छिपा हुआ मैं (तुर्की कहानी) : मुराथान मुंगन

Chhipa Hua Main (Turkish Story in Hindi) : Murathan Mungan

ये रही तसवीर।

ये उस दिन खींची गई थी जिस दिन मेरे पिता दयार-ए-बकर के जेल से बाहर आए थे। सैकड़ों लोगों का काफिला उससे पहले ही कजल टीपी के दरवाजे पर मौजूद था और मेरे पिता के बाहर निकलने का रास्ता बंद कर दिया था। पहले की तरह उनको ढोल ताशों की आवाज के साथ लोगों के कंधों पर उठा लिया गया। हम एक बहुत बड़े जुलूस के दरम्यान मारदिन में दाखिल हुए। जिस दौरान वो जेल में थे, मेरी माँ और मैं रोजाना दयार-ए-बकर से आते और जाते रहते थे। इस मौसम की खौफनाक गर्मी में रोजाना इस सड़क पर आना और जाना कष्ट से कम ना था।

उनके स्वागत करने वालों के दरम्यान आधी पतलून, बू टाई और सफारी हैट पहने हुए मैं इस हुजूम में अलग से नजर आ रहा हूँ। जैसे कोई पर्यटक बच्चा, विदेशी। जाहिर है कि मेरे सारे कपड़े अँकरा से आए थे। एक और तसवीर में, मैं अपने पिता का हाथ थामे हुए हूँ। मेरे पिता सफेद मलमल का सूट पहने हुए हैं और बारीक घास की बनी हुई हल्की हैट ओढ़े हुए हैं। उनके सर के बाल साफ किए हुए हैं। गर्मी बहुत ज्यादा है।

फिर हम घर आ जाते हैं। मेरे पिता के सहपंथी काफिले को पत्रकारों की एक टोली ने घेर लिया है जो सड़क के रुख पर खुलने वाले बड़े कमरे में भर जाते हैं, कैमरे के फ्लैश चमके, प्रश्न पूछे जा रहे हैं, वो मेरे पिता के प्रतीक्षक हैं कि इस अवसर पर भाषण दें। सबको मालूम है कि जब उन पर इल्जाम लगाया गया कि उन्होंने मारदिन की घटनाओं को कर्मनिष्ठ किया तो उस समय बिस्तर में लेटे हुए थे, गुर्दे के प्रचंड दर्द से पीड़ित थे और अपने पाँव पर खड़े भी नहीं हो सकते थे। दरअसल, मुझे ये भी याद है कि उस दिन उनकी इस कदर तबीयत खराब थी कि वो हमारे साथ दारुल आज़फ़्रा भी नहीं जा सकते थे जहाँ हम एक शामी त्यौहार मनाने के लिए जा रहे थे। इसके बाद घुड़सवार फौजी आए और उन्हें जबरदस्ती हमारे घर से ले गए। मैं ये कभी नहीं भूल सका। मैं ये कभी नहीं भुला सका कि किस तरह अन्याय के बूट हमारे घर में घुस आए, उसे और मेरे बचपन को रौंदते हुए गुजर गए!

महीनों बाद मेरे पिता को रिहा कर दिया गया। मैं उनसे दुबारा मिलने की खुशी में और पत्रकारों की भीड़ को देखकर फूला नहीं समा रहा। मैं हमेशा की तरह उनके बराबर खड़ा होना चाहता हूँ ताकि उनके साथ मौजूद रहूँ जिस क्षण कैमरे का फ्लैश चमके, उनके साथ तसवीरों में नजर आऊँ। बाद में जाहिर है कि मुझे वहाँ से भी हटा दिया गया। मेरे पिताजी के दोस्तों और साथियों को विदा किया गया, हम सबको बाहर भेज दिया गया और वो वहीं रह गए कि सवालों और पत्रकारों का सामना कर सकें। मैं बोझिल मन से वहाँ से चला आया। इस तसवीर में मेरे पिता की आराम-कुर्सी के साथ वाला शीशे का दरवाजा, मेरे कमरे का दरवाजा है। इस बड़े कमरे में खुलने वाले दरवाजे के साथ एक और दरवाजा है जो मेरी अम्मा की खाबगाह वाले हिस्से में खुलता है। मैं पीछे से घूमता हुआ आता हूँ और अपने कमरे के दूसरे दरवाजे से प्रवेश करता हूँ और इस तसवीर में मौजूद काँच के दरवाजे के पीछे आ जाता हूँ। नहीं, मैं इतना ढीठ नहीं कि अब वहाँ अपनी शक्ल दिखाऊँ। मुझमें इतनी बुद्धि है कि यह अनुमान लगा लूँ कि यह बहुत घटिया बात होगी और मुझमें इतनी तमीज थी कि ऐसी हरकत नहीं कर सकता था। मुझे मालूम है कि ये सारे लोग मेरे पिता के लिए इकट्ठे हुए हैं, मेरे लिए नहीं। इसके दूसरी ओर, मैं अपनी हार स्वीकार नहीं कर सकता। मैं कुछ ऐसा करना चाहता हूँ कि मेरी उपस्थिति का भी एहसास हो जाए। आखिरकार मैं अपनी स्कूल की कॉपी से सफेद कागज निकाल कर फाड़ लेता हूँ कि ये मेरे ''मैं'' को जाहिर कर सके और उसे शीशे के दरवाजे पर टाँग देता हूँ, जिससे सारे पत्रकार हैरान होने लगते हैं। वो उसकी तसवीर खींच लेते हैं।

प्रत्येक चित्र में सफेद कागज का यह खाली पृष्ठ, मेरे पिता के बराबर काँच के दरवाजे पर नजर आता है। मेरा छिपा हुआ मैं।

मैं वहाँ हूँ। अपने पिता के साथ।

बचाव के इस पल में जिसके दौरान मैं अपने आपको कागज के एक पृष्ठ की शरण में दे देता हूँ, यह संभव है कि मैं अपने आगामी जीवन का संकेत देख लूँ।

शायद कई वर्षों से सफेद कागज के इस खाली पृष्ठ पर लिखे जा रहा हूँ ताकि मुझे देख लिया जाए...

प्रत्येक रचना के पूरा हो जाने के बाद फिर खाली, सफेद कागज बन जाता हूँ, अपने ''मैं'' और इस लेखन के बहुत सारे ''मैं'' के बीच संबंध के बारे में जो कुछ मुझे कहना है, उसे बढ़ा देता हूँ। इस पुस्तक में, मैं इस मामले से पूरी तरह निपट नहीं सका, मैंने आगामी पुस्तकों और आलेखों के लिए उन्हें गुणा लिया है, जिंदगी बड़ी समृद्ध है और लोग आश्चर्यजनक और यहाँ मैं एक ऐसी जिंदगी के ''मैं'' का वर्णन कर रहा हूँ जो अभी खत्म नहीं हुई।

मैं इस पन्ने में कई वर्षों से अपने आपको तलाश कर रहा हूँ। जब से सफेद कागज का वो खाली पृष्ठ शीशे के दरवाजे पर लटकाया गया था, मैं कितने पृष्ठों पर सामने आया हूँ और गायब हो गया हूँ?

(अनुवाद : ख़ालिद फ़रहाद धारीवाल)

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