Chhote-Chhote Sawal (Novel) : Dushyant Kumar

छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

हॉस्टल (अध्याय-8)

पूरी जुलाई बीत चुकी थी और अब तक केवल बूँदा बाँदी ही हुई थी। खुलकर बारिश एक दिन भी नहीं हुई।

लाला हरीचन्द की बैठक में बैठे कमेटी के मेम्बर वातावरण की उमस पर बातचीत कर रहे थे। कॉलेज खुलने के बाद से कॉलेज की मैनेजिंग कमेटी की यह दूसरी बैठक थी जो लाला हरीचन्द ने अपने घर पर बुलाई थी। इसमें बाहर के विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल खोलने और उसकी व्यवस्था करने के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए जाने थे। कमेटी के तेरह मेम्बरों में से आठ आ चुके थे, औरों का इन्तज़ार था।

आख़िर जब काफ़ी देर हो गई और कोई नहीं आया तो कमरे में बड़े से तख़्त पर बैठे सभी लोग पहलू बदलने लगे। कोई ख़ास गर्मी न थी, फिर भी लाला . हरीचन्द की बग़ल में बैठे गनेशीलाल ने यह बेचैनी महसूस की। कालीन के सिरे पर लगी मसनद पर कोहनी टिकाते हुए झुककर बोले, “हाँ, तो लालाजी, कोरम पूरा हो गया, अब आप अपना व्याख्यान सुरू करो।”

मूढ़ों पर बैठे सदस्यों ने इत्मीनान की साँस ली |

लाला हरीचन्द फ़ौरन मसनद से आगे खिसक आए और दोनों हाथों के पंजों को एक-दूसरे में फँसाते हुए गम्भीरता से बोले, “भय्यो ! आपको याद होवैगा कि पिछली बार की मीटिंग में आप सभी की उपस्थिति में यहाँ एक हौस्टिल खोलने की बात उट्ठी थी। अब उसी बात पै हमें बिचार करना है और उसे किरया में लाना है। आप तो जान्नै ही हैं कि बाहर के बच्चों को यहाँ कित्ती तकलीफ़े हैं ! फूल से बच्चे यहाँ आ- आकै कुम्हला जावै हैं ।" और इतना कहकर वह रुक गए।

कमरे में व्याप्त हल्की-सी उमस गहरा गई। लालाजी की प्रश्न- दृष्टि सबके चेहरों से टकराती, करुणा उपजाती हुई चली गई । पल-भर ठहरकर चौधरी नत्थूसिंह ने कहा, “बेशक! बेशक! !” और वह लालाजी की बात का समर्थन करते हुए आगे कहने लगे, “पिछले साल एक लड़का हैजे से मर गया, मगर हमें उस वक़्त खबर हुई जब उसका किरया - करम भी हो चुका था। अगर हमारे यहाँ कोई हौस्टिल होता तो हौस्टिल का सुपरिंटेंडेंट फ़ौरन उसकी मुनासिब दवा-दारू का इन्तज़ाम करता और हो सकता है कि लड़का बच भी जाता ।” - और उन्हें अपने लड़के का ध्यान आ गया जिसकी होम्योपैथी की प्रैक्टिस चल नहीं रही थी ।

गाँवों से पढ़ने आनेवाले लड़के हॉस्टल के अभाव में शहर में रहते थे। दस-बारह रुपए महीने पर वहाँ अच्छे कमरों की कमी न थी जिन्हें तीन-चार लड़के मिलकर बाँट लेते थे । आटा-दाल और घी वे घर से लाते ही थे और रोटियाँ किसी ग़रीब ब्राह्मणी को तीन-चार रुपए देकर बनवा लिया करते थे ।

खाते-पीते घरों के कुछ लड़के ऐसे भी थे जो आटे - दाल के झंझट से बचने के लिए कल्लू के ढाबे पर खाना खाया करते थे । चौधरी नत्थूसिंह की बात पर गनेशीलाल ने पिछले साल की घटना याद करते हुए कहा, “अरे, वो लड़का ! उसे तो भय्या कल्लू के ढाबे के खाने नै मार दिया। मेरा तो अकीन है कि उसके खाने का पिरबन्ध ठीक होत्ता तो उसे हैज्जा होइ नईं सकै था ।”

गनेशीलाल ने यत्नपूर्वक चेहरे पर उभर आए दर्द के चिह्नों को वातावरण में सजाते हुए आगे कहा, “सुबह - सबेरे का बखत है, मैं सच्ची कहूँ हूँ, अगर मेरा बस चलै तो मैं कल्लू के ढाब्बे में दिन-दहाड़े आग लगा दूँ। थोड़े से पैस्सों के लिए लौंडों की ज़िन्दगी से खेलना कोई अच्छी बात है ?"

कई मेम्बरों की गर्दनें गम्भीरता से समर्थन में हिलीं, मगर लालाजी ने महसूस किया कि कुछ को यह बात अच्छी नहीं लगी है। विषय को आलोचनात्मक एवं बहस का रूप न मिल जाए, इस गरज़ से लालाजी ने उसे अपने हाथ में ले लिया और बोले, “तो बच्चों का खाना-पीना, उनकी दवा-दारू और लिखाई - पढ़ाई के ये सारे प्रस्न तब तक हल नईं हो सकते जब तक हमारे यहाँ कोई हौस्टिल न हो । आज सहर में लड़के जिधर - तिधर मारे-मारे फिरैं हैं । दुगने-तिगने किराए पै कमरे क्कै रहवै हैं । न कोई खाने का ढंग है, न पीने का; न चरित्र है, न सिच्छा । ये भला हमें अच्छा लगै है ...” और लालाजी अपनी बात की पुष्टि में कमेटी के कर्तव्यों पर भाषण देने के मूड में आ गए।

ज्वाइंट सेक्रेटरी गुलज़ारीमल ने लालाजी के भाषण से घबराकर फ़ौरन कहा, “तो हॉस्टल खोल दो ना, इसमें परेशानी क्या है ? प्रस्ताव तो पहले ही पास हो गया है ।" उसे लालाजी की यह बात बहुत नापसन्द थी कि वह एक ही बात को लेकर बैठ जाते और उस पर भाषण शुरू कर देते ।

गनेशीलाल धोती के पल्ले से हवा करने लगे । नत्थूसिंह भी माथे का पसीना पोंछते हुए कहीं और खोए थे। लालाजी को ही गुलज़ारीमल की बात का जवाब देना पड़ा। बोले, “भय्या गुलज़ारीमल, किसी भी काम का करना इत्ता आसान नई होत्ता ! उसमें बड़े-बड़े पेंच आवैं हैं ।” फिर गनेशीलाल की ओर सहारे के लिए ताकते हुए उन्होंने कहा, “क्यों भय्या गनेसीलाल, तुम्हारी राय क्या कहवै?".

गनेशीलाल ने फ़ौरन विषय को चतुरता से पकड़ लिया, बोले, “मैं तो गुलज़ारीमल की बात से सहमत हूँ, लालाजी ! जब एक काम कू करना ही ठहरा तो उसमें देर काहे की ? फ़ौरन कर दो। मैं इत्ती देर से येई सोच रया था कि हॉस्टिल के लिए कौन-सी जगह मौजूँ रहवैगी ?”

लाला हरीचन्द ने मधुर मुस्कान से चौधरी नत्थूसिंह की ओर देखा और सन्तोष की साँस छोड़कर चुप हो रहे । चौधरी नत्थूसिंह ने धीरे से पूछा, “तो कोई जगह आई समझ में ?"

“मैं तो समझैँ हूँ,” गनेशीलाल ने नत्थूसिंह की बात का उत्तर देते हुए कहा, " तुम्हारे मकान की बरोब्बर में लाला हरीचन्द का जो घेर है, उससे बढ़िया जगह सारे शहर में दूसरी ढूँढ़े नई मिलने की । "

लालाजी ने कोई राय जाहिर नहीं की । तख़्त पर बिछे कालीन पर नज़रें गड़ाए वह सिर्फ गर्दन हिलाते रहे।

चौधरी नत्थूसिंह ने फ़ौरन सोचते हुए कहा, “हाँ ऽऽ, जगह तो बुरी नहीं है मेरे ख़याल से । क्यों गुलज़ारीमल... ?”

गुलज़ारीमल ने प्रतिवाद में हाथ उठा दिया, बोला, “आप उस अस्तबल की साल पहले घोड़े बँधा करते थे ! उसमें इतने पिस्सू और इतने मच्छर होंगे कि लड़के अगले ही दिन बोरिया बिस्तर बाँधते नज़र आएँगे।”

प्रश्न जितना सहज और सरल था उत्तर उतना ही कटु और अनपेक्षित। अतः सहसा गनेशीलाल और नत्थूसिंह को गुलज़ारीमल की बात का कोई उचित उत्तर नहीं सूझा। हाँ, लाला हरीचन्द उसकी आपत्ति के ढंग से समझ गए कि वह अपने ही किसी मकान में हॉस्टल खोलने का इच्छुक है।

वास्तव में लाला हरीचन्द के पास आने से पहले यह घेर साहनपुर रियासत का एक अस्तबल ही था। मगर रियासतों के खत्म होने के बाद लाला हरीचन्द ने इसे राजा साहब साहनपुर से सस्ते दामों में ख़रीद लिया था। पहले उनका इरादा इसमें खँडसाल डालने का था, पर इधर भट्ठे का काम बढ़ जाने की वजह से उन्हें खँडसाल का इरादा फ़िलहाल छोड़ देना पड़ा । और अब गनेशीलाल और नत्थूसिंह के सहयोग से वह इसमें हॉस्टल खोलना चाहते थे। अतः एक क्षण रुककर बोले, “ भय्या गुलज़ारीमल, जहाँ तक पिस्सुओं और मच्छरों का सवाल है, इत्ता मैं ज़रूर कहूँगा कि अब लो सारी गर्मियों, मैं वहीं सोया हूँ और मुझे एक भी मच्छर नहीं लगा। हाँ, मकान की अच्छाई-बुराई के बारे में मैं कुछ नई कहूँ, वो गनेसीलाल और चौधरी साहब ही बता सकै हैं । "

लाला हरीचन्द की बात से चौधरी नत्थूसिंह को इशारा मिल गया कि बात किसी तरह से करनी चाहिए। खुद लालाजी ने एक बार गुलज़ारीमल की अस्तबलवाली बात का विरोध नहीं किया था, अतः चौधरी नत्थूसिंह ने उत्तर का सूत्र पकड़ते हुए कहा, “देखो भई गुलज़ारीमल, कोई जगह अस्तबल होने से अच्छी या ख़राब नहीं कही जा सकती । हौस्टिल के साथ हमें बहुत-सी चीजें देखनी पड़ती हैं। जैसे यह कि इमारत में लड़कों के खेलने-कूदने के लिए सहन है या नहीं। कमरे खुले हुए और बड़े-बड़े भी हैं या नहीं। इसके अलावा उसे शहर से दूर और कॉलिज के पास होना चाहिए। और इसी ख़याल को लेकर मैंने शीलालजी की तजवीज़ को मान लिया था। वैसे आपकी नज़र में कोई और ऐसी जगह हो तो बेशक बताओ... !”

गुलज़ारीमल के सारे मकान शहर के बीचोबीच थे और उनमें इतना बड़ा सहन नहीं था । अतः चौधरी नत्थूसिंह के तर्क के सामने उसे विवश एवं निरुत्तर होना पड़ा।

गनेशीलाल ने उसे चुप होते देख और चुप करने की गरज से कहा, “लालाजी के मकान में एक कमी मुझे अखरै है कि कमरों के दरवज्जों पर फाटक नई हैं । पर हाँ, कमरे इत्ते बड़े-बड़े हैं कि उनमें तीन-तीन, चार-चार लौंडे रह सकै हैं । यही एक खूब्बी ऐसी है जिसका सारे शहर में जवाब नईं । ”

गुलज़ारीमल ने सोचा कि एक घोड़े के बँधने की जगह में तीन-चार लड़के तो बँध ही सकते हैं। मगर वह बोला कुछ भी नहीं । गनेशीलाल ने परिस्थिति को अनुकूल देखकर अन्य मेम्बरों से उनका राय माँगी । और एकमत से लाला हरीचन्द के घेर में हॉस्टल खोलने की बात पक्की हो गई।

लाला हरीचन्द के मुख पर वैसी ही सन्तोष की रेखाएँ उभर आईं जैसी पन्द्रह साल पहले उस समय उभरी थीं जब अपने स्वर्गीय पिता द्वारा बनवाई गई धर्मशाला में उन्होंने हिन्दू-स्कूल की स्थापना की थी । तब उन्होंने भावावेश में मुस्लिम -स्कूल. के जवाब में उसका नाम हिन्दू-स्कूल प्रस्तावित किया था, मगर आज उस भूल के लिए उन्हें थोड़ा पश्चात्ताप है। वह कुछ समझ से काम लेते तो स्कूल का नाम अपने पूज्य पिताजी के नाम पर गुलाबचन्द स्मारक हाईस्कूल रख सकते थे। उससे प्रतिमास किराए की एक मोटी रक़म भी वसूल कर सकते थे। मगर तब उन्हें क्या पता था कि आस-पास के गाँवों में स्कूल को चन्दे और ज़मीन के रूप में इतना सहयोग मिलेगा कि सात साल के अन्दर-ही-अन्दर यह हाईस्कूल इंटर कॉलेज हो जाएगा ! फिर भी उन्होंने कॉलेज के संविधान में यह धारा जुड़वा ली थी कि यह इमारत स्कूल को दान देने के प्रतिफलस्वरूप लाला हरीचन्द आमरण इसकी व्यवस्थापक समिति के अध्यक्ष रहेंगे ।

अपनी दूसरी इमारत को कॉलेज हॉस्टल के लिए देते समय उन्हें खुशी थी कि वह इस बार अपनी पिछली आर्थिक भूलों को नहीं दोहरा रहे हैं। अतः चेहरे पर यथासम्भव कोमलता और वाणी में मृदुता लोकर बोले, “जब पंचों ने फ़ैसला कर लिया है तो मैं क्या बोल्लू ? रई भाई गनेसीलाल की बात, सो मैं आज ही बढ़ई कू बुलबाकै सारे कमरों पै किवाड़ों की जोड़ी फिट करने का ऑर्डर दिए दूँ हूँ।” गनेशीलाल तेज़ी से बोले, “मगर लालाजी, किराए की खास बात तो छूट्टी ही जा रई है । उसे भी तो खोल दो ।”

फ़ौरन लालाजी कानों पर हाथ रखकर खड़े हो गए, बोले, “भय्या गनेशीलाल, अब इस मामले में मुझसे कुछ मत बुलवाओ। मकान तुम्हारा देखा-भाला है। 'तुम्हें इख्तियार पूरा है । जो रजिस्टर में लिख दोगे, मुझे मंजूर होवैगा ।”

गनेशीलाल ने और मेम्बरों की ओर देखा तो वे सब भी सहमति की मुद्रा में दिखाई दिए। इसी स्थिति को भाँपते हुए चौधरी नत्थूसिंह ने कहा, “गनेसीलालजी, आप किस संकोच में पड़े हैं ? आप हमारे कॉलिज के सेक्रेटरी भी हैं और खजांची भी । क़ानून के हिसाब से सेक्रेटरी को ऐसे मामलों में पूरा हक़ होता है कि वह जो किराया चाहे फ़ाइल पर लिख दे। इसमें तो मेम्बरों की राय की भी ज़रूरत नहीं है।"

क़ानून के मामले में चौधरी साहब की राय अन्तिम होती है क्योंकि उन्होंने मुख्तारी की है।

इसी के बाद मीटिंग ख़त्म हो गई। सौजन्यवश चौधरी नत्थूसिंह की बात का किसी ने विरोध नहीं किया, किन्तु कुछ मेम्बर रजिस्टर में दस्तखत करते-करते भी यह ज़रूर सोच रहे थे कि अगर किराया तय करने का अख़्तियार सेक्रेटरी को खुद ही है तो फिर मीटिंग बुलाने की आवश्यकता ही क्या थी ! बाहर निकलते हुए ज्वाइंट सेक्रेटरी गुलज़ारीमल भी हैरान थे कि लाला हरीचन्द ने कौन-सी पुट देकर गनेशीलाल और नत्थूसिंह को एक जगह कर दिया। वह कौन-सा सूत्र था जिसके कारण लड़ने-भिड़ने और एक-दूसरे से सख़्त नफ़रत करने के बावजूद दोनों ऐसी बातों पर हिर-फिरकर एक के एक हो जाते हैं।

सब चले गए तो गनेशीलाल रजिस्टर सँभालते हुए बोले, “सबके दस्तखत तो हो ही गए हैं, अब आपका जित्ता मन हो उत्ता किराया लिख लो।" और फिर उन्होंने रजिस्टर खोलकर उसमें अपने भी दस्तख़त कर दिए।

लालाजी के अधरों की मुस्कान कानों तक फैल गई, बोले, “भय्या गनेसीलाल, तुम ज़रा रुकियो । मैंने उससे ठंडयाई बनवाने कू कया था । देक्यूँ हूँ बन गई क्या ?” और बैठक में गनेशीलाल को अकेले छोड़कर वह हवेली में चले गए ।

थोड़ी-सी गर्मी, अकेले गनेशीलाल और पीठ पीछे मसनद । बिलकुल ऐसी ही हालत में वह सुबह अपनी हवेली में बैठे थे। लाला हरीचन्द खानदानी रईस थे मगर गनेशीलाल भी पिछले सात-आठ सालों से शहर के बड़े रईसों में गिने जाने लगे थे। उन्होंने भी अपनी बैठक को बिलकुल लाला हरीचन्द की बैठक के डिज़ाइन पर बनवाया था । इसी प्रकार हवेली से लगी हुई तिदरी, उसमें एक बड़ी-सी चौकी और उस पर पूरे साइज़ की जाज़म, चाँदनी और कालीन, और दीवार से लगी हुई मसनदें । वह सोचने लगे, उनकी बैठक इससे किस बात में कम है ?

फिर उनकी विचारधारा कपड़े की दुकान की ओर बह निकली।

- नई दुकान में बिजली का पंखा फिट होना चहिए - उन्होंने अपने आपसे कहा और उनके सामने अपनी नई कपड़े की दुकान नाचने लगी। कल पहली बार उस दुकान पर बैठकर कैसे सुख और गौरव का अनुभव हुआ था उन्हें !

हालाँकि बूढ़े बाप लाला पचकौड़ीमल यह सब पसन्द नहीं करते, मगर शीलाल को बढ़ती हुई प्रतिष्ठा में हल्दी - रँगी दाग़दार धोतियाँ पहनते हुए अच्छा नहीं लगता ।

“गनेसी, ये मैं किया सुन रिया हूँ ? तेरा दिम्माग खराब हो गया है ? तुझे पता नईं सुफेद कपड़ों की चौंध से लछमीजी दूर भाग्गे हैं ।”

गनेशीलाल को हँसी आ गई, बप्पा की बात याद करके । भला लछमीजी कहाँ लो भागेंगी ? और अगर गन्दे कपड़ों से ही लछमीजी को प्रेम है तो शहर में गन्दे कपड़े पहननेवालों की क्या कमी है ? फिर बप्पा कौन कम गन्दे कपड़े पहनते थे ? उनके पास तो लछमीजी कभी फटकी भी नहीं। ये तो कहो जब से खुद दुकान का काम सँभाला तभी से घर की काया पलट हुई ।

वह मन-ही-मन अतीत की तुलना अपने वर्तमान से करने लगे। पहले शहर में पचकौड़ीमल को कोई जानता भी न था । बिरादरी में कोई इज़्ज़त न थी, इसीलिए गनेशीलाल के रिश्ते तक की किसी ने बात न पूछी, मगर अब ... ?

अब उनकी पक्की हवेली है । एक पसरहट्टे की और दूसरी कपड़े की दुकान है । लेन-देन का काम और खंडसाल का व्यापार है । लक्ष्मीजी की कृपा है.....

...बप्पा सोचते हैं, गन्दे कपड़े पहनने से ही लछमीजी खुश हो जाती हैं.... मगर गनेशीलाल जानते हैं कि पैसा पैसे को खींचता है। इसलिए दुकान सँभालते ही गनेशीलाल ने शानदार हवेली बनवाई, सत्यनारायणजी का मन्दिर बनवाया और मंडी में एक प्याऊ बिठलाई । और इस सबके कारण अच्छे-अच्छे घरों से छोटे भाइयों के रिश्ते आए तो उन्होंने दस-दस पन्द्रह - पन्द्रह हज़ार का दहेज लेकर उनसे खँडसाल और लेन-देन का काम शुरू किया था ।

आज ये सब बातें पुरानी हो गई हैं। घर में अब सुख और शान्ति है। आज्ञाकारी भाइयों की बहुएँ और बच्चे हैं जो उनकी इज़्ज़त करते हैं। शहर में लोग उन्हें 'सिकट्टरी साहब' के नाम से पुकारते हैं - इसी कॉलिज की बदौलत ।... मगर एक ज़माना वह भी था कि इसी कॉलिज की बदौलत दोनों छोटे भाई उनसे गाली-गलौज करने लगे थे। पचकौड़ीमल ने अपने दोनों छोटे लड़कों को लाख समझाया था कि भई, रुपया मुझसे पूछकर लिया गया है । पर वे यही रट लगाए थे कि इन्हें क्या हक था जो इन्होंने सिकटरी बनने के लालच में पाँच सौ रुपए की रकम कॉलिज को दान कर दी । 'साझे के माल में हकतलफ़ी, बेईमानी, चोरी... उन्होंने और भी न जाने क्या-क्या कहा था । और बात बहुत बढ़ गई थी...'

- बस, वही एक घटना याद है गनेशीलाल को, जब भाइयों ने उनके सामने ज़बान खोली थी। अब तो वह खुद कहते हैं कि पैसा कमाना सबको आता है मगर खर्च करना सिर्फ़ भाई साहब को आता है । आज इसीलिए दोनों भाइयों की सारी कमाई गनेशीलाल के पास रहती है और एक-एक पैसा उनसे पूछकर खर्च किया जाता है ।

.... इतनी इज़्ज़त आज के ज़माने में कौन भाई करता है ? - लोग कहते हैं । लोग यह भी कहते हैं कि 'आगे नाथ न पीछे पगहा, गनेशीलाल सारी कमाई को कौन छाती पर रखकर ले जाएगा ? सब दोनों भाइयों के ही तो लिए हैं ।' मगर भाई कुछ नहीं बोलते। दोनों भाइयों की पत्नियों में भी जेठजी की ख़ातिर करने के लिए होड़-सी लगी रहती है। दिन-भर वे चाहे बिल्लियों की तरह लड़ती रहें, परन्तु गनेशीलाल के घर में घुसते ही एकदम शान्त हो जाती हैं ।

'जिस घर में फूट होगी
वो घर तबाह होगा ।'

गनेशीलाल अक्सर इस शेर को गुनगुनाया करते हैं। कपड़े की नई दुकान से आकर बैठक में बैठे-बैठे आज सुबह वह यही शेर गुनगुना रहे थे। पीठ पीछे एक गोल-सा मोटा तकिया लगा था, बिलकुल ऐसा ही, पाँव पर रखा पाँव हिल रहा था और उनकी आँखें बन्द थीं। तभी उन्हें ख़्याल आया कि अरे आज तो मीटिंग है कमेटी की, और उन्होंने आँख खोल दीं।

तभी मँझले भाई मोहन को अपने सामने बैठा देखकर गनेशीलाल ने सँभलकर पूछा, “हाँ भई, बोल कित्ता पैस्सा चाहिए ? मगर ये सोच ले कि तेरे खाते में सोहन बहुत कम पैस्सा है और तू बहोत फिजूलखर्च होत्ता जा रया है ! "

गनेशीलाल दोनों भाइयों की आमदनी और खर्च का हिसाब अलग से एक बही खाते में रखते थे। उसी को मोहन की ओर बढ़ाते हुए बोले, “ले, तू खुद देख ले जो मैं झूठ कै रया हूँ।”

और जब मोहन ने बहीखाते की ओर नज़र भी नहीं उठाई तो गनेशीलाल को उस पर दया आ गई, बोले, “अच्छा बता कित्ता चाहिए ? मगर देख, पैस्से कू देख-भाल खर्च किया करें।" और उनका हाथ गल्ले की ओर बढ़ चला।

मोहन बोला, “जी, मैं पैसा लेने नहीं आया ।”

“फिर ?” गनेशीलाल ने अचरज से कहा, जैसे पैसे के अलावा और किसी काम से उनके भाई उनके पास आते ही न हों ।

“मैं कहने के लिए आया था कि..." मोहन को अपनी बात पूरी करने के लिए उपयुक्त शब्द नहीं मिले।

“हाँ, हाँ, बोल !” गनेशीलाल ने प्यार से कहा । और उनका स्नहेभरा आश्वासन पाकर मोहन ने जैसे-तैसे अपनी प्रार्थना उनके सामने रख दी। उसका कहना यह था कि जब गनेशीलाल की नज़र में दोनों भाई एक समान हैं तो उन्होंने अकेले सोहन को ही पसरहट्टे की दुकान क्यों दी ? क्या उसकी आमदनी पर दोनों भाइयों का बराबर हक नहीं है ?

दरअसल कपड़े की दुकान खुल जाने के बाद से गनेशीलाल ने पसरहट्टे की दुकान पर सोहन को बिठला दिया था, और यद्यपि बात ज़रा-सी थी मगर मोहन को डर था कि जाने भाई साहब की इस पर क्या प्रतिक्रिया हो !

मोहन की बात सुनकर गनेशीलाल ज़ोर से हँस दिए और फिर शान्त होते हुए धीरे से कहा, “बेफिकर रौ, तुझे मैं घाट्टे में नई रहने दूँगा । तेरे लियो मैंने एक होटल खोलने की बात सोच्ची है। और सोच्ची ही नईं बल्कि लाला हरीचन्द के घेर के सामने जो रथखान्ना है ना, उसे दस रुपए महीने किराए पै ले भी लिया है ।"

मोहन, जो अरसे से गनेशीलाल की बात का विरोध करना छोड़ चुका था, असमंजस में पड़ गया। उसके देखते-देखते कितने ही होटल ढाबे बड़े-बड़े मौके की जगहों पर शहर के बीचोबीच खुले और बन्द हो चुके थे। गनेशीलाल से भी यह बात छिपी न थी । फिर होटल खोलने में कौन-सी तुक है ? यह बात मोहन की समझ में नहीं आई और उसने अपने विचार दबे-से शब्दों में व्यक्त भी कर दिए ।

गनेशीलाल के माथे पर झुंझलाहट के तीन-चार बल पड़ गए, बोले, “अच्छा भैया, मेरा दिम्माग फेल हो गया है पर तुम्हारा होटल फेल नईं होगा, बस !”

फिर कुछ रुककर बोले, “तुम लोग्गों के साथ सबसे बड़ी कठिनाई येई है कि तुम किसी का कहना नईं सुनते। बस बात को कुरेदने लगो हो, और कह दो तो फिर सब जगह उसका ढँढोरा पीटते फिरो हो ।”

मोहन, गनेशीलाल की बात को अन्तिम और अचूक समझता था। उस पर सन्देह या शंका करना वह वर्षों पहले छोड़ चुका था। मगर शहर से दूर एक कोने में होटल खोलने का औचित्य उसकी समझ में न आ सका।

गनेशीलाल ने कहा, “देख भई, तू मेरा दिम्माग तो चाट्टै मत, अभी मुझे जाना है मीटिंग में । दुपहर, रोट्टी के बखत, तू मुझसे सारी बातें पूछ लीजो।”

और लाला हरीचन्द की बैठक में अकेले पड़े-पड़े अचानक गनेशीलाल को ध्यान आया कि उन्होंने अभी तक अपनी ही बात नहीं की।

लालाजी की हवेली से कूँडी में कुछ घोटे जाने की आवाज़ आने लगी थी । मगर लालाजी हवेली में ही जाकर गुम हो गए थे।

....कहीं बादाम खुद तो नहीं घोटने लगे ! गनेशीलाल ने एक क्षण के लिए सोचा और उसी क्षण सामने के दरवाज़े से मुस्कराते हुए लालाजी ने प्रवेश किया, बोले, "माफ करना, देर हो गई भय्या गनेशीलाल ! वो ठंडयाई कू तो कह दिया, मगर बदाम्मों की चाब्बी मेरी जेब में ही रह गई थी।"

गनेशीलाल ने आत्मीय-सी मुस्कराहट होंठों पर बिखेर दी। लालाजी बैठते हुए बोले, “हाँ तो भय्या, कित्ता किराया लिख दिया ?”

गनेशीलाल ने कहा, “आप ही लिक्खो लालाजी, मैं तो, आप जान्न, मुंडी हिन्दी जान्नू हूँ।”

“फिर भी कुछ बोल्लो तो !” लालाजी ने पूछा।

"आप ही हिसाब लगाकै लिख लो ।” उत्तर मिला ।

“मैं क्या हिसाब लगाऊँ ?” लालाजी ने बड़े असमंजस में कहा, “ मकान तो तुम्हारा देक्खा हुआ है। बड़े-बड़े पूरे पन्द्रह कमरे हैं और दो कोठरी । सहर में एक कमरा पन्द्रह-बीस रुपए में मिलै है । और दस-दस रुपए में कोठरी । मगर तुम कहो तो मैं सिर्फ ढाई सौ लिखे लूँ हूँ । ”

गनेशीलाल की आँखें फैलने को हो आईं। राजपुर में बड़ी से बड़ी इमारत का किराया चालीस रुपए से ज़्यादा न था । और लाला हरीचन्द ऐसी बड़ी मात दे बैठेंगे, इसकी कल्पना भी न थी गनेशीलाल को । उस घेर में पन्द्रह घोड़ों के बँधने के लिए पन्द्रह अस्तबल ज़रूर थे मगर उन्हें पन्द्रह बड़े-बड़े कमरे कहना ज़्यादती थी। अलमारी, खिड़की, कार्निस, रोशनदान या दरवाज़े - अर्थात् कमरे का कोई भी चिह्न तो न था उनमें। गनेशीलाल किराए की रक़म सुनकर सकते में आ गए।

ठंडाई आ गई थी। गिलास गनेशीलाल के हाथ में देते हुए लालाजी ने फिर वही सवाल दोहराया तो गनेशीलाल को मोहन के होटल का ध्यान हो आया और बरबस उनके होंठों पर मुस्कान खिंच आई । गर्दन हिलाते हुए बोले, “पन्द्रह - पन्द्राम दोस्सौ पच्चिस और बीस रुपए दो कोठरियों में। कुल मिलाके दोस्सौ पैंतालीस हुए। मैं येई सोच रया था कि पाँच रुपए के पीच्छे किसी कू उँगली उठाने का मौका क्यूँ दिया जावे। इसलियो लालाजी, आप तो दोस्सौ पैंतालीस लिक्खो ।”

लाला हरीचन्द को सहमत होना पड़ा। फिर गनेशीलाल की दूरदर्शिता की सराहना करते हुए अचानक धीरे से उन्होंने पूछा, “अब तुम कहो ? रथखान्ना लै लिया ?"

गनेशीलाल की जान में जान आई। आखिर जो बात वह करना चाह रहे थे वह खुद लालाजी ने शुरू कर दी । निःश्वास छोड़कर कहा, “हाँ, ले तो लिया, मोहन की इच्छा भी है कि वो एक होटल खोल्लै। मगर लालाजी, मेरा तो जी घरा है। भला आज लो कोई होटल चला है। यहाँ ?”

एक पल के लिए लालाजी गनेशीलाल के वाक्यों को तोलते रह गए। और दूसरे ही क्षण समझाते हुए बोले, “ज़रा मौक्का तो सोच्चो, भय्या गनेसीलाल ! भला जहाँ चालीस-पचास विद्यार्थी होवेंगे, वहाँ होटल फेल हो सकै है ? तुम मोहन कू होटल जरूर खुलवा दो। बाक्की जिम्मा मेरा । "

“देक्खो, अब आप कै रयो हो तो ठीक ही है !” गनेशीलाल ने उठते हुए हाथ जोड़कर कहा । और गनेशीलाल के कन्धे पर हाथ रखकर बाहर तक छोड़ने के लिए आए लालाजी मन-ही-मन मुस्करा दिए। वह जानते थे कि इस मामले में यदि गनेशीलाल के इनकार की गुंजाइश होती तो न उनके घेर में होस्टल खुलता और न उसका किराया ही दो सौ पैंतालीस रुपए तय हो पाता ।

विमर्श और परामर्श (अध्याय-9)

सत्यव्रत सोचता है कि मैनेजमेंट के दोषोंको ढूँढ़ना अध्यापकों की आदत क्यों बन गई है ? क्यों ये लोग छिद्रान्वेषण से आगे जीवन के और वृहत्तर उद्देश्यों को नहीं देख पाते ?

खुद सत्यव्रत मनुष्य में दुर्बलता स्वीकार करता है। वह यह भी स्वीकार करता है कि उन दुर्बलाओं के कारण मैनेजिंग कमेटी के कुछ सदस्यों ने कृषि-योजना या कॉलेज की अन्य किसी चीज़ से कभी आर्थिक लाभ प्राप्त किया होगा । किन्तु वह आधारभूत विचार की श्रेष्ठता को अस्वीकार नहीं कर सकता - चाहे वह हॉस्टल हो या कॉलेज- कृषि योजना । और अध्यापक हैं कि उन्हें शोषण, छल और फ़रेब के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं देता !

सत्यव्रत जब से हॉस्टल का सुपरिंटेंडेंट हुआ है- कुछ लोग उसे और सशंकित दृष्टि से देखने लगे हैं ! उसकी समझ में नहीं आता कि वह कैसे विश्वास दिलाए ! वह कैसे समझाए कि उसने इसके लिए किसी से सिफ़ारिश नहीं कराई। उसे खुद उसकी योग्यता, या अन्य विशेषताओं के कारण सुपरिंटेंडेंट बनाया गया है । मगर अध्यापक जैसे यह मानने को तैयार ही नहीं ।

यहाँ नियुक्तियों की सिफ़ारिशों के सैकड़ों क़िस्से वह सुन चुका है। वह उन्हें असत्य भी नहीं मानता। आदमी कभी-कभी परिस्थितियों से विवश हो जाता है। मगर वह यह नहीं मान पाता कि इस कारण मैनेजमेंट ने सदैव सही और योग्य व्यक्तियों की उपेक्षा की होगी। वह स्वयं जो इसका प्रमाण है।

और चर्चा छिड़ने पर यही बात उसने उस दिन जयप्रकाश को समझाई थी, “मैं कैसे मान लूँ जय भाई, कि मैनेजमेंट के लोग बेईमान हैं, बुरे हैं और पक्षपात करते हैं, जब तक कि मैं स्वयं अपनी आँखों से न देख लूँ, अपने कानों से न सुन लूँ ?”

“ आपकी बात सही है, मास्टर साहब !" जयप्रकाश ने कोमल स्नेह से आँखें झपकाते हुए कहा था, "आदमी को अपने विचार अपने अनुभवों पर बनाने चाहिए, दूसरों के नहीं ।"

“फिर आप मैनेजमेंट को बुरा क्यों कहते हैं ?” सत्यव्रत ने प्रश्न के लिए क्षमा माँगते हुए कहा ।

“इसलिए कि मेरे विचार मेरे अनुभवों पर आधारित हैं !” जयप्रकाश ने उत्तर दिया ।

“अगर आप अन्यथा न लें तो इसी विषय पर मैं आपसे कुछ और प्रश्न पूछूं ? मैं अपने दृष्टिकोण को साफ करना चाहता हूँ।” सत्यव्रत ने संकोचपूर्वक कहा।

और जयप्रकाश ने प्रोत्साहन दिया, “आप अवश्य पूछिए। मैं जानता हूँ आप ये प्रश्न अपनी जिज्ञासा के लिए पूछ रहे हैं, मैनेजिंग कमेटी तक पहुँचाने के लिए नहीं !”

सत्यव्रत ने फिर विषय पर आते हुए कहा, “मैनेजमेंट के विषय में आपकी धारणाएँ अपने अनुभवों पर आधारित हैं जय भाई, किन्तु उस दिन हॉस्टल के विषय में मैनेजमेंट को लेकर आपने जो विचार व्यक्त किए थे वे तो आपके अनुभवों पर आधारित नहीं हो सकते। फिर...?"

“वे मेरे अध्ययन पर आधारित हैं।” जयप्रकाश ने मुस्कराकर कहा, “आप शायद यह कहना चाहते हैं कि आप हॉस्टल के सुपरिंटेंडेंट हैं, आपको हॉस्टल का निकटतम अनुभव है और आपको उसमें ऐसी कोई बात नहीं लगती जिससे मैनेजमेंट का स्वार्थ और कपट दिखलाई पड़े ! यही न ?”

सत्यव्रत ने कुछ नहीं कहा।

“ तो यह वस्तुस्थिति के अध्ययन और दृष्टिकोण का अन्तर हुआ !” जयप्रकाश बोला, “दरअसल आप इतने अच्छे आदमी हैं कि आपको हर आदमी और हर चीज़ में अच्छाई ही नज़र आती है।"

“फिर आपको मुझमें अच्छाई कैसे नज़र आती है ?” सत्यव्रत ने मुस्कराकर जयप्रकाश के उत्तर से ही प्रश्न निकाला।

“मैंने यह कब कहा कि मैं बुरा आदमी हूँ और मुझे हर आदमी और हर चीज़ में बुराई नज़र आती है ? मैं तो साधारण आदमी हूँ; न ज़्यादा अच्छा, न ज़्यादा बुरा । और वस्तुनिष्ठ भाव से हर चीज़ को देखता हूँ।” जयप्रकाश निस्संग भाव से बोला ।

"अच्छा, आपको याद है, आपने हॉस्टल खुलने की बात सुनकर क्या कहा था ?” सत्यव्रत ने मुस्कराते हुए पूछा और उसे यह सोचकर सुख मिला कि कम-से-कम एक तो ऐसा आदमी है, जो उसे ठीक-ठीक समझता है और उसकी बातों का बुरा नहीं मानता।

“मुझे शब्द याद नहीं, लेकिन विचार याद हैं, क्योंकि वे आज भी बदले नहीं हैं ।"

तभी ज़ोर से बिजली कड़की और तड़ातड़ वर्षा की बूँदें गिरने लगीं। वातावरण की उमस सहसा कम हो गई। सत्यव्रत को लगा कि इधर का दरवाज़ा खोल दूँ तो ठंडी हवा के झोंके भीतर आते रहेंगे ।

इधर कुछ दिनों से वह अक्सर उस दरवाज़े को बन्द रखने लगा था ।

शुरू-शुरू में तो सत्यव्रत को अपनी कोठरी के उस दरवाज़े से हॉस्टल के आँगन में लड़कों की गतिविधि पर नज़र रखनी पड़ती थी। मगर इधर कुछ दिनों से, जब से विमला अपने मकान के पिछले हिस्से की छत और जीने पर आकर इधर झाँकने लगी है और लड़कों ने उसे लेकर आपस में कानाफूसी शुरू कर दी है, तब से उसने वह दरवाजा बन्द कर दिया है और बाहर सड़क की ओर खुलनेवाला दरवाज़ा खोल लिया है। जयप्रकाश ने भी उसे समझाया था, “आप अगर इतना कंट्रोल रखेंगे और लड़कों की स्वतन्त्रता पर चौबीस घंटे का बन्धन बन जाएँगे मास्टर साहब, तो इसका परिणाम कोई अच्छा नहीं निकलेगा ।" और उसे बात पसन्द आई थी ।

बिजली की कड़क और वर्षा की बूँदों के साथ उसे लगा, विमला छत पर कपड़े उतारने आई होगी। मगर वह दरवाज़ा खोलने के लिए नहीं उठा । जयप्रकाश की बात का सूत्र पकड़ते हुए बोला, “हाँ, तो आपने कहा था, शोषण का एक और जाल ! बताइए तो छात्रावास के सन्दर्भ में इसका क्या औचित्य है ?"

जयप्रकाश सोचने की मुद्रा में कुछ क्षण ख़ामोश खड़ा रह गया और सत्यव्रत ने उसी बीच कई सारे प्रश्न और पूछ डाले ।

“क्या आप यह अनुभव नहीं करते कि बाहर के विद्यार्थियों के लिए यहाँ छात्रावास का होना आवश्यक है ? क्या आप यह मानते हैं कि छात्रों से किराए के रूप में प्राप्त आय को मैनेजमेंट के लोग खा जाएँगे ? या आप यह सोचते हैं कि मुझे इस छात्रावास का सुपरिंटेंडेंट बनाकर एक अनुचित और अयोग्य व्यक्ति को प्रश्रय दिया गया है और मैं छात्रों का मैनेजमेंट के हित में शोषण करूँगा ?

“नहीं।” जयप्रकाश ने एकदम शान्त और निर्विकार मुद्रा में धीरे-धीरे कहा और उसकी आवाज क्रमशः ऊपर उठती गई, “मैं अनुभव करता हूँ कि बाहर के छात्रों के लिए हॉस्टल खुलना नितान्त आवश्यक था, मगर मैं यह अनुभव नहीं करता कि वह हॉस्टल यहाँ इस अस्तबल में ही खुलना चाहिए था । मैं जानता हूँ कि हॉस्टल के छात्रों से किराए के रूप में प्राप्त आय मैनेजमेंट के लोग खा नहीं सकते मगर वे हॉस्टल के माध्यम से आमदनी के और ज़रिए ढूँढ़ सकते हैं- जैसे गनेशीलाल के छोटे भाई मोहन ने सामने होटल खोल लिया है मैं यह मानता हूँ कि आपको हॉस्टल का सुपरिंटेंडेंट बनाकर उन्होंने अनजाने ही बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है, किन्तु उसका कारण यह नहीं कि आपके द्वारा उन्हें बुद्धिमत्ता का परिचय दिया है, किन्तु उसका कारण यह नहीं कि आपके द्वारा उन्हें छात्रों का शोषण करना है बल्कि यह है कि वे खुद आपका ही शोषण करना चाहते हैं !”

“मेरा शोषण ?” सत्यव्रत ने चकित होते हुए पूछा था ।

“हाँ, आपका शोषण ! आप बताइए कि क्या आप चौधरी नत्थूसिंह की लड़की को पढ़ाने के लिए रोजाना घंटे-दो घंटे का समय नहीं देते ?”

सत्यव्रत को यह तर्क बड़ा अजीब और हल्का जँचा। अगर उसने चौधरी साहब की प्रार्थना पर स्वेच्छा से उनकी लड़की को घंटा दो घंटा समय देना स्वीकार कर लिया तो यह शोषण कैसे हुआ ? चौधरी साहब ने तो उसे पैसे भी देने चाहे थे। कहा था, "अगर आप मुनासिब समझें तो शाम को घंटे दो घंटे का समय विमला को दे दिया करें। वह इस साल फिर विद्या- विनोदिनी में बैठ रही है । आप जो कहेंगे, मैं आपको दे दिया करूँगा।”

उसने स्वयं ही चौधरी साहब की सज्जनता और आपसदारी का लिहाज़ करते हुए पैसे लेने से मना कर दिया था, "जी नहीं, पैसों का तो प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु मैं आजकल तनिक छात्रावास की सफ़ाई में व्यस्त हूँ। दो-तीन दिन बाद ही उपस्थित हो सकूँगा।”

“हाँ हाँ, कोई जल्दी नहीं है।" चौधरी साहब ने कहा था और इस बात को महसूस करते हुए कि हॉस्टल के अहाते में कितने झाड़-झंखाड़ और गन्दगी है और उसकी सफ़ाई कितने परिश्रम का काम है, वह अपने चबूतरे की तरफ़ बढ़ गए थे। हॉस्टल खुलने के चार दिन बाद ही सत्यव्रत विमला को पढ़ाने जा सका था।

यही सब सोचकर झिझकते हुए सत्यव्रत ने कहा, “जय भाई, आप बुरा न मानिए पर बात है अजीब-सी । मेरा शोषण हो रहा है और मुझे पता भी नहीं चल रहा। और आप हैं कि...” जयप्रकाश ने बात पूरी नहीं होने दी, बोला, “इसमें अजीब कुछ भी नहीं। ऐसा ही तो होता है । जाल में फँसते हुए शिकार का ध्यान जाल के फन्दों की ओर नहीं बल्कि उस प्रलोभन की ओर होता है, जिसके वशीभूत होकर वह जाल की तरफ़ खिंचता है। आकर्षण की उस स्थिति में वह स्वयं जाल को चाहे न देख पाए, मगर इधर-उधर छिपे तमाशबीन तो उसे जाल के एक-एक फन्दे में फँसते हुए देख ही सकते हैं ।"

और यहीं पर बहस समाप्त हो गई थी... आखिर जयप्रकाश ने भी वही बात कही जो सुबह हॉस्टल के लड़कों के मुँह से सत्यव्रत ने अनायास सुन ली थी। वही बात उसकी फुसफुसाहट कुछ दिन पूर्व टीचर्स रूम में भी हुई थी। जयप्रकाश को वह बुद्धिमान और विश्वसनीय आदमी समझता था, भले ही वह मैनेजिंग कमेटी के प्रति कुछ पूर्वाग्रहों और द्वेषों को मन में पाले हो । सत्यव्रत की उसमें आस्था थी। मगर उसने भी अफ़वाहों पर विश्वास कर लिया ! सत्यव्रत ऊपर से नीचे तक काँप उठा ।

जिस आकर्षण और प्रलोभन की ओर जयप्रकाश ने इशारा किया था, वह, दिन-भर लकड़ी के खोखों पर खड़े होकर नत्थूसिंह के घर में झाँकनेवाले हॉस्टल के लड़कों के लिए आकर्षण हो सकती है, उसके लिए तो मात्र कर्तव्य है । वह लड़की सही, मगर शिष्या है और ज्ञानदान के रिश्ते से आत्मजा है । सत्यव्रत उसे दूसरी दृष्टि से नहीं देख सकता ।

मगर सत्यव्रत दूसरी दृष्टि की कल्पना करके ज़रूर सिहर उठता है । दूसरी दृष्टि यानी विमला की दृष्टि । उसकी छात्रा चौधरी नत्थूसिंह की लड़की की दृष्टि ! वह देखती है तो देखती ही रह जाती है। और उस समय तक देखती रहती है। जब तक कि सत्यव्रत उससे किताब निकालने को नहीं कहता ।

मगर ऐसा अभी कुछ दिनों से होने लगा है। पहले तो कॉलेज से लौटकर शाम के समय वह उसे पढ़ाने के लिए जाता था, तो बैठक से मिले बरामदे में बैठकर तब तक इन्तज़ार करनी पड़ती थी जब तक चौधरी नत्थूसिंह ज़ोर से पुकारकर आवाज़ नहीं लगाते थे, “बेटी, देखो मास्टर साहब आ गए।” पर अब ! अब तो सत्यव्रत के पहुँचते ही वह तुरन्त छाती से किताब और कापियाँ लगाए आ पहुँचती है।

शुरू-शुरू में सत्यव्रत को उसका इतनी सारी किताबें और कापियाँ लिए फिरना बच्चों- जैसा शौक लगता था। जब वह मदरसे में पढ़ता था तो वह भी मोटी-सी गुटका रामायण, वीर अभिमन्यु और महाभारत - जैसी अनावश्यक पुस्तकें अपने बस्ते में बाँधे रहता था ताकि बस्ता मोटा दिखाई पड़े। मगर तब वह बच्चा था... विमला तो इतनी बच्ची नहीं है ।

इसी कौतूहलवश उसने उस दिन पहली बार विमला की ओर आँखें उठाकर देखा था। वह किताबों और कापियों का ढेर सीने से चिपकाए मूढ़े पर बैठनेवाली थी। इक्कीस-बाईस साल की उम्र, भरा हुआ पुष्ट वक्षस्थल, सुडौल गोरी बाँहें और छोटी मगर बोलती हुई आँखें । रंग एकदम गोरा...मुख और किताबों से चिपके वक्षस्थल को ही वह एक नज़र देख पाया था और उसी से उसने विमला की उम्र का अनुमान लगा लिया था । हाँ, बच्ची नहीं है । पर किताबें बिलकुल बच्चों की तरह लादकर चलती है । और अपनी बचपन की य आदत याद करके उसकी साफ़ नीले समुद्र-सी आँखों में शरारत जैसी हँसी तैर गई थी।

शायद उसी समय विमला ने भी सत्यव्रत की ओर देखा था । उसके मुस्कराते हुए होंठ और हँसती हुई आँखों में विमला को ऐसा सर्प - सा सम्मोहन दिखाई दिया था कि वह विसुध-सी रह गई थी और उसके सीने में लगी हुई किताबें एक-एक कर पकड़ से फिसलने लगी थीं ।

“ अरे रे रे !” सत्यव्रत ने किताबें सँभालने की कोशिश में विमला की उँगलियों पर हाथ रखते हुए अनायास ही किताबों को ऊपर की ओर उठा दिया था, “इतनी किताबें क्यों लेकर चलती हैं ?"

विमला के वक्ष में कम्पन होने लगा था । सत्यव्रत के हाथ से दबी किताबों ने उसके वक्ष की धड़कनों को बढ़ा दिया है। तब से रोज़ाना उसकी एकाध किताब गिरती है और सत्यव्रत सँभालकर उसे पकड़ा देता है। किताब लेने-देने की कोशिश में अगर उसकी उँगली सत्यव्रत की उँगली से छू जाती है, तो उसकी समूची देह झनझना उठती है ।

तभी से वह सत्यव्रत की ओर देखती है। जाने क्या है उसकी दृष्टि में कि सत्यव्रत घबराकर गर्दन झुका लेता है। यह मोह है या ममता, स्नेह है या आकर्षण, मगर कुछ है अवश्य... सत्यव्रत बुरा नहीं मानता। आखिर मनुष्य तो निमित्त मात्र है, नियामक तो कोई और ही है । कोई और ही है, जो सारे सूत्रों का संचालन करके मानव को गतिशील रखता है। उसमें गुण-अवगुण, शक्ति और दुर्बलता भी उसकी दी हुई हैं। हाँ, मनुष्य उनका पूरा उपयोग करे अथवा अधूरा, यह उसकी क्षमता और कर्तव्य निष्ठा का प्रश्न अवश्य है ।

विमला के सन्दर्भ में सत्यव्रत को यही हर्ष होता है कि वह कभी अपने कर्तव्य से नहीं गिरा । यद्यपि इससे पूर्व उसे किसी ग़ैर लड़की से इतनी निकटता प्राप्त नहीं हुई, फिर भी वह संयम के पथ पर दृढ़ है । यह सच है कि विमला के पास बैठकर कॉलेज की सारी थकान पल-भर में काफूर हो जाती है और जब वह कहती है, “बस मास्टर साहब, अब जितना पढ़ाया है, उसे याद कर लेने दीजिए, ” तो वह शान्त होकर बैठ जाता है और उसका मन होता है कि वह चुपचाप इसी तरह बैठा रहे ।

मगर पहले दिन जब वह विमला को पढ़ाने गया था और उसके पास जाकर बैठा था तो मन में इतनी शान्ति न थी। विशेषकर उस स्पर्श के बाद तो एक अजीब-सी गन्ध उसके नासापुटों से होती हुई मन और मस्तिष्क में महक उठी थी। अपनी ही कस्तूरी से विह्वल उसके तन का रन्ध्र- रन्ध्र रोमांचित हो उठा था। उसे लगा था कि वह विमला के साथ किसी अदृश्य - अनजान यज्ञ में आहुति देने के लिए आ बैठा है और हर आहुति के साथ आँच की तेजी बढ़ती जा रही है। किसी भी क्षण लपटें बढ़कर उसके अस्तित्व को पकड़ लेंगी और उसका मुँह झुलस उठेगा । इसीलिए उसने तत्काल जैसे मुँह को आँच से बचाने के लिए विमला की ओर फेर लिया था और उसे महसूस हुआ था कि उस पर भी लपटों का प्रभाव छा गया है, क्योंकि उसका मुँह भी सुर्ख हो उठा था। उसकी कनपटियों के पास भी नसें उभर आई थीं और वह भी कुछ बोल सकने की स्थिति में नहीं थी ।

आखिर यह ठहराव सत्यव्रत ने ही तोड़ा था, “आज के लिए इतना पर्याप्त है।” हाथ की किताब बन्द करके मेज पर रखते हुए उसने कहा और संयत होकर उठने का उपक्रम करने लगा।

विमला को शायद लगा कि कोई सपना बनते-बनते टूट गया है, क्योंकि उसने सँभलकर उत्तर देने में काफ़ी समय लिया। पहले उसने सिर्फ़ 'ॐ' की और फिर कुछ सोचने लगी ।

सत्यव्रत का मन हुआ कि अपनी इस जन्मजात दुर्बलता को दबाने के लिए भागकर कोठरी में चला जाए और गीता-पाठ करने लगे ।

“नहीं, मास्टर साहब ! आप बैठिए, हम अभी पूरा पाठ देखे लेते हैं । आप चले गए और हमें कोई दिक्कत हुई तो कौन बताएगा ?” विमला ने धीरे से कहा था। सत्यव्रत ने अनुभव किया था कि अब तो वह बहुत बोलने लगी है। हर बात का आँखें मिलाकर उत्तर देती है और बात-बेबात रहस्यमय ढंग से मुस्करा उठती है। मगर अब सत्यव्रत में वह दुर्बलता नहीं रही ।

अब तो सत्यव्रत सोचता है कि विमला हर दृष्टि से एक साधारण-सी लड़की है। अनुभव, आयु और ज्ञान हर बात में उससे कम है। वह उसे अनौचित्य की ओर जाने के लिए विवश नहीं कर सकती। वह उसके संयम को चुनौती है तो हो, वह स्थिति से सामने पड़कर संघर्ष करेगा। वह पलायन को समस्या का निराकरण नहीं मानता। हाँ, पहले दिन वह ज़रूर दुर्बल हो गया था ।

इस पर भी जयप्रकाश कहता है, “फँसते हुए शिकार का ध्यान जाल के फन्दों की ओर नहीं बल्कि उस प्रलोभन की ओर होता है जिसके वशीभूत होकर वह जाल की तरफ़ खिंचता जाता है।” मगर सत्यव्रत अनुभव करता है कि उसके सामने कोई प्रलोभन या कोई आकर्षण नहीं है । यदि कुछ है तो एक नैतिक प्रश्न, एक आत्म-संघर्ष । उसके चरित्र को एक चुनौती, जिसे वह जान-बूझकर स्वीकार कर रहा है। इसलिए कि वह विजयी हो और उसका व्यक्तित्व सफलता के एक और विश्वास से मंडित हो उठे ।

मगर ये सारी बातें वह किससे कहे ? राजेश्वर से ! जिसने सम्भवतः यह अफ़वाह उड़ाई हो। या जयप्रकाश से ! जो अधूरा विश्वास करता है। फिर किससे ? इनमें कोई भी तो ऐसी नहीं, जो उसकी पीड़ा और व्यथा का ईमानदारी से सहभागी हो सके। सारे के सारे अन्धकार और अविश्वास के यात्री हैं, वह किससे प्रकाश और आस्था की याचना करे ?

एक मिनट के लिए सत्यव्रत ने अपने-आपको नितान्त अकेला और आश्रयहीन महसूस किया । किन्तु दूसरे ही क्षण उसके दिमाग में उन गंगा-तटवासी स्वामीजी का व्यक्तित्व कौंध गया जिनके पास गुरुकुल- जीवन में वह अक्सर अपनी नैतिक और आध्यात्मिक समस्याएँ लेकर जाता था । उसे लगा जैसे मन के निविड़ अन्धकार में एक ज्योति-शलाका लिए हुए स्वामीजी खड़े हैं और उसे अपनी ओर आने का संकेत दे रहे हैं ।

सत्यव्रत ने फौरन काग़ज़ कलम उठा लिया और उन्हें पत्र लिखने बैठ गया :

प्रातः स्मरणीय परमपूज्य स्वामीजी,

सादर चरण-स्पर्श !

निवेदन है कि परमपिता परमात्मा की असीम अनुकम्पा और आपके आशीर्वाद से मेरी नियुक्ति यहाँ के हिन्दू इंटर कॉलेज में सहायक अध्यापक के रूप में हो गई है। मैंने जुलाई मास से कार्य भार ग्रहण कर लिया था । किन्तु लगभग तीन मास बीत जाने पर भी मैं अपनी अन्तरात्मा में उस शान्ति और स्थैर्य का अभाव अनुभव करता हूँ, जो जीवन में मनचाहा कार्य मिल जाने पर होना चाहिए ।

ऐसी स्थिति में मुझे आपके मार्गदर्शन की अतीव आवश्यकता है। मैं संक्षेप में सारी बातें आपके श्रीचरणों में निवेदन कर रहा हूँ। कृपया मुझे सत्पथ की ओर प्रेरित करनेवाले आशीर्वचन देकर अनुगृहीत करें।

यहाँ कॉलेज में शिक्षा का जो वातावरण होना चाहिए, वह निश्चय ही नहीं है। छात्र उद्दंड, अविनीत और उद्धत हैं। नैतिक और चारित्रिक मूल्यों के प्रति उनमें न कोई आग्रह है, न आकर्षण । गाँव के विद्यार्थियों के लिए शिक्षा, विवाह का माध्यम है तो नगर के विद्यार्थियों के लिए समय बिताने और बहीखाते लिखने योग्य भाषार्जन करने का। उनमें शिक्षा के प्रति कोई भी उत्कट लालसा या ललक नहीं है।

मेरा मन इस स्थिति में बड़ा विक्षुब्ध है; क्योंकि अन्ततः इस सबके उत्तरदायी अध्यापक- गण ही हैं। उन्हीं की कर्तव्यपरायणता में शिथिलता होने के कारण छात्रों का पतन हो रहा है और शिक्षा का ह्रास । मैं समझ नहीं पाता, इन्हें कैसे बताऊँ कि-

विद्या ददाति विनय, विनयादयाति पात्रताम् ।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मं ततः सुखम् ॥

अध्यापक अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति उदासीन हैं। जाने क्यों वे कॉलेज के कुछ निर्धारित घंटों में छात्रों को पढ़ाकर ही अपने कर्तव्य की इति मान लेते हैं !

उनकी बातें सुनता हूँ तो और भी क्लेश होता है। मेरे चरित्र और व्यक्तित्व के विषय में तो वे तरह-तरह की मिथ्या बातें करते ही हैं, विद्यार्थियों में भी स्वयं अनादर और अनास्था के बीज बोते हैं । किन्तु ऐसा वे किसी दुर्भावना से नहीं करते, बल्कि यह उनका स्वभाव हो गया है। वे अपने प्रति भी ऐसे ही अनुदार और उदासीन हैं जैसे छात्रों और शिक्षा एवं कर्तव्य के प्रति ।

अधिकांश अध्यापकों ने कॉलेज की व्यवस्था समिति के सदस्यों के प्रति एक पूर्वाग्रहपूर्ण दृष्टिकोण बना रखा है, फलतः स्वयं ही उससे आतंकित और भयभीत रहते हैं और समय-असमय सदस्यों की कटु आलोचना करते रहते हैं।

जहाँ तक मेरा प्रश्न है, मैंने सदस्यों के व्यवहार या आचरण में कोई ऐसी बात नहीं देखी जो अप्रिय एवं आलोच्य हों । किन्तु यही बात जब मैं अपने साथी अध्यापकों से कहता हूँ तो वे मुझे अत्यन्त अपरिचित दृष्टि से देखते हैं, जैसे मैं उनका साथी न होकर व्यवस्था समिति का ही कोई सदस्य हूँ । मुझे बड़ा क्लेश होता है यह देखकर कि यहाँ हर अध्यापक विचारों की यात्रा अविश्वास और संशय से ही शुरू करता है।

गुरुदेव ! आप बताएँ कि क्या इन्हीं दुर्बल और संशयग्रस्त कन्धों पर भावी पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है ? क्या इन्हीं के विचारों के रक्त-मांस पर पलनेवाली पीढ़ी नई गन्ध और नई फ़सल लेकर आ सकेगी ? क्या नींवों में ऐसी कच्ची पोली ईंटों को रखकर किसी बड़े भवन का शिलान्यास किया जा सकता है ?

कृपया मुझे आदेश दें कि मानसिक संकुलता की इस स्थिति में मेरा क्या कर्तव्य है ? प्रतिपल आपके उत्तर की प्रतीक्षा में-

श्रीचरणों में सादर विनयावनत

- सत्यव्रत

और सत्यव्रत विमला के प्रसंग को जान-बूझकर छोड़ गया। उसने सोचा, विमला एक वैयक्तिक समस्या है, उस पर फिर भी विचार किया जा सकता है। सबसे प्रमुख और ज्वलन्त प्रश्न तो इस वातावरण में अपना कर्तव्य निर्धारित करने का है।

समझौता ? (अध्याय-10)

जयप्रकाश कोतवाली में उम्मेदसिंह के काम से गया था, किन्तु वहाँ उसने एक दूसरा ही माजरा देखा ।

मंडी में झगड़ा हो गया था। लखूवाले गाँव के जाटों की तीन गाड़ियाँ सोसाइटी से सनी लेने के लिए आई थीं। मगर सोसाइटी बन्द होने के कारण हल्दी - मिर्च-मसाला खरीदकर ही उन्हें अपने शहर आने के श्रम को सार्थक मानना पड़ा। उनमें से एक ने सोहन की दुकान से पाँच सेर नमक खरीदा था और दूसरे ने कुबले खाँ की दुकान से । बाद में जाँच की तो सोहन की दुकान से खरीदा हुआ नमक उन्हें कुछ कम लगा और उसी को लौटाने पर 'तू-तू, मैं-मैं' से होती हुई बात गाली-गलौज तक जा पहुँची थी।

सोहन, सिकट्टरी गनेशीलाल का भाई और शहर का जाना-माना रईस । गाँव का एक मामूली आदमी उसे अबे - अबे करे, यह उससे बरदाश्त नहीं हुआ। और वह अधसेरी, जिसे हाथ में लिए वह बहुत देर से मारने की धमकी दे रहा था, अचानक उसके हाथ से छूटकर किसना जाट की खोपड़ी में जा लगी और खून की कुर्रो फूट निकली। फिर क्या था ! जाटों ने उसकी पिटाई की सो तो की ही, मगर कोतवाल ने बलवा, बेईमानी और जब - शदीद की जाने कौन-कौन-सी दफ़ा लगाकर उसके हाथों में हथकड़ी ही डाल दीं और जब तक गनेशीलाल हवेली से आएँ तब तक सोहन को कोतवाली पहुँचा दिया। इस तरह एक ऐसी घटना घट गई जिसने पूरे शहर में सनसनी पैदा कर दी।

हॉस्टल में यह ख़बर जयप्रकाश के ज़रिए पहुँची ।

वह भी एक संयोग ही था कि जयप्रकाश उम्मेदसिंहवाले मामले में बातचीत करने कोतवाल के पास जिस वक्त पहुँचा उस वक्त वह दीवान से कह रहा था, “बड़ा मोटा मुर्गा फँसा है । जाट को अस्पताल पहुँचा दो और डॉक्टर साहब से कहना कि कम-से-कम पाँच चोटें तीन सौ तेईस की और एक दफ़ा तीन सौ पच्चीस की बननी चाहिए। उनका हिस्सा उन्हें पहुँच जाएगा। और हाँ, देखना, जाट न टूटने पाएँ...”

जयप्रकाश के सलाम के जवाब में कोतवाल उसे बाँह से पकड़कर अपने क्वार्टर की तरफ़ ले गया ।

एक बड़े-से लम्बे कमरे में दफ़्तर था जहाँ एक पक्के चबूतरे पर डेस्क लगाए मुंशी और दीवानजी बैठते थे। कमरे के सामने था बरामदा और पीछे कुछ फ़ासले पर कोतवाल साहब का क्वार्टर, जिसके बरामदे के एक कोने में स्टूल पर सोहन गर्दन झुकाए बैठा था ।

जयप्रकाश को सोहन की तरफ़ आश्चर्य से देखते हुए पाकर कोतवाल बोला, “जी हाँ, आपके सेकट्टरी साहब के भाई साहब हैं । बेचारे सीधे-सादे गाँववालों को लूट रहे थे और उन्होंने एतराज़ किया तो जनाब, उन्हें लाठियों और बल्लमों से पिटवाया गया, ये हाल हैं !”

सोहन यद्यपि काफ़ी फ़ासले पर बैठा था, पर इतना बड़ा झूठ इतनी जोर से कहा गया था कि सुनकर वह ख़ामोश न रह सका और तिलमिलाकर वहीं से बोला, “कोतवाल साहब, राई का पहाड़ मत बनाइए । हम भला दुकानदारी करेंगे कि गुंडे पालेंगे ?"

“भई, मुझे क्या मालूम ? जैसी रिपोर्ट लिखवाई गई है, वही मैं कह रहा हूँ । वैसे आजकल आप-जैसे बड़े लोगों में पाँच-सात गुंडे पालने का फैशन तो है ही । बाकी झूठ-सच तो तहकीकात करने पर ही मालूम होगा ।”

जयप्रकाश वहाँ आकर बड़ी उलझन में फँस गया था। किसकी कहे, किसकी न कहे ? फिर भी उसे कहना पड़ा, “कोतवाल साहब, सचाई कुछ हो, इतनी मैं भी कहूँगा कि सोहनलालजी झगड़ालू आदमी नहीं हैं । इन्होंने भी बिलकुल सेक्रेटरी साहबवाला स्वभाव पाया है। सबसे मीठा बोलना..."

“अजी छोड़ो !” कोतवाल साहब ने लापरवाही से कहा, “यह सब तो अदालत में साबित होगा कि कौन झगड़ालू है और किसने झगड़ा किया !”

फिर उसने इशारे से एक सिपाही को बुलाकर सोहन को दफ़्तर में ले जाने का आदेश दिया; और धीरे से पहरेवाले सिपाही को बुलाकर पूछा, “लाला हरीचन्द और गनेशीलाल तो नहीं आए ?"

"जी नहीं ।"

“अच्छा, मास्टर साहब के लिए शरबत लाओ। और देखो, वे लोग अगर आएँ, और मेरा ख़्याल है कि आने ही वाले होंगे, तो उन्हें कुछ देर पहले तनहाई में सोहन से मिल लेने देना, तब मेरे पास लाना ।” फिर जयप्रकाश की ओर देखकर धीरे से आँखें सिकोड़कर बोला, “मास्टर साहब, ज़रा ये तो बताइए कि ये उम्मेदसिंह कैसा लड़का है ? यानी उसका चाल-चलन.... ?"

कोतवाल साहब इस वक्त अपने क्वार्टर में थे और बड़े दोस्ताना और आत्मीय ढंग से जयप्रकाश से बातें कर रहे थे। यों भी अपने पुत्र का गुरु होने के नाते वह जयप्रकाश को हमेशा ही उचित सम्मान देते थे।

जयप्रकाश ने उम्मेदसिंह के चाल-चलन, खानदान और शराफ़त की बाक़ायदा तसदीक़ की । और कुर्सी पास खिसकाते हुए बोला, “कोतवाल साहब ! इस केस की असलियत जरा नाजुक है...."

“मुझे मालूम है । " कोतवाल ने बड़ी लापरवाही से कहा, “इस उम्मेदसिंह कमबख़्त की ग़लती तो सिर्फ़ इतनी थी कि यह आटेवाले के लड़के को रसगुल्ले खिलाने के लिए गूँगे हलवाई की कोठरी के अन्दर ले गया। किया धरा तो इसने कुछ भी नहीं !"

जयप्रकाश को खुशी हुई कि पुलिस मामले की तह तक पहुँच चुकी है। बोला, “जिस वक़्त हम लोग वहाँ पहुँचे तो आटेवाले सेठ का लड़का गोपाल, गूँगे की गोद में बैठा हुआ रसगुल्ले खा रहा था। गूँगे को कुछ कहना सुनना बेकार था, इसलिए हम लोग लड़के को लेकर चले आए। अब आप ही बताइए....”

“मुझे मालूम है ।” सर्वज्ञ की भाँति गर्दन हिलाते हुए कोतवाल उसी तरह बोला ।

“मगर मेरी समझ में यह बात नहीं आई, कोतवाल साहब, कि सारी बातें मालूम होने के बावजूद आपने उम्मेदसिंह को हिरासत में क्यों लिया ?"

“अमाँ यार, कहाँ की हिरासत ? उसे तो शर्बत पिलाकर मैंने कभी का भेज दिया। वह तो सच पूछो मास्टर साहब, इन तुम्हारे बनियों के आँसू भी पोंछने पड़ते हैं; वरना साले शिकायत करते हैं। फिर आपके प्रिंसिपल उत्तमचन्द तक ने भी कहा कि यह उम्मेदसिंह बदमाश लड़का है। और जानते हैं ? रिपोर्ट में लिखाया गया था कि लड़के को कोठरी में क़त्ल करना चाहते थे ।”

जयप्रकाश ने आवेश सँभालते हुए कहा, “हमारे उत्तमचन्दजी चीज़ों को समझने की कोशिश नहीं करते। उन्हें जैसे कोई कह दे ... ! वरना भला उम्मेदसिंह और क़त्ल ?”

“हाँ, वही तो। मेरे ख़याल से हुआ यह होगा कि लाला हरीचन्द के पास आटेवाला गया होगा । और गूँगे को 'सेव' करने के लिए उन्होंने उम्मेदसिंह के खिलाफ़ रिपोर्ट लिखा दी। और उत्तमचन्द को कहना पड़ा कि उम्मेदसिंह छँटा हुआ बदमाश है।" और अपनी छोटी-छोटी आँखों को फिराते हुए वह एक सिगरेट निकालकर जयप्रकाश की ओर बढ़ाते हुए बोला, “आप बेफ़िक्र रहें, मैंने फ़ाइनल रिपोर्ट लगा दी है। मामला ख़त्म।”

" शुक्रिया ।" जयप्रकाश ने अपनी बीड़ी निकाली ।

तभी सिपाही ने आकर बताया, “लाला हरीचन्द और गनेशीलाल सोहन से मिल चुके हैं और वे अब हुजूर से मिलना चाहते हैं ।”

“आइए, मास्टर साहब !” जयप्रकाश को साथ लेकर मुस्कराते हुए कोतवाल अपनी बैठक से उठा और दफ़्तर की ओर चल दिया ।"

लाला हरीचन्द और गनेशीलाल, दफ़्तर में सोहन के पास पड़े स्टूलों पर बैठे थे। मुंशी अपना रजिस्टर सँभाले, कुछ फ़ासले पर बैठा बिल्ली जैसी आँखों से इन तीनों को घूर रहा था और पहरे का सिपही संगीन ताने मुस्तैदी से बाहर खड़ा था ।. वातावरण में अनुशासनपूर्ण खामोशी थी।

कोतवाल उन्हें देख, खुशी से चिल्लाकर बोला, “कौन... लालाजी ?” और फिर मुंशी और पहरेवाले सिपाही दोनों को डाँटते हुए गरजा, “अबे, कम-से-कम यह तो देख लिया करो कि कौन आया है ! चलो, मूढ़े लाकर रखो।” और वह गनेशीलाल और लाला हरीचन्द दोनों का हाथ पकड़कर बड़े आग्रह और स्नेह से उन्हें बाहर बरामदे में ले आया जहाँ चार मूढ़े लगा दिए गए थे।

गनेशीलाल का मुँह उतरा हुआ था। वह कुछ बोलने के मूड में नहीं थे। बात लाला हरीचन्द को ही शुरू करनी थी। मगर उनसे पहले ही कोतवाल ने कहना शुरू किया, “देख लीजिए लालाजी, क़ानून कैसा बेवफ़ा होता है। ऐसा शिकंजे में कसता है कि न अपना देखे, न पराया। अब यही लो कि गनेशीलालजी से और आपसे मेरे जाती ताल्लुक़ात हैं। उधर मास्टर जयप्रकाशजी मेरे लड़के के उस्ताद हैं, ये भी घंटे भर से मुझे इस बात के लिए कोस रहे हैं कि मैंने यह क्या किया ? मगर मैं बुरी तरह क़ानून की गिरफ़्त में हूँ। मामले को ख़त्म करता हूँ तो मौत, और नहीं करता तो रुसवाई । समझ में नहीं आता, क्या करूँ ? उधर जाटों ने अलग शोर मचा रखा है। सुना है उसके जर्ब शदीद आई है।”

अब लाला हरीचन्द का बोलना निश्चित था। वह पहले कोतवाल की खुशामद करेंगे, फिर कुछ लेने-देने की बातचीत होगी, और यह सब अकेले में ही शोभा देता है, यही सोचकर जयप्रकाश उठ खड़ा हुआ, बोला, “कुछ हो कोतवाल साहब, सोहनलाल जी को छूटना ही चाहिए। मैं जाते-जाते आपसे फिर अपील करता हूँ।” और तीनों से विदा लेकर वह कोतवाली से लौट आया। भीतर-ही-भीतर वह खुश था कि उसकी एक्टिंग सफल रही।

हॉस्टल का वातावरण तनावपूर्ण था । उम्मेदसिंह के छूटकर आते ही हॉस्टल में खलबली मच गई थी। गाँवों के तीस पैंतीस लड़के सहन में खाट बिछाकर आ बैठे थे और उत्तमचन्द को पीटने की योजना बनाई जाने लगी थी ।

रामपूजन ने सलाह दी कि इस मामले में जयप्रकाशजी की राय लेना जरूरी है । और लड़कों ने उसका समर्थन किया। सत्यव्रत लड़कों के विद्रोह को दबाने में अपने को असमर्थ और अक्षम अनुभव करते हुए कोठरी में जा पड़ा था। उसकी समझ में गाँव और शहर का यह वर्गीकरण बिलकुल नहीं आ रहा था जिससे उत्तेजित होकर छात्र उत्तमचन्द के विरुद्ध जहर उगल रहे थे ।

दरअसल लड़कों को मालूम हो गया था कि प्रिंसिपल उत्तमचन्द ने उम्मेदसिंह के खिलाफ़ बयान दिए हैं। सब यही सोच रहे थे कि रसगुल्लों का प्रलोभन देकर कोठरी में ले जाने का मक़सद अगर उसका क़त्ल करना था तो भला उम्मेद वहाँ से चला क्यों आता ? और क्यों आकर खुद ही लड़कों में यह बात कहता कि गोपाल गूँगे की कोठरी में रसगुल्ले खा रहा है ? और क्यों यह बात प्रिंसिपल और अध्यापकों तक पहुँचती ? क़त्ल कहीं शोर मचाकर किया जाता है !

और फिर गूंगे का क्या बिगड़ा ? अध्यापकों ने अपनी आँखों से उसे गोपाल को गोदी में बिठाकर चूमते हुए देखा। मगर दोष सारा मढ़ दिया गया उम्मेदसिंह के सिर ! ज़रूर उत्तमचन्द की बदमाशी है । सब लड़के इसी मत के थे कि उत्तमचन्द को सजा जरूर मिलनी चाहिए।

दरअसल जिस वक़्त जयप्रकाश ने हॉस्टल में क़दम रखा, उस वक्त उसकी वहाँ सख़्त ज़रूरत थी । लड़के उसे देखते ही उठकर खड़े हो गए। वे इन्तज़ार कर रहे थे कि मास्टर साहब क्या ख़बर लाते हैं ।

सत्यव्रत भी अपनी कोठरी से निकल आया ।

“उम्मेदसिंह कहाँ है ?” जयप्रकाश ने तीखी आवाज़ में पूछा और डाँटकर कहा, “तुम लोगों ने क्या पंचायत जोड़ रखी है ? चलो अपने-अपने कमरे में । ख़बरदार जो एक भी लड़का बाहर दिखा !”

सारे लड़के तुरन्त इधर-उधर हो गए और उम्मेदसिंह सामने आ गया। जयप्रकाश ने रामपूजन को भी बुला लिया और सत्यव्रत को लिए हुए वापस उसकी कोठरी में तख़्त पर जाकर बैठ गया, और बड़े इत्मीनान से सबको सोहनवाला क़िस्सा सुनाने लगा ।

" पुलिस किसी की नहीं होती," एक बीड़ी सुलगाकर उसने सत्यव्रत से कहा और फिर दरवाज़े में खड़े रामपूजन की ओर इशारा करके बोला, “ज़रा रामदत्त को पहले बुलाओ ।”

जयप्रकाश से रामदत्त का नाम सुनते ही सत्यव्रत को रात की घटना याद हो आई । सुना, रात उसने रामलीला में स्टेज पर पैसे फेंककर कोई गन्दा-सा शेर पढ़ा था। सुबह होते ही पुलिस उम्मेदसिंह को थाने बुला ले गई थी। इसी चिन्ता के कारण सत्यव्रत को रामदत्त का ध्यान नहीं आया था। अब रामदत्त को सामने पाकर उसका मन हुआ कि इसे कठोर से कठोर दंड दिया जाए ।

सत्यव्रत मन में दंड ही तय कर रहा था कि तब तक जयप्रकाश ने तड़ातड़, पाँच-सात झापड़ रामदत्त के मुँह पर उड़ा दिए और गरजकर कहा, “आइन्दा ऐसी हरकत की तो खाल खींच लूँगा। समझे ? पैदायश के पोतड़े अभी सूखे नहीं और इश्क फ़रमाने लगे !”

रामपूजन और उम्मेदसिंह दरवाज़े में खड़े हुए पाँव के अँगूठे से ज़मीन की मिट्टी खुरचने लगे। उनके हृदय आशंका से धड़क रहे थे । यद्यपि मास्टर जयप्रकाश सिद्धान्ततः बड़े लड़कों पर हाथ नहीं उठाते, फिर भी... !

फिर उम्मेदसिंह की बारी आई। जयप्रकाश का आसमान को चूमता हुआ स्वर धरती से आ लगा। वाणी आर्द्र हो गई, बोला, “तुमने, उम्मेदसिंह, वह काम किया है कि आज सारा शहर तुम्हारे और गाँव के नाम पर थू-थू कर रहा है ।"

पहले उम्मेदसिंह ने सोचा था कि मेरी ग़लती सिर्फ़ इतनी है कि मैंने रोजाना रसगुल्लों के लिए ललचानेवाले उस लड़के का सम्पर्क गूँगे से करा दिया। लड़का साला खुद बदमाश हो तो कोई क्या करे ? मगर अब उसके मुँह से बोल नहीं निकला और शर्म के मारे उसकी आँखों में पानी छलक आया ।

उत्तर दिया रामपूजन ने। बोला, “वह सब ग़लत बात है, मास्टर साहब ! यह तो उन्होंने उम्मेदसिंह से कृषि - योजना का बदला निकाला है।”

“क्या ?” जयप्रकाश ने आश्चर्य से पूछा ।

“मैं सच कह रहा हूँ, मास्टर साहब ! आप गुलशेर, उम्मेद, ताहर सिंह और ज्ञान- किसी से पूछ लें। कल मुझे और उम्मेदसिंह को बुलाया था प्रिंसिपल साहब ने । कह रहे थे - 'भई रामपूजन, अब तो बारिश भी हो गई। ज़मीन में हल निकलने चाहिए ।"

“हूँ !” जयप्रकाश ने कुछ सोचते हुए आगे बोलने का इशारा किया।

“फिर उन्होंने श्रम-सेवकों की लिस्ट मेरे और उम्मेद के हाथ में पकड़ा दी और कहने लगे कि इस बार ज़रा मेहनत हो जाए तो ज़मीन सोना उगलेगी।”

जयप्रकाश को लगा कि सचमुच ज़मीन सोना उगल रही है। विद्यार्थी और सारे अध्यापक खड़े हुए हसरतभरी आँखों से उसे देख रहे हैं और वह सोना गाड़ियों में लद-लदकर प्रेसीडेंट और सेक्रेटरी साहब के घर जा रहा है । ठहरकर बोला, “ तुमने क्या जवाब दिया ?”

"हमने कह दिया कि इस साल हमें पढ़ना है और पास होना है। हम कृषि - योजना के चक्कर में नहीं पड़ेंगे। इस पर प्रिंसिपल साहब भड़क उठे और फिर आपकी तरफ़ इशारा करके कहने लगे, मैं जानता हूँ तुम किसके सिखाए हुए बोल रहे हो । तब उम्मेद ने कहा कि वह सिखाते तो यह आपकी योजना एक दिन भी न चलती, और एक भी गाँव का लड़का इस कॉलेज में दिखाई न देता । और साहब, फिर हम उनके कृषि-योजना के कागज़ वहीं फेंककर चले आए।"

सत्यव्रत चुपचाप कौतूहल और दिलचस्पी से सारी बातें सुन रहा था । जयप्रकाश को सहसा उस दिन की याद ताज़ा हो आई जिस दिन कॉलेज खुला था।

राजेश्वर, सत्यव्रत और पाठक तीनों की नियुक्ति की ख़बर पूरे कॉलेज में फैल गई थी । विद्यार्थी उन्हें देखने-परखने के लिए बहाने बना-बनाकर उनके आस-पास मँडरा रहे थे। रामपूजन को जब मालूम हुआ कि राजेश्वर चाचा भी कॉलेज में आ गए हैं तो उनसे मिलने के लिए उन्हें ढूँढ़ता हुआ वह उसी नींबू के पेड़ के नीचे आ पहुँचा था ।

राजेश्वर ने चाय का प्याला ख़त्म करके नीचे रखा ही था कि रामपूजन दिखाई दिया । फ़ौरन चाय की स्फूर्ति क्रोध के आवेग में बदल गई और उसने तल्खी से पूछा, “क्यों भई, तू यहाँ पढ़ने के लिए आया है कि हल जोतने ? अगर खेती का ही शौक है तो घर की ज़मीन में क्या आग लग गई जो बनियों की बेगार करता फिरता है ?"

न चाचा को प्रणाम, न खैर-खैराफ़ियत का हाल- रामपूजन कुछ भी न कह-सुन सका । और आकस्मिक प्रहार और रिश्ते के लिहाज़ के मारे उसका बोल भी नहीं निकला ।

जयप्रकाश ने महसूस किया कि क्रोध के प्रदर्शन का न यह कोई अवसर है, न स्थान । अतः रामपूजन को डाँटने का कार्य खुद सँभालते हुए उसने धीरे से कहा, “ अपनी-अपनी क़िस्मत है ठाकुर, अगर इनकी क़िस्मत में बैलों की पूँछ मरोड़ना ही लिखा है तो हम क्या करें ?”

चारों तरफ़ लड़के और अध्यापक घूम रहे थे और जयप्रकाश को डर था कि यहाँ कोई तमाशा न खड़ा हो जाए। इसलिए राजेश्वर को बोलने का मौक़ा न देकर, स्वर को भरसक संयत करते हुए धीरे-धीरे वह खुद ही बोलता गया, “क्यों भई, तुममें से किसी की परीक्षा में यह आया था क्या, कि जौ और मटर के अच्छे उत्पादन के लिए ज़मीन कैसे तैयार करनी चाहिए ? या यह कि लाला हरीचन्द के बैलों की जोड़ी एक बीघा जौ कितने दिनों में सफ़ाचट कर जाती है और गनेशीलाल के यहाँ पहाड़ी आलू खाया जाता है या देसी ?”

स्पष्टतः जयप्रकाश का इशारा इस ओर था कि जब कॉलिज में कृषि का विषय ही नहीं है तो गाँव के लड़के कृषि योजना में अपना वक़्त क्यों बरबाद करते हैं ? यही बात उन्होंने एक बार पिछले साल भी कही थी।

रामपूजन अपराधी के भाव से गर्दन झुकाए खड़ा रहा। जयप्रकाश के प्रश्न हास्यास्पद होने के बावजूद इतने ठोस थे कि रामपूजन से कोई उत्तर देते न बन पड़ा। अलबत्ता वह यह जरूर सोचने लगा कि अगर मास्टर जयप्रकाश ने सख़्ती से एक बार भी और मना किया होता तो क्या गाँव का कोई लड़का कृषि-योजना में भाग ले सकता था उनकी मरजी के खिलाफ़ !

राजेश्वर ने फिर डाँट पिलाई, “अब बोलता क्यों नहीं, क्यों फेल हो गया ?"

रामपूजन को विवश होकर बोलना पड़ा। हकलाते हुए जयप्रकाश की ओर इशारा करके उसने कहा, “अगर मैं मास्टर साहब की बात मानकर कृषि-योजना की बजाय पढ़ने-लिखने में ध्यान लगाता तो फेल नहीं हो सकता था। मगर मास्टर उत्तमचन्दजी ने..."

“उत्तमचन्द की... !” दाँत किटकिटाते हुए राजेश्वर ने मुँह में आई गाली अधूरी छोड़ दी और फिर आवाज़ में रौबीला-सा अन्दाज लाते हुए उसने पूछा, “अच्छा, इस साल क्या इरादा है ? कृषि योजना चलाना चाहते हो या पास होना ?”

“जैसी आप आज्ञा देंगे...” रामपूजन ने दोनों की ओर बारी-बारी देखते हुए उत्तर दिया । और उसके मुँह पर एक अजीब-सा दर्द उभर आया।

जयप्रकाश ने देखा, बेबसी का वही दर्द उन दोनों के चेहरों पर आज फिर उभर आया है । अतः फिर वर्तमान में आते हुए बोला, “तो तुम्हारा पक्का निश्चय है कि तुम दोनों कृषि-योजना में कार्य नहीं करोगे ?”

" हम दोनों ही नहीं, गाँव का कोई भी लड़का नहीं करेगा, मास्टर साहब !” उम्मेदसिंह ने आवेश में कहा, “और मास्टर साहब, अगर आप इजाजत दें तो इस उत्तमचन्द की थोड़ी-सी ... "

सत्यव्रत को एक विद्यार्थी का अध्यापक के सम्बन्ध में ऐसे बेहूदे ढंग से बात करना बहुत अखरा । और सबसे ज़्यादा उसे अखरा कृषि - येजना का विरोध । मगर उसने हस्तक्षेप करना उचित न समझा ।

जल्दी से जयप्रकाश ही ने कहा, “नहीं, नहीं, ग़लत बात है। ऐसी बात सोची तो मुझसे बुरा कोई न होगा !” और सत्यव्रत की विह्वलता समझकर उसका कन्धा दबाते हुए मुस्करा दिया ।

“मगर वह आपके बारे में अंटशंट बकवास करता फिरता है। उसने पवन बाबू के जरिए दो-तीन लड़कों को आपके ख़िलाफ़ दरखास्त देने के लिए भी उकसाया था। वो तो..."

जयप्रकाश ने रामपूजन की बात बीच में ही काट दी, “मुझे सब मालूम है। लेकिन मैं उनसे अपने-आप निपटता रहूँगा। तुम बीच में क्यों पड़ते हो ?”

“लेकिन उम्मेदसिंह का बदला तो, मास्टर साहब, हम लेंगे !" रामपूजन के स्वर में आग्रह आ गया था ।

“ठीक है। बदला लो, मगर उससे लो, जिसने यह सब कराया है । उत्तमचन्द तो प्रेसीडेंट और सेक्रेटरी साहब के हाथों की कठपुतली है। उसने क्या किया ? सज़ा किसे देनी है और कैसे देनी है - मैं बताऊँगा। मगर इस गोपाल और गूँगेवाले केस में सरासर तुम्हारी ग़लती है और आइन्दा मैंने ऐसी बात सुनी तो मुझसे बुरा कोई न होगा ।"

सत्यव्रत जयप्रकाश की तरफ़ देखता रह गया। अजीब दुश्मनी है इसकी उत्तमचन्द से। हमेशा उसकी बुराई और हमेशा उसका बचाव करता है ।

सत्यव्रत को याद आया कि उस दिन टीचर्स रूम में जब जयप्रकाश से, लेट आने के कारण, प्रिंसिपल उत्तमचन्द ने जवाब तलब किया था, और राजेश्वर ने कहा था, “आपको फँसाने की कोशिश कर रहा है उत्तमचन्द,” तब भी जयप्रकाश ने यही कहा था, "मुझे फँसाने की कोशिश नहीं कर रहा, बल्कि खुद जिस जाल में फँसा हुआ है उससे निकलने की कोशिश कर रहा है।”

जयप्रकाश की हर चीज़ की अपनी व्याख्या है। उसका ख़याल है कि उत्तमचन्द जिस स्थिति में है उससे बच निकलने के लिए ही वह विवेक और अविवेकपूर्ण हर तरह के हथकंडे काम में लाता है। वह प्रिंसिपल बनना चाहता है, और इसीलिए मैनेजमेंट की कृपा और दया प्राप्त करना चाहता है। साथ ही उसे हमेशा यह भय भी बना रहता है कि कहीं उसका कोई आलोचक उसकी बुराई करके सफलता के मार्ग में रोड़ा न अटका दे । इसलिए वह विरोधियों और आलोचकों का मुँह बन्द रखना चाहता है। उन्हें अपनी ही चिन्ताओं में उलझाए रखना चाहता है। तो, यह अपने ही ऊपर पड़े जाल से निकलने की कोशिश नहीं तो और क्या है ?

जयप्रकाश कहा करता है, “सवाल यह है कि उत्तमचन्द के, मेरे या हम सबके ऊपर यह जाल किसने फेंका हैं ! इसलिए हमारा विरोध तो उससे है, न कि 'उत्तमचन्द से।"

क्षण भर के लिए लगा, सत्यव्रत कुछ बोल न सकेगा ।

रामपूजन और उम्मेद अब भी दरवाज़े में खड़े थे। जयप्रकाश फिर बोला, “देखो, मुमकिन है इस कृषि योजना के बारे में लाला हरीचन्दजी भी तुम्हें बुलाए । उनसे तुम बहस मत करना। कह देना, साहब, घरवाले मना करते हैं। बस । और अब तुम बेफ़िक्री से जाओ। हाँ, उम्मेदसिंह का मामला ख़त्म हो गया है। मगर इस बात को लेकर हुल्लड़ मचाने या पंचायत जोड़ने की क़तई जरूरत नहीं है । समझे..."

और जयप्रकाश हाथ-पाँव फैलाकर चटाई पर लेट गया। ठंडी नम जमीन और किवाड़ों की दरारों से छनकर आती हुई बरसाती हवा की मस्त लहरें । एक मिनट के लिए उसका ध्यान अपने चारों ओर गया ।

सत्यव्रत की कोठरी में तीन चित्र टँगे थे। एक स्वामी दयानन्द सरस्वती का, `दूसरा मदनमोहन मालवीय का और तीसरा बापू का। थोड़ी-सी किताबों, बर्तनों और चन्द कपड़ों के अलावा उसके कमरे में खास कुछ भी न दिखा।

जयप्रकाश के सिराहने की तरफ़ बैठा हुआ सत्यव्रत चुप था। वह अभी-अभी जयप्रकाश और छात्रों के बीच हुई बातचीत पर विचार कर रहा था। यह ठीक है। कि छात्र जयप्रकाश से आत्मीयता अनुभव करते हैं और वह खुद भी करता है, मगर ऐसी भी क्या आत्मीयता कि उत्तमचन्दजी को अपमानित करने का परामर्श लिया जाए ! जयप्रकाश पहले अध्यापक हैं। क्या अध्यापकों के सम्मान की रक्षा करना उनका पहला कर्तव्य नहीं है ? फिर बिना किसी कारण के कृषि योजना जैसी महत्त्वपूर्ण योजना को पंगु बना देना कहाँ की बुद्धिमत्ता है !

और इसीलिए उसे जयप्रकाश से कहना पड़ा, “जय भाई, आप लोगों के आपसी मतभेद कॉलेज के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहे हैं। और मुझे लगता है कि यह सब ठीक नहीं हो रहा ।"

जयप्रकाश ने उत्तर नहीं दिया । वह इधर बहुत बदल गया है। अक्सर बातें करते-करते खो जाता है । सोचता है तो सोचता रह जाता है । और उसके बोलने में भी उतना संयम, उतनी सहनशीलता और उतना अंकुश नहीं रहा। शायद थोड़ा राजेश्वर की सोहबत का असर पड़ा है और थोड़ा उन कठिन परिस्थितियों का, जिनमें घिरकर निरन्तर डरते रहने पर आदमी का डर ख़त्म हो जाता है और उसके पास सिवाय साहस के और कुछ नहीं बचता।

जयप्रकाश को आश्चर्य ही इस बात का था कि अब तक कृषि-योजना की बात क्यों नहीं उठी ! सितम्बर ख़त्म हो रहा है और खेतों की जुताई पिछड़ी जा रही है।

अपनी बात का कोई उत्तर न पाकर सत्यव्रत फिर बोला, “आपका कमेटी से द्वेष हो सकता है मगर कृषि योजना से क्या द्वेष ? वह तो हमारी संस्था के हित के लिए..."

“कौन कहता है ! ” बहुत अप्रत्याशित ढंग से जयप्रकाश ने कहा और उसके मुँह पर अजीब विकृतिपूर्ण तनाव आ गया ।

और फिर जैसे शून्य से बातें करता हुआ बोला, “सब अपना-अपना पेट भरने की सोचते हैं। मैं पूछता हूँ, क्या फ़ायदा हुआ पिछले साल इस योजना से ? और अगर इससे फ़ायदा उठाना है तो क्यों राजेश्वर के सुझाव नहीं मान लिए गए ? बस, गाँव के सीधे-सादे लड़कों को बैलों की तरह कहीं भी जोत दो। आप बताइए कि वे यहाँ पढ़ने के लिए आए हैं या खेती करने के लिए... !”

सत्यव्रत किसी से उत्तेजित होकर या उत्तेजना दिलाकर बात करने के पक्ष में नहीं है । वह ख़ामोश हो गया। जयप्रकाश शान्त हो ले, तब बातें होंगी ।

कोठरी में फिर खामोशी छा गई। तख़्त पर पड़ी चटाई पर लेटा हुआ जयप्रकाश शून्य में उँगलियों से जाने क्या-क्या लिखता रहा। उसके पाँव की उँगलियाँ बार-बार अकड़कर ऊपर-नीचे उठती और उसकी अधखुली आँखें कहीं बहुत दूर के सपनों में खोई रहीं।

सत्यव्रत एक बात और पूछना चाहता था कि उम्मेदसिंह के मामले में जयप्रकाश ने मैनेजमेंट के लिए कौन-सा दंड निर्धारित किया है। वह कहता है तो जरूर ही किया होगा । उसने उसको राजेश्वर से कहते सुना था कृषि-योजना के इन खेतों को जब तक खेलों के मैदान में न बदल दूंगा, मुझे शान्ति नहीं मिलेगी । और उसने सचमुच वही स्थिति उत्पन्न कर दी। अब इन खेतों का, खेल के मैदान बनाने के अतिरिक्त और क्या उपयोग हो सकता है ?

मगर एक बात सत्यव्रत की समझ में नहीं आती। लड़के जयप्रकाश की इतनी इज़्ज़त क्यों करते हैं ? वे लड़के जिन्हें पंचायत जोड़ने के लिए सत्यव्रत आज . दिन-भर डाँटता रहा और जिन्होंने उसकी बातें इस कान सुनकर उस कान से निकाल दीं, जयप्रकाश के सामने क्यों भीगी बिल्ली की तरह दुम दबाकर भाग गए !

" आपने देखा, मास्टर साहब !” जयप्रकाश ने सत्यव्रत से कहा, “किसका दोष किसके सिर पर मढ़ दिया गया ? अगर इनमें साहस है तो दें गूँगे को सजा ! उसका ठेका ख़त्म कर दें।"

" मगर गूँगे ने क्या किया ?” सत्यव्रत बोला ।

“और उम्मेदसिंह ने क्या किया ?” जयप्रकाश ने पूछा ।

सत्यव्रत अभी तक नहीं समझ पाया था कि मामला क्या है। उसे बस इतना मालूम हुआ कि गोपाल को मारने के अपराध में उम्मेदसिंह को गिरफ़्तार किया गया था। अतः बोला, “सच पूछिए तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया ।”

" तो आपका न समझना ही अच्छा है। कोई बहुत सुखद बात है भी नहीं । ” जयप्रकाश ने झुंझलाकर कहा और उठकर खड़ा हो गया।

बजती हुई साँकलें (अध्याय-11)

सत्यव्रत ने हॉस्टल में एक वातावरण बनाने का प्रयत्न किया है - इसे सब स्वीकार करते हैं। अन्दर जो बड़ा-सा आँगन है उसके चारों ओर फूल उगाए गए हैं और बीच में हवन कुंड बनवाया गया है। जिस दिन वर्षा नहीं होती, लड़के सुबह-सुबह चार बजे उठकर यहीं हवन-पूजा करते हैं ।

कम-से-कम बीस लड़कों को यज्ञ के पूरे श्लोक कंठस्थ हो गए हैं। सत्यव्रत ने एक रजिस्टर खोला है जिसमें सुबह की प्रार्थना की हाज़िरी ली जाती है । वह स्वयं हर कमरे में जा-जाकर लड़कों को उठाता और स्नान के लिए भेजता है । फिर भी कुछ लड़के टाल जाते हैं। कुछ तख़्त के नीचे घुस जाते हैं और कुछ दूसरे नहाकर लौटे हुए लड़कों के तौलिए और घुटन्ने लेकर अपने नहा लेने का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं ।

एक महीने में छात्रों ने काफ़ी प्रगति की है। कम-से-कम गायत्री मन्त्र, शान्ति - पाठ और आर्य समाज के सारे नियम तो हर लड़के को कंठस्थ है।

मगर जब से रामलीला शुरू हुई, हॉस्टल की दैनिक चर्या में भारी व्याघात होने लगा है। लड़के रात को रामलीला देखने जाते हैं और दो-तीन बजे से पहले वापस नहीं लौटते । सत्यव्रत के लाख प्रयत्न करने के बावजूद सुबह की यज्ञ-प्रार्थना में आजकल एक-चौथाई लड़के आ पाते हैं और सुबह चार बजे उठने की बजाय उठने में वे आठ और कभी-कभी नौ भी बजा देते हैं ।

रातभर गाने होते हैं-

'हुआ करेजवा के पार, तीर तोरे नयनों का ... '
'ऊँची-नीची दुनिया की दीवारें सैंया तोड़के... '

सत्यव्रत को रामलीला और इन गानों में कोई संगति नहीं दीखती, इसीलिए उसने एक दिन लड़कों को डाँटा, फिर समझाया भी। मगर कुछ नतीजा निकले इससे पहले ही चौधरी नत्थूसिंह ने सब प्रयत्न बेकार कर दिए, “भगवान् की लीला देखेंगे तो इन्हें कुछ अच्छी बातें हासिल होंगी, आज्ञाकारी बनेंगे और माता-पिता तथा गुरुओं का आदर करना सीखेंगे। इन्हें रोकना नहीं चाहिए। मैं तो विमला तक को भेजता हूँ।” उन्होंने अपना मत दिया और बात ख़त्म हो गई ।

तभी बराबर के मकान से आवाज़ आती रहती है-उसने सोचा- और उसे कल का सुना गीत याद हो आया-

'तोरे नयनों ने, तोरे नयनों ने चोरी किया
मेरा छोटा-सा जिया
परदेसिया !
ओ तोरे नयनों ने...'

सत्यव्रत पहचानता है कि वह विमला का ही स्वर था। उसका कंठ बहुत मुखर हो उठा है इन दिनों । जब से हॉस्टल खुला है बराबर में, और जब से वह इसका सुपरिंटेंडेंट हुआ है, उसी के कुछ दिनों बाद से देख रहा है कि उसमें रोजाना परिवर्तन हो रहे हैं। उसने सोचा कि चौधरी साहब से इतना तो कहा जा सकता है कि विमला का रोज़-रोज़ रामलीला देखने जाना अच्छा नहीं। पर फिर सोचा कि चौधरी साहब जानें और विमला जाने ! उसका तो इतना ही सम्बन्ध है कि वह उसे पढ़ाता है।

“नमस्कार, मास्टर साहब !” राजेश्वर ने कमरे में घुसते हुए कहा, “बैठूँगा नहीं ! लाला हरीचन्दजी ने रामलीला देखने का न्योता भिजवाया है। अभी मंडी में मिल गए थे। कहा है आप ज़रूर आएँ । उनका पोता राम की भूमिका में उतर रहा है। बस, सूचना देने भर के लिए आया था। शाम को वहीं मिलूँगा।”

“और असली राम का क्या हुआ ?” उसने अचानक लौटते हुए राजेश्वर से प्रश्न किया।

“उसे अछ्छे बदमाश भगा ले गया है। शंकर भगवान् और गुरु विश्वामित्र की भूमिका में उतरनेवाला एक्टर भी भाग गया है। उसकी जगह बालिस्टर साहब का लड़का इन्दल शंकर भगवान का रोल करेगा। अच्छा, आना ज़रूर !”

राजेश्वर चला गया । वह उसे बैठने को भी न कह पाया। तीसरे पहर के ढलते हुए साये हॉस्टल की मुँडेर से उतरकर चौधरी नत्थूसिंह के चबूतरे पर आ बैठे थे ।

सत्यव्रत को मुकद्दम चाचा की बात याद आ गई। जाने किसने सुनाई थी ! और उसका मन गहरी घृणा से भर गया। छीः ! राम का इतना महान चरित्र और उसकी ऐसी भोंडी अनुकृति !

तभी वह इस विचार में खो गया कि वह शाम को जाए या न जाए ! लाला हरीचन्द का निमन्त्रण है । और उसी किंकर्तव्य की-सी अवस्था में वह पत्र आदि लिखने बैठ गया । फिर डायरी भी भरी किन्तु यह निश्चय फिर भी नहीं हो पाया कि उसे जाना है या नहीं।

धीरे-धीरे साँझ झुक आई । सामने की सड़क से खड़-खड़ करते हुए इक्के ताँगे गुज़रने लगे। कभी-कभी चूँ-चराक करती, गाँव को लौटती हुई कोई बैलगाड़ी भी निकल जाती थी। ऊपर आकाश में पंछियों के झुंड चीखते-चिल्लाते अपने नीड़ों में बसेरा करने के लिए लौट रहे थे । जंगल से वापस आती हुई गायों और बछड़ों के गले की घंटियाँ दूर से बजती हुई क्रमशः नज़दीक आती जा रही थीं। सड़क पर लोगों का आवागमन अचानक बढ़ गया था और एक अजीब-सी भन्नाट समूचे वातावरण में व्याप्त थी ।

सत्यव्रत ने दरवाज़े से आसमान की ओर देखा । पश्चिमी आकाश का रंग सुरमई से हल्का लाल होकर काला होता जा रहा था। अचानक उसे अपने गाँ की याद हो आई । नागल जानेवाले रास्ते पर नन्दूवाले तालाब के किनारे खड़े होकर जब वह शाम के आकाश को निहारता तो ऐसा लगता था मानो किन्हीं अदृश्य फ़ौलादी हाथों ने सूरज के बहुत बड़े फूल को कसकर दबा रखा है और उसका रंग और रस बह-बहकर दिशाओं के आँचल में बेतरतीबी से बिखर रहा है। तालाब के पानी, काँसों के झुरपुटों और खेतों में खड़ी फ़सलों पर गिरनेवाली लाल-लाल हल्की-हल्की किरणें मानो मधु की बूँदें हैं और चायँ - चायँ करती हुई चिड़िया मानो इस दृश्य की निर्ममता के प्रति विरोध प्रकट कर रही हैं ।

गाँव से सम्बन्धित और भी अनेक बातें उसके स्मृति - पटल पर आती चली गईं। कितनी ही देर तक वह अपने घर, माँ-बहन और गाय-बैलों के बारे में सोचता हुआ उदास-सा बैठा रहा लेकिन अचानक उसका ध्यान तब टूटा जब हॉस्टल के सारे लड़के एक साथ शोर मचाते हुए, बराबरवाले फाटक से बाहर निकले। सत्यव्रत समझ गया कि ये लोग रामलीला देखने जा रहे हैं ।

सड़क पर अँधेरा छा गया था और चलते-फिरते आदमी महज़ परछाइयों की तरह लग रहे थे । दूर चौराहेवाले म्युनिसिपल्टी के लैम्प में बत्ती जल उठी थी, मगर हॉस्टल के सामने का लैम्पपोस्ट सूना-सा खड़ा था। शायद किसी ने उसका लैम्प निकाल लिया था ।

सत्यव्रत ने अपनी लालटेन की चिमनी साफ़ करके जलाने की बात सोची ही थी कि तभी बराबर के चबूतरे से चौधरी नत्थूसिंह की आवाज़ आई, "मास्टर साहब ! मास्टर साहब !"

सत्यव्रत चबूतरे पर आ गया।

"डॉक्टर साहब गाँव गए हुए हैं, और मुझे इसी गाड़ी से बिजनौर जाना पड़ रहा है।" चौधरी साहब ने अपने डॉक्टर लड़के का और अपना कार्यक्रम बताते हुए कहा । फिर जैसे जाने की सफ़ाई देते हुए बोले, “गाड़ी आज दो घंटे लेट है, शायद मिल जाएगी। हाँ, विमला अकेली रामलीला देखने गई है। आप ज़रा लौटते में उसे अपने साथ लेते आइएगा। बहुत रात हो जाती है । मैंने उससे कह दिया है...."

“जी, आप निश्चिन्त रहें !” सत्यव्रत ने सहज तत्परता से कहा और चौधरी साहब एक हाथ में झोला लटकाए, दूसरे हाथ से अपना बन्द गले का कोट और गोल टोपी सँभालते हुए स्टेशन की ओर बढ़ गए।

लालटेन जलाकर सत्यव्रत तख़्त पर लेट रहा । सोचने लगा, कितनी सहजता से उसने चौधरी साहब को आश्वासन दे दिया। क्या उसका इरादा रामलीला देखने जाने का था ? वह तो राजेश्वर द्वारा किए गए लालाजी तक के निमन्त्रण पर अभी तक कोई मत स्थिर न कर पाया था ।

ज़मीन पर रखी लालटेन की धीमी-धीमी रोशनी, चटाई और कोने में दीवार से टिकी किताबों पर पड़ रही थी। पीछे प्रकाश का एक वृत्त सत्यव्रत के बाईं ओर लटके हाथ के नीचे बन गया था। कोई आठ-साढ़े आठ बजे होंगे अलस भाव से सत्यव्रत ने अंगड़ाई ली और उठकर रामलीला जाने के लिए चप्पल पहनने लगा । चौधरी साहब से वायदा किया है-जाना तो पड़ेगा ही ।

रामलीला नौ- साढ़े नौ बजे शुरू होती है। कभी-कभी दस भी बज जाते हैं। लेकिन आठ बजे से ही वहाँ जो भीड़ इकट्ठा होनी शुरू होती है, उसे देखकर जनता की श्रद्धा और रुचि का अनुमान लगाया जा सकता है। अपनी ही विचारधारा में खोया हुआ सत्यव्रत वहाँ तक चला तो गया, किन्तु वहाँ जाकर उसे ऐसा लगा जैसे वह किसी वर्जित स्थान पर आ पहुँचा हो । एक बड़ी-सी चहारदीवारी में पंडाल लगा था जिसमें पहुँचने के दो ही रास्ते थे - एक उत्तर और दूसरा दक्षिण की ओर से। पंडाल से बाहर खड़े हुए लोग ठेलों पर लगी चाय, पान और बीड़ी की दुकानों के इर्द-गिर्द मँडरा रहे थे । पाँवों से उखड़कर कच्ची ज़मीन की धूल ऊपर तक उठ आई थी, जो साँस लेते हुए नाक में अजीब-सी गन्ध भरती हुई फेफड़ों तक पहुँच जाती थी। चारों ओर बीड़ी-सिगरेट का धुआँ था । सत्यव्रत की अन्दर जाने की हिम्मत न हुई ।

तभी जाने किधर से आते हुए राजेश्वर ने उसके कन्धे पर हाथ रख दिया और लगभग अपने साथ घसीटते हुए कहा, “लौट रहे हैं ? लीला नहीं देखेंगे क्या, मास्टर साहब !” और सकपकाए हुए रंगे हाथों पकड़े गए अपराधी के-से भाव से सत्यव्रत राजेश्वर के पीछे-पीछे हो लिया ।

पंडाल आदमियों और औरतों से खचाखच भरा था। शामियाने के बाँसों पर आदर्श वाक्य और गैस की लालटेनें टँगी थीं। बच्चों की चिल्ल-पों और स्त्रियों की अर्थहीन ऊँची आवाज़ें, शोर का एक निश्चित स्तर बनाए थीं। आने-जाने का भीड़ में कोई रास्ता न था सिवाय उस एक किनारे के, जहाँ आठ-दस कुर्सियाँ और मूढ़े विद्यार्थियों ने मास्टरों के लिए ला रखे थे। वे दोनों वहाँ बैठ गए। जयप्रकाश भी वहाँ बैठा था। एक मूढ़ा सबसे आगे लाला हरीचन्द के लिए खाली छोड़ दिया गया था। पर्दा उठने में देर थी। मंच पर गैस के दो बड़े-बड़े हंडे जल रहे थे। प्रकाश में पर्दे पर बनी आठ गोपियाँ और उनके बीचोबीच खड़े मुरली बजाते हुए कृष्ण नारियों के आकर्षण-केन्द्र बने थे। थोड़ी देर बाद नक़ली सिल्क की भड़कदार साड़ी पहने और कृत्रिम उरोज लगाए किशोर वय का एक लड़का विंग से निकलकर सामने आया और मटक-मटककर गाने लगा :

'सैयाँ ने अँगुली मरोड़ी रे,
राम कसम सरमा गई मैं...'

उसके साथ ही फुन्देदार टोपी लगाए और मुँह पर सफ़ेद - काली धारियाँ बनाए हुए विदूषक भी दूसरे विंग से निकला और गीत को नाट्यरूप दिया जाने लगा ।

दर्शकों में उत्साह फैल गया और सबकी निगाहें मंच पर स्थिर हो गईं। केवल सत्यव्रत बीड़ियों की दुर्गन्ध पर सोचता हुआ कहीं दूर खो गया । नाट्य चलता रहा। पर्दे उठते और गिरते रहे। लाला हरीचन्द आकर अपने मूढ़े पर बैठ गए। सभी की भाँति उसने भी उठकर उन्हें नमस्ते की किन्तु उसका ध्यान स्टेज पर केन्द्रित नहीं हो पाया । उसे अभी तक वातावरण में घुटन और नथुनों में एक दुर्गन्ध-सी महसूस हो रही थी ।

तभी ज़ोर से तालियाँ बज उठीं और शोर मच गया। बालिस्टर साहब का लड़का भगवान् शंकर का वेश बनाए, नंगे बदन, भभूत मले, रबड़ का साँप गले में डाले, मंच पर आ बैठा था। और लाला हरीचन्द का लड़का राजसी पोशाक में वहीं खड़ा मुस्करा रहा था। बालिस्टर साहब की बूढ़ी माँ सीधी स्टेज पर पहुँची थीं और भगवान् शंकर का हाथ पकड़कर चिल्ला रही थीं, “जलगए ! इस सर्दी में नंगा बैट्ठा है, चल, तुझे मैं बताऊँगी ! भला कोई है देखनेवाला इस हरीचन्द का ? इनने अपने लौंडे कू तो राजा बना दिया और तुझे उत्ते यहाँ नंगा करके बिठा दिया है । जैसे सबसे ज्यादा चन्दा इनने ही दिया हो । चल बेट्टे, घर चल !”

इस अप्रत्याशित नाटक पर जनता बेतहाशा हँस रही थी और भगवान् शंकर-रूपी उनका पोता इन्दल कैलास के वातावरण में ऐसा रमा था कि उसकी शोभा छोड़कर घर जाने को तैयार नहीं हो रहा था ।

सत्यव्रत ने स्त्रियों की भीड़ में देखा तो उसे विमला दिखाई दी। पंडाल के बाँस से टिकी वह बराबर उसी की ओर देखे जा रही थी। इधर लाला हरीचन्द जयप्रकाश के कान में इस कांड के फूहड़पन की चर्चा कर रहे थे । जैसे-तैसे यह नाटक खत्म हुआ और शंकर भगवान् फिर अपनी पोजीशन में आ गए। यह देखने के लिए कि विमला किधर देख रही है, सत्यव्रत ने एक बार और उधर दृष्टि डाली और फिर अपलक दृष्टि से मंच की ओर देखने लगा ।

गाना हो रहा था : “जोगन बन जाऊँगी सैंया तोरे कारण... हो सैंया...."

विदूषक और वही पुराना लड़का मंच पर फिर आ गए थे। जनता-जनार्दन में फिर हास्य की लहरें उत्पन्न हो गई थीं । विदूषक बार-बार बाँहें फैलाकर मीरा-वेशधारी उस लड़के की ओर दौड़ता था और लड़का उसकी पकड़ से निकल- निकल जाता था।

अचानक विद्यार्थियों की ओर से किसी लड़के ने कुछ पैसे मंच पर फेंक दिए । सत्यव्रत का ध्यान फिर उचटकर मंच की ओर चला गया। बालिस्टर साहब की माँ विंग से निकलकर धीरे-धीरे बाहर बैठी औरतों की ओर आ रही थीं और मंच पर लगे दोनों गैस के हंडों में हवा कम हो गई थी। तभी शायद स्टेज- मैनेजर ने चिल्लाकर गैसवाले लड़के को डाँटा, “अबे, कहाँ मर गया ! हंडों में हवा ख़त्म हो रही है।"

सचमुच मंच पर कुछ ही क्षणों में रोशनी इतनी कम हो गई थी कि विदूषक की फुन्देदार टोपी काग़ज़ के हैट की तरह लगने लगी थी और दोनों आकृतियाँ धुँधली हो गई थीं।

एक विद्यार्थी की सीटी पर अचानक कई और सीटियाँ पंडाल में गूँज उठीं। एक क्षण को ऐसा लगा जैसे सरकस के कटघरे में बन्द कई हाथी सहसा बिगड़ गए हों और सूँड से 'सी-सी' की आवाजें कर रहे हों ।

मैनेजर ने दुबारा ज़ोर से आवाज़ लगाई तो पंडाल से बाहर निकलता हुआ लड़का सहसा लौट आया और चिल्लाकर बोला, “मैं हंडों में हवा भरूँ के सीताजी के लियो पान-बीड़ी लाऊँ ? मुस्सै एकी काम हो सकै। हाँ ।”

इस संवाद पर जयप्रकाश और राजेश्वर जोर से हँस रहे थे। मुस्कराकर सत्यव्रत ने अन्य दर्शकों की ओर देखा तो उसकी दृष्टि फिर विमला पर जा टिकी । वह कुछ ऐसे पोज़ में बैठी थी कि एक आँख मंच पर और एक सत्यव्रत की तरफ़ लगी थी ।

थोड़ी देर बाद भीड़ का कोलाहल, सीटियाँ और बातें करने की आवाजें धीमी होती हुई एकदम ख़ामोशी में बदल गईं। लड़के ने हंडों में हवा भरके उन्हें फिर यथास्थान लटका दिया था।

खेल शुरू हो गया था। भगवान् राम धनुष-बाण लटकाए मंच पर आ गए थे। कानों में पन्नी की नकली कुंडल और सिर पर चमकदार मुकुट- किरीट धारण किए वह माता कौशल्या से ऋषियों की रक्षा के लिए वन में जाने की अनुमति माँग रहे थे और माता कौशल्या उसकी अल्पवय और कैशोर्य की दुहाई देती हुई अपनी मातृत्व सहज वात्सल्य और भय प्रकट कर रही थीं....

जनता वात्सल्य-रस में सराबोर गद्गद भाव से इस स्थिति में डूबी थी। कहीं ज़रा सा भी शोर न था । कोई छोटा बच्चा यदि अचानक चीखकर रो पड़ता तो माँ उसे फ़ौरन चुप कराती हुई उसके मुँह में दूध ठूंस देती थी। इतनी अधिक शान्ति थी कि पंडाल के बाहर की आवाज़ें बखूबी अन्दर सुनी जा सकती थीं ।

कुछ देर तक इसी ख़ामोशी में बैठे रहने के बाद सत्यव्रत को लगा कि अब चलना चाहिए। मंच पर माता कौशल्या भोंडे ढंग से दुख प्रकट कर रही थीं और बार-बार कूल्हे मटकाकर अपने कृत्रिम उरोजों को आगे कर लेती थीं । सत्यव्रत विमला की तरफ़ देखकर उठ खड़ा हुआ। उसकी गर्दन अनायास इस ढंग से हिल उठी कि कोई भी देखता तो समझ जाता कि यह व्यक्ति अब लौटकर यहाँ नहीं आएगा।

“चलें !” उसने धीरे से राजेश्वर की बाँह थपथपाकर कहा और आगे बढ़ गया। मंच पर करुण संवाद चल रहे थे ।

औरतों की भीड़ में से विमला भी उठ खड़ी हुई। राजेश्वर ने एक दृष्टि सत्यव्रत पर और दूसरी विमला पर डाली और उसके होंठों पर अनायास एक कुटिल - सी मुस्कराहट खेल गई । कुछ क्षण ठहरकर आगे झुकते हुए उसने जयप्रकाश का कन्धा दबाया और एक आँख दबाकर इशारे से उसे सत्यव्रत और विमला को जाते हुए दिखाया। जयप्रकाश ने एक नज़र पीछे डाली और फिर सामने मंच की ओर देखने लगा। सत्यव्रत भीड़ में से निकलने का रास्ता बनाते हुए पंडाल के उत्तरी दरवाज़े तक जा पहुँचा था । विमला भी उधर की तरफ़ ही बढ़ रही थी ।

राजेश्वर ने फिर कुछ बात करनी चाही तो जयप्रकाश ने हाथ हिलाकर मना कर दिया। उसका इशारा था कि यह बात करने की जगह नहीं है ।

पंडाल के दरवाज़े से थोड़ा आगे एक नीम के पेड़-तले खड़ा सत्यव्रत विमला का इन्तज़ार कर रहा था। उसके मन में एक बार भी यह संशय नहीं आया कि शायद वह न आए ! सत्यव्रत इतना आश्वस्त था जैसे वह उससे कोई वचन ले चुका हो ।

“अरे, मैं सोचती थी कि कहीं आप आगे न निकल गए हों।" सहसा तेज़ क़दमों से आती हुई विमला उसे पेड़-तले अँधेरे में खड़ा देखकर ठिठक गई। दोनों साथ-साथ चलने लगे ।

सत्यव्रत ने कोई उत्तर नहीं दिया।

रात का घटाटोप अन्धकार और उसमें तिमिर से लड़ने की असफल चेष्टा करते हुए फ़ासले पर खड़े म्युनिसिपैल्टी के लैम्प-पोस्ट ! तीन-चार फ़र्लांग का रास्ता और बारह - एक का वक़्त ।

रामलीला के संवादों की आवाज़ अब भी आ रही थी। ऐसा लगता था कि किसी तहखाने में कुछ लोगों को बन्द कर दिया गया है और वे गला फाड़-फाड़कर चिल्ला रहे हैं। ज्यों-ज्यों ये दानों आगे बढ़ते गए, रामलीला की आवाजें धीमी होती गईं। मगर फिर झींगुरों और झिल्लियों की आवाज़ें उभरने लगीं जो पहली आवाज़ों से ज़्यादा अजनबी और भयावह थीं। सड़क ऊबड़-खाबड़ थी जिसके रोड़ों से बरबस ठोकर लग जाती थी । सत्यव्रत सड़क से उतरकर बराबर की कच्ची पगडंडी पर आ गया तो विमला भी उसी के बराबर-बराबर चलने लगी ।

सत्यव्रत की दृष्टि चौकन्नी - सी आगे पीछे घूम रही थी कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा। उसके दाएँ हाथ पर विमला इतने धीरे-धीरे चल रही थी जैसे आज घर पहुँचने का उसका कोई इरादा ही न हो। उसे लग रहा था कि इसी तरह सत्यव्रत के साथ चलते रहने में कोई बड़ा भारी सुख है जिसकी तुलना किसी भी लौकिक सुख से नहीं की जा सकती। बाएँ हाथ पर नाली थी जिसमें खड़ी घास और भँभोलन के छोटे-छोटे पेड़ों में जब-तब कोई कीड़ा सरसरा उठता था ।

सहसा नाली की घास में से उछलकर रास्ता काटती हुई एक बिल्ली सड़क के दूसरी ओर निकल आई और इस आकस्मिकता से घबराकर विमला एकदम सत्यव्रत से आ सटी और उसके सीने पर सिर रखकर उससे चिपट गई। सत्यव्रत के क़दम अपने-आप रुक गए। क्षण-भर के लिए वह स्थिति पर विचार-सा करता रह गया मगर दूसरे ही पल घबराकर पीछे देखते हुए उसने बाँह पकड़कर विमला को अपने से अलग कर दिया। फिर जैसे स्पष्टीकरण देता हुआ बोला, “बिल्ली थी। जुलाहों के मकान पर चढ़ गई।”

“हमें बड़ा डर लगता है।” काँपती हुई आवाज़ में विमला ने कहा और अलग होकर चलने लगी ।

झींगुरों और झिल्लियों की झंकार और रामलीला के संवादों की आवाज़ अब भी आ रही थी, पर उसका शोर शायद उनके भीतर उठनेवाले उस कोलाहल से ज़्यादा न था जिसे वे दोनों ही सुन रहे थे ।

दोनों के क़दम लड़खड़ा रहे थे; और दोनों चलते हुए बीच में फ़ासला बनाए रखने की कोशिश कर रहे थे।

सहसा हवा तेज़ हो गई। थोड़ी देर पहले जब वे रामलीला - पंडाल से चले थे तो आसमान पर बादल छाए थे और एकाध बूँद धरती पर गिर चुकी थी। मगर अब वर्षा की कोई सम्भावना न थी । हवा उत्तेजित पगली औरत की तरह सायँ - सायँ कर रही थी ।

सत्यव्रत सोच रहा था, “राजेश्वर ने ज़रूर दोनों को उठते हुए देखा होगा.... हॉस्टल के लड़कों को तो पहले से ही शक है...कल टीचर्स - रूम में जाने क्या-क्या सुनने को मिले ?”

विमला सोच रही थी, “ये खामखाँ दूरी बनाए रखना चाहते हैं । प्रकृति के सहज नियम पर अपना हठ रोपकर अपने को बड़ा साबित करना चाहते हैं। वैसे इनके मन में स्नेह तो है ही ।”

तभी थाने में एक का घंटा बजा और वातावरण में घंटे की गूँज भर गई। दोनों घर के नज़दीक आ गए थे। सहसा विमला ने निस्तब्धता को तोड़ा, “अब आप कोठरी में जाकर क्या करेंगे ?”

"सो जाऊँगा।”

“अभी से सो जाएँगे ?” विमला ने आश्चर्य से पूछा ।

“नहीं, अभी तो कुछ देर जागूँगा।” सत्यव्रत ने ऐसे कहा जैसे अभी से जाकर सो जाना सचमुच कोई बहुत ख़राब बात हो ।

“ तक ठीक है !” विमला सन्तुष्ट होकर बोली ।

सत्यव्रत चौंक उठा। क्या ठीक है ? यह उसकी पूछने की इच्छा हुई। लेकिन वह बोल नहीं सका । उसे लगा कि अनायास उसने विमला को किसी बात की स्वीकृति तो नहीं दे दी ? वह याद करने की कोशिश करने लगा कि विमला ने क्या पूछा था और उसने क्या उत्तर दिया था। शायद बात कुछ ऐसी थी कि वह जाकर फ़ौरन सो तो नहीं जाएगा। मगर उसका विमला से क्या सम्बन्ध है ? उसने क्यों यह प्रश्न पूछा ? कहीं... कहीं उसका इरादा.... !

विमला अपने घर के दरवाज़े पर पहुँचकर साँकल खड़खड़ाने लगी थी । उसकी बूढ़ी दादी शायद बहुत गहरी नींद सो रही थी। बहुत देर तक साँकल खड़कती रही, खड़कती रही, तब जाकर दरवाज़ा खुला ।

अपनी कोठरी में पहुँचकर सत्यव्रत को भी बहुत देर तक नींद नहीं आई । उसे बराबर ऐसा लग रहा था जैसे उसके दरवाज़े पर कोई दस्तकें दे रहा हो। अगर उसने फ़ौरन दरवाजा न खोला तो साँकलें बजने लगेंगी और देर तक बजती रहेंगी और सारा मुहल्ला उसके दरवाज़े पर जमा हो जाएगा।

आखिर उसने उठकर कोठरी के बाहरी दरवाज़े की साँकल खोल दी । तब कहीं जाकर उसे नींद आ सकी।

जाले (अध्याय-12)

शहर के लोग बरसात पर पारम्परिक दृष्टि से सोचते हैं - इस साल बारिश खुलकर नहीं हुई। एक दिन होती है, फिर तीन दिन के लिए बन्द । गाँव के अध्यापक इस स्थिति पर फ़सल में हानि-लाभ के दृष्टिकोण से विचार करते हैं । अन्य अध्यापक लोग कहते हैं- कितनी उमस है ! पिछले साल बारिश हुई थी तो सात दिन तक धूप के दर्शन नहीं हुए थे । और 'रेनी - डे' छुट्टियाँ कितनी हुई थीं ! और इस साल... बारिश चाहे कितनी हो मगर कॉलेज के टाइम पर ज़रूर हल्की हो जाएगी। एक भी 'रेनी डे' की छुट्टी नहीं हुई ।

उस दिन टीचर्स रूम में यही चर्चा थी। बाहर धूप चिलचिला रही थी और मोटी चमड़ी पर उभर आई पसीने की अनगिन बूँदों को धोती के पल्लू से पोंछते हुए प्रवीणचन्द्र शास्त्री निदाघ - निन्दा कर रहे थे - “ आनन्द आ जाए यदि संस्कृत काव्यों की नायिकाओं को ऐसी धूप में रहना पड़े तो !" वह कह रहे थे, “सारा 'अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनम् '... वाला सौन्दर्य पिघल जाए !”

उसी समय मास्टर जयप्रकाश और सत्यव्रत चिक उठाकर कमरे में दाखिल हुए। राजेश्वर चिहुँककर कुर्सी से खड़ा हो गया, “हद कर देते हो, यार ! कल रात भर इन्तज़ार करता रहा और आज सुबह से तलाश में हूँ । कहाँ जा छिपते हो ?"

“मुझे सेक्रेटरी साहब के यहाँ जाना पड़ा था और फिर कोतवाली भी गया । " जयप्रकाश ने गम्भीर होकर कहा और माथे का पसीना पोंछते हुए एक कुर्सी पर बैठ गया ।

“ आज बहुत गर्मी है।” सत्यव्रत बोला ।

“वैसे कुशल तो है ?” शास्त्रीजी ने चौंकते हुए जयप्रकाश से पूछा, “कल रामलीला में भी आप नहीं आए। मैं सोचता था धनुषभंग के समय आप अवश्य आएँगे वहाँ !”

जयप्रकाश हँस दिया। एक मासूम मगर शैतानी से भरी हुई मुस्कराहट उसकी आँखों और होंठों पर छलक उठी । बोला, “धनुष मुझे भंग करना था क्या ?"

“आज कितने दिनों बाद मुस्कराए हैं, हुजूर !” राजेश्वर ने पूछा और साँस खींचकर बोला, “लाख-लाख शुक्र है परवरदिगार का ।”

“हम लोगों का मुस्कराना क्या ? हम तो ऐसे हँसते हैं जैसे लोग कभी-कभी फ़ोटो खिंचवाने के लिए हँसी माँग लाते हैं।” जयप्रकाश मुस्कराकर बोला, “फिर भी ऐसे मौक़े कमबख़्त आ ही जाते हैं कि दर्द की हज़ारों मील लम्बी घाटियों से निकलकर नौजवान पंछी की तरह हँसी बेसाख्ता फुर्र से होंठों की फुनगी पर आ बैठती है।"

“काव्यात्मक अभिव्यक्ति !” शास्त्रीजी चिल्लाए, “देखिए, सत्यव्रतजी ! मुझे भवभूति और कालिदास का स्मरण आ रहा है। तनिक भाषा - पक्ष दुर्बल है ।”

“आप लोगों की-सी प्रतिभा कहाँ से लाऊँ, शास्त्रीजी !” जयप्रकाश ने असमर्थता में कन्धे झटकाते हुए कहा, “आप तो कलाकार हैं। देवी सरस्वती आपको सिद्ध हैं। मगर मैं तो मामूली सा आदमी हूँ, जनता की ज़बान बोलता हूँ। क्या करूँ..."

शास्त्रीजी के गालों पर सुर्खी आने लगी। प्रशंसा उन्हें लाल कर देती है । केवल जयप्रकाश ही उनकी प्रतिभा को पहचान पाया है, ऐसा उन्हें लगता है । शास्त्रीजी ने कई बार सुना है कि उनके सामने एक-दो वाक्यों में ही उनकी प्रशंसा समाप्त कर देनेवाला जयप्रकाश उनकी अनुपस्थिति में उनकी तारीफ़ करता नहीं अघाता ।

उस दिन टीचर्स - रूम से निकलकर वह बाहर खड़े हो गए थे और अपने कानों से उन्होंने जयप्रकाश को कहते सुना था, “इस स्कूल का सौभाग्य है, जो इसे शास्त्रीजी - जैसा महान व्यक्तित्व अनायास मिल गया... वरना...” और लोग जयप्रकाश पर ठठाकर हँस पड़े थे। बेचारा चुप हो गया। पाठक, रामाधीन, रस्तोगी, वर्मा सब थे। पवन भी था। तभी से तो शास्त्रीजी उत्तमचन्द के गुट से निकल आए हैं। जयप्रकाश आदमी को पहचानकर इज़्ज़त करना जानता है ।

अपनी प्रशंसा के प्रसंग को टालते हुए बोले, “जयप्रकाशजी, मैं आपके निर्देशानुसार कल सन्ध्या समय आ गया वहाँ । और भगवती सरस्वती की कृपा से स्थिति अनुकूल ही जान पड़ती है।”

जब से पाठक के चाचा का, जो डिप्टी कलेक्टर, थे, यहाँ से तबादला हुआ है, पाठक अपने प्रति प्रिंसिपल उत्तमचन्द का व्यवहार बदला-बदला सा पाता है, और जब कभी वह जयप्रकाश वग़ैरह के साथ बैठता है, तो अदबदाकर प्रिंसिपल साहब का बुलावा आ जाता है। इस समय भी चपरासी पाठक का बुलावा लेकर आ गया ओर उसे जाना पड़ा।

जयप्रकाश हँस दिया, बोला, “इसे कहते हैं, 'गिल्टी कान्शेन्स' । उत्तमचन्द घबराता है कि हममें न मिल जाए।”

“पाप का घट पूर्ण हो गया है, जयप्रकाशजी ।” शास्त्रीजी बोले, “आप देखते रहिए, यह राजनीति स्वयं उसी के लिए घातक बननेवाली है।”

“आपसे क्या कहा लालाजी ने ?” राजेश्वर ने पूछा, “हमने सुना, आप प्रिंसिपल हो रहे हैं।”

शास्त्रीजी राजेश्वर पर विश्वास नहीं करते, इसलिए कहने की इच्छा रखते हुए भी बात को पी गए ।

जयप्रकाश समझ गया। शास्त्रीजी को थोड़े विश्वास का 'डोज़' चाहिए। बोला, “तुम बताओ ठाकुर, तुम्हारी क्या बातें हुईं ?"

“मेरी ?” खुशी से आँखें चमचमाते हुए राजेश्वर ने कहा, “मुख़्तसिर ये है कि कृषि - योजना नहीं चलेगी और...” फिर धीरे से एक आँख दबाकर बोला, “ शास्त्रीजी के चान्सेज़ बहुत हैं।”

“गुड !” जयप्रकाश खुशी से उछलकर बोला, “शास्त्रीजी, अब आप बाबू हरकरण सहाय को पकड़ लीजिए, बस, आपका काम सफल !”

टन-टन-टन-टन चार घंटे बज गए। शास्त्रीजी उठ खड़े हुए।

राजेश्वर भी उठ खड़ा हुआ था। लौटकर बोला, “कोतवाली क्यों गए थे ?”

“अताउल्ला ख़ाँ कोतवाल को सौगात देने।” जयप्रकाश ने धीरे से कहा, “तुम्हें मालूम नहीं, कल उसने हमारे सेक्रेटरी लाला गनेशीलाल की इज़्ज़त का धनुष तोड़ दिया और उसी के टुकड़े लौटाने के लिए पाँच सौ रुपए की रिश्वत ली और वह भी मेरी मार्फ़त ।”

“तुम्हारी मार्फ़त ? तो सोहन छूट गया ?”

“छूट गया होगा ।” जयप्रकाश ने उपेक्षा से पूछा, “पाँच सौ रुपए पर सौदा हुआ था। पहले रुपए, बाद में सोहन की रिहाई। इसीलिए तो मुझे सेक्रेटरी साहब ने बुलाया था।”

“मगर रिश्वत लेने के लिए तुम्हें ही क्यों चुना गया ?” राजेश्वर ने पूछा ।

“विश्वास उसका।” जयप्रकाश ने कहा। फिर सत्यवत की ओर देखकर बोला, “क्यों मास्टर साहब, आपके साथ इंटरव्यू के लिए कोई असरार नामक लड़का भी आया था क्या, जो नहीं लिया गया ?"

“हाँ, हाँ।” राजेश्वर और सत्यव्रत दोनों ने एक साथ ही याद करते हुए हामी भरी ।

“बस, उसी की चुस निकाली है कोतवाल ने । वरना कोई मामला था साला ! इससे ज़्यादा सीरियस केस तो उम्मेदसिंह वाला था । उसमें कम-से-कम रिपोर्ट लिखानेवाला तो था कोई, यहाँ तो जाट लोग अपने कपड़े छुड़ाने की जल्दी मचाए थे। मगर ख़ैर... खुशी की ही बात है,” और राजेश्वर से हाथ मिलाकर उसने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया ।

पीरियड शुरू हो गया था। राजेश्वर फौरन चला गया। जयप्रकाश ने डायरी निकाली और भरनी शुरू कर दी। प्रिंसिपल उत्तमचन्द ने उस दिन कहा था, “इन्सपेक्शन- पैनल जल्दी ही आनेवाला है। हर टीचर अपनी डायरी ठीक रखे। मैं किसी की भी डायरी किसी भी वक़्त मँगा सकता हूँ। साथ ही सबके रजिस्टर भी 'कम्पलीट' रहने चाहिए ।"

सत्यव्रत भी रजिस्टर में सिर खपा रहा था । वह आठवीं कक्षा का क्लास-टीचर है। छठी से लेकर बारहवीं कक्षा तक के लड़कों को हिन्दी-संस्कृत आवश्यकतानुसार पढ़ाता है। आठवीं को गणित और दसवीं कक्षा को इतिहास भी पढ़ाता है । और इनके लिए उसे रोजाना दो-चार घंटे पढ़ना भी पड़ता है।

उस दिन जब जयप्रकाश ने पूछा था, “आप इतना परिश्रम क्यों करते हैं ?" तो उसने कहा था, “मुझे अच्छा लगता है।” सोचने लगा था सत्यव्रत, कि सचमुच वह श्रम से नहीं घबराता किन्तु इस वातावरण से उसे ज़रूर कभी-कभी घबराहट होने लगती है ।

देर तक उसके मुँह पर आत्म-चिन्तन की वेदनामयी रेखाएँ उभरती रहीं और आत्मा में संघर्ष चलता रहा। उसने रजिस्टर में एक शब्द नहीं लिखा और उँगलियों में दबी खुली हुई क़लम से मेज़ पर रखे 'डस्टर' को स्याही पिलाता रहा।

“मैं देख रहा हूँ आप कुछ परेशान -से हैं, मास्टर साहब ! पहले मैंने सोचा था आप मुझसे नाराज़ हैं। उस दिन हॉस्टल खुलने के बारे में हुई बहस से लेकर आज तक मैं निरन्तर देखता आ रहा हूँ। लगता है आप कहीं दुख रहे हैं। मैंने या किसी और ने ज़रूर आपके मर्म को छुआ है। क्या आप मुझे नहीं बताएँगे कि आपको क्या परेशानी है ?" सहसा जयप्रकाश ने पूछा।

कितना स्नेह ! कितनी निश्छल सरल आत्मीयता ! कैसा अपनत्व ! इसी के सम्मुख सत्यव्रत निरस्त्र हो जाता है। उस दिन की नाराजी भी चार-छह घंटे से ज़्यादा कहाँ टिक पाई थी ! जयप्रकाश से नाराज़ कैसे हुआ जा सकता है ?

सत्यव्रत बोला, “सच पूछिए तो मैं इस वातावरण में अभी तक अपने-आपको स्थित नहीं कर पाया।”

"मगर क्यों ?”

“इसलिए कि शिक्षा का जो पुनीत स्वप्न मेरे मन में था और है, उसे साकार और प्रतिस्थापित करने का यहाँ कोई अवसर नहीं । न वातावरण है, न संगी-साथी । आप हैं, किन्तु आप भी शिक्षा के उस वातावरण से अधिक महत्त्व... मुझे क्ष करेंगे, जय भाई ।” सत्यव्रत हिचका ।

“नहीं, नहीं, कहते रहिए। मुझे अपनी दुर्बलताएँ सुनकर बड़ी स्वस्थ प्रेरणा मिलती है ।" जयप्रकाश ने प्रोत्साहन दिया ।

सत्यव्रत उल्लसित होकर आत्मीयता से बोला, “आप राजनीति, और कहूँ कि क्षुद्र राजनीति को अधिक महत्त्व देते हैं, जय भाई ! आप बताइए, आपकी प्रतिभा का कितना प्रतिशत विद्यार्थियों को मिलता है ? और यहाँ अध्यापकों में शिक्षा के प्रति कितनी विरक्ति और परनिन्दा में कितनी लिप्ति है... ? मैं... मैं कहना नहीं चाहता, सम्भव है आप गर्वोक्ति समझें, किन्तु शिक्षादान की जो भी महती कल्पनाएँ मेरे मन में थीं, सब चकनाचूर हो रही है यहाँ आकर !”

सत्यव्रत कुछ उत्तेजित होकर सहम गया और जयप्रकाश की प्रतिक्रिया देखने लगा कि उसे बुरा तो नहीं लग रहा ।

“कह चुके ?” जयप्रकाश ने उसी शान्त-स्थिर भाव से कहा, “अब मेरी बात सुनो। जहाँ तक शिक्षा-दान की आपकी भावना का प्रश्न है, मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं उसकी सच्चे दिल से क़द्र करता हूँ और इसीलिए आपको निकट अनुभव करता हूँ। पर जहाँ तक वातावरण का प्रश्न है, मैं आपको बता दूँ कि सब जगह और सारे स्कूलों में कमोबेश यही वातावरण आपको मिलेगा । हमारे देश में अध्यापक बेचारे को समाज का सबसे निरीह और दयनीय प्राणी समझा जाता है और सब जगह उसी पर सबसे ज़्यादा अत्याचार होते हैं। फिर भी दुर्भाग्य यह कि उसी अध्यापक पर सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ लाद दी गई हैं।"

फिर, एक पल रुककर उसने धीरे से कहा, “ मास्टर साहब ! आप देखेंगे कि आपका शिक्षा का वह स्वप्न इस आजाद हिन्दुस्तान में कहीं भी मूर्त नहीं हो सकता।"

“जय भाई !” सत्यव्रत ने तर्क का एक सूत्र पकड़ते हुए कहा, “माना कि शिक्षा का वातावरण कहीं भी आदर्श नहीं है, पर क्या हमारा यह प्रयत्न नहीं होना चाहिए कि हम उसे आदर्श बनाने की दिशा में कार्य करें ?”

“अवश्य होना चाहिए।” जयप्रकाश ने मुस्कराकर पलकें झपकाते हुए कहा, " मगर आप जिसे राजनीति कहते हैं, मास्टर साहब, वह वास्तव में इन्हीं प्रयत्नों का तो एक छोर है । जैसे किसी पुराने घर में घुसने से पूर्व जाले वगैरह साफ़ करने पड़ते हैं, वैसे ही कुछ मेरी यह कार्यप्रणाली है, जिसे आप राजनीति कहते हैं ।”

“मैं जान सकता हूँ ये जाले कैसे आए ।”

" अपने कॉलेज की बात करें तो स्थिति ज़्यादा स्पष्ट होगी। हमारे यहाँ अधिकतर जाले स्वार्थ के हैं जिन्हें लाला हरीचन्द, गनेशीलाल और उत्तमचन्द ने फैलाया है। इसलिए मैं सोचता हूँ कि जब तक ये जाले साफ़ नहीं होंगे, ये संस्था आदर्श शिक्षण संस्था नहीं बन सकती।”

“जय भाई, बुरा मत मानिएगा, पर मैं सिर्फ़ अपनी जानकारी के लिए पूछना चाहता हूँ कि क्या आपने अपनी इस धारणा को कभी स्थिति और परिस्थिति के सच्चे सन्दर्भों में तोलकर देखा है ?” “सत्यव्रत ने पूछा ।

“बीसियों बार ! और हर बार मुझे ये जाले दिखाई दिए हैं। हर बार मेरी धारणा दृढ़तर होती गई है।" जयप्रकाश ने सहज पीड़ित विश्वास से कहा ।

“पर मुझे ये जाले क्यों दिखाई नहीं देते ? मेरे मन में संशय क्यों नहीं उपजता ? मुझे मैनेजमेंट के कार्यों में अनौचित्य क्यों नज़र नहीं आता ? मैं क्यों उनकी बातों के एक से अनेक आशय नहीं निकाल पाता ?” सत्यव्रत तेज़ बोलता-बोलता एकदम धीमा हो गया और थके-से स्वर में बोला, “जय भाई, हर बात का कोई दुराशय हो ही, यह आवश्यक नहीं है। मनुष्य पर से विश्वास उठ जाने के बाद ही ऐसी भावना मन में जन्म लेती है ।”

“बिलकुल ठीक।” जयप्रकाश ने कहा, “पर सवाल है कि मनुष्य पर से विश्वास कब हटता है ? जब वह विश्वासघात करे, तभी न! तभी उसकी बातों में आशय और दुराशय ढूँढ़ने की जरूरत महसूस होती है; वरना मैं आपकी बातों का भी तो ग़लत आशय निकाल सकता था । आप पर अविश्वास भी कर सकता था !”

" फिर क्यों नहीं किया ?” सत्यव्रत ने पूछा।

“ इसलिए कि आप मूलतः अच्छे आदमी हैं। आपकी अन्तरात्मा और दृष्टि साफ़ है । आप चीज़ों को उनके सही सन्दर्भों में देखते हैं।" जयप्रकाश ने कहा ।

इतनी बड़ी प्रशंसा पर सत्यव्रत को चुप हो जाना चाहिए था । किन्तु वह निश्चय कर चुका था कि आज तर्क द्वारा जयप्रकाश को निरुत्तर करके हमेशा के लिए उसके मन से द्वेष निकालकर रहेगा। बोला, “जब मेरी दृष्टि साफ़ है तो मुझे ये जाले क्यों दिखाई नहीं देते ?”

जयप्रकाश बड़ी प्यारी सी हँसी हँस दिया, बोला, “देखिए मास्टर साहब ! आप मेरे मुहावरे का ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं। फिर भी मैं कहूँगा कि ये स्वार्थ के जाले वस्तुतः शोषण के फन्दे हैं । और पूँजीवाद अपना जाल हमेशा ईमानदारी के रंग में रंगकर फैलाता है। वक़्त की धूप में जब ईमानदारी का मुलम्मा उतर जाता है तो चारों तरफ़ केवल फन्दे - ही फन्दे रह जाते हैं। तब फँसनेवाले को मालूम होता है कि बुरे फँसे । और तब जाल फैलानेवालों को जी भरकर गालियाँ देने के अलावा उसके पास कोई चारा नहीं रहता । हाँ, शुरू-शुरू में ईमानदारी की ऊपरी चमक ही उसे आकृष्ट करती है और वह इतनी तेज़ होती है कि वह पूरे विश्वास के साथ शोषण को ईमानदारी ही समझता है ।" और फिर जयप्रकाश ने अपनी गर्दन टेढ़ी करके सत्यव्रत को आपादमस्तक देखते हुए मुस्कराकर कहा, “ मास्टर साहब ! आप सरल हैं, नए हैं, ईमानदारी की चमक से आक्रान्त हैं। आप और थोड़े दिनों तक इस चमक से चकाचौंध रहेंगे और शोषण को सत्य का प्रतीक समझेंगे !”

“ तो जय भाई, आप ऐसा क्यों नहीं मानते कि यह सत्य है ?” और आगे सत्यव्रत ने मन-ही-मन मुस्कराकर कहा, "क्या आप सरल और ईमानदार नहीं ?"

“मैं नया नहीं हूँ।” जयप्रकाश ने तुरन्त उत्तर दिया, “शोषण के इस जाल की चमक मेरे लिए ख़त्म हो चुकी है। मैं क़दम क़दम पर उन फन्दों को महसूस करता हूँ जो मुझे चारों ओर से घेरे हैं। मैं हर आनेवाले से चिल्लाकर कहता हूँ कि यह जाल है, इससे सावधान । मगर अधिकांश लोग तब तक मुझे नहीं सुनते जब तक दो-चार फन्दे उनके गले में नहीं पड़ जाते। और फिर, वे भी मेरे साथ गालियाँ देने और चिल्लाने लगते हैं। आप देखते जाइए, थोड़े दिनों बाद आप भी मेरे साथ होंगे।"

जयप्रकाश चाहे विद्यार्थियों से गाली देकर बात करे या साथियों से तकल्लुफ़ाना अन्दाज़ में मगर वाक्यों के पीछे इतनी सच्ची भावना झलकती है कि असहमत होते हुए भी उसकी बातों पर अविश्वास प्रकट करने की इच्छा नहीं हुई सत्यव्रत की। धीरे से बोला, “भाईजी, मुझे अन्यथा न लेना। मैं कुछ सीखने और जानने के लिए ही आपसे उलझ जाता हूँ ।"

जयप्रकाश फिर मुस्करा दिया। इस बार उसकी मुस्कराहट में मासूमियत नहीं, दर्द था । बोला, “आप मुझसे नहीं उलझे मास्टर साहब ! आप जहाँ उलझे हैं उस जगह को पहचानने की कोशिश ही नहीं कर रहे। खैर, वक़्त की धूप में जब जाल की चमक उतर जाएगी तो आपको भी फन्दे नज़र आने लगेंगे ।”

संरक्षक (अध्याय-13)

इतनी बेसब्री से लालाजी ने कभी किसी मास्टर का इन्तज़ार नहीं किया जितनी आज जयप्रकाश के इन्तज़ार में प्रकट हो रही है।

सेक्रेटरी गनेशीलाल ने लड़कों के लिए जो होटल सामने, ततैयोंवाले मकान के रथखाने में खुलवाया था उसमें कुछ दिनों से लड़कों ने खाना छोड़ दिया है और हॉस्टल में ही अपने खाने की व्यवस्था कर ली है । कल मीटिंग खत्म होने के बाद गनेशीलाल जाते-जाते कह गया था, “लालाजी, देख लो, अब आप पै ही है । अगर अभी से होटल बन्द हो गिया तो समझो मुझे बड़ा खड़ा घाटा होवैगा । कम-से-कम मेरे बर्तनों की किम्मत निकल आवै, ऐसा मिजान तो कर दो।"

लालाजी ने कल ही हिसाब लगाकर देख लिया था । होटल पर कुल मिलाकर तीस - पैंतीस लड़के खाना खाते हैं और तीस रुपया महीना देते हैं। अनाज, सब्ज़ी - तरकारी और नौकरों का खर्चा निकालकर इस ज़माने में एक लड़के पर छह-सात रुपए से ज़्यादा की बचत नहीं हो सकती और अगर अभी से होटल बन्द हो गया तो गनेशीलाल ज़रूर घाटे में रहेगा ।

“बेफिकर रौ भय्या, गनेसीलाल, ” उन्होंने गनेशीलाल को आश्वासन दिया, “ईश्वर ने चाहा तो होटल बन्द नई होवैगा ।”

मगर उन्हें कोई रास्ता भी ऐसा नज़र नहीं आता जिससे होटल चलने की कोई सूरत निकले। उनके दिमाग़ में रह-रहकर कल की मीटिंग में हुई बाबू हरकरण सहाय की बातें घूम जाती हैं जब उन्होंने सत्यव्रत से पूछा था, “ कहिए, आपको क्या कहना है ?"

“जी, मुझे तो कुछ नहीं कहना।” सत्यव्रत ने कहा था, “मुझे स्वयं ज्ञात नहीं कि छात्रों ने क्यों मोहन बाबू के होटल पर खाना खाने से मना कर दिया है । वस्तुतः मुझे तो एक दिन बाद यह सब ज्ञात हुआ कि लड़के अपना खाना हॉस्टल में ही बनवा रहे हैं।"

लोग कहते हैं कि लालाजी परेशानियों को मुस्कराहटों के नीचे पहनते हैं। बड़ी से बड़ी भूल के लिए भी उन्हें किसी ने कभी पछताते या दुःखी होते नहीं देखा। लेकिन बाबू हरकरण सहाय को कमेटी का मेम्बर बनाकर अब वे पछताते हैं। बाबू साहब अगर न होते तो कल होटल का मामला तय हो गया होता ।

दरअसल बाबू हरकरण सहाय में समझौते की वह स्प्रिट नहीं, जो चार आदमियों को मिलाकर काम करने के लिए प्रेरित करती है। लालाजी सोचते हैं कि जहाँ अपनी कोई हानि नहीं वहाँ दूसरे की 'हाँ' में 'हाँ' मिलाकर उसे खुश कर देने में क्या बिगड़ता है ! मगर बाबू साहब का अपना अलग ही ढंग है । वह हर समस्या पर अपना ग़लत या सही एक निश्चित मत रखते हैं और इसलिए वह हर चीज़ में दखल देते हैं। और अगर उनसे मत के विपरीत किसी ने कुछ किया तो फ़ौरन कह उठते हैं, “नहीं, नहीं, तुम नहीं समझते हो। तुम गधे हो !"

लोग कहते हैं, “कृषि विभाग में अफ़सरी करते-करते ऐसी ही आदत हो गई है ।" लालाजी भी जानते हैं कि दिमाग में अफ़सरी की बू है। अभी उस दिन रामलीला ही की बात उठी थी तो कहने लगे, “नहीं-नहीं, यह सब वाहियात है । इन्हें पैसा देना धन का दुरुपयोग करना है। ये लोग महान चरित्रों की छीछालेदर करते हैं। इन्हें चले जाने दो।”

दरअसल शहर के कुछ लोग रामलीला मंडली को दशहरे तक रोकने के पक्ष में थे और उसी के लिए चन्दा उगाहने लालाजी और बाबू साहब के पास आए थे ।

आखिर लालाजी को भी इतना कहना ही पड़ा, “भैया, हर चीज़ अपने मौसम में ही सुहावै है। भला बरसात में कहीं लीला होवै है ?”

मगर कल तो हद कर दी बाबू साहब ने। भारी मीटिंग में उन्होंने सत्यव्रत से कहा दिया, “अपने हॉस्टल के आप मालिक हैं। जैसा उचित समझें करें। कमेटी उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी।”

इससे मास्टरों के मिज़ाज नहीं बिगड़ेंगे तो क्या होगा ? लालाजी को लगा कि गनेशीलाल भी अपने होटल के नुक़सान का उन्हें ही जिम्मेदार ठहराएगा ।

हालाँकि लालाजी भली-भाँति जानते हैं कि गनेशीलाल के होटल पर खाने की व्यवस्था ठीक नहीं थी, एक-दो बार जब वह उधर से गुज़रे थे तो उन्होंने लड़कों को खाना खाते हुए देखा था। थालियाँ काली थीं और उनके चारों तरफ़ झुंड के झुंड मक्खियाँ मँडरा रही थीं। बेंचें गन्दी और खस्ताहाल थीं और उन पर बिखरी पड़ी सब्ज़ियों और दाल के दाग़ों को देखकर उन्होंने एक दिन खुद नौकरों से कहा था, "भई, कभी - कभी इनकी सफ़ाई भी कर लिया करो।" मगर उन्हें यह मालूम थोड़े ही था कि लड़के इसी बात पर वहाँ खाना छोड़ देंगे ।

लालाजी वास्तव में होटल बन्द होने के पक्ष में न थे, इसीलिए गनेशीलाल की इच्छा पर उन्होंने तुरन्त कमेटी की एक बैठक बुला ली थी। मगर ग़लती यह हुई कि उन्होंने इस समस्या को बहुत साधारण समझा। दरअसल उन्हें पहले से ही यह योजना बना लेनी चाहिए थी कि बात को कैसे रखना है !

उन्हें याद आया कि कल सत्यव्रत ने जब बड़ी सरलता से अपनी अनभिज्ञता प्रकट कर दी तो भरी मीटिंग में सन्नाटा छा गया था, जैसे कोई साँप निकल आया हो और जैसे किसी को बोलने योग्य पाइंट ही न मिल रहा हो। आख़िर हारकर गनेशीलाल खुद आगे खिसके, "मास्टरजी, खाने में कोई शिकायत की बात जँची हो तो मुझसे कहो। मैं मोहन कू समझा दूँगा । हमारा तो उद्देस होटल खोलने में ये था कि लौंडों कू ढंग का खाना मिल जावै । "

फिर गनेशीलाल ने सहज आत्मीयता से सत्यव्रत से कहा, “आप लौंडों को समझा दीजो जरा ।"

सत्यव्रत चुप रह गया। वह अपनी स्वीकृति देकर झूठा नहीं बनना चाहता था। वह भली-भाँति समझता था कि लड़के जयप्रकाश और राजेश्वर के भड़काए हुए हैं और वे किसी भी तरह उसके समझाने से नहीं मान सकते। न जयप्रकाश ही इस बात पर राज़ी होगा क्योंकि खराब खाना मिलने के अलावा बात यह भी है कि जयप्रकाश कृषि-योजना के बाद स्वार्थ का दूसरा जाला इसी होटल को मानता है और इसे भी साफ़ किए बिना वह रहेगा नहीं ।

तभी लाला हरीचन्द ने पूछा, “तो सत्तेबरतजी, ठीक है न! आप समझा देवेंगे।"

सत्यव्रत को कहना पड़ा, “मुझे विश्वास नहीं कि वे लोग अब मेरी बात मानेंगे। वे तो गाँव से रसोइया और आटा-दाल आदि समान भी ले आए हैं और उनका खाना हॉस्टल में बन रहा है । "

लाला हरीचन्द ने सोचा कि यहीं से बात को समय और स्वास्थ्य की क़ीमत तथा हॉस्टल के सुपरिंटेंडेंट की आज्ञा के बिना छात्रों को ऐसा निर्णय लेने का अधिकार है या नहीं आदि मूलभूत प्रश्नों की ओर मोड़ देना चाहिए। परन्तु बाबू हरकरण सहाय बीच में ही बोल उठे, “ मास्टर साहब, आप साफ़-साफ़ बताइए। इस सबसे लड़कों का क्या भला होगा ? और इस बारे में आपकी क्या राय है ?"

सत्यव्रत एक पल झिझका, फिर आश्वस्त होकर बोला, “हॉस्टल में सब व्यय मिलाकर एक वक़्त की खुराक के पाँच आने पड़ते हैं, और खाना अपनी इच्छा का मिल जाता है - यह एक लाभ है। दूसरे सफ़ाई...”

“ठीक है।" बाबू साहब बोले, “आप हॉस्टल के सुपरिंटेंडेंट हैं, वही कीजिए जो लड़कों के हित में हो। कमेटी इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगी।" और उन्होंने सत्यव्रत को जाने को कह दिया।

सबकुछ इतनी जल्दी हो गया कि कोई भी नहीं बोल पाया। खुद सत्यव्रत को आश्चर्य हुआ क्योंकि थोड़ी ही देर पहले जयप्रकाश शर्त बद रहा था। कहता था, “कमेटी होटल बन्द करने पर राज़ी हो ही नहीं सकती। "

... और अब लालाजी सोच रहे हैं कि कैसे इस समस्या को हल किया जाए। कल से ही उनका दिमाग़ चक्कर खा रहा था। सुबह उन्होंने उत्तमचन्द से पूछा, तो उसने सारा दोष जयप्रकाश के माथे मढ़ दिया था।

लालाजी ने देखा था, छदम्मीलाल और बालिस्टर ने बाबू हरकरण सहाय की ही बात का समर्थन किया था। गुलज़ारीमल शुरू से ही हॉस्टल और होटल के खिलाफ़ है। बाक़ी मेम्बर भी ढीले-ढीले से ही हैं। इसलिए होटल चालू रखने के लिए लड़कों को ही राजी करना पड़ेगा और कोई सूरत नहीं ।

.... अभी तक जयप्रकाश नहीं आया। अभी उन्हें भट्ठे पर भी जाना है। कोई अफ़सर मुआयने के लिए आनेवाला है। राशन पर तो था ही, अब ईंटों पर भी कंट्रोल हो गया। सरकारी आदेश हैं कि अव्वल तीस के भाव और दोयम और सोयम ईंटें पच्चीस और बीस के भाव बेचो और स्टॉक का पूरा ब्यौरा सरकार को दो। मगर सब चलता है। एक-एक लाख ईंटें लगाई थीं उन्होंने भट्ठे में। 75 हज़ार अव्वल निकलीं, बाकी दोयम और सोयम। मगर सरकारी ब्यौरे में 25 हज़ार की टूट-फूट और 75 हज़ार में से सिर्फ़ 35 हज़ार अव्वल दिखाई गई हैं। हाँ, इन्स्पेक्टर खुश है।

सहसा जयप्रकाश को आते देखकर लालाजी भट्ठे की समस्या से फिर होटल की समस्या पर आ गए। अभिवादन का उत्तर देते हुए उन्होंने जयप्रकाश के कन्धे पर हाथ रख दिया। फिर एक क्षण बाद इधर-उधर देखकर धीरे से बड़ी ही आत्मीयता से पूछा, “मास्टरजी, भई यह हॉस्टल में खाने का क्या चक्कर है ? बताओ तो, बच्चे अगर कच्चा-पक्का खाना खावेंगे और दिम्माग का काम करेंगे, तो कैसे चलेगा ?"

"... जी ?" जयप्रकाश ने 'ई' को उच्चारण में खींचकर स्थिति से अनभिज्ञ होने का अभिनय किया।

लालाजी को आश्चर्य हुआ। उत्तमचन्द तो कहता था, जयप्रकाश ने ही कराया है सबकुछ । अतः वस्तुस्थिति समझाते हुए स्नेह से बोले, “तुम्हें कुछ मालूम नहीं ?"

"जी नहीं ।" जयप्रकाश ने गर्दन हिला दी।

लालाजी के माथे पर उदासी के बादल उतर आए। जैसे आखिरी उम्मीद पर भी पानी फिर गया हो। उनकी उँगलियाँ दूसरे हाथ की उँगलियों में जा फँसीं । और मुँह पर छाई रहनेवाली मुस्कान पल-भर को ग़ायब हो गई ।

सहसा पड़ोस से ज़ोर से औरतों के रोने की आवाज़ आई। लालाजी का ध्यान उधर नहीं गया। बलदेव ब्राह्मण की रात में मृत्यु हो गई थी। अब औरतें इकट्ठी होकर स्यापा मना रही हैं। लेकिन जब उनमें से किसी ने चीखकर दर्दभरी आवाज़ में कहा, “अरे, तेरा हुक्का धरा - बिराज्जे रेऽऽ, हायऽऽ !” तो लालाजी को लगा कि रोनेवाली औरतें होटल का मातम कर रही हैं, “तेरा होटल धरा बिराज्जे रे...हाय !” और अपनी इस कल्पना पर वह खुद ही मुस्करा दिए। बेशक होटल बन्द हो गया तो गनेशीलाल मातम मनाएगा।

जयप्रकाश भी उस रुदन में कमेटी के सेक्रेटरी और प्रेसीडेंट का रुदन सुन रहा था। सोच रहा था, सत्यव्रत ने कैसे कहा कि कमेटी ने एकमत होकर छूट दे दी है कि लड़कें कहीं खाएँ ।

सहसा हवेली में से ललाइन निकलीं और जयप्रकाश के हाथ जोड़ने से पहले ही प्यार से असीसती हुई चादर सँभालकर बोलीं, “खियाल रखियो जी मैं ज़रा कच्चे में बलदेव हर के हियाँ जा रई हूँ।”

“बलदेव बिचारा कहाँ रया अब !” लालाजी ने पहली बार उच्छ्वास छोड़ा। उन्हें सूझ नहीं रहा था कि जयप्रकाश से क्या कहें ? और हिरफिरकर उनको उत्तमचन्द पर क्रोध आ रहा है। वह हमेशा ही स्थिति का ग़लत चित्र पेश करता है । कृषि-योजना के बारे में भी कहता रहा कि लड़के तो चाहते हैं कि योजना चले, जयप्रकाश नहीं चाहता। और फिर एक भी गाँव का ऐसा लड़का नहीं ला सका जो कृषि योजना के पक्ष में हो।

पड़ोस में रोनेवाली औरतों के स्वर में एक नया कंठ - स्वर जा मिला था । जयप्रकाश ने सोचा - ललाइन होंगी। पति-पत्नी दोनों हास्य रुदन का नाटक करने में कितने एक्सपर्ट हैं ! और फिर स्वयं कुछ सोचने का अभिनय करते हुए बोला, “लालाजी ! मुझे तो लगता है, ये सब लड़कों की बदमाशी है। सत्यव्रतजी सीधे आदमी हैं सो उन्हें परेशान करते हैं। और जब से प्रिंसिपल साहब ने उम्मेदसिंह के खिलाफ़ बयान दिया है तब से तो वे प्रिंसिपल साहब की क्या, हमारी भी इज़्ज़त नहीं करते।"

“तुम्हारा प्रिंसिपल ?” लालाजी दाँत किटकिटाकर गुस्सा करते-करते मुस्करा दिए । शायद वह कहनेवाले थे, “इसी काबिल है !” मगर उन्होंने बात को मोड़ दिया। झुंझलाते-हँसते-से बोले, “देखो भय्या, जमान्ने मैं जमान्ने की हवा देखकै चलना पडै। तुम्हारा प्रिंसिपल अगर ऐसा करता तो ऐसी नौबत ही काए कू आत्ती !”

कैसी नौबत ? इसका उन्होंने कोई संकेत नहीं दिया था। मगर जयप्रकाश समझ गया । बोला, “आप क्यूँ फिकर कर रहे हैं, लालाजी ! ज़रा चौधरी साहब से कह दीजिएगा। एक दिन लड़कों को हॉस्टल जाकर डाट देंगे, तो सब ठीक हो जाएँगे। नहीं तो बन्द कर दीजिए हॉस्टल, सुसरे इधर-उधर भटकते फिरेंगे, तब मालूम होगा।”

लालाजी हॉस्टल बन्द करने का प्रस्ताव सुनकर ही सिहर गए और तत्काल चेहरे पर मधुर मुस्कान लाकर बोले, “नई भय्या ! कोई बच्चों से दुस्मनी थोड़ाई है। हम तो उनके संरच्छक हैं।”

जयप्रकाश कृत्रिम क्रोध से बोला, “तो फिर आप उन्हें डाँटिए ।”

“अच्छी बात है।” लालाजी ने कहा । और उनका मन भविष्य की रूपरेखा में खो गया कि वह गनेशीलाल से क्या कहेंगे! लड़कों को कैसे समझाएँगे !

पड़ोस से रोने की सम्मिलित आवाज़ें तेज़ हो गई थीं। शायद बलदेव की अर्थी उठ रही थी। हर औरत गला फाड़-फाड़कर पूरी ताक़त से चिल्ला रही थी । सारे मुहल्ले में कोहराम मचा हुआ था। पूरे वातावरण में मातम छाया था। शायद किसी अजीब दर्दनाक कल्पना से सिहरकर लाला हरीचन्द ने मूढ़े पर बैठे-बैठे आँखें बन्द कर लीं।

जयप्रकाश उठकर चला आया ।

टूटी हुई छत (अध्याय-14)

सत्यव्रत यद्यपि राजेश्वर से बहुत ज़्यादा घुलता मिलता नहीं, फिर भी राजेश्वर के मन में उसके लिए अजीब-सा मोह है। पहले दिन देखा था तो राजेश्वर को उस पर हँसी आई थी, फिर और नज़दीक से देखा तो दया और अब इतने निकट आ गया है तो प्यार आता है। वैसे अब भी जब उससे मुलाक़ात होती है तो राजेश्वर एक-दो फ़िकरे कसे बिना नहीं रहता, पर सत्यव्रत की मुस्कराहट में न कालिख आती है और न राजेश्वर के प्यार में कमी।

जयप्रकाश के कमरे में अभी सत्यव्रत आया था। उसकी बहन की शादी दिसम्बर में होनी निश्चित हुई है। बातों में ज़िक्र आया तो उसने कहा था, “आप दोनों को आना पड़ेगा” और राजेश्वर ने हँसकर उत्तर दिया था, “देखो भाई, तब तक यहाँ रहे तो आएँगे। मगर हमारा क्या, सिर से कफ़न बाँधे घूमते हैं। इसलिए वादा नहीं कर सकते।” मगर मन-ही-मन उसने सोच लिया था कि जाना तो पड़ेगा ही ।

सत्यव्रत के जाने के बाद राजेश्वर बोला, “ये बहनों की शादियाँ भी यार बड़ी ज़हमत होती हैं। सुना सत्यव्रत कह रहा था दशहरे की छुट्टियों में बिजनौर जाऊँगा सामान खरीदने के लिए।” और गत वर्ष अपनी बहन की शादी की याद करके राजेश्वर सिहर उठा। काम करते-करते टाँगें तराजू हो गई थीं उसकी।

“ लगता है इसका नाम भी अब उसी लिस्ट में आनेवाला है जिसमें हमारा है !” लम्बी साँस खींचकर छोड़ते हुए जयप्रकाश ने कहा ।

"क्यों ?” राजेश्वर ने साश्चर्य पूछा। “इसलिए कि रहते हैं जनाब राजपुर में और सामान खरीदेंगे बिजनौर से यह क्या बात हुई ! आखिर हमारे सेक्रेटरी साहब ने यहाँ दुकानें किसके फ़ायदे के लिए खोली हैं ?” जयप्रकाश ने कृत्रिम आवेश में आकर व्यंग्यपूर्वक कहा ।

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लड़ाई शुरू हो गई क्या ?"

राजेश्वर ख़ामोश रह गया । कितना अनपेक्षित प्रश्न है !

जयप्रकाश ने उत्तर दिया, “क्या करेगी खाला ? पाकिस्तान जावेगी क्या ?"

“अरे भय्या ! मैं क्यों जाऊँ पाकिस्तान पाकिस्तान जावै मेरा गुट्ठा !" खाला ने तड़पकर कहा, “आग पड़े उत्तों पै, एक अगल का मुलक बनाकै बैठ गए और हिन्दू-मुसलमानों में चक्कू चलवा दिए। मेरा बस चलता तो जलगयों की मुँड़ी पकड़-पकड़ के कतर लेत्ती।”

मुकद्दम चाचा के बाद पूरे शहर में खाला का ही नम्बर है। बक छूटी तो समझो कि आध घंटा गया।

राजेश्वर ने सोचा कि इसमें कुछ तथ्य जरूर होगा। तभी तो लाला हरीचन्द ने भी आज कॉलेज में अपने भाषण में इस ओर संकेत किया था।

जयप्रकाश ने इस बात को गम्भीरता से नहीं लिया, बोला, “लाला हरीचन्द के पास जो अख़बार आता है ख़ाला, उसमें ऐसी खबरें बहुत आती हैं। उनसे ही पूछिए।”

लाला हरीचन्द ने आज सारे अध्यापकों और विद्यार्थियों के सामने भाषण करते हुए कहा था, “आज देस को हुस्ट- पुस्ट नौजवानों की जरूरत है। कौन कह सकै किस बखत पाकिस्तान से लड़ाई छिड़ जावै। कोई मिनट जा रई है। ऐसी दसा में हमने जो कृसी-योजना चलाई थी सो कुछ सोच-समझ कै चलाई थी । आप लोग्गों की भलाई के लियो चलाई थी। मगर आप लोग्गों कू पसन्द नई आई तो हमने उसकू भी बन्द कर दिया। मगर अब आप लोग ये चाहूवैं कि आप लोग हौस्टिल में कच्चा-पक्का खाना बनाके खावैं, ब्रह्मचर्य का पालन ना करें तो ये सब हम बरदास्त नई करैंगे।"

जयप्रकाश के होंठों पर लालाजी का भाषण याद करके एक कुटिल - सी मुस्कराहट फैल गई ।

मास्टर ने उसकी बात को कोई महत्त्व नहीं दिया, इससे खाला हताश हो गई थी। बोली, “तो भय्या, तुझे कुछ मालूम नईं ?”

भादों की चिलचिलाती धूप में चलकर आई हुई खाला पर जयप्रकाश को दया आ गई। हँसकर बाला, “सब झूठ है, खाला ! कहीं लड़ाई नहीं हो रही ! तुझसे किसने कह दिया ?"

खाला को बड़ी राहत मिली। उनके सिर से जैसे एक बड़ा भारी बोझ उतर गया। एक लम्बी-सी साँस छोड़ती हुई बोली, “अब ले, मैं क्या जानूँ. भय्या ! मुस्से तो इस फरीदे की अम्मा ने कया कि कोई अपसर इसके फरीदे का नाम फौज

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का मूँ काला कर दिया। अब अल्ला जाने क्या लिक्खा उत्तों ने, क्या नईं लिक्खा !"

फ़रीदे की अम्मा और जाने कितनी गालियाँ देती कि राजेश्वर की समझ में बात आ गई और उसने जयप्रकाश को बताया कि म्युनिसिपैलिटी के इलेक्शन के लिए वोटरों की लिस्ट तैयार हो रही है। उसी सिलसिले में लोग घूम रहे हैं।

... और बड़ी मुश्किल से फ़रीदे की अम्मा और खाला को समझा-बुझाकर जयप्रकाश ने यक़ीन दिलाया कि ऐसी कोई बात नहीं है। फ़ौज में जबरदस्ती भरती नहीं हुआ करती ।

फ़रीदे की अम्मा को साथ लेकर खाला चली गईं। जयप्रकाश और राजेश्वर फिर खाट पर आ पड़े।

आकाश पर बादल छा गए थे और हल्की-हल्की बूँदें पड़ने लगी थीं । जयप्रकाश के कमरे के पीछे किशनलाल की आढ़त की दुकान थी जिसका बड़ा-सा अहाता था। खिड़की के नीचे से रास्ता था जिससे होकर गुड़ और राब की गाड़ियाँ आढ़त पर जाती थीं ।

बारिश तेज़ होते ही गुड़-चिपकी मिट्टी की अजीब-सी गन्ध जयप्रकाश के कमरे में घुस आई। राजेश्वर ने कुछ सूँघकर पहचानने की कोशिश की तो जयप्रकाश बोला, “बेकार हैं। यह मिट्टी की सोंधी गंन्ध नहीं है जिसे पहचानने की कोशिश कर रहे हो ! और न यह पसीने की महक है। यह तो भाई शहर की बू है जिसे सूँघने पर सिर में दर्द होने लगता है।”

तभी राजेश्वर के ऊपर एक बूँद गिरी । पानी तेज हो गया था। उसकी नज़रें 'अनायास छत की ओर उठ गईं। पानी की एक पतली सी लकीर छत की दरार में से होती हुई एक गोल वृत्त बनाकर ठीक उसके सिर के ऊपर बूँद-बूँद कर गिर रही थी।

“तुम्हारी छत से पानी रिसता है।” अपनी खाट एक तरफ़ को खिसकाते हुए राजेश्वर बोला।

"मेरी छत भी रिसती है और मेरी आत्मा भी। मगर मैं दोनों में से किसी की मरम्मत नहीं कर सकता। क्योंकि मैं दोनों चीज़ों में से किसी का भी मालिक खुद नहीं हूँ।” जयप्रकाश ने कहा और हाथ-पाँव फैलाकर खाट पर लेट गया ।

राजेश्वर ने देखा कि जब कभी जयप्रकाश कोई ऐसी दर्दभरी बात कहता है, उसकी नसों में अजीब सा तनाव और ऐंठन बढ़ जाती है। अतः प्रसंग बदलने की गरज से वह बोला, “अच्छा जयप्रकाश, यह बताओ, इस म्युनिसिपैलिटी के इलेक्शन में कौन-कौन खड़े होंगे ?”

जयप्रकाश बैठ ही गया। यह उसकी रुचि का विषय है। बोला, “चेयरमैनशिप के लिए यों तो कई उम्मीदवार होंगे मगर लिख लो, मुक़ाबला सिर्फ़ दो में होगा ।”

“किसमें ?"

“लाला हरीचन्द और बाबू हरकरण सहाय में ।”

“मगर हरकरण सहाय इलेक्शन लड़ेंगे ?"

“नहीं।” जयप्रकाश ने धीरे से कहा, "उन्हें हम लड़वाएँगे।”

“मगर इधर तो लाला हरीचन्द तुम्हें बहुत मानने लगे हैं !” राजेश्वर ने जयप्रकाश को टटोलने के ख़याल से पूछा ।

“वह इसलिए...” जयप्रकाश कुछ सोचते हुए धीरे से बोला, “कि एक तो वह इलेक्शन लड़ेंगे, दूसरे गनेशीलाल का होटल किसी क़ीमत पर बन्द नहीं होने देना चाहते और तीसरे वह उत्तमचन्द से कुछ नाराज भी हैं ।”

राजेश्वर ने और कुछ नहीं पूछा। आकाश में बादल गड़गड़ा रहे थे और वर्षा का वेग बढ़ता जा रहा था। वह बूँदों का संगीत सुनने की कोशिश करने लगा । तभी जोर से बिजली कड़की और पूरे आसमान में गड़गड़ाहट का कर्ण कटु निनाद इधर से उधर तक लुढ़कता चला गया।

तूफ़ान (अध्याय-15)

सुबह स्टेशन जानेवाले यात्रियों और हिन्दू कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों ने देखा कि इधर-उधर आम और नीम के कई पेड़ टूटे पड़े हैं। रास्ते में बेहद कीचड़ है और सड़क के दोनों ओर नालियाँ पानी से लबालब भरी हैं। सदासुहागन की झाड़ियाँ बिछ गई हैं और छोटे तालाब के चारों ओर नृत्य मुद्राओं में खड़ी कई खजूरें ज़मीन से उखड़ गई हैं।

रात बहुत तेज़ तूफ़ान आया था।

कॉलेज का भी नक्शा बदला हुआ-सा था । गूँगे हलवाई की कोठरी के सामनेवाला छप्पर उड़कर कॉलेज गेट के सामने जा पड़ा था। और बराबर में खड़े तारों के खम्भे तिरछे हो गए थे। अन्दर कुछ कमरे बुरी तरह टपके थे, फलस्वरूप डेस्कों की स्याही बह-बहकर बेंचों तक पर आ गई थी।

स्टेशन से कुछ फर्लांग के फ़ासले पर बिजली गिरी थी और एक पेड़ बुरी तरह झुलस गया था। सारी रात स्टेशन के खलासी घुटनों में मुँह दिए स्टेशन पर बैठे रहे। यहाँ तक कि पाइंटमैन केबिन तक नहीं पहुँच सका और मालगाड़ी एक घंटे तक सिगनल पर खड़ी रही ।

इतना सब कुछ एक रात में हो गया। सुबह धरती और आकाश के संघर्ष के कुछ चिह्न अवशेष थे और स्टेशन पर लोग उस तूफ़ानी रात की चर्चा कर रहे थे।

मगर कॉलेज में आज भी नए प्रिंसिपल की नियुक्ति पर ही ज़्यादा बातचीत होती रही।

किसी को मालूम नहीं हुआ कि कब नए प्रिंसिपल साहब आए ! कब उनका इंटरव्यू हुआ ! और कब उन्होंने चार्ज लिया ! बस उस दिन प्रार्थना में वह चुपचाप अध्यापकों के बीच आ खड़े हुए और प्रार्थना ख़त्म होते ही उन्होंने छात्रों को सम्बोधित करके एक औपचारिक-सा भाषण दिया ।

कई अध्यापकों को इतना तो मालूम था कि अब उत्तमचन्द जी शायद प्रिंसिपल नहीं रह सकेंगे। मगर इतनी शीघ्र और आकस्मिक ढंग से सबकुछ हो जाएगा, यह किसी ने भी न सोचा था । किन्तु अब जो हो गया उसे यथावत स्वीकार करने का प्रश्न था । इसलिए क्या छात्र और क्या अध्यापक, सभी आलोचनात्मक एवं तुलनात्मक दृष्टि से नए प्रिंसिपल को परखने लगे ।

“ मानना पड़ेगा कि पर्सनैलिटी उत्तमचन्दजी से अच्छी नहीं है। "

“अरे, पर्सनल्टी क्या ? बोलना भी नहीं आता !” दूसरे लड़के ने कहा ।

“बिलकुल चुग़द है। ऐसे ही आदमी को लेना था, तो अपने शास्त्रीजी भी क्या बुरे रहते ?” किसी तीसरे ने रिमार्क दिया । और घंटों तक लड़के नए प्रिंसिपल के विषय में चर्चा करते रहे।

टीचर्स - रूम में बैठनेवाले अध्यापकों को भी नए प्रिंसिपल का व्यक्तित्वं न तो आकर्षक लगा था और न प्रभावशाली ही। वे भी प्रिंसिपल के बारे में ज़रा शिष्ट ढंग से विद्यार्थियों जैसी ही बातें कर रहे थे ।

प्रिंसिपल की नियुक्ति पर सबसे ज़्यादा स्तम्भित जयप्रकाश था और जिस वक्त टीचर्स-रूम की चिक उठाकर मास्टर उत्तमचन्द भीतर घुसना चाहते थे उस वक्त वह स्पष्ट और निर्भीक शब्दों में घोषणा कर रहा था, “चाहे मेरे उत्तमचन्दजी से कितने भी मतभेद रहे हों, पर इतना मैं लाखों में कहूँगा कि उत्तमचन्दजी योग्य टीचर और योग्य एडमिनिस्ट्रेटर थे और उनका व्यक्तित्व खुद-ब-खुद रेस्पेक्ट ( इज़्ज़त ) कमॉण्ड करता था। ”

उत्तमचन्द बाहर ही ठिठक गए और उस वक़्त अन्दर गए जब उनकी बजाय बातें नए प्रिंसिपल के सम्बन्ध में होने लगीं। चिक उठाकर टीचर्स रूम में दाखिल होते हुए और अनजान बनते हुए उन्होंने कहा, "कहिए किस टापिक (विषय) पर डिस्कशन ( बहस ) हो रही है ?"

आदत के अनुसार सारे अध्यापक उठकर खड़े हो गए, सिर्फ़ राजेश्वर कर्सी से ज़रा उठकर पुनः बैठ गया । सत्यव्रत की कुर्सी दरवाजे के बिलकुल पास थी और उसकी पीठ दरवाजे की तरफ़ थी । अन्य अध्यापकों को उठते देख उसने मुड़कर पीछे देखा और जल्दी से उठने लगा तो उत्तमचन्द ने उसे ही पकड़ लिया, “देखिए !” उन्होंने सत्यव्रत को कुर्सी में बिठाकर खुद एक खाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा, “अब मुझसे आप लोग बराबर के लेविल (स्तर) पर मिला कीजिए । अगर इतनी दूरी बरतेंगे तो मैं आप लोगों के बीच कैसे बैठ पाऊँगा? मैं भी तो आप ही की बिरादरी का हूँ, भाई !”

टीचर्स - रूम में एक क्षण को ऐसी ख़ामोशी छा गई जैसे कोई अनहोनी घटना घट गई हो। बाहर के आँगन से आती हुई लड़कों की आवाजें भी थोड़ी देर जीकर उस वातावरण में दम तोड़ देती थीं। मगर ऐसा तनाव ज़्यादा देर नहीं टिका, क्योंकि पाँच मिनट के अन्दर ही उत्तमचन्द ने फ़ासलों की सारी दीवारें तोड़ दीं और अध्यापकों में ऐसे घुल-मिल गए जैसे एक पालतू पक्षी फिर अपने झुंड में आ मिलता है। उनके व्यवहार से लगने लगा जैसे कभी वह प्रिंसिपल रहे ही न हों। टीचर्स-रूम में फिर ठहाके गूंजने लगे और जयप्रकाश ने एक बीड़ी निकालकर सुलगा ली।

मास्टर उत्तमचन्द ने पुनः चर्चा पर आते हुए जयप्रकाश से पूछा, “कहिए ! कैसे लगे नए प्रिंसिपल साहब ?"

" अच्छे हैं!" राजेश्वर ने उत्तर दिया ।

“इन्स्पेक्टर साहब के रिश्तेदार हैं इसलिए योग्य तो होंगे ही, साथ ही एडमिनिस्ट्रेटिव (प्रशासनिक ) मामलों में भी कुशल होंगे। और स्कूल को ग्राण्ट (अनुदान) वग़ैरह दिलाने में भी सहायक होंगे।" जयप्रकाश ने सरलता से कहा।

उत्तमचन्द होंठों में ही मुस्करा दिए। उनसे अधिक जयप्रकाश को कोई नहीं समझता। वह उस दिन पवन बाबू से कह रहे थे, “अगर मैं खुदा न खास्ता मिनिस्टर हो जाऊँ तो इस जयप्रकाश को अपना पी.ए. बना लूँ।”

उत्तमचन्द समझ गए कि इस विषय पर इससे ज़्यादा चर्चा सम्भव नहीं, इसलिए सत्यव्रत की ओर घूम गए, “और आपके हॉस्टल के क्या हाल हैं, मास्टर साहब ?"

“ठीक हैं जी !” सत्यव्रत ने विनयपूर्वक बिना सोचे-समझे कहा ।

“जहाँ आपने छोड़ा था, वहीं है।" जयप्रकाश कुछ ठहरकर मुख-मुद्राओं से वाक्य का व्यंग्य उभारते हुए बोला, “लड़के कमबख़्त अपनी हेल्थ (स्वास्थ्य) के प्रति इतने लापरवाह हैं कि मोहन बाबू के होटल पर खाना खाने को तैयार तक नहीं होते। देखिए मास्टर साहब ! कितनी बुरी बात है ! है न ?”

बात मास्टर उत्तमचन्द से कही गई थी। उन्हें अपनी सफ़ाई और उत्तर देना पड़ा, बोले, “मैं समझता हूँ कि अपनी बुराई भलाई लड़के खुद भी समझ सकते हैं। हम उन्हें किसी बात के लिए फ़ोर्स ( बाध्य) क्यों करें ?”

“ मगर लोग करते हैं।” अचानक राजेश्वर ने सिगरेट के धुएँ का छल्ला जयप्रकाश के मुँह की ओर छोड़ते हुए कहा, “और जो कहते हैं कि नहीं करना चाहिए, वे भी करते हैं।”

अपनी सिगरेट में मशगूल राजेश्वर ने बिना सोचे- विचारे इतनी सीधी चोट कर दी थी कि जयप्रकाश तक को बुरी लगी। किन्तु मास्टर उत्तमचन्द ने जैसे बुरा नहीं माना। पूर्ववत मुस्कराते हुए वह बोले, “आप मुझसे नाराज़ हैं, राजेश्वरजी, वरना मुझे इतना ग़लत न समझते। मेरी जगह अगर आप होते, तो 'रियलाइज' (महसूस) करते कि कुछ काम आदमी अपनी इच्छा से करता है, कुछ अनिच्छा से। कुछ उससे उसकी कुर्सी कराती है और कुछ कोई और। और मैं कह भी क्या सकता हूँ ?”

जयप्रकाश ने मास्टर उत्तमचन्द का जोरदार समर्थन किया। और बात ख़त्म हो गई क्योंकि तभी चपरासी ने आकर मास्टर उत्तमचन्द से बताया कि प्रिंसिपल साहब उनको याद कर रहे हैं। पहला इंटरवल ख़त्म होने ही वाला था ।

दूसरा इंटरवल समाप्त हुआ तो नींबू की बगिया से उठकर लड़के अपनी-अपनी कक्षाओं की ओर भागने लगे थे। अध्यापक भी रजिस्टर सँभालते हुए अपनी-अपनी कक्षाओं की ओर निकल पड़े। किन्तु गूंगे की कोठरी में एक बेंच पर रामपूजन, उम्मेदसिंह, ज्ञानसिंह, ताहरसिंह और एक-दो और हॉस्टल के लड़के बैठे रहे ।

थोड़ी देर पहले रामपूजन को प्रिंसिपल की ओर से दुराचरण के लिए लिखित चेतावनी मिली थी, जिसमें उसको अनुशासनहीन होने और अध्यापकों के आदेशों की अवज्ञा करने के अपराध में कॉलेज से निकालने की धमकी दी गई थी। शायद नया प्रिंसिपल आते ही लड़कों पर रौब जमाना चाहता है।

गूँगे की कोठरी में बैठे वे पाँचों छात्र मास्टर जयप्रकाश के सुझाव पर बहस कर रहे थे। उम्मेदसिंह का कहना था कि इस मामले में परामर्श के लिए उत्तमचन्द के पास जाने का कोई मतलब नहीं होता। मगर रामपूजन की राय दूसरी थी। वह जयप्रकाश में गहरा विश्वास रखता है। यों सभी लड़के जयप्रकाश को आदर की दृष्टि से देखते हैं, किन्तु रामपूजन की श्रद्धा अटूट है। जयप्रकाश की बुराई करने पर ही उसने उस दिन पवन बाबू के भतीजे की ठुकाई कर दी और पाँच रुपए जुर्माने के भरे थे।

अभी जब रामपूजन को चेतावनी मिली तो वह सीधा जयप्रकाश के पास गया था। वह मानसिक तनाव की स्थिति में था और नए प्रिंसिपल के बारे में धीरे-धीरे कुछ बड़बड़ा रहा था। जयप्रकाश फ़ौरन क्लास छोड़कर बाहर आ गया था और उसकी मनःस्थिति को भाँपते हुए उसके कन्धे थपथपाकर समझाते हुए कहा था, “देखो, इसमें प्रिंसिपल का कोई हाथ नहीं है। और न कोई ऐसी बात है जिसे लेकर इतना परेशान हुआ जाए। यह सारा चक्कर तो वही हॉस्टल में खाना बनवाने का है। तुम लोग होटल में खाना शुरू कर दो तो अभी सब ठीक हो जाए। बस, तुम्हें ज़रा डरा-धमका रहे हैं।”

“तो ?” रामपूजन ने पूछा।

"तो क्या ? तुम जवाब दो इसका।” जयप्रकाश ने उत्तर दिया। और एक क्षण के लिए कहते-कहते कुछ सोचने लगा ।

रामपूजन आशा करता था कि जयप्रकाश शाम को आने के लिए कहेंगे। तभी जयप्रकाश ने उसका कन्धा दबाते हुए धीरे से कहा, “तुम एक काम करो। इस इंटरवल के बाद उत्तमचन्दजी का पीरियड खाली है और वह पवन के कमरे में मिलेंगे, तुम वहीं चले जाना। और उन्हीं से पूछना कि इसका क्या जवाब लिखूँ ? जो वह पूछें, उसका सच-सच जवाब देना और शाम को मुझसे मिलना । "

मगर इंटरवल खत्म हो गया और अभी तक यह तय नहीं हुआ कि रामपूजन उत्तमचन्द के पास जाए या न जाए।

आखिर रामपूजन बोला, “जब जयप्रकाशजी ने कहा है तो कुछ सोच-समझकर ही कहा होगा। मैं उत्तमचन्द के पास हो तो आऊँ !”

जयप्रकाशजी ने कहा है, सो किसी ने प्रतिवाद नहीं किया। हाँ, मन-ही-मन सबने महसूस किया कि उत्तमचन्द के पास जाना एकदम निरर्थक है।

जब गूंगे की दुकान के चबूतरे का सहारा लेकर रामपूजन अपने कीचड़ से सने जूते पहनकर जाने लगा, तो गूँगा अपनी चौड़ी चकली छाती पर हाथ फेरकर जाते हुए रामपूजन की ओर उँगली उठाकर होंठों से 'चुच - चुच' करके चूमने लगा । ताहरसिंह ने देखा और सबका ध्यान आकृष्ट किया ।

गूँगे ने दोनों हथेलियों को दो-तीन फुट के फ़ासले से ऊपर-नीचे करके क़द की लघुता का इशारा किया और आँखों में चमक भरकर मुस्करा दिया। आशय था कि अपने बचपन में रामपूजन नमकीन रहा होगा। सारे लड़के हँस पड़े । उम्मेदसिंह गूँगे के पास आकर हथेली में उँगली रगड़ते हुए एक गन्दा-सा इशारा करके बोला, “साले, लेने के देने पड़ जाएँगे ! कहाँ का शौक़ चर्राया है ?"

और इस पर चारों लड़के भी वहीं उठ आए। ज्ञान ने मज़ाक़ में गूंगे के गालों पर हाथ फेर दिया तो एक सिलसिला ही शुरू हो गया। गूँगा अपने नौकर के साथ शीरे में हाथ साने था। इस बदतमीजी से चिढ़कर वह जोरों से प्रतिवाद करने लगा और लड़कों को वहाँ से खिसकना पड़ा।

कॉलेज के अहाते में अजीब शान्ति थी। नए प्रिंसिपल राउंड पर थे और सब कक्षाओं के सामने से घूमते हुए ऊपर की तरफ़ जा रहे थे। पवन बाबू प्रिंसिपल के कमरे में रजिस्टर लिए बैठे हुए हिसाब-किताब कर रहे थे। कमरों से अध्यापकों के पढ़ाने की आवाजें आ रही थीं।

उत्तमचन्द को यदि अचानक अपने प्रिंसिपल होने की सूचना मिलती तो भी इतना आश्चर्य न होता जितना रामपूजन के चेतावनी - पत्र दिखाने और फिर यह पूछने पर हुआ कि इसका क्या जवाब दूँ! वह सोचने लगे कि इसके इतने बड़े विश्वास का आधार क्या है ? चेतावनी को देखते हुए उन्होंने बहुत याद करने की कोशिश की कि कोई एक ऐसा अवसर याद आ जाए जब उन्होंने इस विद्यार्थी का हित सोचा हो। अथवा कोई ऐसी घटना जब इस विद्यार्थी ने ही उनमें विश्वास प्रकट किया हो।

गाँव और शहर को लेकर पिछले दिनों जो विवाद चला था उसमें रामपूजन ने शहरी लड़कों के साथ उत्तमचन्द की भी बुरी तरह आलोचना की थी । जयप्रकाश के साथ झगड़े में भी हमेशा इसने जयप्रकाश का ही साथ दिया था। और कृषि - योजना को समाप्त करने में भी यही सब छात्रों का लीडर था । फिर...इतना बड़ा विश्वास यह मुझे कैसे सौंपे दे रहा है ?

रामपूजन ने फिर पूछा, “इसका क्या जवाब दूँ, मास्टर साहब ?"

“इसका जवाब ?” उत्तमचन्द ने कुछ सोचते हुए धीरे-धीरे कहा, “जयप्रकाशजी से पूछा था ?”

“उन्होंने ही तो मुझे आपके पास भेजा है !” रामपूजन ने सहज उत्तर दिया।

“जयप्रकाश ने ?” उत्तमचन्द की भौंहे विस्मय से ऊपर उठीं और सिकुड़ गईं। रामपूजन ने स्वीकारात्मक गर्दन हिलाई । उत्तमचन्द सोच-विचार में पड़ गए। रामपूजन सामने मेज़ पर हाथ रखे खड़ा था। अभी थोड़ी देर पहले जयप्रकाश यहाँ रजिस्टर रखने आया था तो वह भी इसी मुद्रा में खड़ा हो गया था और बात चली थी तो आँखों में ऐसा ही विश्वास लिए हुए उसने कहा था, “आपने मुझ पर कभी भरोसा नहीं किया, मास्टर साहब ! दरअसल आपकी और मेरी दिशा एक ही है। हम दोनों एक ही जाल से निकलना चाह रहे हैं, परन्तु हमारे प्रयत्नों में और एप्रोच में अन्तर है ! आप अकेले निकलना चाहते हैं और मैं अपने सारे साथियों के साथ... उनके विश्वास की रक्षा करते हुए। "

“कौन-सा जाल ?” हँसकर उत्तमचन्द ने पूछा था ।

“वही, जिसे पहचानते और सार्वजनिक रूप से स्वीकारते हुए आप कतराते हैं। वरना आपमें और मुझमें विरोध कहाँ है ? और कहाँ फ़ासला है ? जिस दिन • जाल को स्वीकार कर उसके फन्दों को काटने में आप मेरा हाथ बँटाने लगेंगे उस दिन हम फिर एक-के-एक हो जाएँगे। बस, बात जरा से विश्वास की है। "

रामपूजन को प्रश्नसूचक दृष्टि से सामने खड़े देखकर उत्तमचन्द को महसूस हुआ कि आज किसी पर जरा-सा विश्वास करना भी कितना कठिन है। और फिर उसके दिमाग़ में निश्छल आत्मीयता से कहे हुए जयप्रकाश के शब्द गूँज उठे, " मगर सन्देह और संशय के इस वातावरण में आज किसी पर ज़रा-सा विश्वास करना मुझे भी 'रिस्की' लगता है। पर क्या करें ? ज़िन्दगी ही खुद एक 'रिस्क' है और बिना 'रिस्क' लिए आदमी जिन्दा नहीं रह सकता।”

“ठीक है !” रामपूजन को सम्बोधित करते हुए बहुत देर बाद कुछ निर्णयात्मक स्वर में उत्तमचन्द ने कहा, “मैं सोचकर बताऊँगा। अभी कोई जल्दी नहीं है। शाम को जयप्रकाशजी के कमरे में मिलना । "

“जयप्रकाशजी के कमरे में ?" रामपूजन ने विस्मित होकर दुहराया और कमरे से बाहर निकल गया ।

.................

स्वामीजी का कथन है कि जिस प्रकार निर्झर पाषाणों के हृदय से फूटकर उत्तप्त धरती की तृषा शान्त करता है उसी प्रकार तुम भी अपने ज्ञान के आलोक को सर्वत्र फैल जाने दो। स्वामीजी अभी अस्वस्थ हैं। तुम्हारी सफलता हेतु अनेक मंगल-कामनाएँ । – ब्रह्मचारी...”

बहुत प्रयत्न करने पर भी सत्यव्रत, ब्रह्मचारी का नाम नहीं पढ़ पाया। पर पत्र पढ़कर फिर भी उसे सन्तोष हुआ । अस्वस्थ होने के बावजूद स्वामीजी ने उसे पत्र लिखवाया- यही उनके स्नेह का कितना बड़ा प्रमाण है। वह तो उत्तर की आशा ही छोड़ चुका था ।

और यह विमला का पत्र !

सत्यव्रत चटाई पर लेट गया। पत्र बहुत लम्बा था। कापी के आठ पृष्ठ दोनों ओर लिखे हुए थे।

"प्रिय प्राण !

अब तो लगता है सारा सोचना - विचारना केवल एक ही व्यक्ति तक केन्द्रित हो गया है। चलते-फिरते, उठते-बैठते और यहाँ तक कि सपनों में भी वही एक व्यक्ति रहता है! जानते हो वह कौन है ? वह हो तुम..."

सत्यव्रत को यह 'तुम' बहुत अखरता है। कुछ भी हो विमला उसकी शिष्या है। और किसी शिष्य की ऐसी घृष्टता कि वह अपने गुरु को 'तुम' कहकर सम्बोधित करे, सत्यव्रत को असह्य है। वैसे सामने वह हमेशा उसे आप कहती है लेकिन जब लिखती है तो तुम पर आ जाती है और सत्यव्रत डाँटने या समझाने तक से मजबूर हो जाता है। उसने निश्चय किया कि कुछ हो आज शाम को वह ज़रूर उससे कहेगा.. मगर तभी सत्यव्रत को ध्यान आया कि शाम होने में देर ही कहाँ है ! चार-साढ़े चार तो बज ही रहे होंगे। और विमला अभी से कपड़े बदलकर बाहर के कमरे में आ बैठी होगी।

विमला के सन्दर्भ में अक्सर सत्यव्रत को अपनी बहन की याद आ जाती है। वह भी इतनी ही बड़ी है मगर कितनी मासूम और कितनी भोली ! पिछले रविवार को सत्यव्रत गाँव गया था और उसने मज़ाक -ही-मज़ाक में उसकी शादी का जिक्र कर दिया था तो वह रोने लगी थी। और घंटों रोती रही। तब उसने और माँ ने दोनों ने समझाया था और बड़ी मुश्किल से जाकर वह चुप हुई थी।

और विमला ने लिखा है, “जी जाने कैसा कैसा होता है। मन करता है कहीं भाग जाऊँ ? पर कहाँ ? कुछ भी समझ में नहीं आता। इस स्थिति से छुटकारे का कुछ उपाय तुम्हीं बता दो ना !”

फिर 'तुम' ! सत्यव्रत ने सोचा, 'बिन माँ की लड़कियाँ कितनी जल्दी जवान और कितनी अधिक स्वच्छन्द हो जाती हैं। इनकी तो सोलहवें वर्ष में पाँव रखते ही शादी कर देनी चाहिए।'

चौधरी नत्थूसिंह के मकान के बाहरी हिस्से में हुई बातें अक्सर उसकी कोठरी में सुनाई पड़ती हैं। और जब वह कोठरी का बाहरी दरवाज़ा खोल देता है तब तो बिलकुल साफ़ सुनाई पड़ती हैं। मगर उसने कभी उन लोगों को विमला के विवाह के बारे में बातें करते नहीं सुना ।

जब चौधरी नत्थूसिंह के बड़े लड़के ने अपनी दुकान, पास के चौराहे पर पोस्ट ऑफिसवाले मकान में खोलने की इच्छा प्रकट की थी तो चौधरी नत्थूसिंह और उसकी माँ ने उस डॉक्टर लड़के का कड़ा विरोध किया था। चौधरी साहब का इरादा उस मकान को फिर से किराए पर उठा देने का था। पर लड़का अपनी पत्नी को लेकर उसमें चला जाना चाहता था। उसका कहना था कि पोस्ट ऑफिस बदल जाने के बाद अब कौन उसे इतने अच्छे किराए पर लेगा ? मगर चौधरी साहब का ख़्याल था कि चीज़ खाली होती है तो काम भी आ ही जाती है, आखिर लाला हरीचन्द के घेर में हॉस्टल बन ही गया। परन्तु लड़का नहीं मान रहा था । उसका विचार था - यह जगह जरा एक तरफ़ पड़ती है। और मरीज यहाँ आने की बजाय नसरुल्ला हकीम के यहाँ चले जाते हैं जो शहर के बीचोबीच पड़ता है। फिर हॉस्टल के लड़कों का तो कोई फ़ायदा हुआ नहीं। कमबख़्त बीमार ही नहीं पड़ते। इस बात पर चौधरी नत्थूसिंह भी कुछ दुखी प्रतीत हुए कि हॉस्टल खुलने से उनके लड़के की प्रैक्टिस पर जो अनुकूल प्रभाव पड़ना चहिए था वह नहीं पड़ा । अगर उन्हें पहले से यह बात मालूम होती तो वह भला अपने-आप अपने घर के बराबर में हॉस्टल खोलने की बात सुझाते ? जिसके घर में जवान लड़की हो वह भला ऐसा पड़ोस बसाएगा !

सत्यव्रत ने ये सारी बातें अनायास सुन ली थीं और उसे एक झटका सा लगा था।

उस दिन सत्यव्रत को पहली बार चौधरी साहब के हॉस्टल-सम्बन्धी विचार मालूम हुए। कितना हीन स्वार्थ है इनका उसने सोचा और उस दिन पहली बार उसने चौधरी साहब के मुँह से विमला के जवान होने की बात सुनी, वरना वह तो उसे दूधपीती बच्ची ही समझते थे ।

उस रात देर तक चौधरी साहब के घर बहस होती रही थी । विमला को छोड़कर सबने डॉक्टर के घर बदलने का विरोध किया था, पर कोई नतीजा नहीं निकला। वह अगले दिन ही अपनी पत्नी को लेकर उस मकान में चला गया और . यहाँ रह गए चौधरी साहब, उनकी बूढ़ी माँ और विमला। उस दिन से विमला और

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कोने पर लगाते हुए पूछा।

सत्यव्रत चौंक उठा। उससे झूठ नहीं बोला गया, “तुम्हारे वस्त्रों के विषय में सोच रहा था। "

" आपको यह पहनावा पसन्द नहीं होगा ?” विमला ने गहरी उत्सुकता से पूछा।

“नहीं तो ।” सत्यव्रत ने उत्तर दिया, “मेरे और साथियों को इस परिधान के सम्बन्ध में अवश्य आपत्ति रही है, किन्तु मैं तो वस्त्रों को व्यक्तित्व का अविभाज्य अंग मानता हूँ। जो वस्त्र व्यक्तित्व की शोभा बढ़ाए उसे ही अच्छा समझता हूँ।”

"अच्छा, मैं आपको कैसी लगती हूँ इन कपड़ों में !” विमला ने लजाते हुए भी पूछ ही लिया।

सत्यव्रत बगलें झाँकने लगा। झूठ बोलने का उसे अभ्यास नहीं, सत्य कहकर वह विमला को और निकट नहीं खींचना चाहता था। इतना सामीप्य ही उसके संयम को भारी पड़ रहा है। बोला, “किताबें निकालो !”

विमला उदास हो गई । नारी अपने सौन्दर्य के विषय में पुरुष की उदासीनता बरदाश्त नहीं कर पाती । बुझी सी आवाज़ में बोली, “मैं जानती हूँ मैं आपको अच्छी नहीं लगती। लेकिन मैंने तो कपड़ों के बारे में पूछा था।"

सत्यव्रत ने विमला की आँखों में छलछलाता हुआ जल और उसकी वाणी में सिसकती हुई व्यथा, दोनों को एक साथ अनुभव किया। और दया और प्रेम की भावना से अभिभूत होकर वह बोला, “तुम मुझे सदैव उल्टा समझती हो विमला ! मैंने तो पहले ही कहा कि ये कपड़े मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। इनसे व्यक्तित्व में चापल्य और उभार आ जाता है।"

विमला की आँखों का जल कपोलों पर आ गया, बोली, "कपड़े ही अच्छे लगते हैं न ! मैं ता बुरी..."

“नहीं विमला !” सत्यव्रत ने अनायास उसकी ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, “तुम ...तुम्हें कैसे बताऊँ कि तुम मुझे कितनी अच्छी लगती हो ! और अगर अच्छी न लगतीं तो...." सत्यव्रत जाने क्या कहना चाहता था और क्या कह गया ! उसकी समझ में ही नहीं आया कि वह इस पगली लड़की को कैसे सान्त्वना दे ।

विमला ने झट उसका बढ़ा हुआ हाथ अपने हाथ में ले लिया और झर-झर अश्रू बहाते हुए उसी प्रकार बोली, “सच कह रहे हो तुम ? बोलो...मेरे सिर पर हाथ रखकर कसम खाओ। क्या मैं तुम्हें सचमुच अच्छी लगती हूँ ?”

अपने ही जाल में सत्यव्रत खुद फँस गया। हॉस्टल में लड़के समूह गान में रत थे और फ़िल्म 'जुगनू' का गाना गा रहे थे, 'वो अपनी याद दिलाने को, रूमाल

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“इतना काम दे जाते हैं बापूजी, कि मैं सारे दिन सिर खपाती रहती हूँ।” . विमला ने सिसकते हुए कहा, “मुझसे नहीं होगा इतना काम ! आप कह दीजिए इनसे ।"

चौधरी साहब ठठाकर हँस पड़े। अपनी पगली बिटिया की रोनी आदत को वे खूब जानते हैं। ज़रा-सी बात पर सुबकने लगती है। बोले, “अच्छा बेटे, हम कह देंगे। तुम चुप हो जाओ।"

विमला ने आँखें उठाकर सत्यव्रत की ओर देखा । सत्यव्रत के सिर से जैसे बहुत बड़ा बोझ उतर गया था और वह खुलकर साँस ले पा रहा था। चौधरी साहब ने सत्यव्रत की ओर मुस्कराकर देखा और बोले, “भई मास्टर साहब, ज़रा थोड़ा काम दिया करो हमारी बिटियां को। हाँ ऽऽ!"

अधिकार (अध्याय-16)

जब से म्युनिसिपल्टी के इलेक्शन की चर्चा उठी है तब से जयप्रकाश अक्सर शाम को कमरे पर नहीं मिलता और न स्टेशन की ओर ही जाता है। आज भी सत्यव्रत उसे सब जगह ढूँढ़ने के बाद उसके कमरे पर चला आया और उसे वहाँ न पाकर बरामदे में पड़ी खाट पर लेटकर उसका इन्तज़ार करने लगा। दशहरे की छुट्टियाँ परसों से शुरू होनेवाली हैं और अभी तक पिछले दो महीनों का वेतन नहीं मिला । सत्यव्रत इस बारे में बहुत चिन्तित है। दशहरे पर उसे पैसों की सख्त जरूरत पड़ेगी, बहुत-सा सामान ख़रीदना है। वेतन नहीं मिला तो यह सब कैसे होगा ? पता नहीं ये लोग इतनी देर क्यों लगाते हैं ? जब वेतन देना ही ठहरा तो दे - दिलाकर अलग करें।

बरामदे में तीन खाटें पड़ी थीं। कोने में रखी लालटेन की बत्ती बहुत धीमी थी और उसकी रोशनी उसकी अपनी शिनाख्त भर को काफ़ी नहीं थी। शायद सफ़िया जलाकर रख गया हो। वह जयप्रकाश का बिना पैसे का नौकर है।

सत्यव्रत सोचता रहा। रोशनी आदमी को कितना बल देती है कि उस एकान्त में भी सत्यव्रत को ज़रा अकेलापन महसूस नहीं हुआ...शायद इसलिए भी वह उस वक़्त अपने वेतन और अपनी आवश्यकताओं के बारे में सोच रहा था। वह जयप्रकाश से बातें करके यह निश्चयपूर्वक जान लेना चाहता था कि छुट्टियों से पहले वेतन मिलेगा अथवा नहीं। और नहीं, तो फिर कब मिलेगा ?

सत्यव्रत एकदम चित, एक पाँव के घुटने पर दूसरे पाँव का पंजा रखे उस मुद्रा में लेटा था जिसमें कृष्ण भगवान् को बाण लगा था और वे परलोक सिधार गए थे। वह सोच रहा था कि वेतन न मिलने की सूचना पर उसने उस दिन ध्यान क्यों नहीं दिया था....

उस दिन... जब वह विमला को पढ़ाकर या रुलाकर आया था तो बार-बार वही सुबकता हुआ लाल सुर्ख चेहरा, फड़फड़ाते हुए अधर और नासिका-पुट और आँसुओं के पानी में झलमल करती हुई दो मछली-सी आँखें उसके सामने आ जाती थीं। और उन्हें भूल जाने और उनसे बचने के लिए वह कहाँ-कहाँ नहीं गया था !... रेलवे प्लेटफार्म की बेंच पर पास के दरख्तों से बंगुलों की ऐसी कोलाहल - भरी दर्दनाक आवाजें आईं कि वह एक मौन हाहाकार-सा अपने ही भीतर अनुभव करने लगा था..और खंडहरोंवाली गढ़ी की तरफ़ तो आसमान का रंग ऐसा सुर्ख था जैसे किसी ने किसी का खून कर दिया हो। ऐसी गज़ब की उदासी कि न कोई पत्ता हिलता था न पंछी चहकता था । और वह भूल नहीं पाता था कि वह विमला को रुलाकर लौटा है। एक प्रश्न-सूचक दृष्टि, एक करुण प्रसंग और भावात्मक उत्तेजना उस पर अन्त तक छाई रही। यहाँ तक कि राजपुरा के 'ब्यूटी स्पॉट', छोटे तालाब के किनारे पहुँचकर भी वह रम नहीं सका। कुछ दिन पहले की आँधी में जो खजूरें उखड़ गई थीं, उनकी जड़ें अभी भी ज़मीन में थीं। तालाब एकदम सूना था और पीले-से पानी से लबालब भरा था। एक उखड़ी हुई-सी खजूर के तने पर बैठकर सत्यव्रत अपने और विमला के अनपेक्षित सामीप्य की विडम्बना पर विचार करने लगा कि तालाब के जाने कौन-से किनारे चिहुँककर एक छोटा-सा पक्षी उड़ा और कातर कराह की 'चाँय चाँय' ध्वनि में एक करुण-सी गोल रेखा खींचता हुआ उसके शीश पर मँडराने लगा और सोए हुए जल में जैसे कोई बड़ा सा पत्थर उठाकर फेंक दे वैसे ही अन्तर में समूचा सिहर गया था सत्यव्रत । और यह मानकर कि इस क़स्बे में सकून और शान्ति पा सकने लायक़ कोई जगह नहीं, वह जयप्रकाश के कमरे पर चला आया था।

उस दिन भी यही वक्त था। आज की तरह बरामदे में तीन खाटें पड़ी थीं। एक पर जयप्रकाश बैठा था और दूसरी पर उत्तमचन्द । तीसरी पर सत्यव्रत बैठ गया था। हाँ, लालटेन का यह कोने में बिखरता हुआ मरियल-सा प्रकाश उस दिन कुछ ज़्यादा मुखर था और जयप्रकाश के बराबरवाले स्टूल पर से आ रहा था।

उत्तमचन्द को वहाँ देखकर सत्यव्रत को आश्चर्य से भी अधिक प्रसन्नता हुई थी। उसने सोचा था कि चलो जितनी विरक्ति से अलग हुए थे, उतने ही प्यार से फिर मिले हैं। उत्तमचन्द और जयप्रकाश अक्सर बातें करते-करते देर तक चुप हो जाते थे, जैसे कहीं खो जाते हों। सत्यव्रत खुद भी खोया हुआ था। अभिवादन की औपचारिकता के बाद उसने इन लोगों की बातों में 'हाँ हूँ' तक की रुचि न ली । चुपचाप खाट पर लेटा रहा और विमला के ही मनस्ताप के विषय में सोचता रहा। सिर्फ़ बीच में उसका ध्यान तब टूटा जब जयप्रकाश ने आवेश में कहा, "हक़ के लिए लड़ना पड़ता है मास्टर साहब! अगर माँगने से हक़ मिलते तो संसार में इतना रक्तपात और आए-दिन के झगड़े क्यों होते ?” सत्यव्रत की आँखें तुरन्त खुल गई। उसने देखा, जयप्रकाश के हवा में उठे हुए दाएँ हाथ की पाँचों उँगलियों की परछाइयाँ सामने बैठे हुए उत्तमचन्द के सिर के पीछे थमले पर खड़ी हो गई हैं। जयप्रकाश ने ही आगे कहा था, “प्रिंसिपलशिप तो बड़ी चीज़ है, आप देखिएगा कि हॉस्टल के लड़कों को अपना बनाया हुआ अच्छा और सस्ता खाना खाने के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। और हमें उसका साथ देना होगा।"

“मगर मैं किसका सिर फोड़ दूँ ?” मास्टर उत्तमचन्द ने बेबसी से मुस्कराकर कहा, “जब तक यह पता न चले कि किससे लड़ना है, कैसे लड़ना है, तो क्या किया जा सकता है ?"

बाहर अँधेरा काफ़ी फैल गया था और पड़ोस के घर से औरतों की ऊँची आवाज़ें काँसे के बर्तनों की तरह खनखनाती हुई आ रही थीं। उत्तमचन्द अँधेरे में खोए थे और जयप्रकाश उन आवाज़ों में- “ सीधी लड़ाई अब कहाँ रह गई है मास्टर साहब? अब तो छिप छिपकर चोटें की जाती हैं।”

अपनी खाट उत्तमचन्द की खाट के पास खिसकाकर जयप्रकाश धीरे से बोला, "आप सिर्फ़ एक काम करेंगे ?"

"बोलिए।"

“नहीं, पहले वचन दीजिए।" जयप्रकाश ने आग्रहपूर्वक दृढ़ स्वर में कहा ।

उत्तमचन्द एक क्षण के लिए ठिठक गए थे। अब तक छोटे-छोटे मन-मुटावों ने कितनी गाँठें डाल दी हैं मन में कौन जाने वैर का कौन-सा बिरवा कब विश्वास की छाँव में सिर उठाकर खड़ा हो जाए !

असमंजस को भाँपकर जयप्रकाश बोला, “देखिए मास्टर साहब जरा-सा विश्वास आपने बिना माँगे दिया और पूरा विश्वास मैं खुद माँग रहा हूँ ।"

“मैंने मना कब किया !” उत्तमचन्द ने अविश्वास के आवरण को सहसा एक तरफ़ हटा दिया।

" तो मास्टर साहब, पहले आपको वे छोटे-छोटे दायरे तोड़ने होंगे जो आपके और मेरे विरोध में आप से आप बन गए थे।"

“ दायरे !” उत्तमचन्द इस बात पर थोड़ा खुलकर हँसे थे, “बस, ये ही वचन माँग रहे थे ? इतनी-सी बात !"

“यह इतनी-सी बात नहीं है मास्टर साहब! मैं इसे बहुत अहमियत देता हूँ । और मेरे कार्य करने की जो पद्धति है उसमें बिना परस्पर पूर्ण विश्वास के एक क़दम भी नहीं चला जा सकता। अगर हम चाहते हैं कि हमारी तनख़्वाहें वक़्त से मिलें, हमारे कार्यों में अनुचित हस्तक्षेप न हो और शिक्षा के नाम पर हम अपने और छात्रों के शोषण से बचे रहें तो यह जरूरी है कि आप प्रिंसिपल हों और सारे

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से जो अनजान समझौता किया, अब उसे वह भी विचारों का दमन प्रतीत हो रहा है। आत्माभिव्यक्ति पर अंकुश - ऐसा अंकुश जो आत्मा को कायर बनाता है । इसीलिए वह जयप्रकाश से सब-कुछ कहकर हल्का हो जाना चाहता था।

आधी से भी अधिक रात बीत गई थी। दूर ढोलक पर गाए जानेवाले आल्हा के अन्तिम बोल उभरकर वातावरण की ख़ामोशी में तैरते हुए डूब गए थे। विवश होकर सत्यव्रत को लौटना पड़ा।

और सत्यव्रत 'अच्छा जी' कहकर चला आया।

(यह रचना अभी अधूरी है)

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