चिड़ियों की परी : चीनी लोक-कथा
Chidiyon Ki Pari : Chinese Folktale
कहते हैं कि चीन के उत्तर में चिड़ियों की एक अजीब-सी परी रहती थी । उसे मनुष्य की भाषा समझने का और मनुष्य की भाषा बोलने का अलौकिक वरदान प्राप्त था ।
बहुत-से राजा-महाराजाओं ने चिड़ियों की उस परी को पकड़ने का प्रयास किया था, पर वह किसी के हाथ नहीं लगी थी। यहां तक कि बड़े-बड़े राजकुमारों से लेकर छोटे-छोटे मंत्री गणों तक ने समय-समय पर अपना-अपना भाग्य आजमाया था । उन्होंने देश-विदेश के एक-से-एक अनुभवी बहेलियों को उधर भेजा, अथवा वे स्वयं उसे पकड़ने गए थे, पर इस प्रयत्न में किसी को सफलता नहीं मिली थी। वह चिड़िया हमेशा एक विशाल चीड़ के पेड़ की घनी पत्तियों में बैठी रहती थी और बड़े मधुर स्वर में गीत गाती रहती थी ।
उसे पकड़ने के अभियान में कई वर्षों तक लोग उधर आते- जाते रहते थे, जिससे उस घने जंगल में एक पगडंडी-सी बन गई। थी जिससे होकर कोई भी उस चिड़िया के निवासस्थान तक पहुंच सकता था ।
जब इस विचित्र चिड़िया की प्रसिद्धि एकतर खान बादशाह के कानों में पहुंची, तो उसने हिम्मत बांधते हुए कहा, "वह चिड़िया बड़ी होशियार मालूम होती है । वह लोगों की पकड़ से आज तक बची हुई है, परन्तु मेरे हाथ से वह कैसे निकलेगी। मैं किसी-न-किसी तरह से उसे अवश्य पकड़ंगा ।" इतना कह कर वह उसकी खोज में निकल पड़ा ।
एकतर खान चलते-चलते उस घने जंगल में पहुंच गया । उसने घनी पत्तियों वाले उस विशाल चीड़ के पेड़ को भी खोज लिया । उस विचित्र चिड़िया ने एकतर खान को पास आते हुए देखा, परन्तु वह उससे न डरी और न वहां से भागी ही । वह अपनी जगह पर चैन से बैठी- बैठी मधुर गीत सुनाती रही । एकतर खान उसकी तान सुनकर हर्ष और आश्चर्य में डूब गया, फिर उसने बड़ी आसानी से उसे पकड़ लिया। उसे पिंजड़े में लेकर खुशी-खुशी वह घर की ओर चल दिया ।
उस पहाड़ी के ऊबड़-खाबड़ रास्ते से वह चला जा रहा था । रास्ते में चिड़िया ने एकतर खान से कहा - " बड़ी आसानी से आपने मुझे पकड़ लिया है, किन्तु मुझे यह वरदान प्राप्त है कि जो भी मुझे लिए जा रहा हो, उसे रास्ते भर मेरे साथ बातें करते जाना चाहिए और किसी भी हालत में आह नहीं भरनी चाहिए, क्योंकि उसके चुप होते ही अथवा आह भरते ही मैं उड़ जाऊंगी। इसलिए हम में से किसी को हर वक्त कुछ न कुछ बोलते ही रहना चाहिए ।"
एकतर खान ने कुछ सोच कर उत्तर दिया- "तब तो ठीक ही है । तुम्हीं कुछ कहो न । बातें करते हुए रास्ता जल्दी ही कट जायेगा ।"
चिड़िया बोली, "मैं तुम्हें एक कथा सुनाती हूं । एक शिकारी ने एक कुत्ते को पाल रखा था। एक दिन दोनों शिकार करने निकले । जंगल के बीच रास्ते में उन्होंने एक टूटी हुई बैलगाड़ी देखी, जिसमें सोना-चांदी भरा पड़ा था । उसका स्वामी बगल में बैठा था । परिचय हो जाने के बाद गाड़ीवान ने शिकारी से आग्रह किया :
'मुझे गांव जाकर किसी कारीगर को ढूंढ़ लाना है जो मेरी गाड़ी के पहिये की मरम्मत कर सके। क्या तब तक आप और आपका कुत्ता मेरी गाड़ी की रखवाली कर सकते हैं ?”
'बेशक, बड़ी खुशी के साथ ।' शिकारी ने जवाब दिया । गाड़ीवान बहुत प्रसन्न हुआ और वह पहाड़ी रास्ते से गांव की ओर चला गया ।
दिन ढल गया, सांझ होने लगी, पर गाड़ीवान का कोई पता नहीं था । शिकारी सोच में पड़ गया, मेरी बूढ़ी मां की आंखें कमजोर हो गई हैं। वह सवेरे से कुछ खा पाई होगी या नहीं । फिर उसने अपने कुत्ते से कहा- 'तू यहीं ठहर और चारों ओर देख । जब तक गाड़ीवान नहीं लौटे, यहां से कहीं जाना नहीं । मैं भोजन बनाने के लिए घर जा रहा हूं ।'
आदेश देकर वह घर चला गया। कुत्ते ने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन जी-जान से किया। वह गाड़ी के चारों ओर चक्कर काटता रहा और बैल को दूर जाने से रोकता रहा ।
उधर गाड़ीवान ने कई ग्रामों की खाक छान मारी, तब कहीं जाकर, करीब बारह बजे रात्रि में, उसे एक कारीगर मिला जो गाड़ी को बना सकता था। जब वह लौटा तो उसने देखा कि शिकारी तो चला गया है, परन्तु उसका कुत्ता उसकी जगह पर गाड़ी की रखवाली कर रहा है। इससे वह बहुत प्रसन्न हुआ । गाड़ीवान ने कुत्ते को कुछ चांदी की छड़ें देकर उसे घर भेज दिया ।
वह स्वामिभक्त कुत्ता चांदी की छड़ों को लेकर जब घर पहुंचा और अपने स्वामी के चरणों में रख दिया, तब उसे देखकर शिकारी क्रोध में आकर उससे बोला - " मैंने तुझे गाड़ी की रखवाली के लिए छोड़ा था, उलटे तूने उसकी चांदी की छड़ों को चुराया है।' इतना कहकर शिकारी ने डंडा लिया और कुत्ते को इतना मारा कि वह मर गया ।
एकतर खान से रहा न गया । उसने आह भरते हुए कहा, " कितना बड़ा बेवकूफ था वह शिकारी ! उसने ऐसे भक्त कुत्ते की जान ले ली।"
"अच्छा! तो तुम ने आह भर दी !" इतना कहकर चिड़ियों की परी उड़ गई ।
"भला मैं इस प्रण को कैसे भूल सकता हूं।" एकतर खान ने अपने आप को दोषी ठहराया। वह जंगल की ओर जाने वाली पगडंडी पर मुड़ पड़ा। दूसरी बार भी उसी पुराने चीड़ के पेड़ पर से उसने चिड़िया को पकड़ा। लौटते समय रास्ते में चिड़िया ने एक अन्य कहानी सुनानी आरम्भ की।
"बहुत दिन हुए, एक गांव में एक औरत रहती थी । उसने एक बिल्ली पाल रखी थी। एक दिन वह कुएं से पानी लाने गई । उसका नन्हा सा बच्चा पालकी में सो रहा था । औरत ने बिल्ली को बालक की रखवाली का भार सौंपा और कुएं की ओर चली गई । बिल्ली पालकी के अगल-बगल में घूम-घूम कर मक्खियों और मच्छरों को बार-बार भगाती रही। ऐसे ही कुछ समय बीत गया, फिर एकाएक दरवाजे के पीछे से एक बड़ा-सा चूहा निकल कर बच्चे को काटने के लिए लपका। बिल्ली गुर्राती हुई उसे पकड़ने लगी । जब तक वह उसके पीछे भाग रही थी तब तक एक दूसरा चूहा बिल से निकला और सोते हुए बालक के कान को काट खाया । उसकी पीड़ा से बालक जोर से चिल्लाया । बिल्ली पीछे की ओर दौड़ी और देखते-देखते दूसरे चूहे को दरवाजे के पीछे दबोच दिया। इसके बाद, वह बालक के सिरहाने बैठ कर, उसके लहूलुहान कान को जीभ से चाट-चाट कर उसके दर्द को कम करने की कोशिश करने लगी । इतने में औरत पानी लेकर लौटी। उसने बिल्ली को बालक का कान चाटते हुए देखा । तब वह बहुत गुस्से में आ गई। वह बोली, 'मैंने इस बिल्ली को बालक की रखवाली के लिए छोड़ा था, परन्तु इस दुष्ट ने तो उलटे इसके कान ही को काट खाया है !' यह कहते- कहते वह बिल्ली पर टूट पड़ी और उसे मार-मार कर उसका काम तमाम कर दिया । किन्तु थोड़ी देर बाद जब उसकी नजर दरवाजे के पीछे मरे हुए चूहे पर पड़ी, जिसके मुंह में बालक के कान का टुकड़ा पड़ा था, तो वह पश्चात्ताप करती हुई बोली- 'मैंने इस आज्ञाकारी बिल्ली को मार कर बड़ी भारी गलती की है ।'
यह सुनते ही एकतर खान पुनः आह भरते हुए चिल्लाया, "यह तो बहुत बुरा हुआ ! इस बार भी वह अजीब चिड़िया अपने पंखों को फड़फड़ाती हुई पुनः उत्तर दिशा की ओर उड़ गई ।
इस प्रकार एकतर खान को तीसरी बार भी उत्तर की ओर जाना पड़ा । उसने चिड़िया को उसी चीड़ के पेड़ पर से पकड़ा। उसे लेकर वह उसी जानी-पहचानी पहाड़ी की टेढ़ी-मेढ़ी पग-डंडी से घर की ओर चला जा रहा था। इस बार भी चिड़ियों की परी ने उसे एक मनोरंजक कहानी सुनानी आरंभ की।
"एक बार एक भीषण सुखार पड़ी। वर्षा न बरसने से घास-पात तो सूखा ही साथ-साथ नदी-नाले भी सूख गये और जगह-जगह पर जमीन में दरारें हो गयीं । भूख-प्यास से बचने के लिए अरावी नाम के एक आदमी ने अपना घर छोड़ दिया । झुलसने वाली धूप में बहुत दूर निकल गया । प्यास से उसका कंठ सूखने लगा, पर पानी कहीं दिखाई नहीं दिया। इस हालत में वह कुछ और आगे गया कि प्यास के मारे वह बेहोशी की हालत में आ गया। पास में एक चट्टान थी। वह उसी के नीचे लुढ़क कर मौत का इन्तजार करने लगा । एकाएक टप टप टप- टप की ध्वनि उसके कानों में आयी । उसने उधर देखा, तो खुशी से उछल पड़ा। उससे कुछ ही दूर पर चट्टान के दर्रे से पानी की बूंदें टपक रही थी । वह तुरन्त अपने कठोते में पानी की बूंदों को एकत्र करने लगा। जब उसके काठ का बर्तन पानी से भर गया तब उसने उसे मुंह से लगाया ही था कि एक कौवा उड़ता हुआ आया और अपने डैनों से कठोते को झटका देकर सारे-का- सारा पानी उड़ेल दिया। अब तो अरावी क्रोध से लाल हो गया । उसने कहा, 'दुष्ट कौवा, तुमने स्वर्ग का दिया हुआ मेरा पानी उडेल दिया ।' फिर उसने एक पत्थर उठाया और एक ही निशाने में कौवे को जान से मार दिया। कौवा कुछ ही दूर जाकर झाड़ियों में गिरा । लेकिन कौवा जहां गिर कर भरा था, उससे कुछ ही दूर पर एक बड़ी चट्टान की जड़ से पानी का एक सोता बह रहा था । प्यासे अरावी ने उस सोते का पानी जी भर कर पिया । परन्तु वहां से जाने से पहले वह अपनी गठरी लेने के लिए पुन: उस स्थान पर आया, जहां वह बेहोशी की हालत में पड़ा था। अब उसकी प्यास बुझ चुकी थी इसलिए उसका मन शांत गया था । गठरी उठाते-उठाते उसकी नजर एकाएक उस चट्टान के ऊपर उस दरार पर पड़ी, जहां से पानी की बूंदें टपक रही थीं। ऊपर उसने जो दृश्य देखा, उसे देखता ही रह गया । चट्टान के ऊपर एक जहरीला सांप सो रहा था और उसके मुंह से विष की एक-एक बूंद टपक रही थी। उसने आह भरते हुए कहा, 'ओह ! मैंने करीब-करीब विष पी ही लिया होता । परन्तु उस बेचारे ने मेरी जान बचा ली। उसका बड़ा आभार मानता हूं।' इतना कहते-कहते उसकी आंखों से आंसू की धारा बहने लगी ।" "बेचारा कौवा ! अपनी जान देकर उसने दूसरे को जीवनदान दिया था।" एकतर खान ने आह भरते हुए चिड़ियों की परी से कहा । "आपने फिर आह भर दी ! अच्छा, अब मैं चली ।” इतना कहकर वह विचित्र चिड़िया तीसरी बार उत्तर की ओर उड़ गई ।
"मैं हारा ! सचमुच इस अजीब-सी चिड़ियों की परी को पकड़कर बंदी बनाना आसान काम नहीं है ।" यह कहते हुए एकतर खान खाली हाथ अपने महल को लौट पड़ा ।
(साभार : एशिया की श्रेष्ठ लोककथाएं - प्रह्लाद रामशरण)