छोटे शहरों के जीवन की लय (निबंध) : केदारनाथ सिंह

Chhote Shahron Ke Jeevan Ki Laya (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh

छोटे शहरों के जीवन की लय भारतीय जीवन की अपनी लय है। एक समय था जब साहित्य इन्हीं शहरों में पलता था। तब मैथिलीशरण गुप्त चिरगाँव में रहकर अपने समय के काव्य की धुरी बन सकते थे और माखनलाल चतुर्वेदी खंडवा में रहकर अपने आपको 'भारतीय आत्मा' कह सकते थे। वह समय था जब सांस्कृतिक धरातल पर केन्द्र के बजाय हाशिया ज्यादा महत्त्वपूर्ण था और हिन्दी के प्रचार-प्रसार में एक स्वाभाविक बहु- केन्द्रिकता थी । इन छोटे-छोटे केन्द्रों का टूटना या कहीं पीछे छूट जाना स्वाधीनता के बाद के सांस्कृतिक जीवन की सबसे बड़ी दुर्घटना है। अर्थ और राजनीति के समानान्तर संस्कृति के क्षेत्र में भी केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है और वह केन्द्रीयता जो राजधानी दिल्ली को कभी प्राप्त नहीं थी, जाने-अनजाने उसे मिलती गई है। नतीजा यह है कि राजनीति की तरह साहित्य के क्षेत्र में भी बड़े शहरों और छोटे शहरों के बीच की सांस्कृतिक दूरी बढ़ी है। यह एक ऐसी परेशान करनेवाली वास्तविकता है, जिसकी ओर कम ध्यान दिया गया है और विचार-विमर्श के दायरे में उसे लाने की कोशिश तो बिल्कुल नहीं की गई है।

अपवादस्वरूप कुछ छोटे शहरों या कस्बों को छोड़ दिया जाए (खासतौर से बिहार और मध्यप्रदेश में- जहाँ अलग-अलग कारणों से सांस्कृतिक जागरूकता अधिक रही है) तो पूरे हिन्दी क्षेत्र में साहित्य-लेखन के दो अलग-अलग खाने बन गए हैं। एक ओर छोटे शहरों का साहित्य है, जिनके अपने कवि हैं, अपने कथाकार और ढूँढ़ा जाए तो उनके अपने आलोचक भी मिल जाएँगे। वह रचना की एक ऐसी दुनिया है, जिसका समकालीनता की उस अवधारणा से कुछ लेना-देना नहीं, जिसका विकास बड़े शहरों में हुआ या हो रहा है। इस प्रकार के लेखन की एक खास बात यह है, वह पश्चिम द्वारा प्रस्तावित या आविष्कृत शैलियों या रूपों को अपना मॉडल नहीं मानता, बल्कि उनके बारे में जानना जरूरी भी नहीं समझता। वहाँ सारा ध्यान लोकरुचि पर होता है और एक कवि के लिए इस लोकरुचि की कसौटी वे श्रोता होते हैं, जो कवि-सम्मेलनों में उन्हें सुनने आते हैं।

इधर हिन्दी के क्षेत्र के छोटे शहरों में एक चुपचाप नया आन्दोलन भी आकार ग्रहण करने लगा है और वह है स्थानीय भाषाओं (जिन्हें अब तक बोलियाँ कहा जाता था ) का बढ़ता हुआ दबाव। इसका एक परिणाम यह है कि विभिन्न क्षेत्रों के बहुत से हिन्दी - रचनाकार धीरे-धीरे द्विभाषिकता की ओर बढ़ रहे हैं। पहले नागार्जुन या राजकमल चौधरी जैसे एकआध नाम ही ऐसे थे, जो समान रूप से हिन्दी और अपनी मातृभाषा, दोनों में लिखते थे। अब ऐसे हिन्दी लेखकों की एक अच्छी खासी सूची बनाई जा सकती है, जो हिन्दी और मातृभाषा, दोनों को समान रूप से अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाकर चल रहे हैं। कई बार लग सकता है कि उनके लेखन का पलड़ा मातृभाषा की ओर कुछ अधिक ही झुकता-सा दिख रहा है। मैं इस स्थिति को दो तरह से देखता हूँ-एक, अब तक भाषा न समझी जानेवाली बोलियों के अभ्युदय के रूप में और दो, हिन्दी की बढ़ती हुई केन्द्रोन्मुखता की प्रतिक्रिया के रूप में।

इसका एक परिणाम यह हुआ है कि छोटे शहरों के साहित्यिक आयोजनों का स्वरूप अब द्विभाषी होने लगा है। भारत जैसे बहुभाषी देश में ऐसा होना स्वाभाविक है। पर एक अन्य बात यह देखने में आई है कि इन छोटे शहरों या कस्बों के स्थानीय श्रोता या पाठक का जैसा रागात्मक जुड़ाव अपनी स्थानीय भाषा की रचना के साथ होता है वैसा राष्ट्रभाषा की रचना के साथ नहीं। एक हिन्दी के रचनाकार को यह स्थिति थोड़ा बेचैन कर सकती है, पर मेरा खयाल है कि इसके भीतर से जो संकेत निकलते हैं, पर अलग से विचार करने की ज़रूरत है। इस स्थिति का सबसे तीखा अहसास मुझे हाल ही में सम्पन्न हुई एक कवि गोष्ठी में हुआ। यह गोष्ठी बलिया-छपरा जैसे किसी छोटे शहर में नहीं, देश की राजधानी में स्थित एक विश्वविद्यालय में हुई थी और वह विशुद्ध रूप से हिन्दी - कविता की गोष्ठी थी। उस अतिआधुनिक विश्वविद्यालय के मंच पर छात्रों के बीच से एक युवा कवि मंच पर आया और पूरी सहजता के साथ एक भोजपुरी कविता पढ़ी। वहाँ उपस्थित कवियों और अधिकांश श्रोताओं के लिए यह भी एक विलक्षण अनुभव था कि पूरे समुदाय ने (जिनमें से बहुत-से अन्य भाषाभाषी भी थे) उसे अद्भुत तन्मयता के साथ सुना। यह उस, भाषा न समझी जानेवाली बोली की अपनी ताजगी थी और उसकी अन्तर्निहित शक्ति, जिसके साथ हिन्दी का कभी गहरा जुड़ाव था, पर जो पिछले कुछ वर्षों में धीरे-धीरे कम होती गई है। जिस अनुपात में यह दूरी बढ़ी है, लगभग उसी अनुपात में केन्द्र और स्थानीयता के बीच का साहित्यिक अन्तराल भी बढ़ता गया है। यह अलक्षित अन्तराल अब इस हद तक बढ़ चुका है कि विभिन्न जनपदों की सर्जना के प्रतीक पुरुष और साहित्यिक नायक भी अपने सन्दर्भों से उभरकर सामने आने लगे हैं।

यहाँ मैं एक छोटा-सा उदाहरण देना चाहूँगा। उत्तर प्रदेश का बलिया जिला साहित्यिक हलकों में हजारीप्रसाद द्विवेदी के नाम से जुड़ा है। मैथिलीशरण गुप्तजी और द्विवेदीजी के बीच बलिया को लेकर जो मजाक हुआ था, वह हिन्दी की स्मृति का हिस्सा बन चुका है। पर कभी आप बलिया शहर में जाएँ तो पाएँगे कि उसके केन्द्र (जिसे उस शहर का चौक कहा जाता है) में जिस साहित्यकार की प्रतिमा स्थापित है, वह आचार्य द्विवेदी की नहीं, जगदीश ओझा 'सुन्दर' की है। 'सुन्दर' जी आयु में द्विवेदीजी से छोटे थे और उनका निधन भी बाद में हुआ। पर उस शहर के लोगों ने सुन्दरजी की प्रतिमा के लिए यदि शहर की सबसे महत्त्वपूर्ण जगह चुनी तो ऐसा उन्होंने किसी अज्ञानवश नहीं किया। वस्तुतः इस ऊपर-ऊपर दिखाई पड़नेवाले अनौचित्य के पीछे मुझे एक गहरा तर्क दिखाई पड़ता है। सुन्दरजी जीवन भर उस शहर के लोगों के बीच रहे। उन्होंने उन्हीं की भाषा में उनके सुख-दुख के गीत गाए और एक दिन उन्हीं के बीच चुपचाप दम तोड़ दिया। अपने समय में वे उस शहर की स्थानीय सृजनेच्छा के प्रतीक बन गए थे। आचार्य द्विवेदी तो सम्पूर्ण हिन्दी के थे अर्थात केन्द्र के, पर हाशिए के लोग यदि उसके साथ अधिक आत्मीयता महसूस करें, जो हाशिए पर छूट गया था तो इसमें असंगति या अनौचित्य कहाँ है ? मैं इस छोटी-सी घटना को छोटे शहरों की सांस्कृतिक सोच के प्रतीक के रूप में देखता हूँ।

यह वही बलिया है, जहाँ भारतेन्दु ने अपना वह प्रसिद्ध भाषण दिया था, जो अब आधुनिक साहित्य के इतिहास का ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुका है। वह भाषण किसी महाविद्यालय के प्रांगण या टाउन हॉल में नहीं, बलिया शहर के पास लगनेवाले पशु मेले में दिया गया था। एक आधुनिकता के उन्नायक सर्जक के द्वारा अपने सबसे प्रसिद्ध साहित्यिक उद्घोषणा के लिए बलिया के पशु मेले का चुनाव, एक ऐसी ऐतिहासिक घटना के रूप में दिखाई पड़ता है, जिसके निहितार्थ की व्याख्या अब तक नहीं की गई है। मुझे स्थान के इस चुनाव और उसके पीछे काम करनेवाली चिन्ताधारा के भीतर, भारतीय आधुनिकता का एक खास चरित्र लक्षण दिखाई पड़ता है । भारतेन्दु के देखने का यही ढंग था और उनके निकट आधुनिकता के उस मानचित्र में केन्द्र और हाशिए की बराबर की साझेदारी थी। मुझे लगता है कि सांस्कृतिक विकास के धरातल पर (और बेशक अन्य धरातलों पर भी) वह सन्तुलन पूरी तरह गड़बड़ा गया है।

आज से कोई चालीस-पचास वर्ष पहले तक स्थिति यह थी कि बड़े साहित्यिक केन्द्रों में साहित्य-सर्जन के जो 'मॉडल' खोजे या तैयार किए जाते थे, छोटे शहर या कस्बे उनकी ओर उत्सुकता से देखते थे और उनके साथ एक रचनात्मक साझेदारी कायम करने की कोशिश करते थे। अब वे प्रायः ऐसा नहीं करते क्योंकि बड़े केन्द्रों या कहें तो केन्द्र मात्र के प्रति उनकी उदासीनता बढ़ी है। फलतः वे अपनी सर्जनशीलता के स्थानीय सन्दर्भों की ओर अधिक झुकने लगे हैं। परिवर्तन की गति वहाँ धीमी जरूर है, उन स्थानों की हिन्दी जनभाषा के साथ एक नए सम्बन्ध की तलाश की प्रक्रिया में जुटी है। शायद इस जुड़ाव और टकराव के भीतर से किसी नई सर्जनात्मक चेतना का उदय हो ! कहना चाहिए कि अपने तथाकथित पिछड़ेपन के बिम्ब को किसी हद तक छिन्न-भिन्न करते हुए, हिन्दी क्षेत्र के छोटे शहर और कस्बे अपनी केन्द्र-निरपेक्ष पहचान को अर्जित करने के एक मूक संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं।

('कब्रिस्तान में पंचायत' में से)

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