में आमन्त्रित प्रत्येक व्यक्ति को वह पहचानती थी; श्वेतांक केवल ऐसा व्यक्ति था, जिसको वह नहीं जानती थी। बीजगुप्त से यशोधरा ने पूछा-“यह नवयुवक कौन है?"

“मेरा सेवक और साथ ही मेरा छोटा भाई !”—बीजगुप्त हँस पड़ा। यशोधरा को कौतूहल हुआ—“सेवक और छोटा भाई !”—बात भी विचित्र थी—“यह कैसे ?”

“यह इस प्रकार कि इस व्यक्ति का नाम श्वेतांक है। यह भी क्षत्रिय गुरु के साथ रहा है। गुरु ने पाप का पता लगाने के लिए इस व्यक्ति को मेरे पास छोड़ दिया है मेरे द्वारा यह नवयुवक समाज में पदार्पण कर रहा है।"

यशोधरा का आश्चर्य और भी बढ़ा-“पाप का पता लगाने के लिए इनके गुरु ने इनको आपके पास भेजा है ! क्या वास्तव में आपका स्थान अथवा आपके व्यक्तित्व से सम्पर्क पाप का पता लगाने का उपयुक्त स्थान है ?"

बीजगुप्त मन-ही-मन हँसा। कितनी भोली बालिका थी और कितनी भ्रम में थी-“सम्भवतः पापी-से-पापी मनुष्य नहीं कह सकता कि वह पापी से समझना उसके लिए असम्भव है। यदि श्वेतांक इस निर्णय पर पहुँचे कि मैं पापी हूँ, तो मैं वास्तव मैं पापी हूँ।”

यशोधरा के उर में एक ठेस-सी लगी। जिस व्यक्ति के परणय-बंधन की कल्पना से उसका हृदय प्रफुल्लित हो उठा था, वही व्यक्ति एक बहुत था ! उसने श्वेतांक की ओर देखा-कितना भोला और सुन्दर नवयुवक था ! और बीजगुप्त ?

उस समय भोजन समाप्त हो गया था। लोग उठ खड़े हुए। हाथ-मुंह धोकर फिर सब लोग एकत्र हुए। बीजगुप्त ने श्वेतांक का हाथ पकड़कर मृत्युंजय से उसका परिचय कराया। इसके बाद सब लोग अपने-अपने घर को विदा हुए।

  • चित्रलेखा : परिच्छेद (10-22)
  • मुख्य पृष्ठ : भगवतीचरण वर्मा : हिन्दी कहानियाँ, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां