China Bank (Hindi Story) : Ramgopal Bhavuk
चायना बैंक (कहानी) : रामगोपाल भावुक
जैसे ही सुबह- सुबह अखबार के पृष्ठ पलटे डोकलाम में मारे गये शहीद सैनिकों की तस्वीरों ने उसके मन को हिला कर रख दिया। मुझे उस दिन की याद भूली नहीं है। जब नगर भर में शोक व्याप्त था। उस दिन अरुणाचल की धरती पर चीनी हमले में शहीद नरेश शर्मा की अर्थी आने वाली थी। दुःख के अथाह समुन्दर में डूबे शहीद के परिवार को दिलाशा और सम्मान देने के लिए अंचल के लोगों ने बहुत सम्मानपूर्ण विदाई की अघोषित योजना बनाई थी।
नगर के लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। दूरदराज से गाँव के लोग उसके दर्शन करने ट्रेक्टर- ट्रोलियों में भर- भरकर सड़क के दोनों ओर इकठ्ठे होते जा रहे थे।
दिन ढले तिरंगे में लिपटा उसका शव फौज की गाड़ी पर लोगों के सामने से गुजरा। फौज के जवान उसके साथ- साथ चल रहे थे। शहीद नरेश शर्मा जिन्दाबाद के नारों से आकश गूँज उठा। धरती माँ का लाडला शहीद नरेश शर्मा जिन्दाबाद। हम सबका का प्यारा शहीद नरेश शर्मा जिन्दाबाद के नारे से तो नगर के गली-गलियारे रो उठे थे।
कोई कह रहा था-‘इनकी वटालियन चीनी घुस पैठियों की सर्च में निकली थी कि एक जगह उनसे सामना हो गया। उन्होंने फाइरिंग शुरू कर दी, इनकी बटालियन संकट में पड़ गई। नरेश ने आगे बढ़कर उनका रास्ता रोका। अपने सभी साथियों को कबरेज फाइरिंग करते हुए खतरे से बाहर निकाला और खुद शहीद हो गया।’
दूसरा बोला-‘सुना है, चीनी सैनिक हथियारों का जखीरा छोड़कर भाग निकले हैं। ’
तीसरे ने अपनी बात रखी-‘हमारे देश की उत्तर की सीमा पर कहीं न कहीं प्रतिदिन चीन घुस पैठ करने की कोशिश करता रहता है।’
किसी ने बात आगे बढ़ाई-‘ हमारे राजनेता एक ओर चीन से व्यापार में रुचि दिखा रहे हैं। दूसरी ओर चीन हमारे सैनिकों हत्या कर रहा है।
मैं उनकी बातें सुनते हुए अर्थी के पीछे-पीछे चलकर मरघट पहुँच गया। वहाँ जाकर गुम-सुम बना एक पटिया पर बैठ गया। सामने दाहकर्म करने के लिये कंडे सुलगा दिये। उनका धुआ आँखों में लगने लगा जिससे आँसू बहने लगे।
दो माह पूर्व मैंने अपनी आँखें डॉक्टर कों दिखाने गया था। उन्होंने मेरी बाईं आँख में मोतिया बिन्द बतला दिया। उन्होंने हिदायत दी कि तत्काल ऑपरेशन कराना अनिवार्य है। यह बात मैंने अपने पुत्र मनीष से कही। उसने देर नहीं की और वह मुझे नगर के श्रेष्ठ नेत्र चिकित्सक के पास ले गया। चिकित्सक बड़ी देर तक आँख का परीक्षण करता रहा। उसके बाद बोला-‘आप लोग चाहें तो आज ही ऑपरेशन करा सकते हैं।’
मनीष बोला -‘ आप, ऑपरेशन आज ही कर दीजिये।’ यों उनकी बातें होती रहीं। मैं उनके चेम्बर के बाहर चला आया।
डॉक्टर ने दो बजे से ऑपरेशन करके, तीन बजे तक तो हमारी छुट्टी कर दी।
मैंने घर आकर मनीष से पूछा-‘कितने रुपये लिये उसने ऑपरेशन के?’
उसने कहा -‘पच्चीस हजार। मैं क्या आप से माँग रहा हूँ? चायनीज लेन्स के पच्चीस हजार रुपये ही रेट थी। डॉक्टर साहब कह रहे थे, ये बहुत ही सुपर लेंस हैं।’
मैंने कहा-‘यह तुमने क्या निर्णय लिया? मुझे तो देशी लेन्स डलवाना था।’
वह बोला-‘ आप लेखक हैं। आपकी एक आँख बचपन से ही कमजोर थी। डॉक्टर साहब ने चायनीज लेन्स का परामर्श दिया। उन्होंने लेंस की जुम्मेदारी अपने ऊपर ले ली है, इसीलिये मुझे डॉक्टर साहब की बात मानना पड़ी, आपसे पूछता तो आप मानते नहीं। अब तो ऑपरेशन हो ही चुका है। अब आपको पढ़ने-लिखने में कोई परेशानी नहीं होगी।’
उसकी बात सुनकर मैं सन्तुष्ट सा हो गया। सोचा- चलो जो हुआ अच्छा ही हुआ। अब पढ़ने-लिखने में आसानी रहेगी। दूसरे दिन पट्टी खोलने के बाद डॉक्टर ने कहा-‘आप, आज से ही टीवी देख सकते हैं।’ मैंने सोचा-अब सोचने से क्या लाभ, आदमी की आँख है तो जहान है।
किन्तु इसके एक माह बाद ही मेरा इससे मोह भंग हो गया। मुझे पढ़ने के लिये चश्मा लगाना पड़ा तो मेरा पश्चाताप और बढ़ गया-चायनीज लेन्स लगवाने का निर्णय ठीक नहीं रहा। इस चायनीज लेंस की तरह शरीर के दूसरे हिस्सों जैसे घुटने, कुल्हे, हार्ट की रक्तबाहिनी इत्यादि अपने कमीशन के लोभ में डॉक्टर वर्ग उन्हें सुपर कहकर डाल रहे हैं। इस तरह ये चीन हमारे शरीर में घुसता जा रहा है।
इस लेंस के लगवाने से क्या लाभ हुआ? इससे तो अच्छा देशी लेंस रहता। इतने पैसे भी नहीं लगते। विदेशी वस्तुओं पर टेक्स अधिक लगता है। इसीलिये वे महंगी मिलतीं हैं। हमारी देशी वस्तुएँ किसी से कम नहीं हैं, किन्तु विदेशी वस्तुओं के बारे में हमारा यह मोह ठीक नहीं है कि वे हमारी देशी वस्तुओं से सुपर होंगी ही। इससे एक तो मेरी स्वदेशी भावना की हत्या हुई, दूसरी ओर आर्थिक घाटा भी सहना पड़ा और ऐसा कोई लाभ भी नहीं हुआ जिससे सन्तोष किया जा सके।
मेरे घर के वास एन्ड वियर का पाइप खराब हो गया था। चायनीज लेन्स के सोच में डूबा में बाजार चला गया। दुकानदार से पाइप के लिये कहा। उसने मेरे को एक सुन्दर सा चीनी पाइप लाकर पकड़ा दिया। मैंने उसके सील सिक्के देखकर कहा-‘यह तो चीनी पाइप है।’
वह बोला-‘सर, यह सस्ता और टिकाऊ है। कुल बीस रुपये का ही तो है।’
मैं समझ गया- यह कुल बीस रुपये का ही है। जिसे यहाँ तक लाने में कुछ व्यय हुआ ही होगा। फिर इस पर कुछ टेक्स भी लगा होगा। कितने में बनकर तैयार हुआ होगा यह? मैंने दुकानदार से कहा-‘आप तो कोई देशी पाइप दें, मुझे यह नहीं चाहिये।’
उसने एक देशी कम्पनी का बना पाइप लाकर दिया, बोला-‘यह पेंतीस रुपये का है।’ मैंने देखा वह बहुत ही मजबूत और टिकाऊ है। उसके पेंतीस रुपये देने में मुझे कोई कष्ट नहीं हुआ था।
सामने चंदन की लकड़ियों से चिता सजाई जा रही थी। चंदन की महक महसूस करके एक बोला-‘शुद्ध चंदन है, तभी इतना महक रहा है।’
मैं सोच रहा था-हो सकता है आने वाले समय में तो चायनीज मार्केवाले चंदन की शुद्धता ही सही प्रमाण हो और उसीसे शहीदों का अन्तिम संस्कार हो।
मरघट में पड़ी बैचों पर बैठे लोग मरघट की मर्यादा के कारण दबी जबान में बहस कर रहे थे। सभी इस अवसर पर चीन की विस्तारवादी नीति और उसके फैलते बाजारवाद की भत्सना कर रहे थे। उनकी बातें सूनकर इस समय याद आने लगी अपनी नेपाल यात्रा। वहाँ गली-गली में माओवादी पैदा हो गये हैं। वे चाहे जब ट्राफिक जाम कर देते हैं। इसीकी बदोलत हमारी दस घन्टे की यात्रा अठारह घन्टे में पूरी हो सकी। उस दिन रात एक बजे काठमान्डू पहुँच पाये।
दूसरे दिन देखा, वहाँ गली-गली में चीनी माल की भरमार है। हमें नेपाल का कोई उत्पादन नहीं दिखा। जो दिखा, वह चीन में निर्मित वस्तुओं के ढेर ही दिखे। सबकी सब फेंन्सी वस्तुएँ। दिखने में बहुत सुन्दर। उन्हें खरीदने को जी ललचा उठे। इस तरह चीन ने वहाँ के बाजार को अपने कब्जे में ले लिया है। वहाँ के दुकानदार बढ़-चढ़कर उस सामान की प्रशंसा करके अपना माल खपाने का प्रयास कर रहे थे। चीन चाहता है,भारत में भी उसे इसी तरह के उसके सामान के प्रशंसक और ऐसा ही बाजार मिल जाये, फिर बाजार जिसका होगा उसी का ही होगा साम्राज्य।
नेपाल से लौटने पर यही सोच घनीभूत होता रहा।
चैत का महीना आ गया। इस वर्ष वे मौसम की बरसात के कारण फसल चौपट हो गई थी। फिर भी जो फसल बची थी कटने लगी। अच्छे भाव के चक्कर में मैंने उसका ऑन लाइन रजिस्ट्रेशन करवा लिया। शासन की यह नीति बहुत ही अच्छी लगी है। जिससे किसानों को सही मूल्य मिल सकेगा। मैंने अपनी सारी फसल शासन को बेच दी और निश्चिन्त होगया। सात-आठ दिन में उसका चैक मिल गया।
मैं अपना चैक लेकर बैंक पहुँचा तो वे बोले-‘यह तो चायना बैंक का चैक है। इसके लिये तो आपको उसी बैंक में खाता खुलवाना पड़ेगा।’
उसमें खाता खोलने की समस्या नहीं थी। किन्तु मुझे आश्चर्य हुआ! ये क्या हो रहा है? फसल हमारी अपनी मार्केटिंग सोसायसटी ने क्रय की है किन्तु चौक विदेशी बैंक का दिया है। सम्भव है सरकार हमारी फसल विदेशी धन से क्रय कर रही हो। विश्व के बड़े-बड़े देश बाजार खोजने के लिये ऐसी ही शर्तें लगाकर हमें कर्ज दे रहे हैं।
मैंने दूसरे चैक के लिये चक्कर लगाये, वे बोले-‘इसमें दस-पन्द्रह दिन लग जायेंगे, पहले चौक कैन्सिल करना पडेगा, फिर दूसरा बनने में समय लगेगा। पाँच सौ रुपये की बात है, नया खाता खोलने में घाटा नहीं रहेगा।’
मन मार कर चायना बैंक में नया खाता खोल लिया। उसमें चैक जमा हो गया।
दो दिन बाद ही एक फोन आया। फोन पर एक लड़की की सुरीली आवाज कानों में सुनाई पड़ी-‘हेलो सर, मैं सुनयना बोल रही हूँ। हम आपसे से मिलना चाहते हैं।’
एक लड़की मुझ से क्यों मिलना चाहती है? अनेक प्रश्न आकर खड़े हो गये, सब का एक ही उत्तर सुनाई दिया-मिलने में क्या हर्ज है, यह सोचकर कह दिया-‘कहाँ मिलना है? आदेश करें।’
‘आप हमारी चायना बैंक में आकर मिल सकते हैं?’
‘क्यों?’
वही सुरीली आवाज कानों में फिर से गूँजी-‘सर, आप यदि अपनी रकम हमारे यहाँ फिक्स डिपोजिट में जमा कर सकते हैं, हमारी बैंक दूसरी अन्य बैंकों से एक परसेन्ट अधिक ब्याज देती है। आपका धन विश्व स्तर पर सुरक्षित रहेगा। आप चाहे जब अपना पैसा किसी अन्य देश में भी आसानी से ले सकते हैं।’
मैं इस लुभावने प्रलोभन का अर्थ समझ गया। ये येन- केन- प्रकारेण हमारे देश का धन अपने पास एकत्रित करना चाहते हैं। मैंने उत्तर दिया-‘क्षमा करें, मेरे पास जितना धन है वह पहले से ही बुक है। एक पैसा भी नहीं बच पा रहा है।’
लड़की बोली-‘कोई बात नहीं, जब भी कभी सैव करें, हमें सेवा का अवसर अवश्य दें।’
मैंने बात टालने के लिये कह दिया-‘जी, पैसा बचा तो ध्यान रखूँगा।’
वह बोली-‘हमें उम्मीद रहेगी, आशा है आप अपना वचन याद रखेंगे। धन्यवाद।’ और फोन कट गया। मुझे व्यावहारिक झूठ बोलना खला, किस तरह उसने मुझे अपनी वाचा में ले लिया था, किन्तु मैंने उसके याद दिलाने पर भी अपने वादे की कभी चिन्ता नहीं की।
मैं यही सोचते हुये जूते पहनने के लिये एक जूते वाले की दुकान पर पहुँच गया। उसने जाने कितनी बैराइटियों के चीन में बने जूते मेरे सामने पटक दिये और बोला-‘आप तो पसन्द करलें, बहुत ही टिकाऊ हैं। हमारे पास अभी और भी वैराइटियाँ है।’
उसी समय मेरा एक मित्र भी वहाँ जूते पहनने आ गया। वह अपने पुराने जूते दिखलाते हुये बोला-‘मैंने इन्हें सालभर पहले पहना था। बहुत ही हल्के हैं। इनमें बजन तो इनमें बिल्कुल नहीं हैं। पैर बड़े आराम में रहता है। मुझे ऐसे ही जूते और चाहिये।’
उसकी बातें सुन कर मैं चुप रह गया था। अपना सिर पकड़कर सोचने लगा-उनका एकाध उत्पाद अच्छा भी हो सकता है। विश्व बाजार किस तरह हमारे देश में भी पैर पसार रहा है। चीनी प्रधान मन्त्री और व्यपार मंडल का भारत आगमन और भारत के प्रधान मन्त्री द्वारा उनका अभूतर्पव सम्मान के समाचार पढकर अनमने मन से मैं अपने कमरे में था।
एक बिसाती हमारे आँगन में अपनी दुकान फैलाये बैठा था। मोहल्ले भर की औरतें उसे घेरे हुये बैठीं थीं। वह चीन में बनी फेंन्सी वस्तुएँ लिये था। तरह-तरह की नयी-नयी लुभावनी चूड़ियाँ, नेल पॉलिस, लिपस्टिक एवं तरह-तरह के फैन्सी बिछिये, तोड़ियाँ तथा गले के लिये चेन सभी औरतों के मन को लुभा रही थीं। वह दुकानदार उनके सस्ती और टिकाऊ होने का दावा कर रहा था। उसने उन औरतों को अपनी बात से प्रभावित कर लिया। सभी लूट का माल समझकर उससे ढेर सारी चीजें खरीद रही थीं। वे सोच रही थीं, आज मिल रही हैं कल ऐसी सुन्दर चीजें ना भी मिलें।
मैं उन्हें रोकने के लिये कुछ नहीं कर पा रहा था। बे-बस होकर हाथ पर हाथ धरे चुपचाप कमरे में बैठे-बैठे उन्हें ताकता रहा। कैसे बाजार पसर कर हमारे घर आँगन तक आ पहुँचा है! इससे कैसे बचें? मैं समझ गया अब इन्हें रोक पाना हमारे वश की बात नहीं है। यह सोचते हुये मैंने कायरों की तरह अपना मुँह चादर से ढक लिया था।
ठीक सामने उस शहीद के पाँच वर्षिय पुत्र के ,नाई छुरे से बाल घोंट चुका था। शहीद पिता का अन्तिम संस्कार करने उसे सफेद बस्त्र पहना दिये गये। फौज की बटालियन ने शहीद नरेश शर्मा को शस्त्र झुकाकर सलामी दी। मैं सोच रहा था, यह सलामी विरलों को ही नसीब होती है, किन्तु भ्रष्टाचार के इस युग में उसकी नवोढ़ा पत्नी और उस अबोध बालक की याद करके राष्ट्रीय भावना कराह उठी। दृश्य देखकर उपस्थित जन समूह की आँखें डबडबा आईं।
अग्नि संस्कार के बाद सभी ने भी चन्दन की लकड़ी उसकी चिता को अर्पित की और उसकी परिक्रमा दी। मैं सोच रहा था-ये बड़े-बड़े शक्तिशाली देश पूरे विश्व में सभी तरह के हथकन्डे अपनाकर अपना वर्चस्व कायम करने में लगे हैं। आहिस्ता- आहिस्ता बाजार में घुसता हुआ चीन, बिसाती से भी विनम्र बन जाता है और उधर इंच- इंच जमीन के लिये सीमापर आँखें दिखाता है, धोखा देता है और हमको नरेश शर्मा जैसे बहादुर नौजवान को खोना पड़ता है।
मन ही मन घुटते हुये मैं, मरघट से लौटते हुये सोच रहा था, इस चीन से निपटने के लिये हमें ही अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।