चिड़िया (ओड़िया कहानी) : गोपीनाथ मोहंती

Chidiya (Oriya Story) : Gopinath Mohanty

वैशाख की शुरुआत। तीसरे पहर के साढ़े तीन बजे। ढलती धूप भी जलती-सी। सामने बाई तरफ कृष्णचूड़ा के दो पेड़। ईंट-रंगी फूलों से लदे बीच-बीच में पत्तों के झोथे। दाईं तरफ किस्म-किस्म के लाल फूलों की छावनी-सी बनाती बगेनवेलिया की लतरें। लगता है. वे भी जल रही हैं। शंकर मिश्र अन्यमनस्क ताक रहे थे, जैसे आग लग गई हो और सब-कुछ जल रहा हो। आह! कैसी विभीषिका!

अचानक याद आया, वह नन्ही चिड़िया आखिर गई कहां? महज उसकी याद से ही जैसे धूप कहीं ओट हो गई, ठंडी विरल छांह से गुजरकर सर-सर आती हवा ने छू लिया उनका शरीर, सुनाई पड़ी पहाड़ी झरने की कल-कल करती आवाज। ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के ऊपर सबुजरंगी चंदोवे में सजे हैं गुच्छे-गुच्छे लाल फूल। जगह-जगह पलाश लता के झूले। और सामने इस तरफ से उस तरफ, उस तरफ से इस तरफ उड़ रही है वह नन्ही चिड़िया। लाल चोंच, इंद्रनील रंग की चिकनी देह, उड़ते वक्त ही नजर आती वह काली-सी झलक। अचानक कहीं गुम जाती, फिर दिखती और फिर गायब।

इन दिनों उसका वही वर्ण। बारिश के दिनों में बारिश थमने पर हठात कहीं वह दिख जाती, तो नन्हे उड़ंत इंद्रधनुष-सी लगती। देह उसकी उसी वर्ण की। और शीत में जबकि दिन की रोशनी म्लान होती, उस वक्त वह लगती रक्त गुंजे के रंग की।

जब भी वह दिखती, उनके मन में विस्मय, कुतूहल और आनंद जगाती। न तो वह बैठती पल-भर, न आवाज करती, बस इधर से उड़कर पता नहीं कहां गायब हो जाती। लेकिन उसके छिप जाने के बहत देर बाद भी शंकर मिश्र को लगता रहता कि वे एक नया जीवन, एक अलग पृथ्वी, एक भिन्न अनुभूति के भीतर हैं। यहां उनके लिए सारा-कुछ आनंदमय है। यह विचित्र अनुभूति उनकी चेतना को कुछ दिनों तक आच्छन्न किए रहती और ऐसे समय रोजमर्रा का अभ्यस्त जीवन उन्हें काटने लगता, ये जो चारों तरफ के संस्कार हैं, यह जो नित्य की ऐंद्रिक अनुभूति है, वास्तव वह नहीं, बल्कि अन्य है।

यहां सिर्फ वे सपना देख रहे हैं और सब-कुछ झूठ है, पर कुछ ही दिनों बाद ऐसी दुविधा या प्रश्न की स्थिति फिर नहीं होती और जीवन सामान्य गति से आगे बढ़ने लगता। लेकिन जब किसी समस्या, जंजाल या मनस्ताप के चलते उनका मन भारी होने लगता, निराशा दबोचने लगती, लगता कि जैसे रोशनी की आखिरी लौ को बुझा देने के लिए घिरने लगा है काले बादलों से भरा अंधेरा, तब पता नहीं कैसे तो दमकने लगती उम्मीद और विश्वास जाग जाता कि ना, दूर हो जाएगी समस्या।

मन के भीतर दबी-छुपी होती उत्प्रेक्षा, कि फिर वही सुख-भरा पल अभी आ पहुंचेगा जबकि वे फिर देखेंगे उस चिड़िया का उड़ना, अपने ऐन सामने, फिर वह अलग कोई जगह, अलग कोई समय।

उसके बाद कभी फिर कहीं वह अचानक दिख जाती।

शंकर मिश्र याद करते रहते कि अतीत में कब और किन-किन जगहों में वे मिले थे उस चिड़िया से। वह कोई सामान्य चिड़िया तो नहीं थी और हर जगह मिलती भी नहीं थी। दिखती लोकालय-विहीन घने जंगलों में या फिर उन जंगलों से उड़कर आई वह विचित्र चिड़िया अचानक टकरा जाती किसी अमराई के रास्ते पर, और फिर छिप जाती और वह भी कभी-कभार। चारों तरफ निर्जनता और सन्नाटा होने पर ही वह दिखती और तब वहां कोई दूसरी चिड़िया या जीव-जंतु नहीं होते।

लेकिन कब देखा था उन्होंने, याद करने के लिए शंकर मिश्र मन-ही-मन अथक प्रत्यन करते। वे तिहत्तर के हो चुके हैं, किसी समय का हट्टा-कट्टा शरीर बार-बार बीमारियों की मार से एकदम क्षीण हो गया है। दुर्बल और अक्षम। कभी बड़े उत्साह से तरह-तरह की जटिल समस्याओं को उधेड़कर-उघाड़कर देख सकने वाला मन, अब थोड़ा भी मानसिक परिश्रम के काम में पिछड़ जाता है, थोड़ा-सा सोचने पर ही थक जाता है। स्मृति इतनी कमजोर और ढिलमल हो चुकी है कि अब अंगरची बातें भी याद नहीं आती। शंकर मिश्र कभी-कभी सोचते हैं—'यही? ना, यह भी तो नहीं! ...हां हां, यही-ना, नहीं, याद नहीं आ रहा।' सोचकर रास्ता छोड़ते, जाग-जागकर स्वप्न देखते। उसी अतीत की अनुभूति में से कुछ छलककर तिर-तिर आती ऊपर। न जाने कब की देखी उस चिड़िया का आसरा करके, सख्त मुट्ठी में जैसे उसे पकड़े वे उसी तरह स्वप्निल ध्यान में डूबे रहे और अतीत को याद करने लगे, कि कब किस जगह पर, किस परिवेश में उन्होंने उसे देखा था ? एक जगह के बाद दूसरी जगह, अपने जीवन के नाना वक्तों के ढेर-ढेर चित्र, सब उगते और बुझ जाते, ध्रुव होकर, आगे-आगे दूर दिखती रहती वह चिड़िया। दिख गए जाने कितने-सारे दृश्य, कितनी-सारी स्मृतियां, तैर गईं सुख-दुख की, तरहतरह के भावों का उल्लास दिपदिपाने लगा। जैसे असीम जल-विस्तार में अनेक लहरें। फिर दब गईं, खो गईं। फिर दिखने लगीं। कितने भाव, कितने रस, कितना सुंदर संगीत झंकृत हो उठा, फिर बुझ गया, सब सुनसान! फिर उसे कब और कहां देखा था, सोचकर आशा, आवेग कौंधने लगा। याद आ गई किसी बीते दिन की स्मृति। और उसके साथसाथ शंकर मिश्र देख गए, अपने यौवन से अधेड़पन और बुढ़ापे तक की अनेक तस्वीरें, जबकि कहीं-न-कहीं पर तो उन्होंने उस चिड़िया को देखा था।

याद आया, पहली बार दिखी थी शुरू जवानी में। जवानी के साथ-साथ शरीर में उमड़ पड़ा था तंदुरुस्ती और ताकत का ज्वार। और वह क्रमशः उसी तरह बढ़ता गया, जैसे अपने बचपन के दिनों में पुरी के समुद्र के किनारे ज्वार का तेजी से उमड़ना और फिर बढ़ते ही जाना उन्होंने देखा था। तेजी से बढ़ने लगी जवानी और उनका शरीर कितना ताकतवर, कितना कर्मठ हो गया। और मन में उस समय कितनी शक्ति, कितनी प्रफुल्लता, कैसा साहस, कैसा तेज, कितनी आशा, कितने स्वप्न ! अधेड़ उम्र भी ऐसे गुजर गई जैसे वे चिर युवा हों। किसी से भय नहीं था, किसी प्रतिबंध को मानते नहीं थे, अथक मेहनत कर सकते थे, हर पल अटूट रहती थी आशा और विश्वास। कब उस ज्वार में भाटा पड़ा, पता नहीं चला। धीरे-धीरे, सीढ़ी-दर-सीढ़ी, नीचे और नीचे। उस वक्त भी कभी कहीं पर उन्होंने देखी थी वह चिड़िया।

उसके बाद, पहाड़ी झरने की बाढ़ जैसे उतर जाती है, पीछे छोड़ जाती है फदफदाते पानी की छोटी-सी धार-जो कि कुछ ही दिनों में सूख जाएगी-वैसे ही आ गया यह समय, जैसे मलिन क्लांत सूर्यास्त और...

'आखिर किसकी है यह हाड़-त्वचामय क्षीण देह ? पतले मरियल हाथ-पैर, जैसे सचमुच निर्जीव, सिर्फ पिंडभर है, मुट्ठी-भर खाना और बीमारी, कमजोरी, अक्षमता का कष्ट भोगने के लिए। लेकिन जीभ अभी भी स्वाद का फर्क पहचानती है और उतना-भर खोजती है, कौन है यह?'

सोच रहे थे यह क्या मैं हूं? शंकर मिश्र? ओठों पर हंसी नहीं। पता नहीं, कब से मैं नहीं हंसा। पहले तो ठहाके छूटते थे। किसी वस्तु, किसी विषय में कोई दिलचस्पी नहीं, सब को परे ठेलकर, सिर्फ अपने आप को लिए-लिए, मन मारकर बैठे-बैठे वक्त काटने की इच्छा होती है। खुद को असहाय अकेले अथर्व बूढ़े की तरह सोचता हूं, 'सचमुच! कौन है यह बूढ़ा मेरे सामने? ना-ना-ना, यह मैं नहीं हूं, मैं तो शंकर मिश्र हूं, उम्मीद और उत्तेजना, बल और साहस, हंसी और खुशियों का खजाना तू गलत पते पर खोज रहा है, बुढे! यहां वह नहीं है, यहां मैं, मैं शंकर मिश्र, तू जा, जा, जा...'

आखिरी बार कब मैंने उस चिड़िया को देखा था ? कल जैसी बात लगती है। हां, पूरे सात बरस हो गए। उस वक्त यानी नीलमाधव के दर्शन को जाते-जाते, नयागढ़ के भीतर एक सुनसान जंगल में। कार डाकबंगले के अहाते में खड़ी की थी और मैं अकेले जंगल में इधर-उधर घूमते हुए चारों तरफ देख-ताक रहा था। दिन के चार का वक्त होगा। लेकिन वह वहां की रहने वाली नहीं है, जरूर बालिगुड़ा पर्वतमाला के अभ्यंतर से दशपल्ला के जंगल के रास्ते इधर आई होगी। उसी तरफ है उसका घर, और उत्तर में, दक्षिण में, जितनी भी ऊंची-ऊंची पर्वतमालाएं हैं, वहां भी। मैं फिर उन पर्वतों की ओर जाऊंगा। वहां किस्म-किस्म की धातुओं और खनिज पदार्थों को खोजने का जो काम मैंने किया था, वह काम क्या अभी भी पूरा हो सका है? और भी बहुत बाकी है। फिर जाऊंगा उसी काम के लिए, वहीं घने जंगल में फिर होगी अचानक मुलाकात उस चिड़िया से, शाल वृक्ष के नीचे निःशब्द-निस्पंद मैं खड़ा रह जाऊंगा। जैसे कभी-कभी जंगली हाथी खड़ा रहता है।

और उसे देखकर पहाड़ चढ़ने की सारी थकान भूल जाऊंगा। पसीने-भरे चेहरे को सहला रही होगी, सरसराती बहती होगी मंद हवा, वन-फूलों की गंध से भरी। और कितनी शांत, कितनी शीतल! और साथ के लोग? वे तो कितने पीछे हांफते-हांफते आ रहे थे। भला चलने में कभी कोई मेरा मुकाबला कर सका है?

दिख रही थीं लहरों की तरह पर्वतमालाएं। पहाड़ के ऊपर पहाड़, उसके ऊपर और उसके ऊपर, विमान की तरह सजे।

मन में एक उल्लास की ऊष्मा।

आंख फाड़कर, शंकर मिश्र बाहर की परछी पर कुर्सी पर बैठे दीवार से टिककर ढलंग गए थे।

(अनुवाद : प्रभात त्रिपाठी)

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